०१४

भागसूचना

चतुर्दशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रौपदीपुत्र श्रुतकर्मा और प्रतिविन्ध्यद्वारा क्रमशः चित्रसेन एवं चित्रका वध, कौरव-सेनाका पलायन तथा अश्वत्थामाका भीमसेनपर आक्रमण

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतकर्मा ततो राजंश्चित्रसेनं महीपतिम्।
आजघ्ने समरे क्रुद्धः पञ्चाशद्भिः शिलीमुखैः ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुतकर्मा ततो राजंश्चित्रसेनं महीपतिम्।
आजघ्ने समरे क्रुद्धः पञ्चाशद्भिः शिलीमुखैः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर श्रुतकर्माने समरांगणमें कुपित हो राजा चित्रसेनको पचास बाण मारे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिसारस्तु तं राजन् नवभिर्नतपर्वभिः।
श्रुतकर्माणमाहत्य सूतं विव्याध पञ्चभिः ॥ २ ॥

मूलम्

अभिसारस्तु तं राजन् नवभिर्नतपर्वभिः।
श्रुतकर्माणमाहत्य सूतं विव्याध पञ्चभिः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! अभिसारके राजा चित्रसेनने झुकी हुई गाँठवाले नौ बाणोंसे श्रुतकर्माको घायल करके पाँचसे उसके सारथिको भी बींध डाला॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतकर्मा ततः क्रुद्धश्चित्रसेनं चमूमुखे।
नाराचेन सुतीक्ष्णेन मर्मदेशे समार्पयत् ॥ ३ ॥

मूलम्

श्रुतकर्मा ततः क्रुद्धश्चित्रसेनं चमूमुखे।
नाराचेन सुतीक्ष्णेन मर्मदेशे समार्पयत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रोधमें भरे हुए श्रुतकर्माने सेनाके मुहानेपर तीखे नाराचसे चित्रसेनके मर्मस्थलपर आघात किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिविद्धो महाराज नाराचेन महात्मना।
मूर्च्छामभिययौ वीरः कश्मलं चाविवेश ह ॥ ४ ॥

मूलम्

सोऽतिविद्धो महाराज नाराचेन महात्मना।
मूर्च्छामभिययौ वीरः कश्मलं चाविवेश ह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना श्रुतकर्माके नाराचसे अत्यन्त घायल होनेपर वीर चित्रसेनको मूर्च्छा आ गयी। वे अचेत हो गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे चैनं श्रुतकीर्तिर्महायशाः ।
नवत्या जगतीपालं छादयामास पत्रिभिः ॥ ५ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे चैनं श्रुतकीर्तिर्महायशाः ।
नवत्या जगतीपालं छादयामास पत्रिभिः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें महायशस्वी श्रुतकीर्तिने नब्बे बाणोंसे भूपाल चित्रसेनको आच्छादित कर दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां चित्रसेनो महारथः।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन तं च विव्याध सप्तभिः ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां चित्रसेनो महारथः।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन तं च विव्याध सप्तभिः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर होशमें आकर महारथी चित्रसेनने एक भल्लसे श्रुतकर्माका धनुष काट डाला और उसे भी सात बाणोंसे घायल कर दिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽन्यत् कार्मुकमादाय वेगघ्नं रुक्मभूषितम्।
चित्ररूपधरं चक्रे चित्रसेनं शरोर्मिभिः ॥ ७ ॥

मूलम्

सोऽन्यत् कार्मुकमादाय वेगघ्नं रुक्मभूषितम्।
चित्ररूपधरं चक्रे चित्रसेनं शरोर्मिभिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रुतकर्माने शत्रुओंके वेगको नष्ट करनेवाला दूसरा सुवर्णभूषित धनुष लेकर चित्रसेनको अपने बाणोंकी लहरोंसे विचित्र रूपधारी बना दिया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शरैश्चित्रितो राजा चित्रमाल्यधरो युवा।
अशोभत महारङ्गे श्वाविच्छललतो यथा ॥ ८ ॥

मूलम्

स शरैश्चित्रितो राजा चित्रमाल्यधरो युवा।
अशोभत महारङ्गे श्वाविच्छललतो यथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्र माला धारण करनेवाले नवयुवक राजा चित्रसेन उन बाणोंसे चित्रित हो युद्धके महान् रंगस्थलमें काँटोंसे भरे हुए साहीके समान सुशोभित होने लगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतकर्माणमथ वै नाराचेन स्तनान्तरे।
बिभेद तरसा शूरस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

श्रुतकर्माणमथ वै नाराचेन स्तनान्तरे।
बिभेद तरसा शूरस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उस शूरवीर नरेशने श्रुतकर्माकी छातीमें बड़े वेगसे नाराचका प्रहार किया और कहा—‘खड़ा रह, खड़ा रह’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतकर्मापि समरे नाराचेन समर्पितः।
सुस्राव रुधिरं तत्र गैरिकार्द्र इवाचलः ॥ १० ॥

मूलम्

श्रुतकर्मापि समरे नाराचेन समर्पितः।
सुस्राव रुधिरं तत्र गैरिकार्द्र इवाचलः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय नाराचसे घायल हुआ श्रुतकर्मा समरांगणमें उसी प्रकार रक्त बहाने लगा, जैसे गेरूसे भीगा हुआ पर्वत लाल रंगकी जलधारा बहाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स रुधिराक्ताङ्गो रुधिरेण कृतच्छविः।
रराज समरे वीरः सपुष्प इव किंशुकः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः स रुधिराक्ताङ्गो रुधिरेण कृतच्छविः।
रराज समरे वीरः सपुष्प इव किंशुकः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् खूनसे लथपथ अंगोंवाला वीर श्रुतकर्मा समरांगणमें उस रुधिरसे अभिनव शोभा धारण करके खिले हुए पलाशवृक्षके समान सुशोभित हुआ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतकर्मा ततो राजन् शत्रुणा समभिद्रुतः।
शत्रुसंवारणं क्रुद्धो द्विधा चिच्छेद कार्मुकम् ॥ १२ ॥

मूलम्

श्रुतकर्मा ततो राजन् शत्रुणा समभिद्रुतः।
शत्रुसंवारणं क्रुद्धो द्विधा चिच्छेद कार्मुकम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! शत्रुके द्वारा इस प्रकार आक्रान्त होनेपर श्रुतकर्मा कुपित हो उठा और उसने राजा चित्रसेनके शत्रु-निवारक धनुषके दो टुकड़े कर डाले॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं छिन्नधन्वानं नाराचानां शतैस्त्रिभिः।
छादयन् समरे राजन् विव्याध च सुपत्रिभिः ॥ १३ ॥

मूलम्

अथैनं छिन्नधन्वानं नाराचानां शतैस्त्रिभिः।
छादयन् समरे राजन् विव्याध च सुपत्रिभिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! धनुष कट जानेपर चित्रसेनको आच्छादित करते हुए श्रुतकर्माने सुन्दर पंखवाले तीन सौ नाराचोंद्वारा उसे घायल कर दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपरेण भल्लेन तीक्ष्णेन निशितेन च।
जहार सशिरस्त्राणं शिरस्तस्य महात्मनः ॥ १४ ॥

मूलम्

ततोऽपरेण भल्लेन तीक्ष्णेन निशितेन च।
जहार सशिरस्त्राणं शिरस्तस्य महात्मनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर एक पैनी धारवाले तीखे भल्लसे उसने महामना चित्रसेनके शिरस्त्राणसहित मस्तकको काट लिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छिरो न्यपतद् भूमौ चित्रसेनस्य दीप्तिमत्।
यदृच्छया यथा चन्द्रश्च्युतः स्वर्गान्महीतलम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तच्छिरो न्यपतद् भूमौ चित्रसेनस्य दीप्तिमत्।
यदृच्छया यथा चन्द्रश्च्युतः स्वर्गान्महीतलम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रसेनका वह दीप्तिशाली मस्तक पृथ्वीपर गिर पड़ा, मानो चन्द्रमा दैवेच्छावश स्वर्गसे भूतलपर आ गिरा हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानं निहतं दृष्ट्‌वा तेऽभिसारं तु मारिष।
अभ्यद्रवन्त वेगेन चित्रसेनस्य सैनिकाः ॥ १६ ॥

मूलम्

राजानं निहतं दृष्ट्‌वा तेऽभिसारं तु मारिष।
अभ्यद्रवन्त वेगेन चित्रसेनस्य सैनिकाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! अभिसार देशके अधिपति राजा चित्रसेनको मारा गया देख उनके सैनिक बड़े वेगसे भाग चले॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो महेष्वासस्तत्सैन्यं प्राद्रवच्छरैः।
अन्तकाले यथा क्रुद्धः सर्वभूतानि प्रेतराट् ॥ १७ ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो महेष्वासस्तत्सैन्यं प्राद्रवच्छरैः।
अन्तकाले यथा क्रुद्धः सर्वभूतानि प्रेतराट् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए महाधनुर्धर श्रुतकर्माने अपने बाणोंद्वारा उस सेनापर आक्रमण किया, मानो प्रलयकालमें कुपित हुए यमराज समस्त प्राणियोंपर धावा बोल रहे हों॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वध्यमानाः समरे तव पौत्रेण धन्विना।
व्यद्रवन्त दिशस्तूर्णं दावदग्धा इव द्विपाः ॥ १८ ॥

मूलम्

ते वध्यमानाः समरे तव पौत्रेण धन्विना।
व्यद्रवन्त दिशस्तूर्णं दावदग्धा इव द्विपाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें आपके धनुर्धर पौत्र श्रुतकर्माद्वारा मारे जाते हुए वे सैनिक दावानलमें झुलसे हुए हाथियोंके समान तुरंत ही सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु विद्रवतो दृष्ट्‌वा निरुत्साहान् द्विषज्जये।
द्रावयन्निषुभिस्तीक्ष्णैः श्रुतकर्मा व्यरोचत ॥ १९ ॥

मूलम्

तांस्तु विद्रवतो दृष्ट्‌वा निरुत्साहान् द्विषज्जये।
द्रावयन्निषुभिस्तीक्ष्णैः श्रुतकर्मा व्यरोचत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंपर विजय पानेका उत्साह छोड़कर भागते हुए उन सैनिकोंको देखकर अपने तीखे बाणोंसे उन्हें खदेड़ते हुए श्रुतकर्माकी अपूर्व शोभा हो रही थी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिविन्ध्यस्ततश्चित्रं भित्त्वा पञ्चभिराशुगैः ।
सारथिं च त्रिभिर्विद्ध्वा ध्वजमेकेषुणापि च ॥ २० ॥

मूलम्

प्रतिविन्ध्यस्ततश्चित्रं भित्त्वा पञ्चभिराशुगैः ।
सारथिं च त्रिभिर्विद्ध्वा ध्वजमेकेषुणापि च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी ओर प्रतिविन्ध्यने पाँच बाणोंद्वारा चित्रको क्षत-विक्षत करके तीन बाणोंसे सारथिको घायल कर दिया और एक बाणसे उसके ध्वजको भी बींध डाला॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चित्रो नवभिर्भल्लैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्।
स्वर्णपुङ्खैः प्रसन्नाग्रैः कङ्कबर्हिणवाजितैः ॥ २१ ॥

मूलम्

तं चित्रो नवभिर्भल्लैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्।
स्वर्णपुङ्खैः प्रसन्नाग्रैः कङ्कबर्हिणवाजितैः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब चित्रने कंक और मयूरकी पाँखोंसे युक्त स्वच्छ धार और सुनहरे पंखवाले नौ भल्लोंसे प्रतिविन्ध्यकी दोनों भुजाओं और छातीमें गहरी चोट पहुँचायी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिविन्ध्यो धनुश्छित्त्वा तस्य भारत सायकैः।
पञ्चभिर्निशितैर्बाणैरथैनं स हि जघ्निवान् ॥ २२ ॥

मूलम्

प्रतिविन्ध्यो धनुश्छित्त्वा तस्य भारत सायकैः।
पञ्चभिर्निशितैर्बाणैरथैनं स हि जघ्निवान् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! प्रतिविन्ध्यने अपने बाणोंद्वारा उसके धनुषको काटकर पाँच तीखे बाणोंसे चित्रको भी घायल कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शक्तिं महाराज स्वर्णघण्टां दुरासदाम्।
प्राहिणोत् तव पौत्राय घोरामग्निशिखामिव ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः शक्तिं महाराज स्वर्णघण्टां दुरासदाम्।
प्राहिणोत् तव पौत्राय घोरामग्निशिखामिव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर चित्रने आपके पौत्रपर घोर अग्निशिखाके समान सुवर्णमय घंटोंसे सुशोभित एक दुर्धर्ष शक्ति चलायी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं सहसा महोल्काप्रतिमां तदा।
द्विधा चिच्छेद समरे प्रतिविन्ध्यो हसन्निव ॥ २४ ॥

मूलम्

तामापतन्तीं सहसा महोल्काप्रतिमां तदा।
द्विधा चिच्छेद समरे प्रतिविन्ध्यो हसन्निव ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरांगणमें बड़ी भारी उल्काके समान सहसा आती हुई उस शक्तिको प्रतिविन्ध्यने हँसते हुए-से दो टुकड़ोंमें काट डाला॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा पपात द्विधा छिन्ना प्रतिविन्ध्यशरैः शितैः।
युगान्ते सर्वभूतानि त्रासयन्ती यथाशनिः ॥ २५ ॥

मूलम्

सा पपात द्विधा छिन्ना प्रतिविन्ध्यशरैः शितैः।
युगान्ते सर्वभूतानि त्रासयन्ती यथाशनिः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिविन्ध्यके तीखे बाणोंसे दो टूक होकर वह शक्ति प्रलयकालमें सम्पूर्ण प्राणियोंको भयभीत करनेवाली अशनिके समान गिर पड़ी॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिं तां प्रहतां दृष्ट्‌वा चित्रो गृह्य महागदाम्।
प्रतिविन्ध्याय चिक्षेप रुक्मजालविभूषिताम् ॥ २६ ॥

मूलम्

शक्तिं तां प्रहतां दृष्ट्‌वा चित्रो गृह्य महागदाम्।
प्रतिविन्ध्याय चिक्षेप रुक्मजालविभूषिताम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस शक्तिको नष्ट हुई देख चित्रने सोनेकी जालियोंसे विभूषित एक विशाल गदा हाथमें ले ली और उसे प्रतिविन्ध्यपर छोड़ दिया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा जघान हयांस्तस्य सारथिं च महारणे।
रथं प्रमृद्य वेगेन धरणीमन्वपद्यत ॥ २७ ॥

मूलम्

सा जघान हयांस्तस्य सारथिं च महारणे।
रथं प्रमृद्य वेगेन धरणीमन्वपद्यत ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस गदाने महासमरमें प्रतिविन्ध्यके घोड़ों और सारथिको मार डाला और रथको भी चूर-चूर करती हुई वह बड़े वेगसे पृथ्वीपर गिर पड़ी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु रथादाप्लुत्य भारत।
शक्तिं चिक्षेप चित्राय स्वर्णदण्डामलंकृताम् ॥ २८ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु रथादाप्लुत्य भारत।
शक्तिं चिक्षेप चित्राय स्वर्णदण्डामलंकृताम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इसी बीचमें रथसे कूदकर प्रतिविन्ध्यने चित्रपर एक सुवर्णमय दण्डवाली सुसज्जित शक्ति चलायी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं जग्राह चित्रो राजन् महामनाः।
ततस्तामेव चिक्षेप प्रतिविन्ध्याय पार्थिवः ॥ २९ ॥

मूलम्

तामापतन्तीं जग्राह चित्रो राजन् महामनाः।
ततस्तामेव चिक्षेप प्रतिविन्ध्याय पार्थिवः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! महामना राजा चित्रने अपनी ओर आती हुई उस शक्तिको हाथसे पकड़ लिया और फिर उसीको प्रतिविन्ध्यपर दे मारा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समासाद्य रणे शूरं प्रतिविन्ध्यं महाप्रभा।
निर्भिद्य दक्षिणं बाहुं निपपात महीतले।
पतिताभासयच्चैव तं देशमशनिर्यथा ॥ ३० ॥

मूलम्

समासाद्य रणे शूरं प्रतिविन्ध्यं महाप्रभा।
निर्भिद्य दक्षिणं बाहुं निपपात महीतले।
पतिताभासयच्चैव तं देशमशनिर्यथा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अत्यन्त कान्तिमती शक्ति रणभूमिमें शूरवीर प्रतिविन्ध्यको जा लगी और उसकी दाहिनी भुजाको विदीर्ण करती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी। वह जहाँ गिरी, उस स्थानको बिजलीके समान प्रकाशित करने लगी॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिविन्ध्यस्ततो राजंस्तोमरं हेमभूषितम् ।
प्रेषयामास संक्रुद्धश्चित्रस्य वधकाङ्‌क्षया ॥ ३१ ॥

मूलम्

प्रतिविन्ध्यस्ततो राजंस्तोमरं हेमभूषितम् ।
प्रेषयामास संक्रुद्धश्चित्रस्य वधकाङ्‌क्षया ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए प्रतिविन्ध्यने चित्रके वधकी इच्छासे उसके ऊपर एक सुवर्णभूषित तोमरका प्रहार किया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य गात्रावरणं भित्त्वा हृदयमेव च।
जगाम धरणीं तूर्णं महोरग इवाशयम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

स तस्य गात्रावरणं भित्त्वा हृदयमेव च।
जगाम धरणीं तूर्णं महोरग इवाशयम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह तोमर उसके कवच और वक्षःस्थलको विदीर्ण करता हुआ तुरंत धरतीमें समा गया, जैसे कोई बड़ा सर्प बिलमें घुस गया हो॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पपात तदा राजा तोमरेण समाहतः।
प्रसार्य विपुलौ बाहू पीनौ परिघसंनिभौ ॥ ३३ ॥

मूलम्

स पपात तदा राजा तोमरेण समाहतः।
प्रसार्य विपुलौ बाहू पीनौ परिघसंनिभौ ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तोमरसे अत्यन्त आहत हो राजा चित्र अपनी परिघके समान मोटी और विशाल भुजाओंको फैलाकर तत्काल पृथ्वीपर गिर पड़ा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रं सम्प्रेक्ष्य निहतं तावका रणशोभिनः।
अभ्यद्रवन्त वेगेन प्रतिविन्ध्यं समन्ततः ॥ ३४ ॥

मूलम्

चित्रं सम्प्रेक्ष्य निहतं तावका रणशोभिनः।
अभ्यद्रवन्त वेगेन प्रतिविन्ध्यं समन्ततः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रको मारा गया देख संग्राममें शोभा पानेवाले आपके योद्धा प्रतिविन्ध्यपर चारों ओरसे वेगपूर्वक टूट पड़े॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृजन्तो विविधान्‌ बाणान् शतघ्नीश्च सकिंकिणीः।
तमवच्छादयामासुः सूर्यमभ्रगणा इव ॥ ३५ ॥

मूलम्

सृजन्तो विविधान्‌ बाणान् शतघ्नीश्च सकिंकिणीः।
तमवच्छादयामासुः सूर्यमभ्रगणा इव ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बादल सूर्यको ढक लेते हैं, उसी प्रकार उन योद्धाओंने नाना प्रकारके बाणों और छोटी-छोटी घंटियोंसहित शतघ्नियोंका प्रहार करके उसे आच्छादित कर दिया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् विधम्य महाबाहुः शरजालेन संयुगे।
व्यद्रावयत् तव चमूं वज्रहस्त इवासुरीम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

तान् विधम्य महाबाहुः शरजालेन संयुगे।
व्यद्रावयत् तव चमूं वज्रहस्त इवासुरीम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरोंकी सेनाको खदेड़ते हैं, उसी प्रकार युद्धस्थलमें महाबाहु प्रतिविन्ध्यने अपने बाणसमूहोंसे उन अस्त्र-शस्त्रोंको नष्ट करके आपकी सेनाको मार भगाया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वध्यमानाः समरे तावकाः पाण्डवैर्नृप।
विप्राकीर्यन्त सहसा वातनुन्ना घना इव ॥ ३७ ॥

मूलम्

ते वध्यमानाः समरे तावकाः पाण्डवैर्नृप।
विप्राकीर्यन्त सहसा वातनुन्ना घना इव ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! समरभूमिमें पाण्डवोंकी मार खाकर आपके सैनिक हवाके उड़ाये हुए बादलोंके समान सहसा छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रद्रुते बले तस्मिन् वध्यमाने समन्ततः।
द्रौणिरेकोऽभ्ययात् तूर्णं भीमसेनं महाबलम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

विप्रद्रुते बले तस्मिन् वध्यमाने समन्ततः।
द्रौणिरेकोऽभ्ययात् तूर्णं भीमसेनं महाबलम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके द्वारा मारी जाती हुई आपकी वह सेना जब चारों ओर भागने लगी, तब अकेले अश्वत्थामाने तुरंत ही महाबली भीमसेनपर आक्रमण कर दिया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समागमो घोरो बभूव सहसा तयोः।
यथा देवासुरे युद्धे वृत्रवासवयोरिव ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततः समागमो घोरो बभूव सहसा तयोः।
यथा देवासुरे युद्धे वृत्रवासवयोरिव ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो देवासुर-संग्राममें वृत्रासुर और इन्द्रके समान उन दोनों वीरोंमें सहसा घोर युद्ध छिड़ गया॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि चित्रवधे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें चित्रसेन और चित्रका वधविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥