००२

भागसूचना

द्वितीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्र और संजयका संवाद

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हते कर्णे महाराज निशि गावल्गणिस्तदा।
दीनो ययौ नागपुरमश्वैर्वातसमैर्जवे ॥ १ ॥

मूलम्

हते कर्णे महाराज निशि गावल्गणिस्तदा।
दीनो ययौ नागपुरमश्वैर्वातसमैर्जवे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— महाराज! कर्णके मारे जानेपर गवल्गणपुत्र संजय अत्यन्त दुःखी हो वायुके समान वेगशाली घोड़ोंद्वारा उसी रातमें हस्तिनापुर जा पहुँचे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हास्तिनपुरं गत्वा भृशमुद्विग्नचेतनः।
जगाम धृतराष्ट्रस्य क्षयं प्रक्षीणबान्धवम् ॥ २ ॥

मूलम्

स हास्तिनपुरं गत्वा भृशमुद्विग्नचेतनः।
जगाम धृतराष्ट्रस्य क्षयं प्रक्षीणबान्धवम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो रहा था। हस्तिनापुरमें पहुँचकर वे धृतराष्ट्रके उस महलमें गये, जहाँ रहनेवाले बन्धु-बान्धव प्रायः नष्ट हो चुके थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तमुद्वीक्ष्य राजानं कश्मलाभिहतौजसम्।
ववन्दे प्राञ्जलिर्भूत्वा मूर्ध्ना पादौ नृपस्य ह ॥ ३ ॥

मूलम्

स तमुद्वीक्ष्य राजानं कश्मलाभिहतौजसम्।
ववन्दे प्राञ्जलिर्भूत्वा मूर्ध्ना पादौ नृपस्य ह ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मोहवश जिनके बल और उत्साह नष्ट हो गये थे, उन राजा धृतराष्ट्रका दर्शन करके संजयने उनके चरणोंमें मस्तक झुकाकर हाथ जोड़ प्रणाम किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्पूज्य च यथान्यायं धृतराष्ट्रं महीपतिम्।
हा कष्टमिति चोक्त्वा स ततो वचनमाददे ॥ ४ ॥

मूलम्

सम्पूज्य च यथान्यायं धृतराष्ट्रं महीपतिम्।
हा कष्टमिति चोक्त्वा स ततो वचनमाददे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रका यथायोग्य सम्मान करके संजयने ‘हाय! बड़े कष्टकी बात है’ ऐसा कहकर फिर इस प्रकार वार्तालाप आरम्भ किया—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजयोऽहं क्षितिपते कच्चिदास्ते सुखं भवान्।
स्वदोषैरापदं प्राप्य कच्चिन्नाद्य विमुह्यति ॥ ५ ॥

मूलम्

संजयोऽहं क्षितिपते कच्चिदास्ते सुखं भवान्।
स्वदोषैरापदं प्राप्य कच्चिन्नाद्य विमुह्यति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथ्वीनाथ! मैं संजय हूँ। आप सुखसे तो हैं न? अपने ही अपराधोंसे विपत्तिमें पड़कर आज आप मोहित तो नहीं हो रहे हैं?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हितान्युक्तानि विदुरद्रोणगाङ्गेयकेशवैः ।
अगृहीतान्यनुस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

हितान्युक्तानि विदुरद्रोणगाङ्गेयकेशवैः ।
अगृहीतान्यनुस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदुर, द्रोणाचार्य, भीष्म और श्रीकृष्णके कहे हुए हितकारक वचन आपने स्वीकार नहीं किये थे। अब उन वचनोंको बारंबार याद करके क्या आपको व्यथा नहीं होती है?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामनारदकण्वाद्यैर्हितमुक्तं सभातले ।
न गृहीतमनुस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम् ॥ ७ ॥

मूलम्

रामनारदकण्वाद्यैर्हितमुक्तं सभातले ।
न गृहीतमनुस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सभामें परशुराम, नारद और महर्षि कण्व आदिकी कही हुई हितकर बातें आपने नहीं मानी थीं। अब उन्हें स्मरण करके क्या आपके मनमें कष्ट नहीं हो रहा है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृदस्त्वद्धिते युक्तान् भीष्मद्रोणमुखान् परैः।
निहतान्‌ युधि संस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम् ॥ ८ ॥

मूलम्

सुहृदस्त्वद्धिते युक्तान् भीष्मद्रोणमुखान् परैः।
निहतान्‌ युधि संस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके हितमें लगे हुए भीष्म, द्रोण आदि जो सुहृद् युद्धमें शत्रुओंके हाथसे मारे गये हैं, उन्हें याद करके क्या आप व्यथाका अनुभव नहीं करते हैं?’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवंवादिनं राजा सूतपुत्रं कृताञ्जलिम्।
सुदीर्घमथ निःश्वस्य दुःखार्त इदमब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

तमेवंवादिनं राजा सूतपुत्रं कृताञ्जलिम्।
सुदीर्घमथ निःश्वस्य दुःखार्त इदमब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथ जोड़कर ऐसी बातें कहनेवाले सूतपुत्र संजयसे दुःखातुर राजा धृतराष्ट्रने लंबी साँस खींचकर इस प्रकार कहा॥९॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपगेये हते शूरे दिव्यास्त्रवति संजय।
द्रोणे च परमेष्वासे भृशं मे व्यथितं मनः ॥ १० ॥

मूलम्

आपगेये हते शूरे दिव्यास्त्रवति संजय।
द्रोणे च परमेष्वासे भृशं मे व्यथितं मनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— संजय! दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता शूरवीर गंगानन्दन भीष्म तथा महाधनुर्धर द्रोणाचार्यके मारे जानेसे मेरे मनमें बड़ी भारी व्यथा हो रही है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो रथानां सहस्राणि दंशितानां दशैव तु।
अहन्यहनि तेजस्वी निजघ्ने वसुसम्भवः ॥ ११ ॥
तं हतं यज्ञसेनस्य पुत्रेणेह शिखण्डिना।
पाण्डवेयाभिगुप्तेन श्रुत्वा मे व्यथितं मनः ॥ १२ ॥

मूलम्

यो रथानां सहस्राणि दंशितानां दशैव तु।
अहन्यहनि तेजस्वी निजघ्ने वसुसम्भवः ॥ ११ ॥
तं हतं यज्ञसेनस्य पुत्रेणेह शिखण्डिना।
पाण्डवेयाभिगुप्तेन श्रुत्वा मे व्यथितं मनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तेजस्वी भीष्म साक्षात् वसुके अवतार थे और युद्धमें प्रतिदिन दस हजार कवचधारी रथियोंका संहार करते थे। उन्हींको यहाँ पाण्डुपुत्र अर्जुनसे सुरक्षित द्रुपदकुमार शिखण्डीने मार डाला है, यह सुनकर मेरे मनमें बड़ी व्यथा हो रही है॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्गवः प्रददौ यस्मै परमास्त्रं महात्मने।
साक्षाद् रामेण यो बाल्ये धनुर्वेद उपाकृतः ॥ १३ ॥
यस्य प्रसादात् कौन्तेया राजपुत्रा महारथाः।
महारथत्वं सम्प्राप्तास्तथान्ये वसुधाधिपाः ॥ १४ ॥
तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा धृष्टद्युम्नेन संयुगे।
सत्यसंधं महेष्वासं भृशं मे व्यथितं मनः ॥ १५ ॥

मूलम्

भार्गवः प्रददौ यस्मै परमास्त्रं महात्मने।
साक्षाद् रामेण यो बाल्ये धनुर्वेद उपाकृतः ॥ १३ ॥
यस्य प्रसादात् कौन्तेया राजपुत्रा महारथाः।
महारथत्वं सम्प्राप्तास्तथान्ये वसुधाधिपाः ॥ १४ ॥
तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा धृष्टद्युम्नेन संयुगे।
सत्यसंधं महेष्वासं भृशं मे व्यथितं मनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन महात्माको भृगुनन्दन परशुरामने उत्तम अस्त्र प्रदान किया था, जिन्हें बाल्यावस्थामें धनुर्वेदकी शिक्षा देनेके लिये साक्षात् परशुरामजीने अपना शिष्य बनाया था, जिनकी कृपासे कुन्तीके पुत्र राजकुमार पाण्डव महारथी हो गये तथा अन्यान्य नरेशोंने भी महारथी कहलानेकी योग्यता प्राप्त की थी, उन्हीं सत्य-प्रतिज्ञ महाधनुर्धर द्रोणाचार्यको युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नके हाथसे मारा गया सुनकर मेरे मनमें बड़ी पीड़ा हो रही है॥१३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययोर्लोके पुमानस्त्रे न समोऽस्ति चतुर्विधे।
तौ द्रोणभीष्मौ श्रुत्वा तु हतौ मे व्यथितं मनः॥१६॥

मूलम्

ययोर्लोके पुमानस्त्रे न समोऽस्ति चतुर्विधे।
तौ द्रोणभीष्मौ श्रुत्वा तु हतौ मे व्यथितं मनः॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें चार1 प्रकारके अस्त्रोंकी विद्यामें जिनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई पुरुष नहीं है, उन्हीं द्रोणाचार्य और भीष्मको मारा गया सुनकर मेरे मनमें बड़ा दुःख हो रहा है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैलोक्ये यस्य चास्त्रेषु न पुमान् विद्यते समः।
तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा किमकुर्वत मामकाः ॥ १७ ॥

मूलम्

त्रैलोक्ये यस्य चास्त्रेषु न पुमान् विद्यते समः।
तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा किमकुर्वत मामकाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों लोकोंमें दूसरा कोई पुरुष जिनके समान अस्त्रवेत्ता नहीं है, उन द्रोणाचार्यको मारा गया सुनकर मेरे पुत्रोंने क्या किया?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संशप्तकानां च बले पाण्डवेन महात्मना।
धनंजयेन विक्रम्य गमिते यमसादनम् ॥ १८ ॥
नारायणास्त्रे च हते द्रोणपुत्रस्य धीमतः।
विप्रद्रुतेष्वनीकेषु किमकुर्वत मामकाः ॥ १९ ॥

मूलम्

संशप्तकानां च बले पाण्डवेन महात्मना।
धनंजयेन विक्रम्य गमिते यमसादनम् ॥ १८ ॥
नारायणास्त्रे च हते द्रोणपुत्रस्य धीमतः।
विप्रद्रुतेष्वनीकेषु किमकुर्वत मामकाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा पाण्डुपुत्र अर्जुनने पराक्रम करके संशप्तकोंकी सारी सेनाको यमलोक पहुँचा दिया और बुद्धिमान् द्रोणकुमार अश्वत्थामाका नारायणास्त्र भी जब शान्त हो गया, उस समय अपनी सेनाओंमें भगदड़ मच जानेपर मेरे पुत्रोंने क्या किया?॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रद्रुतानहं मन्ये निमग्नान् शोकसागरे।
प्लवमानान् हते द्रोणे सन्ननौकानिवार्णवे ॥ २० ॥

मूलम्

विप्रद्रुतानहं मन्ये निमग्नान् शोकसागरे।
प्लवमानान् हते द्रोणे सन्ननौकानिवार्णवे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो समझता हूँ, द्रोणाचार्यके मारे जानेपर मेरे सारे सैनिक भाग चले होंगे, शोकके समुद्रमें डूब गये होंगे, उनकी दशा समुद्रमें नाव मारी जानेपर वहाँ हाथोंसे तैरनेवाले मनुष्योंके समान संकटपूर्ण हो गयी होगी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्य कर्णस्य भोजस्य कृतवर्मणः।
मद्रराजस्य शल्यस्य द्रौणेश्चैव कृपस्य च ॥ २१ ॥
मत्पुत्रस्य च शेषस्य तथान्येषां च संजय।
विप्रद्रुतेष्वनीकेषु मुखवर्णोऽभवत् कथम् ॥ २२ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्य कर्णस्य भोजस्य कृतवर्मणः।
मद्रराजस्य शल्यस्य द्रौणेश्चैव कृपस्य च ॥ २१ ॥
मत्पुत्रस्य च शेषस्य तथान्येषां च संजय।
विप्रद्रुतेष्वनीकेषु मुखवर्णोऽभवत् कथम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जब सारी सेनाएँ भाग गयीं, तब दुर्योधन, कर्ण, भोजवंशी कृतवर्मा, मद्रराज शल्य, द्रोणकुमार अश्वत्थामा, कृपाचार्य, मरनेसे बचे हुए मेरे पुत्र तथा अन्य लोगोंके मुखकी कान्ति कैसी हो गयी थी?॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् सर्वं यथावृत्तं तथा गावल्गणे मम।
आचक्ष्व पाण्डवेयानां मामकानां च विक्रमम् ॥ २३ ॥

मूलम्

एतत् सर्वं यथावृत्तं तथा गावल्गणे मम।
आचक्ष्व पाण्डवेयानां मामकानां च विक्रमम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गवल्गणकुमार! मेरे तथा पाण्डुके पुत्रोंके पराक्रमसे सम्बन्ध रखनेवाला यह सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे मुझे कह सुनाओ॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवापराधाद् यद् वृत्तं कौरवेयेषु मारिष।
तच्छ्रुत्वा मा व्यथां कार्षीर्दिष्टे न व्यथते बुधः ॥ २४ ॥

मूलम्

तवापराधाद् यद् वृत्तं कौरवेयेषु मारिष।
तच्छ्रुत्वा मा व्यथां कार्षीर्दिष्टे न व्यथते बुधः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— माननीय नरेश! आपके अपराधसे कौरवोंपर जो कुछ बीता है, उसे सुनकर दुःख न मानियेगा; क्योंकि दैववश जो दुःख प्राप्त होता है, उससे विद्वान् पुरुष व्यथित नहीं होते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मादभावी भावी वा भवेदर्थो नरं प्रति।
अप्राप्तौ तस्य वा प्राप्तौ न कश्चिद् व्यथते बुधः॥२५॥

मूलम्

यस्मादभावी भावी वा भवेदर्थो नरं प्रति।
अप्राप्तौ तस्य वा प्राप्तौ न कश्चिद् व्यथते बुधः॥२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रारब्धवश मनुष्यको अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति हो भी जाती है और नहीं भी होती है। अतः उसकी प्राप्ति हो या न हो, किसी भी दशामें कोई ज्ञानी पुरुष (हर्ष या) कष्टका अनुभव नहीं करता है॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न व्यथाभ्यधिका काचिद् विद्यते मम संजय।
दिष्टमेतत् पुरा मन्ये कथयस्व यथेच्छकम् ॥ २६ ॥

मूलम्

न व्यथाभ्यधिका काचिद् विद्यते मम संजय।
दिष्टमेतत् पुरा मन्ये कथयस्व यथेच्छकम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— संजय! मुझे इससे अधिक कोई व्यथा नहीं होगी, मैं पहलेसे ही ऐसा मानता हूँ कि यह अवश्यम्भावी दैवका विधान है; अतः तुम इच्छानुसार सारा वृत्तान्त कहो॥२६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि धृतराष्ट्रसंजयसंवादे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्वमें धृतराष्ट्र-संजयसंवादविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥


  1. अस्त्रोंके चार भेद इस प्रकार हैं—मुक्त, अमुक्त, यन्त्रमुक्त तथा मुक्तामुक्त। जो धनुष या हाथसे शत्रुपर फेंके जाते हैं, वे मुक्त कहलाते हैं, जैसे बाण आदि। जिन्हें हाथमें लिये हुए ही प्रहार किया जाता है, उन अस्त्रोंको अमुक्त कहते हैं, जैसे तलवार आदि। जो यन्त्रसे फेंके जाते हैं, वे यन्त्रमुक्त कहलाते हैं, जैसे गोला आदि तथा जिस अस्त्रको छोड़कर पुनः उसका उपसंहार किया जाता है, अर्थात् जो शत्रुपर चोट करके पुनः प्रयोग करनेवालेके हाथमें आ जाते हैं, वे मुक्तामुक्त कहलाते हैं, जैसे श्रीकृष्णका सुदर्शन चक्र और इन्द्रका वज्र आदि। ↩︎