भागसूचना
सप्तदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाकी पराजय
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समभवद् युद्धं शुक्राङ्गिरसवर्चसोः।
नक्षत्रमभितो व्योम्नि शुक्राङ्गिरसयोरिव ॥ १ ॥
मूलम्
ततः समभवद् युद्धं शुक्राङ्गिरसवर्चसोः।
नक्षत्रमभितो व्योम्नि शुक्राङ्गिरसयोरिव ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर आकाशमें नक्षत्रमण्डलके निकट परस्पर युद्ध करनेवाले शुक्राचार्य और बृहस्पतिके समान वहाँ रणभूमिमें श्रीकृष्णके निकट शुक्र और बृहस्पतिके तुल्य तेजस्वी अश्वत्थामा और अर्जुनका युद्ध होने लगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतापयन्तावन्योन्यं दीप्तैः शरगभस्तिभिः ।
लोकत्रासकरावास्तां विमार्गस्थौ ग्रहाविव ॥ २ ॥
मूलम्
संतापयन्तावन्योन्यं दीप्तैः शरगभस्तिभिः ।
लोकत्रासकरावास्तां विमार्गस्थौ ग्रहाविव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वक्र या अतिचार गतिसे चलनेवाले दो ग्रह सम्पूर्ण जगत्के लिये त्रास उत्पन्न करनेवाले हो जाते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर अपनी बाणमयी प्रज्वलित किरणोंद्वारा एक-दूसरेको संताप देने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽविध्यद् भ्रुवोर्मध्ये नाराचेनार्जुनो भृशम्।
स तेन विबभौ द्रौणिरूर्ध्वरश्मिर्यथा रविः ॥ ३ ॥
मूलम्
ततोऽविध्यद् भ्रुवोर्मध्ये नाराचेनार्जुनो भृशम्।
स तेन विबभौ द्रौणिरूर्ध्वरश्मिर्यथा रविः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अर्जुनने एक नाराचसे अश्वत्थामाकी दोनों भौंहोंके मध्यभागमें गहरा आघात पहुँचाया। ललाटमें धँसे हुए उस बाणसे अश्वत्थामा ऊपरकी ओर उठी हुई किरणोंवाले सूर्यके समान सुशोभित होने लगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कृष्णौ शरशतैरश्वत्थाम्नार्दितौ भृशम्।
स्वरश्मिजालविकचौ युगान्तार्काविवासतुः ॥ ४ ॥
मूलम्
अथ कृष्णौ शरशतैरश्वत्थाम्नार्दितौ भृशम्।
स्वरश्मिजालविकचौ युगान्तार्काविवासतुः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद अश्वत्थामाने भी श्रीकृष्ण और अर्जुनको अपने सैकड़ों बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी। उस समय वे दोनों अपनी किरणोंका प्रसार करनेवाले प्रलयकालके दो सूर्योंके समान प्रतीत होते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनः सर्वतोधारमस्त्र-
मवासृजद् वासुदेवेऽभिभूते ।
द्रौणायनिं चाभ्यहनत् पृषत्कै-
र्वज्राग्निवैवस्वतदण्डकल्यैः ॥ ५ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनः सर्वतोधारमस्त्र-
मवासृजद् वासुदेवेऽभिभूते ।
द्रौणायनिं चाभ्यहनत् पृषत्कै-
र्वज्राग्निवैवस्वतदण्डकल्यैः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके घायल होनेपर अर्जुनने एक ऐसे अस्त्रका प्रयोग किया, जिसकी धार सब ओर थी। उन्होंने वज्र, अग्नि और यमदण्डके समान अमोघ, दाहक और प्राणहारी बाणोंद्वारा द्रोणकुमार अश्वत्थामाको घायल कर दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स केशवं चार्जुनं चातितेजा
विव्याध मर्मस्वतिरौद्रकर्मा ।
बाणैः सुयुक्तैरतितीव्रवेगै-
र्यैराहतो मृत्युरपि व्यथेत ॥ ६ ॥
मूलम्
स केशवं चार्जुनं चातितेजा
विव्याध मर्मस्वतिरौद्रकर्मा ।
बाणैः सुयुक्तैरतितीव्रवेगै-
र्यैराहतो मृत्युरपि व्यथेत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर अत्यन्त भयंकर कर्म करनेवाले महातेजस्वी अश्वत्थामाने भी अच्छी तरह छोड़े हुए अत्यन्त तीव्र वेगवाले बाणोंद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनके मर्मस्थानोंमें आघात किया। वे बाण ऐसे थे जिनकी चोट खाकर मौतको भी व्यथा हो सकती थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणेरिषूनर्जुनः संनिवार्य
व्यायच्छतस्तद्द्विगुणैः सुपुङ्खैः ।
तं साश्वसूतध्वजमेकवीर-
मावृत्य संशप्तकसैन्यमार्च्छत् ॥ ७ ॥
मूलम्
द्रौणेरिषूनर्जुनः संनिवार्य
व्यायच्छतस्तद्द्विगुणैः सुपुङ्खैः ।
तं साश्वसूतध्वजमेकवीर-
मावृत्य संशप्तकसैन्यमार्च्छत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने परिश्रमपूर्वक बाण चलानेवाले द्रोणकुमारके उन बाणोंका सुन्दर पंखवाले उनसे दुगुने बाणोंद्वारा निवारण करके घोड़े, सारथि और ध्वजसहित उस एक वीरको आच्छादित कर दिया। फिर वे संशप्तकसेनाकी ओर चल दिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनूंषि बाणानिषुधीर्धनुर्ज्याः
पाणीन् भुजान् पाणिगतं च शस्त्रम्।
छत्राणि केतूंस्तुरगान् रथेषां
वस्त्राणि माल्यान्यथ भूषणानि ॥ ८ ॥
चर्माणि वर्माणि मनोरमाणि
प्रियाणि सर्वाणि शिरांसि चैव।
चिच्छेद पार्थो द्विषतां सुयुक्तै-
र्बाणैः स्थितानामपराङ्मुखानाम् ॥ ९ ॥
मूलम्
धनूंषि बाणानिषुधीर्धनुर्ज्याः
पाणीन् भुजान् पाणिगतं च शस्त्रम्।
छत्राणि केतूंस्तुरगान् रथेषां
वस्त्राणि माल्यान्यथ भूषणानि ॥ ८ ॥
चर्माणि वर्माणि मनोरमाणि
प्रियाणि सर्वाणि शिरांसि चैव।
चिच्छेद पार्थो द्विषतां सुयुक्तै-
र्बाणैः स्थितानामपराङ्मुखानाम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार अर्जुनने उत्तम रीतिसे छोड़े गये बाणोंद्वारा युद्धमें पीठ न दिखाकर सामने खड़े हुए शत्रुओंके धनुष, बाण, तरकस, प्रत्यंचा, हाथ, भुजा, हाथमें रखे हुए शस्त्र, छत्र, ध्वज, अश्व, रथ, ईषादण्ड, वस्त्र, माला, आभूषण, ढाल, सुन्दर कवच, समस्त प्रिय वस्तु तथा मस्तक—इन सबको काट डाला॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकल्पिताः स्यन्दनवाजिनागाः
समास्थिताः कृतयत्नैर्नृवीरैः ।
पार्थेरितैर्बाणशतैर्निरस्ता-
स्तैरेव सार्धं नृवरैर्निपेतुः ॥ १० ॥
मूलम्
सुकल्पिताः स्यन्दनवाजिनागाः
समास्थिताः कृतयत्नैर्नृवीरैः ।
पार्थेरितैर्बाणशतैर्निरस्ता-
स्तैरेव सार्धं नृवरैर्निपेतुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर सजे-सजाये रथ, घोड़े और हाथी खड़े थे और उनपर प्रयत्नपूर्वक युद्ध करनेवाले नरवीर बैठे थे; परंतु अर्जुनके चलाये हुए सैकड़ों बाणोंसे घायल हो वे सारे वाहन उन नरवीरोंके साथ ही धराशायी हो गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मार्कपूर्णेन्दुनिभाननानि
किरीटमाल्याभरणोज्ज्वलानि ।
भल्लार्धचन्द्रक्षुरकर्तितानि
प्रपेतुरुर्व्यां नृशिरांस्यजस्रम् ॥ ११ ॥
मूलम्
पद्मार्कपूर्णेन्दुनिभाननानि
किरीटमाल्याभरणोज्ज्वलानि ।
भल्लार्धचन्द्रक्षुरकर्तितानि
प्रपेतुरुर्व्यां नृशिरांस्यजस्रम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके मुखकमल, सूर्य और पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर, तेजस्वी एवं मनोरम थे तथा मुकुट, माला एवं आभूषणोंसे प्रकाशित हो रहे थे, ऐसे असंख्य नरमुण्ड भल्ल, अर्द्धचन्द्र तथा क्षुर नामक बाणोंसे कट-कटकर लगातार पृथ्वीपर गिर रहे थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ द्विपैर्देवपतिद्विपाभै-
र्देवारिदर्पापहमत्युदग्रम् ।
कलिङ्गवङ्गाङ्गनिषादवीरा
जिघांसवः पाण्डवमभ्यधावन् ॥ १२ ॥
मूलम्
अथ द्विपैर्देवपतिद्विपाभै-
र्देवारिदर्पापहमत्युदग्रम् ।
कलिङ्गवङ्गाङ्गनिषादवीरा
जिघांसवः पाण्डवमभ्यधावन् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् कलिंग, अंग, वंग और निषाद देशोंके वीर देवराज इन्द्रके ऐरावत हाथीके समान विशाल गजराजोंपर सवार हो, देवद्रोहियोंका दर्प दलन करनेवाले प्रचण्ड वीर पाण्डुकुमार अर्जुनपर उन्हें मार डालनेकी इच्छासे चढ़ आये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां द्विपानां निचकर्त पार्थो
वर्माणि चर्माणि करान् नियन्तॄन्।
ध्वजान् पताकांश्च ततः प्रपेतु-
र्वज्राहतानीव गिरेः शिरांसि ॥ १३ ॥
मूलम्
तेषां द्विपानां निचकर्त पार्थो
वर्माणि चर्माणि करान् नियन्तॄन्।
ध्वजान् पताकांश्च ततः प्रपेतु-
र्वज्राहतानीव गिरेः शिरांसि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार अर्जुनने उनके हाथियोंके कवच, चर्म, सूँड़, महावत, ध्वजा और पताका—सबको काट डाला। इससे वे वज्रके मारे हुए पर्वतीय शिखरोंके समान पृथ्वीपर गिर पड़े॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु प्रभग्नेषु गुरोस्तनूजं
बाणैः किरीटी नवसूर्यवर्णैः ।
प्रच्छादयामास महाभ्रजालै-
र्वायुः समुद्यन्तमिवांशुमन्तम् ॥ १४ ॥
मूलम्
तेषु प्रभग्नेषु गुरोस्तनूजं
बाणैः किरीटी नवसूर्यवर्णैः ।
प्रच्छादयामास महाभ्रजालै-
र्वायुः समुद्यन्तमिवांशुमन्तम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नष्ट हो जानेपर किरीटधारी अर्जुनने प्रभातकालके सूर्यकी कान्तिके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा गुरुपुत्र अश्वत्थामाको ढक दिया, मानो वायुने उगते हुए किरणोंवाले सूर्यको मेघोंकी बड़ी भारी घटाओंसे आच्छादित कर दिया हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनेषूनिषुभिर्निरस्य
द्रौणिः शितैरर्जुनवासुदेवौ ।
प्रच्छादयित्वा दिवि चन्द्रसूर्यौ
ननाद सोऽम्भोद इवातपान्ते ॥ १५ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनेषूनिषुभिर्निरस्य
द्रौणिः शितैरर्जुनवासुदेवौ ।
प्रच्छादयित्वा दिवि चन्द्रसूर्यौ
ननाद सोऽम्भोद इवातपान्ते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब द्रोणकुमार अश्वत्थामाने अपने तीखे बाणोंद्वारा अर्जुनके बाणोंका निवारण करके श्रीकृष्ण और अर्जुनको ढक दिया और आकाशमें चन्द्रमा तथा सूर्यको आच्छादित करके गर्जनेवाले वर्षाकालके मेघकी भाँति वह गम्भीर गर्जना करने लगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमर्जुनस्तांश्च पुनस्त्वदीया-
नभ्यर्दितस्तैरभिसृत्य शस्त्रैः ।
बाणान्धकारं सहसैव कृत्त्वा
विव्याध सर्वानिषुभिः सुपुङ्खैः ॥ १६ ॥
मूलम्
तमर्जुनस्तांश्च पुनस्त्वदीया-
नभ्यर्दितस्तैरभिसृत्य शस्त्रैः ।
बाणान्धकारं सहसैव कृत्त्वा
विव्याध सर्वानिषुभिः सुपुङ्खैः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाणोंसे पीड़ित हुए अर्जुनने आगे बढ़कर सहसा शस्त्रोंद्वारा शत्रुके बाणजनित अन्धकारको नष्ट करके उत्तम पंखवाले अपने बाणोंद्वारा अश्वत्थामा तथा आपके अन्य समस्त सैनिकोंको पुनः घायल कर दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाप्याददत् संदधन्नैव मुञ्चन्
बाणान् रथेऽदृश्यत सव्यसाची ।
रथांश्च नागांस्तुरगान् पदातीन्
संस्यूतदेहान् ददृशुर्हतांश्च ॥ १७ ॥
मूलम्
नाप्याददत् संदधन्नैव मुञ्चन्
बाणान् रथेऽदृश्यत सव्यसाची ।
रथांश्च नागांस्तुरगान् पदातीन्
संस्यूतदेहान् ददृशुर्हतांश्च ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथपर बैठे हुए सव्यसाची अर्जुन कब तरकससे बाण लेते, कब उन्हें धनुषपर रखते और कब छोड़ते हैं, यह नहीं दिखायी देता था। सब लोग यही देखते थे कि रथियों, हाथियों, घोड़ों और पैदल सैनिकोंके शरीर उनके बाणोंसे गुँथे हुए हैं और वे प्राणशून्य हो गये हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संधाय नाराचवरान् दशाशु
द्रौणिस्त्वरन्नेकमिवोत्ससर्ज ।
तेषां च पञ्चार्जुनमभ्यविध्यन्
पञ्चाच्युतं निर्बिभिदुः सुपुङ्खाः ॥ १८ ॥
मूलम्
संधाय नाराचवरान् दशाशु
द्रौणिस्त्वरन्नेकमिवोत्ससर्ज ।
तेषां च पञ्चार्जुनमभ्यविध्यन्
पञ्चाच्युतं निर्बिभिदुः सुपुङ्खाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अश्वत्थामाने बड़ी उतावलीके साथ अपने धनुषपर दस उत्तम नाराच रखे और उन सबको एकके ही समान एक साथ छोड़ दिया। उनमेंसे पाँच सुन्दर पंखवाले नाराचोंने अर्जुनको बींध डाला और पाँचने श्रीकृष्णको क्षत-विक्षत कर दिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैराहतौ सर्वमनुष्यमुख्या-
वसृक् स्रवन्तौ धनदेन्द्रकल्पौ ।
समाप्तविद्येन तथाभिभूतौ
हतौ रणे ताविति मेनिरेऽन्ये ॥ १९ ॥
मूलम्
तैराहतौ सर्वमनुष्यमुख्या-
वसृक् स्रवन्तौ धनदेन्द्रकल्पौ ।
समाप्तविद्येन तथाभिभूतौ
हतौ रणे ताविति मेनिरेऽन्ये ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन बाणोंसे आहत होकर सम्पूर्ण मनुष्योंमें श्रेष्ठ, कुबेर और इन्द्रके समान पराक्रमी वे दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने अंगोंसे रक्त बहाने लगे। जिसकी विद्या पूरी हो चुकी थी, उस अश्वत्थामाके द्वारा इस प्रकार पराभवको प्राप्त हुए उन दोनोंको अन्य सब लोगोंने यही समझा कि ‘वे रणभूमिमें मारे गये’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथार्जुनं प्राह दशार्हनाथः
प्रमाद्यसे किं जहि योधमेतम्।
कुर्याद्धि दोषं समुपेक्षितोऽयं
कष्टो भवेद् व्याधिरिवाक्रियावान् ॥ २० ॥
मूलम्
अथार्जुनं प्राह दशार्हनाथः
प्रमाद्यसे किं जहि योधमेतम्।
कुर्याद्धि दोषं समुपेक्षितोऽयं
कष्टो भवेद् व्याधिरिवाक्रियावान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब दशार्हवंशके स्वामी श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा—‘पार्थ! तुम क्यों प्रमाद कर रहे हो? इस योद्धाको मार डालो। इसकी उपेक्षा की जायगी तो यह और भी नये-नये अपराध करेगा और जिसकी चिकित्सा न की गयी हो, उस रोगके समान अधिक कष्टदायक हो जायगा’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति चोक्त्वाच्युतमप्रमादी
द्रौणिं प्रयत्नादिषुभिस्ततक्ष ।
भुजौ वरौ चन्दनसारदिग्धौ
वक्षः शिरोऽथाप्रतिमौ तथोरू ॥ २१ ॥
मूलम्
तथेति चोक्त्वाच्युतमप्रमादी
द्रौणिं प्रयत्नादिषुभिस्ततक्ष ।
भुजौ वरौ चन्दनसारदिग्धौ
वक्षः शिरोऽथाप्रतिमौ तथोरू ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत अच्छा, ऐसा ही करूँगा’ श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर सतत सावधान रहनेवाले अर्जुन अपने बाणोंद्वारा प्रयत्नपूर्वक अश्वत्थामाको—उसके चन्दनसारचर्चित श्रेष्ठ भुजाओं, वक्षःस्थल, सिर और अनुपम जाँघोंको क्षत-विक्षत करने लगे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाण्डीवमुक्तैः कुपितोऽविकर्णै-
र्द्रौणिं शरैः संयति निर्बिभेद।
छित्त्वा तु रश्मींस्तुरगानविध्यत्
ते तं रणादूहुरतीव दूरम् ॥ २२ ॥
मूलम्
गाण्डीवमुक्तैः कुपितोऽविकर्णै-
र्द्रौणिं शरैः संयति निर्बिभेद।
छित्त्वा तु रश्मींस्तुरगानविध्यत्
ते तं रणादूहुरतीव दूरम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधमें भरे हुए अर्जुनने गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए भेड़के कान-जैसे अग्रभागवाले बाणोंद्वारा युद्धस्थलमें द्रोणपुत्रको विदीर्ण कर डाला। घोड़ोंकी बागडोर काटकर उन्हें अत्यन्त घायल कर दिया। इससे वे घोड़े अश्वत्थामाको रणभूमिसे बहुत दूर भगा ले गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैर्हृतो वातजवैस्तुरङ्गै-
र्द्रौणिर्दृढं पार्थशराभिभूतः ।
इयेष नावृत्य पुनस्तु योद्धुं
पार्थेन सार्धं मतिमान् विमृश्य।
जानञ्जयं नियतं वृष्णिवीरे
धनंजये चाङ्गिरसां वरिष्ठः ॥ २३ ॥
मूलम्
स तैर्हृतो वातजवैस्तुरङ्गै-
र्द्रौणिर्दृढं पार्थशराभिभूतः ।
इयेष नावृत्य पुनस्तु योद्धुं
पार्थेन सार्धं मतिमान् विमृश्य।
जानञ्जयं नियतं वृष्णिवीरे
धनंजये चाङ्गिरसां वरिष्ठः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामा अर्जुनके बाणोंसे बहुत पीड़ित हो गया था। जब वायुके समान वेगशाली घोड़े उसे रणभूमिसे बहुत दूर हटा ले गये, तब उस बुद्धिमान् वीरने मन-ही-मन विचार करके पुनः लौटकर अर्जुनके साथ युद्ध करनेकी इच्छा त्याग दी। अंगिरा गोत्रवाले ब्राह्मणोंमें सर्वश्रेष्ठ अश्वत्थामा यह जान गया था कि वृष्णिवीर श्रीकृष्ण और अर्जुनकी विजय निश्चित है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नियम्य स हयान् द्रौणिः समाश्वास्य च मारिष।
रथाश्वनरसम्बाधं कर्णस्य प्राविशद् बलम् ॥ २४ ॥
मूलम्
नियम्य स हयान् द्रौणिः समाश्वास्य च मारिष।
रथाश्वनरसम्बाधं कर्णस्य प्राविशद् बलम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! अपने घोड़ोंको रोककर थोड़ी देर उनको स्वस्थ कर लेनेके बाद द्रोणकुमार अश्वत्थामा रथ, घोड़े और पैदल मनुष्योंसे भरी हुई कर्णकी सेनामें प्रविष्ट हो गया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतीपकारिणि रणादश्वत्थाम्नि हृते हयैः।
मन्त्रौषधिक्रियायोगैर्व्याधौ देहादिवाहृते ॥ २५ ॥
संशप्तकानभिमुखौ प्रयातौ केशवार्जुनौ ।
वातोद्धूतपताकेन स्यन्दनेनौघनादिना ॥ २६ ॥
मूलम्
प्रतीपकारिणि रणादश्वत्थाम्नि हृते हयैः।
मन्त्रौषधिक्रियायोगैर्व्याधौ देहादिवाहृते ॥ २५ ॥
संशप्तकानभिमुखौ प्रयातौ केशवार्जुनौ ।
वातोद्धूतपताकेन स्यन्दनेनौघनादिना ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मन्त्र, औषध, चिकित्सा और योगके द्वारा शरीरसे रोग दूर हो जाता है, उसी प्रकार जब प्रतिकूल कार्य करनेवाला अश्वत्थामा चारों घोड़ोंद्वारा रणभूमिसे दूर हटा दिया गया, तब वायुसे फहराती हुई पताकाओंसे युक्त और जलप्रवाहके समान गम्भीर घोष करनेवाले रथके द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन फिर संशप्तकोंकी ओर चल दिये॥२५-२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अश्वत्थामपराजये सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें अश्वत्थामाकी पराजयविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७॥