भागसूचना
एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृष्टद्युम्नका दुःशासनको हराकर द्रोणाचार्यपर आक्रमण, नकुल-सहदेवद्वारा उनकी रक्षा, दुर्योधन तथा सात्यकिका संवाद तथा युद्ध, कर्ण और भीमसेनका संग्राम और अर्जुनका कौरवोंपर आक्रमण
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तथा वर्तमाने गजाश्वनरसंक्षये ।
दुःशासनो महाराज धृष्टद्युम्नमयोधयत् ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तथा वर्तमाने गजाश्वनरसंक्षये ।
दुःशासनो महाराज धृष्टद्युम्नमयोधयत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! इस प्रकार हाथी, घोड़ों और मनुष्योंका संहार करनेवाले उस वर्तमान युद्धमें दुःशासन धृष्टद्युम्नके साथ जूझने लगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु रुक्मरथासक्तो दुःशासनशरार्दितः।
अमर्षात् तव पुत्रस्य शरैर्वाहानवाकिरत् ॥ २ ॥
मूलम्
स तु रुक्मरथासक्तो दुःशासनशरार्दितः।
अमर्षात् तव पुत्रस्य शरैर्वाहानवाकिरत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृष्टद्युम्न पहले द्रोणाचार्यके साथ उलझे हुए थे, दुःशासनके बाणोंसे पीड़ित होकर उन्होंने आपके पुत्रके घोड़ोंपर रोषपूर्वक बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणेन स रथस्तस्य सध्वजः सहसारथिः।
नादृश्यत महाराज पार्षतस्य शरैश्चितः ॥ ३ ॥
मूलम्
क्षणेन स रथस्तस्य सध्वजः सहसारथिः।
नादृश्यत महाराज पार्षतस्य शरैश्चितः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! एक ही क्षणमें धृष्टद्युम्नके बाणोंका ऐसा ढेर लग गया कि दुःशासनका रथ ध्वजा और सारथिसहित अदृश्य हो गया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनस्तु राजेन्द्र पाञ्चाल्यस्य महात्मनः।
नाशकत् प्रमुखे स्थातुं शरजालप्रपीडितः ॥ ४ ॥
मूलम्
दुःशासनस्तु राजेन्द्र पाञ्चाल्यस्य महात्मनः।
नाशकत् प्रमुखे स्थातुं शरजालप्रपीडितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! महामना धृष्टद्युम्नके बाणसमूहोंसे अत्यन्त पीड़ित हो दुःशासन उनके सामने ठहर न सका॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु दुःशासनं बाणैर्विमुखीकृत्य पार्षतः।
किरन् शरसहस्राणि द्रोणमेवाभ्ययाद् रणे ॥ ५ ॥
मूलम्
स तु दुःशासनं बाणैर्विमुखीकृत्य पार्षतः।
किरन् शरसहस्राणि द्रोणमेवाभ्ययाद् रणे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपने बाणोंद्वारा दुःशासनको सामनेसे भगाकर सहस्रों बाणोंकी वर्षा करते हुए धृष्टद्युम्नने रणभूमिमें पुनः द्रोणाचार्यपर ही आक्रमण किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यपद्यत हार्दिक्यः कृतवर्मा त्वनन्तरम्।
सोदर्याणां त्रयश्चैव त एनं पर्यवारयन् ॥ ६ ॥
मूलम्
अभ्यपद्यत हार्दिक्यः कृतवर्मा त्वनन्तरम्।
सोदर्याणां त्रयश्चैव त एनं पर्यवारयन् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख हृदिकपुत्र कृतवर्मा तथा दुःशासनके तीन भाई बीचमें आ धमके। वे चारों मिलकर धृष्टद्युम्नको रोकने लगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं यमौ पृष्ठतोऽन्वैतां रक्षन्तौ पुरुषर्षभौ।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं दीप्यमानमिवानलम् ॥ ७ ॥
मूलम्
तं यमौ पृष्ठतोऽन्वैतां रक्षन्तौ पुरुषर्षभौ।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं दीप्यमानमिवानलम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी धृष्टद्युम्नको द्रोणाचार्यके सम्मुख जाते देख नरश्रेष्ठ नकुल और सहदेव उनकी रक्षा करते हुए पीछे-पीछे चले॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रहारमकुर्वंस्ते सर्वे च सुमहारथाः।
अमर्षिताः सत्त्ववन्तः कृत्वा मरणमग्रतः ॥ ८ ॥
मूलम्
सम्प्रहारमकुर्वंस्ते सर्वे च सुमहारथाः।
अमर्षिताः सत्त्ववन्तः कृत्वा मरणमग्रतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अमर्षसे भरे हुए उन सभी धैर्यशाली महारथियोंने मृत्युको सामने रखकर परस्पर युद्ध आरम्भ कर दिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुद्धात्मानः शुद्धवृत्ता राजन् स्वर्गपुरस्कृताः।
आर्यं युद्धमकुर्वन्त परस्परजिगीषवः ॥ ९ ॥
मूलम्
शुद्धात्मानः शुद्धवृत्ता राजन् स्वर्गपुरस्कृताः।
आर्यं युद्धमकुर्वन्त परस्परजिगीषवः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन सबके हृदय शुद्ध और आचार-व्यवहार निर्मल थे। वे सभी स्वर्गकी प्राप्तिरूप लक्ष्यको अपने सामने रखते थे; अतः परस्पर विजयकी अभिलाषासे वे आर्यजनोचित युद्ध करने लगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुक्लाभिजनकर्माणो मतिमन्तो जनाधिप ।
धर्मयुद्धमयुध्यन्त प्रेप्सन्तो गतिमुत्तमाम् ॥ १० ॥
मूलम्
शुक्लाभिजनकर्माणो मतिमन्तो जनाधिप ।
धर्मयुद्धमयुध्यन्त प्रेप्सन्तो गतिमुत्तमाम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! उन सबके वंश शुद्ध और कर्म निष्कलंक थे; अतः वे बुद्धिमान् योद्धा उत्तम गति पानेकी इच्छासे धर्मयुद्धमें तत्पर हो गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्रासीदधर्मिष्ठमशस्तं युद्धमेव च।
नात्र कर्णी न नालीको न लिप्तो न च बस्तिकः॥११॥
मूलम्
न तत्रासीदधर्मिष्ठमशस्तं युद्धमेव च।
नात्र कर्णी न नालीको न लिप्तो न च बस्तिकः॥११॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अधर्मपूर्ण और निन्दनीय युद्ध नहीं हो रहा था, उसमें कर्णी1, नालीक[^२], विष लगाये हुए बाण और वस्तिक[^३] नामक अस्त्रका प्रयोग नहीं होता था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सूची कपिशो नैव न गवास्थिर्गजास्थिजः।
इषुरासीन्न संश्लिष्टो न पूतिर्न च जिह्मगः ॥ १२ ॥
मूलम्
न सूची कपिशो नैव न गवास्थिर्गजास्थिजः।
इषुरासीन्न संश्लिष्टो न पूतिर्न च जिह्मगः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न सूची[^४], न कपिश[^५], न गायकी[^६] हड्डीका बना हुआ, न हाथीकी[^७] हड्डीका बना हुआ, न दो फलों या काँटोंवाला, न दुर्गन्धयुक्त और न जिह्मग (टेढ़ा जानेवाला) बाण ही काममें लाया जाता था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋजून्येव विशुद्धानि सर्वे शस्त्राण्यधारयन्।
सुयुद्धेन पराल्ँलोकानीप्सन्तः कीर्तिमेव च ॥ १३ ॥
मूलम्
ऋजून्येव विशुद्धानि सर्वे शस्त्राण्यधारयन्।
सुयुद्धेन पराल्ँलोकानीप्सन्तः कीर्तिमेव च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब योद्धा न्याययुक्त युद्धके द्वारा उत्तम लोक और कीर्ति पानेकी अभिलाषा रखकर सरल और शुद्ध शस्त्रोंको ही धारण करते थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाऽऽसीत् तुमुलं युद्धं सर्वदोषविवर्जितम्।
चतुर्णां तव योधानां तैस्त्रिभिः पाण्डवैः सह ॥ १४ ॥
मूलम्
तदाऽऽसीत् तुमुलं युद्धं सर्वदोषविवर्जितम्।
चतुर्णां तव योधानां तैस्त्रिभिः पाण्डवैः सह ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके चार योद्धाओंका तीन पाण्डववीरोंके साथ जो घमासान युद्ध चल रहा था, वह सब प्रकारके दोषोंसे रहित था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नस्तु तान् दृष्ट्वा तव राजन् रथर्षभान्।
यमाभ्यां वारितान् वीरान् शीघ्रास्त्रो द्रोणमभ्ययात् ॥ १५ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नस्तु तान् दृष्ट्वा तव राजन् रथर्षभान्।
यमाभ्यां वारितान् वीरान् शीघ्रास्त्रो द्रोणमभ्ययात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! धृष्टद्युम्न शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाले थे। वे नकुल और सहदेवके द्वारा कौरवपक्षके उन वीर महारथियोंको रोका गया देख स्वयं द्रोणाचार्यकी ओर बढ़ गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवारितास्तु ते वीरास्तयोः पुरुषसिंहयोः।
समसज्जन्त चत्वारो वाताः पर्वतयोरिव ॥ १६ ॥
मूलम्
निवारितास्तु ते वीरास्तयोः पुरुषसिंहयोः।
समसज्जन्त चत्वारो वाताः पर्वतयोरिव ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ रोके गये वे चारों वीर उन दोनों पुरुषसिंह पाण्डवोंके साथ इस प्रकार भिड़ गये मानो चौआई हवा दो पर्वतोंसे टकरा रही हो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाभ्यां द्वाभ्यां यमौ सार्धं रथाभ्यां रथपुङ्गवौ।
समासक्तौ ततो द्रोणं धृष्टद्युम्नोऽभ्यवर्तत ॥ १७ ॥
मूलम्
द्वाभ्यां द्वाभ्यां यमौ सार्धं रथाभ्यां रथपुङ्गवौ।
समासक्तौ ततो द्रोणं धृष्टद्युम्नोऽभ्यवर्तत ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ नकुल और सहदेव दो-दो कौरव रथियोंके साथ जूझने लगे। इतनेहीमें धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्यके सामने जा पहुँचे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा द्रोणाय पाञ्चाल्यं व्रजन्तं युद्धदुर्मदम्।
यमाभ्यां तांश्च संसक्तांस्तदन्तरमुपाद्रवत् ॥ १८ ॥
दुर्योधनो महाराज किरञ्छोणितभोजनान् ।
मूलम्
दृष्ट्वा द्रोणाय पाञ्चाल्यं व्रजन्तं युद्धदुर्मदम्।
यमाभ्यां तांश्च संसक्तांस्तदन्तरमुपाद्रवत् ॥ १८ ॥
दुर्योधनो महाराज किरञ्छोणितभोजनान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! रणदुर्मद धृष्टद्युम्नको द्रोणाचार्यकी ओर जाते और अपने दलके उन चारों वीरोंको नकुल-सहदेवके साथ युद्ध करते देख राजा दुर्योधन रक्त पीनेवाले बाणोंकी वर्षा करता हुआ उनके बीचमें आ धमका॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सात्यकिः शीघ्रतरं पुनरेवाभ्यवर्तत ॥ १९ ॥
तौ परस्परमासाद्य समीपे कुरुमाधवौ।
हसमानौ नृशार्दूलावभीतौ समसज्जताम् ॥ २० ॥
मूलम्
तं सात्यकिः शीघ्रतरं पुनरेवाभ्यवर्तत ॥ १९ ॥
तौ परस्परमासाद्य समीपे कुरुमाधवौ।
हसमानौ नृशार्दूलावभीतौ समसज्जताम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख सात्यकि बड़ी शीघ्रताके साथ पुनः दुर्योधनके सम्मुख आ गये। वे दोनों मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी थे। कुरुवंशी दुर्योधन और मधुवंशी सात्यकि एक-दूसरेको समीप पाकर निर्भय हो हँसते हुए युद्ध करने लगे॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाल्यवृत्तानि सर्वाणि प्रीयमाणौ विचिन्त्य तौ।
अन्योन्यं प्रेक्षमाणौ च स्मयमानौ पुनः पुनः ॥ २१ ॥
मूलम्
बाल्यवृत्तानि सर्वाणि प्रीयमाणौ विचिन्त्य तौ।
अन्योन्यं प्रेक्षमाणौ च स्मयमानौ पुनः पुनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बचपनकी सारी बातें याद करके वे दोनों वीर एक-दूसरेकी ओर देखते हुए बारंबार प्रसन्नतापूर्वक मुसकरा उठते थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ दुर्योधनो राजा सात्यकिं समभाषत।
प्रियं सखायं सततं गर्हयन् वृत्तमात्मनः ॥ २२ ॥
मूलम्
अथ दुर्योधनो राजा सात्यकिं समभाषत।
प्रियं सखायं सततं गर्हयन् वृत्तमात्मनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा दुर्योधनने अपने बर्तावकी निरन्तर निन्दा करते हुए वहाँ अपने प्रिय सखा सात्यकिसे इस प्रकार कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिक् क्रोधं धिक् सखे लोभं धिङ्मोहं धिगमर्षितम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलमौरसम् ॥ २३ ॥
मूलम्
धिक् क्रोधं धिक् सखे लोभं धिङ्मोहं धिगमर्षितम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलमौरसम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सखे! क्रोधको धिक्कार है, लोभको धिक्कार है, मोहको धिक्कार है, अमर्षको धिक्कार है, इस क्षत्रियोचित आचारको धिक्कार है तथा औरस बलको भी धिक्कार है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र मामभिसंधत्से त्वां चाहं शिनिपुङ्गव।
त्वं हि प्राणैः प्रियतरो ममाहं च सदा तव॥२४॥
मूलम्
यत्र मामभिसंधत्से त्वां चाहं शिनिपुङ्गव।
त्वं हि प्राणैः प्रियतरो ममाहं च सदा तव॥२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शिनिप्रवर! इन क्रोध, लोभ आदिके ही अधीन होकर तुम मुझे अपने बाणोंका निशाना बनाते हो और तुम्हें मैं। वैसे तो तुम मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय रहे हो और मैं भी तुम्हारा सदा ही प्रीतिपात्र रहा हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरामि तानि सर्वाणि बाल्यवृत्तानि यानि नौ।
तानि सर्वाणि जीर्णानि साम्प्रतं नो रणाजिरे ॥ २५ ॥
मूलम्
स्मरामि तानि सर्वाणि बाल्यवृत्तानि यानि नौ।
तानि सर्वाणि जीर्णानि साम्प्रतं नो रणाजिरे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हम दोनोंके बचपनमें परस्पर जो बर्ताव रहे हैं, उन सबको इस समय मैं याद कर रहा हूँ; परंतु अब इस समरांगणमें हमारे वे सभी सद्व्यवहार जीर्ण हो गये हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमन्यत्क्रोधलोभाभ्यां युद्धमेवाद्य सात्वत ।
तं तथावादिनं तत्र सात्यकिः प्रत्यभाषत ॥ २६ ॥
प्रहसन् विशिखांस्तीक्ष्णानुद्यम्य परमास्त्रवित् ।
मूलम्
किमन्यत्क्रोधलोभाभ्यां युद्धमेवाद्य सात्वत ।
तं तथावादिनं तत्र सात्यकिः प्रत्यभाषत ॥ २६ ॥
प्रहसन् विशिखांस्तीक्ष्णानुद्यम्य परमास्त्रवित् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सात्वत वीर! आजका यह युद्ध ही क्रोध और लोभके सिवा दूसरा क्या है?’ उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता सात्यकिने हँसते हुए तीखे बाणोंको ऊपर उठाकर वहाँ पूर्वोक्त बातें करनेवाले दुर्योधनको इस प्रकार उत्तर दिया—॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेयं सभा राजपुत्र नाचार्यस्य निवेशनम् ॥ २७ ॥
यत्र क्रीडितमस्माभिस्तदा राजन् समागतैः।
मूलम्
नेयं सभा राजपुत्र नाचार्यस्य निवेशनम् ॥ २७ ॥
यत्र क्रीडितमस्माभिस्तदा राजन् समागतैः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजकुमार! कौरवनरेश! न तो यह सभा है और न आचार्यका घर ही है जहाँ एकत्र होकर हम सब लोग खेला करते थे’॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व सा क्रीडा गतास्माकं बाल्ये वै शिनिपुङ्गव ॥ २८ ॥
क्व च युद्धमिदं भूयः ‘कालो हि दुरतिक्रमः’।
मूलम्
क्व सा क्रीडा गतास्माकं बाल्ये वै शिनिपुङ्गव ॥ २८ ॥
क्व च युद्धमिदं भूयः ‘कालो हि दुरतिक्रमः’।
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— शिनिप्रवर! हमारा बचपनका वह खेल कहाँ चला गया और फिर यह युद्ध कहाँसे आ धमका? हाय! कालका उल्लंघन करना अत्यन्त ही कठिन है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु नो विद्यते कृत्यं धनेन धनलिप्सया ॥ २९ ॥
यत्र युध्यामहे सर्वे धनलोभात् समागताः।
मूलम्
किं नु नो विद्यते कृत्यं धनेन धनलिप्सया ॥ २९ ॥
यत्र युध्यामहे सर्वे धनलोभात् समागताः।
अनुवाद (हिन्दी)
हमें धनसे या धन पानेकी इच्छासे क्या प्रयोजन है? जो हम सब लोग यहाँ धनके लोभसे एकत्र होकर जूझ रहे हैं॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथावादिनं तत्र राजानं माधवोऽब्रवीत् ॥ ३० ॥
एवंवृत्तं सदा क्षात्रं युध्यन्तीह गुरूनपि।
यदि तेऽहं प्रियो राजन् जहि मां मा चिरं कृथाः॥३१॥
मूलम्
तं तथावादिनं तत्र राजानं माधवोऽब्रवीत् ॥ ३० ॥
एवंवृत्तं सदा क्षात्रं युध्यन्तीह गुरूनपि।
यदि तेऽहं प्रियो राजन् जहि मां मा चिरं कृथाः॥३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! ऐसी बात कहनेवाले राजा दुर्योधनसे सात्यकिने इस प्रकार कहा—‘राजन्! क्षत्रियोंका सनातन आचार ही ऐसा है कि वे यहाँ गुरुजनोंके साथ भी युद्ध करते हैं। यदि मैं तुम्हारा प्रिय हूँ तो तुम मुझे शीघ्र मार डालो, विलम्ब न करो॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्कृते सुकृताल्लोँकान् गच्छेयं भरतर्षभ।
या ते शक्तिर्बलं यच्च तत् क्षिप्रं मयि दर्शय॥३२॥
नेच्छामि तदहं द्रष्टुं मित्राणां व्यसनं महत्।
मूलम्
त्वत्कृते सुकृताल्लोँकान् गच्छेयं भरतर्षभ।
या ते शक्तिर्बलं यच्च तत् क्षिप्रं मयि दर्शय॥३२॥
नेच्छामि तदहं द्रष्टुं मित्राणां व्यसनं महत्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे ऐसा करनेपर मैं पुण्यवानोंके लोकोंमें जाऊँगा। तुममें जितनी शक्ति और बल है, वह सब शीघ्र मेरे ऊपर दिखाओ; क्योंकि मैं अपने मित्रोंका वह महान् संकट नहीं देखना चाहता हूँ’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं व्यक्तमाभाष्य प्रतिभाष्य च सात्यकिः ॥ ३३ ॥
अभ्ययात् तूर्णमव्यग्रो दयां नाकुरुतात्मनि।
मूलम्
इत्येवं व्यक्तमाभाष्य प्रतिभाष्य च सात्यकिः ॥ ३३ ॥
अभ्ययात् तूर्णमव्यग्रो दयां नाकुरुतात्मनि।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार स्पष्ट बोलकर दुर्योधनकी बातका उत्तर दे सात्यकि निःशंक होकर तुरंत आगे बढ़े, उन्होंने अपने ऊपर दया नहीं दिखायी॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमायान्तं महाबाहुं प्रत्यगृह्णात् तवात्मजः ॥ ३४ ॥
शरैश्चावाकिरद् राजन् शैनेयं तनयस्तव।
मूलम्
तमायान्तं महाबाहुं प्रत्यगृह्णात् तवात्मजः ॥ ३४ ॥
शरैश्चावाकिरद् राजन् शैनेयं तनयस्तव।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सामने आते हुए उन महाबाहु सात्यकिको आपके पुत्रने रोका और उन्हें बाणोंसे ढक दिया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रववृते युद्धं कुरुमाधवसिंहयोः ॥ ३५ ॥
अन्योन्यं क्रुद्धयोर्घोरं यथा द्विरदसिंहयोः।
मूलम्
ततः प्रववृते युद्धं कुरुमाधवसिंहयोः ॥ ३५ ॥
अन्योन्यं क्रुद्धयोर्घोरं यथा द्विरदसिंहयोः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर हाथी और सिंहके समान क्रोधमें भरे हुए उन कुरुवंशी और मधुवंशी सिंहोंमें परस्पर घोर युद्ध होने लगा॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैः सात्वतं युद्धदुर्मदम् ॥ ३६ ॥
दुर्योधनः प्रत्यविध्यत् कुपितो दशभिः शरैः।
मूलम्
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैः सात्वतं युद्धदुर्मदम् ॥ ३६ ॥
दुर्योधनः प्रत्यविध्यत् कुपितो दशभिः शरैः।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् कुपित हुए दुर्योधनने धनुषको पूर्णतः खींचकर छोड़े गये दस बाणोंद्वारा रणदुर्मद सात्यकिको घायल कर दिया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सात्यकिः प्रत्यविध्यत् तथैवावाकिरच्छरैः ॥ ३७ ॥
पञ्चाशता पुनश्चाजौ त्रिंशता दशभिश्च ह।
मूलम्
तं सात्यकिः प्रत्यविध्यत् तथैवावाकिरच्छरैः ॥ ३७ ॥
पञ्चाशता पुनश्चाजौ त्रिंशता दशभिश्च ह।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार सात्यकिने भी युद्धस्थलमें पहले पचास, फिर तीस और फिर दस बाणोंद्वारा दुर्योधनको बींध डाला और उसे भी अपने बाणोंकी वर्षासे ढक दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिं तु रणे राजन् प्रहसंस्तनयस्तव ॥ ३८ ॥
आकर्णपूर्णैर्निशितैर्विव्याध त्रिंशता शरैः ।
मूलम्
सात्यकिं तु रणे राजन् प्रहसंस्तनयस्तव ॥ ३८ ॥
आकर्णपूर्णैर्निशितैर्विव्याध त्रिंशता शरैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब हँसते हुए आपके पुत्रने धनुषको कानतक खींचकर छोड़े हुए तीस तीखे बाणोंद्वारा रणभूमिमें सात्यकिको क्षत-विक्षत कर डाला॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य सशरं चापं क्षुरप्रेण द्विधाच्छिनत् ॥ ३९ ॥
सोऽन्यत् कार्मुकमादाय लघुहस्तस्ततो दृढम्।
सात्यकिर्व्यसृजच्चापि शरश्रेणीं सुतस्य ते ॥ ४० ॥
मूलम्
ततोऽस्य सशरं चापं क्षुरप्रेण द्विधाच्छिनत् ॥ ३९ ॥
सोऽन्यत् कार्मुकमादाय लघुहस्तस्ततो दृढम्।
सात्यकिर्व्यसृजच्चापि शरश्रेणीं सुतस्य ते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद उसने क्षुरप्रसे सात्यकिके बाणसहित धनुषको काटकर उसके दो टुकड़े कर डाले। तब सात्यकिने दूसरा सुदृढ़ धनुष हाथमें लेकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाते हुए वहाँ आपके पुत्रपर बाणोंकी श्रेणियाँ बरसानी आरम्भ कर दीं॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामापतन्तीं सहसा शरश्रेणीं जिघांसया।
चिच्छेद बहुधा राजा तत उच्चुक्रुशुर्जनाः ॥ ४१ ॥
मूलम्
तामापतन्तीं सहसा शरश्रेणीं जिघांसया।
चिच्छेद बहुधा राजा तत उच्चुक्रुशुर्जनाः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वधके लिये अपने ऊपर सहसा आती हुई उन बाण पंक्तियोंके राजा दुर्योधनने अनेक टुकड़े कर डाले; इससे सब लोग हर्षध्वनि करने लगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिं च त्रिसप्तत्या पीडयामास वेगितः।
स्वर्णपुङ्खैः शिलाधौतैराकर्णापूर्णनिःसृतैः ॥ ४२ ॥
मूलम्
सात्यकिं च त्रिसप्तत्या पीडयामास वेगितः।
स्वर्णपुङ्खैः शिलाधौतैराकर्णापूर्णनिःसृतैः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर शिलापर साफ किये हुए सुनहरी पाँखवाले तिहत्तर बाणोंसे, जो धनुषको कानतक खींचकर छोड़े गये थे, दुर्योधनने वेगपूर्वक सात्यकिको पीड़ित कर दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य संदधतश्चेषुं संहितेषुं च कार्मुकम्।
आच्छिनत् सात्यकिस्तूर्णं शरैश्चैवाप्यवीविधत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
तस्य संदधतश्चेषुं संहितेषुं च कार्मुकम्।
आच्छिनत् सात्यकिस्तूर्णं शरैश्चैवाप्यवीविधत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सात्यकिने संधान करते हुए दुर्योधनके बाणको और जिसपर वह बाण रखा गया था उस धनुषको तुरंत ही काट डाला तथा बहुत-से बाण मारकर दुर्योधनको भी घायल कर दिया॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गाढविद्धो व्यथितः प्रत्यपायाद् रथान्तरे।
दुर्योधनो महाराज दाशार्हशरपीडितः ॥ ४४ ॥
मूलम्
स गाढविद्धो व्यथितः प्रत्यपायाद् रथान्तरे।
दुर्योधनो महाराज दाशार्हशरपीडितः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय दुर्योधन सात्यकिके बाणोंसे गहरी चोट खाकर पीड़ित एवं व्यथित हो उठा और रथके भीतर चला गया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाश्वस्य तु पुत्रस्ते सात्यकिं पुनरभ्ययात्।
विसृजन्निषुजालानि युयुधानरथं प्रति ॥ ४५ ॥
मूलम्
समाश्वस्य तु पुत्रस्ते सात्यकिं पुनरभ्ययात्।
विसृजन्निषुजालानि युयुधानरथं प्रति ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर धीरे-धीरे कुछ आराम मिलनेपर आपका पुत्र पुनः सात्यकिपर चढ़ आया और उनके रथपर बाणोंके जाल बिछाने लगा॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव सात्यकिर्बाणान् दुर्योधनरथं प्रति।
सततं विसृजन् राजंस्तत् संकुलमवर्तत ॥ ४६ ॥
मूलम्
तथैव सात्यकिर्बाणान् दुर्योधनरथं प्रति।
सततं विसृजन् राजंस्तत् संकुलमवर्तत ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी प्रकार सात्यकि भी दुर्योधनके रथपर निरन्तर बाण-वर्षा करने लगे। इससे वह संग्राम संकुल (घमासान) युद्धके रूपमें परिणत हो गया॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रेषुभिः क्षिप्यमाणैः पतद्भिश्च शरीरिषु।
अग्नेरिव महाकक्षे शब्दः समभवन्महान् ॥ ४७ ॥
मूलम्
तत्रेषुभिः क्षिप्यमाणैः पतद्भिश्च शरीरिषु।
अग्नेरिव महाकक्षे शब्दः समभवन्महान् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ चलाये गये बाण जब देहधारियोंके ऊपर पड़ते थे, उस समय सूखे बाँस आदिके भारी ढेरमें लगी हुई आगके समान बड़े जोरसे शब्द होता था॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः शरसहस्रैश्च संछन्नं वसुधातलम्।
अगम्यरूपं च शरैराकाशं समपद्यत ॥ ४८ ॥
मूलम्
तयोः शरसहस्रैश्च संछन्नं वसुधातलम्।
अगम्यरूपं च शरैराकाशं समपद्यत ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके हजारों बाणोंसे पृथ्वी ढक गयी और आकाशमें भी बाणोंके कारण (पक्षियोंतकका) चलना-फिरना बंद हो गया॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राप्यधिकमालक्ष्य माधवं रथसत्तमम् ।
क्षिप्रमभ्यपतत् कर्णः परीप्संस्तनयं तव ॥ ४९ ॥
मूलम्
तत्राप्यधिकमालक्ष्य माधवं रथसत्तमम् ।
क्षिप्रमभ्यपतत् कर्णः परीप्संस्तनयं तव ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धमें महारथी सात्यकिको प्रबल होते देख कर्ण आपके पुत्रकी रक्षाके लिये शीघ्र ही बीचमें कूद पड़ा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु तं मर्षयामास भीमसेनो महाबलः।
सोऽभ्ययात्त्वरितः कर्णं विसृजन् सायकान् बहून् ॥ ५० ॥
मूलम्
न तु तं मर्षयामास भीमसेनो महाबलः।
सोऽभ्ययात्त्वरितः कर्णं विसृजन् सायकान् बहून् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु महाबली भीमसेन उसका यह कार्य सहन न कर सके, अतः बहुत-से बाणोंकी वर्षा करते हुए उन्होंने तुरंत ही कर्णपर धावा किया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य कर्णः शितान् बाणान् प्रतिहत्य हसन्निव।
धनुः शरांश्च चिच्छेद सूतं चाभ्यहनच्छरैः ॥ ५१ ॥
मूलम्
तस्य कर्णः शितान् बाणान् प्रतिहत्य हसन्निव।
धनुः शरांश्च चिच्छेद सूतं चाभ्यहनच्छरैः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कर्णने हँसते हुए-से उनके तीखे बाणोंको नष्ट करके धनुष और बाण भी काट डाले; फिर अनेक बाणोंद्वारा उनके सारथिको भी मार डाला॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्तु संक्रुद्धो गदामादाय पाण्डवः।
ध्वजं धनुश्च सूतं च सम्ममर्दाहवे रिपोः ॥ ५२ ॥
मूलम्
भीमसेनस्तु संक्रुद्धो गदामादाय पाण्डवः।
ध्वजं धनुश्च सूतं च सम्ममर्दाहवे रिपोः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे अत्यन्त कुपित होकर पाण्डुनन्दन भीमसेनने गदा हाथमें ले ली और उसके द्वारा युद्धस्थलमें शत्रुके ध्वज, धनुष और सारथिको भी कुचल डाला॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथचक्रं च कर्णस्य बभञ्ज स महाबलः।
भग्नचक्रे रथेऽतिष्ठदकम्पः शैलराडिव ॥ ५३ ॥
मूलम्
रथचक्रं च कर्णस्य बभञ्ज स महाबलः।
भग्नचक्रे रथेऽतिष्ठदकम्पः शैलराडिव ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, महाबली भीमने कर्णके रथका एक पहिया भी तोड़ डाला तो भी कर्ण टूटे पहियेवाले उस रथपर गिरिराजके समान अविचलभावसे खड़ा रहा॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकचक्रं रथं तस्य तमूहुः सुचिरं हयाः।
एकचक्रमिवार्कस्य रथं सप्त हया यथा ॥ ५४ ॥
मूलम्
एकचक्रं रथं तस्य तमूहुः सुचिरं हयाः।
एकचक्रमिवार्कस्य रथं सप्त हया यथा ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके घोड़े उसके एक पहियेवाले रथको बहुत देरतक ढोते रहे, मानो सूर्यके सात अश्व उनके एक चक्रवाले रथको खींच रहे हैं॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृष्यमाणः कर्णस्तु भीमसेनमयुध्यत ।
विविधैरिषुजालैश्च नानाशस्त्रैश्च संयुगे ॥ ५५ ॥
मूलम्
अमृष्यमाणः कर्णस्तु भीमसेनमयुध्यत ।
विविधैरिषुजालैश्च नानाशस्त्रैश्च संयुगे ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णको भीमसेनका यह पराक्रम सहन नहीं हुआ। वह नाना प्रकारके बाणसमूहों तथा अनेकानेक शस्त्रोंसे रणभूमिमें उनके साथ युद्ध करने लगा॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्तु संक्रुद्धः सूतपुत्रमयोधयत् ।
तस्मिंस्तथा वर्तमाने क्रुद्धो धर्मसुतोऽब्रवीत् ॥ ५६ ॥
पञ्चालानां नरव्याघ्रान् मत्स्यांश्च पुरुषर्षभान्।
मूलम्
भीमसेनस्तु संक्रुद्धः सूतपुत्रमयोधयत् ।
तस्मिंस्तथा वर्तमाने क्रुद्धो धर्मसुतोऽब्रवीत् ॥ ५६ ॥
पञ्चालानां नरव्याघ्रान् मत्स्यांश्च पुरुषर्षभान्।
अनुवाद (हिन्दी)
इससे भीमसेन अत्यन्त कुपित हो उठे और सुतपुत्र कर्णके साथ घोर युद्ध करने लगे। इस प्रकार जब वह युद्ध चल रहा था, उसी समय क्रोधमें भरे हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिरने पांचालोंके नरव्याघ्र वीरों और पुरुषरत्न मत्स्यदेशीय योद्धाओंसे कहा—॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये नः प्राणाः शिरो ये च ये नो योधा महारथाः॥५७॥
त एते धार्तराष्ट्रेषु विषक्ताः पुरुषर्षभाः।
किं तिष्ठत यथा मूढाः सर्वे विगतचेतसः ॥ ५८ ॥
मूलम्
ये नः प्राणाः शिरो ये च ये नो योधा महारथाः॥५७॥
त एते धार्तराष्ट्रेषु विषक्ताः पुरुषर्षभाः।
किं तिष्ठत यथा मूढाः सर्वे विगतचेतसः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुरुषशिरोमणि महारथी योद्धा हमारे प्राण और मस्तक हैं, वे ही धृतराष्ट्रपुत्रोंके साथ जूझ रहे हैं, फिर तुम सब लोग मूर्ख और अचेत मनुष्योंके समान यहाँ क्यों खड़े हो?॥५७-५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गच्छत यत्रैते युध्यन्ते मामका रथाः।
क्षात्रधर्मं पुरस्कृत्य सर्व एव गतज्वराः ॥ ५९ ॥
मूलम्
तत्र गच्छत यत्रैते युध्यन्ते मामका रथाः।
क्षात्रधर्मं पुरस्कृत्य सर्व एव गतज्वराः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ जाओ, जहाँ ये मेरे सब रथी क्षत्रियधर्मको सामने रखकर निश्चिन्तभावसे युद्ध कर रहे हैं॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयन्तो वध्यमानाश्च गतिमिष्टां गमिष्यथ।
जित्वा वा बहुभिर्यज्ञैर्यजध्वं भूरिदक्षिणैः ॥ ६० ॥
हता वा देवसाद् भूत्वा लोकान् प्राप्स्यथ पुष्कलान्।
मूलम्
जयन्तो वध्यमानाश्च गतिमिष्टां गमिष्यथ।
जित्वा वा बहुभिर्यज्ञैर्यजध्वं भूरिदक्षिणैः ॥ ६० ॥
हता वा देवसाद् भूत्वा लोकान् प्राप्स्यथ पुष्कलान्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोग विजयी होओ अथवा मारे जाओ, दोनों ही दशाओंमें उत्तम गति प्राप्त करोगे। जीतकर तो तुम प्रचुर दक्षिणाओंसे युक्त बहुसंख्यक यज्ञोंद्वारा भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना करो अथवा मारे जानेपर देवरूप होकर बहुत-से पुण्यलोक प्राप्त करो’॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते राज्ञा चोदिता वीरा योत्स्यमाना महारथाः ॥ ६१ ॥
क्षात्रधर्मं पुरस्कृत्य त्वरिता द्रोणमभ्ययुः।
मूलम्
ते राज्ञा चोदिता वीरा योत्स्यमाना महारथाः ॥ ६१ ॥
क्षात्रधर्मं पुरस्कृत्य त्वरिता द्रोणमभ्ययुः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरसे इस प्रकार प्रेरित हो उन वीर महारथियोंने युद्धके लिये उद्यत होकर क्षत्रियधर्मको सामने रखते हुए बड़ी उतावलीके साथ द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालास्त्वेकतो द्रोणमभ्यघ्नन् निशितैः शरैः ॥ ६२ ॥
भीमसेनपुरोगाश्चाप्येकतः पर्यवारयन् ।
मूलम्
पञ्चालास्त्वेकतो द्रोणमभ्यघ्नन् निशितैः शरैः ॥ ६२ ॥
भीमसेनपुरोगाश्चाप्येकतः पर्यवारयन् ।
अनुवाद (हिन्दी)
एक ओरसे पांचाल वीर तीखे बाणोंसे द्रोणाचार्यको मारने लगे और दूसरी ओरसे भीमसेन आदि वीरोंने उन्हें घेर रखा था॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसंस्तु पाण्डुपुत्राणां त्रयो जिह्मा महारथाः ॥ ६३ ॥
यमौ च भीमसेनश्च प्राक्रोशंस्ते धनंजयम्।
अभिद्रवार्जुन क्षिप्रं कुरून् द्रोणादपानुद ॥ ६४ ॥
मूलम्
आसंस्तु पाण्डुपुत्राणां त्रयो जिह्मा महारथाः ॥ ६३ ॥
यमौ च भीमसेनश्च प्राक्रोशंस्ते धनंजयम्।
अभिद्रवार्जुन क्षिप्रं कुरून् द्रोणादपानुद ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके तीन महारथी कुछ कुटिल स्वभावके थे—नकुल, सहदेव और भीमसेन। इन तीनोंने अर्जुनको पुकारा—‘अर्जुन! दौड़ो, दौड़ो और शीघ्र ही द्रोणाचार्यके पाससे इन कौरवोंको भगाओ॥६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत एनं हनिष्यन्ति पञ्चाला हतरक्षिणम्।
कौरवेयांस्ततः पार्थः सहसा समुपाद्रवत् ॥ ६५ ॥
मूलम्
तत एनं हनिष्यन्ति पञ्चाला हतरक्षिणम्।
कौरवेयांस्ततः पार्थः सहसा समुपाद्रवत् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब इनके रक्षक मारे जायँगे, तभी पांचाल वीर इन्हें मार सकेंगे।’ तब अर्जुनने सहसा कौरवयोद्धाओंपर आक्रमण किया॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालानेव तु द्रोणो धृष्टद्युम्नपुरोगमान्।
ममर्दुस्तरसा वीराः पञ्चमेऽहनि भारत ॥ ६६ ॥
मूलम्
पञ्चालानेव तु द्रोणो धृष्टद्युम्नपुरोगमान्।
ममर्दुस्तरसा वीराः पञ्चमेऽहनि भारत ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उधरसे द्रोणने धृष्टद्युम्न आदि पांचालोंपर ही धावा किया। उस पाँचवें दिनके युद्धमें वे सभी वीर वेगपूर्वक एक-दूसरेको रौंदने लगे॥६६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि संकुलयुद्धे एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणवधपर्वमें संकुलयुद्धविषयक एक सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८९॥
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जिधर बाणके फलका रुख हो, उससे विपरीत रुखवाले दो काँटोंसे युक्त बाणको ‘कर्णी’ कहते हैं। शरीरमें धँस जानेपर यदि उसे निकाला जाय तो वह आँतोंको भी अपने साथ खींच लेता है, इसलिये निन्द्य है। [^२]:‘नालीक’ नामक बाण अत्यन्त छोटा होता है, वह शरीरमें पूरा-का-पूरा डूब जाता है, अतः उसे निकालना कठिन हो जाता है। [^३]:बाणके डंडे और फलके संधि-स्थानमें, जो अत्यन्त पतला होता है, उस बाणको ‘वस्तिक’ कहते हैं। उसे शरीरसे निकालनेपर वह बीचसे टूट जाता है, फल भीतर रह जाता है और केवल डंडा बाहर निकल पाता है। [^४]:‘सूची’ नामक बाण भी कर्णीके ही समान होता है। अन्तर इतना ही है कि इसमें बहुत-से कण्टक होते हैं। [^५]:कुछ लोग ‘कपिश’ को भी सूचीके ही समान मानते हैं। किन्हींके मतमें ‘कपिश’ का फल बंदरकी हड्डीका बना होता है। अधिकांश लोगोंका मत है कि ‘कपिश’ काले लोहेका बना होता है, उसका हलका आघात लगनेपर भी वह शरीरमें गहराईतक घुस जाता है। मेदिनीकोषके अनुसार कपिशका अर्थ काला है भी। [^६]:-[^७]:जिसका फल गायकी हड्डीका बना हो, वह ‘गवास्थिज’ और जिसका हाथीकी हड्डीका बना हो, वह ‘गजास्थिज’ कहलाता है। इसका असर भी विषलिप्त बाणके समान ही होता है। ↩︎