०१८

भागसूचना

अष्टादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनके द्वारा हाथियोंसहित दण्डधार और दण्ड आदिका वध तथा उनकी सेनाका पलायन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोत्तरेण पाण्डूनां सेनायां ध्वनिरुत्थितः।
रथनागाश्वपत्तीनां दण्डधारेण वध्यताम् ॥ १ ॥

मूलम्

अथोत्तरेण पाण्डूनां सेनायां ध्वनिरुत्थितः।
रथनागाश्वपत्तीनां दण्डधारेण वध्यताम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर पाण्डव-सेनाके उत्तर भागमें दण्डधारके द्वारा मारे जाते हुए रथी, हाथी, घोड़े और पैदलोंका आर्तनाद गूँज उठा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्तयित्वा तु रथं केशवोऽर्जुनमब्रवीत्।
वाहयन्नेव तुरगान् गरुडानिलरंहसः ॥ २ ॥

मूलम्

निवर्तयित्वा तु रथं केशवोऽर्जुनमब्रवीत्।
वाहयन्नेव तुरगान् गरुडानिलरंहसः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान् श्रीकृष्णने अपना रथ लौटाकर गरुड़ और वायुके समान वेगवाले घोड़ोंको हाँकते हुए ही अर्जुनसे कहा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मागधोऽप्यतिविक्रान्तो द्विरदेन प्रमाथिना ।
भगदत्तादनवरः शिक्षया च बलेन च ॥ ३ ॥

मूलम्

मागधोऽप्यतिविक्रान्तो द्विरदेन प्रमाथिना ।
भगदत्तादनवरः शिक्षया च बलेन च ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! यह मगधनिवासी दण्डधार भी बड़ा पराक्रमी है। इसके पास शत्रुओंको मथ डालने-वाला गजराज है। इसे युद्धकी उत्तम शिक्षा मिली है तथा यह बलवान् भी है, इन सब विशेषताओंके कारण यह पराक्रममें भगदत्तसे तनिक भी कम नहीं है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एनं हत्वा निहन्तासि पुनः संशप्तकानिति।
वाक्यान्ते प्रापयत् पार्थं दण्डधारान्तिकं प्रति ॥ ४ ॥

मूलम्

एनं हत्वा निहन्तासि पुनः संशप्तकानिति।
वाक्यान्ते प्रापयत् पार्थं दण्डधारान्तिकं प्रति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः पहले इसका वध करके तुम पुनः संशप्तकोंका संहार करना।’ इतना कहते-कहते श्रीकृष्णने अर्जुनको दण्डधारके निकट पहुँचा दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मागधानां प्रवरोऽङ्‌कुशग्रहे
ग्रहेऽप्रसह्यो विकचो यथा ग्रहः।
सपत्नसेनां प्रममाथ दारुणो
महीं समग्रां विकचो यथा ग्रहः ॥ ५ ॥

मूलम्

स मागधानां प्रवरोऽङ्‌कुशग्रहे
ग्रहेऽप्रसह्यो विकचो यथा ग्रहः।
सपत्नसेनां प्रममाथ दारुणो
महीं समग्रां विकचो यथा ग्रहः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मागध वीरोंमें सर्वश्रेष्ठ दण्डधार अंकुश धारण करके हाथीद्वारा युद्ध करनेमें अपना सानी नहीं रखते थे। जैसे ग्रहोंमें केतुग्रहका वेग असह्य होता है, उसी प्रकार उनका आक्रमण भी शत्रुओंके लिये असहनीय था। जैसे धूमकेतु नामक उत्पातग्रह सम्पूर्ण भूमण्डलके लिये अनिष्टकारक होता है, उसी प्रकार उस भयंकर वीरने वहाँ शत्रुओंकी सम्पूर्ण सेनाको मथ डाला॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकल्पितं दानवनागसंनिभं
महाभ्रनिर्ह्रादममित्रमर्दनम् ।
रथाश्वमातङ्गगणान् सहस्रशः
समास्थितो हन्ति शरैर्नरानपि ॥ ६ ॥

मूलम्

सुकल्पितं दानवनागसंनिभं
महाभ्रनिर्ह्रादममित्रमर्दनम् ।
रथाश्वमातङ्गगणान् सहस्रशः
समास्थितो हन्ति शरैर्नरानपि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका हाथी खूब सजाया गया था, वह गजासुरके समान बलशाली, महामेघके समान गर्जना करनेवाला तथा शत्रुओंको रौंद डालनेवाला था। उसपर आरूढ़ होकर दण्डधार अपने बाणोंसे सहस्रों रथों, घोड़ों, मतवाले हाथियों और पैदल मनुष्योंका भी संहार करने लगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथानधिष्ठाय सवाजिसारथीन्
नरांश्च पादैर्द्विरदो व्यपोथयत् ।
द्विपांश्च पद्भ्यां ममृदे करेण
द्विपोत्तमो हन्ति च कालचक्रवत् ॥ ७ ॥

मूलम्

रथानधिष्ठाय सवाजिसारथीन्
नरांश्च पादैर्द्विरदो व्यपोथयत् ।
द्विपांश्च पद्भ्यां ममृदे करेण
द्विपोत्तमो हन्ति च कालचक्रवत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका वह हाथी रथोंपर पैर रखकर सारथि और घोड़ोंसहित उन्हें चूर-चूर कर डालता था। पैदल मनुष्योंको भी पैरोंसे ही कुचल डालता था। हाथियोंको भी दोनों पैरों तथा सूँड़से मसल देता था। इस प्रकार वह गजराज कालचक्रके समान शत्रु-सेनाका संहार करने लगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरांस्तु कार्ष्णायसवर्मभूषणान्
निपात्य साश्वानपि पत्तिभिः सह।
व्यपोथयद् दन्तिवरेण शुष्मिणा
स शब्दवत् स्थूलनलं यथा तथा ॥ ८ ॥

मूलम्

नरांस्तु कार्ष्णायसवर्मभूषणान्
निपात्य साश्वानपि पत्तिभिः सह।
व्यपोथयद् दन्तिवरेण शुष्मिणा
स शब्दवत् स्थूलनलं यथा तथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने बलवान् एवं श्रेष्ठ गजराजके द्वारा लोहेके कवच तथा उत्तम आभूषण धारण करनेवाले घुड़सवारोंको घोड़ों और पैदलोंसहित पृथ्वीपर गिराकर कुचलवा देते थे। उस समय जैसे मोटे नरकुलोंके कुचले जाते समय ‘चर-चर’ की आवाज होती है, उसी प्रकार उन सैनिकोंके कुचले जानेपर भी होती थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथार्जुनो ज्यातलनेमिनिःस्वने
मृदङ्गभेरीबहुशङ्खनादिते ।
रथाश्वमातङ्गसहस्रसंकुले
रथोत्तमेनाभ्यपतद् द्विपोत्तमम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अथार्जुनो ज्यातलनेमिनिःस्वने
मृदङ्गभेरीबहुशङ्खनादिते ।
रथाश्वमातङ्गसहस्रसंकुले
रथोत्तमेनाभ्यपतद् द्विपोत्तमम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जहाँ धनुषकी टंकार और पहियोंकी घर्घराहटका शब्द गूँज रहा था, मृदंग, भेरी और बहुसंख्यक शंखोंकी ध्वनि हो रही थी तथा जहाँ रथ, घोड़े और हाथी सहस्रोंकी संख्यामें भरे हुए थे, उस समरांगणमें पूर्वोक्त गजराजके समीप अर्जुन अपने उत्तम रथके द्वारा जा पहुँचे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनं द्वादशभिः शरोत्तमै-
र्जनार्दनं षोडशभिः समार्पयत् ।
स दण्डधारस्तुरगांस्त्रिभिस्त्रिभि-
स्ततो ननाद प्रजहास चासकृत् ॥ १० ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनं द्वादशभिः शरोत्तमै-
र्जनार्दनं षोडशभिः समार्पयत् ।
स दण्डधारस्तुरगांस्त्रिभिस्त्रिभि-
स्ततो ननाद प्रजहास चासकृत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दण्डधारने अर्जुनको बारह और भगवान् श्रीकृष्णको सोलह उत्तम बाण मारे। फिर तीन-तीन बाणोंसे उनके घोड़ोंको घायल करके वे बारंबार गर्जने और अट्टहास करने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्य पार्थः सगुणेषुकार्मुकं
चकर्त भल्लैर्ध्वजमप्यलंकृतम् ।
पुनर्नियन्तॄन् सह पादगोप्तॄं-
स्ततः स चुक्रोध गिरिव्रजेश्वरः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततोऽस्य पार्थः सगुणेषुकार्मुकं
चकर्त भल्लैर्ध्वजमप्यलंकृतम् ।
पुनर्नियन्तॄन् सह पादगोप्तॄं-
स्ततः स चुक्रोध गिरिव्रजेश्वरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अर्जुनने अपने भल्लोंद्वारा प्रत्यंचा और बाणोंसहित दण्डधारके धनुष तथा सजे-सजाये ध्वजको भी काट गिराया। फिर हाथीके महावतों तथा पादरक्षकोंको भी मार डाला। इससे गिरिव्रजके स्वामी दण्डधार अत्यन्त कुपित हो उठे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनं भिन्नकटेन दन्तिना
घनाघनेनानिलतुल्यवर्चसा ।
अतीव चुक्षोभयिषुर्जनार्दनं
धनंजयं चाभिजघान तोमरैः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनं भिन्नकटेन दन्तिना
घनाघनेनानिलतुल्यवर्चसा ।
अतीव चुक्षोभयिषुर्जनार्दनं
धनंजयं चाभिजघान तोमरैः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने गण्डस्थलसे मदकी धारा बहानेवाले, वायुके समान वेगशाली, मदोन्मत्त गजराजके द्वारा अर्जुन और श्रीकृष्णको अत्यन्त घबराहटमें डालनेकी इच्छासे उसे उन दोनोंकी ओर बढ़ाया और तोमरोंसे उन दोनोंपर प्रहार किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथास्य बाहू द्विपहस्तसंनिभौ
शिरश्च पूर्णेन्दुनिभाननं त्रिभिः ।
क्षुरैः प्रचिच्छेद सहैव पाण्डव-
स्ततो द्विपं बाणशतैः समार्पयत् ॥ १३ ॥

मूलम्

अथास्य बाहू द्विपहस्तसंनिभौ
शिरश्च पूर्णेन्दुनिभाननं त्रिभिः ।
क्षुरैः प्रचिच्छेद सहैव पाण्डव-
स्ततो द्विपं बाणशतैः समार्पयत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने हाथीकी सूँड़के समान मोटी दण्डधारकी दोनों भुजाओं तथा पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाले उनके मस्तकको भी तीन छुरोंसे एक साथ ही काट डाला। फिर उन्होंने उनके हाथको सौ बाण मारे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पार्थबाणैस्तपनीयभूषणैः
समाचितः काञ्चनवर्मभृद् द्विपः ।
तथा चकाशे निशि पर्वतो यथा
दावाग्निना प्रज्वलितौषधिद्रुमः ॥ १४ ॥

मूलम्

स पार्थबाणैस्तपनीयभूषणैः
समाचितः काञ्चनवर्मभृद् द्विपः ।
तथा चकाशे निशि पर्वतो यथा
दावाग्निना प्रज्वलितौषधिद्रुमः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके सारे शरीरमें अर्जुनके सुवर्णभूषित बाण चुभ गये थे। इससे सुवर्णमय कवच धारण करनेवाला वह हाथी उसी प्रकार शोभा पाने लगा, जैसे रात्रिमें दावानलसे जलती हुई ओषधियों और वृक्षोंसे युक्त पर्वत प्रकाशित होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वेदनार्तोऽम्बुदनिस्वनो नदं-
श्चरन् भ्रमन् प्रस्खलितान्तरोऽद्रवत् ।
पपात रुग्णः सनियन्तृकस्तथा
यथा गिरिर्वज्रविदारितस्तथा ॥ १५ ॥

मूलम्

स वेदनार्तोऽम्बुदनिस्वनो नदं-
श्चरन् भ्रमन् प्रस्खलितान्तरोऽद्रवत् ।
पपात रुग्णः सनियन्तृकस्तथा
यथा गिरिर्वज्रविदारितस्तथा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह हाथी वेदनासे पीड़ित हो मेघके समान गर्जना करता, सब ओर विचरता, घूमता और बीच-बीचमें लड़खड़ाता हुआ भागने लगा। अधिक घायल हो जानेके कारण वह महावतोंके साथ ही पृथ्वीपर गिर पड़ा; मानो वज्रद्वारा विदीर्ण किया हुआ पर्वत धराशायी हो गया हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिमावदातेन सुवर्णमालिना
हिमाद्रिकूटप्रतिमेन दन्तिना ।
हते रणे भ्रातरि दण्ड आव्रज-
ज्जिघांसुरिन्द्रावरजं धनंजयम् ॥ १६ ॥

मूलम्

हिमावदातेन सुवर्णमालिना
हिमाद्रिकूटप्रतिमेन दन्तिना ।
हते रणे भ्रातरि दण्ड आव्रज-
ज्जिघांसुरिन्द्रावरजं धनंजयम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें अपने भाई दण्डधारके मारे जानेपर दण्ड श्रीकृष्ण और अर्जुनका वध करनेकी इच्छासे बर्फके समान सफेद, सुवर्णमालाधारी तथा हिमालयके शिखरके समान विशालकाय गजराजके द्वारा वहाँ आ पहुँचा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तोमरैरर्ककरप्रभैस्त्रिभि-
र्जनार्दनं पञ्चभिरर्जुनं शितैः ।
समर्पयित्वा विननाद नर्दयं-
स्ततोऽस्य बाहू निचकर्त पाण्डवः ॥ १७ ॥

मूलम्

स तोमरैरर्ककरप्रभैस्त्रिभि-
र्जनार्दनं पञ्चभिरर्जुनं शितैः ।
समर्पयित्वा विननाद नर्दयं-
स्ततोऽस्य बाहू निचकर्त पाण्डवः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाशित होनेवाले तीन तीखे तोमरोंसे श्रीकृष्णको और पाँचसे अर्जुनको घायल करके बड़े जोरसे गर्जना की। इतनेहीमें पाण्डुपुत्र अर्जुनने उसकी दोनों बाँहें काट डालीं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुरप्रकृत्तौ सुभृशं सतोमरौ
शुभाङ्गदौ चन्दनरूषितौ भुजौ ।
गजात् पतन्तौ युगपद् विरेजतु-
र्यथाद्रिशृङ्गाद् रुचिरौ महोरगौ ॥ १८ ॥

मूलम्

क्षुरप्रकृत्तौ सुभृशं सतोमरौ
शुभाङ्गदौ चन्दनरूषितौ भुजौ ।
गजात् पतन्तौ युगपद् विरेजतु-
र्यथाद्रिशृङ्गाद् रुचिरौ महोरगौ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षुरसे कटी हुई, सुन्दर बाजूबन्दसे विभूषित, चन्दनचर्चित तथा तोमरसहित वे विशाल भुजाएँ हाथीसे एक साथ गिरते समय पर्वतके शिखरसे गिरनेवाले दो सुन्दर एवं बड़े-बड़े सर्पोंके समान विभूषित हुईं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथार्धचन्द्रेण हतं किरीटिना
पपात दण्डस्य शिरः क्षितिं द्विपात्।
तच्छोणितार्द्रं निपतद् विरेजे
दिवाकरोऽस्तादिव पश्चिमां दिशम् ॥ १९ ॥

मूलम्

तथार्धचन्द्रेण हतं किरीटिना
पपात दण्डस्य शिरः क्षितिं द्विपात्।
तच्छोणितार्द्रं निपतद् विरेजे
दिवाकरोऽस्तादिव पश्चिमां दिशम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् किरीटधारी अर्जुनके चलाये हुए अर्धचन्द्रसे कटकर दण्डका मस्तक हाथीसे पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय खूनसे लथपथ हो गिरता हुआ वह मस्तक अस्ताचलसे पश्चिम दिशाकी ओर डूबते हुए सूर्यके समान शोभायमान हुआ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ द्विपं श्वेतवराभ्रसंनिभं
दिवाकरांशुप्रतिमैः शरोत्तमैः ।
बिभेद पार्थः स पपात नादयन्
हिमाद्रिकूटं कुलिशाहतं यथा ॥ २० ॥

मूलम्

अथ द्विपं श्वेतवराभ्रसंनिभं
दिवाकरांशुप्रतिमैः शरोत्तमैः ।
बिभेद पार्थः स पपात नादयन्
हिमाद्रिकूटं कुलिशाहतं यथा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद अर्जुनने श्वेत महामेघके समान सफेद रंगवाले उस हाथीको सूर्यकी किरणोंके सदृश तेजस्वी उत्तम बाणोंद्वारा विदीर्ण कर डाला। फिर तो वह वज्रके मारे हुए हिमालयके शिखरके समान धमाकेकी आवाजके साथ धराशायी हो गया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपरे तत्प्रतिमा गजोत्तमा
जिगीषवः संयति सव्यसाचिना ।
तथा कृतास्ते च यथैव तौ द्विपौ
ततः प्रभग्नं सुमहद्रिपोर्बलम् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततोऽपरे तत्प्रतिमा गजोत्तमा
जिगीषवः संयति सव्यसाचिना ।
तथा कृतास्ते च यथैव तौ द्विपौ
ततः प्रभग्नं सुमहद्रिपोर्बलम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उसीके समान जो दूसरे-दूसरे गजराज विजयकी इच्छासे युद्धके लिये आगे बढ़े, उन सबकी सव्यसाची अर्जुनने वैसी ही दशा कर डाली, जैसी कि पूर्वोक्त दोनों हाथियोंकी कर दी थी। इससे शत्रुकी उस विशाल सेनामें भगदड़ मच गयी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजा रथाश्वाः पुरुषाश्च संघशः
परस्परघ्नाः परिपेतुराहवे ।
परस्परं प्रस्खलिताः समाहिता
भृशं निपेतुर्बहुभाषिणो हताः ॥ २२ ॥

मूलम्

गजा रथाश्वाः पुरुषाश्च संघशः
परस्परघ्नाः परिपेतुराहवे ।
परस्परं प्रस्खलिताः समाहिता
भृशं निपेतुर्बहुभाषिणो हताः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

झुंड-के-झुंड हाथी, रथ, घोड़े और पैदल मनुष्य परस्पर आघात-प्रत्याघात करते हुए युद्धस्थलमें चारों ओरसे टूट पड़े थे। वे आपसमें एक-दूसरेकी चोटसे अत्यन्त घायल हो लड़खड़ाते और बहुत बकझक करते हुए मरकर गिर जाते थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथार्जुनं स्वे परिवार्य सैनिकाः
पुरन्दरं देवगणा इवाब्रुवन् ।
अभैष्म यस्मान्मरणादिव प्रजाः
स वीर दिष्ट्या निहतस्त्वया रिपुः ॥ २३ ॥

मूलम्

अथार्जुनं स्वे परिवार्य सैनिकाः
पुरन्दरं देवगणा इवाब्रुवन् ।
अभैष्म यस्मान्मरणादिव प्रजाः
स वीर दिष्ट्या निहतस्त्वया रिपुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद इन्द्रको घेरकर खड़े हुए देवताओंके समान अपनी ही सेनाके लोग अर्जुनको घेरकर इस प्रकार बोले—‘वीर! जैसे प्रजा मौतसे डरती है, उसी प्रकार हमलोग जिससे भयभीत हो रहे थे, उस शत्रुको आपने मार डाला; यह बड़े सौभाग्यकी बात है!॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेदरक्षिष्य इमं जनं भयाद्
द्विषद्भिरेवं बलिभिः प्रपीडितम् ।
तथा भविष्यद् विषतां प्रमोदनं
यथा हतेष्वेष्विह नोऽरिसूदन ॥ २४ ॥

मूलम्

न चेदरक्षिष्य इमं जनं भयाद्
द्विषद्भिरेवं बलिभिः प्रपीडितम् ।
तथा भविष्यद् विषतां प्रमोदनं
यथा हतेष्वेष्विह नोऽरिसूदन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन! यदि आप बलवान् शत्रुओंसे इस प्रकार पीड़ित हुए इन स्वजनोंकी भयसे रक्षा नहीं करते तो इन शत्रुओंको वैसी ही प्रसन्नता होती, जैसी इस समय इनके मारे जानेपर यहाँ हमलोगोंको हो रही है’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीव भूयश्च सुहृद्भिरीरिता
निशम्य वाचः सुमनास्ततोऽर्जुनः ।
यथानुरूपं प्रतिपूज्य तं जनं
जगाम संशप्तकसंघहा पुनः ॥ २५ ॥

मूलम्

इतीव भूयश्च सुहृद्भिरीरिता
निशम्य वाचः सुमनास्ततोऽर्जुनः ।
यथानुरूपं प्रतिपूज्य तं जनं
जगाम संशप्तकसंघहा पुनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपने सुहृदोंकी कही हुई ये बातें बारंबार सुनकर अर्जुनको मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उन लोगोंका यथायोग्य आदर-सत्कार करके पुनः संशप्तकगणका वध करनेके लिये वहाँसे चल दिये॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि दण्डवधेऽष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें दण्डधार और दण्डका वधविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८॥