१९० युधिष्ठिरासत्यकथने

भागसूचना

नवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोणाचार्यका घोर कर्म, ऋषियोंका द्रोणको अस्त्र त्यागनेका आदेश तथा अश्वत्थामाकी मृत्यु सुनकर द्रोणका जीवनसे निराश होना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चालानां ततो द्रोणोऽप्यकरोत् कदनं महत्।
यथा क्रुद्धो रणे शक्रो दानवानां क्षयं पुरा ॥ १ ॥

मूलम्

पञ्चालानां ततो द्रोणोऽप्यकरोत् कदनं महत्।
यथा क्रुद्धो रणे शक्रो दानवानां क्षयं पुरा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर द्रोणाचार्यने कुपित होकर रणभूमिमें पांचालोंका उसी प्रकार संहार आरम्भ किया, जैसे पूर्वकालमें इन्द्रने दानवोंका विनाश किया था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणास्त्रेण महाराज वध्यमानाः परे युधि।
नात्रसन्त रणे द्रोणात् सत्त्ववन्तो महारथाः ॥ २ ॥

मूलम्

द्रोणास्त्रेण महाराज वध्यमानाः परे युधि।
नात्रसन्त रणे द्रोणात् सत्त्ववन्तो महारथाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! द्रोणाचार्यके अस्त्रसे मारे जानेवाले शत्रुदलके महारथी वीर बड़े धैर्यशाली थे, अतः वे रणभूमिमें उनसे तनिक भी भयभीत न हुए॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यमाना महाराज पञ्चालाः सृञ्जयास्तथा।
द्रोणमेवाभ्ययुर्युद्धे योधयन्तो महारथाः ॥ ३ ॥

मूलम्

युध्यमाना महाराज पञ्चालाः सृञ्जयास्तथा।
द्रोणमेवाभ्ययुर्युद्धे योधयन्तो महारथाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! युद्धपरायण पांचाल और सृंजय महारथी संग्राममें द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करते हुए उन्हींकी ओर बढ़े आ रहे थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तु च्छाद्यमानानां पञ्चालानां समन्ततः।
अभवद् भैरवो नादो वध्यतां शरवृष्टिभिः ॥ ४ ॥

मूलम्

तेषां तु च्छाद्यमानानां पञ्चालानां समन्ततः।
अभवद् भैरवो नादो वध्यतां शरवृष्टिभिः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणोंकी वर्षासे आच्छादित हो सब ओरसे मारे जानेवाले पांचालवीरोंका भयंकर आर्तनाद सुनायी देने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वध्यमानेषु संग्रामे पञ्चालेषु महात्मना।
उदीर्यमाणे द्रोणास्त्रे पाण्डवान् भयमाविशत् ॥ ५ ॥

मूलम्

वध्यमानेषु संग्रामे पञ्चालेषु महात्मना।
उदीर्यमाणे द्रोणास्त्रे पाण्डवान् भयमाविशत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संग्राममें जब इस प्रकार महामनस्वी द्रोणाचार्यके द्वारा पांचाल-सैनिक मारे जाने लगे और आचार्य द्रोणके अस्त्र लगातार बरसने लगे, तब पाण्डवोंके मनमें बड़ा भय समा गया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वाश्वनरयोधानां विपुलं च क्षयं युधि।
पाण्डवेया महाराज नाशशंसुर्जयं तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

दृष्ट्वाश्वनरयोधानां विपुलं च क्षयं युधि।
पाण्डवेया महाराज नाशशंसुर्जयं तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! युद्धस्थलमें घोड़ों और मनुष्य-योद्धाओंका वह महान् विनाश देखकर पाण्डवोंकी अपनी विजयकी आशा जाती रही॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिद् द्रोणो न नः सर्वान् क्षपयेत्‌ परमास्त्रवित्।
समिद्धः शिशिरापाये दहन् कक्षमिवानलः ॥ ७ ॥

मूलम्

कच्चिद् द्रोणो न नः सर्वान् क्षपयेत्‌ परमास्त्रवित्।
समिद्धः शिशिरापाये दहन् कक्षमिवानलः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वे सोचने लगे—) ‘जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें प्रज्वलित अग्नि सूखे जंगल या घास-फूसको जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता आचार्य द्रोण कहीं हम सब लोगोंका संहार न कर डालें॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैनं संयुगे कश्चित् समर्थः प्रतिवीक्षितुम्।
न चैनमर्जुनो जातु प्रतियुध्येत धर्मवित् ॥ ८ ॥

मूलम्

न चैनं संयुगे कश्चित् समर्थः प्रतिवीक्षितुम्।
न चैनमर्जुनो जातु प्रतियुध्येत धर्मवित् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रणभूमिमें दूसरा कोई योद्धा उनकी ओर देखनेमें भी समर्थ नहीं है (युद्ध करना तो दूरकी बात है) और धर्मके ज्ञाता अर्जुन कदापि उनके साथ (मन लगाकर) युद्ध नहीं करेंगे’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रस्तान् कुन्तीसुतान्‌ दृष्ट्‌वा द्रोणसायकपीडितान्।
मतिमान् श्रेयसे युक्तः केशवोऽर्जुनमब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

त्रस्तान् कुन्तीसुतान्‌ दृष्ट्‌वा द्रोणसायकपीडितान्।
मतिमान् श्रेयसे युक्तः केशवोऽर्जुनमब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीके पुत्रोंको द्रोणाचार्यके बाणोंसे पीड़ित एवं भयभीत देखकर उनके कल्याणमें लगे हुए बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनसे इस प्रकार कहा—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष युद्धे न संग्रामे जेतुं शक्यः कथञ्चन।
सधनुर्धन्विनां श्रेष्ठो देवैरपि सवासवैः ॥ १० ॥

मूलम्

नैष युद्धे न संग्रामे जेतुं शक्यः कथञ्चन।
सधनुर्धन्विनां श्रेष्ठो देवैरपि सवासवैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! ये द्रोणाचार्य सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ हैं, जबतक इनके हाथोंमें धनुष रहेगा, तबतक इन्हें युद्धमें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी किसी प्रकार जीत नहीं सकते॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यस्तशस्त्रस्तु संग्रामे शक्यो हन्तुं भवेन्नृभिः।
आस्थीयतां जये योगो धर्ममुत्सृज्य पाण्डवाः ॥ ११ ॥
यथा वः संयुगे सर्वान् न हन्याद् रुक्मवाहनः।

मूलम्

न्यस्तशस्त्रस्तु संग्रामे शक्यो हन्तुं भवेन्नृभिः।
आस्थीयतां जये योगो धर्ममुत्सृज्य पाण्डवाः ॥ ११ ॥
यथा वः संयुगे सर्वान् न हन्याद् रुक्मवाहनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब ये संग्राममें हथियार डाल देंगे, तभी मनुष्योंद्वारा मारे जा सकते हैं। अतः पाण्डवो! ‘गुरुका वध करना उचित नहीं है’ इस धर्मभावनाको छोड़कर उनपर विजय पानेके लिये कोई यत्न करो; जिससे सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य तुम सब लोगोंका वध न कर डालें॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थाम्नि हते नैष युध्येदिति मतिर्मम ॥ १२ ॥
तं हतं संयुगे कश्चिदस्मै शंसतु मानवः।

मूलम्

अश्वत्थाम्नि हते नैष युध्येदिति मतिर्मम ॥ १२ ॥
तं हतं संयुगे कश्चिदस्मै शंसतु मानवः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा विश्वास है कि अश्वत्थामाके मारे जानेपर ये युद्ध नहीं कर सकते। कोई मनुष्य उनसे जाकर कहे कि ‘युद्धमें अश्वत्थामा मारा गया’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्नारोचयद् राजन् कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ १३ ॥
अन्ये त्वरोचयन् सर्वे कृच्छ्रेण तु युधिष्ठिरः।

मूलम्

एतन्नारोचयद् राजन् कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ १३ ॥
अन्ये त्वरोचयन् सर्वे कृच्छ्रेण तु युधिष्ठिरः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कुन्तीपुत्र अर्जुनको यह बात अच्छी नहीं लगी, किंतु अन्य सब लोगोंने इस युक्तिको पसंद कर लिया। केवल कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर बड़ी कठिनाईसे इस बातपर राजी हुए॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाबाहुरनीके स्वे महागजम् ॥ १४ ॥
जघान गदया राजन्नश्वत्थामानमित्युत ।
परप्रमथनं घोरं मालवस्येन्द्रवर्मणः ॥ १५ ॥

मूलम्

ततो भीमो महाबाहुरनीके स्वे महागजम् ॥ १४ ॥
जघान गदया राजन्नश्वत्थामानमित्युत ।
परप्रमथनं घोरं मालवस्येन्द्रवर्मणः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब महाबाहु भीमसेनने अपनी ही सेनाके एक विशाल हाथीको गदासे मार डाला। उसका नाम था अश्वत्थामा। शत्रुओंको मथ डालनेवाला वह भयंकर गजराज मालवाके राजा इन्द्रवर्माका था॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्तु सव्रीडमुपेत्य द्रोणमाहवे ।
अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चकार ह ॥ १६ ॥

मूलम्

भीमसेनस्तु सव्रीडमुपेत्य द्रोणमाहवे ।
अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चकार ह ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे मारकर भीमसेन लजाते-लजाते युद्धस्थलमें द्रोणाचार्यके पास गये और बड़े जोरसे बोले—‘अश्वत्थामा मारा गया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थामेति हि गजः ख्यातो नाम्ना हतोऽभवत्।
कृत्वा मनसि तं भीमो मिथ्या व्याहृतवांस्तदा ॥ १७ ॥

मूलम्

अश्वत्थामेति हि गजः ख्यातो नाम्ना हतोऽभवत्।
कृत्वा मनसि तं भीमो मिथ्या व्याहृतवांस्तदा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अश्वत्थामा’ नामसे विख्यात हाथी मारा गया था, उसीको मनमें रखकर भीमसेनने उस समय वह झूठी बात कही थी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनवचः श्रुत्वा द्रोणस्तत् परमाप्रियम्।
मनसा सन्नगात्रोऽभूद् यथा सैकतमम्भसि ॥ १८ ॥

मूलम्

भीमसेनवचः श्रुत्वा द्रोणस्तत् परमाप्रियम्।
मनसा सन्नगात्रोऽभूद् यथा सैकतमम्भसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनका वह अत्यन्त अप्रिय वचन सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन शोकसे व्याकुल हो सन्न रह गये। जैसे पानी पड़ते ही बालू गल जाता है, उसी प्रकार उस दुःखद संवादसे उनका सारा शरीर शिथिल हो गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्कमानः स तन्मिथ्या वीर्यज्ञः स्वसुतस्य वै।
हतः स इति च श्रुत्वा नैव धैर्यादकम्पत ॥ १९ ॥

मूलम्

शङ्कमानः स तन्मिथ्या वीर्यज्ञः स्वसुतस्य वै।
हतः स इति च श्रुत्वा नैव धैर्यादकम्पत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उनके मनमें यह संदेह हुआ कि सम्भव है, यह बात झूठी हो; क्योंकि वे अपने पुत्रके बल-पराक्रमको जानते थे; अतः उसके मारे जानेकी बात सुनकर भी धैर्यसे विचलित न हुए॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स लब्ध्वा चेतनां द्रोणः क्षणेनैव समाश्वसत्।
अनुचिन्त्यात्मनः पुत्रमविषह्यमरातिभिः ॥ २० ॥

मूलम्

स लब्ध्वा चेतनां द्रोणः क्षणेनैव समाश्वसत्।
अनुचिन्त्यात्मनः पुत्रमविषह्यमरातिभिः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मनमें बारंबार यह विचार आया कि मेरा पुत्र तो शत्रुओंके लिये असह्य है; अतः क्षणभरमें ही सचेत होकर उन्होंने अपने-आपको सँभाल लिया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पार्षतमभिद्रुत्य जिघांसुर्मृत्युमात्मनः ।
अवाकिरत् सहस्रेण तीक्ष्णानां कङ्कपत्रिणाम् ॥ २१ ॥

मूलम्

स पार्षतमभिद्रुत्य जिघांसुर्मृत्युमात्मनः ।
अवाकिरत् सहस्रेण तीक्ष्णानां कङ्कपत्रिणाम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अपनी मृत्युस्वरूप धृष्टद्युम्नको मार डालनेकी इच्छासे वे उसपर टूट पड़े और कंकपत्रयुक्त सहस्रों तीखे बाणोंद्वारा उन्हें आच्छादित करने लगे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विंशतिसहस्राणि पञ्चालानां नरर्षभाः।
तथा चरन्तं संग्रामे सर्वतोऽवाकिरञ्छरैः ॥ २२ ॥

मूलम्

तं विंशतिसहस्राणि पञ्चालानां नरर्षभाः।
तथा चरन्तं संग्रामे सर्वतोऽवाकिरञ्छरैः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार संग्राममें विचरते हुए द्रोणाचार्यपर बीस हजार नरश्रेष्ठ पांचालवीर सब ओरसे बाणोंकी वर्षा करने लगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैस्तैराचितं द्रोणं नापश्याम महारथम्।
भास्करं जलदै रुद्धं वर्षास्विव विशाम्पते ॥ २३ ॥

मूलम्

शरैस्तैराचितं द्रोणं नापश्याम महारथम्।
भास्करं जलदै रुद्धं वर्षास्विव विशाम्पते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! जैसे वर्षाकालमें मेघोंकी घटासे आच्छादित हुए सूर्य नहीं दिखायी देते हैं, उसी प्रकार उन बाणोंके ढेरसे दबे हुए महारथी द्रोणको हमलोग नहीं देख पाते थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधूय तान् बाणगणाम् पञ्चालानां महारथः।
प्रादुश्चक्रे ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं परंतपः ॥ २४ ॥
वधाय तेषां शूराणां पञ्चालानाममर्षितः।

मूलम्

विधूय तान् बाणगणाम् पञ्चालानां महारथः।
प्रादुश्चक्रे ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं परंतपः ॥ २४ ॥
वधाय तेषां शूराणां पञ्चालानाममर्षितः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब शत्रुओंको संताप देनेवाले महारथी द्रोणाचार्यने पांचालोंके उन बाणसमूहोंको नष्ट करके शूरवीर पांचालोंके वधके लिये अमर्षयुक्त होकर ब्रह्मास्त्र प्रकट किया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यरोचत द्रोणो विनिघ्नन् सर्वसैनिकान् ॥ २५ ॥
शिरांस्यपातयच्चापि पञ्चालानां महामृधे ।
तथैव परिघाकारान् बाहून् कनकभूषणान् ॥ २६ ॥

मूलम्

ततो व्यरोचत द्रोणो विनिघ्नन् सर्वसैनिकान् ॥ २५ ॥
शिरांस्यपातयच्चापि पञ्चालानां महामृधे ।
तथैव परिघाकारान् बाहून् कनकभूषणान् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सम्पूर्ण सैनिकोंका विनाश करते हुए द्रोणाचार्यकी बड़ी शोभा होने लगी। उन्होंने उस महासमरमें पांचालवीरोंके मस्तक और सुवर्णभूषित परिघ-जैसी मोटी भुजाएँ काट गिरायीं॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वध्यमानाः समरे भारद्वाजेन पार्थिवाः।
मेदिन्यामन्वकीर्यन्त वातनुन्ना इव द्रुमाः ॥ २७ ॥

मूलम्

ते वध्यमानाः समरे भारद्वाजेन पार्थिवाः।
मेदिन्यामन्वकीर्यन्त वातनुन्ना इव द्रुमाः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरांगणमें द्रोणाचार्यके द्वारा मारे जानेवाले वे पांचालनरेश आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंके समान धरतीपर बिछ गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुञ्जराणां च पततां हयौघानां च भारत।
अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा ॥ २८ ॥

मूलम्

कुञ्जराणां च पततां हयौघानां च भारत।
अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! धराशायी होते हुए हाथियों और अश्वसमूहोंके मांस तथा रक्तसे कीच जम जानेके कारण वहाँकी भूमिपर चलना-फिरना असम्भव हो गया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हत्वा विंशतिसाहस्रान् पञ्चालानां रथव्रजान्।
अतिष्ठदाहवे द्रोणो विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ २९ ॥

मूलम्

हत्वा विंशतिसाहस्रान् पञ्चालानां रथव्रजान्।
अतिष्ठदाहवे द्रोणो विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पांचालोंके बीस हजार रथियोंका संहार करके द्रोणाचार्य युद्धस्थलमें धूमरहित प्रज्वलित अग्निके समान खड़े थे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव च पुनः क्रुद्धो भारद्वाजः प्रतापवान्।
वसुदानस्य भल्लेन शिरः कायादपाहरत् ॥ ३० ॥

मूलम्

तथैव च पुनः क्रुद्धो भारद्वाजः प्रतापवान्।
वसुदानस्य भल्लेन शिरः कायादपाहरत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतापी भरद्वाजनन्दनने पुनः पूर्ववत् कुपित होकर एक भल्लके द्वारा वसुदानका मस्तक धड़से अलग कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनः पञ्चशतान् मत्स्यान् षट्‌सहस्रांश्च सृंजयान्।
हस्तिनामयुतं हत्वा जघानाश्वायुतं पुनः ॥ ३१ ॥

मूलम्

पुनः पञ्चशतान् मत्स्यान् षट्‌सहस्रांश्च सृंजयान्।
हस्तिनामयुतं हत्वा जघानाश्वायुतं पुनः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद मत्स्यदेशके पचास योद्धाओंका, सृंजयवंशके छः हजार सैनिकोंका तथा दस हजार हाथियोंका संहार करके उन्होंने पुनः दस हजार घुड़सवारोंकी सेनाका सफाया कर दिया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियाणामभावाय दृष्ट्‌वा द्रोणमवस्थितम् ।
ऋषयोऽभ्यागतास्तूर्णं हव्यवाहपुरोगमाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

क्षत्रियाणामभावाय दृष्ट्‌वा द्रोणमवस्थितम् ।
ऋषयोऽभ्यागतास्तूर्णं हव्यवाहपुरोगमाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार द्रोणाचार्यको क्षत्रियोंका विनाश करनेके लिये उद्यत देख तुरंत ही अग्निदेवको आगे करके बहुत-से महर्षि वहाँ आये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः ।
वसिष्ठः कश्यपोऽत्रिश्च ब्रह्मलोकं निनीषवः ॥ ३३ ॥

मूलम्

विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः ।
वसिष्ठः कश्यपोऽत्रिश्च ब्रह्मलोकं निनीषवः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, वसिष्ठ, कश्यप और अत्रि—ये सब लोग उन्हें ब्रह्मलोक ले जानेकी इच्छासे वहाँ पधारे थे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिकताः पृश्नयो गर्गा वालखिल्या मरीचिपाः।
भृगवोऽङ्गिरसश्चैव सूक्ष्माश्चान्ये महर्षयः ॥ ३४ ॥

मूलम्

सिकताः पृश्नयो गर्गा वालखिल्या मरीचिपाः।
भृगवोऽङ्गिरसश्चैव सूक्ष्माश्चान्ये महर्षयः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही सिकत, पृश्नि, गर्ग, सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले वालखिल्य, भृगु, अंगिरा तथा अन्य सूक्ष्मरूपधारी महर्षि भी वहाँ आये थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त एनमब्रुवन् सर्वे द्रोणमाहवशोभिनम्।
अधर्मतः कृतं युद्धं समयो निधनस्य ते ॥ ३५ ॥
न्यस्यायुधं रणे द्रोण समीक्षास्मानवस्थितान्।
नातः क्रूरतरं कर्म पुनः कर्तुमिहार्हसि ॥ ३६ ॥

मूलम्

त एनमब्रुवन् सर्वे द्रोणमाहवशोभिनम्।
अधर्मतः कृतं युद्धं समयो निधनस्य ते ॥ ३५ ॥
न्यस्यायुधं रणे द्रोण समीक्षास्मानवस्थितान्।
नातः क्रूरतरं कर्म पुनः कर्तुमिहार्हसि ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबने संग्राममें शोभा पानेवाले द्रोणाचार्यसे इस प्रकार कहा—‘द्रोण! तुम हथियार नीचे डालकर यहाँ खड़े हुए हमलोगोंकी ओर देखो। अबतक तुमने अधर्मसे युद्ध किया है, अब तुम्हारी मृत्युका समय आ गया है, इसलिये अब फिर यह क्रूरतापूर्ण कर्म न करो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदवेदाङ्गविदुषः सत्यधर्मरतस्य ते ।
ब्राह्मणस्य विशेषेण तवैतन्नोपपद्यते ॥ ३७ ॥

मूलम्

वेदवेदाङ्गविदुषः सत्यधर्मरतस्य ते ।
ब्राह्मणस्य विशेषेण तवैतन्नोपपद्यते ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम वेद और वेदांगोंके विद्वान् हो, विशेषतः सत्य और धर्ममें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मण हो, तुम्हारे लिये यह क्रूर कर्म शोभा नहीं देता॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजायुधममोघेषो तिष्ठ वर्त्मनि शाश्वते।
परिपूर्णश्च कालस्ते वस्तुं लोकेऽद्य मानुषे ॥ ३८ ॥

मूलम्

त्यजायुधममोघेषो तिष्ठ वर्त्मनि शाश्वते।
परिपूर्णश्च कालस्ते वस्तुं लोकेऽद्य मानुषे ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अमोघ बाणवाले द्रोणाचार्य! अस्त्र-शस्त्रोंका परित्याग कर दो और अपने सनातन मार्गपर स्थित हो जाओ। आज इस मनुष्यलोकमें तुम्हारे रहनेका समय पूरा हो गया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मास्त्रेण त्वया दग्धा अनस्त्रज्ञा नरा भुवि।
यदेतदीदृशं विप्र कृतं कर्म न साधु तत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

ब्रह्मास्त्रेण त्वया दग्धा अनस्त्रज्ञा नरा भुवि।
यदेतदीदृशं विप्र कृतं कर्म न साधु तत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस भूतलपर जो लोग ब्रह्मास्त्र नहीं जानते थे, उन्हें भी तुमने ब्रह्मास्त्रसे ही दग्ध किया है। ब्रह्मन्! तुमने जो ऐसा कर्म किया है, यह कदापि उत्तम नहीं है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यस्यायुधं रणे विप्र द्रोण मा त्वं चिरं कृथाः।
मा पापिष्ठतरं कर्म करिष्यसि पुनर्द्विज ॥ ४० ॥

मूलम्

न्यस्यायुधं रणे विप्र द्रोण मा त्वं चिरं कृथाः।
मा पापिष्ठतरं कर्म करिष्यसि पुनर्द्विज ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रवर द्रोण! रणभूमिमें अपना अस्त्र-शस्त्र रख दो, इस कार्यमें विलम्ब न करो। ब्रह्मन्! अब फिर ऐसा अत्यन्त पापपूर्ण कर्म न करना’॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तेषां वचः श्रुत्वा भीमसेनवचश्च तत्।
धृष्टद्युम्नं च सम्प्रेक्ष्य रणे स विमनाऽभवत् ॥ ४१ ॥

मूलम्

इति तेषां वचः श्रुत्वा भीमसेनवचश्च तत्।
धृष्टद्युम्नं च सम्प्रेक्ष्य रणे स विमनाऽभवत् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन ऋषियोंकी यह बात सुनकर, भीमसेनके कथनपर विचार कर और रणभूमिमें धृष्टद्युम्नको सामने देखकर आचार्य द्रोणका मन उदास हो गया॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदिह्यमानो व्यथितः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
अहतं वा हतं वेति पप्रच्छ सुतमात्मनः ॥ ४२ ॥

मूलम्

संदिह्यमानो व्यथितः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
अहतं वा हतं वेति पप्रच्छ सुतमात्मनः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे संदेहमें पड़े हुए थे, अतः उन्होंने व्यथित होकर अपने पुत्रके मारे जाने या नहीं मारे जानेका समाचार कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरसे पूछा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिरा बुद्धिर्हि द्रोणस्य न पार्थो वक्ष्यतेऽनृतम्।
त्रयाणामपि लोकानामैश्वर्यार्थे कथञ्चन ॥ ४३ ॥

मूलम्

स्थिरा बुद्धिर्हि द्रोणस्य न पार्थो वक्ष्यतेऽनृतम्।
त्रयाणामपि लोकानामैश्वर्यार्थे कथञ्चन ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके मनमें यह दृढ़ विश्वास था कि कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी किसी प्रकार झूठ नहीं बोलेंगे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् तं परिपप्रच्छ नान्यं कञ्चिद् द्विजर्षभः।
तस्मिंस्तस्य हि सत्याशा बाल्यात् प्रभृति पाण्डवे ॥ ४४ ॥

मूलम्

तस्मात् तं परिपप्रच्छ नान्यं कञ्चिद् द्विजर्षभः।
तस्मिंस्तस्य हि सत्याशा बाल्यात् प्रभृति पाण्डवे ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः उन द्विजश्रेष्ठने उन्हींसे वह बात पूछी, दूसरे किसीसे नहीं, क्योंकि बचपनसे ही पाण्डुपुत्रकी सचाईमें आचार्यका विश्वास था॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो निष्पाण्डवामुर्वीं करिष्यन्तं युधां प्रतिम्।
द्रोणं ज्ञात्वा धर्मराजं गोविन्दो व्यथितोऽब्रवीत् ॥ ४५ ॥

मूलम्

ततो निष्पाण्डवामुर्वीं करिष्यन्तं युधां प्रतिम्।
द्रोणं ज्ञात्वा धर्मराजं गोविन्दो व्यथितोऽब्रवीत् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय योद्धाओंमें श्रेष्ठ द्रोण इस पृथ्वीको पाण्डवरहित कर डालनेके लिये उद्यत थे। उनका यह विचार जानकर भगवान् श्रीकृष्णने व्यथित हो धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा—॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यर्धदिवसं द्रोणो युध्यते मन्युमास्थितः।
सत्यं ब्रवीमि ते सेना विनाशं समुपैष्यति ॥ ४६ ॥

मूलम्

यद्यर्धदिवसं द्रोणो युध्यते मन्युमास्थितः।
सत्यं ब्रवीमि ते सेना विनाशं समुपैष्यति ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! यदि क्रोधमें भरे हुए द्रोणाचार्य आधे दिन भी युद्ध करते रहें तो मैं सच कहता हूँ, तुम्हारी सेनाका सर्वनाश हो जायगा॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवांस्त्रातु नो द्रोणात् सत्याज्ज्यायोऽनृतं वचः।
अनृतं जीवितस्यार्थे वदन्न स्पृश्यतेऽनृतैः ॥ ४७ ॥

मूलम्

स भवांस्त्रातु नो द्रोणात् सत्याज्ज्यायोऽनृतं वचः।
अनृतं जीवितस्यार्थे वदन्न स्पृश्यतेऽनृतैः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः तुम द्रोणसे हमलोगोंको बचाओ; इस अवसरपर असत्यभाषणका महत्त्व सत्यसे भी बढ़कर है। किसीकी प्राणरक्षाके लिये यदि कदाचित् असत्य बोलना पड़े तो उस बोलनेवालेको झूठका पाप नहीं लगता’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः संवदतोरेवं भीमसेनोऽब्रवीदिदम् ॥ ४८ ॥
श्रुत्वैवं तु महाराज वधोपायं महात्मनः।
गाहमानस्य ते सेनां मालवस्येन्द्रवर्मणः ॥ ४९ ॥
अश्वत्थामेति विख्यातो गजः शक्रगजोपमः।
निहतो युधि विक्रम्य ततोऽहं द्रोणमब्रुवम् ॥ ५० ॥
अश्वत्थामा हतो ब्रह्मन्निवर्तस्वाहवादिति ।
नूनं नाश्रद्दधद् वाक्यमेष मे पुरुषर्षभः ॥ ५१ ॥

मूलम्

तयोः संवदतोरेवं भीमसेनोऽब्रवीदिदम् ॥ ४८ ॥
श्रुत्वैवं तु महाराज वधोपायं महात्मनः।
गाहमानस्य ते सेनां मालवस्येन्द्रवर्मणः ॥ ४९ ॥
अश्वत्थामेति विख्यातो गजः शक्रगजोपमः।
निहतो युधि विक्रम्य ततोऽहं द्रोणमब्रुवम् ॥ ५० ॥
अश्वत्थामा हतो ब्रह्मन्निवर्तस्वाहवादिति ।
नूनं नाश्रद्दधद् वाक्यमेष मे पुरुषर्षभः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि भीमसेन बोल उठे—‘महाराज! महामना द्रोणके वधका ऐसा उपाय सुनकर मैंने आपकी सेनामें विचरनेवाले मालवनरेश इन्द्रवर्माके अश्वत्थामानामसे विख्यात गजराजको, जो ऐरावतके समान शक्तिशाली था, युद्धमें पराक्रम करके मार डाला। फिर द्रोणाचार्यके पास जाकर कहा—‘ब्रह्मन्! अश्वत्थामा मारा गया, अब युद्धसे निवृत्त हो जाइये।’ परंतु इन पुरुषप्रवर द्रोणने निश्चय ही मेरी बातपर विश्वास नहीं किया है॥४८—५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं गोविन्दवाक्यानि मानयस्व जयैषिणः।
द्रोणाय निहतं शंस राजन् शारद्वतीसुतम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

स त्वं गोविन्दवाक्यानि मानयस्व जयैषिणः।
द्रोणाय निहतं शंस राजन् शारद्वतीसुतम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! अतः आप विजय चाहनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी बात मान लीजिये और द्रोणाचार्यसे कह दीजिये कि ‘अश्वत्थामा मारा गया’॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयोक्तो नैव युध्येत जातु राजन् द्विजर्षभः।
सत्यवान् हि त्रिलोकेऽस्मिन् भवान् ख्यातो जनाधिप ॥ ५३ ॥

मूलम्

त्वयोक्तो नैव युध्येत जातु राजन् द्विजर्षभः।
सत्यवान् हि त्रिलोकेऽस्मिन् भवान् ख्यातो जनाधिप ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जनेश्वर! आपके कह देनेपर द्विजश्रेष्ठ द्रोण कदापि युद्ध नहीं करेंगे; क्योंकि आप तीनों लोकोंमें सत्यवादीके रूपमें विख्यात हैं’॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कृष्णवाक्यप्रचोदितः।
भावित्वाच्च महाराज वक्तुं समुपचक्रमे ॥ ५४ ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कृष्णवाक्यप्रचोदितः।
भावित्वाच्च महाराज वक्तुं समुपचक्रमे ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! भीमकी यह बात सुनकर श्रीकृष्णके आदेशसे प्रेरित हो भावीवश राजा युधिष्ठिर वह झूठी बात कहनेको तैयार हो गये॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमतथ्यभये मग्नो जये सक्तो युधिष्ठिरः।
(अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चचार ह।)
अव्यक्तमब्रवीद् राजन् हतः कुञ्जर इत्युत ॥ ५५ ॥

मूलम्

तमतथ्यभये मग्नो जये सक्तो युधिष्ठिरः।
(अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चचार ह।)
अव्यक्तमब्रवीद् राजन् हतः कुञ्जर इत्युत ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर तो वे असत्यके भयमें डूबे हुए थे और दूसरी ओर विजयकी प्राप्तिके लिये भी आसक्तिपूर्वक प्रयत्नशील थे; अतः राजन्! उन्होंने ‘अश्वत्थामा मारा गया’ यह बात तो उच्च स्वरसे कही, परंतु ‘हाथीका वध हुआ है,’ यह बात धीरेसे कही॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पूर्वं रथः पृथ्व्याश्चतुरङ्‌गुलमुच्छ्रितः।
बभूवैवं च तेनोक्ते तस्य वाहाः स्पृशन्महीम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

तस्य पूर्वं रथः पृथ्व्याश्चतुरङ्‌गुलमुच्छ्रितः।
बभूवैवं च तेनोक्ते तस्य वाहाः स्पृशन्महीम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पहले युधिष्ठिरका रथ पृथ्वीसे चार अंगुल ऊँचे रहा करता था, किंतु उस दिन उनके इस प्रकार असत्य बोलते ही उनके रथके घोड़े धरतीका स्पर्श करके चलने लगे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरात्‌ तु तद् वाक्यं श्रुत्वा द्रोणो महारथः।
पुत्रव्यसनसंतप्तो निराशो जीवितेऽभवत् ॥ ५७ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरात्‌ तु तद् वाक्यं श्रुत्वा द्रोणो महारथः।
पुत्रव्यसनसंतप्तो निराशो जीवितेऽभवत् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरके मुँहसे यह वचन सुनकर महारथी द्रोणाचार्य पुत्रशोकसे संतप्त हो अपने जीवनसे निराश हो गये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगस्कृतमिवात्मानं पाण्डवानां महात्मनाम् ।
ऋषिवाक्येन मन्वानः श्रुत्वा च निहतं सुतम् ॥ ५८ ॥

मूलम्

आगस्कृतमिवात्मानं पाण्डवानां महात्मनाम् ।
ऋषिवाक्येन मन्वानः श्रुत्वा च निहतं सुतम् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पुत्रके मारे जानेकी बात सुनकर महर्षियोंके कथनानुसार वे अपने आपको महात्मा पाण्डवोंका अपराधी-सा मानने लगे॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचेताः परमोद्विग्नो धृष्टद्युम्नमवेक्ष्य च।
योद्‌धुं नाशक्नुवद् राजन् यथापूर्वमरिंदमः ॥ ५९ ॥

मूलम्

विचेताः परमोद्विग्नो धृष्टद्युम्नमवेक्ष्य च।
योद्‌धुं नाशक्नुवद् राजन् यथापूर्वमरिंदमः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी चेतनाशक्ति लुप्त होने लगी। वे अत्यन्त उद्विग्न हो उठे। राजन्! उस समय धृष्टद्युम्नको सामने देखकर भी शत्रुओंका दमन करनेवाले द्रोणाचार्य पूर्ववत् युद्ध न कर सके॥५९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि युधिष्ठिरासत्यकथने नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणवधपर्वमें युधिष्ठिरका असत्यभाषणविषयक एक सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ५९ श्लोक हैं।)