भागसूचना
एकादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्णके सेनापतित्वमें कौरव-सेनाका युद्धके लिये प्रस्थान और मकरव्यूहका निर्माण तथा पाण्डव-सेनाके अर्धचन्द्राकार व्यूहकी रचना और युद्धका आरम्भ
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैनापत्यं तु सम्प्राप्य कर्णो वैकर्तनस्तदा।
तथोक्तश्च स्वयं राज्ञा स्निग्धं भ्रातृसमं वचः ॥ १ ॥
योगमाज्ञाप्य सेनानामादित्येऽभ्युदिते तदा ।
अकरोत् किं महाप्राज्ञस्तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥
मूलम्
सैनापत्यं तु सम्प्राप्य कर्णो वैकर्तनस्तदा।
तथोक्तश्च स्वयं राज्ञा स्निग्धं भ्रातृसमं वचः ॥ १ ॥
योगमाज्ञाप्य सेनानामादित्येऽभ्युदिते तदा ।
अकरोत् किं महाप्राज्ञस्तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! सेनापतिका पद पाकर जब परम बुद्धिमान् वैकर्तन कर्ण युद्धके लिये तैयार हुआ और जब स्वयं राजा दुर्योधनने उससे भाईके समान स्नेहपूर्ण वचन कहा, उस समय सूर्योदयकालमें सेनाको युद्धके लिये तैयार होनेकी आज्ञा देकर उसने क्या किया? यह मुझे बताओ॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्य मतमाज्ञाय पुत्रास्ते भरतर्षभ।
योगमाज्ञापयामासुर्नन्दितूर्यपुरःसरम् ॥ ३ ॥
मूलम्
कर्णस्य मतमाज्ञाय पुत्रास्ते भरतर्षभ।
योगमाज्ञापयामासुर्नन्दितूर्यपुरःसरम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— भरतश्रेष्ठ! कर्णका मत जानकर आपके पुत्रोंने आनन्दमय वाद्योंके साथ सेनाको तैयार होनेका आदेश दिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महत्यपररात्रे च तव सैन्यस्य मारिष।
योगो योगेति सहसा प्रादुरासीन्महास्वनः ॥ ४ ॥
मूलम्
महत्यपररात्रे च तव सैन्यस्य मारिष।
योगो योगेति सहसा प्रादुरासीन्महास्वनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! अत्यन्त प्रातःकालसे ही आपकी सेनामें सहसा ‘तैयार हो जाओ, तैयार हो जाओ’ का शब्द गूँज उठा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्प्यतां नागमुख्यानां रथानां च वरूथिनाम्।
संनह्यतां नराणां च वाजिनां च विशाम्पते ॥ ५ ॥
क्रोशतां चैव योधानां त्वरितानां परस्परम्।
बभूव तुमुलः शब्दो दिवस्पृक् सुमहांस्ततः ॥ ६ ॥
मूलम्
कल्प्यतां नागमुख्यानां रथानां च वरूथिनाम्।
संनह्यतां नराणां च वाजिनां च विशाम्पते ॥ ५ ॥
क्रोशतां चैव योधानां त्वरितानां परस्परम्।
बभूव तुमुलः शब्दो दिवस्पृक् सुमहांस्ततः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! सजाये जाते हुए बड़े-बड़े गजराजों, आवरणयुक्त रथों, कवच धारण करते हुए मनुष्यों, कसे जाते हुए घोड़ों तथा उतावलीपूर्वक एक-दूसरेको पुकारते हुए योद्धाओंका महान् तुमुल-नाद आकाशमें बहुत ऊँचेतक गूँज रहा था॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः श्वेतपताकेन बलाकावर्णवाजिना ।
हेमपृष्ठेन धनुषा नागकक्ष्येण केतुना ॥ ७ ॥
तूणीरशतपूर्णेन सगदेन वरूथिना ।
शतघ्नीकिंकिणीशक्तिशूलतोमरधारिणा ॥ ८ ॥
कार्मुकैरुपपन्नेन विमलादित्यवर्चसा ।
रथेनाभिपताकेन सूतपुत्रोऽभ्यदृश्यत ॥ ९ ॥
मूलम्
ततः श्वेतपताकेन बलाकावर्णवाजिना ।
हेमपृष्ठेन धनुषा नागकक्ष्येण केतुना ॥ ७ ॥
तूणीरशतपूर्णेन सगदेन वरूथिना ।
शतघ्नीकिंकिणीशक्तिशूलतोमरधारिणा ॥ ८ ॥
कार्मुकैरुपपन्नेन विमलादित्यवर्चसा ।
रथेनाभिपताकेन सूतपुत्रोऽभ्यदृश्यत ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सूतपुत्र कर्ण निर्मल सूर्यके समान तेजस्वी और सब ओरसे पताकाओंद्वारा सुशोभित रथके द्वारा रणयात्राके लिये उद्यत दिखायी दिया। उस रथमें श्वेत पताका फहरा रही थी। बगुलोंके समान सफेद रंगके घोड़े जुते हुए थे। उसपर एक ऐसा धनुष रखा हुआ था, जिसके पृष्ठभागपर सोना मढ़ा गया था। उस रथकी पताकापर हाथीके रस्सेका चिह्न बना हुआ था। उसमें गदाके साथ ही सैकड़ों तरकस रखे गये थे। रथकी रक्षाके लिये ऊपरसे आवरण लगाया गया था। उसमें शतघ्नी, किंकिणी, शक्ति, शूल और तोमर संचित करके रखे गये थे तथा वह रथ अनेक धनुषोंसे सम्पन्न था॥७—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्मापयन् वारिजं राजन् हेमजालविभूषितम्।
विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ॥ १० ॥
मूलम्
ध्मापयन् वारिजं राजन् हेमजालविभूषितम्।
विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कर्ण सोनेकी जालियोंसे विभूषित शंखको बजाता हुआ अपने सुवर्णसज्जित विशाल धनुषकी टंकार कर रहा था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा कर्णं महेष्वासं रथस्थं रथिनां वरम्।
भानुमन्तमिवोद्यन्तं तमो घ्नन्तं दुरासदम् ॥ ११ ॥
न भीष्मव्यसनं केचिन्नापि द्रोणस्य मारिष।
नान्येषां पुरुषव्याघ्र मेनिरे तत्र कौरवाः ॥ १२ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा कर्णं महेष्वासं रथस्थं रथिनां वरम्।
भानुमन्तमिवोद्यन्तं तमो घ्नन्तं दुरासदम् ॥ ११ ॥
न भीष्मव्यसनं केचिन्नापि द्रोणस्य मारिष।
नान्येषां पुरुषव्याघ्र मेनिरे तत्र कौरवाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! माननीय नरेश! रथियोंमें श्रेष्ठ महाधनुर्धर दुर्जय वीर कर्ण रथपर बैठकर उदयकालीन सूर्यके समान तम (दुःख या अन्धकार)-का निवारण कर रहा था। उसे देखकर कोई भी कौरव भीष्म, द्रोण तथा दूसरे महारथियोंके मारे जानेके दुःखको कुछ नहीं समझते थे॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु त्वरयन् योधान् शङ्खशब्देन मारिष।
कर्णो निष्कर्षयामास कौरवाणां महद् बलम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततस्तु त्वरयन् योधान् शङ्खशब्देन मारिष।
कर्णो निष्कर्षयामास कौरवाणां महद् बलम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान्यवर! तदनन्तर शंखध्वनिके द्वारा योद्धाओंको जल्दी करनेका आदेश देते हुए कर्णने कौरवोंकी विशाल वाहिनीको शिविरोंसे बाहर निकाला॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यूहं व्यूह्य महेष्वासो मकरं शत्रुतापनः।
प्रत्युद्ययौ तथा कर्णः पाण्डवान् विजिगीषया ॥ १४ ॥
मूलम्
व्यूहं व्यूह्य महेष्वासो मकरं शत्रुतापनः।
प्रत्युद्ययौ तथा कर्णः पाण्डवान् विजिगीषया ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् शत्रुओंको संताप देनेवाला महाधनुर्धर कर्ण पाण्डवोंको जीत लेनेकी इच्छासे अपनी सेनाका मकर-व्यूह बनाकर आगे बढ़ा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मकरस्य तु तुण्डे वै कर्णो राजन् व्यवस्थितः।
नेत्राभ्यां शकुनिः शूर उलूकश्च महारथः ॥ १५ ॥
मूलम्
मकरस्य तु तुण्डे वै कर्णो राजन् व्यवस्थितः।
नेत्राभ्यां शकुनिः शूर उलूकश्च महारथः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस मकर-व्यूहके मुखभागमें स्वयं कर्ण खड़ा हुआ, नेत्रोंके स्थानमें शूरवीर शकुनि तथा महारथी उलूक खड़े किये गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणपुत्रस्तु शिरसि ग्रीवायां सर्वसोदराः।
मध्ये दुर्योधनो राजा बलेन महता वृतः ॥ १६ ॥
मूलम्
द्रोणपुत्रस्तु शिरसि ग्रीवायां सर्वसोदराः।
मध्ये दुर्योधनो राजा बलेन महता वृतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शीर्षस्थानमें द्रोणकुमार अश्वत्थामा और ग्रीवा-भागमें दुर्योधनके समस्त भाई स्थित हुए। मध्यस्थान (कटिप्रदेश)-में विशाल सेनासे घिरा हुआ राजा दुर्योधन खड़ा हुआ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वामपादे तु राजेन्द्र कृतवर्मा व्यवस्थितः।
नारायणबलैर्युक्तो गोपालैर्युद्धदुर्मदैः ॥ १७ ॥
मूलम्
वामपादे तु राजेन्द्र कृतवर्मा व्यवस्थितः।
नारायणबलैर्युक्तो गोपालैर्युद्धदुर्मदैः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उस मकरव्यूहके बायें पैरकी जगह नारायणी-सेनाके रणदुर्मद गोपालोंके साथ कृतवर्मा खड़ा किया गया था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादे तु दक्षिणे राजन् गौतमः सत्यविक्रमः।
त्रिगर्तैः सुमहेष्वासैर्दाक्षिणात्यैश्च संवृतः ॥ १८ ॥
मूलम्
पादे तु दक्षिणे राजन् गौतमः सत्यविक्रमः।
त्रिगर्तैः सुमहेष्वासैर्दाक्षिणात्यैश्च संवृतः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! व्यूहके दाहिने पैरके स्थानमें महाधनुर्धर त्रिगर्तों और दाक्षिणात्योंसे घिरे हुए सत्यपराक्रमी कृपाचार्य खड़े थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुपादे तु यो वामस्तत्र शल्यो व्यवस्थितः।
महत्या सेनया सार्धं मद्रदेशसमुत्थया ॥ १९ ॥
मूलम्
अनुपादे तु यो वामस्तत्र शल्यो व्यवस्थितः।
महत्या सेनया सार्धं मद्रदेशसमुत्थया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बायें पैरके पिछले भागमें मद्रदेशकी विशाल सेनाके साथ स्वयं राजा शल्य उपस्थित थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणे तु महाराज सुषेणः सत्यसंगरः।
वृतो रथसहस्रेण दन्तिनां च त्रिभिः शतैः ॥ २० ॥
मूलम्
दक्षिणे तु महाराज सुषेणः सत्यसंगरः।
वृतो रथसहस्रेण दन्तिनां च त्रिभिः शतैः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! दाहिने पैरके पिछले भागमें एक सहस्र रथियों और तीन सौ हाथियोंसे घिरे हुए सत्यप्रतिज्ञ सुषेण खड़े किये गये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुच्छे ह्यास्तां महावीर्यौ भ्रातरौ पार्थिवौ तदा।
चित्रश्च चित्रसेनश्च महत्या सेनया वृतौ ॥ २१ ॥
मूलम्
पुच्छे ह्यास्तां महावीर्यौ भ्रातरौ पार्थिवौ तदा।
चित्रश्च चित्रसेनश्च महत्या सेनया वृतौ ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यूहके पुच्छभागमें महापराक्रमी दोनों भाई राजा चित्र और चित्रसेन अपनी विशाल सेनाके साथ उपस्थित हुए॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा प्रयाते राजेन्द्र कर्णे नरवरोत्तमे।
धनंजयमभिप्रेक्ष्य धर्मराजोऽब्रवीदिदम् ॥ २२ ॥
मूलम्
तथा प्रयाते राजेन्द्र कर्णे नरवरोत्तमे।
धनंजयमभिप्रेक्ष्य धर्मराजोऽब्रवीदिदम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! मनुष्योंमें श्रेष्ठ कर्णके इस प्रकार यात्रा करनेपर धर्मराज युधिष्ठिरने अर्जुनकी ओर देखकर इस प्रकार कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य पार्थ यथा सेना धार्तराष्ट्रीह संयुगे।
कर्णेन विहिता वीर गुप्ता वीरैर्महारथैः ॥ २३ ॥
मूलम्
पश्य पार्थ यथा सेना धार्तराष्ट्रीह संयुगे।
कर्णेन विहिता वीर गुप्ता वीरैर्महारथैः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर पार्थ! देखो, इस समय युद्धस्थलमें धृतराष्ट्रपुत्रोंकी सेना कैसी स्थितिमें है? कर्णने वीर महारथियोंद्वारा इसे किस प्रकार सुरक्षित कर दिया है?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतवीरतमा ह्येषा धार्तराष्ट्री महाचमूः।
फल्गुशेषा महाबाहो तृणैस्तुल्या मता मम ॥ २४ ॥
मूलम्
हतवीरतमा ह्येषा धार्तराष्ट्री महाचमूः।
फल्गुशेषा महाबाहो तृणैस्तुल्या मता मम ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! कौरवोंकी इस विशाल सेनाके प्रमुख वीर तो मारे जा चुके हैं। अब इसके तुच्छ सैनिक ही शेष रह गये हैं। इस समय तो यह मुझे तिनकोंके समान जान पड़ती है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको ह्यत्र महेष्वासः सूतपुत्रो विराजते।
सदेवासुरगन्धर्वैः सकिन्नरमहोरगैः ॥ २५ ॥
चराचरैस्त्रिभिर्लोकैर्योऽजय्यो रथिनां वरः ।
तं हत्वाद्य महाबाहो विजयस्तव फाल्गुन ॥ २६ ॥
उद्धृतश्च भवेच्छल्यो मम द्वादशवार्षिकः।
एवं ज्ञात्वा महाबाहो व्यूहं व्यूह यथेच्छसि ॥ २७ ॥
मूलम्
एको ह्यत्र महेष्वासः सूतपुत्रो विराजते।
सदेवासुरगन्धर्वैः सकिन्नरमहोरगैः ॥ २५ ॥
चराचरैस्त्रिभिर्लोकैर्योऽजय्यो रथिनां वरः ।
तं हत्वाद्य महाबाहो विजयस्तव फाल्गुन ॥ २६ ॥
उद्धृतश्च भवेच्छल्यो मम द्वादशवार्षिकः।
एवं ज्ञात्वा महाबाहो व्यूहं व्यूह यथेच्छसि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस सेनामें एकमात्र महाधनुर्धर सूतपुत्र कर्ण विराजमान है, जो रथियोंमें श्रेष्ठ है तथा जिसे देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर, बड़े-बड़े नाग एवं चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंके लोग मिलकर भी नहीं जीत सकते। महाबाहु फाल्गुन! आज उसी कर्णको मारकर तुम्हारी विजय होगी और मेरे हृदयमें बारह वर्षोंसे जो सेल कसक रहा है, वह निकल जायगा। महाबाहो! ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसे व्यूहकी रचना करो’॥२५—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातुरेतद् वचः श्रुत्वा पाण्डवः श्वेतवाहनः।
अर्धचन्द्रेण व्यूहेन प्रत्यव्यूहत तां चमूम् ॥ २८ ॥
मूलम्
भ्रातुरेतद् वचः श्रुत्वा पाण्डवः श्वेतवाहनः।
अर्धचन्द्रेण व्यूहेन प्रत्यव्यूहत तां चमूम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाईकी यह बात सुनकर श्वेतवाहन पाण्डुपुत्र अर्जुनने इस कौरव-सेनाके मुकाबलेमें अपनी सेनाके अर्द्धचन्द्राकार व्यूहकी रचना की॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वामपार्श्वे तु तस्याथ भीमसेनो व्यवस्थितः।
दक्षिणे च महेष्वासो धृष्टद्युम्नो व्यवस्थितः ॥ २९ ॥
मध्ये व्यूहस्य राजा तु पाण्डवश्च धनंजयः।
नकुलः सहदेवश्च धर्मराजस्य पृष्ठतः ॥ ३० ॥
मूलम्
वामपार्श्वे तु तस्याथ भीमसेनो व्यवस्थितः।
दक्षिणे च महेष्वासो धृष्टद्युम्नो व्यवस्थितः ॥ २९ ॥
मध्ये व्यूहस्य राजा तु पाण्डवश्च धनंजयः।
नकुलः सहदेवश्च धर्मराजस्य पृष्ठतः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस व्यूहके वाम पार्श्वमें भीमसेन और दाहिने पार्श्वमें महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न खड़े हुए। उसके मध्यभागमें राजा युधिष्ठिर और पाण्डुपुत्र धनंजय खड़े थे। धर्मराजके पृष्ठभागमें नकुल और सहदेव थे॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्ररक्षौ तु पाञ्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ।
नार्जुनं जहतुर्युद्धे पाल्यमानौ किरीटिना ॥ ३१ ॥
मूलम्
चक्ररक्षौ तु पाञ्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ।
नार्जुनं जहतुर्युद्धे पाल्यमानौ किरीटिना ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचाल महारथी युधामन्यु और उत्तमौजा अर्जुनके चक्ररक्षक थे। किरीटधारी अर्जुनसे सुरक्षित होकर उन दोनोंने युद्धमें कभी उनका साथ नहीं छोड़ा॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेषा नृपतयो वीराः स्थिता व्यूहस्य दंशिताः।
यथाभागं यथोत्साहं यथायत्नं च भारत ॥ ३२ ॥
मूलम्
शेषा नृपतयो वीराः स्थिता व्यूहस्य दंशिताः।
यथाभागं यथोत्साहं यथायत्नं च भारत ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! शेष वीर नरेश कवच धारण करके व्यूहके विभिन्न भागोंमें अपने उत्साह और प्रयत्नके अनुसार खड़े हुए थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महाव्यूहं व्यूह्य भारत पाण्डवाः।
तावकाश्च महेष्वासा युद्धायैव मनो वधुः ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवमेतन्महाव्यूहं व्यूह्य भारत पाण्डवाः।
तावकाश्च महेष्वासा युद्धायैव मनो वधुः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! इस प्रकार इस महाव्यूहकी रचना करके पाण्डवों तथा आपके महाधनुर्धरोंने युद्धमें ही मन लगाया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा व्यूढां तव चमूं सूतपुत्रेण संयुगे।
निहतान् पाण्डवान् मेने धार्तराष्ट्रः सबान्धवः ॥ ३४ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा व्यूढां तव चमूं सूतपुत्रेण संयुगे।
निहतान् पाण्डवान् मेने धार्तराष्ट्रः सबान्धवः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धस्थलमें सूतपुत्र कर्णके द्वारा व्यूह-रचनापूर्वक खड़ी की गयी आपकी सेनाको देखकर भाइयोंसहित दुर्योधनने यह मान लिया कि ‘अब तो पाण्डव मारे गये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव पाण्डवीं सेनां व्यूढां दृष्ट्वा युधिष्ठिरः।
धार्तराष्ट्रान् हतान् मेने सकर्णान् वै जनाधिपः ॥ ३५ ॥
मूलम्
तथैव पाण्डवीं सेनां व्यूढां दृष्ट्वा युधिष्ठिरः।
धार्तराष्ट्रान् हतान् मेने सकर्णान् वै जनाधिपः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी प्रकार पाण्डव-सेनाका व्यूह देखकर राजा युधिष्ठिरने भी कर्णसहित आपके सभी पुत्रोंको मारा गया ही समझ लिया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकदुन्दुभिः।
डिण्डिमाश्चाप्यहन्यन्त झर्झराश्च समन्ततः ॥ ३६ ॥
सेनयोरुभयो राजन् प्रावाद्यन्त महास्वनाः।
सिंहनादश्च संजज्ञे शूराणां जयगृद्धिनाम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकदुन्दुभिः।
डिण्डिमाश्चाप्यहन्यन्त झर्झराश्च समन्ततः ॥ ३६ ॥
सेनयोरुभयो राजन् प्रावाद्यन्त महास्वनाः।
सिंहनादश्च संजज्ञे शूराणां जयगृद्धिनाम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर दोनों सेनाओंमें चारों ओर महान् शब्द करनेवाले शंख, भेरी, पणव, आनक, दुन्दुभि और झाँझ आदि बाजे बज उठे। नगाड़े पीटे जाने लगे। साथ ही विजयकी अभिलाषा रखनेवाले शूरवीरोंका सिंहनाद भी होने लगा॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयह्रेषितशब्दाश्च वारणानां च बृंहताम्।
रथनेमिस्वनाश्चोग्राः सम्बभूवुर्जनाधिप ॥ ३८ ॥
मूलम्
हयह्रेषितशब्दाश्च वारणानां च बृंहताम्।
रथनेमिस्वनाश्चोग्राः सम्बभूवुर्जनाधिप ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! घोड़ोंके हींसने, हाथियोंके चिग्घाड़ने तथा रथके पहियोंके घरघरानेके भयंकर शब्द प्रकट होने लगे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न द्रोणव्यसनं कश्चिज्जानीते तत्र भारत।
दृष्ट्वा कर्णं महेष्वासं मुखे व्यूहस्य दंशितम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
न द्रोणव्यसनं कश्चिज्जानीते तत्र भारत।
दृष्ट्वा कर्णं महेष्वासं मुखे व्यूहस्य दंशितम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! व्यूहके मुख्य द्वारपर कवच धारण किये महाधनुर्धर कर्णको खड़ा देख कोई भी सैनिक द्रोणाचार्यके मारे जानेके दुःखका अनुभव न कर सका॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभे सैन्ये महाराज प्रहृष्टनरसंकुले।
योद्धुकामे स्थिते राजन् हन्तुमन्योन्यमोजसा ॥ ४० ॥
मूलम्
उभे सैन्ये महाराज प्रहृष्टनरसंकुले।
योद्धुकामे स्थिते राजन् हन्तुमन्योन्यमोजसा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वे दोनों सेनाएँ हर्षोत्फुल्ल मनुष्योंसे भरी थीं। राजन्! वे बलपूर्वक परस्पर चोट करने और जूझनेकी इच्छासे मैदानमें आकर खड़ी हो गयीं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र यत्तौ सुसंरब्धौ दृष्ट्वान्योन्यं व्यवस्थितौ।
अनीकमध्ये राजेन्द्र चेरतुः कर्णपाण्डवौ ॥ ४१ ॥
मूलम्
तत्र यत्तौ सुसंरब्धौ दृष्ट्वान्योन्यं व्यवस्थितौ।
अनीकमध्ये राजेन्द्र चेरतुः कर्णपाण्डवौ ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वहाँ रोषमें भरकर सावधानीके साथ खड़े हुए कर्ण और पाण्डव अपनी-अपनी सेनामें विचरने लगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृत्यमाने च ते सेने समेयातां परस्परम्।
तयोः पक्षप्रपक्षेभ्यो निर्जग्मुस्ते युयुत्सवः ॥ ४२ ॥
मूलम्
नृत्यमाने च ते सेने समेयातां परस्परम्।
तयोः पक्षप्रपक्षेभ्यो निर्जग्मुस्ते युयुत्सवः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों सेनाएँ परस्पर नृत्य करती हुई-सी भिड़ गयीं। युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले वीर उन दोनों व्यूहोंके पक्ष और प्रपक्षसे निकलने लगे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रववृते युद्धं नरवारणवाजिनाम्।
रथानां च महाराज अन्योन्यमभिनिघ्नताम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततः प्रववृते युद्धं नरवारणवाजिनाम्।
रथानां च महाराज अन्योन्यमभिनिघ्नताम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर एक-दूसरेपर आघात करनेवाले मनुष्य, हाथी, घोड़ों और रथोंका वह महान् युद्ध आरम्भ हो गया॥४३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि व्यूहनिर्माणे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें व्यूहनिर्माणविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११॥