१९७ धृष्टद्युम्नवाक्ये

भागसूचना

सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेनके वीरोचित उद्‌गार और धृष्टद्युम्नके द्वारा अपने कृत्यका समर्थन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा नोचुस्तत्र महारथाः।
अप्रियं वा प्रियं वापि महाराज धनंजयम् ॥ १ ॥

मूलम्

अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा नोचुस्तत्र महारथाः।
अप्रियं वा प्रियं वापि महाराज धनंजयम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! अर्जुनकी यह बात सुनकर वहाँ बैठे हुए सब महारथी मौन रह गये। उनसे प्रिय या अप्रिय कुछ नहीं बोले॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो महाबाहुर्भीमसेनोऽभ्यभाषत ।
कुत्सयन्निव कौन्तेयमर्जुनं भरतर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो महाबाहुर्भीमसेनोऽभ्यभाषत ।
कुत्सयन्निव कौन्तेयमर्जुनं भरतर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तब महाबाहु भीमसेनको क्रोध चढ़ आया। उन्होंने कुन्तीकुमार अर्जुनको फटकारते हुए-से कहा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिर्यथारण्यगतो भाषसे धर्मसंहितम् ।
न्यस्तदण्डो यथा पार्थ ब्राह्मणः संशितव्रतः ॥ ३ ॥

मूलम्

मुनिर्यथारण्यगतो भाषसे धर्मसंहितम् ।
न्यस्तदण्डो यथा पार्थ ब्राह्मणः संशितव्रतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! वनवासी मुनि अथवा किसी भी प्राणीको दण्ड न देते हुए कठोर व्रतका पालन करनेवाला ब्राह्मण जिस प्रकार धर्मका उपदेश करता है, उसी प्रकार तुम भी धर्मसम्मत बातें कह रहे हो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षतत्राता क्षताज्जीवन् क्षन्ता स्त्रीष्वपि साधुषु।
क्षत्रियः क्षितिमाप्नोति क्षिप्रं धर्मं यशः श्रियः ॥ ४ ॥

मूलम्

क्षतत्राता क्षताज्जीवन् क्षन्ता स्त्रीष्वपि साधुषु।
क्षत्रियः क्षितिमाप्नोति क्षिप्रं धर्मं यशः श्रियः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु जो क्षति (संकट)-से अपना तथा दूसरोंका त्राण करता है, युद्धमें शत्रुओंको क्षति पहुँचाना ही जिसकी जीविका है तथा जो स्त्रियों और साधु पुरुषोंपर क्षमाभाव रखता है, वही क्षत्रिय है और उसे ही शीघ्र इस पृथ्वीके राज्य, धर्म, यश और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् क्षत्रियगुणैर्युक्तः सर्वैः कुलोद्वहः।
अविपश्चिद् यथा वाचं व्याहरन् नाद्य शोभसे ॥ ५ ॥

मूलम्

स भवान् क्षत्रियगुणैर्युक्तः सर्वैः कुलोद्वहः।
अविपश्चिद् यथा वाचं व्याहरन् नाद्य शोभसे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम समस्त क्षत्रियोचित गुणोंसे सम्पन्न और इस कुलका भार वहन करनेमें समर्थ होते हुए भी आज मूर्खके समान बातें कर रहे हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराक्रमस्ते कौन्तेय शक्रस्येव शचीपतेः।
न चाति वर्तसे धर्मं वेलामिव महोदधिः ॥ ६ ॥

मूलम्

पराक्रमस्ते कौन्तेय शक्रस्येव शचीपतेः।
न चाति वर्तसे धर्मं वेलामिव महोदधिः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! तुम्हारा पराक्रम शचीपति इन्द्रके समान है। महासागर जैसे अपनी तट-भूमिका उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार तुम भी कभी धर्म-मर्यादाका उल्लंघन नहीं करते हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पूजयेत् त्वां को न्वद्य यत् त्रयोदशवार्षिकम्।
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा धर्ममेवाभिकाङ्‌क्षसे ॥ ७ ॥

मूलम्

न पूजयेत् त्वां को न्वद्य यत् त्रयोदशवार्षिकम्।
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा धर्ममेवाभिकाङ्‌क्षसे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज तेरह वर्षोंसे संचित किये हुए अमर्षको पीछे करके जो तुम धर्मकी ही अभिलाषा रखते हो, इसके लिये कौन तुम्हारी पूजा नहीं करेगा?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्‌या तात मनस्तेऽद्य स्वधर्ममनुवर्तते।
आनृशंस्ये च ते दिष्ट्‌या बुद्धिः सततमच्युत ॥ ८ ॥

मूलम्

दिष्ट्‌या तात मनस्तेऽद्य स्वधर्ममनुवर्तते।
आनृशंस्ये च ते दिष्ट्‌या बुद्धिः सततमच्युत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! सौभाग्यकी बात है कि इस समय भी तुम्हारा मन अपने धर्मका ही अनुसरण करता है। धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले मेरे भाई! तुम्हारी बुद्धि क्रूरताकी ओर न जाकर जो सदा दयाभावमें ही रम रही है, यह भी कम सौभाग्यकी बात नहीं है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु धर्मप्रवृत्तस्य हृतं राज्यमधर्मतः।
द्रौपदी च परामृष्टा सभामानीय शत्रुभिः ॥ ९ ॥
वनं प्रव्राजिताश्चास्म वल्कलाजिनवाससः ।
अनर्हमाणास्तं भावं त्रयोदश समाः परैः ॥ १० ॥

मूलम्

यत् तु धर्मप्रवृत्तस्य हृतं राज्यमधर्मतः।
द्रौपदी च परामृष्टा सभामानीय शत्रुभिः ॥ ९ ॥
वनं प्रव्राजिताश्चास्म वल्कलाजिनवाससः ।
अनर्हमाणास्तं भावं त्रयोदश समाः परैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु धर्ममें तत्पर रहनेपर भी जो शत्रुओंने अधर्मसे हमारा राज्य छीन लिया, द्रौपदीको सभामें लाकर अपमानित किया तथा हमें वल्कल और मृगचर्म पहनाकर तेरह वर्षोंके लिये जो वनमें निर्वासित कर दिया, हम वैसे बर्तावके योग्य कदापि नहीं थे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान्यमर्षस्थानानि मर्षितानि मयानघ ।
क्षत्रधर्मप्रसक्तेन सर्वमेतदनुष्ठितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

एतान्यमर्षस्थानानि मर्षितानि मयानघ ।
क्षत्रधर्मप्रसक्तेन सर्वमेतदनुष्ठितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनघ! ये सारे अन्याय अमर्षके स्थान थे—असह्य थे, परंतु मैंने सब चुपचाप सह लिये। क्षत्रिय-धर्ममें आसक्त होनेके कारण ही यह सब कुछ सहन किया गया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमधर्ममपाकृष्टं स्मृत्वाद्य सहितस्त्वया ।
सानुबन्धान् हनिष्यामि क्षुद्रान् राज्यहरानहम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तमधर्ममपाकृष्टं स्मृत्वाद्य सहितस्त्वया ।
सानुबन्धान् हनिष्यामि क्षुद्रान् राज्यहरानहम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु अब उनके उन नीचतापूर्ण पापकर्मोंको याद करके मैं तुम्हारे साथ रहकर अपने राज्यका अपहरण करनेवाले इन नीच शत्रुओंको उनके सगे-सम्बन्धियोंसहित मार डालूँगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया हि कथितं पूर्वं युद्धायाभ्यागता वयम्।
घटामहे यथाशक्ति त्वं तु नोऽद्य जुगुप्ससे ॥ १३ ॥

मूलम्

त्वया हि कथितं पूर्वं युद्धायाभ्यागता वयम्।
घटामहे यथाशक्ति त्वं तु नोऽद्य जुगुप्ससे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने ही पहले युद्धके लिये कहा था और उसीके अनुसार हम यहाँ आकर यथाशक्ति उसके लिये प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु आज तुम्हीं हमारी निन्दा करते हो!॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मं नेच्छसे ज्ञातुं मिथ्यावचनमेव ते।
भयार्दितानामस्माकं वाचा मर्माणि कृन्तसि ॥ १४ ॥

मूलम्

स्वधर्मं नेच्छसे ज्ञातुं मिथ्यावचनमेव ते।
भयार्दितानामस्माकं वाचा मर्माणि कृन्तसि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम अपने क्षत्रिय-धर्मको नहीं जानना चाहते। तुम्हारी ये सारी बातें मिथ्या ही हैं। एक तो हम स्वयं ही भयसे पीड़ित हो रहे हैं, ऊपरसे तुम भी अपने वाग्बाणोंद्वारा हमारे मर्मस्थानोंको छेदे डालते हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वपन् व्रणे क्षारमिव क्षतानां शत्रुकर्शन।
विदीर्यते मे हृदयं त्वया वाक्‌शल्यपीडितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

वपन् व्रणे क्षारमिव क्षतानां शत्रुकर्शन।
विदीर्यते मे हृदयं त्वया वाक्‌शल्यपीडितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन! जैसे कोई घायल मनुष्योंके घावपर नमक बिखेर दे (और वे वेदनासे छटपटाने लगें), उसी प्रकार तुम अपने वाग्बाणोंसे पीड़ित करके मेरे हृदयको विदीर्ण किये डालते हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्ममेनं विपुलं धार्मिकः सन् न बुद्‌ध्यसे।
यत् त्वमात्मानमस्मांश्च प्रशस्यान् न प्रशंससि ॥ १६ ॥

मूलम्

अधर्ममेनं विपुलं धार्मिकः सन् न बुद्‌ध्यसे।
यत् त्वमात्मानमस्मांश्च प्रशस्यान् न प्रशंससि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यद्यपि तुम और हम प्रशंसाके पात्र हैं, तो भी तुम जो अपनी और हमारी प्रशंसा नहीं करते हो, यह बहुत बड़ा अधर्म है और तुम धार्मिक होते हुए इस अधर्मको नहीं समझ रहे हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवे स्थिते चापि द्रोणपुत्रं प्रशंससि।
यः कलां षोडशीं पूर्णां धनंजय न तेऽर्हति ॥ १७ ॥

मूलम्

वासुदेवे स्थिते चापि द्रोणपुत्रं प्रशंससि।
यः कलां षोडशीं पूर्णां धनंजय न तेऽर्हति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनंजय! भगवान् श्रीकृष्णके रहते हुए भी तुम द्रोणपुत्रकी प्रशंसा करते हो, जो तुम्हारी पूरी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयमेवात्मनो दोषान् ब्रुवाणः किन्न लज्जसे।
दारयेयं महीं क्रोधाद् विकिरेयं च पर्वतान् ॥ १८ ॥
आविध्यैतां गदां गुर्वीं भीमां काञ्चानमालिनीम्।
गिरिप्रकाशान् क्षितिजान् भञ्जेयमनिलो यथा ॥ १९ ॥

मूलम्

स्वयमेवात्मनो दोषान् ब्रुवाणः किन्न लज्जसे।
दारयेयं महीं क्रोधाद् विकिरेयं च पर्वतान् ॥ १८ ॥
आविध्यैतां गदां गुर्वीं भीमां काञ्चानमालिनीम्।
गिरिप्रकाशान् क्षितिजान् भञ्जेयमनिलो यथा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्वयं ही अपने दोषोंका वर्णन करते हुए तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती है? आज मैं अपनी इस सुवर्णभूषित भयंकर एवं भारी गदाको क्रोधपूर्वक घुमाकर इस पृथ्वीको विदीर्ण कर सकता हूँ, पर्वतोंको चूर-चूर करके बिखेर सकता हूँ तथा प्रचण्ड आँधीकी तरह पर्वतपर प्रकाशित होनेवाले ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंको भी तोड़ और उखाड़ सकता हूँ॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रावयेयं शरैश्चापि सेन्द्रान् देवान् समागतान्।
सराक्षसगणान् पार्थ सासुरोरगमानवान् ॥ २० ॥

मूलम्

द्रावयेयं शरैश्चापि सेन्द्रान् देवान् समागतान्।
सराक्षसगणान् पार्थ सासुरोरगमानवान् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! असुर, नाग, मानव तथा राक्षसगणोंसहित सम्पूर्ण देवता और इन्द्र भी आ जायँ तो मैं उन्हें बाणोंद्वारा मारकर भगा सकता हूँ॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वमेवंविधं जानन् भ्रातरं मां नरर्षभ।
द्रोणपुत्राद् भयं कर्तुं नार्हस्यमितविक्रम ॥ २१ ॥

मूलम्

स त्वमेवंविधं जानन् भ्रातरं मां नरर्षभ।
द्रोणपुत्राद् भयं कर्तुं नार्हस्यमितविक्रम ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अमित पराक्रमी नरश्रेष्ठ अर्जुन! मुझ अपने भ्राताको ऐसा जानकर तुम्हें द्रोणपुत्रसे भय नहीं करना चाहिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा तिष्ठ बीभत्सो सह सर्वैः सहोदरैः।
अहमेनं गदापाणिर्जेष्याम्येको महाहवे ॥ २२ ॥

मूलम्

अथवा तिष्ठ बीभत्सो सह सर्वैः सहोदरैः।
अहमेनं गदापाणिर्जेष्याम्येको महाहवे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा अर्जुन! तुम अपने समस्त भाइयोंके साथ यहीं खड़े रहो। मैं हाथमें गदा लेकर इस महासमरमें अकेला ही अश्वत्थामाको परास्त करूँगा’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पाञ्चालराजस्य पुत्रः पार्थमथाब्रवीत्।
संक्रुद्धमिव नर्दन्तं हिरण्यकशिपुर्हरिम् ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः पाञ्चालराजस्य पुत्रः पार्थमथाब्रवीत्।
संक्रुद्धमिव नर्दन्तं हिरण्यकशिपुर्हरिम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जैसे पूर्वकालमें अत्यन्त क्रुद्ध होकर दहाड़ते हुए नृसिंहावतारधारी भगवान् विष्णुसे दैत्यराज हिरण्यकशिपुने बातें की थी, उसी प्रकार वहाँ अर्जुनसे पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्नने इस प्रकार कहा॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

धृष्टद्युम्न उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीभत्सो विप्रकर्माणि विदितानि मनीषिणाम्।
याजनाध्यापने दानं तथा यज्ञप्रतिग्रहौ ॥ २४ ॥
षष्ठमध्ययनं नाम तेषां कस्मिन् प्रतिष्ठितः।
हतो द्रोणो मया ह्येवं किं मां पार्थ विगर्हसे॥२५॥
अपक्रान्तः स्वधर्माच्च क्षात्रधर्मं व्यपाश्रितः।
अमानुषेण हन्त्यस्मानस्त्रेण क्षुद्रकर्मकृत् ॥ २६ ॥

मूलम्

बीभत्सो विप्रकर्माणि विदितानि मनीषिणाम्।
याजनाध्यापने दानं तथा यज्ञप्रतिग्रहौ ॥ २४ ॥
षष्ठमध्ययनं नाम तेषां कस्मिन् प्रतिष्ठितः।
हतो द्रोणो मया ह्येवं किं मां पार्थ विगर्हसे॥२५॥
अपक्रान्तः स्वधर्माच्च क्षात्रधर्मं व्यपाश्रितः।
अमानुषेण हन्त्यस्मानस्त्रेण क्षुद्रकर्मकृत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृष्टद्युम्न बोला— ‘अर्जुन! यज्ञ करना और कराना, वेदोंको पढ़ना और पढ़ाना तथा दान देना और प्रतिग्रह स्वीकार करना—ये छः कर्म ही ब्राह्मणोंके लिये मनीषी पुरुषोंमें प्रसिद्ध हैं। इनमेंसे किस कर्ममें द्रोणाचार्य प्रतिष्ठित थे। अपने धर्मसे भ्रष्ट होकर उन्होंने क्षत्रिय-धर्मका आश्रय ले रखा था। पार्थ! ऐसी अवस्थामें यदि मैंने द्रोणाचार्यका वध किया तो तुम इसके लिये मेरी निन्दा क्यों करते हो। वह नीच कर्म करनेवाला ब्राह्मण दिव्यास्त्रोंद्वारा हमलोगोंका संहार करता था॥२४—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा मायां प्रयुञ्चानमसह्यं ब्राह्मणब्रुवम्।
माययैव विहन्याद् यो न युक्तं पार्थ तत्र किम्॥२७॥

मूलम्

तथा मायां प्रयुञ्चानमसह्यं ब्राह्मणब्रुवम्।
माययैव विहन्याद् यो न युक्तं पार्थ तत्र किम्॥२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! जो ब्राह्मण कहलाकर भी दूसरोंके लिये मायाका प्रयोग करता हो और असह्य हो उठा हो, उसे यदि कोई मायासे ही मार डाले तो इसमें अनुचित क्या है?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तथा मया शस्ते यदि द्रौणायनी रुषा।
कुरुते भैरवं नादं तत्र किं मम हीयते ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्मिंस्तथा मया शस्ते यदि द्रौणायनी रुषा।
कुरुते भैरवं नादं तत्र किं मम हीयते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे द्वारा द्रोणाचार्यके इस अवस्थामें मारे जानेपर यदि द्रोणपुत्र क्रोधपूर्वक भयानक गर्जना करता हो तो उसमें मेरी क्या हानि है?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाद्भुतमिदं मन्ये यद् द्रौणिर्युद्धसंज्ञया।
घातयिष्यति कौरव्यान् परित्रातुमशक्नुवन् ॥ २९ ॥

मूलम्

न चाद्भुतमिदं मन्ये यद् द्रौणिर्युद्धसंज्ञया।
घातयिष्यति कौरव्यान् परित्रातुमशक्नुवन् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इसे कोई अद्भुत बात नहीं मान रहा हूँ; अश्वत्थामा इस युद्धके द्वारा कौरवोंको मरवा डालेगा; क्योंकि वह स्वयं उनकी रक्षा करनेमें असमर्थ है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च मां धार्मिको भूत्वा ब्रवीषि गुरुघातिनम्।
तदर्थमहमुत्पन्नः पाञ्चाल्यस्य सुतोऽनलात् ॥ ३० ॥

मूलम्

यच्च मां धार्मिको भूत्वा ब्रवीषि गुरुघातिनम्।
तदर्थमहमुत्पन्नः पाञ्चाल्यस्य सुतोऽनलात् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा तुम धार्मिक होकर जो मुझे गुरुकी हत्या करनेवाला बता रहे हो, वह भी ठीक नहीं है; क्योंकि मैं इसीलिये अग्निकुण्डसे पांचालराजका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ था॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य कार्यमकार्यं वा युध्यतः स्यात् समं रणे।
तं कथं ब्राह्मणं ब्रूयाः क्षत्रियं वा धनंजय ॥ ३१ ॥

मूलम्

यस्य कार्यमकार्यं वा युध्यतः स्यात् समं रणे।
तं कथं ब्राह्मणं ब्रूयाः क्षत्रियं वा धनंजय ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! रणभूमिमें युद्ध करते समय जिसके लिये कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों समान हों, उसे तुम ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय कैसे कह सकते हो?॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ह्यनस्त्रविदो हन्याद् ब्रह्मास्त्रैः क्रोधमूर्च्छितः।
सर्वोपायैर्न स कथं वध्यः पुरुषसत्तम ॥ ३२ ॥

मूलम्

यो ह्यनस्त्रविदो हन्याद् ब्रह्मास्त्रैः क्रोधमूर्च्छितः।
सर्वोपायैर्न स कथं वध्यः पुरुषसत्तम ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! जो क्रोधसे व्याकुल होकर ब्रह्मास्त्र न जाननेवालोंको भी ब्रह्मास्त्रसे ही मार डाले, उसका सभी उपायोंसे वध करना कैसे उचित नहीं है?॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधर्मिणं धर्मविद्भिः प्रोक्तं तेषां विषोपमम्।
जानन् धर्मार्थतत्त्वज्ञ किं मामर्जुन गर्हसे ॥ ३३ ॥

मूलम्

विधर्मिणं धर्मविद्भिः प्रोक्तं तेषां विषोपमम्।
जानन् धर्मार्थतत्त्वज्ञ किं मामर्जुन गर्हसे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म और अर्थका तत्त्व जाननेवाले अर्जुन! जो अपना धर्म छोड़कर परधर्म ग्रहण कर लेता है, उस विधर्मीको धर्मज्ञ पुरुषोंने धर्मात्माओंके लिये विषके तुल्य बताया है। यह सब जानते हुए भी तुम मेरी निन्दा क्यों करते हो?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसः स मयाऽऽक्रम्य रथ एव निपातितः।
तन्मामनिन्द्यं बीभत्सो किमर्थं नाभिनन्दसे ॥ ३४ ॥

मूलम्

नृशंसः स मयाऽऽक्रम्य रथ एव निपातितः।
तन्मामनिन्द्यं बीभत्सो किमर्थं नाभिनन्दसे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बीभत्सो! द्रोणाचार्य क्रूर एवं नृशंस थे, इसलिये मैंने रथपर ही आक्रमण करके उनको मार गिराया। अतः मैं निन्दाका पात्र नहीं हूँ। फिर तुम किसलिये मेरा अभिनन्दन नहीं करते हो?॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालानलसमं पार्थ ज्वलनार्कविषोपमम् ।
भीमं द्रोणशिरश्छिन्नं न प्रशंससि मे कथम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

कालानलसमं पार्थ ज्वलनार्कविषोपमम् ।
भीमं द्रोणशिरश्छिन्नं न प्रशंससि मे कथम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! द्रोणका मस्तक प्रलयकालकी अग्निके समान अत्यन्त भयंकर तथा लौकिक अग्नि, सूर्य एवं विषके तुल्य संताप देनेवाला था, अतः मैंने उसका छेदन किया है। इसके लिये तुम मेरी प्रशंसा क्यों नहीं करते?॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसौ ममैव नान्यस्य बान्धवान्‌ युधि जघ्निवान्।
छित्त्वापि तस्य मूर्धानं नैवास्मि विगतज्वरः ॥ ३६ ॥

मूलम्

योऽसौ ममैव नान्यस्य बान्धवान्‌ युधि जघ्निवान्।
छित्त्वापि तस्य मूर्धानं नैवास्मि विगतज्वरः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने युद्धके मैदानमें दूसरे किसीके नहीं, मेरे ही बन्धु-बान्धवोंका वध किया था, उसका मस्तक काट लेनेपर भी मेरा क्रोध और संताप शान्त नहीं हुआ॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्च मे कृन्तते मर्म यन्न तस्य शिरो मया।
निषादविषये क्षिप्तं जयद्रथशिरो यथा ॥ ३७ ॥

मूलम्

तच्च मे कृन्तते मर्म यन्न तस्य शिरो मया।
निषादविषये क्षिप्तं जयद्रथशिरो यथा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तुमने जयद्रथके मस्तकको दूर फेंका था, उसी प्रकार मैंने द्रोणाचार्यके मस्तकको जो निषादोंके स्थानमें नहीं फेंक दिया, वह भूल मेरे मर्मस्थानोंका छेदन कर रही है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथावधश्च शत्रूणामधर्मः श्रूयतेऽर्जुन ।
क्षत्रियस्य हि धर्मोऽयं हन्याद्धन्येत वा पुनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

अथावधश्च शत्रूणामधर्मः श्रूयतेऽर्जुन ।
क्षत्रियस्य हि धर्मोऽयं हन्याद्धन्येत वा पुनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! सुननेमें आया है कि शत्रुओंका वध न करना भी अधर्म ही है। क्षत्रियके लिये तो यह धर्म ही है कि वह युद्धमें शत्रुको मार डाले या फिर स्वयं उसके हाथसे मारा जाय॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शत्रुर्निहतः संख्ये मया धर्मेण पाण्डव।
यथा त्वया हतः शूरो भगदत्तः पितुः सखा ॥ ३९ ॥

मूलम्

स शत्रुर्निहतः संख्ये मया धर्मेण पाण्डव।
यथा त्वया हतः शूरो भगदत्तः पितुः सखा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! द्रोणाचार्य मेरे शत्रु थे, अतः मैंने युद्धमें धर्मके अनुसार ही उनका वध किया है। ठीक उसी तरह, जैसे तुमने अपने पिताके प्रिय मित्र शूरवीर भगदत्तका वध किया था॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहं रणे हत्वा मन्यसे धर्ममात्मनः।
मया शत्रौ हते कस्मात् पापे धर्मं न मन्यसे॥४०॥

मूलम्

पितामहं रणे हत्वा मन्यसे धर्ममात्मनः।
मया शत्रौ हते कस्मात् पापे धर्मं न मन्यसे॥४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम युद्धमें पितामहको मारकर भी अपने लिये तो धर्म ही मानते हो, किंतु मेरे द्वारा एक पापी शत्रुके मारे जानेपर भी इस कार्यको धर्म नहीं समझते; इसका क्या कारण है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्बन्धावनतं पार्थ न मां त्वं वक्तुमर्हसि।
स्वगात्रकृतसोपानं निषण्णमिव दन्तिनम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

सम्बन्धावनतं पार्थ न मां त्वं वक्तुमर्हसि।
स्वगात्रकृतसोपानं निषण्णमिव दन्तिनम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! जैसे हाथी सम्बन्ध स्थापित कर लेनेपर लोगोंको अपने ऊपर चढ़ानेके लिये अपने ही शरीरकी सीढ़ी बनाकर बैठ जाता है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे साथ सम्बन्ध होनेके कारण नतमस्तक होता हूँ; अतः तुम्हें मेरे प्रति ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिये॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षमामि ते सर्वमेव वाग्व्यतिक्रममर्जुन।
द्रौपद्या द्रौपदेयानां कृते नान्येन हेतुना ॥ ४२ ॥

मूलम्

क्षमामि ते सर्वमेव वाग्व्यतिक्रममर्जुन।
द्रौपद्या द्रौपदेयानां कृते नान्येन हेतुना ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! मैं अपनी बहिन द्रौपदी और उसके पुत्रोंके नाते ही तुम्हारी इन सारी उलटी या कड़वी बातोंको सहे लेता हूँ, दूसरे किसी कारणसे नहीं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलक्रमागतं वैरं ममाचार्येण विश्रुतम्।
तथा जानात्ययं लोको न यूयं पाण्डुनन्दनाः ॥ ४३ ॥

मूलम्

कुलक्रमागतं वैरं ममाचार्येण विश्रुतम्।
तथा जानात्ययं लोको न यूयं पाण्डुनन्दनाः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके साथ मेरा वंशपरम्परागत वैर चला आ रहा है, जो बहुत प्रसिद्ध है। उसे यह सारा संसार जानता है; क्या तुम पाण्डवोंको इसका पता नहीं है?॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानृती पाण्डवो ज्येष्ठो नाहं वाधार्मिकोऽर्जुन।
शिष्यद्रोही हतः पापो युध्यस्व विजयस्तव ॥ ४४ ॥

मूलम्

नानृती पाण्डवो ज्येष्ठो नाहं वाधार्मिकोऽर्जुन।
शिष्यद्रोही हतः पापो युध्यस्व विजयस्तव ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! तुम्हारे बड़े भाई पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर असत्यवादी नहीं हैं और न मैं ही अधर्मी हूँ। द्रोणाचार्य पापी और शिष्यद्रोही थे, इसलिये मारे गये। अब तुम युद्ध करो; विजय तुम्हारे हाथमें है॥४४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि धृष्टद्युम्नवाक्ये सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्षपर्वमें धृष्टद्युम्नवाक्यविषयक एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९७॥