भागसूचना
चतुर्विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नकुल और कर्णका घोर युद्ध तथा कर्णके द्वारा नकुलकी पराजय और पांचाल-सेनाका संहार
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलं रभसं युद्धे द्रावयन्तं वरूथिनीम्।
कर्णो वैकर्तनो राजन् वारयामास वै रुषा ॥ १ ॥
मूलम्
नकुलं रभसं युद्धे द्रावयन्तं वरूथिनीम्।
कर्णो वैकर्तनो राजन् वारयामास वै रुषा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! युद्धस्थलमें कौरव-सेनाको खदेड़ते हुए वेगशाली वीर नकुलको वैकर्तन कर्णने रोषपूर्वक रोका॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलस्तु ततः कर्णं प्रहसन्निदमब्रवीत्।
चिरस्य बत दृष्टोऽहं दैवतैः सौम्यचक्षुषा ॥ २ ॥
पश्य मां त्वं रणे पाप चक्षुर्विषयमागतम्।
त्वं हि मूलमनर्थानां वैरस्य कलहस्य च ॥ ३ ॥
त्वद्दोषात् कुरवः क्षीणाः समासाद्य परस्परम्।
त्वामद्य समरे हत्वा कृतकृत्योऽस्मि विज्वरः ॥ ४ ॥
मूलम्
नकुलस्तु ततः कर्णं प्रहसन्निदमब्रवीत्।
चिरस्य बत दृष्टोऽहं दैवतैः सौम्यचक्षुषा ॥ २ ॥
पश्य मां त्वं रणे पाप चक्षुर्विषयमागतम्।
त्वं हि मूलमनर्थानां वैरस्य कलहस्य च ॥ ३ ॥
त्वद्दोषात् कुरवः क्षीणाः समासाद्य परस्परम्।
त्वामद्य समरे हत्वा कृतकृत्योऽस्मि विज्वरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब नकुलने कर्णसे हँसते हुए इस प्रकार कहा—‘आज दीर्घकालके पश्चात् देवताओंने मुझे सौम्य दृष्टिसे देखा है; यह बड़े हर्षकी बात है। पापी कर्ण! मैं रणभूमिमें तेरी आँखोंके सामने आ गया हूँ। तू अच्छी तरह मुझे देख ले। तू ही इन सारे अनर्थोंकी तथा वैर एवं कलहकी जड़ है। तेरे ही दोषसे कौरव आपसमें लड़-भिड़कर क्षीण हो गये। आज मैं तुझे समरभूमिमें मारकर कृतकृत्य एवं निश्चिन्त हो जाऊँगा’॥२—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः प्रत्युवाच नकुलं सूतनन्दनः।
सदृशं राजपुत्रस्य धन्विनश्च विशेषतः ॥ ५ ॥
प्रहरस्व च मे वीर पश्यामस्तव पौरुषम्।
कर्म कृत्वा रणे शूर ततः कत्थितुमर्हसि ॥ ६ ॥
मूलम्
एवमुक्तः प्रत्युवाच नकुलं सूतनन्दनः।
सदृशं राजपुत्रस्य धन्विनश्च विशेषतः ॥ ५ ॥
प्रहरस्व च मे वीर पश्यामस्तव पौरुषम्।
कर्म कृत्वा रणे शूर ततः कत्थितुमर्हसि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुलके ऐसा कहनेपर सूतनन्दन कर्णने उनसे कहा—‘वीर! तुम एक राजपुत्रके विशेषतः धनुर्धर योद्धाके योग्य कार्य करते हुए मुझपर प्रहार करो। हम तुम्हारा पुरुषार्थ देखेंगे। शूर! पहले रणभूमिमें पराक्रम प्रकट करके फिर उसके विषयमें तुम्हें बढ़-बढ़कर बातें बनानी चाहिये॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुक्त्वा समरे तात शूरा युध्यन्ति शक्तितः।
प्रयुध्यस्व मया शक्त्या हनिष्ये दर्पमेव ते ॥ ७ ॥
मूलम्
अनुक्त्वा समरे तात शूरा युध्यन्ति शक्तितः।
प्रयुध्यस्व मया शक्त्या हनिष्ये दर्पमेव ते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! शूरवीर समरांगणमें बातें न बनाकर अपनी शक्तिके अनुसार युद्ध करते हैं। तुम पूरी शक्ति लगाकर मेरे साथ युद्ध करो। मैं तुम्हारा घमंड चूर कर दूँगा’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्राहरत् तूर्णं पाण्डुपुत्राय सूतजः।
विव्याध चैनं समरे त्रिसप्तत्या शिलीमुखैः ॥ ८ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्राहरत् तूर्णं पाण्डुपुत्राय सूतजः।
विव्याध चैनं समरे त्रिसप्तत्या शिलीमुखैः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर सूतपुत्र कर्णने पाण्डुकुमार नकुलपर तुरंत ही प्रहार किया। उन्हें युद्धस्थलमें तिहत्तर बाणोंसे बींध डाला॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलस्तु ततो विद्धः सूतपुत्रेण भारत।
अशीत्याशीविषप्रख्यैः सूतपुत्रमविध्यत ॥ ९ ॥
मूलम्
नकुलस्तु ततो विद्धः सूतपुत्रेण भारत।
अशीत्याशीविषप्रख्यैः सूतपुत्रमविध्यत ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! सूतपुत्रके द्वारा घायल होकर नकुलने उसे भी विषधर सर्पोंके समान अस्सी बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य कर्णो धनुश्छित्त्वा स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
त्रिंशता परमेष्वासः शरैः पाण्डवमार्दयत् ॥ १० ॥
मूलम्
तस्य कर्णो धनुश्छित्त्वा स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
त्रिंशता परमेष्वासः शरैः पाण्डवमार्दयत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाधनुर्धर कर्णने शिलापर तेज किये हुए स्वर्णमय पंखवाले बाणोंसे नकुलके धनुषको काटकर उन्हें तीस बाणोंसे पीड़ित कर दिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तस्य कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे।
आशीविषा यथा नागा भित्त्वा गां सलिलं पपुः ॥ ११ ॥
मूलम्
ते तस्य कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे।
आशीविषा यथा नागा भित्त्वा गां सलिलं पपुः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे विषधर नाग धरती फोड़कर जल पी लेते हैं, उसी प्रकार उन बाणोंने नकुलका कवच छिन्न-भिन्न करके युद्धस्थलमें उनका रक्त पी लिया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय हेमपृष्ठं दुरासदम्।
कर्णं विव्याध सप्तत्या सारथिं च त्रिभिः शरैः ॥ १२ ॥
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय हेमपृष्ठं दुरासदम्।
कर्णं विव्याध सप्तत्या सारथिं च त्रिभिः शरैः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् नकुलने सोनेकी पीठवाला दूसरा दुर्जय धनुष हाथमें लेकर कर्णको सत्तर और उसके सारथिको तीन बाणोंसे घायल कर दिया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो महाराज नकुलः परवीरहा।
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कर्णस्य धनुराच्छिनत् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो महाराज नकुलः परवीरहा।
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कर्णस्य धनुराच्छिनत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इसके बाद शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले नकुलने कुपित होकर एक अत्यन्त तीखे क्षुरप्रसे कर्णका धनुष काट दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनं छिन्नधन्वानं सायकानां शतैस्त्रिभिः।
आजघ्ने प्रहसन् वीरः सर्वलोकमहारथम् ॥ १४ ॥
मूलम्
अथैनं छिन्नधन्वानं सायकानां शतैस्त्रिभिः।
आजघ्ने प्रहसन् वीरः सर्वलोकमहारथम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष कट जानेपर सम्पूर्ण लोकोंके विख्यात महारथी कर्णको वीर नकुलने हँसते-हँसते तीन सौ बाण मारे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णमभ्यर्दितं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रेण मारिष।
विस्मयं परमं जग्मू रथिनः सह दैवतैः ॥ १५ ॥
मूलम्
कर्णमभ्यर्दितं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रेण मारिष।
विस्मयं परमं जग्मू रथिनः सह दैवतैः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! पाण्डुपुत्र नकुलके द्वारा कर्णको इस तरह पीड़ित हुआ देख देवताओंसहित सम्पूर्ण रथियोंको महान् आश्चर्य हुआ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय कर्णो वैकर्तनस्तदा।
नकुलं पञ्चभिर्बाणैर्जत्रुदेशे समार्पयत् ॥ १६ ॥
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय कर्णो वैकर्तनस्तदा।
नकुलं पञ्चभिर्बाणैर्जत्रुदेशे समार्पयत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वैकर्तन कर्णने दूसरा धनुष लेकर नकुलके गलेकी हँसलीपर पाँच बाण मारे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रस्थैरथ तैर्बाणैर्माद्रीपुत्रो व्यरोचत ।
स्वरश्मिभिरिवादित्यो भुवने विसृजन् प्रभाम् ॥ १७ ॥
मूलम्
तत्रस्थैरथ तैर्बाणैर्माद्रीपुत्रो व्यरोचत ।
स्वरश्मिभिरिवादित्यो भुवने विसृजन् प्रभाम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ धँसे हुए उन बाणोंसे माद्रीकुमार नकुल उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे सम्पूर्ण जगत्में प्रभा बिखेरनेवाले भगवान् सूर्य अपनी किरणोंसे प्रकाशित होते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलस्तु ततः कर्णं विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः।
अथास्य धनुषः कोटिं पुनश्चिच्छेद मारिष ॥ १८ ॥
मूलम्
नकुलस्तु ततः कर्णं विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः।
अथास्य धनुषः कोटिं पुनश्चिच्छेद मारिष ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! तदनन्तर नकुलने कर्णको सात बाणोंसे घायल करके उसके धनुषका एक कोना पुनः काट डाला॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽन्यत् कार्मुकमादाय समरे वेगवत्तरम्।
नकुलस्य ततो बाणैः सर्वतोऽवारयद् दिशः ॥ १९ ॥
मूलम्
सोऽन्यत् कार्मुकमादाय समरे वेगवत्तरम्।
नकुलस्य ततो बाणैः सर्वतोऽवारयद् दिशः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कर्णने समरांगणमें दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर नकुलके चारों ओर सम्पूर्ण दिशाओंको बाणोंसे आच्छादित कर दिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संछाद्यमानः सहसा कर्णचापच्युतैः शरैः।
चिच्छेद स शरांस्तूर्णं शरैरेव महारथः ॥ २० ॥
मूलम्
संछाद्यमानः सहसा कर्णचापच्युतैः शरैः।
चिच्छेद स शरांस्तूर्णं शरैरेव महारथः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा सहसा आच्छादित होते हुए महारथी नकुलने तुरंत ही उसके बाणोंको अपने बाणोंद्वारा ही काट गिराया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बाणमयं जालं विततं व्योम्नि दृश्यते।
खद्योतानामिव व्रातैः सम्पतद्भिर्यथा नभः ॥ २१ ॥
मूलम्
ततो बाणमयं जालं विततं व्योम्नि दृश्यते।
खद्योतानामिव व्रातैः सम्पतद्भिर्यथा नभः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् आकाशमें बाणोंका जाल-सा बिछा हुआ दिखायी देने लगा, मानो वहाँ जुगनुओंके समूह उड़ रहे हों॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैर्विमुक्तैः शरशतैश्छादितं गगनं तदा।
शलभानां यथा व्रातैस्तद्वदासीद् विशाम्पते ॥ २२ ॥
मूलम्
तैर्विमुक्तैः शरशतैश्छादितं गगनं तदा।
शलभानां यथा व्रातैस्तद्वदासीद् विशाम्पते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उस समय धनुषसे छूटे हुए सौ-सौ बाणोंद्वारा आच्छादित हुआ आकाश पतंगोंके समूहसे भरा हुआ-सा प्रतीत होता था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते शरा हेमविकृताः सम्पतन्तो मुहुर्मुहुः।
श्रेणीकृता व्यकाशन्त क्रौञ्चाः श्रेणीकृता इव ॥ २३ ॥
मूलम्
ते शरा हेमविकृताः सम्पतन्तो मुहुर्मुहुः।
श्रेणीकृता व्यकाशन्त क्रौञ्चाः श्रेणीकृता इव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बारंबार गिरते हुए वे सुवर्णभूषित बाण श्रेणिवद्ध होकर ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो बहुत-से क्रौंचपक्षी एक पंक्तिमें होकर उड़ रहे हों॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणजालावृते व्योम्नि च्छादिते च दिवाकरे।
न स्म सम्पतते भूम्यां किंचिदप्यन्तरिक्षगम् ॥ २४ ॥
मूलम्
बाणजालावृते व्योम्नि च्छादिते च दिवाकरे।
न स्म सम्पतते भूम्यां किंचिदप्यन्तरिक्षगम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणोंके जालसे आकाश और सूर्यके ढक जानेपर अन्तरिक्षकी कोई भी वस्तु उस समय पृथ्वीपर नहीं गिरती थी॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरुद्धे तत्र मार्गे च शरसंघैः समन्ततः।
व्यरोचेतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ ॥ २५ ॥
मूलम्
निरुद्धे तत्र मार्गे च शरसंघैः समन्ततः।
व्यरोचेतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणोंके समूहसे वहाँ सब ओरका मार्ग अवरुद्ध हो जानेपर वे दोनों महामनस्वी वीर नकुल और कर्ण प्रलयकालमें उदित हुए दो सूर्चोंके समान प्रकाशित हो रहे थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णचापच्युतैर्बाणैर्वध्यमानास्तु सोमकाः ।
अवालीयन्त राजेन्द्र वेदनार्ता भृशार्दिताः ॥ २६ ॥
मूलम्
कर्णचापच्युतैर्बाणैर्वध्यमानास्तु सोमकाः ।
अवालीयन्त राजेन्द्र वेदनार्ता भृशार्दिताः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंकी मार खाकर सोमक-योद्धा वेदनासे कराह उठे और अत्यन्त पीड़ित हो इधर-उधर छिपने लगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलस्य तथा बाणैर्हन्यमाना चमूस्तव।
व्यशीर्यत दिशो राजन् वातनुन्ना इवाम्बुदाः ॥ २७ ॥
मूलम्
नकुलस्य तथा बाणैर्हन्यमाना चमूस्तव।
व्यशीर्यत दिशो राजन् वातनुन्ना इवाम्बुदाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! नकुलके बाणोंसे मारी जाती हुई आपकी सेना भी हवासे उड़ाये गये बादलोंके समान सम्पूर्ण दिशाओंमें बिखर गयी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सेने हन्यमाने तु ताभ्यां दिव्यैर्महाशरैः।
शरपातमपाक्रम्य तस्थतुः प्रेक्षिके तदा ॥ २८ ॥
मूलम्
ते सेने हन्यमाने तु ताभ्यां दिव्यैर्महाशरैः।
शरपातमपाक्रम्य तस्थतुः प्रेक्षिके तदा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके दिव्य महाबाणोंद्वारा आहत होती हुई दोनों सेनाएँ उस समय उनके बाणोंके गिरनेके स्थानसे दूर हटकर खड़ी हो गयीं और दर्शक बनकर तमाशा देखने लगीं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोत्सारितजने तस्मिन् कर्णपाण्डवयोः शरैः।
अविध्येतां महात्मानावन्योन्यं शरवृष्टिभिः ॥ २९ ॥
मूलम्
प्रोत्सारितजने तस्मिन् कर्णपाण्डवयोः शरैः।
अविध्येतां महात्मानावन्योन्यं शरवृष्टिभिः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण और नकुलके बाणोंद्वारा जब सब लोग वहाँसे दूर हटा दिये गये, तब वे दोनों महामनस्वी वीर अपने बाणोंकी वर्षासे एक-दूसरेको चोट पहुँचाने लगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदर्शयन्तौ दिव्यानि शस्त्राणि रणमूर्धनि।
छादयन्तौ च सहसा परस्परवधैषिणौ ॥ ३० ॥
मूलम्
विदर्शयन्तौ दिव्यानि शस्त्राणि रणमूर्धनि।
छादयन्तौ च सहसा परस्परवधैषिणौ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धके मुहानेपर वे दोनों दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंका प्रदर्शन करते हुए एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छासे सहसा बाणोंद्वारा आच्छादित करने लगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नकुलेन शरा मुक्ताः कङ्कबर्हिणवाससः।
सूतपुत्रमवच्छाद्य व्यतिष्ठन्त यथाम्बरे ॥ ३१ ॥
तथैव सूतपुत्रेण प्रेषिताः परमाहवे।
पाण्डुपुत्रमवच्छाद्य व्यतिष्ठन्ताम्बरे शराः ॥ ३२ ॥
मूलम्
नकुलेन शरा मुक्ताः कङ्कबर्हिणवाससः।
सूतपुत्रमवच्छाद्य व्यतिष्ठन्त यथाम्बरे ॥ ३१ ॥
तथैव सूतपुत्रेण प्रेषिताः परमाहवे।
पाण्डुपुत्रमवच्छाद्य व्यतिष्ठन्ताम्बरे शराः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नकुलके बाणोंमें कंक और मयूरके पंख लगे हुए थे। वे उनके धनुषसे छूटकर सूतपुत्रको आच्छादित करके जिस प्रकार आकाशमें स्थित होते थे, उसी प्रकार उस महासमरमें सूतपुत्रके चलाये हुए बाण पाण्डुकुमार नकुलको आच्छादित करके आकाशमें छा जाते थे॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरवेश्मप्रविष्टौ तौ ददृशाते न कैश्चन।
सूर्याचन्द्रमसौ राजञ्छाद्यमानौ घनैरिव ॥ ३३ ॥
मूलम्
शरवेश्मप्रविष्टौ तौ ददृशाते न कैश्चन।
सूर्याचन्द्रमसौ राजञ्छाद्यमानौ घनैरिव ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे मेघोंद्वारा ढक जानेपर सूर्य और चन्द्रमा दिखायी नहीं देते, उसी प्रकार बाणनिर्मित भवनमें प्रविष्ट हुए उन दोनों वीरोंपर किसीकी दृष्टि नहीं पड़ती थी॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो रणे कर्णः कृत्वा घोरतरं वपुः।
पाण्डवं छादयामास समन्ताच्छरवृष्टिभिः ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो रणे कर्णः कृत्वा घोरतरं वपुः।
पाण्डवं छादयामास समन्ताच्छरवृष्टिभिः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए कर्णने रणभूमिमें अत्यन्त भयंकर स्वरूप प्रकट करके चारों ओरसे बाणोंकी वर्षाद्वारा पाण्डुपुत्र नकुलको ढक दिया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽतिच्छन्नो महाराज सूतपुत्रेण पाण्डवः।
न चकार व्यथां राजन् भास्करो जलदैर्यथा ॥ ३५ ॥
मूलम्
सोऽतिच्छन्नो महाराज सूतपुत्रेण पाण्डवः।
न चकार व्यथां राजन् भास्करो जलदैर्यथा ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! सूतपुत्रके द्वारा अत्यन्त आच्छन्न कर दिये जानेपर भी बादलोंसे ढके हुए सूर्यके समान नकुलने अपने मनमें तनिक भी व्यथाका अनुभव नहीं किया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रहस्याधिरथिः शरजालानि मारिष।
प्रेषयामास समरे शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३६ ॥
मूलम्
ततः प्रहस्याधिरथिः शरजालानि मारिष।
प्रेषयामास समरे शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! तत्पश्चात् सूतपुत्रने बड़े जोरसे हँसकर पुनः समरांगणमें बाणोंके जाल बिछा दिये। उसने सैकड़ों और हजारों बाण चलाये॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकच्छायमभूत् सर्वं तस्य बाणैर्महात्मनः।
अभ्रच्छायेव संजज्ञे सम्पतद्भिः शरोत्तमैः ॥ ३७ ॥
मूलम्
एकच्छायमभूत् सर्वं तस्य बाणैर्महात्मनः।
अभ्रच्छायेव संजज्ञे सम्पतद्भिः शरोत्तमैः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महामनस्वी वीरके गिरते हुए उत्तम बाणोंसे घिर जानेके कारण वहाँ सब कुछ एकमात्र अन्धकारमें निमग्न हो गया। ठीक उसी तरह जैसे बादलोंकी घोर घटा घिर आनेपर सब ओर अँधेरा छा जाता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कर्णो महाराज धनुश्छित्त्वा महात्मनः।
सारथिं पातयामास रथनीडाद्धसन्निव ॥ ३८ ॥
मूलम्
ततः कर्णो महाराज धनुश्छित्त्वा महात्मनः।
सारथिं पातयामास रथनीडाद्धसन्निव ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर हँसते हुए-से कर्णने महामना नकुलका धनुष काटकर उनके सारथिको रथकी बैठकसे मार गिराया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽश्वांश्चतुरश्चास्य चतुर्भिर्निशितैः शरैः ।
यमस्य भवनं तूर्णं प्रेषयामास भारत ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततोऽश्वांश्चतुरश्चास्य चतुर्भिर्निशितैः शरैः ।
यमस्य भवनं तूर्णं प्रेषयामास भारत ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! फिर चार तीखे बाणोंसे उनके चारों घोड़ोंको भी तुरंत ही यमराजके घर भेज दिया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथास्य तं रथं दिव्यं तिलशो व्यधमच्छरैः।
पताकां चक्ररक्षांश्च गदां खड्गं च मारिष ॥ ४० ॥
शतचन्द्रं च तच्चर्म सर्वोपकरणानि च।
मूलम्
अथास्य तं रथं दिव्यं तिलशो व्यधमच्छरैः।
पताकां चक्ररक्षांश्च गदां खड्गं च मारिष ॥ ४० ॥
शतचन्द्रं च तच्चर्म सर्वोपकरणानि च।
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! इसके बाद उसने अपने बाणोंद्वारा नकुलके उस दिव्य रथको तिल-तिल करके काट दिया और पताका, चक्ररक्षकों, गदा एवं खड्गको भी छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही सौ चन्द्राकार चिह्नोंसे सुशोभित उनकी ढाल तथा अन्य सब उपकरणोंको भी उसने नष्ट कर दिया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हताश्वो विरथश्चैव विवर्मा च विशाम्पते ॥ ४१ ॥
अवतीर्य रथात्तूर्णं परिघं गृह्य धिष्ठितः।
मूलम्
हताश्वो विरथश्चैव विवर्मा च विशाम्पते ॥ ४१ ॥
अवतीर्य रथात्तूर्णं परिघं गृह्य धिष्ठितः।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापालक नरेश! घोड़े, रथ और कवचके नष्ट हो जानेपर नकुल तुरंत उस रथसे उतरकर हाथमें परिघ लिये खड़े हो गये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुद्यतं महाघोरं परिघं तस्य सूतजः ॥ ४२ ॥
व्यहनत् सायकै राजन् सुतीक्ष्णैर्भारसाधनैः।
मूलम्
तमुद्यतं महाघोरं परिघं तस्य सूतजः ॥ ४२ ॥
व्यहनत् सायकै राजन् सुतीक्ष्णैर्भारसाधनैः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उनके उठे हुए उस महाभयंकर परिघको सूतपुत्रने अत्यन्त तीखे तथा दुष्कर कार्यको सिद्ध करनेवाले बाणोंद्वारा काट डाला॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यायुधं चैनमालक्ष्य शरैः संनतपर्वभिः ॥ ४३ ॥
आर्पयद् बहुभिः कर्णो न चैनं समपीडयत्।
मूलम्
व्यायुधं चैनमालक्ष्य शरैः संनतपर्वभिः ॥ ४३ ॥
आर्पयद् बहुभिः कर्णो न चैनं समपीडयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें अस्त्र-शस्त्रोंसे हीन देखकर कर्णने झुकी हुई गाँठवाले बहुसंख्यक बाणोंद्वारा और भी घायल कर दिया; परंतु उन्हें घातक पीड़ा नहीं दी॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हन्यमानः समरे कृतास्त्रेण बलीयसा ॥ ४४ ॥
प्राद्रवत् सहसा राजन् नकुलो व्याकुलेन्द्रियः।
मूलम्
स हन्यमानः समरे कृतास्त्रेण बलीयसा ॥ ४४ ॥
प्राद्रवत् सहसा राजन् नकुलो व्याकुलेन्द्रियः।
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त बलवान् तथा अस्त्रविद्याके विद्वान् कर्णके द्वारा समरांगणमें आहत हो सहसा नकुल भाग चले। उस समय उनकी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभिद्रुत्य राधेयः प्रहसन् वै पुनः पुनः ॥ ४५ ॥
सज्यमस्य धनुः कण्ठे व्यवासृजत भारत।
मूलम्
तमभिद्रुत्य राधेयः प्रहसन् वै पुनः पुनः ॥ ४५ ॥
सज्यमस्य धनुः कण्ठे व्यवासृजत भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! राधापुत्र कर्णने बारंबार हँसते हुए उनका पीछा करके उनके गलेमें प्रत्यंचासहित अपना धनुष डाल दिया॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स शुशुभे राजन् कण्ठासक्तमहाधनुः ॥ ४६ ॥
परिवेषमनुप्राप्तो यथा स्याद् व्योम्नि चन्द्रमाः।
यथैव चासितो मेघः शक्रचापेन शोभितः ॥ ४७ ॥
मूलम्
ततः स शुशुभे राजन् कण्ठासक्तमहाधनुः ॥ ४६ ॥
परिवेषमनुप्राप्तो यथा स्याद् व्योम्नि चन्द्रमाः।
यथैव चासितो मेघः शक्रचापेन शोभितः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कण्ठमें पड़े हुए उस महाधनुषसे युक्त नकुल ऐसी शोभा पाने लगे, मानो आकाशमें चन्द्रमापर घेरा पड़ गया हो अथवा कोई श्याम मेघ इन्द्रधनुषसे सुशोभित हो रहा हो॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीत्ततः कर्णो व्यर्थं व्याहृतवानसि।
वदेदानीं पुनर्हृष्टो वध्यमानः पुनः पुनः ॥ ४८ ॥
मा योत्सीः कुरुभिः सार्धं बलवद्भिश्च पाण्डव।
सदृशैस्तात युध्यस्व व्रीडां मा कुरु पाण्डव ॥ ४९ ॥
गृहं वा गच्छ माद्रेय यत्र वा कृष्णफाल्गुनौ।
एवमुक्त्वा महाराज व्यसर्जयत तं तदा ॥ ५० ॥
मूलम्
तमब्रवीत्ततः कर्णो व्यर्थं व्याहृतवानसि।
वदेदानीं पुनर्हृष्टो वध्यमानः पुनः पुनः ॥ ४८ ॥
मा योत्सीः कुरुभिः सार्धं बलवद्भिश्च पाण्डव।
सदृशैस्तात युध्यस्व व्रीडां मा कुरु पाण्डव ॥ ४९ ॥
गृहं वा गच्छ माद्रेय यत्र वा कृष्णफाल्गुनौ।
एवमुक्त्वा महाराज व्यसर्जयत तं तदा ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कर्णने नकुलसे कहा—‘पाण्डुकुमार! तुमने व्यर्थ ही बढ़-चढ़कर बातें बनायी थीं। अब इस समय बारंबार मेरे बाणोंकी मार खाकर पुनः उसी हर्षके साथ तुम वैसी ही बातें करो तो सही। बलवान् कौरव-योद्धाओंके साथ आजसे युद्ध न करना। तात! जो तुम्हारे समान हों, उन्हींके साथ युद्ध किया करो। माद्रीकुमार! लज्जित न होओ। इच्छा हो तो घर चले जाओ अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हों, वहीं भाग जाओ।’ महाराज! ऐसा कहकर उस समय कर्णने नकुलको छोड़ दिया॥४८—५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधप्राप्तं तु तं शूरो नाहनद् धर्मवित्तदा।
स्मृत्वा कुन्त्या वचो राजंस्तत एनं व्यसर्जयत् ॥ ५१ ॥
मूलम्
वधप्राप्तं तु तं शूरो नाहनद् धर्मवित्तदा।
स्मृत्वा कुन्त्या वचो राजंस्तत एनं व्यसर्जयत् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यद्यपि नकुल वधके योग्य अवस्थामें आ पहुँचे थे, तो भी कुन्तीको दिये हुए वचनको याद करके धर्मज्ञ वीर कर्णने उस समय उन्हें मारा नहीं, जीवित छोड़ दिया॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसृष्टः पाण्डवो राजन् सूतपुत्रेण धन्विना।
व्रीडन्निव जगामाथ युधिष्ठिररथं प्रति ॥ ५२ ॥
मूलम्
विसृष्टः पाण्डवो राजन् सूतपुत्रेण धन्विना।
व्रीडन्निव जगामाथ युधिष्ठिररथं प्रति ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! धनुर्धर सूतपुत्रके छोड़ देनेपर पाण्डुकुमार नकुल लजाते हुए-से वहाँसे युधिष्ठिरके रथके पास चले गये॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरुरोह रथं चापि सूतपुत्रप्रतापितः।
निःश्वसन् दुःखसंतप्तः कुम्भस्थ इव पन्नगः ॥ ५३ ॥
मूलम्
आरुरोह रथं चापि सूतपुत्रप्रतापितः।
निःश्वसन् दुःखसंतप्तः कुम्भस्थ इव पन्नगः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्रके द्वारा सताये हुए नकुल दुःखसे संतप्त हो घड़ेमें बंद किये हुए सर्पके समान दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए युधिष्ठिरके रथपर चढ़ गये॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विजित्याथ कर्णोऽपि पञ्चालांस्त्वरितो ययौ।
रथेनातिपताकेन चन्द्रवर्णहयेन च ॥ ५४ ॥
मूलम्
तं विजित्याथ कर्णोऽपि पञ्चालांस्त्वरितो ययौ।
रथेनातिपताकेन चन्द्रवर्णहयेन च ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार नकुलको पराजित करके कर्ण भी चन्द्रमाके समान श्वेत रंगवाले घोड़ों और ऊँची पताकाओंसे युक्त रथके द्वारा तुरंत ही पांचालोंकी ओर चला गया॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राक्रन्दो महानासीत् पाण्डवानां विशाम्पते।
दृष्ट्वा सेनापतिं यान्तं पञ्चालानां रथव्रजान् ॥ ५५ ॥
मूलम्
तत्राक्रन्दो महानासीत् पाण्डवानां विशाम्पते।
दृष्ट्वा सेनापतिं यान्तं पञ्चालानां रथव्रजान् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! कौरव-सेनापति कर्णको पांचाल रथियोंकी ओर जाते देख पाण्डव-सैनिकोंमें महान् कोलाहल मच गया॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राकरोन्महाराज कदनं सूतनन्दनः ।
मध्यं प्राप्ते दिनकरे चक्रवद् विचरन् प्रभुः ॥ ५६ ॥
मूलम्
तत्राकरोन्महाराज कदनं सूतनन्दनः ।
मध्यं प्राप्ते दिनकरे चक्रवद् विचरन् प्रभुः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! दोपहर होते-होते शक्तिशाली सूतनन्दन कर्णने चक्रके समान चारों ओर विचरण करते हुए वहाँ पाण्डव-सैनिकोंका महान् संहार मचा दिया॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भग्नचक्रै रथैः कांश्चिच्छिन्नध्वजपताकिभिः ।
हताश्वैर्हतसूतैश्च भग्नाक्षैश्चैव मारिष ॥ ५७ ॥
ह्रियमाणानपश्याम पञ्चालानां रथव्रजान् ।
मूलम्
भग्नचक्रै रथैः कांश्चिच्छिन्नध्वजपताकिभिः ।
हताश्वैर्हतसूतैश्च भग्नाक्षैश्चैव मारिष ॥ ५७ ॥
ह्रियमाणानपश्याम पञ्चालानां रथव्रजान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! उस समय हमलोगोंने कितने ही रथियोंको ऐसी अवस्थामें देखा कि उनके रथके पहिये टूट गये हैं, ध्वजा, पताकाएँ छिन्न-भिन्न हो गयी हैं, घोड़े और सारथि मारे गये हैं और उन रथोंके धुरे भी खण्डित हो गये हैं। उस अवस्थामें समूह-के-समूह पांचाल महारथी हमें भागते दिखायी दिये॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तत्र च सम्भ्रान्ता विचेरुर्मत्तकुञ्जराः ॥ ५८ ॥
दावाग्निपरिदग्धाङ्गा यथैव स्युर्महावने ।
मूलम्
तत्र तत्र च सम्भ्रान्ता विचेरुर्मत्तकुञ्जराः ॥ ५८ ॥
दावाग्निपरिदग्धाङ्गा यथैव स्युर्महावने ।
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से मतवाले हाथी वहाँ बड़ी घबराहटमें पड़कर इधर-उधर चक्कर काट रहे थे, मानो किसी बड़े भारी जंगलमें दावानलसे उनके सारे अंग झुलस गये हों॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिन्नकुम्भार्द्ररुधिराश्छिन्नहस्ताश्च वारणाः ॥ ५९ ॥
छिन्नगात्रावराश्चैव च्छिन्नवालधयोऽपरे ।
छिन्नाभ्राणीव सम्पेतुर्हन्यमाना महात्मना ॥ ६० ॥
मूलम्
भिन्नकुम्भार्द्ररुधिराश्छिन्नहस्ताश्च वारणाः ॥ ५९ ॥
छिन्नगात्रावराश्चैव च्छिन्नवालधयोऽपरे ।
छिन्नाभ्राणीव सम्पेतुर्हन्यमाना महात्मना ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही हाथियोंके कुम्भस्थल फट गये थे और वे खूनसे भींग गये थे। कितनोंकी सूँड़ें कट गयी थीं, कितनोंके कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे, बहुतोंकी पूँछें कट गयी थीं और कितने ही हाथी महामना कर्णकी मार खाकर खण्डित हुए मेघोंके समान पृथ्वीपर गिर गये थे॥५९-६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे त्रासिता नागा नाराचशरतोमरैः।
तमेवाभिमुखं जग्मुः शलभा इव पावकम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
अपरे त्रासिता नागा नाराचशरतोमरैः।
तमेवाभिमुखं जग्मुः शलभा इव पावकम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे बहुत-से गजराज कर्णके नाराचों, शरों और तोमरोंसे संत्रस्त हो जैसे पतंगे आगमें कूद पड़ते हैं, उसी प्रकार कर्णके सम्मुख चले जाते थे॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे निष्टनन्तश्च व्यदृश्यन्त महाद्विपाः।
क्षरन्तः शोणितं गात्रैर्नगा इव जलस्रवाः ॥ ६२ ॥
मूलम्
अपरे निष्टनन्तश्च व्यदृश्यन्त महाद्विपाः।
क्षरन्तः शोणितं गात्रैर्नगा इव जलस्रवाः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्य बहुत-से बड़े-बड़े हाथी झरने बहानेवाले पर्वतोंके समान अपने अंगोंसे रक्तकी धारा बहाते और आर्तनाद करते दिखायी देते थे॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उरश्छदैर्वियुक्तांश्च वालबन्धैश्च वाजिनः ।
राजतैश्च तथा कांस्यैः सौवर्णैश्चैव भूषणैः ॥ ६३ ॥
हीनांश्चाभरणैश्चैव खलीनैश्च विवर्जितान् ।
चामरैश्च कुथाभिश्च तूणीरैः पतितैरपि ॥ ६४ ॥
निहतैः सादिभिश्चैव शूरैराहवशोभितैः ।
अपश्याम रणे तत्र भ्राम्यमाणान् हयोत्तमान् ॥ ६५ ॥
मूलम्
उरश्छदैर्वियुक्तांश्च वालबन्धैश्च वाजिनः ।
राजतैश्च तथा कांस्यैः सौवर्णैश्चैव भूषणैः ॥ ६३ ॥
हीनांश्चाभरणैश्चैव खलीनैश्च विवर्जितान् ।
चामरैश्च कुथाभिश्च तूणीरैः पतितैरपि ॥ ६४ ॥
निहतैः सादिभिश्चैव शूरैराहवशोभितैः ।
अपश्याम रणे तत्र भ्राम्यमाणान् हयोत्तमान् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही घोड़ोंके उनकी छातीको छिपानेवाले कवच कटकर गिर गये थे, बालाबन्ध छिन्न-भिन्न हो गये थे, सोने, चाँदी और कांस्यके आभूषण नष्ट हो गये थे, दूसरे साज-बाज भी चौपट हो गये थे, उनके मुखोंसे लगाम भी निकल गये थे, चँवर, झूल और तरकस धराशायी हो गये थे तथा संग्रामभूमिमें शोभा पानेवाले उनके शूरवीर सवार भी मारे जा चुके थे। ऐसी दशामें रणभूमिमें भ्रान्त होकर भटकते हुए बहुत-से उत्तम घोड़ोंको हमने देखा था॥६३—६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासैः खड्गैश्च रहितानृष्टिभिश्चापि भारत।
हयसादीनपश्याम कञ्चुकोष्णीषधारिणः ॥ ६६ ॥
निहतान् वध्यमानांश्च वेपमानांश्च भारत।
नानाङ्गावयवैर्हीनांस्तत्र तत्रैव भारत ॥ ६७ ॥
मूलम्
प्रासैः खड्गैश्च रहितानृष्टिभिश्चापि भारत।
हयसादीनपश्याम कञ्चुकोष्णीषधारिणः ॥ ६६ ॥
निहतान् वध्यमानांश्च वेपमानांश्च भारत।
नानाङ्गावयवैर्हीनांस्तत्र तत्रैव भारत ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कवच और पगड़ी धारण करनेवाले कितने ही घुड़सवारोंको हमने प्रास, खड्ग और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे रहित होकर मारा गया देखा। कितने ही कर्णके बाणोंकी मार खाते हुए थरथर काँप रहे थे और बहुत-से अपने शरीरके विभिन्न अवयवोंसे रहित हो यत्र-तत्र मरे पड़े थे॥६६-६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथान् हेमपरिष्कारान् संयुक्ताञ्जवनैर्हयैः ।
भ्राम्यमाणानपश्याम हतेषु रथिषु द्रुतम् ॥ ६८ ॥
मूलम्
रथान् हेमपरिष्कारान् संयुक्ताञ्जवनैर्हयैः ।
भ्राम्यमाणानपश्याम हतेषु रथिषु द्रुतम् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेगशाली घोड़ोंसे जुते हुए कितने ही सुवर्णभूषित रथ सारथि और रथियोंके मारे जानेसे वेगपूर्वक दौड़ते दिखायी देते थे॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भग्नाक्षकूबरान् कांश्चिद् भग्नचक्रांश्च भारत।
विपताकध्वजांश्चान्याञ्छिन्नेषादण्डबन्धुरान् ॥ ६९ ॥
मूलम्
भग्नाक्षकूबरान् कांश्चिद् भग्नचक्रांश्च भारत।
विपताकध्वजांश्चान्याञ्छिन्नेषादण्डबन्धुरान् ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! कितने ही रथोंके धुरे और कूबर टूट गये थे, पहिये टूक-टूक हो गये थे, पताका और ध्वज खण्डित हो गये थे तथा ईषादण्ड और बन्धुरोंके टुकड़े-टुकड़े हो गये थे॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विहतान् रथिनस्तत्र धावमानांस्ततस्ततः ।
सूतपुत्रशरैस्तीक्ष्णैर्हन्यमानान् विशाम्पते ॥ ७० ॥
विशस्त्रांश्च तथैवान्यान् सशस्त्रांश्च हतान् बहून्।
मूलम्
विहतान् रथिनस्तत्र धावमानांस्ततस्ततः ।
सूतपुत्रशरैस्तीक्ष्णैर्हन्यमानान् विशाम्पते ॥ ७० ॥
विशस्त्रांश्च तथैवान्यान् सशस्त्रांश्च हतान् बहून्।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! सूतपुत्रके तीखे बाणोंसे हताहत होकर बहुतेरे रथी वहाँ इधर-उधर भागते देखे गये। कितने ही रथी शस्त्रहीन होकर तथा दूसरे बहुत-से सशस्त्र रहकर ही मारे गये थे॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारकाजालसंछन्नान् वरघण्टाविशोभितान् ॥ ७१ ॥
नानावर्णविचित्राभिः पताकाभिरलंकृतान् ।
वारणाननुपश्याम धावमानान् समन्ततः ॥ ७२ ॥
मूलम्
तारकाजालसंछन्नान् वरघण्टाविशोभितान् ॥ ७१ ॥
नानावर्णविचित्राभिः पताकाभिरलंकृतान् ।
वारणाननुपश्याम धावमानान् समन्ततः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नक्षत्रसमूहोंके चिह्नवाले कवचोंसे आच्छादित, उत्तम घंटोंसे सुशोभित तथा अनेक रंगकी विचित्र ध्वजा-पताकाओंसे अलंकृत हाथियोंको हमने चारों ओर भागते देखा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरांसि बाहूनूरूंश्च च्छिन्नानन्यंस्तथैव च।
कर्णचापच्युतैर्बाणैरपश्याम समन्ततः ॥ ७३ ॥
मूलम्
शिरांसि बाहूनूरूंश्च च्छिन्नानन्यंस्तथैव च।
कर्णचापच्युतैर्बाणैरपश्याम समन्ततः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने यह भी देखा कि कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा योद्धाओंके मस्तक, भुजाएँ और जाँघें कट-कटकर चारों ओर गिर रही हैं॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महान् व्यतिकरो रौद्रो योधानामन्वपद्यत।
कर्णसायकनुन्नानां युध्यतां च शितैः शरैः ॥ ७४ ॥
मूलम्
महान् व्यतिकरो रौद्रो योधानामन्वपद्यत।
कर्णसायकनुन्नानां युध्यतां च शितैः शरैः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके बाणोंसे आहत हो तीखे बाणोंसे युद्ध करते हुए योद्धाओंमें वहाँ अत्यन्त भयंकर और महान् संग्राम मच गया था॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमानाः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः।
तमेवाभिमुखं यान्ति पतङ्गा इव पावकम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
ते वध्यमानाः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः।
तमेवाभिमुखं यान्ति पतङ्गा इव पावकम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें सृंजयोंपर कर्णके बाणोंकी मार पड़ रही थी, तो भी पतंगे जैसे अग्निपर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार वे कर्णके ही सम्मुख बढ़ते जा रहे थे॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दहन्तमनीकानि तत्र तत्र महारथम्।
क्षत्रिया वर्जयामासुर्युगान्ताग्निमिवोल्बणम् ॥ ७६ ॥
मूलम्
तं दहन्तमनीकानि तत्र तत्र महारथम्।
क्षत्रिया वर्जयामासुर्युगान्ताग्निमिवोल्बणम् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी कर्ण प्रलयकालके प्रचण्ड अग्निके समान जहाँ-तहाँ पाण्डव-सेनाओंको दग्ध कर रहा था। उस समय क्षत्रिय लोग उसे छोड़कर दूर हट जाते थे॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतशेषास्तु ये वीराः पञ्चालानां महारथाः।
तान् प्रभग्नान् द्रुतान् वीरः पृष्ठतो विकिरञ्छरैः ॥ ७७ ॥
अभ्यधावत तेजस्वी विशीर्णकवचध्वजान् ।
तापयामास तान् बाणैः सूतपुत्रो महाबलः।
मध्यंदिनमनुप्राप्तो भूतानीव तमोनुदः ॥ ७८ ॥
मूलम्
हतशेषास्तु ये वीराः पञ्चालानां महारथाः।
तान् प्रभग्नान् द्रुतान् वीरः पृष्ठतो विकिरञ्छरैः ॥ ७७ ॥
अभ्यधावत तेजस्वी विशीर्णकवचध्वजान् ।
तापयामास तान् बाणैः सूतपुत्रो महाबलः।
मध्यंदिनमनुप्राप्तो भूतानीव तमोनुदः ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालोंके जो वीर महारथी मरनेसे बच गये थे, उन्हें भागते देख तेजस्वी वीर कर्ण पीछेसे उनपर बाणोंकी वर्षा करता हुआ उनकी ओर दौड़ा। उन योद्धाओंके कवच और ध्वज छिन्न-भिन्न हो गये थे। जैसे मध्याह्नकालका सूर्य सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनी किरणोंद्वारा तपाता है, उसी प्रकार महाबली सूतपुत्र अपने बाणोंसे उन शत्रुसैनिकोंको संतप्त करने लगा॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णयुद्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें कर्णका युद्धविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२४॥