१९४ धृतराष्ट्रप्रश्ने

भागसूचना

चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रका प्रश्न

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मेण हतं श्रुत्वा धृष्टद्युम्नेन संजय।
ब्राह्मणं पितरं वृद्धमश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

अधर्मेण हतं श्रुत्वा धृष्टद्युम्नेन संजय।
ब्राह्मणं पितरं वृद्धमश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! अपने बूढ़े पिता ब्राह्मण द्रोणाचार्यके धृष्टद्युम्नद्वारा अधर्मपूर्वक मारे जानेका समाचार सुनकर अश्वत्थामाने क्या कहा?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानवं वारुणाग्नेयं ब्राह्ममस्त्रं च वीर्यवान्।
ऐन्द्रं नारायणं चैव यस्मिन् नित्यं प्रतिष्ठितम् ॥ २ ॥
तमधर्मेण धर्मिष्ठं धृष्टद्युम्नेन संयुगे।
श्रुत्वा निहतमाचार्यं सोऽश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

मानवं वारुणाग्नेयं ब्राह्ममस्त्रं च वीर्यवान्।
ऐन्द्रं नारायणं चैव यस्मिन् नित्यं प्रतिष्ठितम् ॥ २ ॥
तमधर्मेण धर्मिष्ठं धृष्टद्युम्नेन संयुगे।
श्रुत्वा निहतमाचार्यं सोऽश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनमें मानव, वारुण, आग्नेय, ब्राह्म, ऐन्द्र और नारायण नामक अस्त्र सदा प्रतिष्ठित थे, उन धर्मात्मा आचार्यको धृष्टद्युम्नद्वारा अधर्मपूर्वक युद्धमें मारा गया सुनकर पराक्रमी अश्वत्थामाने क्या कहा?॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन रामादवाप्येह धनुर्वेदं महात्मना।
प्रोक्तान्यस्त्राणि दिव्यानि पुत्राय गुणकाङ्‌क्षिणा ॥ ४ ॥

मूलम्

येन रामादवाप्येह धनुर्वेदं महात्मना।
प्रोक्तान्यस्त्राणि दिव्यानि पुत्राय गुणकाङ्‌क्षिणा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुणोंकी अभिलाषा रखनेवाले उन महात्मा द्रोणने इस लोकमें परशुरामजीसे धनुर्वेदकी शिक्षा पाकर वे समस्त दिव्यास्त्र अपने पुत्रको भी सिखाये थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकमेव हि लोकेऽस्मिन्नात्मनो गुणवत्तरम्।
इच्छन्ति पुरुषाः पुत्रं लोके नान्यं कथंचन ॥ ५ ॥

मूलम्

एकमेव हि लोकेऽस्मिन्नात्मनो गुणवत्तरम्।
इच्छन्ति पुरुषाः पुत्रं लोके नान्यं कथंचन ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य इस जगत्‌में केवल पुत्रको ही अपनेसे भी अधिक गुणवान् बनाना चाहते हैं, दूसरेको किसी प्रकार भी नहीं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्याणां भवन्त्येव रहस्यानि महात्मनाम्।
तानि पुत्राय वा दद्युः शिष्यायानुगताय वा ॥ ६ ॥

मूलम्

आचार्याणां भवन्त्येव रहस्यानि महात्मनाम्।
तानि पुत्राय वा दद्युः शिष्यायानुगताय वा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा आचार्योंके पास बहुत-सी रहस्यकी बातें होती हैं, जिन्हें या तो वे अपने पुत्रको दे सकते हैं या अनुगत शिष्यको॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शिष्यः प्राप्य तत् सर्वं सविशेषं च संजय।
शूरः शारद्वतीपुत्रः संख्ये द्रोणादनन्तरः ॥ ७ ॥

मूलम्

स शिष्यः प्राप्य तत् सर्वं सविशेषं च संजय।
शूरः शारद्वतीपुत्रः संख्ये द्रोणादनन्तरः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! कृपीका शूरवीर पुत्र अश्वत्थामा शिष्यभावसे विशेष रहस्यसहित सारा धनुर्वेद अपने पिता द्रोणाचार्यसे प्राप्त करके युद्धस्थलमें उनके बाद वही उस योग्यताका रह गया है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्य तु समः शस्त्रे पुरंदरसमो युधि।
कार्तवीर्यसमो वीर्ये बृहस्पतिसमो मतौ ॥ ८ ॥
महीधरसमः स्थैर्ये तेजसाग्निसमो युवा।
समुद्र इव गाम्भीर्ये क्रोधे चाशीविषोपमः ॥ ९ ॥
स रथी प्रथमो लोके दृढधन्वा जितक्लमः।
शीघ्रोऽनिल इवाक्रन्दे चरन् क्रुद्ध इवान्तकः ॥ १० ॥

मूलम्

रामस्य तु समः शस्त्रे पुरंदरसमो युधि।
कार्तवीर्यसमो वीर्ये बृहस्पतिसमो मतौ ॥ ८ ॥
महीधरसमः स्थैर्ये तेजसाग्निसमो युवा।
समुद्र इव गाम्भीर्ये क्रोधे चाशीविषोपमः ॥ ९ ॥
स रथी प्रथमो लोके दृढधन्वा जितक्लमः।
शीघ्रोऽनिल इवाक्रन्दे चरन् क्रुद्ध इवान्तकः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शस्त्रविद्यामें परशुरामके समान, युद्धकलामें इन्द्रके समान, बल-पराक्रममें कृतवीर्यपुत्र अर्जुनके समान, बुद्धिमें बृहस्पतिके सदृश, स्थिरता एवं धैर्यमें पर्वतके तुल्य, तेजमें अग्निके समान, गम्भीरतामें समुद्रके सदृश और क्रोधमें विषधर सर्पके समान नवयुवक अश्वत्थामा संसारका प्रधान रथी और सुदृढ़ धनुर्धर है। उसने श्रम और थकावटको जीत लिया है। वह संग्राममें वायुके समान वेगपूर्वक विचरनेवाला तथा क्रोधमें भरे हुए यमराजके समान भयंकर है॥८—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यता येन संग्रामे धरण्यभिनिपीडिता।
यो न व्यथति संग्रामे वीरः सत्यपराक्रमः ॥ ११ ॥
वेदस्नातो व्रतस्नातो धनुर्वेदे च पारगः।
महोदधिरिवाक्षोभ्यो रामो दाशरथिर्यथा ॥ १२ ॥

मूलम्

अस्यता येन संग्रामे धरण्यभिनिपीडिता।
यो न व्यथति संग्रामे वीरः सत्यपराक्रमः ॥ ११ ॥
वेदस्नातो व्रतस्नातो धनुर्वेदे च पारगः।
महोदधिरिवाक्षोभ्यो रामो दाशरथिर्यथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामा जब रणभूमिमें बाणोंकी वर्षा करने लगता है, तब धरती भी अत्यन्त पीडित हो उठती है। वह सत्यपराक्रमी वीर संग्राममें कभी व्यथित नहीं होता है। वह वेदाध्ययन समाप्त करके स्नातक बन चुका है। ब्रह्मचर्यव्रतकी अवधि पूरी करके उसका भी स्नातक हो चुका है और धनुर्वेदका भी पारंगत विद्वान् है। महासागर तथा दशरथपुत्र श्रीरामके समान उसे कोई क्षुब्ध नहीं कर सकता॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमधर्मेण धर्मिष्ठं धृष्टद्युम्नेन संयुगे।
श्रुत्वा निहतमाचार्यमश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ १३ ॥

मूलम्

तमधर्मेण धर्मिष्ठं धृष्टद्युम्नेन संयुगे।
श्रुत्वा निहतमाचार्यमश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी अश्वत्थामाने अपने धर्मिष्ठ पिता आचार्य द्रोणको युद्धमें धृष्टद्युम्नके हाथसे अधर्मपूर्वक मारा गया सुनकर क्या कहा?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नस्य यो मृत्युः सृष्टस्तेन महात्मना।
यथा द्रोणस्य पाञ्चाल्यो यज्ञसेनसुतोऽभवत् ॥ १४ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नस्य यो मृत्युः सृष्टस्तेन महात्मना।
यथा द्रोणस्य पाञ्चाल्यो यज्ञसेनसुतोऽभवत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(हमने सुन रखा है कि) जैसे द्रोणाचार्यका वध करनेके लिये पांचालदेशीय द्रुपदकुमारका जन्म हुआ था, उसी प्रकार महात्मा द्रोणने धृष्टद्युम्नकी मृत्युके लिये अश्वत्थामाको जन्म दिया था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं नृशंसेन पापेन क्रूरेणादीर्घदर्शिना।
श्रुत्वा निहतमाचार्यमश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ १५ ॥

मूलम्

तं नृशंसेन पापेन क्रूरेणादीर्घदर्शिना।
श्रुत्वा निहतमाचार्यमश्वत्थामा किमब्रवीत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नृशंस, पापी, क्रूर और अदूरदर्शी धृष्टद्युम्नके हाथसे आचार्यका वध हुआ सुनकर अश्वत्थामाने क्या कहा?॥१५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि धृतराष्ट्रप्रश्ने चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्षपर्वमें धृतराष्ट्रप्रश्नविषयक एक सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९४॥