०१६

भागसूचना

षोडशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका संशप्तकों तथा अश्वत्थामाके साथ अद्‌भुत युद्ध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा संशप्तकैः सार्धमर्जुनस्याभवद् रणः।
अन्येषां च महीपानां पाण्डवैस्तद् ब्रवीहि मे ॥ १ ॥

मूलम्

यथा संशप्तकैः सार्धमर्जुनस्याभवद् रणः।
अन्येषां च महीपानां पाण्डवैस्तद् ब्रवीहि मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— संजय! संशप्तकोंके साथ अर्जुनका तथा अन्य पाण्डवोंके साथ दूसरे-दूसरे राजाओंका जिस प्रकार युद्ध हुआ, वह मुझे बताओ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थाम्नस्तु यद् युद्धमर्जुनस्य च संजय।
अन्येषां च महीपानां पाण्डवैस्तद् ब्रवीहि मे ॥ २ ॥

मूलम्

अश्वत्थाम्नस्तु यद् युद्धमर्जुनस्य च संजय।
अन्येषां च महीपानां पाण्डवैस्तद् ब्रवीहि मे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूत! अश्वत्थामा और अर्जुनका जो युद्ध हुआ था तथा अन्य पाण्डवोंके साथ अन्यान्य नरेशोंका जैसा संग्राम हुआ था, उसका मुझसे वर्णन करो॥२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् यथा वृत्तं संग्रामं ब्रुवतो मम।
वीराणां शत्रुभिः सार्धं देहपाप्मासुनाशनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

शृणु राजन् यथा वृत्तं संग्रामं ब्रुवतो मम।
वीराणां शत्रुभिः सार्धं देहपाप्मासुनाशनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! कौरव-वीरोंका शत्रुओंके साथ देह, पाप और प्राणोंका नाश करनेवाला संग्राम जिस प्रकार हुआ था, वह बता रहा हूँ। आप मुझसे सारी बातें सुनिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थः संशप्तकबलं प्रविश्यार्णवसंनिभम् ।
व्यक्षोभयदमित्रघ्नो महावात इवार्णवम् ॥ ४ ॥

मूलम्

पार्थः संशप्तकबलं प्रविश्यार्णवसंनिभम् ।
व्यक्षोभयदमित्रघ्नो महावात इवार्णवम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुनाशक अर्जुनने समुद्रके समान अपार संशप्तक-सेनामें प्रवेश करके उसे उसी प्रकार क्षुब्ध कर डाला, जैसे प्रचण्ड वायु सागरमें ज्वार उठा देती है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरांस्युन्मथ्य वीराणां शितैर्भल्लैर्धनंजयः ।
पूर्णचन्द्राभवक्त्राणि स्वक्षिभ्रूदशनानि च ॥ ५ ॥
संतस्तार क्षितिं क्षिप्रं विनालैर्नलिनैरिव।

मूलम्

शिरांस्युन्मथ्य वीराणां शितैर्भल्लैर्धनंजयः ।
पूर्णचन्द्राभवक्त्राणि स्वक्षिभ्रूदशनानि च ॥ ५ ॥
संतस्तार क्षितिं क्षिप्रं विनालैर्नलिनैरिव।

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजयने अपने तीखे भल्लोंसे वीरोंके सुन्दर नेत्र, भौंह और दाँतोंसे सुशोभित, पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाले मस्तकोंको काट-काटकर तुरंत ही वहाँकी धरतीको पाट दिया, मानो वहाँ बिना नालके कमल बिछा दिये हों॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवृत्तानायतान् पुष्टांश्चन्दनागुरुभूषितान् ॥ ६ ॥
सायुधान् सतलत्रांश्च पञ्चास्योरगसंनिभान् ।
बाहुन् क्षुरैरमित्राणां चिच्छेद समरेऽर्जुनः ॥ ७ ॥

मूलम्

सुवृत्तानायतान् पुष्टांश्चन्दनागुरुभूषितान् ॥ ६ ॥
सायुधान् सतलत्रांश्च पञ्चास्योरगसंनिभान् ।
बाहुन् क्षुरैरमित्राणां चिच्छेद समरेऽर्जुनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने समरभूमिमें अपने क्षुरोंद्वारा शत्रुओंकी उन भुजाओंको भी काट डाला, जो पाँच मुखवाले सर्पोंके समान दिखायी देती थीं, जो गोल, लंबी, पुष्ट तथा अगुरु एवं चन्दनसे चर्चित थीं और जिनमें आयुध एवं दस्ताने भी मौजूद थे॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धुर्यान् धुर्यगतान् सूतान् ध्वजांश्चापानि सायकान्।
पाणीन् सरत्नानसकृद् भल्लैश्चिच्छेद पाण्डवः ॥ ८ ॥

मूलम्

धुर्यान् धुर्यगतान् सूतान् ध्वजांश्चापानि सायकान्।
पाणीन् सरत्नानसकृद् भल्लैश्चिच्छेद पाण्डवः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुपुत्र धनंजयने शत्रुओंके रथोंमें जुते हुए भारवाही घोड़ों, सारथियों, ध्वजों, धनुषों, बाणों और रत्नभूषणभूषित हाथोंको बारंबार काट डाला॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथान् द्विपान् हयांश्चैव सारोहानर्जुनो युधि।
शरैरनेकसाहस्रैर्निन्ये राजन् यमक्षयम् ॥ ९ ॥

मूलम्

रथान् द्विपान् हयांश्चैव सारोहानर्जुनो युधि।
शरैरनेकसाहस्रैर्निन्ये राजन् यमक्षयम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अर्जुनने युद्धस्थलमें कई हजार बाण मारकर रथों, हाथियों, घोड़ों और उन सबके सवारोंको भी यमलोक पहुँचा दिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रवीराः सुसंरब्धा नर्दमाना इवर्षभाः।
वासितार्थमिव क्रुद्धमभिद्रुत्य मदोत्कटाः ॥ १० ॥
निघ्नन्तमभिजघ्नुस्ते शरैः शृङ्गैरिवर्षभाः ।

मूलम्

तं प्रवीराः सुसंरब्धा नर्दमाना इवर्षभाः।
वासितार्थमिव क्रुद्धमभिद्रुत्य मदोत्कटाः ॥ १० ॥
निघ्नन्तमभिजघ्नुस्ते शरैः शृङ्गैरिवर्षभाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय संशप्तक वीर अत्यन्त रोषमें भरकर मैथुनकी इच्छावाली गायके लिये लड़नेवाले मदमत्त साँड़ोंके समान गर्जन एवं हुंकार करते हुए कुपित अर्जुनकी ओर टूट पड़े और जैसे साँड़ एक-दूसरेको सींगोंसे मारते हैं, उसी प्रकार वे अपने ऊपर प्रहार करते हुए अर्जुनको बाणोंद्वारा चोट पहुँचाने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तेषां च तद् युद्धमभवल्लोमहर्षणम् ॥ ११ ॥
त्रैलोक्यविजये यद्वद् दैत्यानां सह वज्रिणा।

मूलम्

तस्य तेषां च तद् युद्धमभवल्लोमहर्षणम् ॥ ११ ॥
त्रैलोक्यविजये यद्वद् दैत्यानां सह वज्रिणा।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन और संशप्तकोंका वह घोर युद्ध त्रैलोक्य-विजयके लिये वज्रधारी इन्द्रके साथ घटित हुए दैत्योंके संग्रामके समान रोंगटे खड़े कर देनेवाला था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतोऽर्जुनः ॥ १२ ॥
इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं विद्‌ध्वा प्राणाञ्जहार सः।

मूलम्

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतोऽर्जुनः ॥ १२ ॥
इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं विद्‌ध्वा प्राणाञ्जहार सः।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने सब ओरसे शत्रुओंके अस्त्रोंका अपने अस्त्रोंद्वारा निवारण कर उन्हें तुरंत ही अनेक बाणोंसे घायल करके उन सबके प्राण हर लिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नत्रिवेणुचक्राक्षान् हतयोधाश्वसारथीन् ॥ १३ ॥
विध्वस्तायुधतूणीरान् समुन्मथितकेतनान् ।
संछिन्नयोक्त्ररश्मीकान् विवरूथान्‌ विकूबरान् ॥ १४ ॥
विस्रस्तबन्धुरयुगान् विस्रस्ताक्षप्रमण्डलान् ।
रथान् विशकलीकुर्वन् महाभ्राणीव मारुतः ॥ १५ ॥
विस्मापयन् प्रेक्षणीयं द्विषतां भयवर्धनम्।
महारथसहस्रस्य समं कर्माकरोज्जयः ॥ १६ ॥

मूलम्

छिन्नत्रिवेणुचक्राक्षान् हतयोधाश्वसारथीन् ॥ १३ ॥
विध्वस्तायुधतूणीरान् समुन्मथितकेतनान् ।
संछिन्नयोक्त्ररश्मीकान् विवरूथान्‌ विकूबरान् ॥ १४ ॥
विस्रस्तबन्धुरयुगान् विस्रस्ताक्षप्रमण्डलान् ।
रथान् विशकलीकुर्वन् महाभ्राणीव मारुतः ॥ १५ ॥
विस्मापयन् प्रेक्षणीयं द्विषतां भयवर्धनम्।
महारथसहस्रस्य समं कर्माकरोज्जयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने संशप्तकोंके रथके त्रिवेणु, चक्र और धुरोंको छिन्न-भिन्न कर दिया। योद्धाओं, अश्वों तथा सारथियोंको मार डाला। आयुधों और तरकसोंका विध्वंस कर डाला। ध्वजाओंके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। जोत और लगाम काट डाले। रक्षाके लिये लगाये गये चर्ममय आवरण और कूबर नष्ट कर दिये। रथतल्प और जूए तोड़ दिये तथा रथकी बैठक और धुरोंको जोड़नेवाले काष्ठके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। जैसे हवा महान् मेघोंको छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार विजयशील अर्जुनने रथोंके खण्ड-खण्ड करके सबको आश्चर्यमें डालते हुए अकेले ही सहस्रों महारथियोंके समान दर्शनीय पराक्रम किया, जो शत्रुओंका भय बढ़ानेवाला था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धदेवर्षिसंघाश्च चारणाश्चापि तुष्टुवुः ।
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवर्षाणि चापतन् ॥ १७ ॥
केशवार्जुनयोर्मूर्ध्नि प्राह वाचाशरीरिणी ।

मूलम्

सिद्धदेवर्षिसंघाश्च चारणाश्चापि तुष्टुवुः ।
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवर्षाणि चापतन् ॥ १७ ॥
केशवार्जुनयोर्मूर्ध्नि प्राह वाचाशरीरिणी ।

अनुवाद (हिन्दी)

सिद्धों तथा देवर्षियोंके समुदायों एवं चारणोंने भी अर्जुनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं, आकाशसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा होने लगी तथा इस प्रकार आकाशवाणी हुई—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्राग्न्यनिलसूर्याणां कान्तिदीप्तिबलद्युतीः ॥ १८ ॥
यौ सदा बिभ्रतुर्वीराविमौ तौ केशवार्जुनौ।
ब्रह्मेशानाविवाजय्यौ वीरावेकरथे स्थितौ ॥ १९ ॥
सर्वभूतवरौ वीरौ नरनारायणाविमौ ।

मूलम्

चन्द्राग्न्यनिलसूर्याणां कान्तिदीप्तिबलद्युतीः ॥ १८ ॥
यौ सदा बिभ्रतुर्वीराविमौ तौ केशवार्जुनौ।
ब्रह्मेशानाविवाजय्यौ वीरावेकरथे स्थितौ ॥ १९ ॥
सर्वभूतवरौ वीरौ नरनारायणाविमौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सदा चन्द्रमाकी कान्ति, अग्निकी दीप्ति, वायुका बल और सूर्यका तेज धारण करते हैं, वे ही ये दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं। एक ही रथपर बैठे हुए ये दोनों वीर ब्रह्मा तथा भगवान् शंकरके समान सर्वथा अजेय हैं। ये ही सम्पूर्ण भूतोंमें सर्वश्रेष्ठ वीर नर और नारायण हैं’॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतन्महदाश्चर्यं दृष्ट्‌वा श्रुत्वा च भारत ॥ २० ॥
अश्वत्थामा सुसंयत्तः कृष्णावभ्यद्रवद् रणे।

मूलम्

इत्येतन्महदाश्चर्यं दृष्ट्‌वा श्रुत्वा च भारत ॥ २० ॥
अश्वत्थामा सुसंयत्तः कृष्णावभ्यद्रवद् रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! यह महान् आश्चर्यकी बात देख और सुनकर अश्वत्थामाने सावधान हो रणभूमिमें श्रीकृष्ण और अर्जुनपर धावा किया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पाण्डवमस्यन्तममित्रघ्नकराञ्छरान् ॥ २१ ॥
सेषुणा पाणिनाऽऽहूय प्रहसन् दौणिरब्रवीत्।

मूलम्

अथ पाण्डवमस्यन्तममित्रघ्नकराञ्छरान् ॥ २१ ॥
सेषुणा पाणिनाऽऽहूय प्रहसन् दौणिरब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शत्रुनाशक बाणोंका प्रहार करते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुनको बाणयुक्त हाथसे बुलाकर अश्वत्थामाने हँसते हुए कहा—॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मां मन्यसे वीर प्राप्तमर्हमिहातिथिम् ॥ २२ ॥
ततः सर्वात्मना त्वद्य युद्धातिथ्यं प्रयच्छ मे।

मूलम्

यदि मां मन्यसे वीर प्राप्तमर्हमिहातिथिम् ॥ २२ ॥
ततः सर्वात्मना त्वद्य युद्धातिथ्यं प्रयच्छ मे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! यदि तुम मुझे यहाँ आया हुआ पूजनीय अतिथि मानो तो सब प्रकारसे आज युद्धके द्वारा मेरा आतिथ्य-सत्कार करो’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमाचार्यपुत्रेण समाहूतो युयुत्सया ॥ २३ ॥
बहु मेनेऽर्जुनोऽऽत्मानमिति चाह जनार्दनम्।

मूलम्

एवमाचार्यपुत्रेण समाहूतो युयुत्सया ॥ २३ ॥
बहु मेनेऽर्जुनोऽऽत्मानमिति चाह जनार्दनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्यपुत्रके द्वारा इस प्रकार युद्धकी इच्छासे बुलाये जानेपर अर्जुनने अपना अहोभाग्य माना और भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा—॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संशप्तकाश्च मे वध्या द्रौणिराह्वयते च माम् ॥ २४ ॥
यदत्रानन्तरं प्राप्तं शंस मे तद्धि माधव।
आतिथ्यकर्माभ्युत्थाय दीयतां यदि मन्यसे ॥ २५ ॥

मूलम्

संशप्तकाश्च मे वध्या द्रौणिराह्वयते च माम् ॥ २४ ॥
यदत्रानन्तरं प्राप्तं शंस मे तद्धि माधव।
आतिथ्यकर्माभ्युत्थाय दीयतां यदि मन्यसे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माधव! एक ओर तो मुझे संशप्तकोंका वध करना है, दूसरी ओर द्रोणकुमार अश्वत्थामा युद्धके लिये मेरा आह्वान कर रहा है। अतः यहाँ मेरे लिये जो पहले कर्तव्य प्राप्त हो, उसे मुझे बताइये। यदि आप ठीक समझें तो पहले उठकर अश्वत्थामाको ही आतिथ्य ग्रहण करनेका अवसर दिया जाय’॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तोऽवहत् पार्थं कृष्णो द्रोणात्मजान्तिके।
जैत्रेण विधिनाऽऽहूतं वायुरिन्द्रमिवाध्वरे ॥ २६ ॥

मूलम्

एवमुक्तोऽवहत् पार्थं कृष्णो द्रोणात्मजान्तिके।
जैत्रेण विधिनाऽऽहूतं वायुरिन्द्रमिवाध्वरे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके ऐसा कहनेपर श्रीकृष्णने उन्हें विजयशील रथके द्वारा द्रोणकुमारके निकट पहुँचा दिया। ठीक वैसे ही जैसे वैदिक विधिसे आवाहित इन्द्रदेवताको वायुदेव यज्ञमें पहुँचा देते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमामन्त्र्यैकमनसं केशवो द्रौणिमब्रवीत् ।
अश्वत्थामन् स्थिरो भूत्वा प्रहराशु सहस्व च ॥ २७ ॥

मूलम्

तमामन्त्र्यैकमनसं केशवो द्रौणिमब्रवीत् ।
अश्वत्थामन् स्थिरो भूत्वा प्रहराशु सहस्व च ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने एकाग्रचित्त द्रोणकुमारको सम्बोधित करके कहा—‘अश्वत्थामन्! स्थिर होकर शीघ्रतापूर्वक प्रहार करो और अपने ऊपर किये गये प्रहारको सहन करो॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्वेष्टुं भर्तृपिण्डं हि कालोऽयमुपजीविनाम्।
सूक्ष्मो विवादो विप्राणां स्थूलौ क्षात्रौ जयाजयौ ॥ २८ ॥

मूलम्

निर्वेष्टुं भर्तृपिण्डं हि कालोऽयमुपजीविनाम्।
सूक्ष्मो विवादो विप्राणां स्थूलौ क्षात्रौ जयाजयौ ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि स्वामीके आश्रित रहकर जीवननिर्वाह करनेवाले पुरुषोंके लिये अपने रक्षकके अन्नको सफल करनेका यही अवसर आया है, ब्राह्मणोंका विवाद सूक्ष्म (बुद्धिके द्वारा साध्य) होता है; परंतु क्षत्रियोंकी जय-पराजय स्थूल अस्त्रोंद्वारा सम्पन्न होती हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यामभ्यर्थयसे मोहाद् दिव्यां पार्थस्य सत्क्रियाम्।
तामाप्तुमिच्छन् युध्यस्व स्थिरो भूत्वाद्य पाण्डवम् ॥ २९ ॥

मूलम्

यामभ्यर्थयसे मोहाद् दिव्यां पार्थस्य सत्क्रियाम्।
तामाप्तुमिच्छन् युध्यस्व स्थिरो भूत्वाद्य पाण्डवम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम मोहवश अर्जुनसे जिस दिव्य सत्कारकी प्रार्थना कर रहे हो, उसे पानेकी इच्छासे आज तुम स्थिर होकर पाण्डुपुत्र धनंजयके साथ युद्ध करो’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो वासुदेवेन तथेत्युक्त्वा द्विजोत्तमः।
विव्याध केशवं षष्ट्या नाराचैरर्जुनं त्रिभिः ॥ ३० ॥

मूलम्

इत्युक्तो वासुदेवेन तथेत्युक्त्वा द्विजोत्तमः।
विव्याध केशवं षष्ट्या नाराचैरर्जुनं त्रिभिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर द्विजश्रेष्ठ अश्वत्थामाने ‘बहुत अच्छा’ कहकर केशवको साठ और अर्जुनको तीन बाणोंसे घायल कर दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यार्जुनः सुसंक्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैः शरासनम् ।
चिच्छेद चान्यदादत्त द्रौणिर्घोरतरं धनुः ॥ ३१ ॥

मूलम्

तस्यार्जुनः सुसंक्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैः शरासनम् ।
चिच्छेद चान्यदादत्त द्रौणिर्घोरतरं धनुः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने अत्यन्त कुपित होकर तीन बाणोंसे अश्वत्थामाका धनुष काट दिया; परंतु द्रोणकुमारने उससे भी भयंकर दूसरा धनुष हाथमें ले लिया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सज्यं कृत्वा निमेषाच्च विव्याधार्जुनकेशवौ।
त्रिभिः शतैर्वासुदेवं सहस्रेण च पाण्डवम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

सज्यं कृत्वा निमेषाच्च विव्याधार्जुनकेशवौ।
त्रिभिः शतैर्वासुदेवं सहस्रेण च पाण्डवम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने पलक मारते-मारते उस धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर अर्जुन और श्रीकृष्णको बींध डाला। श्रीकृष्णको तीन सौ और अर्जुनको एक हजार बाण मारे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
ससृजे द्रौणिरायस्तः संस्तभ्य च रणेऽर्जुनम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततः शरसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
ससृजे द्रौणिरायस्तः संस्तभ्य च रणेऽर्जुनम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर द्रोणकुमार अश्वत्थामाने प्रयत्नपूर्वक अर्जुनको युद्धस्थलमें स्तम्भित करके उनके ऊपर हजारों, लाखों और अरबों बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इषुधेर्धनुषश्चैव ज्यायाश्चैवाथ मारिष ।
बाह्वोः कराभ्यामुरसो वदनघ्राणनेत्रतः ॥ ३४ ॥
कर्णाभ्यां शिरसोऽङ्गेभ्यो लोमवर्मभ्य एव च।
रथध्वजेभ्यश्च शरा निष्पेतुर्ब्रह्मवादिनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

इषुधेर्धनुषश्चैव ज्यायाश्चैवाथ मारिष ।
बाह्वोः कराभ्यामुरसो वदनघ्राणनेत्रतः ॥ ३४ ॥
कर्णाभ्यां शिरसोऽङ्गेभ्यो लोमवर्मभ्य एव च।
रथध्वजेभ्यश्च शरा निष्पेतुर्ब्रह्मवादिनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मान्यवर! उस समय वेदवादी अश्वत्थामाके तरकस, धनुष, प्रत्यंचा, बाँह, हाथ, छाती, मुख, नाक, आँख, कान, सिर, भिन्न-भिन्न अंग, रोम, कवच, रथ और ध्वजोंसे भी बाण निकल रहे थे॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरजालेन महता विद्‌ध्वा माधवपाण्डवौ।
ननाद मुदितो द्रौणिर्महामेघौघनिःस्वनम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

शरजालेन महता विद्‌ध्वा माधवपाण्डवौ।
ननाद मुदितो द्रौणिर्महामेघौघनिःस्वनम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बाणोंके महान् समुदायसे श्रीकृष्ण और अर्जुनको घायल करके आनन्दित हुआ द्रोणकुमार महान् मेघोंके गम्भीर घोषके समान गर्जना करने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तैः पतद्भिर्महाराज द्रौणिमुक्तैः समन्ततः।
संछादितौ रथस्थौ तावुभौ कृष्णधनंजयौ॥

मूलम्

(तैः पतद्भिर्महाराज द्रौणिमुक्तैः समन्ततः।
संछादितौ रथस्थौ तावुभौ कृष्णधनंजयौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! अश्वत्थामाके धनुषसे छूटकर सब ओर गिरनेवाले उन बार्णोद्वारा रथपर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ढक गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरशतैस्तीक्ष्णैर्भारद्वाजः प्रतापवान् ।
निश्चेष्टौ तावुभौ चक्रे रणे माधवपाण्डवौ॥

मूलम्

ततः शरशतैस्तीक्ष्णैर्भारद्वाजः प्रतापवान् ।
निश्चेष्टौ तावुभौ चक्रे रणे माधवपाण्डवौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् प्रतापी भरद्वाजकुलनन्दन अश्वत्थामाने सैकड़ों तीखे बाणोंसे रणभूमिमें श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंको निश्चेष्ट कर दिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहाकृतमभूत् सर्वं स्थावरं जङ्गमं तथा।
चराचरस्य गोप्तारौ दृष्ट्वा संछादितौ शरैः॥

मूलम्

हाहाकृतमभूत् सर्वं स्थावरं जङ्गमं तथा।
चराचरस्य गोप्तारौ दृष्ट्वा संछादितौ शरैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चराचरकी रक्षा करनेवाले उन दोनों महापुरुषोंको बाणोंद्वारा आच्छादित देख समस्त स्थावर-जंगम जगत्‌में हाहाकार मच गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धचारणसंघाश्च सम्पेतुर्वै समन्ततः ।
अपि स्वस्ति भवेदद्य लोकानामिति चाब्रुवन्॥

मूलम्

सिद्धचारणसंघाश्च सम्पेतुर्वै समन्ततः ।
अपि स्वस्ति भवेदद्य लोकानामिति चाब्रुवन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिद्ध और चारणोंके समुदाय सब ओरसे वहाँ आ पहुँचे और बोले—‘आज तीनों लोकोंका मंगल हो’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मया तादृशो राजन् दृष्टपूर्वः पराक्रमः।
संजज्ञे यादृशो द्रौणेः कृष्णौ छादयतो रणे॥

मूलम्

न मया तादृशो राजन् दृष्टपूर्वः पराक्रमः।
संजज्ञे यादृशो द्रौणेः कृष्णौ छादयतो रणे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैंने इससे पहले अश्वत्थामाका वैसा पराक्रम नहीं देखा था, जैसा कि रणभूमिमें श्रीकृष्ण और अर्जुनको आच्छादित करते समय प्रकट हुआ था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौणेस्तु धनुषः शब्दं रथानां त्रासनं रणे।
अश्रौषं बहुशो राजन् सिंहस्य नदतो यथा॥

मूलम्

द्रौणेस्तु धनुषः शब्दं रथानां त्रासनं रणे।
अश्रौषं बहुशो राजन् सिंहस्य नदतो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! रणभूमिमें द्रोणकुमारके धनुषकी टंकार बड़े-बड़े रथियोंको भयभीत करनेवाली थी। दहाड़ते हुए सिंहके समान उसके शब्दको मैंने बहुत बार सुना था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्या चास्य चरतो युद्धे सव्यं दक्षिणमस्यतः।
विद्युदम्भोधरस्येव भ्राजमाना व्यदृश्यत ॥

मूलम्

ज्या चास्य चरतो युद्धे सव्यं दक्षिणमस्यतः।
विद्युदम्भोधरस्येव भ्राजमाना व्यदृश्यत ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें विचरते हुए अश्वत्थामाके धनुषकी प्रत्यंचा बायें-दायें बाण छोड़ते समय बादलमें बिजलीके समान चमकती दिखायी देती थी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तदा क्षिप्रकारी च दृढहस्तश्च पाण्डवः।
प्रमोहं परमं गत्वा प्रेक्षन्नास्ते धनंजयः॥

मूलम्

स तदा क्षिप्रकारी च दृढहस्तश्च पाण्डवः।
प्रमोहं परमं गत्वा प्रेक्षन्नास्ते धनंजयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शीघ्रता करने और दृढ़तापूर्वक हाथ चलानेवाले पाण्डुपुत्र धनंजय उस समय भारी मोहमें पड़कर केवल देखते रह गये थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विक्रमं च हृतं मेने आत्मनस्तेन संयुगे।
तदास्य समरे राजन् वपुरासीत् सुदुर्दृशम्॥
द्रौणेस्तत् कुर्वतः कर्म यादृग्रूपं पिनाकिनः।

मूलम्

विक्रमं च हृतं मेने आत्मनस्तेन संयुगे।
तदास्य समरे राजन् वपुरासीत् सुदुर्दृशम्॥
द्रौणेस्तत् कुर्वतः कर्म यादृग्रूपं पिनाकिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें युद्धमें ऐसा मालूम होता था कि अश्वत्थामाने मेरा पराक्रम हर लिया है। राजन्! उस समय समरांगणमें वैसा पराक्रम करते हुए द्रोणकुमार अश्वत्थामाका शरीर ऐसा डरावना हो गया था कि उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था। पिनाकपाणि भगवान् रुद्रका जैसा रूप दिखायी देता है, वैसा ही उसका भी था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्धमाने ततस्तत्र द्रोणपुत्रे विशाम्पते॥
हीयमाने च कौन्तेये कृष्णं रोषः समाविशत्।

मूलम्

वर्धमाने ततस्तत्र द्रोणपुत्रे विशाम्पते॥
हीयमाने च कौन्तेये कृष्णं रोषः समाविशत्।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! जब वहाँ द्रोणपुत्र बढ़ने लगा और कुन्तीकुमारका पराक्रम घटने लगा, तब श्रीकृष्णको बड़ा रोष हुआ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स रोषान्निःश्वसन् राजन् निर्दहन्निव चक्षुषा॥
द्रौणिं ददर्श संग्रामे फाल्गुनं च मुहुर्मुहुः।
ततः क्रुद्धोऽब्रवीत् कृष्णः पार्थं सप्रणयं वचः॥

मूलम्

स रोषान्निःश्वसन् राजन् निर्दहन्निव चक्षुषा॥
द्रौणिं ददर्श संग्रामे फाल्गुनं च मुहुर्मुहुः।
ततः क्रुद्धोऽब्रवीत् कृष्णः पार्थं सप्रणयं वचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे क्रोधपूर्वक लंबी साँस खींचते हुए संग्रामभूमिमें अश्वत्थामाकी ओर इस प्रकार देखने लगे, मानो उसे अपनी दृष्टिद्वारा दग्ध कर देंगे। अर्जुनकी ओर भी वे बारंबार दृष्टिपात करने लगे। फिर कुपित हुए श्रीकृष्णने अर्जुनसे प्रेमपूर्वक कहा।

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यद्भुतमहं पार्थ त्वयि पश्यामि संयुगे।
यत् त्वां विशेषयत्याजौ द्रोणपुत्रोऽद्य भारत॥
कच्चित्ते गाण्डिवं हस्ते मुष्टिर्वा न व्यशीर्यत।
कच्चिद् वीर्यं यथापूर्वं भुजयोर्वा बलं तव॥
उदीर्यमाणं हि रणे पश्यामि द्रौणिमाहवे।

मूलम्

अत्यद्भुतमहं पार्थ त्वयि पश्यामि संयुगे।
यत् त्वां विशेषयत्याजौ द्रोणपुत्रोऽद्य भारत॥
कच्चित्ते गाण्डिवं हस्ते मुष्टिर्वा न व्यशीर्यत।
कच्चिद् वीर्यं यथापूर्वं भुजयोर्वा बलं तव॥
उदीर्यमाणं हि रणे पश्यामि द्रौणिमाहवे।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— पार्थ! भरतनन्दन! मैं इस युद्धमें तुम्हारे अंदर यह अत्यन्त अद्भुत परिवर्तन देख रहा हूँ कि आज द्रोणकुमार रणभूमिमें तुमसे आगे बढ़ा जा रहा है। क्या तुम्हारे हाथमें गाण्डीव धनुष है? या तुम्हारी मुट्ठी ढीली पड़ गयी? क्या तुम्हारी दोनों भुजाओंमें पहलेके समान ही बल और पराक्रम है? क्योंकि इस समय संग्राममें द्रोणपुत्रको मैं तुमसे बढ़ा-चढ़ा देख रहा हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपुत्र इति ह्येनं मानयन् भरतर्षभ।
उपेक्षां मा कृथाः पार्थ नायं कालो ह्युपेक्षितुम्॥)

मूलम्

गुरुपुत्र इति ह्येनं मानयन् भरतर्षभ।
उपेक्षां मा कृथाः पार्थ नायं कालो ह्युपेक्षितुम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! यह मेरे गुरुका पुत्र है, ऐसा समझकर इसे सम्मान देते हुए तुम इसकी उपेक्षा न करो। पार्थ! यह उपेक्षाका अवसर नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तं निनदं श्रुत्वा पाण्डवोऽच्युतमब्रवीत्।
पश्य माधव दौरात्म्यं गुरुपुत्रस्य मां प्रति ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्य तं निनदं श्रुत्वा पाण्डवोऽच्युतमब्रवीत्।
पश्य माधव दौरात्म्यं गुरुपुत्रस्य मां प्रति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भगवान् श्रीकृष्णका यह कथन तथा) अश्वत्थामाके उस सिंहनादको सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुनने श्रीकृष्णसे कहा—‘माधव! देखिये तो सही गुरुपुत्र अश्वत्थामा मेरे प्रति कैसी दुष्टता कर रहा है?॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधं प्राप्तौ मन्यते नौ प्रावेश्य शरवेश्मनि।
एषोऽस्मि हन्मि संकल्पं शिक्षया च बलेन च ॥ ३८ ॥

मूलम्

वधं प्राप्तौ मन्यते नौ प्रावेश्य शरवेश्मनि।
एषोऽस्मि हन्मि संकल्पं शिक्षया च बलेन च ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह अपने बाणोंके घेरेमें डालकर हम दोनोंको मारा गया समझता है। मैं अभी अपनी शिक्षा और बलसे इसके इस मनोरथको नष्ट किये देता हूँ’॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थाम्नः शरानस्तान् छित्त्वैकैकं त्रिधा त्रिधा।
व्यधमद् भरतश्रेष्ठो निहारमिव मारुतः ॥ ३९ ॥

मूलम्

अश्वत्थाम्नः शरानस्तान् छित्त्वैकैकं त्रिधा त्रिधा।
व्यधमद् भरतश्रेष्ठो निहारमिव मारुतः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर भरतश्रेष्ठ अर्जुनने अश्वत्थामाके चलाये हुए उन बाणोंमेंसे प्रत्येकके तीन-तीन टुकड़े करके उन सबको उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे हवा कुहरेको उड़ा देती है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संशप्तकान् भूयः साश्वसूतरथद्विपान्।
ध्वजपत्तिगणानुग्रैर्बाणैर्विव्याध पाण्डवः ॥ ४० ॥

मूलम्

ततः संशप्तकान् भूयः साश्वसूतरथद्विपान्।
ध्वजपत्तिगणानुग्रैर्बाणैर्विव्याध पाण्डवः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पाण्डुकुमार अर्जुनने पुनः घोड़े, सारथि, रथ, हाथी, पैदलसमूह और ध्वजोंसहित संशप्तक-सैनिकोंको अपने भयंकर बाणोंद्वारा बींध डाला॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ये ददृशिरे तत्र यद्यद्रूपास्तदा जनाः।
ते ते तत्र शरैर्व्याप्तं मेनिरेऽऽत्मानमात्मना ॥ ४१ ॥

मूलम्

ये ये ददृशिरे तत्र यद्यद्रूपास्तदा जनाः।
ते ते तत्र शरैर्व्याप्तं मेनिरेऽऽत्मानमात्मना ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ जो-जो मनुष्य जिस-जिस रूपमें दिखायी देते थे, वे-वे स्वयं ही अपने-आपको बाणोंसे व्याप्त मानने लगे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते गाण्डीवप्रमुक्तास्तु नानारूपाः पतत्रिणः।
क्रोशे साग्रे स्थितान् घ्नन्ति द्विपांश्च पुरुषान् रणे ॥ ४२ ॥

मूलम्

ते गाण्डीवप्रमुक्तास्तु नानारूपाः पतत्रिणः।
क्रोशे साग्रे स्थितान् घ्नन्ति द्विपांश्च पुरुषान् रणे ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए नाना प्रकारके बाण रणभूमिमें एक कोससे अधिक दूरीपर खड़े हुए हाथियों और मनुष्योंको भी मार डालते थे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भल्लैश्छिन्नाः कराः पेतुः करिणां मदवर्षिणाम्।
यथा वने परशुभिर्निकृत्ताः सुमहाद्रुमाः ॥ ४३ ॥

मूलम्

भल्लैश्छिन्नाः कराः पेतुः करिणां मदवर्षिणाम्।
यथा वने परशुभिर्निकृत्ताः सुमहाद्रुमाः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जंगलमें कुल्हाड़ोंसे काटनेपर बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार वहाँ मदकी वर्षा करनेवाले गजराजोंके शुण्डदण्ड भल्लोंसे कट-कटकर धरतीपर गिरने लगे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्चात्तु शैलवत् पेतुस्ते गजाः सह सादिभिः।
वज्रिवज्रप्रमथिता यथैवाद्रिचयास्तथा ॥ ४४ ॥

मूलम्

पश्चात्तु शैलवत् पेतुस्ते गजाः सह सादिभिः।
वज्रिवज्रप्रमथिता यथैवाद्रिचयास्तथा ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूँड़ कटनेके पश्चात् वे पर्वतोंके समान हाथी अपने सवारोंसहित उसी प्रकार गिर जाते थे, जैसे वज्रधारी इन्द्रके वज्रसे विदीर्ण होकर गिरे हुए पहाड़ोंके ढेर लगे हों॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धर्वनगराकारान् रथांश्चैव सुकल्पितान् ।
विनीतैर्जवनैर्युक्तानास्थितान् युद्धदुर्मदैः ॥ ४५ ॥
शरैर्विशकलीकुर्वन्नमित्रानभ्यवीवृषत् ।
स्वलंकृतानश्वसादीन् पत्तींश्चाहन् धनंजयः ॥ ४६ ॥

मूलम्

गन्धर्वनगराकारान् रथांश्चैव सुकल्पितान् ।
विनीतैर्जवनैर्युक्तानास्थितान् युद्धदुर्मदैः ॥ ४५ ॥
शरैर्विशकलीकुर्वन्नमित्रानभ्यवीवृषत् ।
स्वलंकृतानश्वसादीन् पत्तींश्चाहन् धनंजयः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय अपने बाणोंद्वारा सुशिक्षित घोड़ोंसे जुते हुए, रणदुर्मद रथियोंकी सवारीमें आये हुए एवं गन्धर्वनगरके समान आकारवाले सुसज्जित रथोंके टुकड़े-टुकड़े करते हुए शत्रुओंपर बाण बरसाते और सजे-सजाये घुड़सवारों एवं पैदलोंको भी मार गिराते थे॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजययुगान्ताकः संशप्तकमहार्णवम् ।
व्यशोषयत दुःशोषं तीक्ष्णैः शरगभस्तिभिः ॥ ४७ ॥

मूलम्

धनंजययुगान्ताकः संशप्तकमहार्णवम् ।
व्यशोषयत दुःशोषं तीक्ष्णैः शरगभस्तिभिः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनरूपी प्रलयकालिक सूर्यने जिसका शोषण करना कठिन था, ऐसे संशप्तक-सैन्यरूपी महासागरको अपनी बाणमयी प्रचण्ड किरणोंसे सोख लिया॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनर्द्रौणिं महाशैलं नाराचैर्वज्रसंनिभैः ।
निर्बिभेद महावेगैस्त्वरन् वज्रीव पर्वतम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

पुनर्द्रौणिं महाशैलं नाराचैर्वज्रसंनिभैः ।
निर्बिभेद महावेगैस्त्वरन् वज्रीव पर्वतम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वज्रधारी इन्द्रने पर्वतोंको विदीर्ण किया था, उसी प्रकार अर्जुनने महान् वेगशाली वज्रतुल्य नाराचोंद्वारा अश्वत्थामारूपी महान् शैलको पुनः वेधना आरम्भ किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाचार्यसुतः क्रुद्धः साश्वयन्तारमाशुगैः ।
युयुत्सुरागमद्‌योद्‌धुं पार्थस्तानच्छिनच्छरान् ॥ ४९ ॥

मूलम्

तमाचार्यसुतः क्रुद्धः साश्वयन्तारमाशुगैः ।
युयुत्सुरागमद्‌योद्‌धुं पार्थस्तानच्छिनच्छरान् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रोधमें भरा हुआ आचार्यपुत्र सारथि श्रीकृष्णसहित अर्जुनके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे बाणोंद्वारा उनके सामने उपस्थित हुआ; परंतु कुन्तीकुमार अर्जुनने उसके सभी बाण काट गिराये॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परमसंक्रुद्धः पाण्डवेऽस्त्राण्यवासृजत् ।
अश्वत्थामाभिरूपाय गृहानतिथये यथा ॥ ५० ॥

मूलम्

ततः परमसंक्रुद्धः पाण्डवेऽस्त्राण्यवासृजत् ।
अश्वत्थामाभिरूपाय गृहानतिथये यथा ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अत्यन्त कुपित हुआ अश्वत्थामा पाण्डुपुत्र अर्जुनको उसी प्रकार अपने अस्त्र अर्पित करने लगा, जैसे कोई गृहस्थ योग्य अतिथिको अपना सारा घर सौंप देता है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ संशप्तकांस्त्यक्त्वा पाण्डवो द्रौणिमभ्ययात्।
अपाङ्क्तेयानिव त्यक्त्वा दाता पाङ्क्तेयमर्थिनम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

अथ संशप्तकांस्त्यक्त्वा पाण्डवो द्रौणिमभ्ययात्।
अपाङ्क्तेयानिव त्यक्त्वा दाता पाङ्क्तेयमर्थिनम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डुपुत्र अर्जुन संशप्तकोंको छोड़कर द्रोणपुत्र अश्वत्थामाके सामने आये। ठीक उसी तरह जैसे दाता पंक्तिमें बैठनेके अयोग्य ब्राह्मणोंको छोड़कर याचना करनेवाले पंक्तिपावन ब्राह्मणकी ओर जाता है॥५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अश्वत्थामार्जुनसंवादे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें अश्वत्थामा और अर्जुनका संवादविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ६६ श्लोक हैं।)