भागसूचना
द्व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
व्यासजीका अर्जुनसे भगवान् शिवकी महिमा बताना तथा द्रोणपर्वके पाठ और श्रवणका फल
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नतिरथे द्रोणे निहते पार्षतेन वै।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वन्नतः परम् ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिन्नतिरथे द्रोणे निहते पार्षतेन वै।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वन्नतः परम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! धृष्टद्युम्नके द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्यके मारे जानेपर मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने आगे कौन-सा कार्य किया?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नतिरथे द्रोणे निहते पार्षतेन वै।
कौरवेषु च भग्नेषु कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ २ ॥
दृष्ट्वा सुमहदाश्चर्यमात्मनो विजयावहम् ।
यदृच्छयाऽऽगतं व्यासं पप्रच्छ भरतर्षभ ॥ ३ ॥
मूलम्
तस्मिन्नतिरथे द्रोणे निहते पार्षतेन वै।
कौरवेषु च भग्नेषु कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ २ ॥
दृष्ट्वा सुमहदाश्चर्यमात्मनो विजयावहम् ।
यदृच्छयाऽऽगतं व्यासं पप्रच्छ भरतर्षभ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— भरतश्रेष्ठ! धृष्टद्युम्नद्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्यके मारे जानेपर जब समस्त कौरव भाग खड़े हुए, उस समय अपनेको विजय दिलानेवाली एक अत्यन्त आश्चर्यमयी घटना देखकर कुन्तीपुत्र अर्जुनने अकस्मात् वहाँ आये हुए वेदव्यासजीसे उसके सम्बन्धमें इस प्रकार पूछा॥२-३॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संग्रामे न्यहनं शत्रून् शरौघैर्विमलैरहम्।
अग्रतो लक्षये यान्तं पुरुषं पावकप्रभम् ॥ ४ ॥
मूलम्
संग्रामे न्यहनं शत्रून् शरौघैर्विमलैरहम्।
अग्रतो लक्षये यान्तं पुरुषं पावकप्रभम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— महर्षे! जब मैं अपने निर्मल बाणोंद्वारा शत्रु-सेनाका संहार कर रहा था, उस समय मुझे दिखायी दिया कि एक अग्निके समान तेजस्वी पुरुष मेरे आगे-आगे चल रहे हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्वलन्तं शूलमुद्यम्य यां दिशं प्रतिपद्यते।
तस्यां दिशि विदीर्यन्ते शत्रवो मे महामुने ॥ ५ ॥
मूलम्
ज्वलन्तं शूलमुद्यम्य यां दिशं प्रतिपद्यते।
तस्यां दिशि विदीर्यन्ते शत्रवो मे महामुने ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामुने! वे जलता हुआ शूल हाथमें लेकर जिस ओर जाते उसी दिशामें मेरे शत्रु विदीर्ण हो जाते थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन भग्नानरीन् सर्वान् मद्भग्नान् मन्यते जनः।
तेन भग्नानि सैन्यानि पृष्ठतोऽनुव्रजाम्यहम् ॥ ६ ॥
मूलम्
तेन भग्नानरीन् सर्वान् मद्भग्नान् मन्यते जनः।
तेन भग्नानि सैन्यानि पृष्ठतोऽनुव्रजाम्यहम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने ही मेरे समस्त शत्रुओंको मार भगाया है, किंतु लोग समझते हैं कि मैंने ही उन्हें मारा और भगाया है। शत्रुओंकी सारी सेनाएँ उन्हींके द्वारा नष्ट की गयीं, मैं तो केवल उनके पीछे-पीछे चलता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवंस्तन्ममाचक्ष्व को वै स पुरुषोत्तमः।
शूलपाणिर्मया दृष्टस्तेजसा सूर्यसंनिभः ॥ ७ ॥
मूलम्
भगवंस्तन्ममाचक्ष्व को वै स पुरुषोत्तमः।
शूलपाणिर्मया दृष्टस्तेजसा सूर्यसंनिभः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मुझे बताइये, वे महापुरुष कौन थे? मैंने उन्हें हाथमें त्रिशूल लिये देखा था। वे सूर्यके समान तेजस्वी थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पद्भ्यां स्पृशते भूमिं न च शूलं विमुञ्चति।
शूलाच्छूलसहस्राणि निष्येतुस्तस्य तेजसा ॥ ८ ॥
मूलम्
न पद्भ्यां स्पृशते भूमिं न च शूलं विमुञ्चति।
शूलाच्छूलसहस्राणि निष्येतुस्तस्य तेजसा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने पैरोंसे पृथ्वीका स्पर्श नहीं करते थे। त्रिशूलको अपने हाथसे अलग कभी नहीं छोड़ते थे। उनके तेजसे उस एक ही त्रिशूलसे सहस्रों नये-नये शूल प्रकट होकर शत्रुओंपर गिरते थे॥८॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतीनां प्रथमं तैजसं पुरुषं प्रभुम्।
भुवनं भूर्भुवं देवं सर्वलोकेश्वरं प्रभुम् ॥ ९ ॥
ईशानं वरदं पार्थ दृष्टवानसि शङ्करम्।
तं गच्छ शरणं देवं वरदं भुवनेश्वरम् ॥ १० ॥
मूलम्
प्रजापतीनां प्रथमं तैजसं पुरुषं प्रभुम्।
भुवनं भूर्भुवं देवं सर्वलोकेश्वरं प्रभुम् ॥ ९ ॥
ईशानं वरदं पार्थ दृष्टवानसि शङ्करम्।
तं गच्छ शरणं देवं वरदं भुवनेश्वरम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— अर्जुन! जो प्रजापतियोंमें प्रथम, तेजःस्वरूप, अन्तर्यामी तथा सर्वसमर्थ हैं, भूर्लोक, भुवर्लोक आदि समस्त भुवन जिनके स्वरूप हैं, जो दिव्य विग्रहधारी तथा सम्पूर्ण लोकोंके शासक एवं स्वामी हैं, उन्हीं वरदायक ईश्वर भगवान् शंकरका तुमने दर्शन किया है। वे वरद देवता सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर हैं, तुम उन्हींकी शरणमें जाओ॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महादेवं महात्मानमीशानं जटिलं विभुम्।
त्र्यक्षं महाभुजं रुद्रं शिखिनं चीरवाससम् ॥ ११ ॥
मूलम्
महादेवं महात्मानमीशानं जटिलं विभुम्।
त्र्यक्षं महाभुजं रुद्रं शिखिनं चीरवाससम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महान् देव हैं। उनका हृदय महान् है। वे सबपर शासन करनेवाले, सर्वव्यापी और जटाधारी हैं। उनके तीन नेत्र और विशाल भुजाएँ हैं, रुद्र उनकी संज्ञा है, उनके मस्तकपर शिखा तथा शरीरपर वल्कल वस्त्र शोभा देता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महादेवं हरं स्थाणुं वरदं भुवनेश्वरम्।
जगत्प्रधानमजितं जगत्प्रीतिमधीश्वरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
महादेवं हरं स्थाणुं वरदं भुवनेश्वरम्।
जगत्प्रधानमजितं जगत्प्रीतिमधीश्वरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महादेव, हर और स्थाणु आदि नामोंसे प्रसिद्ध वरदायक भगवान् शिव सम्पूर्ण भुवनोंके स्वामी हैं। वे ही जगत्के कारणभूत अव्यक्त प्रकृति हैं। वे किसीसे भी पराजित नहीं होते हैं। जगत्को प्रेम और सुखकी प्राप्ति उन्हींसे होती है। वे ही सबके अध्यक्ष हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगद्योनिं जगद्बीजं जयिनं जगतो गतिम्।
विश्वात्मानं विश्वसृजं विश्वमूर्तिं यशस्विनम् ॥ १३ ॥
मूलम्
जगद्योनिं जगद्बीजं जयिनं जगतो गतिम्।
विश्वात्मानं विश्वसृजं विश्वमूर्तिं यशस्विनम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही जगत्की उत्पत्तिके स्थान, जगत्के बीज, विजयशील, जगत्के आश्रय, सम्पूर्ण विश्वके आत्मा, विश्वविधाता, विश्वरूप और यशस्वी हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वेश्वरं विश्वनरं कर्मणामीश्वरं प्रभुम्।
शम्भुं स्वयम्भुं भूतेशं भूतभव्यभवोद्भवम् ॥ १४ ॥
मूलम्
विश्वेश्वरं विश्वनरं कर्मणामीश्वरं प्रभुम्।
शम्भुं स्वयम्भुं भूतेशं भूतभव्यभवोद्भवम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही विश्वेश्वर, विश्वनियन्ता, कर्मोंके फलदाता ईश्वर और प्रभावशाली हैं। वे ही सबका कल्याण करनेवाले और स्वयम्भू हैं। सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी तथा भूत, भविष्य और वर्तमानके कारण भी वे ही हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगं योगेश्वरं सर्वं सर्वलोकेश्वरेश्वरम्।
सर्वश्रेष्ठं जगच्छ्रेष्ठं वरिष्ठं परमेष्ठिनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
योगं योगेश्वरं सर्वं सर्वलोकेश्वरेश्वरम्।
सर्वश्रेष्ठं जगच्छ्रेष्ठं वरिष्ठं परमेष्ठिनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही योग और योगेश्वर हैं, वे ही सर्वस्वरूप और सम्पूर्ण लोकेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। सबसे श्रेष्ठ, सम्पूर्ण जगत्से श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम परमेष्ठी भी वे ही हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकत्रयविधातारमेकं लोकत्रयाश्रयम् ।
शुद्धात्मानं भवं भीमं शशाङ्ककृतशेखरम् ॥ १६ ॥
मूलम्
लोकत्रयविधातारमेकं लोकत्रयाश्रयम् ।
शुद्धात्मानं भवं भीमं शशाङ्ककृतशेखरम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों लोकोंके एकमात्र स्रष्टा, त्रिलोकीके आश्रय, शुद्धात्मा, भव, भीम और चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले भी वे ही हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाश्वतं भूधरं देवं सर्ववागीश्वरेश्वरम्।
सुदुर्जयं जगन्नाथं जन्ममृत्युजरातिगम् ॥ १७ ॥
मूलम्
शाश्वतं भूधरं देवं सर्ववागीश्वरेश्वरम्।
सुदुर्जयं जगन्नाथं जन्ममृत्युजरातिगम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सनातन देव इस पृथ्वीको धारण करनेवाले तथा सम्पूर्ण वागीश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उन्हें जीतना असम्भव है। वे जगदीश्वर जन्म, मृत्यु और जरा आदि विकारोंसे परे हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानात्मानं ज्ञानगम्यं ज्ञानश्रेष्ठं सुदुर्विदम्।
दातारं चैव भक्तानां प्रसादविहितान् वरान् ॥ १८ ॥
मूलम्
ज्ञानात्मानं ज्ञानगम्यं ज्ञानश्रेष्ठं सुदुर्विदम्।
दातारं चैव भक्तानां प्रसादविहितान् वरान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ज्ञानस्वरूप, ज्ञानगम्य तथा ज्ञानमें श्रेष्ठ हैं। उनके स्वरूपको समझ लेना अत्यन्त कठिन है। वे अपने भक्तोंको कृपापूर्वक मनोवांछित उत्तम फल देनेवाले हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पारिषदा दिव्या रूपैर्नानाविधैर्विभोः।
वामना जटिला मुण्डा ह्रस्वग्रीवा महोदराः ॥ १९ ॥
महाकाया महोत्साहा महाकर्णास्तथापरे ।
आननैर्विकृतैः पादैः पार्थ वेषैश्च वैकृतैः ॥ २० ॥
मूलम्
तस्य पारिषदा दिव्या रूपैर्नानाविधैर्विभोः।
वामना जटिला मुण्डा ह्रस्वग्रीवा महोदराः ॥ १९ ॥
महाकाया महोत्साहा महाकर्णास्तथापरे ।
आननैर्विकृतैः पादैः पार्थ वेषैश्च वैकृतैः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकरके दिव्य पार्षद नाना प्रकारके रूपोंमें दिखायी देते हैं। उनमेंसे कोई वामन (बौने), कोई जटाधारी, कोई मुण्डित मस्तकवाले और कोई छोटी गर्दनवाले हैं। किन्हींके पेट बड़े हैं तो किन्हींके सारे शरीर ही विशाल हैं। कुछ पार्षदोंके कान बहुत बड़े-बड़े हैं। वे सब बड़े उत्साही होते हैं। कितनोंके मुख विकृत हैं और कितनोंके पैर। अर्जुन! उन सबके वेष भी बड़े विकराल हैं॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईदृशैः स महादेवः पूज्यमानो महेश्वरः।
स शिवस्तात तेजस्वी प्रसादाद् याति तेऽग्रतः ॥ २१ ॥
मूलम्
ईदृशैः स महादेवः पूज्यमानो महेश्वरः।
स शिवस्तात तेजस्वी प्रसादाद् याति तेऽग्रतः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे स्वरूपवाले वे सभी पार्षद महान् देवता भगवान् शंकरकी सदा ही पूजा किया करते हैं। तात! उन तेजस्वी पुरुषके रूपमें वे भगवान् शंकर ही कृपा करके तुम्हारे आगे-आगे चलते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् घोरे सदा पार्थ संग्रामे रोमहर्षणे।
दौणिकर्णकृपैर्गुप्तां महेष्वासैः प्रहारिभिः ॥ २२ ॥
कस्तां सेनां तदा पार्थ मनसापि प्रधर्षयेत्।
ऋते देवान्महेष्वासाद् बहुरूपान्महेश्वरात् ॥ २३ ॥
मूलम्
तस्मिन् घोरे सदा पार्थ संग्रामे रोमहर्षणे।
दौणिकर्णकृपैर्गुप्तां महेष्वासैः प्रहारिभिः ॥ २२ ॥
कस्तां सेनां तदा पार्थ मनसापि प्रधर्षयेत्।
ऋते देवान्महेष्वासाद् बहुरूपान्महेश्वरात् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! उस रोमांचकारी घोर संग्राममें अश्वत्थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि प्रहारकुशल बड़े-बड़े धनुर्धरोंसे सुरक्षित उस कौरव-सेनाको उस समय बहुरूपधारी महाधनुर्धर भगवान् महेश्वरके सिवा दूसरा कौन मनसे भी नष्ट कर सकता था॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थातुमुत्सहते कश्चिन्न तस्मिन्नग्रतः स्थिते।
न हि भूतं समं तेन त्रिषु लोकेषु विद्यते॥२४॥
मूलम्
स्थातुमुत्सहते कश्चिन्न तस्मिन्नग्रतः स्थिते।
न हि भूतं समं तेन त्रिषु लोकेषु विद्यते॥२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे ही सामने आकर खड़े हो जायँ तो वहाँ ठहरनेका साहस कोई नहीं कर सकता है? तीनों लोकोंमें कोई भी प्राणी उनकी समानता करनेवाला नहीं है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धेनापि हि संग्रामे तस्य क्रुद्धस्य शत्रवः।
विसंज्ञा हतभूयिष्ठा वेपन्ति च पतन्ति च ॥ २५ ॥
मूलम्
गन्धेनापि हि संग्रामे तस्य क्रुद्धस्य शत्रवः।
विसंज्ञा हतभूयिष्ठा वेपन्ति च पतन्ति च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्राममें भगवान् शंकरके कुपित होनेपर उनकी गन्धसे भी शत्रु बेहोश होकर काँपने लगते और अधमरे होकर गिर जाते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै नमस्तु कुर्वन्तो देवास्तिष्ठन्ति वै दिवि।
ये चान्ये मानवा लोके ते च स्वर्गजितो नराः॥२६॥
मूलम्
तस्मै नमस्तु कुर्वन्तो देवास्तिष्ठन्ति वै दिवि।
ये चान्ये मानवा लोके ते च स्वर्गजितो नराः॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनको नमस्कार करनेवाले देवता सदा स्वर्गलोकमें निवास करते हैं। दूसरे भी जो मानव इस लोकमें उन्हें नमस्कार करते हैं, वे भी स्वर्गलोकपर विजय पाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये भक्ता वरदं देवं शिवं रुद्रमुमापतिम्।
अनन्यभावेन सदा सर्वेशं समुपासते ॥ २७ ॥
इहलोके सुखं प्राप्य ते यान्ति परमां गतिम्।
मूलम्
ये भक्ता वरदं देवं शिवं रुद्रमुमापतिम्।
अनन्यभावेन सदा सर्वेशं समुपासते ॥ २७ ॥
इहलोके सुखं प्राप्य ते यान्ति परमां गतिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो भक्त मनुष्य सदा अनन्यभावसे वरदायक देवता कल्याणस्वरूप, सर्वेश्वर उमानाथ भगवान् रुद्रकी उपासना करते हैं, वे भी इहलोकमें सुख पाकर अन्तमें परमगतिको प्राप्त होते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्कुरुष्व कौन्तेय तस्मै शान्ताय वै सदा ॥ २८ ॥
रुद्राय शितिकण्ठाय कनिष्ठाय सुवर्चसे।
कपर्दिने करालाय हर्यक्षवरदाय च ॥ २९ ॥
मूलम्
नमस्कुरुष्व कौन्तेय तस्मै शान्ताय वै सदा ॥ २८ ॥
रुद्राय शितिकण्ठाय कनिष्ठाय सुवर्चसे।
कपर्दिने करालाय हर्यक्षवरदाय च ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! अतः तुम भी उन शान्तस्वरूप भगवान् शिवको सदा नमस्कार किया करो। जो रुद्र, नीलकण्ठ, कनिष्ठ (सूक्ष्म या दीप्तिमान्), उत्तम तेजसे सम्पन्न, जटाजूटधारी, विकरालस्वरूप, पिंगल नेत्रवाले तथा कुबेरको वर देनेवाले हैं, उन भगवान् शिवको नमस्कार है॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याम्यायाव्यक्तकेशाय सद्वृत्ते शङ्कराय च।
काम्याय हरिनेत्राय स्थाणवे पुरुषाय च ॥ ३० ॥
हरिकेशाय मुण्डाय कृशायोत्तारणाय च।
भास्कराय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे ॥ ३१ ॥
मूलम्
याम्यायाव्यक्तकेशाय सद्वृत्ते शङ्कराय च।
काम्याय हरिनेत्राय स्थाणवे पुरुषाय च ॥ ३० ॥
हरिकेशाय मुण्डाय कृशायोत्तारणाय च।
भास्कराय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो यमके अनुकूल रहनेवाले काल हैं, अव्यक्त स्वरूप आकाश ही जिनका केश है, जो सदाचारसम्पन्न, सबका कल्याण करनेवाले, कमनीय, पिंगलनेत्र, सदा स्थित रहनेवाले और अन्तर्यामी पुरुष हैं, जिनके केश भूरे एवं पिंगलवर्णके हैं, जिनका मस्तक मुण्डित है, जो दुबले-पतले और भवसागरसे पार उतारनेवाले हैं, जो सूर्यस्वरूप, उत्तम तीर्थ और अत्यन्त वेगशाली हैं, उन देवाधिदेव महादेवको नमस्कार है॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरूपाय सर्वाय प्रियाय प्रियवाससे।
उष्णीषिणे सुवक्त्राय सहस्राक्षाय मीढुषे ॥ ३२ ॥
मूलम्
बहुरूपाय सर्वाय प्रियाय प्रियवाससे।
उष्णीषिणे सुवक्त्राय सहस्राक्षाय मीढुषे ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अनेक रूप धारण करनेवाले, सर्वस्वरूप तथा सबके प्रिय हैं, वल्कल आदि वस्त्र जिन्हें प्रिय है, जो मस्तकपर पगड़ी धारण करते हैं, जिनका मुख सुन्दर है, जिनके सहस्रों नेत्र हैं तथा जो वर्षा करनेवाले हैं, उन भगवान् शंकरको नमस्कार है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिशाय प्रशान्ताय यतये चीरवाससे।
हिरण्यबाहवे राज्ञे उग्राय पतये दिशाम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
गिरिशाय प्रशान्ताय यतये चीरवाससे।
हिरण्यबाहवे राज्ञे उग्राय पतये दिशाम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पर्वतपर शयन करनेवाले, परम शान्त, यतिस्वरूप, चीरवस्त्रधारी, हिरण्यबाहु (सोनेके आभूषणोंसे विभूषित बाँहवाले), राजा (दीप्तिमान्), उग्र (भयंकर) तथा दिशाओंके अधिपति हैं, (उन भगवान् शंकरको नमस्कार है)॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्जन्यपतये चैव भूतानां पतये नमः।
वृक्षाणां पतये चैव गवां च पतये नमः ॥ ३४ ॥
मूलम्
पर्जन्यपतये चैव भूतानां पतये नमः।
वृक्षाणां पतये चैव गवां च पतये नमः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मेघोंके अधिपति तथा सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी हैं, उन्हें नमस्कार है। वृक्षोंके पालक और गौओंके अधिपतिरूप आपको नमस्कार है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृक्षैरावृतकायाय सेनान्ये मध्यमाय च।
स्रुवहस्ताय देवाय धन्विने भार्गवाय च ॥ ३५ ॥
मूलम्
वृक्षैरावृतकायाय सेनान्ये मध्यमाय च।
स्रुवहस्ताय देवाय धन्विने भार्गवाय च ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका शरीर वृक्षोंसे आच्छादित है, जो सेनाके अधिपति और शरीरके मध्यवर्ती (अन्तर्यामी) हैं, यजमानरूपसे जो अपने हाथमें स्रुवा धारण करते हैं, जो दिव्यस्वरूप, धनुर्धर और भृगुवंशी परशुरामस्वरूप हैं, उनको नमस्कार है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरूपाय विश्वस्य पतये मुञ्जवाससे।
सहस्रशिरसे चैव सहस्रनयनाय च ॥ ३६ ॥
सहस्रबाहवे चैव सहस्रचरणाय च।
मूलम्
बहुरूपाय विश्वस्य पतये मुञ्जवाससे।
सहस्रशिरसे चैव सहस्रनयनाय च ॥ ३६ ॥
सहस्रबाहवे चैव सहस्रचरणाय च।
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके बहुत-से रूप हैं, जो इस विश्वके पालक होकर भी मूँजका कौपीन धारण करते हैं, जिनके सहस्रों सिर, सहस्रों नेत्र, सहस्रों भुजाएँ और सहस्रों पैर हैं, उन भगवान् शंकरको नमस्कार है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरणं गच्छ कौन्तेय वरदं भुवनेश्वरम् ॥ ३७ ॥
उमापतिं विरूपाक्षं दक्षयज्ञनिबर्हणम् ।
प्रजानां पतिमव्यग्रं भूतानां पतिमव्ययम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
शरणं गच्छ कौन्तेय वरदं भुवनेश्वरम् ॥ ३७ ॥
उमापतिं विरूपाक्षं दक्षयज्ञनिबर्हणम् ।
प्रजानां पतिमव्यग्रं भूतानां पतिमव्ययम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! तुम उन्हीं वरदायक भुवनेश्वर, उमा वल्लभ, त्रिनेत्रधारी, दक्षयज्ञविनाशक, प्रजापति, व्यग्रतारहित और अविनाशी भगवान् भूतनाथकी शरणमें जाओ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपर्दिनं वृषावर्तं वृषनाभं वृषध्वजम्।
वृषदर्पं वृषपतिं वृषशृङ्गं वृषर्षभम् ॥ ३९ ॥
वृषाङ्कं वृषभोदारं वृषभं वृषभेक्षणम्।
वृषायुधं वृषशरं वृषभूतं वृषेश्वरम् ॥ ४० ॥
मूलम्
कपर्दिनं वृषावर्तं वृषनाभं वृषध्वजम्।
वृषदर्पं वृषपतिं वृषशृङ्गं वृषर्षभम् ॥ ३९ ॥
वृषाङ्कं वृषभोदारं वृषभं वृषभेक्षणम्।
वृषायुधं वृषशरं वृषभूतं वृषेश्वरम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जटाजूटधारी हैं, जिनका घूमना परम श्रेष्ठ है, जो श्रेष्ठ नाभिसे सुशोभित, ध्वजापर वृषभका चिह्न धारण करनेवाले, वृषदर्प (प्रबल अहंकारवाले), वृषपति (धर्मस्वरूप वृषभके अधिपति), धर्मको ही उच्चतम माननेवाले तथा धर्मसे भी सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनके ध्वजमें साँड़का चिह्न अंकित है, जो धर्मात्माओंमें उदार, धर्मस्वरूप, वृषभके समान विशाल नेत्रोंवाले, श्रेष्ठ आयुध और श्रेष्ठ बाणसे युक्त, धर्मविग्रह तथा धर्मके ईश्वर, उन भगवान्की मैं शरण ग्रहण करता हूँ॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महोदरं महाकायं द्वीपिचर्मनिवासिनम् ।
लोकेशं वरदं मुण्डं ब्रह्मण्यं ब्राह्मणप्रियम् ॥ ४१ ॥
त्रिशूलपाणिं वरदं खड्गचर्मधरं प्रभुम्।
पिनाकिनं खड्गधरं लोकानां पतिमीश्वरम् ॥ ४२ ॥
प्रपद्ये शरणं देवं शरण्यं चीरवाससम्।
मूलम्
महोदरं महाकायं द्वीपिचर्मनिवासिनम् ।
लोकेशं वरदं मुण्डं ब्रह्मण्यं ब्राह्मणप्रियम् ॥ ४१ ॥
त्रिशूलपाणिं वरदं खड्गचर्मधरं प्रभुम्।
पिनाकिनं खड्गधरं लोकानां पतिमीश्वरम् ॥ ४२ ॥
प्रपद्ये शरणं देवं शरण्यं चीरवाससम्।
अनुवाद (हिन्दी)
कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंको धारण करनेके कारण जिनका उदर और शरीर विशाल है, जो व्याघ्रचर्म ओढ़ा करते हैं, जो लोकेश्वर, वरदायक, मुण्डितमस्तक, ब्राह्मणहितैषी तथा ब्राह्मणोंके प्रिय हैं। जिनके हाथमें त्रिशूल, ढाल, तलवार और पिनाक आदि अस्त्र शोभा पाते हैं, जो वरदायक, प्रभु, सुन्दर शरीरधारी, तीनों लोकोंके स्वामी तथा साक्षात् ईश्वर हैं, उन चीरवस्त्रधारी, शरणागतवत्सल भगवान् शिवकी मैं शरण लेता हूँ॥४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तस्मै सुरेशाय यस्य वैश्रवणः सखा ॥ ४३ ॥
सुवाससे नमस्तुभ्यं सुव्रताय सुधन्विने।
धनुर्धराय देवाय प्रियधन्वाय धन्विने ॥ ४४ ॥
धन्वन्तराय धनुषे धन्याचार्याय ते नमः।
उग्रायुधाय देवाय नमः सुरवराय च ॥ ४५ ॥
मूलम्
नमस्तस्मै सुरेशाय यस्य वैश्रवणः सखा ॥ ४३ ॥
सुवाससे नमस्तुभ्यं सुव्रताय सुधन्विने।
धनुर्धराय देवाय प्रियधन्वाय धन्विने ॥ ४४ ॥
धन्वन्तराय धनुषे धन्याचार्याय ते नमः।
उग्रायुधाय देवाय नमः सुरवराय च ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुबेर जिनके सखा हैं, उन देवेश्वर शिवको नमस्कार है। प्रभो! आप उत्तम वस्त्र, उत्तम व्रत और उत्तम धनुष धारण करते हैं। आप धनुर्धर देवताको धनुष प्रिय है, आप धन्वी, धन्वन्तर, धनुष और धन्वाचार्य हैं, आपको नमस्कार है। भयंकर आयुध धारण करनेवाले सुरश्रेष्ठ महादेवजीको नमस्कार है॥४३—४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्तु बहुरूपाय नमोऽस्तु बहुधन्विने।
नमोऽस्तु स्थाणवे नित्यं नमस्तस्मै तपस्विने ॥ ४६ ॥
मूलम्
नमोऽस्तु बहुरूपाय नमोऽस्तु बहुधन्विने।
नमोऽस्तु स्थाणवे नित्यं नमस्तस्मै तपस्विने ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेक रूपधारी शिवको नमस्कार है, बहुत-से धनुष धारण करनेवाले रुद्रदेवको नमस्कार है, आप स्थाणुरूप हैं, आपको नमस्कार है, उन तपस्वी शिवको नित्य नमस्कार है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्तु त्रिपुरघ्नाय भगघ्नाय च वै नमः।
वनस्पतीनां पतये नराणां पतये नमः ॥ ४७ ॥
मूलम्
नमोऽस्तु त्रिपुरघ्नाय भगघ्नाय च वै नमः।
वनस्पतीनां पतये नराणां पतये नमः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिपुरनाशक और भगनेत्रविनाशक भगवान् शिवको बारंबार नमस्कार है। वनस्पतियोंके पति तथा नरपतिरूप महादेवजीको नमस्कार है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातॄणां पतये चैव गणानां पतये नमः।
गवां च पतये नित्यं यज्ञानां पतये नमः ॥ ४८ ॥
मूलम्
मातॄणां पतये चैव गणानां पतये नमः।
गवां च पतये नित्यं यज्ञानां पतये नमः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातृकाओंके अधिपति और गणोंके पालक शिवको नमस्कार है। गोपति और यज्ञपति शंकरको नित्य नमस्कार है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपां च पतये नित्यं देवानां पतये नमः।
पूष्णो दन्तविनाशाय त्र्यक्षाय वरदाय च ॥ ४९ ॥
नीलकण्ठाय पिङ्गाय स्वर्णकेशाय वै नमः।
मूलम्
अपां च पतये नित्यं देवानां पतये नमः।
पूष्णो दन्तविनाशाय त्र्यक्षाय वरदाय च ॥ ४९ ॥
नीलकण्ठाय पिङ्गाय स्वर्णकेशाय वै नमः।
अनुवाद (हिन्दी)
जलपति तथा देवपतिको नित्य नमस्कार है। पूषाके दाँत तोड़नेवाले, त्रिनेत्रधारी वरदायक शिवको नमस्कार है। नीलकण्ड, पिंगलवर्ण और सुनहरे केशवाले भगवान् शंकरको नमस्कार है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्माणि यानि दिव्यानि महादेवस्य धीमतः ॥ ५० ॥
तानि ते कीर्तयिष्यामि यथाप्रज्ञं यथाश्रुतम्।
मूलम्
कर्माणि यानि दिव्यानि महादेवस्य धीमतः ॥ ५० ॥
तानि ते कीर्तयिष्यामि यथाप्रज्ञं यथाश्रुतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! अब मैं परम बुद्धिमान् महादेवजीके जो दिव्य कर्म हैं, उनका अपनी बुद्धिके अनुसार जैसा मैंने सुन रखा है, वैसा ही तुम्हारे समक्ष वर्णन करता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सुरा नासुरा लोके न गन्धर्वा न राक्षसाः॥५१॥
सुखमेधन्ति कुपिते तस्मिन्नपि गुहागताः।
मूलम्
न सुरा नासुरा लोके न गन्धर्वा न राक्षसाः॥५१॥
सुखमेधन्ति कुपिते तस्मिन्नपि गुहागताः।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि वे कुपित हो जायँ तो देवता, असुर, गन्धर्व और राक्षस इस लोकमें अथवा पातालमें छिप जानेपर भी चैनसे नहीं रहने पाते हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षस्य यजमानस्य विधिवत् सम्भृतं पुरा ॥ ५२ ॥
विव्याध कुपितो यज्ञं निर्दयस्त्वभवत् तदा।
धनुषा बाणमुत्सृज्य सघोषं विननाद च ॥ ५३ ॥
मूलम्
दक्षस्य यजमानस्य विधिवत् सम्भृतं पुरा ॥ ५२ ॥
विव्याध कुपितो यज्ञं निर्दयस्त्वभवत् तदा।
धनुषा बाणमुत्सृज्य सघोषं विननाद च ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेकी बात है, वे यज्ञपरायण दक्षपर कुपित हो गये थे। उस समय उन्होंने उनके विधिपूर्वक किये जानेवाले यज्ञको नष्ट कर दिया था। उन दिनों वे निर्दय हो गये थे और धनुषद्वारा बाण छोड़कर बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगे थे॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते न शर्म कुतः शान्तिं लेभिरे स्म सुरास्तदा।
विद्रुते सहसा यज्ञे कुपिते च महेश्वरे ॥ ५४ ॥
मूलम्
ते न शर्म कुतः शान्तिं लेभिरे स्म सुरास्तदा।
विद्रुते सहसा यज्ञे कुपिते च महेश्वरे ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंको उस समय कहीं भी सुख और शान्ति नहीं मिली, महेश्वरके कुपित होनेसे सहसा यज्ञमें उपद्रव खड़ा हो गया था॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन ज्यातलघोषेण सर्वे लोकाः समाकुलाः।
बभूवुर्वशगाः पार्थ निपेतुश्च सुरासुराः ॥ ५५ ॥
मूलम्
तेन ज्यातलघोषेण सर्वे लोकाः समाकुलाः।
बभूवुर्वशगाः पार्थ निपेतुश्च सुरासुराः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! उनके धनुषकी प्रत्यंचाके गम्भीर घोषसे अत्यन्त व्याकुल हो सम्पूर्ण लोक उनके अधीन हो गये। देवता और असुर सभी धरतीपर गिर पड़े॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपश्चुक्षुभिरे सर्वाश्चकम्पे च वसुंधरा।
पर्वताश्च व्यशीर्यन्त दिशो नागाश्च मोहिताः ॥ ५६ ॥
मूलम्
आपश्चुक्षुभिरे सर्वाश्चकम्पे च वसुंधरा।
पर्वताश्च व्यशीर्यन्त दिशो नागाश्च मोहिताः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रके जलमें ज्वार आ गया, धरती काँपने लगी, पर्वत टूट-फूटकर बिखरने लगे और दिग्गज मूर्च्छित हो गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्धेन तमसा लोका न प्राकाशन्त संवृताः।
जघ्निवान् सह सूर्येण सर्वेषां ज्योतिषां प्रभाः ॥ ५७ ॥
मूलम्
अन्धेन तमसा लोका न प्राकाशन्त संवृताः।
जघ्निवान् सह सूर्येण सर्वेषां ज्योतिषां प्रभाः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोर अन्धकारसे आच्छादित हो जानेके कारण सम्पूर्ण लोकोंमें कहीं भी प्रकाश नहीं रह गया। भगवान् शिवने सूर्यसहित सम्पूर्ण ज्योतियोंकी प्रभा नष्ट कर दी॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चुक्षुभुर्भयभीताश्च शान्तिं चक्रुस्तथैव च।
ऋषयः सर्वभूतानामात्मनश्च सुखैषिणः ॥ ५८ ॥
मूलम्
चुक्षुभुर्भयभीताश्च शान्तिं चक्रुस्तथैव च।
ऋषयः सर्वभूतानामात्मनश्च सुखैषिणः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि भी भयभीत एवं क्षुब्ध हो उठे। वे सम्पूर्ण भूतोंके तथा अपने लिये भी सुख चाहते हुए पुण्याहवाचन आदि शान्ति कर्म करने लगे॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूषाणमभ्यद्रवत शङ्करः प्रहसन्निव ।
पुरोडाशं भक्षयतो दशनान् वै व्यशातयत् ॥ ५९ ॥
मूलम्
पूषाणमभ्यद्रवत शङ्करः प्रहसन्निव ।
पुरोडाशं भक्षयतो दशनान् वै व्यशातयत् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय हँसते हुए-से भगवान् शंकरने पूषापर आक्रमण किया। वे पुरोडाश खा रहे थे। उन्होंने उनके सारे दाँत तोड़ डाले॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निश्चक्रमुर्देवा वेपमाना नताः स्म ते।
पुनश्च संदधे दीप्तान् देवानां निशिताञ्शरान् ॥ ६० ॥
मूलम्
ततो निश्चक्रमुर्देवा वेपमाना नताः स्म ते।
पुनश्च संदधे दीप्तान् देवानां निशिताञ्शरान् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सारे देवता नतमस्तक हो भयसे थरथर काँपते हुए यज्ञशालासे बाहर निकल गये। तब भगवान् शिवने देवताओंको लक्ष्य करके तीखे और तेजस्वी बाणोंका संधान किया॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सधूमान् सस्फुलिङ्गांश्च विद्युत्तोयदसंनिभान् ।
तं दृष्ट्वा तु सुराः सर्वे प्रणिपत्य महेश्वरम् ॥ ६१ ॥
रुद्रस्य यज्ञभागं च विशिष्टं ते त्वकल्पयन्।
मूलम्
सधूमान् सस्फुलिङ्गांश्च विद्युत्तोयदसंनिभान् ।
तं दृष्ट्वा तु सुराः सर्वे प्रणिपत्य महेश्वरम् ॥ ६१ ॥
रुद्रस्य यज्ञभागं च विशिष्टं ते त्वकल्पयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
धूम और चिनगारियोंसहित वे बाण बिजलीसहित मेघोंके समान जान पड़ते थे। तब सम्पूर्ण देवताओंने भगवान् महेश्वरको कुपित देख उनके चरणोंमें प्रणाम किया और रुद्रके लिये उन्होंने विशिष्ट यज्ञभागकी कल्पना की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भयेन त्रिदशा राजञ्छरणं च प्रपेदिरे ॥ ६२ ॥
तेन चैवातिकोपेन स यज्ञः संधितस्तदा।
भग्नाश्चापि सुरा आसन् भीताश्चाद्यापि तं प्रति ॥ ६३ ॥
मूलम्
भयेन त्रिदशा राजञ्छरणं च प्रपेदिरे ॥ ६२ ॥
तेन चैवातिकोपेन स यज्ञः संधितस्तदा।
भग्नाश्चापि सुरा आसन् भीताश्चाद्यापि तं प्रति ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सब देवता भयभीत हो भगवान् शंकरकी शरणमें आये। तब क्रोध शान्त होनेपर उन्होंने उस यज्ञको पूर्ण किया। उन दिनों देवता लोग भाग खड़े हुए थे, तभीसे आजतक वे देवता उनसे डरते रहते हैं॥६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुराणां पुराण्यासंस्त्रीणि वीर्यवतां दिवि।
आयसं राजतं चैव सौवर्णं परमं महत् ॥ ६४ ॥
मूलम्
असुराणां पुराण्यासंस्त्रीणि वीर्यवतां दिवि।
आयसं राजतं चैव सौवर्णं परमं महत् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें परम पराक्रमी तीन असुरोंके आकाशमें तीन नगर थे। एक लोहेका, दूसरा चाँदीका और तीसरा अत्यन्त विशाल नगर सोनेका बना हुआ था॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौवर्णं कमलाक्षस्य तारकाक्षस्य राजतम्।
तृतीयं तु पुरं तेषां विद्युन्मालिन आयसम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
सौवर्णं कमलाक्षस्य तारकाक्षस्य राजतम्।
तृतीयं तु पुरं तेषां विद्युन्मालिन आयसम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे सोनेका नगर कमलाक्षके, चाँदीका तारकाक्षके तथा तीसरा लोहेका बना हुआ नगर विद्युन्मालीके अधिकारमें था॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शक्तस्तानि मघवान् भेत्तुं सर्वायुधैरपि।
अथ सर्वे सुरा रुद्रं जग्मुः शरणमर्दिताः ॥ ६६ ॥
मूलम्
न शक्तस्तानि मघवान् भेत्तुं सर्वायुधैरपि।
अथ सर्वे सुरा रुद्रं जग्मुः शरणमर्दिताः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग करके भी उन नगरोंका भेदन न कर सके। तब उनसे पीड़ित हुए सम्पूर्ण देवता भगवान् शंकरकी शरणमें गये॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तमूचुर्महात्मानं सर्वे देवाः सवासवाः।
ब्रह्मदत्तवरा ह्येते घोरास्त्रिपुरवासिनः ॥ ६७ ॥
पीडयन्त्यधिकं लोकं यस्मात् ते वरदर्पिताः।
मूलम्
ते तमूचुर्महात्मानं सर्वे देवाः सवासवाः।
ब्रह्मदत्तवरा ह्येते घोरास्त्रिपुरवासिनः ॥ ६७ ॥
पीडयन्त्यधिकं लोकं यस्मात् ते वरदर्पिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंने महात्मा भगवान् शंकरसे कहा—‘प्रभो! ब्रह्माजीसे वरदान पाकर ये त्रिपुरनिवासी घोर दैत्य सम्पूर्ण जगत्को अधिकाधिक पीड़ा दे रहे हैं; क्योंकि वरदान प्राप्त होनेसे उनका घमंड बहुत बढ़ गया है॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदृते देवदेवेश नान्यः शक्तः कथंचन ॥ ६८ ॥
हन्तुं दैत्यान् महादेव जहि तांस्त्वं सुरद्विषः।
मूलम्
त्वदृते देवदेवेश नान्यः शक्तः कथंचन ॥ ६८ ॥
हन्तुं दैत्यान् महादेव जहि तांस्त्वं सुरद्विषः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवदेवेश्वर महादेव! आपके सिवा दूसरा कोई उन दैत्योंका वध करनेमें समर्थ नहीं है; अतः आप उन देवद्रोहियोंको मार डालिये॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्र रौद्रा भविष्यन्ति पशवः सर्वकर्मसु ॥ ६९ ॥
निपातयिष्यसे चैतानसुरान् भुवनेश्वर ।
मूलम्
रुद्र रौद्रा भविष्यन्ति पशवः सर्वकर्मसु ॥ ६९ ॥
निपातयिष्यसे चैतानसुरान् भुवनेश्वर ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भुवनेश्वर! रुद्र! आप जब इन असुरोंका विनाश कर डालेंगे, तबसे सम्पूर्ण यज्ञकर्मोंमें जो पशु (यज्ञके साधनभूत उपकरण) होंगे, वे रुद्रके भाग समझे जायँगे’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथोक्तस्तथेत्युक्त्वा देवानां हितकाम्यया ॥ ७० ॥
गन्धमादनविन्ध्यौ च कृत्वा वंशध्वजौ हरः।
पृथ्वीं ससागरवनां रथं कृत्वा तु शङ्करः ॥ ७१ ॥
अक्षं कृत्वा तु नागेन्द्रं शेषं नाम त्रिलोचनः।
चक्रे कृत्वा तु चन्द्रार्कौ देवदेवः पिनाकधृक् ॥ ७२ ॥
अणी कृत्वैलपत्रं च पुष्पदन्तं च त्र्यम्बकः।
यूपं कृत्वा तु मलयमवनाहं च तक्षकम् ॥ ७३ ॥
मूलम्
स तथोक्तस्तथेत्युक्त्वा देवानां हितकाम्यया ॥ ७० ॥
गन्धमादनविन्ध्यौ च कृत्वा वंशध्वजौ हरः।
पृथ्वीं ससागरवनां रथं कृत्वा तु शङ्करः ॥ ७१ ॥
अक्षं कृत्वा तु नागेन्द्रं शेषं नाम त्रिलोचनः।
चक्रे कृत्वा तु चन्द्रार्कौ देवदेवः पिनाकधृक् ॥ ७२ ॥
अणी कृत्वैलपत्रं च पुष्पदन्तं च त्र्यम्बकः।
यूपं कृत्वा तु मलयमवनाहं च तक्षकम् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान् शिवने ‘तथास्तु’ कहकर उनके हितकी इच्छासे गन्धमादन और विन्ध्याचल इन दो पर्वतोंको अपने रथके दो पार्श्ववर्ती ध्वज बनाये। फिर समुद्र और पर्वतोंसहित समूची पृथ्वीको रथ बनाकर नागराज शेषको उस रथका धुरा बनाया। तत्पश्चात् त्रिनेत्रधारी पिनाकपाणि देवाधिदेव महादेवने चन्द्रमा और सूर्य दोनोंको रथके दो पहिये बनाये। एलपत्रके पुत्र और पुष्पदन्तको जूएकी कीलें बनाया। फिर त्र्यम्बकने मलयाचलको यूप और तक्षक नागको जूआ बाँधनेकी रस्सी बना लिया॥७०—७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योक्त्राङ्गानि च सत्त्वानि कृत्वा शर्वः प्रतापवान्।
वेदान् कृत्वाऽथ चतुरश्चतुरश्वान् महेश्वरः ॥ ७४ ॥
मूलम्
योक्त्राङ्गानि च सत्त्वानि कृत्वा शर्वः प्रतापवान्।
वेदान् कृत्वाऽथ चतुरश्चतुरश्वान् महेश्वरः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार प्रतापी भगवान् महेश्वरने अन्य प्राणियोंको जोते और बागडोर आदिके रूपमें रखकर चारों वेद ही रथके चार घोड़े बना लिये॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपवेदान् खलीनांश्च कृत्वा लोकत्रयेश्वरः।
गायत्रीं प्रग्रहं कृत्वा सावित्रीं च महेश्वरः ॥ ७५ ॥
मूलम्
उपवेदान् खलीनांश्च कृत्वा लोकत्रयेश्वरः।
गायत्रीं प्रग्रहं कृत्वा सावित्रीं च महेश्वरः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् तीनों लोकोंके स्वामी महेश्वरने उपवेदोंको लगाम बनाकर गायत्री और सावित्रीको प्रग्रह बना लिया॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वोङ्कारं प्रतोदं च ब्रह्माणं चैव सारथिम्।
गाण्डीवं मन्दरं कृत्वा गुणं कृत्वा तु वासुकिम् ॥ ७६ ॥
विष्णुं शरोत्तमं कृत्वा शल्यमग्निं तथैव च।
वायुं कृत्वाथ वाजाभ्यां पुङ्खे वैवस्वतं यमम् ॥ ७७ ॥
मूलम्
कृत्वोङ्कारं प्रतोदं च ब्रह्माणं चैव सारथिम्।
गाण्डीवं मन्दरं कृत्वा गुणं कृत्वा तु वासुकिम् ॥ ७६ ॥
विष्णुं शरोत्तमं कृत्वा शल्यमग्निं तथैव च।
वायुं कृत्वाथ वाजाभ्यां पुङ्खे वैवस्वतं यमम् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर ओंकारको चाबुक, ब्रह्माजीको सारथि, मन्दराचलको गाण्डीव धनुष, वासुकिनागको उसकी प्रत्यंचा, भगवान् विष्णुको उत्तम बाण, अग्निदेवको उस बाणका फल, वायुको उसके पंख और वैवस्वत यमको उसकी पूँछ बनाया॥७६-७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्युत् कृत्वाथ निश्राणं मेरुं कृत्वाथ वै ध्वजम्।
आरुह्य स रथं दिव्यं सर्वदेवमयं शिवः ॥ ७८ ॥
त्रिपुरस्य वधार्थाय स्थाणुः प्रहरतां वरः।
असुराणामन्तकरः श्रीमानतुलविक्रमः ॥ ७९ ॥
मूलम्
विद्युत् कृत्वाथ निश्राणं मेरुं कृत्वाथ वै ध्वजम्।
आरुह्य स रथं दिव्यं सर्वदेवमयं शिवः ॥ ७८ ॥
त्रिपुरस्य वधार्थाय स्थाणुः प्रहरतां वरः।
असुराणामन्तकरः श्रीमानतुलविक्रमः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिजलीको उस बाणकी तीखी धार बनाकर मेरु पर्वतको प्रधान ध्वजके स्थानमें रखा। इस प्रकार सर्वदेवमय दिव्य रथ तैयार करके असुरोंका अन्त करनेवाले, अतुल पराक्रमी, योद्धाओंमें श्रेष्ठ तथा सदा स्थिर रहनेवाले श्रीमान् भगवान् शिव त्रिपुरवधके लिये उसपर आरूढ़ हुए॥७८-७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तूयमानः सुरैः पार्थ ऋषिभिश्च तपोधनैः।
स्थानं माहेश्वरं कृत्वा दिव्यमप्रतिमं प्रभुः ॥ ८० ॥
अतिष्ठत् स्थाणुभूतः स सहस्रं परिवत्सरान्।
मूलम्
स्तूयमानः सुरैः पार्थ ऋषिभिश्च तपोधनैः।
स्थानं माहेश्वरं कृत्वा दिव्यमप्रतिमं प्रभुः ॥ ८० ॥
अतिष्ठत् स्थाणुभूतः स सहस्रं परिवत्सरान्।
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! उस समय सम्पूर्ण देवता और तपोधन महर्षि भगवान् शंकरकी स्तुति करने लगे। उन भगवान्ने उस अनुपम एवं दिव्य माहेश्वर स्थान (रथ)-का निर्माण करके उसपर एक हजार वर्षोंतक स्थिरभावसे खड़े रहे॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा त्रीणि समेतानि अन्तरिक्षे पुराणि च ॥ ८१ ॥
त्रिपर्वणा त्रिशल्येन तदा तानि बिभेद सः।
मूलम्
यदा त्रीणि समेतानि अन्तरिक्षे पुराणि च ॥ ८१ ॥
त्रिपर्वणा त्रिशल्येन तदा तानि बिभेद सः।
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे तीनों पुर आकाशमें एकत्र हुए, तब उन्होंने तीन गाँठ और तीन फलवाले बाणसे उन तीनों पुरोंको विदीर्ण कर डाला॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुराणि न च तं शेकुर्दानवाः प्रतिवीक्षितुम् ॥ ८२ ॥
शरं कालाग्निसंयुक्तं विष्णुसोमसमायुतम् ।
मूलम्
पुराणि न च तं शेकुर्दानवाः प्रतिवीक्षितुम् ॥ ८२ ॥
शरं कालाग्निसंयुक्तं विष्णुसोमसमायुतम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय दानव उन नगरोंकी ओर और कालाग्निसे संयुक्त एवं विष्णु तथा सोमकी शक्तिसे सम्पन्न उस बाणकी ओर भी आँख उठाकर देख न सके॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुराणि दग्धवन्तं तं देवी याता प्रवीक्षितुम् ॥ ८३ ॥
बालमङ्कगतं कृत्वा स्वयं पञ्चशिखं पुनः।
मूलम्
पुराणि दग्धवन्तं तं देवी याता प्रवीक्षितुम् ॥ ८३ ॥
बालमङ्कगतं कृत्वा स्वयं पञ्चशिखं पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय वे तीनों पुरोंको दग्ध कर रहे थे, उस समय पार्वतीदेवी भी उन्हें देखनेके लिये एक पाँच शिखावाले बालकको गोदमें लेकर वहाँ गयीं॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमा जिज्ञासमाना वै कोऽयमित्यब्रवीत् सुरान् ॥ ८४ ॥
असूयतश्च शक्रस्य वज्रेण प्रहरिष्यतः।
बाहुं सवज्रं तं तस्य क्रुद्धस्यास्तम्भयत् प्रभुः ॥ ८५ ॥
प्रहस्य भगवांस्तूर्णं सर्वलोकेश्वरो विभुः।
मूलम्
उमा जिज्ञासमाना वै कोऽयमित्यब्रवीत् सुरान् ॥ ८४ ॥
असूयतश्च शक्रस्य वज्रेण प्रहरिष्यतः।
बाहुं सवज्रं तं तस्य क्रुद्धस्यास्तम्भयत् प्रभुः ॥ ८५ ॥
प्रहस्य भगवांस्तूर्णं सर्वलोकेश्वरो विभुः।
अनुवाद (हिन्दी)
पार्वतीदेवीने देवताओंसे पूछा—‘पहचानते हो, यह कौन है?’ उनके इस प्रश्नसे इन्द्रके हृदयमें असूया और क्रोधकी आग जल उठी, वे उस बालकपर वज्रका प्रहार करना ही चाहते थे कि सर्वलोकेश्वर सर्वव्यापी भगवान् शंकरने हँसकर उनकी वज्रसहित बाँहको स्तम्भित कर दिया॥८४-८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स स्तम्भितभुजः शक्रो देवगणैर्वृतः ॥ ८६ ॥
जगाम ससुरस्तूर्णं ब्रह्माणं प्रभुमव्ययम्।
मूलम्
ततः स स्तम्भितभुजः शक्रो देवगणैर्वृतः ॥ ८६ ॥
जगाम ससुरस्तूर्णं ब्रह्माणं प्रभुमव्ययम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर स्तम्भित हुई भुजाके साथ ही देवताओंसहित इन्द्र तुरंत ही वहाँसे अविनाशी भगवान् ब्रह्माजीके पास गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तं प्रणम्य शिरसा प्रोचुः प्राञ्चलयस्तदा ॥ ८७ ॥
किमप्यङ्कगतं ब्रह्मन् पार्वत्या भूतमद्भुतम्।
बालरूपधरं दृष्ट्वा नास्माभिरभिलक्षितः ॥ ८८ ॥
मूलम्
ते तं प्रणम्य शिरसा प्रोचुः प्राञ्चलयस्तदा ॥ ८७ ॥
किमप्यङ्कगतं ब्रह्मन् पार्वत्या भूतमद्भुतम्।
बालरूपधरं दृष्ट्वा नास्माभिरभिलक्षितः ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने मस्तक झुकाकर ब्रह्माजीको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा—‘ब्रह्मन्! पार्वतीजीकी गोदमें बालरूपधारी एक अद्भुत प्राणी था, जिसे देखकर भी हमलोग पहचान नहीं सके हैं॥८७-८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वां प्रष्टुमिच्छामो निर्जिता येन वै वयम्।
अयुध्यता हि बालेन लीलया सपुरंदराः ॥ ८९ ॥
मूलम्
तस्मात् त्वां प्रष्टुमिच्छामो निर्जिता येन वै वयम्।
अयुध्यता हि बालेन लीलया सपुरंदराः ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः हमलोग आपसे उसके विषयमें पूछना चाहते हैं, उस बालकने बिना युद्धके ही खेल-खेलमें इन्द्रसहित हम देवताओंको परास्त कर दिया’॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः।
ध्यात्वा स शम्भुं भगवान् बालं चामिततेजसम् ॥ ९० ॥
मूलम्
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः।
ध्यात्वा स शम्भुं भगवान् बालं चामिततेजसम् ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी यह बात सुनकर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्माने ध्यान करके अमिततेजस्वी बालरूपधारी शंकरको पहचान लिया॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच भगवान् ब्रह्मा शक्रादींश्च सुरोत्तमान्।
चराचरस्य जगतः प्रभुः स भगवान् हरः ॥ ९१ ॥
तस्मात् परतरं नान्यत् किंचिदस्ति महेश्वरात्।
यो दृष्टो ह्युमया सार्धं युष्माभिरमितद्युतिः ॥ ९२ ॥
स पार्वत्याः कृते शर्वः कृतवान् बालरूपताम्।
ते मया सहिता यूयं प्रापयध्वं तमेव हि ॥ ९३ ॥
मूलम्
उवाच भगवान् ब्रह्मा शक्रादींश्च सुरोत्तमान्।
चराचरस्य जगतः प्रभुः स भगवान् हरः ॥ ९१ ॥
तस्मात् परतरं नान्यत् किंचिदस्ति महेश्वरात्।
यो दृष्टो ह्युमया सार्धं युष्माभिरमितद्युतिः ॥ ९२ ॥
स पार्वत्याः कृते शर्वः कृतवान् बालरूपताम्।
ते मया सहिता यूयं प्रापयध्वं तमेव हि ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् भगवान् ब्रह्माने उन देवश्रेष्ठ इन्द्र आदिसे कहा—‘देवताओ! वे चराचर जगत्के स्वामी साक्षात् भगवान् शंकर थे। उन महेश्वरसे बढ़कर दूसरी कोई सत्ता नहीं है। तुमलोगोंने पार्वतीजीके साथ जिस अमिततेजस्वी बालकका दर्शन किया है, उसके रूपमें भगवान् शंकर ही थे। उन्होंने पार्वतीजीकी प्रसन्नताके लिये बालरूप धारण कर लिया था; अतः तुमलोग मेरे साथ उन्हींकी शरणमें चलो’॥९१—९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एष भगवान् देवः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः।
न सम्बुबुधिरे चैनं देवास्तं भुवनेश्वरम् ॥ ९४ ॥
सप्रजापतयः सर्वे बालार्कसदृशप्रभम् ।
मूलम्
स एष भगवान् देवः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः।
न सम्बुबुधिरे चैनं देवास्तं भुवनेश्वरम् ॥ ९४ ॥
सप्रजापतयः सर्वे बालार्कसदृशप्रभम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस बालकके रूपमें ये सर्वलोकेश्वर प्रभु भगवान् महादेव ही थे, किंतु प्रजापतियोंसहित सम्पूर्ण देवता बालसूर्यके सदृश कान्तिमान् उन जगदीश्वरको पहचान न सके॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाभ्येत्य ततो ब्रह्मा दृष्ट्वा स च महेश्वरम् ॥ ९५ ॥
अयं श्रेष्ठ इति ज्ञात्वा ववन्दे तं पितामहः।
मूलम्
अथाभ्येत्य ततो ब्रह्मा दृष्ट्वा स च महेश्वरम् ॥ ९५ ॥
अयं श्रेष्ठ इति ज्ञात्वा ववन्दे तं पितामहः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर ब्रह्माजीने निकट जाकर भगवान् महेश्वरको देखा और ये ही सबसे श्रेष्ठ हैं, ऐसा जानकर उनकी वन्दना की॥९५॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं यज्ञो भुवनस्यास्य त्वं गतिस्त्वं परायणम् ॥ ९६ ॥
त्वं भवस्त्वं महादेवस्त्वं धाम परमं पदम्।
त्वया सर्वमिदं व्याप्तं जगत् स्थावरजङ्गमम् ॥ ९७ ॥
मूलम्
त्वं यज्ञो भुवनस्यास्य त्वं गतिस्त्वं परायणम् ॥ ९६ ॥
त्वं भवस्त्वं महादेवस्त्वं धाम परमं पदम्।
त्वया सर्वमिदं व्याप्तं जगत् स्थावरजङ्गमम् ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले— भगवन्! आप ही यज्ञ, आप ही इस विश्वके सहारे और आप ही सबको शरण देनेवाले हैं, आप ही सबको उत्पन्न करनेवाले भव हैं, आप ही महादेव हैं और आप ही परमधाम एवं परमपद हैं। आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है॥९६-९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् भूतभव्येश लोकनाथ जगत्पते।
प्रसादं कुरु शक्रस्य त्वया क्रोधार्दितस्य वै ॥ ९८ ॥
मूलम्
भगवन् भूतभव्येश लोकनाथ जगत्पते।
प्रसादं कुरु शक्रस्य त्वया क्रोधार्दितस्य वै ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी भगवन्! लोकनाथ! जगत्पते! ये इन्द्र आपके क्रोधसे पीड़ित हो रहे हैं। आप इनपर कृपा कीजिये॥९८॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मयोनिवचः श्रुत्वा ततः प्रीतो महेश्वरः।
प्रसादाभिमुखो भूत्वा अट्टहासमथाकरोत् ॥ ९९ ॥
मूलम्
पद्मयोनिवचः श्रुत्वा ततः प्रीतो महेश्वरः।
प्रसादाभिमुखो भूत्वा अट्टहासमथाकरोत् ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी कहते हैं— पार्थ! ब्रह्माजीकी बात सुनकर भगवान् महेश्वर प्रसन्न हो गये और कृपाके लिये उद्यत हो ठठाकर हँस पड़े॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रसादयामासुरुमां रुद्रं च ते सुराः।
अभवच्च पुनर्बाहुर्यथाप्रकृति वज्रिणः ॥ १०० ॥
मूलम्
ततः प्रसादयामासुरुमां रुद्रं च ते सुराः।
अभवच्च पुनर्बाहुर्यथाप्रकृति वज्रिणः ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब देवताओंने पार्वतीदेवी तथा भगवान् शंकरको प्रसन्न किया। फिर वज्रधारी इन्द्रकी बाँह जैसी पहले थी, वैसी हो गयी॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां प्रसन्नो भगवान् सपत्नीको वृषध्वजः।
देवानां त्रिदशश्रेष्ठो दक्षयज्ञविनाशनः ॥ १०१ ॥
मूलम्
तेषां प्रसन्नो भगवान् सपत्नीको वृषध्वजः।
देवानां त्रिदशश्रेष्ठो दक्षयज्ञविनाशनः ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दक्षयज्ञका विनाश करनेवाले देवश्रेष्ठ भगवान् वृषध्वज अपनी पत्नी उमाके साथ देवताओंपर प्रसन्न हो गये॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै रुद्रः स च शिवः सोऽग्निः सर्वश्च सर्ववित्।
स चेन्द्रश्चैव वायुश्च सोऽश्विनौ च स विद्युतः ॥ १०२ ॥
मूलम्
स वै रुद्रः स च शिवः सोऽग्निः सर्वश्च सर्ववित्।
स चेन्द्रश्चैव वायुश्च सोऽश्विनौ च स विद्युतः ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही रुद्र हैं, वे ही शिव हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही सर्वस्वरूप एवं सर्वज्ञ हैं। वे ही इन्द्र और वायु हैं, वे ही दोनों अश्विनीकुमार तथा विद्युत् हैं॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवः स च पर्जन्यो महादेवः सनातनः।
स चन्द्रमाः स चेशानः स सूर्यो वरुणश्च सः॥१०३॥
मूलम्
स भवः स च पर्जन्यो महादेवः सनातनः।
स चन्द्रमाः स चेशानः स सूर्यो वरुणश्च सः॥१०३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही भव, वे ही मेघ और वे ही सनातन महादेव हैं। चन्द्रमा, ईशान, सूर्य और वरुण भी वे ही हैं॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कालः सोऽन्तको मृत्युः स यमो रात्र्यहानि तु।
मासार्धमासा ऋतवः संध्ये संवत्सरश्च सः ॥ १०४ ॥
मूलम्
स कालः सोऽन्तको मृत्युः स यमो रात्र्यहानि तु।
मासार्धमासा ऋतवः संध्ये संवत्सरश्च सः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही काल, अनाक, मृत्यु, यम, रात्रि, दिन, मास, पक्ष, ऋतु, संध्या और संवत्सर हैं॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धाता च स विधाता च विश्वात्मा विश्वकर्मकृत्।
सर्वासां देवतानां च धारयत्यवपुर्वपुः ॥ १०५ ॥
मूलम्
धाता च स विधाता च विश्वात्मा विश्वकर्मकृत्।
सर्वासां देवतानां च धारयत्यवपुर्वपुः ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही धाता, विधाता, विश्वात्मा और विश्वरूपी कार्यके कर्ता हैं। वे शरीररहित होकर भी सम्पूर्ण देवताओंके शरीर धारण करते हैं॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वदेवैः स्तुतो देवः सैकधा बहुधा च सः।
शतधा सहस्रधा चैव भूयः शतसहस्रधा ॥ १०६ ॥
मूलम्
सर्वदेवैः स्तुतो देवः सैकधा बहुधा च सः।
शतधा सहस्रधा चैव भूयः शतसहस्रधा ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण देवता सदा उनकी स्तुति करते हैं। वे महादेवजी एक होकर भी अनेक हैं। सौ, हजार और लाखों रूपोंमें वे ही विराज रहे हैं॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः।
घोरा चान्या शिवा चान्या ते तनू बहुधा पुनः॥१०७॥
मूलम्
द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः।
घोरा चान्या शिवा चान्या ते तनू बहुधा पुनः॥१०७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदज्ञ ब्राह्मण उनके दो शरीर मानते हैं, एक घोर और दूसरा शिव। ये दोनों पृथक्-पृथक् हैं और उन्हींसे पुनः बहुसंख्यक शरीर प्रकट हो जाते हैं॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घोरा तु या तनुस्तस्य सोऽग्निर्विष्णुः स भास्करः।
सौम्या तु पुनरेवास्य आपो ज्योतींषि चन्द्रमाः ॥ १०८ ॥
मूलम्
घोरा तु या तनुस्तस्य सोऽग्निर्विष्णुः स भास्करः।
सौम्या तु पुनरेवास्य आपो ज्योतींषि चन्द्रमाः ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका जो घोर शरीर है, वही अग्नि, विष्णु और सूर्य है और उनका सौम्य (शिव) शरीर ही जल, ग्रह, नक्षत्र और चन्द्रमा है॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाः साङ्गोपनिषदः पुराणाध्यात्मनिश्चयाः ।
यदत्र परमं गुह्यं स वै देवो महेश्वरः ॥ १०९ ॥
मूलम्
वेदाः साङ्गोपनिषदः पुराणाध्यात्मनिश्चयाः ।
यदत्र परमं गुह्यं स वै देवो महेश्वरः ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद, वेदांग, उपनिषद्, पुराण और अध्यात्मशास्त्रके जो सिद्धान्त हैं तथा उनमें भी जो परम रहस्य है, वह भगवान् महेश्वर ही हैं॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईदृशश्च महादेवो भूयांश्च भगवानजः।
न हि सर्वे मया शक्या वक्तुं भगवतो गुणाः॥११०॥
अपि वर्षसहस्रेण सततं पाण्डुनन्दन।
मूलम्
ईदृशश्च महादेवो भूयांश्च भगवानजः।
न हि सर्वे मया शक्या वक्तुं भगवतो गुणाः॥११०॥
अपि वर्षसहस्रेण सततं पाण्डुनन्दन।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! यह है अजन्मा भगवान् महादेवका महामहिमस्वरूप। मैं सहस्रों वर्षोंतक लगातार वर्णन करता रहूँ तो भी भगवान्के समस्त गुणोंका पार नहीं पा सकता॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैर्ग्रहैर्गृहीतान् वै सर्वपापसमन्वितान् ॥ १११ ॥
स मोचयति सुप्रीतः शरण्यः शरणागतान्।
मूलम्
सर्वैर्ग्रहैर्गृहीतान् वै सर्वपापसमन्वितान् ॥ १११ ॥
स मोचयति सुप्रीतः शरण्यः शरणागतान्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब प्रकारकी ग्रहबाधाओंसे पीड़ित हैं और सम्पूर्ण पापोंमें डूबे हुए हैं, वे भी यदि शरणमें आ जायँ तो शरणागतवत्सल भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें पाप-तापसे मुक्त कर देते हैं॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुरारोग्यमैश्वर्यं वित्तं कामांश्च पुष्कलान् ॥ ११२ ॥
स ददाति मनुष्येभ्यः स चैवाक्षिपते पुनः।
मूलम्
आयुरारोग्यमैश्वर्यं वित्तं कामांश्च पुष्कलान् ॥ ११२ ॥
स ददाति मनुष्येभ्यः स चैवाक्षिपते पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही प्रसन्न होनेपर मनुष्योंको आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, धन और प्रचुरमात्रामें मनोवांछित पदार्थ देते हैं तथा वे ही कुपित होनेपर फिर उन सबका संहार कर डालते हैं॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेन्द्रादिषु च देवेषु तस्य चैश्वर्यमुच्यते ॥ ११३ ॥
स चैव व्यापृतो लोके मनुष्याणां शुभाशुभे।
ऐश्वर्याच्चैव कामानामीश्वरश्च स उच्यते ॥ ११४ ॥
मूलम्
सेन्द्रादिषु च देवेषु तस्य चैश्वर्यमुच्यते ॥ ११३ ॥
स चैव व्यापृतो लोके मनुष्याणां शुभाशुभे।
ऐश्वर्याच्चैव कामानामीश्वरश्च स उच्यते ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र आदि देवताओंमें उन्हींका ऐश्वर्य बताया जाता है, वे ही ईश्वर होनेके कारण लोकमें मनुष्योंके शुभाशुभ कर्मोंके फल देनेमें संलग्न रहते हैं। सम्पूर्ण कामनाओंके ईश्वर भी वे ही बताये जाते हैं॥११३-११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महेश्वरश्च महतां भूतानामीश्वरश्च सः।
बहुभिर्बहुधा रूपैर्विश्वं व्याप्नोति वै जगत् ॥ ११५ ॥
मूलम्
महेश्वरश्च महतां भूतानामीश्वरश्च सः।
बहुभिर्बहुधा रूपैर्विश्वं व्याप्नोति वै जगत् ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभूतोंके ईश्वर होनेसे वे ही महेश्वर कहलाते हैं। वे नाना प्रकारके बहुसंख्यक रूपोंद्वारा सम्पूर्ण विश्वमें व्याप्त हैं॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य देवस्य यद् वक्त्रं समुद्रे तदधिष्ठितम्।
वडवामुखेति विख्यातं पिबत् तोयमयं हविः ॥ ११६ ॥
मूलम्
तस्य देवस्य यद् वक्त्रं समुद्रे तदधिष्ठितम्।
वडवामुखेति विख्यातं पिबत् तोयमयं हविः ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महादेवजीका जो मुख है, वह समुद्रमें स्थित है। वह ‘वडवामुख’ नामसे विख्यात होकर जलमय हविष्यका पान करता है॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष चैव श्मशानेषु देवो वसति नित्यशः।
यजन्त्येनं जनास्तत्र वीरस्थान इतीश्वरम् ॥ ११७ ॥
मूलम्
एष चैव श्मशानेषु देवो वसति नित्यशः।
यजन्त्येनं जनास्तत्र वीरस्थान इतीश्वरम् ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये ही महादेवजी श्मशानभूमि (काशीपुरी)-में नित्य निवास करते हैं। वहाँ मनुष्य ‘वीरस्थानेश्वर’ के नामसे इनकी आराधना करते हैं॥११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य दीप्तानि रूपाणि घोराणि च बहूनि च।
लोके यान्यस्य पूज्यन्ते मनुष्याः प्रवदन्ति च ॥ ११८ ॥
मूलम्
अस्य दीप्तानि रूपाणि घोराणि च बहूनि च।
लोके यान्यस्य पूज्यन्ते मनुष्याः प्रवदन्ति च ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके बहुत-से तेजस्वी घोर रूप हैं, जो लोकमें पूजित होते हैं और मनुष्य उनका कीर्तन करते रहते हैं॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामधेयानि लोकेषु बहून्यस्य यथार्थवत्।
निरुच्यन्ते महत्त्वाच्च विभुत्वात् कर्मणस्तथा ॥ ११९ ॥
मूलम्
नामधेयानि लोकेषु बहून्यस्य यथार्थवत्।
निरुच्यन्ते महत्त्वाच्च विभुत्वात् कर्मणस्तथा ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी महत्ता, सर्वव्यापकता तथा कर्मके अनुसार लोकमें इनके बहुत-से यथार्थ नाम बताये जाते हैं॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदे चास्य समाम्नातं शतरुद्रियमुत्तमम्।
नाम्ना चानन्तरुद्रेति ह्युपस्थानं महात्मनः ॥ १२० ॥
मूलम्
वेदे चास्य समाम्नातं शतरुद्रियमुत्तमम्।
नाम्ना चानन्तरुद्रेति ह्युपस्थानं महात्मनः ॥ १२० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यजुर्वेदमें भी परमात्मा शिवकी ‘शतरुद्रिय’ नामक उत्तम स्तुति बतायी गयी है। अनन्तरुद्रनामसे इनका उपस्थान बताया गया है॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कामानां प्रभुर्देवो ये दिव्या ये च मानुषाः।
स विभुः स प्रभुर्देवो विश्वं व्याप्नोति वै महत्॥१२१॥
मूलम्
स कामानां प्रभुर्देवो ये दिव्या ये च मानुषाः।
स विभुः स प्रभुर्देवो विश्वं व्याप्नोति वै महत्॥१२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दिव्य तथा मानव भोग हैं, उन सबके स्वामी ये महादेवजी ही हैं। ये देव इस विशाल विश्वमें व्याप्त हैं; इसलिये विभु और प्रभु कहलाते हैं॥१२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्येष्ठं भूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा मुनयस्तथा।
प्रथमो ह्येष देवानां मुखादस्यानलोऽभवत् ॥ १२२ ॥
मूलम्
ज्येष्ठं भूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा मुनयस्तथा।
प्रथमो ह्येष देवानां मुखादस्यानलोऽभवत् ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण और मुनिजन इन्हें सबसे ज्येष्ठ बताते हैं, ये देवताओंमें सबसे प्रथम हैं; इन्हींके मुखसे अग्निदेवका प्रादुर्भाव हुआ है॥१२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा यत् पशून् पाति तैश्च यद् रमते पुनः।
तेषामधिपतिर्यच्च तस्मात् पशुपतिः स्मृतः ॥ १२३ ॥
मूलम्
सर्वथा यत् पशून् पाति तैश्च यद् रमते पुनः।
तेषामधिपतिर्यच्च तस्मात् पशुपतिः स्मृतः ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सर्वथा पशुओं (प्राणियों)-का पालन करते और उन्हींके साथ खेला करते हैं तथा उन पशुओंके अधिपति हैं; इसलिये ‘पशुपति’ कहे गये हैं॥१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यं च ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यथा स्थितम्।
महयत्येष लोकांश्च महेश्वर इति स्मृतः ॥ १२४ ॥
मूलम्
दिव्यं च ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यथा स्थितम्।
महयत्येष लोकांश्च महेश्वर इति स्मृतः ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनका दिव्य लिंग ब्रह्मचर्यसे स्थित है। ये सम्पूर्ण लोकोंको महिमान्वित करते हैं; इसलिये महेश्वर कहे गये हैं॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयश्चैव देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
लिङ्गमस्यार्चयन्ति स्म तच्चाप्यूर्ध्वं समास्थितम् ॥ १२५ ॥
मूलम्
ऋषयश्चैव देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तथा ।
लिङ्गमस्यार्चयन्ति स्म तच्चाप्यूर्ध्वं समास्थितम् ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ इनके ऊर्ध्वलोकस्थित लिंगविग्रह (प्रतीक)-की पूजा करती हैं॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूज्यमाने ततस्तस्मिन् मोदते स महेश्वरः।
सुखी प्रीतश्च भवति प्रहृष्टश्चैव शङ्करः ॥ १२६ ॥
मूलम्
पूज्यमाने ततस्तस्मिन् मोदते स महेश्वरः।
सुखी प्रीतश्च भवति प्रहृष्टश्चैव शङ्करः ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस लिंग अर्थात् प्रतीककी पूजा होनेपर कल्याणकारी भगवान् महेश्वर आनन्दित होते हैं। सुखी, प्रसन्न तथा हर्षोल्लाससे परिपूर्ण होते हैं॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदस्य बहुधा रूपं भूतभव्यभवस्थितम्।
स्थावरं जङ्गमं चैव बहुरूपस्ततः स्मृतः ॥ १२७ ॥
मूलम्
यदस्य बहुधा रूपं भूतभव्यभवस्थितम्।
स्थावरं जङ्गमं चैव बहुरूपस्ततः स्मृतः ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत, भविष्य और वर्तमान—तीनों कालोंमें इनके स्थावर-जंगम बहुत-से रूप स्थित होते हैं; इसलिये इन्हें ‘बहुरूप’ नाम दिया गया है॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाक्षो जाज्वलन्नास्ते सर्वतोऽक्षिमयोऽपि वा।
क्रोधाद् यश्चाविशल्लोकांस्तस्मात् सर्व इति स्मृतः ॥ १२८ ॥
मूलम्
एकाक्षो जाज्वलन्नास्ते सर्वतोऽक्षिमयोऽपि वा।
क्रोधाद् यश्चाविशल्लोकांस्तस्मात् सर्व इति स्मृतः ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि उनके सब ओर नेत्र हैं, तथापि उनका एक विलक्षण अग्निमय नेत्र अलग भी है, जो सदा क्रोधसे प्रज्वलित रहता है; वे सब लोकोंमें समाविष्ट होनेके कारण ‘सर्व’ कहे गये हैं॥१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूम्ररूपं च यत् तस्य धूर्जटिस्तेन चोच्यते।
विश्वेदेवाश्च यत् तस्मिन् विश्वरूपस्ततः स्मृतः ॥ १२९ ॥
मूलम्
धूम्ररूपं च यत् तस्य धूर्जटिस्तेन चोच्यते।
विश्वेदेवाश्च यत् तस्मिन् विश्वरूपस्ततः स्मृतः ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका रूप धूम्रवर्णका है; इसलिये वे ‘धूर्जटि’ कहलाते हैं। विश्वेदेव उन्हींमें प्रतिष्ठित हैं, इसलिये उनका एक नाम ‘विश्वरूप’ है॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस्रो देवीर्यदा चैव भजते भुवनेश्वरः।
द्यामपः पृथिवीं चैव त्र्यम्बकश्च ततः स्मृतः ॥ १३० ॥
मूलम्
तिस्रो देवीर्यदा चैव भजते भुवनेश्वरः।
द्यामपः पृथिवीं चैव त्र्यम्बकश्च ततः स्मृतः ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भगवान् भुवनेश्वर आकाश, जल और पृथ्वी इन अम्बास्वरूपा तीन देवियोंको अपनाते, उनकी रक्षा करते हैं, इसलिये त्र्यम्बक कहे गये हैं॥१३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समेधयति यन्नित्यं सर्वार्थान् सर्वकर्मसु।
शिवमिच्छन् मनुष्याणां तस्मादेष शिवः स्मृतः ॥ १३१ ॥
मूलम्
समेधयति यन्नित्यं सर्वार्थान् सर्वकर्मसु।
शिवमिच्छन् मनुष्याणां तस्मादेष शिवः स्मृतः ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये मनुष्योंका कल्याण चाहते हुए उनके समस्त कर्मोंमें सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थोंकी समृद्धि (सिद्धि) करते हैं, इसलिये ‘शिव’ कहे गये हैं॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राक्षोऽयुताक्षो वा सर्वतोऽक्षिमयोऽपि वा।
यच्च विश्वं महत् पाति महादेवस्ततः स्मृतः ॥ १३२ ॥
मूलम्
सहस्राक्षोऽयुताक्षो वा सर्वतोऽक्षिमयोऽपि वा।
यच्च विश्वं महत् पाति महादेवस्ततः स्मृतः ॥ १३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके सहस्र अथवा दस हजार नेत्र हैं अथवा वे सब ओरसे नेत्रमय ही हैं। भगवान् शिव महान् विश्वका पालन करते हैं; इसलिये ‘महादेव’ कहे गये हैं॥१३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महत् पूर्वं स्थितो यच्च प्राणोत्पत्तिस्थितश्च यत्।
स्थितलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात् स्थाणुरिति स्मृतः ॥ १३३ ॥
मूलम्
महत् पूर्वं स्थितो यच्च प्राणोत्पत्तिस्थितश्च यत्।
स्थितलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात् स्थाणुरिति स्मृतः ॥ १३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे पूर्वकालसे ही महान् रूपमें स्थित हैं, प्राणोंकी उत्पत्ति और स्थितिके कारण हैं तथा उनका लिंगमय शरीर सदा स्थिर रहता है; इसलिये उन्हें ‘स्थाणु’ कहते हैं॥१३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्याचन्द्रमसोर्लोके प्रकाशन्ते रुचश्च याः।
ताः केशसंज्ञितास्त्र्यक्षे व्योमकेशस्ततः स्मृतः ॥ १३४ ॥
मूलम्
सूर्याचन्द्रमसोर्लोके प्रकाशन्ते रुचश्च याः।
ताः केशसंज्ञितास्त्र्यक्षे व्योमकेशस्ततः स्मृतः ॥ १३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकमें जो सूर्य और चन्द्रमाकी किरणें प्रकाशित होती हैं, वे भगवान् त्रिलोचनके केश कही गयी हैं। वे व्योम (आकाश)-में प्रकाशित होती हैं; इसलिये उनका नाम ‘व्योमकेश’ है॥१३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं जगदशेषतः।
भव एव ततो यस्माद् भूतभव्यभवोद्भवः ॥ १३५ ॥
मूलम्
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं जगदशेषतः।
भव एव ततो यस्माद् भूतभव्यभवोद्भवः ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत, वर्तमान और भविष्य सम्पूर्ण जगत् भगवान् शंकरसे ही विस्तारको प्राप्त हुआ है; इसलिये वे ‘भूतभव्यभवोद्भव’ कहे गये हैं॥१३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपिः श्रेष्ठ इति प्रोक्तो धर्मश्च वृष उच्यते।
स देवदेवो भगवान् कीर्त्यतेऽतो वृषाकपिः ॥ १३६ ॥
मूलम्
कपिः श्रेष्ठ इति प्रोक्तो धर्मश्च वृष उच्यते।
स देवदेवो भगवान् कीर्त्यतेऽतो वृषाकपिः ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपि कहते हैं श्रेष्ठको और वृष नाम है धर्मका। वृष और कपि दोनों होनेके कारण देवाधिदेव भगवान् शंकर ‘वृषाकपि’ कहलाते हैं॥१३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्माणमिन्द्रं वरुणं यमं धनदमेव च।
निगृह्य हरते यस्मात् तस्माद्धर इति स्मृतः ॥ १३७ ॥
मूलम्
ब्रह्माणमिन्द्रं वरुणं यमं धनदमेव च।
निगृह्य हरते यस्मात् तस्माद्धर इति स्मृतः ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण, यम तथा कुबेरको भी काबूमें करके उनसे उनका ऐश्वर्य हर लेते हैं; इसलिये ‘हर’ कहे गये हैं॥१३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमीलिताभ्यां नेत्राभ्यां बलाद् देवो महेश्वरः।
ललाटे नेत्रमसृजत् तेन त्र्यक्षः स उच्यते ॥ १३८ ॥
मूलम्
निमीलिताभ्यां नेत्राभ्यां बलाद् देवो महेश्वरः।
ललाटे नेत्रमसृजत् तेन त्र्यक्षः स उच्यते ॥ १३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन भगवान् महेश्वरने दोनों नेत्रोंको बंद करके अपने ललाटमें बलपूर्वक तीसरे नेत्रकी सृष्टि की, इसलिये उन्हें त्रिनेत्र कहते हैं॥१३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषमस्थः शरीरेषु समश्च प्राणिनामिह।
स वायुर्विषमस्थेषु प्राणोऽपानः शरीरिषु ॥ १३९ ॥
मूलम्
विषमस्थः शरीरेषु समश्च प्राणिनामिह।
स वायुर्विषमस्थेषु प्राणोऽपानः शरीरिषु ॥ १३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे प्राणियोंके शरीरोंमें विषम संख्यावाले पाँच प्राणोंके साथ निवास करते हुए सदा समभावसे स्थित रहते हैं। विषम परिस्थितियोंमें पड़े हुए समस्त देहधारियोंके भीतर वे ही प्राणवायु और अपानवायुके रूपमें विराजमान हैं॥१३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजयेद् विग्रहं यस्तु लिङ्गं चापि महात्मनः।
लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते ॥ १४० ॥
मूलम्
पूजयेद् विग्रहं यस्तु लिङ्गं चापि महात्मनः।
लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कोई भी मनुष्य हो, उसे महात्मा शिवके अर्चाविग्रह अथवा लिंग (प्रतीक)-की पूजा करनी चाहिये। लिंग अथवा प्रतिमाकी पूजा करनेवाला पुरुष बड़ी भारी सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है॥१४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरुभ्यामर्धमाग्नेयं सोमर्धं च शिवा तनुः।
आत्मनोऽर्धं तथा चाग्निः सोमोऽर्धं पुनरुच्यते ॥ १४१ ॥
मूलम्
ऊरुभ्यामर्धमाग्नेयं सोमर्धं च शिवा तनुः।
आत्मनोऽर्धं तथा चाग्निः सोमोऽर्धं पुनरुच्यते ॥ १४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों जाँघोंसे नीचे भगवान् शिवका आधा शरीर आग्नेय अथवा घोर है तथा उससे ऊपरका आधा शरीर सोम एवं शिव है। किसी-किसीके मतमें उनके सम्पूर्ण शरीरका आधा भाग ‘अग्नि’ और आधा भाग ‘सोम’ कहलाता है॥१४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैजसी महती दीप्ता देवेभ्योऽस्य शिवा तनुः।
भास्वती मानुषेष्वस्य तनुर्घोराग्निरुच्यते ॥ १४२ ॥
मूलम्
तैजसी महती दीप्ता देवेभ्योऽस्य शिवा तनुः।
भास्वती मानुषेष्वस्य तनुर्घोराग्निरुच्यते ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका जो शिव शरीर है, वह तेजोमय और परम कान्तिमान् है। वह देवताओंके उपयोगमें आता है तथा मनुष्यलोकमें उनका प्रकाशमान घोर शरीर ‘अग्नि’ कहलाता है॥१४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्यं चरत्येष शिवा यास्य तनुस्तया।
यास्य घोरतरा मूर्तिः सर्वानत्ति तयेश्वरः ॥ १४३ ॥
मूलम्
ब्रह्मचर्यं चरत्येष शिवा यास्य तनुस्तया।
यास्य घोरतरा मूर्तिः सर्वानत्ति तयेश्वरः ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी जो शिव मूर्ति है, वह जगत्की रक्षाके लिये ब्रह्मचर्यका पालन करती है और उनकी जो घोरतर मूर्ति है, उसके द्वारा भगवान् शंकर सम्पूर्ण जगत्का संहार करते हैं॥१४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्निर्दहति यत् तीक्ष्णो यदुग्रो यत् प्रतापवान्।
मांसशोणितमज्जादो यत् ततो रुद्र उच्यते ॥ १४४ ॥
मूलम्
यन्निर्दहति यत् तीक्ष्णो यदुग्रो यत् प्रतापवान्।
मांसशोणितमज्जादो यत् ततो रुद्र उच्यते ॥ १४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये प्रतापी देवता प्रलयकालमें अत्यन्त तीक्ष्ण एवं उग्र रूप धारण करके सबको दग्ध कर डालते हैं और प्राणियोंके रक्त, मांस एवं मज्जाको भी भक्षण करते हैं; अतः रौद्रभावके कारण ‘रुद्र’ कहलाते हैं॥१४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष देवो महादेवो योऽसौ पार्थ तवाग्रतः।
संग्रामे शात्रवान् निघ्नंस्त्वया दृष्टः पिनाकधृक् ॥ १४५ ॥
मूलम्
एष देवो महादेवो योऽसौ पार्थ तवाग्रतः।
संग्रामे शात्रवान् निघ्नंस्त्वया दृष्टः पिनाकधृक् ॥ १४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! संग्रामभूमिमें जो तुम्हारे आगे शत्रुओंका संहार करते हुए दिखायी दिये हैं, वे ये ही पिनाकधारी भगवान् महादेव हैं॥१४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिन्धुराजवधार्थाय प्रतिज्ञाते त्वयानघ ।
कृष्णेन दर्शितः स्वप्ने यस्तु शैलेन्द्रमूर्धनि ॥ १४६ ॥
एष वै भगवान् देवः संग्रामे याति तेऽग्रतः।
येन दत्तानि तेऽस्त्राणि यैस्त्वया दानवा हताः ॥ १४७ ॥
मूलम्
सिन्धुराजवधार्थाय प्रतिज्ञाते त्वयानघ ।
कृष्णेन दर्शितः स्वप्ने यस्तु शैलेन्द्रमूर्धनि ॥ १४६ ॥
एष वै भगवान् देवः संग्रामे याति तेऽग्रतः।
येन दत्तानि तेऽस्त्राणि यैस्त्वया दानवा हताः ॥ १४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप अर्जुन! जब तुमने सिंधुराजके वधकी प्रतिज्ञा की थी, उस समय स्वप्नमें भगवान् श्रीकृष्णने तुम्हें गिरिराजके शिखरपर जिनका दर्शन कराया था, ये वे ही भगवान् शंकर संग्राममें तुम्हारे आगे-आगे चल रहे हैं। उन्होंने ही तुम्हें वे दिव्यास्त्र प्रदान किये थे, जिनके द्वारा तुमने दानवोंका संहार किया है॥१४६-१४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम्।
देवदेवस्य ते पार्थ व्याख्यातं शतरुद्रियम् ॥ १४८ ॥
मूलम्
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम्।
देवदेवस्य ते पार्थ व्याख्यातं शतरुद्रियम् ॥ १४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! यह देवाधिदेव भगवान् शिवके ‘शतरुद्रिय’ स्तोत्रकी व्याख्या की गयी है। यह स्तोत्र वेदोंके समान परम पवित्र तथा धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला है॥१४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वार्थसाधनं पुण्यं सर्वकिल्बिषनाशनम् ।
सर्वपापप्रशमनं सर्वदुःखभयापहम् ॥ १४९ ॥
मूलम्
सर्वार्थसाधनं पुण्यं सर्वकिल्बिषनाशनम् ।
सर्वपापप्रशमनं सर्वदुःखभयापहम् ॥ १४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पाठसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि होती है। यह पवित्र स्तोत्र सम्पूर्ण किल्बिषोंका नाशक, सब पापोंका निवारक तथा सब प्रकारके दुःख और भयको दूर करनेवाला है॥१४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्विधमिदं स्तोत्रं यः शृणोति नरः सदा।
विजित्य शत्रून् सर्वान् स रुद्रलोके महीयते ॥ १५० ॥
मूलम्
चतुर्विधमिदं स्तोत्रं यः शृणोति नरः सदा।
विजित्य शत्रून् सर्वान् स रुद्रलोके महीयते ॥ १५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य भगवान् शंकरके ब्रह्मा, विष्णु महेश और निर्गुण निराकार—इन चतुर्विध स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले इस स्तोत्रको सदा सुनता है, वह सम्पूर्ण शत्रुओंको जीतकर रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥१५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरितं महात्मनो नित्यं सांग्रामिकमिदं स्मृतम्।
पठन् वै शतरुद्रीयं शृण्वंश्च सततोत्थितः ॥ १५१ ॥
भक्तो विश्वेश्वरं देवं मानुषेषु च यः सदा।
वरान् कामान् स लभते प्रसन्ने त्र्यम्बके नरः ॥ १५२ ॥
मूलम्
चरितं महात्मनो नित्यं सांग्रामिकमिदं स्मृतम्।
पठन् वै शतरुद्रीयं शृण्वंश्च सततोत्थितः ॥ १५१ ॥
भक्तो विश्वेश्वरं देवं मानुषेषु च यः सदा।
वरान् कामान् स लभते प्रसन्ने त्र्यम्बके नरः ॥ १५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्मा शिवका यह चरित सदा संग्राममें विजय दिलानेवाला है, जो सदा उद्यत रहकर शतरुद्रियको पढ़ता और सुनता है तथा मनुष्योंमें जो कोई भी निरन्तर भगवान् विश्वेश्वरका भक्तिभावसे भजन करता है, वह उन त्रिलोचनके प्रसन्न होनेपर समस्त उत्तम कामनाओंको प्राप्त कर लेता है॥१५१-१५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ युद्ध्यस्व कौन्तेय न तवास्ति पराजयः।
यस्य मन्त्री च गोप्ता च पार्श्वस्थो हि जनार्दनः॥१५३॥
मूलम्
गच्छ युद्ध्यस्व कौन्तेय न तवास्ति पराजयः।
यस्य मन्त्री च गोप्ता च पार्श्वस्थो हि जनार्दनः॥१५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जाओ, युद्ध करो। तुम्हारी पराजय नहीं हो सकती; क्योंकि तुम्हारे मन्त्री, रक्षक और पार्श्ववर्ती साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण हैं॥१५३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वार्जुनं संख्ये पराशरसुतस्तदा ।
जगाम भरतश्रेष्ठ यथागतमरिंदम ॥ १५४ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वार्जुनं संख्ये पराशरसुतस्तदा ।
जगाम भरतश्रेष्ठ यथागतमरिंदम ॥ १५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— शत्रुओंका दमन करने-वाले भरतश्रेष्ठ! युद्धस्थलमें अर्जुनसे ऐसा कहकर पराशरनन्दन व्यासजी जैसे आये थे, वैसे चले गये॥१५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धं कृत्वा महद् घोरं पञ्चाहानि महाबलः।
ब्राह्मणो निहतो राजन् ब्रह्मलोकमवाप्तवान् ॥ १५५ ॥
मूलम्
युद्धं कृत्वा महद् घोरं पञ्चाहानि महाबलः।
ब्राह्मणो निहतो राजन् ब्रह्मलोकमवाप्तवान् ॥ १५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पाँच दिनोंतक अत्यन्त घोर युद्ध करके महाबली ब्राह्मण द्रोणाचार्य मारे गये और ब्रह्मलोकमें चले गये॥१५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधीते यत् फलं वेदे तदस्मिन्नपि पर्वणि।
क्षत्रियाणामभीरूणां युक्तमत्र महद् यशः ॥ १५६ ॥
मूलम्
स्वधीते यत् फलं वेदे तदस्मिन्नपि पर्वणि।
क्षत्रियाणामभीरूणां युक्तमत्र महद् यशः ॥ १५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंके स्वाध्यायसे जो फल मिलता है, वही इस पर्वके पाठ और श्रवणसे भी प्राप्त होता है। इसमें निर्भय होकर युद्ध करनेवाले वीर क्षत्रियोंके महान् यशका वर्णन है॥१५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं पठते पर्व शृणुयाद् वापि नित्यशः।
स मुच्यते महापापैः कृतैर्घोरैश्च कर्मभिः ॥ १५७ ॥
मूलम्
य इदं पठते पर्व शृणुयाद् वापि नित्यशः।
स मुच्यते महापापैः कृतैर्घोरैश्च कर्मभिः ॥ १५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रतिदिन इस पर्वको पढ़ता अथवा सुनता है, वह पहलेके किये हुए बड़े-बड़े पापों तथा घोर कर्मोंसे मुक्त हो जाता है॥१५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञावाप्तिर्ब्राह्मणस्येह नित्यं
घोरे युद्धे क्षत्रियाणां यशश्च।
शेषौ वर्णौ काममिष्टं लभेते
पुत्रान् पौत्रान् नित्यमिष्टांस्तथैव ॥ १५८ ॥
मूलम्
यज्ञावाप्तिर्ब्राह्मणस्येह नित्यं
घोरे युद्धे क्षत्रियाणां यशश्च।
शेषौ वर्णौ काममिष्टं लभेते
पुत्रान् पौत्रान् नित्यमिष्टांस्तथैव ॥ १५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसको प्रतिदिन पढ़ने और सुननेसे ब्राह्मणको यज्ञका फल प्राप्त होता है, क्षत्रियोंको घोर युद्धमें सुयशकी प्राप्ति होती है, शेष दो वर्णके लोगोंको भी पुत्र, पौत्र आदि अभीष्ट एवं प्रिय वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं॥१५८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि द्व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्षपर्वमें दो सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०२॥
सूचना (हिन्दी)
[द्रोणपर्व सम्पूर्णम्]
श्रवण-महिमा
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधीते यत् फलं वेदे तदस्मिन्नपि पर्वणि।
क्षत्रियाणामभीरूणां युक्तमत्र महद् यशः ॥ १ ॥
य इदं पठते पर्व शृणुयाद् वापि नित्यशः।
स मुच्यते महापापैः कृतैर्घोरैश्च कर्मभिः ॥ २ ॥
यज्ञावाप्तिर्ब्राह्मणस्येह नित्यं
मूलम्
स्वधीते यत् फलं वेदे तदस्मिन्नपि पर्वणि।
क्षत्रियाणामभीरूणां युक्तमत्र महद् यशः ॥ १ ॥
य इदं पठते पर्व शृणुयाद् वापि नित्यशः।
स मुच्यते महापापैः कृतैर्घोरैश्च कर्मभिः ॥ २ ॥
यज्ञावाप्तिर्ब्राह्मणस्येह नित्यं
Misc Detail
घोरे युद्धे क्षत्रियाणां यशश्च।
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेषौ वर्णौ काममिष्टं लभेते
मूलम्
शेषौ वर्णौ काममिष्टं लभेते
Misc Detail
पुत्रान् पौत्रान् नित्यमिष्टांस्तथैव ॥ ३ ॥