भागसूचना
(नारायणास्त्रमोक्षपर्व)
त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कौरव-सैनिकों तथा सेनापतियोंका भागना, अश्वत्थामाके पूछनेपर कृपाचार्यका उसे द्रोणवधका वृत्तान्त सुनाना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रोणे हते राजन् कुरवः शस्त्रपीडिताः।
हतप्रवीरा विध्यस्ता भृशं शोकपरायणाः ॥ १ ॥
मूलम्
ततो द्रोणे हते राजन् कुरवः शस्त्रपीडिताः।
हतप्रवीरा विध्यस्ता भृशं शोकपरायणाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! द्रोणाचार्यके मारे जानेपर शस्त्रोंके आघातसे पीड़ित हुए कौरव अपने प्रमुख वीरोंके मारे जानेसे भारी विध्वंसको प्राप्त हो अत्यन्त शोकमग्न हो गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदीर्णांश्च परान् दृष्ट्वा कम्पमानाः पुनः पुनः।
अश्रुपूर्णेक्षणास्त्रस्ता दीनास्त्वासन् विशाम्पते ॥ २ ॥
मूलम्
उदीर्णांश्च परान् दृष्ट्वा कम्पमानाः पुनः पुनः।
अश्रुपूर्णेक्षणास्त्रस्ता दीनास्त्वासन् विशाम्पते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! शत्रुओंको उत्कर्ष प्राप्त करते देख वे दीन और भयभीत हो बारंबार काँपने और नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचेतसो हतोत्साहाः कश्मलाभिहतौजसः ।
आर्तस्वरेण महता पुत्रं ते पर्यवारयन् ॥ ३ ॥
मूलम्
विचेतसो हतोत्साहाः कश्मलाभिहतौजसः ।
आर्तस्वरेण महता पुत्रं ते पर्यवारयन् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी थी। मोहवश उनका तेज और बल नष्ट हो चला था। वे हतोत्साह होकर अत्यन्त आर्तस्वरसे विलाप करते हुए आपके पुत्रको घेरकर खड़े हो गये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजस्वला वेपमाना वीक्षमाणा दिशो दश।
अश्रुकण्ठा यथा दैत्या हिरण्याक्षे पुरा हते ॥ ४ ॥
मूलम्
रजस्वला वेपमाना वीक्षमाणा दिशो दश।
अश्रुकण्ठा यथा दैत्या हिरण्याक्षे पुरा हते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें हिरण्याक्षके मारे जानेपर दैत्योंकी जैसी अवस्था हुई थी, वैसी ही उनकी भी हो गयी। वे धूल-धूसर शरीरसे काँपते हुए दसों दिशाओंकी ओर देख रहे थे। आँसुओंसे उनका गला भर आया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः परिवृतो राजा त्रस्तैः क्षुद्रमृगैरिव।
अशक्नुवन्नवस्थातुमपायात् तनयस्तव ॥ ५ ॥
मूलम्
स तैः परिवृतो राजा त्रस्तैः क्षुद्रमृगैरिव।
अशक्नुवन्नवस्थातुमपायात् तनयस्तव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
डरे हुए क्षुद्र मृगोंके समान उन सैनिकोंसे घिरा हुआ आपका पुत्र राजा दुर्योधन वहाँ खड़ा न रह सका। वह भागकर अन्यत्र चला गया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुत्पिपासापरिम्लानास्ते योधास्तव भारत ।
आदित्येनेव संतप्ता भृशं विमनसोऽभवन् ॥ ६ ॥
मूलम्
क्षुत्पिपासापरिम्लानास्ते योधास्तव भारत ।
आदित्येनेव संतप्ता भृशं विमनसोऽभवन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! आपके सभी सैनिक भूख-प्याससे व्याकुल एवं मलिन हो रहे थे, मानो सूर्यने उन्हें अपनी प्रचण्ड किरणोंसे झुलस दिया हो। वे अत्यन्त उदास हो गये थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भास्करस्येव पतनं समुद्रस्येव शोषणम्।
विपर्यासं यथा मेरोर्वासवस्येव निर्जयम् ॥ ७ ॥
अमर्षणीयं तद् दृष्ट्वा भारद्वाजस्य पातनम्।
त्रस्तरूपतरा राजन् कौरवाः प्राद्रवन् भयात् ॥ ८ ॥
मूलम्
भास्करस्येव पतनं समुद्रस्येव शोषणम्।
विपर्यासं यथा मेरोर्वासवस्येव निर्जयम् ॥ ७ ॥
अमर्षणीयं तद् दृष्ट्वा भारद्वाजस्य पातनम्।
त्रस्तरूपतरा राजन् कौरवाः प्राद्रवन् भयात् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे सूर्यका पृथ्वीपर गिर पड़ना, समुद्रका सूख जाना, मेरुपर्वतका उलटी दिशामें चला जाना और इन्द्रका पराजित हो जाना असम्भव है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यका मारा जाना भी असम्भव समझा जाता था; परंतु द्रोणाचार्यके उस असहनीय वधको सम्भव हुआ देख सारे कौरव थर्रा उठे और भयके मारे भागने लगे॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धारराजः शकुनिस्त्रस्तस्त्रस्ततरैः सह ।
हतं रुक्मरथं श्रुत्वा प्राद्रवत् सहितो रथैः ॥ ९ ॥
मूलम्
गान्धारराजः शकुनिस्त्रस्तस्त्रस्ततरैः सह ।
हतं रुक्मरथं श्रुत्वा प्राद्रवत् सहितो रथैः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय रथवाले आचार्य द्रोणके मारे जानेका समाचार सुनकर गान्धारराज शकुनि त्रस्त हो उठा और अत्यन्त डरे हुए अपने रथियोंके साथ युद्धभूमिसे भाग चला॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरूथिनीं वेगवतीं विद्रुतां सपताकिनीम्।
परिगृह्य महासेनां सूतपुत्रोऽपयाद् भयात् ॥ १० ॥
मूलम्
वरूथिनीं वेगवतीं विद्रुतां सपताकिनीम्।
परिगृह्य महासेनां सूतपुत्रोऽपयाद् भयात् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्र कर्ण भी ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित एवं बड़े वेगसे भागी हुई अपनी विशाल सेनाको साथ ले भयके मारे वहाँसे भाग खड़ा हुआ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथनागाश्वकलिलां पुरस्कृत्य तु वाहिनीम्।
मद्राणामीश्वरः शल्यो वीक्षमाणोऽपयाद् भयात् ॥ ११ ॥
मूलम्
रथनागाश्वकलिलां पुरस्कृत्य तु वाहिनीम्।
मद्राणामीश्वरः शल्यो वीक्षमाणोऽपयाद् भयात् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मद्रराज शल्य भी रथ, हाथी और घोड़ोंसे भरी हुई अपनी सेनाको आगे करके भयके मारे इधर-उधर देखते हुए भागने लगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतप्रवीरैर्भूयिष्ठैर्ध्वजैर्बहुपताकिभिः ।
वृतः शारद्वतोऽगच्छत् कष्टं कष्टमिति ब्रुवन् ॥ १२ ॥
मूलम्
हतप्रवीरैर्भूयिष्ठैर्ध्वजैर्बहुपताकिभिः ।
वृतः शारद्वतोऽगच्छत् कष्टं कष्टमिति ब्रुवन् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य बहुसंख्यक ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित बहुत-से सैनिकोंद्वारा घिरे हुए थे। उनकी सेनाके प्रमुख वीर मारे गये थे। वे भी ‘हाय! बड़े कष्टकी बात है, बड़े कष्टकी बात है’ ऐसा कहते हुए युद्धभूमिसे खिसक गये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजानीकेन शिष्टेन कलिकङ्गारट्टबाह्लिकैः ।
कृतवर्मा वृतो राजन् प्रायात् सुजवनैर्हयैः ॥ १३ ॥
मूलम्
भोजानीकेन शिष्टेन कलिकङ्गारट्टबाह्लिकैः ।
कृतवर्मा वृतो राजन् प्रायात् सुजवनैर्हयैः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कृतवर्मा भी भोजवंशियोंकी अवशिष्ट सेना तथा कलिंग, अरट्ट और बाह्लिकोंकी विशाल वाहिनी साथ ले अत्यन्त वेगशाली घोड़ोंसे जुते हुए रथके द्वारा भाग निकला॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पदातिगणसंयुक्तस्त्रस्तो राजन् भयार्दितः ।
उलूकः प्राद्रवत् तत्र दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
पदातिगणसंयुक्तस्त्रस्तो राजन् भयार्दितः ।
उलूकः प्राद्रवत् तत्र दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! द्रोणाचार्यको वहाँ मारा गया देख उलूक भी भयसे पीड़ित हो थर्रा उठा और पैदल योद्धाओंके साथ जोर-जोरसे भागने लगा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शनीयो युवा चैव शौर्येण कृतलक्षणः।
दुःशासनो भृशोद्विग्नः प्राद्रवद् गजसंवृतः ॥ १५ ॥
मूलम्
दर्शनीयो युवा चैव शौर्येण कृतलक्षणः।
दुःशासनो भृशोद्विग्नः प्राद्रवद् गजसंवृतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके शरीरमें शौर्यके चिह्न बन गये थे, वह दर्शनीय युवक दुःशासन भी भयसे अत्यन्त उद्विग्न हो अपनी गजसेनाके साथ भाग खड़ा हुआ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथानामयुतं गृह्य त्रिसाहस्रं च दन्तिनाम्।
वृषसेनो ययौ तूर्णं दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
रथानामयुतं गृह्य त्रिसाहस्रं च दन्तिनाम्।
वृषसेनो ययौ तूर्णं दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य धराशायी हो गये, यह देखकर वृषसेन भी दस हजार रथों और तीन हजार हाथियोंकी सेना साथ ले तुरंत वहाँसे चल दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजाश्वरथसंयुक्तो वृतश्चैव पदातिभिः ।
दुर्योधनो महाराज प्रायात् तत्र महारथः ॥ १७ ॥
मूलम्
गजाश्वरथसंयुक्तो वृतश्चैव पदातिभिः ।
दुर्योधनो महाराज प्रायात् तत्र महारथः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! हाथी, घोड़े और रथोंकी सेनासे युक्त तथा पैदल सैनिकोंसे घिरा हुआ महारथी दुर्योधन भी रणभूमिसे भाग चला॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशप्तकगणान् गृह्य हतशेषान् किरीटिना।
सुशर्मा प्राद्रवद् राजन् दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम् ॥ १८ ॥
मूलम्
संशप्तकगणान् गृह्य हतशेषान् किरीटिना।
सुशर्मा प्राद्रवद् राजन् दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! द्रोणाचार्यको रणभूमिमें गिराया गया देख अर्जुनके मारनेसे बचे हुए संशप्तकोंको साथ ले सुशर्मा वहाँसे भाग निकला॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजान् रथान् समारुह्य व्युदस्य च हयाञ्जनाः।
प्राद्रवन् सर्वतः संख्ये दृष्ट्वा रुक्मरथं हतम् ॥ १९ ॥
मूलम्
गजान् रथान् समारुह्य व्युदस्य च हयाञ्जनाः।
प्राद्रवन् सर्वतः संख्ये दृष्ट्वा रुक्मरथं हतम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धस्थलमें सुवर्णमय रथवाले द्रोणका वध हुआ देख बहुतेरे सैनिक हाथियों और रथोंपर आरूढ़ हो तथा कितने ही योद्धा अपने घोड़ोंको भी छोड़कर सब ओरसे पलायन करने लगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वरयन्तः पितॄनन्ये भ्रातॄनन्येऽथ मातुलान्।
पुत्रानन्ये वयस्यांश्च प्राद्रवन् कुरवस्तदा ॥ २० ॥
मूलम्
त्वरयन्तः पितॄनन्ये भ्रातॄनन्येऽथ मातुलान्।
पुत्रानन्ये वयस्यांश्च प्राद्रवन् कुरवस्तदा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ कौरव पिता, ताऊ और चाचा आदिको, कुछ भाइयोंको, कुछ मामाओंको तथा कितने ही पुत्रों और मित्रोंको जल्दीसे भागनेकी प्रेरणा देते हुए उस समय मैदान छोड़कर चल दिये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चोदयन्तश्च सैन्यानि स्वस्रीयांश्च तथापरे।
सम्बन्धिनस्तथान्ये च प्राद्रवन्त दिशो दश ॥ २१ ॥
मूलम्
चोदयन्तश्च सैन्यानि स्वस्रीयांश्च तथापरे।
सम्बन्धिनस्तथान्ये च प्राद्रवन्त दिशो दश ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही योद्धा अपनी सेनाओंको, दूसरे लोग भानजोंको और कितने ही अपने सगे-सम्बन्धियोंको भागनेकी आज्ञा देते हुए दसों दिशाओंकी ओर भाग खड़े हुए॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकीर्णकेशा विध्वस्ता न द्वावेकत्र धावतः।
नेदमस्तीति मन्वाना हतोत्साहा हतौजसः ॥ २२ ॥
मूलम्
प्रकीर्णकेशा विध्वस्ता न द्वावेकत्र धावतः।
नेदमस्तीति मन्वाना हतोत्साहा हतौजसः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबके बाल बिखरे हुए थे। वे गिरते-पड़ते भाग रहे थे। दो सैनिक एक साथ या एक ओर नहीं भागते थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि अब यह सेना नहीं बचेगी; इसीलिये उनके उत्साह और बल नष्ट हो गये थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सृज्य कवचानन्ये प्राद्रवंस्तावका विभो।
अन्योन्यं ते समाक्रोशन् सैनिका भरतर्षभ ॥ २३ ॥
मूलम्
उत्सृज्य कवचानन्ये प्राद्रवंस्तावका विभो।
अन्योन्यं ते समाक्रोशन् सैनिका भरतर्षभ ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! प्रभो! आपके कितने ही सैनिक कवच उतारकर एक-दूसरेको पुकारते हुए भाग रहे थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठ तिष्ठेति न च ते स्वयं तत्रावतस्थिरे।
धुर्यानुन्मुच्य च रथाद्धतसूतात् स्वलंकृतान्।
अधिरुह्य हयान् योधाः क्षिप्रं पद्भिरचोदयन् ॥ २४ ॥
मूलम्
तिष्ठ तिष्ठेति न च ते स्वयं तत्रावतस्थिरे।
धुर्यानुन्मुच्य च रथाद्धतसूतात् स्वलंकृतान्।
अधिरुह्य हयान् योधाः क्षिप्रं पद्भिरचोदयन् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ योद्धा दूसरोंसे ‘ठहरो, ठहरो’ कहते, परंतु स्वयं नहीं ठहरते थे। कितने ही योद्धा सारथिशून्य रथसे सजे-सजाये घोड़ोंको खोलकर उनपर सवार हो जाते और पैरोंसे ही शीघ्रतापूर्वक उन्हें हाँकने लगते थे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रवमाणे तथा सैन्ये त्रस्तरूपे हतौजसि।
प्रतिस्रोत इव ग्राहो द्रोणपुत्रः परानियात् ॥ २५ ॥
मूलम्
द्रवमाणे तथा सैन्ये त्रस्तरूपे हतौजसि।
प्रतिस्रोत इव ग्राहो द्रोणपुत्रः परानियात् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब सारी सेना भयभीत हो बल और उत्साह खोकर भाग रही थी, उसी समय द्रोणपुत्र अश्वत्थामा शत्रुओंकी ओर बढ़ा आ रहा था, मानो कोई ग्राह नदीके प्रवाहके प्रतिकूल जा रहा हो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यासीत् सुमहद् युद्धं शिखण्डिप्रमुखैर्गणैः।
प्रभद्रकैश्च पाञ्चालैश्चेदिभिश्च सकेकयैः ॥ २६ ॥
मूलम्
तस्यासीत् सुमहद् युद्धं शिखण्डिप्रमुखैर्गणैः।
प्रभद्रकैश्च पाञ्चालैश्चेदिभिश्च सकेकयैः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे पहले अश्वत्थामाका उन प्रभद्रक, पांचाल, चेदि और केकय आदि गणोंके साथ महान् युद्ध हो रहा था, जिनका प्रधान नेता शिखण्डी था (इसीलिये उसे पिताकी मृत्युका समाचार नहीं ज्ञात हुआ।)॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा बहुविधाः सेनाः पाण्डूनां युद्धदुर्मदः।
कथंचित् संकटान्मुक्तो मत्तद्विरदविक्रमः ॥ २७ ॥
मूलम्
हत्वा बहुविधाः सेनाः पाण्डूनां युद्धदुर्मदः।
कथंचित् संकटान्मुक्तो मत्तद्विरदविक्रमः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतवाले हाथीके समान पराक्रमी रणदुर्मद अश्वत्थामा पाण्डवोंकी विविध सेनाओंका संहार करके किसी प्रकार उस युद्ध-संकटसे मुक्त हुआ था॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रवमाणं बलं दृष्ट्वा पलायनकृतक्षणम्।
दुर्योधनं समासाद्य द्रोणपुत्रोऽब्रवीदिदम् ॥ २८ ॥
मूलम्
द्रवमाणं बलं दृष्ट्वा पलायनकृतक्षणम्।
दुर्योधनं समासाद्य द्रोणपुत्रोऽब्रवीदिदम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें उसने देखा कि सारी कौरव-सेना भागी जा रही है और सभी लोग पलायन करनेमें उत्साह दिखा रहे हैं। तब द्रोणपुत्रने दुर्योधनके पास जाकर इस प्रकार पूछा—॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमियं द्रवते सेना त्रस्तरूपेव भारत।
द्रवमाणां च राजेन्द्र नावस्थापयसे रणे ॥ २९ ॥
मूलम्
किमियं द्रवते सेना त्रस्तरूपेव भारत।
द्रवमाणां च राजेन्द्र नावस्थापयसे रणे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन! क्यों यह सेना भयभीत-सी होकर भागी जा रही है? राजेन्द्र! इस भागती हुई सेनाको आप युद्धमें ठहरानेका प्रयत्न क्यों नहीं करते?॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं चापि न यथापूर्वं प्रकृतिस्थो नराधिप।
कर्णप्रभृतयश्चेमे नावतिष्ठन्ति पार्थिव ॥ ३० ॥
मूलम्
त्वं चापि न यथापूर्वं प्रकृतिस्थो नराधिप।
कर्णप्रभृतयश्चेमे नावतिष्ठन्ति पार्थिव ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! तुम भी पहलेके समान स्वस्थ नहीं दिखायी देते। भूपाल! ये कर्ण आदि वीर भी रणभूमिमें खड़े नहीं हो रहे हैं। इसका क्या कारण है?॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येष्वपि च युद्धेषु नैव सेनाद्रवत् तदा।
कच्चित् क्षेमं महाबाहो तव सैन्यस्य भारत ॥ ३१ ॥
मूलम्
अन्येष्वपि च युद्धेषु नैव सेनाद्रवत् तदा।
कच्चित् क्षेमं महाबाहो तव सैन्यस्य भारत ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अन्य संग्रामोंमें भी आपकी सेना इस प्रकार नहीं भागी थी। महाबाहु भरतनन्दन! आपकी सेना सकुशल तो है न?॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मिन्निदं हते राजन् रथसिंहे बलं तव।
एतामवस्थां सम्प्राप्तं तन्ममाचक्ष्व कौरव ॥ ३२ ॥
मूलम्
कस्मिन्निदं हते राजन् रथसिंहे बलं तव।
एतामवस्थां सम्प्राप्तं तन्ममाचक्ष्व कौरव ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! कुरुनन्दन! किस सिंहके समान पराक्रमी रथीके मारे जानेपर आपकी यह सेना इस दुरवस्थाको पहुँच गयी है। यह मुझे बताइये’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्तु दुर्योधनः श्रुत्वा द्रोणपुत्रस्य भाषितम्।
घोरमप्रियमाख्यातुं नाशक्नोत् पार्थिवर्षभः ॥ ३३ ॥
मूलम्
तत्तु दुर्योधनः श्रुत्वा द्रोणपुत्रस्य भाषितम्।
घोरमप्रियमाख्यातुं नाशक्नोत् पार्थिवर्षभः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणपुत्र अश्वत्थामाकी यह बात सुनकर नृपश्रेष्ठ दुर्योधन यह घोर अप्रिय समाचार स्वयं उससे न कह सका॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिन्ना नौरिव ते पुत्रो मग्नः शोकमहार्णवे।
बाष्पेणापिहितो दृष्ट्वा द्रोणपुत्रं रथे स्थितम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
भिन्ना नौरिव ते पुत्रो मग्नः शोकमहार्णवे।
बाष्पेणापिहितो दृष्ट्वा द्रोणपुत्रं रथे स्थितम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मानो आपके पुत्रकी नाव मझधारमें टूट गयी थी और वह शोकके समुद्रमें डूब रहा था। रथपर बैठे हुए द्रोणकुमारको देखकर उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये थे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शारद्वतं राजा सव्रीडमिदमब्रवीत्।
शंसात्र भद्रं ते सर्वं यथा सैन्यमिदं द्रुतम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततः शारद्वतं राजा सव्रीडमिदमब्रवीत्।
शंसात्र भद्रं ते सर्वं यथा सैन्यमिदं द्रुतम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय राजा दुर्योधनने कृपाचार्यसे संकोचपूर्वक कहा—‘गुरुदेव! आपका कल्याण हो। आप ही वह सब समाचार बता दीजिये, जिससे यह सब सेना भागी जा रही है’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शारद्वतो राजन्नार्तिमार्च्छन् पुनः पुनः।
शशंस द्रोणपुत्राय यथा द्रोणो निपातितः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अथ शारद्वतो राजन्नार्तिमार्च्छन् पुनः पुनः।
शशंस द्रोणपुत्राय यथा द्रोणो निपातितः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य बारंबार पीड़ाका अनुभव करते हुए जिस प्रकार द्रोणाचार्य मारे गये थे, वह समाचार उनके पुत्रको सुनाने लगे॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
कृप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं द्रोणं पुरस्कृत्य पृथिव्यां प्रवरं रथम्।
प्रावर्तयाम संग्रामं पञ्चालैरेव केवलम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
वयं द्रोणं पुरस्कृत्य पृथिव्यां प्रवरं रथम्।
प्रावर्तयाम संग्रामं पञ्चालैरेव केवलम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्य बोले— वत्स! हमलोगोंने भूमण्डलके श्रेष्ठ महारथी आचार्य द्रोणको आगे करके केवल पांचालोंके साथ युद्ध आरम्भ किया था॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रवृत्ते संग्रामे विमिश्राः कुरुसोमकाः।
अन्योन्यमभिगर्जन्तः शस्त्रैर्देहानपातयन् ॥ ३८ ॥
मूलम्
ततः प्रवृत्ते संग्रामे विमिश्राः कुरुसोमकाः।
अन्योन्यमभिगर्जन्तः शस्त्रैर्देहानपातयन् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्ध आरम्भ हो जानेपर कौरव तथा सोमकयोद्धा परस्पर मिश्रित हो गये और एक-दूसरेके निकट गर्जना करते हुए शस्त्रोंद्वारा अपने-अपने शत्रुओंके शरीरोंको धराशायी करने लगे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तमाने तथा युद्धे क्षीयमाणेषु संयुगे।
धार्तराष्ट्रेषु संक्रुद्धः पिता तेऽस्त्रमुदैरयत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
वर्तमाने तथा युद्धे क्षीयमाणेषु संयुगे।
धार्तराष्ट्रेषु संक्रुद्धः पिता तेऽस्त्रमुदैरयत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार युद्ध चालू होनेपर जब कौरवयोद्धा क्षीण होने लगे, तब तुम्हारे पिताने अत्यन्त कुपित होकर ब्रह्मास्त्र प्रकट किया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं विकुर्वाणो नरर्षभः।
व्यहनच्छात्रवान् भल्लैः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ४० ॥
मूलम्
ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं विकुर्वाणो नरर्षभः।
व्यहनच्छात्रवान् भल्लैः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मास्त्र प्रकट करते हुए नरश्रेष्ठ द्रोणने सैकड़ों और हजारों भल्लोंद्वारा शत्रु-सैनिकोंका संहार कर डाला॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवाः केकया मत्स्याः पञ्चालाश्च विशेषतः।
संख्ये द्रोणरथं प्राप्य व्यनशन् कालचोदिताः ॥ ४१ ॥
मूलम्
पाण्डवाः केकया मत्स्याः पञ्चालाश्च विशेषतः।
संख्ये द्रोणरथं प्राप्य व्यनशन् कालचोदिताः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव, केकय, मत्स्य तथा विशेषतः पांचाल योद्धा कालसे प्रेरित हो युद्धमें द्रोणाचार्यके रथके पास आकर नष्ट हो गये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रं नरसिंहानां द्विसाहस्रं च दन्तिनाम्।
द्रोणो ब्रह्मास्त्रयोगेन प्रेषयामास मृत्यवे ॥ ४२ ॥
मूलम्
सहस्रं नरसिंहानां द्विसाहस्रं च दन्तिनाम्।
द्रोणो ब्रह्मास्त्रयोगेन प्रेषयामास मृत्यवे ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यने ब्रह्मास्त्रके प्रयोगद्वारा मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी एक हजार श्रेष्ठ योद्धाओं तथा दो हजार हाथियोंको मौतके हवाले कर दिया॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकर्णपलितः श्यामो वयसाशीतिपञ्चकः ।
रणे पर्यचरद् द्रोणो वृद्धः षोडशवर्षवत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
आकर्णपलितः श्यामो वयसाशीतिपञ्चकः ।
रणे पर्यचरद् द्रोणो वृद्धः षोडशवर्षवत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी अंग-कान्ति श्याम थी, जिनके कानोंतकके बाल पक गये थे तथा जो चार सौ वर्षकी अवस्था पूरे कर चुके थे, वे बूढ़े द्रोणाचार्य रणभूमिमें सोलह वर्षके तरुणकी भाँति सब ओर विचरते रहे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्लिश्यमानेषु सैन्येषु वध्यमानेषु राजसु।
अमर्षवशमापन्नाः पञ्चला विमुखाऽभवन् ॥ ४४ ॥
मूलम्
क्लिश्यमानेषु सैन्येषु वध्यमानेषु राजसु।
अमर्षवशमापन्नाः पञ्चला विमुखाऽभवन् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इस प्रकार सेनाएँ कष्ट पाने लगीं तब बहुत-से नरेश कालके गालमें जाने लगे, तब अमर्षमें भरे हुए पांचाल युद्धसे विमुख हो गये॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु किंचित् प्रभग्नेषु विमुखेषु सपत्नजित्।
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणो बभूवार्क इवोदितः ॥ ४५ ॥
मूलम्
तेषु किंचित् प्रभग्नेषु विमुखेषु सपत्नजित्।
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणो बभूवार्क इवोदितः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कुछ हतोत्साह होकर जब युद्धसे विमुख हो गये, तब दिव्य अस्त्र प्रकट करनेवाले शत्रुविजयी द्रोणाचार्य उदित हुए सूर्यके समान प्रकाशित होने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मध्यं प्राप्य पाण्डूनां शररश्मिः प्रतापवान्।
मध्यंगत इवादित्यो दुष्प्रेक्ष्यस्ते पिताभवत् ॥ ४६ ॥
मूलम्
स मध्यं प्राप्य पाण्डूनां शररश्मिः प्रतापवान्।
मध्यंगत इवादित्यो दुष्प्रेक्ष्यस्ते पिताभवत् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव-सेनाके बीचमें आकर बाणमयी रश्मियोंसे सुशोभित तुम्हारे प्रतापी पिता द्रोण दोपहरके सूर्यकी भाँति तपने लगे। उस समय उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते दह्यमाना द्रोणेन सूर्येणेव विराजता।
दग्धवीर्या निरुत्साहा बभूवुर्गतचेतसः ॥ ४७ ॥
मूलम्
ते दह्यमाना द्रोणेन सूर्येणेव विराजता।
दग्धवीर्या निरुत्साहा बभूवुर्गतचेतसः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकाशमान सूर्यके समान तेजस्वी द्रोणाचार्यद्वारा दग्ध किये जाते हुए पांचालोंके बल और पराक्रम भी दग्ध हो गये थे। वे उत्साहशून्य तथा अचेत हो गये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् दृष्ट्वा पीडितान् बाणैर्द्रोणेन मधुसूदनः।
जयैषी पाण्डुपुत्राणामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४८ ॥
मूलम्
तान् दृष्ट्वा पीडितान् बाणैर्द्रोणेन मधुसूदनः।
जयैषी पाण्डुपुत्राणामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबको द्रोणाचार्यके बाणोंद्वारा पीड़ित देख पाण्डवोंकी विजय चाहनेवाले मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा—॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष जातु नरैः शक्यो जेतुं शस्त्रभृतां वरः।
अपि वृत्रहणा संख्ये रथयूथपयूथपः ॥ ४९ ॥
मूलम्
नैष जातु नरैः शक्यो जेतुं शस्त्रभृतां वरः।
अपि वृत्रहणा संख्ये रथयूथपयूथपः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये द्रोणाचार्य शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ एवं रथयूथ-पतियोंके भी यूथपति हैं। इन्हें युद्धमें मनुष्य कदापि नहीं जीत सकते। देवराज इन्द्रके लिये भी इनपर विजय पाना असम्भव है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते यूयं धर्ममुत्सृज्य जयं रक्षत पाण्डवाः।
यथा वः संयुगे सर्वान् न हन्याद् रुक्मवाहनः ॥ ५० ॥
मूलम्
ते यूयं धर्ममुत्सृज्य जयं रक्षत पाण्डवाः।
यथा वः संयुगे सर्वान् न हन्याद् रुक्मवाहनः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः पाण्डव! तुमलोग धर्मका विचार छोड़कर विजयकी रक्षाका प्रयत्न करो, जिससे सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य युद्धस्थलमें तुम सब लोगोंका संहार न कर सकें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थाम्नि हते नैष युध्येदिति मतिर्मम।
हतं तं संयुगे कश्चिदाख्यात्वस्मै मृषा नरः ॥ ५१ ॥
मूलम्
अश्वत्थाम्नि हते नैष युध्येदिति मतिर्मम।
हतं तं संयुगे कश्चिदाख्यात्वस्मै मृषा नरः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरा ऐसा विश्वास है कि अश्वत्थामाके मारे जानेपर ये युद्ध नहीं कर सकते; अतः कोई मनुष्य इनसे झूठे ही कह दे कि ‘युद्धमें अश्वत्थामा मारा गया’॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्नारोचयद् वाक्यं कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
अरोचयंस्तु सर्वेऽन्ये कृच्छ्रेण तु युधिष्ठिरः ॥ ५२ ॥
मूलम्
एतन्नारोचयद् वाक्यं कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
अरोचयंस्तु सर्वेऽन्ये कृच्छ्रेण तु युधिष्ठिरः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार अर्जुनको यह बात अच्छी नहीं लगी। परंतु और सब लोगोंको जँच गयी। युधिष्ठिर बड़ी कठिनाईसे इसके लिये तैयार हुए॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्तु सव्रीडमब्रवीत् पितरं तव।
अश्वत्थामा हत इति तं नाबुध्यत ते पिता ॥ ५३ ॥
मूलम्
भीमसेनस्तु सव्रीडमब्रवीत् पितरं तव।
अश्वत्थामा हत इति तं नाबुध्यत ते पिता ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भीमसेनने लजाते-लजाते तुम्हारे पितासे कहा—‘अश्वत्थामा मारा गया’। परंतु उनकी इस बातपर तुम्हारे पिताको विश्वास नहीं हुआ॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शङ्कमानस्तन्मिथ्या धर्मराजमपृच्छत ।
हतं वाप्यहतं वाऽऽजौ त्वां पिता पुत्रवत्सलः ॥ ५४ ॥
मूलम्
स शङ्कमानस्तन्मिथ्या धर्मराजमपृच्छत ।
हतं वाप्यहतं वाऽऽजौ त्वां पिता पुत्रवत्सलः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मनमें यह संदेह हुआ कि यह समाचार झूठा है; अतः तुम्हारे पुत्रवत्सल पिताने युद्धभूमिमें धर्मराज युधिष्ठिरसे पूछा कि ‘अश्वत्थामा मारा गया या नहीं’॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमतथ्यभये मग्नो जये सक्तो युधिष्ठिरः।
अश्वत्थामानमायोधे हतं दृष्ट्वा महागजम् ॥ ५५ ॥
भीमेन गिरिवर्ष्माणं मालवस्येन्द्रवर्मणः ।
उपसृत्य तदा द्रोणमुच्चैरिदमुवाच ह ॥ ५६ ॥
मूलम्
तमतथ्यभये मग्नो जये सक्तो युधिष्ठिरः।
अश्वत्थामानमायोधे हतं दृष्ट्वा महागजम् ॥ ५५ ॥
भीमेन गिरिवर्ष्माणं मालवस्येन्द्रवर्मणः ।
उपसृत्य तदा द्रोणमुच्चैरिदमुवाच ह ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर असत्यके भयमें डूबे होनेपर भी विजयमें आसक्त थे, अतः मालवनरेश इन्द्रवर्माके पर्वताकार महान् गजराज अश्वत्थामाको भीमसेनके द्वारा युद्धस्थलमें मारा गया देख द्रोणाचार्यके पास जाकर वे उच्चस्वरसे इस प्रकार बोले—॥५५-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यार्थे शस्त्रमादत्से यमवेक्ष्य च जीवसि।
पुत्रस्ते दयितो नित्यं सोऽश्वत्थामा निपातितः ॥ ५७ ॥
शेते विनिहतो भूमौ वने सिंहशिशुर्यथा ॥ ५८ ॥
मूलम्
यस्यार्थे शस्त्रमादत्से यमवेक्ष्य च जीवसि।
पुत्रस्ते दयितो नित्यं सोऽश्वत्थामा निपातितः ॥ ५७ ॥
शेते विनिहतो भूमौ वने सिंहशिशुर्यथा ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आचार्य! तुम जिसके लिये हथियार उठाते हो और जिसका मुँह देखकर जीते हो, वह तुम्हारा सदाका प्यारा पुत्र अश्वत्थामा पृथ्वीपर मार गिराया गया है। जैसे वनमें सिंहका बच्चा सोता है, उसी प्रकार वह रणभूमिमें मरा पड़ा है’॥५७-५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानन्नप्यनृतस्याथ दोषान् स द्विजसत्तमम्।
अव्यक्तमब्रवीद् राजा हतः कुञ्जर इत्युत ॥ ५९ ॥
मूलम्
जानन्नप्यनृतस्याथ दोषान् स द्विजसत्तमम्।
अव्यक्तमब्रवीद् राजा हतः कुञ्जर इत्युत ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
असत्य बोलनेके दोषोंको जानते हुए भी राजा युधिष्ठिरने द्विजश्रेष्ठ द्रोणसे वैसी बात कह दी। फिर वे अस्फुट स्वरमें बोले—‘वास्तवमें इस नामका हाथी मारा गया’॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वां निहतमाक्रन्दे श्रुत्वा संतापतापितः।
नियम्य दिव्यान्यस्त्राणि नायुध्यत यथा पुरा ॥ ६० ॥
मूलम्
स त्वां निहतमाक्रन्दे श्रुत्वा संतापतापितः।
नियम्य दिव्यान्यस्त्राणि नायुध्यत यथा पुरा ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार युद्धमें तुम्हारे मारे जानेकी बात सुनकर वे शोकाग्निके तापसे संतप्त हो उठे और अपने दिव्यास्त्रोंका प्रयोग बंद करके उन्होंने पहलेके समान युद्ध करना छोड़ दिया॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा परमोद्विग्नं शोकातुरमचेतसम्।
पांचालराजस्य सुतः क्रूरकर्मा समाद्रवत् ॥ ६१ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा परमोद्विग्नं शोकातुरमचेतसम्।
पांचालराजस्य सुतः क्रूरकर्मा समाद्रवत् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें अत्यन्त उद्विग्न, शोकाकुल और अचेत हुआ देख पांचालराजका क्रूरकर्मा पुत्र धृष्टद्युम्न उनकी ओर दौड़ा॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा विहितं मृत्युं लोकतत्त्वविचक्षणः।
दिव्यान्यस्त्राण्यथोत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत् ॥ ६२ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा विहितं मृत्युं लोकतत्त्वविचक्षणः।
दिव्यान्यस्त्राण्यथोत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकतत्त्वके ज्ञानमें निपुण आचार्य अपनी दैवविहित मृत्युरूप धृष्टद्युम्नको सामने देख दिव्यास्त्रोंका परित्याग करके आमरण उपवासका नियम ले रणभूमिमें बैठ गये॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य केशान् सव्येन गृहीत्वा पाणिना तदा।
पार्षतः क्रोशमानानां वीराणामच्छिनच्छिरः ॥ ६३ ॥
मूलम्
ततोऽस्य केशान् सव्येन गृहीत्वा पाणिना तदा।
पार्षतः क्रोशमानानां वीराणामच्छिनच्छिरः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस द्रुपदपुत्रने समस्त वीरोंके पुकार-पुकारकर मना करनेपर भी उनकी बातें अनसुनी करके बायें हाथसे आचार्यके केश पकड़ लिये और दाहिने हाथसे उनका सिर काट लिया॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हन्तव्यो न हन्तव्य इति ते सर्वतोऽब्रुवन्।
तथैव चार्जुनो वाहादवरुह्यैनमाद्रवत् ॥ ६४ ॥
मूलम्
न हन्तव्यो न हन्तव्य इति ते सर्वतोऽब्रुवन्।
तथैव चार्जुनो वाहादवरुह्यैनमाद्रवत् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब वीर चारों ओरसे यही कह रहे थे कि ‘न मारो, न मारो’। अर्जुन भी यही कहते हुए अपने रथसे उतरकर उसकी ओर दौड़ पड़े॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यम्य त्वरितो बाहुं ब्रुवाणश्च पुनः पुनः।
जीवन्तमानयाचार्यं मा वधीरिति धर्मवित् ॥ ६५ ॥
मूलम्
उद्यम्य त्वरितो बाहुं ब्रुवाणश्च पुनः पुनः।
जीवन्तमानयाचार्यं मा वधीरिति धर्मवित् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे धर्मके ज्ञाता हैं, अतः अपनी एक बाँह उठाकर बड़ी उतावलीके साथ बारंबार यह कहने लगे कि ‘आचार्यको जीते-जी ले आओ, मारो मत’॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा निवार्यमाणेन कौरवैरर्जुनेन च।
हत एव नृशंसेन पिता तव नरर्षभ ॥ ६६ ॥
मूलम्
तथा निवार्यमाणेन कौरवैरर्जुनेन च।
हत एव नृशंसेन पिता तव नरर्षभ ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! इस प्रकार कौरवों तथा अर्जुनके रोकनेपर भी उस नृशंसने तुम्हारे पिताकी हत्या कर ही डाली॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैनिकाश्च ततः सर्वे प्राद्रवन्त भयार्दिताः।
वयं चापि निरुत्साहा हते पितरि तेऽनघ ॥ ६७ ॥
मूलम्
सैनिकाश्च ततः सर्वे प्राद्रवन्त भयार्दिताः।
वयं चापि निरुत्साहा हते पितरि तेऽनघ ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! इस प्रकार तुम्हारे पिताके मारे जानेपर समस्त सैनिक भयसे पीड़ित होकर भाग चले हैं और हमलोग उत्साहशून्य होकर लौटे आ रहे हैं॥६७॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा द्रोणपुत्रस्तु निधनं पितुराहवे।
क्रोधमाहारयत् तीव्रं पदाहत इवोरगः ॥ ६८ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा द्रोणपुत्रस्तु निधनं पितुराहवे।
क्रोधमाहारयत् तीव्रं पदाहत इवोरगः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! युद्धमें इस प्रकार पिताके मारे जानेका वृत्तान्त सुनकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा पैरोंसे ठुकराये हुए सर्पके समान अत्यन्त कुपित हो उठा॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो रणे द्रौणिर्भृशं जज्वाल मारिष।
यथेन्धनं महत् प्राप्य प्राज्वलद्धव्यवाहनः ॥ ६९ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो रणे द्रौणिर्भृशं जज्वाल मारिष।
यथेन्धनं महत् प्राप्य प्राज्वलद्धव्यवाहनः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! जैसे अग्निदेव सूखे काठकी बहुत बड़ी राशि पाकर प्रचण्डरूपसे प्रज्वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार रणभूमिमें अश्वत्थामा अत्यन्त क्रोधसे जलने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तलं तलेन निष्पिष्य दन्तैर्दन्तानुपास्पृशत्।
निःश्वसन्नुरगो यद्वल्लोहिताक्षोऽभवत् तदा ॥ ७० ॥
मूलम्
तलं तलेन निष्पिष्य दन्तैर्दन्तानुपास्पृशत्।
निःश्वसन्नुरगो यद्वल्लोहिताक्षोऽभवत् तदा ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने हाथसे हाथ मलकर दाँतोंसे दाँत पीसे और फुफकारते हुए सर्पके समान वह लंबी साँसें खींचने लगा, उस समय उसकी आँखें लाल हो गयी थीं॥७०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वण्यश्वत्थामक्रोधे त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्षपर्वमें अश्वत्थामाका क्रोधविषयक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९३॥