१८८ संकुलयुद्धे

भागसूचना

अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुःशासन और सहदेवका, कर्ण और भीमसेनका तथा द्रोणाचार्य और अर्जुनका घोर युद्ध

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुःशासनः क्रुद्धः सहदेवमुपाद्रवत्।
रथवेगेन तीव्रेण कम्पयन्निव मेदिनीम् ॥ १ ॥

मूलम्

ततो दुःशासनः क्रुद्धः सहदेवमुपाद्रवत्।
रथवेगेन तीव्रेण कम्पयन्निव मेदिनीम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर अपने रथके तीव्र वेगसे पृथ्वीको कँपाते हुए-से दुःशासनने कुपित होकर सहदेवपर आक्रमण किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यापतत एवाशु भल्लेनामित्रकर्शनः ।
माद्रीपुत्रः शिरो यन्तुः सशिरस्त्राणमच्छिनत् ॥ २ ॥

मूलम्

तस्यापतत एवाशु भल्लेनामित्रकर्शनः ।
माद्रीपुत्रः शिरो यन्तुः सशिरस्त्राणमच्छिनत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके आते ही शत्रुसूदन माद्रीकुमार सहदेवने शीघ्र ही एक भल्ल मारकर दुःशासनके सारथिका मस्तक शिरस्त्राणसहित काट डाला॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैनं दुःशासनः सूतं नापि कश्चन सैनिकः।
कृत्तोत्तमाङ्गमाशुत्वात् सहदेवेन बुद्धवान् ॥ ३ ॥

मूलम्

नैनं दुःशासनः सूतं नापि कश्चन सैनिकः।
कृत्तोत्तमाङ्गमाशुत्वात् सहदेवेन बुद्धवान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कार्यमें उन्होंने ऐसी फुर्ती दिखायी कि न तो दुःशासन और न दूसरा ही कोई सैनिक इस बातको जान सका कि सहदेवने सारथिका सिर काट डाला है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा त्वसंगृहीतत्वात् प्रयान्त्यश्वा यथासुखम्।
ततो दुःशासनः सूतं बुबुधे गतचेतसम् ॥ ४ ॥

मूलम्

यदा त्वसंगृहीतत्वात् प्रयान्त्यश्वा यथासुखम्।
ततो दुःशासनः सूतं बुबुधे गतचेतसम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रास छूट जानेके कारण घोड़े अपनी मौजसे इधर-उधर भागने लगे, तब दुःशासनको यह ज्ञात हुआ कि मेरा सारथि मारा गया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हयान् संनिगृह्याजौ स्वयं हयविशारदः।
युयुधे रथिनां श्रेष्ठो लघु चित्रं च सुष्ठु च॥५॥

मूलम्

स हयान् संनिगृह्याजौ स्वयं हयविशारदः।
युयुधे रथिनां श्रेष्ठो लघु चित्रं च सुष्ठु च॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंमें श्रेष्ठ दुःशासन अश्व-संचालनकी कलामें निपुण था। वह रणभूमिमें स्वयं ही घोड़ोंको काबूमें करके शीघ्रतापूर्वक विचित्र रीतिसे अच्छी तरह युद्ध करने लगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्यापूजयन् कर्म स्वे परे चापि संयुगे।
हतसूतरथेनाजौ व्यचरद् यदभीतवत् ॥ ६ ॥

मूलम्

तदस्यापूजयन् कर्म स्वे परे चापि संयुगे।
हतसूतरथेनाजौ व्यचरद् यदभीतवत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारथिके मारे जानेपर भी दुःशासन उस रथके द्वारा युद्धभूमिमें निर्भय-सा विचरता रहा; उसके इस कर्मकी अपने और शत्रुपक्षके लोगोंने भी प्रशंसा की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवस्तु तानश्वांस्तीक्ष्णैर्बाणैरवाकिरत् ।
पीड्यमानाः शरैश्चाशु प्राद्रवंस्ते ततस्ततः ॥ ७ ॥

मूलम्

सहदेवस्तु तानश्वांस्तीक्ष्णैर्बाणैरवाकिरत् ।
पीड्यमानाः शरैश्चाशु प्राद्रवंस्ते ततस्ततः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेव उन घोड़ोंपर तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे। उन बाणोंसे पीड़ित हुए वे घोड़े शीघ्र ही इधर-उधर भागने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स रश्मिषु विषक्तत्वादुत्ससर्ज शरासनम्।
धनुषा कर्म कुर्वंस्तु रश्मींश्च पुनरुत्सृजत् ॥ ८ ॥

मूलम्

स रश्मिषु विषक्तत्वादुत्ससर्ज शरासनम्।
धनुषा कर्म कुर्वंस्तु रश्मींश्च पुनरुत्सृजत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःशासन जब घोड़ोंकी रास सँभालने लगता तो धनुष छोड़ देता और जब धनुषसे काम लेता तो विवश होकर घोड़ोंकी रास छोड़ देता था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिद्रेष्वेतेषु तं बाणैर्माद्रीपुत्रोऽभ्यवाकिरत् ।
परीप्संस्त्वत्सुतं कर्णस्तदन्तरमवाप तत् ॥ ९ ॥

मूलम्

छिद्रेष्वेतेषु तं बाणैर्माद्रीपुत्रोऽभ्यवाकिरत् ।
परीप्संस्त्वत्सुतं कर्णस्तदन्तरमवाप तत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी दुर्बलताके इन्हीं अवसरोंपर माद्रीकुमार सहदेव उसे बाणोंसे ढक देते थे। उस समय आपके पुत्रकी रक्षाके लिये कर्ण बीचमें कूद पड़ा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृकोदरस्ततः कर्णं त्रिभिर्भल्लैः समाहितः।
आकर्णपूर्णैरभ्यघ्नद् बाह्वोरुरसि चानदत् ॥ १० ॥

मूलम्

वृकोदरस्ततः कर्णं त्रिभिर्भल्लैः समाहितः।
आकर्णपूर्णैरभ्यघ्नद् बाह्वोरुरसि चानदत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भीमसेनने भी सावधान होकर धनुषको कानतक खींचकर छोड़े गये तीन भल्लोंद्वारा कर्णकी दोनों भुजाओं और छातीमें गहरी चोट पहुँचायी। फिर वे जोर-जोरसे गर्जना करने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निवृत्तस्ततः कर्णः संघट्टित इवोरगः।
भीममावारयामास विकिरन् निशितान् शरान् ॥ ११ ॥

मूलम्

स निवृत्तस्ततः कर्णः संघट्टित इवोरगः।
भीममावारयामास विकिरन् निशितान् शरान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पैरोंसे कुचले गये सर्पके समान कुपित हो कर्ण लौट पड़ा और तीखे बाणोंकी वर्षा करके भीमको रोकने लगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभूत् तुमुलं युद्धं भीमराधेययोस्तदा।
तौ वृषाविव नर्दन्तौ विवृत्तनयनावुभौ ॥ १२ ॥

मूलम्

ततोऽभूत् तुमुलं युद्धं भीमराधेययोस्तदा।
तौ वृषाविव नर्दन्तौ विवृत्तनयनावुभौ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो भीमसेन और राधापुत्र कर्णमें घोर युद्ध होने लगा। दोनों ही एक-दूसरेकी ओर विकृत दृष्टिसे देखते हुए साँड़ोंके समान गर्जने लगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेगेन महतान्योन्यं संरब्धावभिपेततुः ।
अभिसंश्लिष्टयोस्तत्र तयोराहवशौण्डयोः ॥ १३ ॥
विच्छिन्नशरपातत्वाद् गदायुद्धमवर्तत ।

मूलम्

वेगेन महतान्योन्यं संरब्धावभिपेततुः ।
अभिसंश्लिष्टयोस्तत्र तयोराहवशौण्डयोः ॥ १३ ॥
विच्छिन्नशरपातत्वाद् गदायुद्धमवर्तत ।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर दोनों परस्पर अत्यन्त कुपित हो बड़े वेगसे टूट पड़े। उन युद्धकुशल योद्धाओंके परस्पर अत्यन्त निकट आ जानेके कारण उनके बाण चलानेका क्रम टूट गया; इसलिये उनमें गदायुद्ध आरम्भ हो गया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदया भीमसेनस्तु कर्णस्य रथकूबरम् ॥ १४ ॥
बिभेद शतधा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत् ।

मूलम्

गदया भीमसेनस्तु कर्णस्य रथकूबरम् ॥ १४ ॥
बिभेद शतधा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भीमसेनने अपनी गदासे कर्णके रथका कूबर तोड़कर उसके सौ टुकड़े कर दिये, वह अद्भुत-सा कार्य हुआ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमस्य राधेयो गदामाविध्य वीर्यवान् ॥ १५ ॥
अवासृजद् रथे तां तु बिभेद गदया गदाम्।

मूलम्

ततो भीमस्य राधेयो गदामाविध्य वीर्यवान् ॥ १५ ॥
अवासृजद् रथे तां तु बिभेद गदया गदाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर पराक्रमी राधापुत्र कर्णने भीमकी ही गदा उठा ली और उसे घुमाकर उन्हींके रथपर फेंका; किंतु भीमने दूसरी गदासे उस गदाको तोड़ डाला॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमः पुनर्गुर्वीं चिक्षेपाधिरथेर्गदाम् ॥ १६ ॥
तां गदां बहुभिः कर्णः सुपुङ्खैः सुप्रवेजितैः।
प्रत्यविध्यत् पुनश्चान्यैः सा भीमं पुनराव्रजत् ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो भीमः पुनर्गुर्वीं चिक्षेपाधिरथेर्गदाम् ॥ १६ ॥
तां गदां बहुभिः कर्णः सुपुङ्खैः सुप्रवेजितैः।
प्रत्यविध्यत् पुनश्चान्यैः सा भीमं पुनराव्रजत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन्होंने अधिरथपुत्र कर्णपर पुनः एक भारी गदा छोड़ी। परंतु कर्णने तेज किये हुए सुन्दर पंखवाले दूसरे-दूसरे बहुत-से बाण मारकर उस गदाको बींध डाला। इससे वह पुनः भीमपर ही लौट आयी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यालीव मन्त्राभिहता कर्णबाणैरभिद्रुता ।
तस्याः प्रतिनिपातेन भीमस्य विपुलो ध्वजः ॥ १८ ॥
पपात सारथिश्चास्य मुमोह च गदाहतः।

मूलम्

व्यालीव मन्त्राभिहता कर्णबाणैरभिद्रुता ।
तस्याः प्रतिनिपातेन भीमस्य विपुलो ध्वजः ॥ १८ ॥
पपात सारथिश्चास्य मुमोह च गदाहतः।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके बाणोंसे आहत हो वह गदा मन्त्रसे मारी गयी सर्पिणीके समान लौटकर भीमसेनके ही रथपर गिरी। उसके गिरनेसे भीमसेनकी विशाल ध्वजा धराशायी हो गयी और उस गदाकी चोट खाकर उनका सारथि भी मूर्च्छित हो गया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कर्णं सायकानष्टौ व्यसृजत् क्रोधमूर्च्छितः ॥ १९ ॥
तैस्तस्य निशितैस्तीक्ष्णैर्भीमसेनो महाबलः ।
चिच्छेद परवीरघ्नः प्रहसन्निव भारत ॥ २० ॥
ध्वजं शरासनं चैव शरावापं च भारत।

मूलम्

स कर्णं सायकानष्टौ व्यसृजत् क्रोधमूर्च्छितः ॥ १९ ॥
तैस्तस्य निशितैस्तीक्ष्णैर्भीमसेनो महाबलः ।
चिच्छेद परवीरघ्नः प्रहसन्निव भारत ॥ २० ॥
ध्वजं शरासनं चैव शरावापं च भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रोधसे व्याकुल हुए भीमसेनने कर्णको आठ बाण मारे। भारत! शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले महाबली भीमसेनने हँसते हुए-से उन तेज धारवाले तीखे बाणोंद्वारा कर्णके ध्वज, धनुष और तरकसको काट गिराया॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णोऽप्यन्यद् धनुर्गृह्य हेमपृष्ठं दुरासदम् ॥ २१ ॥
ततः पुनस्तु राधेयो हयानस्य रथेषुभिः।
ऋक्षवर्णाञ्जघानाशु तथोभौ पार्ष्णिसारथी ॥ २२ ॥

मूलम्

कर्णोऽप्यन्यद् धनुर्गृह्य हेमपृष्ठं दुरासदम् ॥ २१ ॥
ततः पुनस्तु राधेयो हयानस्य रथेषुभिः।
ऋक्षवर्णाञ्जघानाशु तथोभौ पार्ष्णिसारथी ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राधापुत्र कर्णने पुनः सोनेकी पीठवाला दूसरा दुर्जय धनुष हाथमें लेकर रथपर रखे हुए बाणोंद्वारा भीमसेनके रीछके समान रंगवाले काले घोड़ों और दोनों पार्श्वरक्षकोंको शीघ्र ही मार डाला॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विपन्नरथो भीमो नकुलस्याप्लुतो रथम्।
हरिर्यथा गिरेः शृङ्गं समाक्रामदरिंदमः ॥ २३ ॥

मूलम्

स विपन्नरथो भीमो नकुलस्याप्लुतो रथम्।
हरिर्यथा गिरेः शृङ्गं समाक्रामदरिंदमः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह रथ नष्ट हो जानेसे शत्रुदमन भीमसेन जैसे सिंह पर्वतके शिखरपर चढ़ जाता है, उसी प्रकार उछलकर नकुलके रथपर जा बैठे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा द्रोणार्जुनौ चित्रमयुध्येतां महारथौ।
आचार्यशिष्यौ राजेन्द्र कृतप्रहरणौ युधि ॥ २४ ॥

मूलम्

तथा द्रोणार्जुनौ चित्रमयुध्येतां महारथौ।
आचार्यशिष्यौ राजेन्द्र कृतप्रहरणौ युधि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! इसी प्रकार उस युद्धस्थलमें आचार्य और शिष्य महारथी द्रोण तथा अर्जुन परस्पर प्रहार करते हुए विचित्र रीतिसे युद्ध कर रहे थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लघुसंधानयोगाभ्यां रथयोश्च रणेन च।
मोहयन्तौ मनुष्याणां चक्षूंषि च मनांसि च ॥ २५ ॥

मूलम्

लघुसंधानयोगाभ्यां रथयोश्च रणेन च।
मोहयन्तौ मनुष्याणां चक्षूंषि च मनांसि च ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शीघ्रतापूर्वक बाणोंके संधान और रथोंके योगसे अपने संग्रामद्वारा वे दोनों वीर लोगोंके नेत्रों और मनको भी मोह लेते थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपारमन्त ते सर्वे योधा भरतसत्तम।
अदृष्टपूर्वं पश्यन्तस्तद् युद्धं गुरुशिष्ययोः ॥ २६ ॥

मूलम्

उपारमन्त ते सर्वे योधा भरतसत्तम।
अदृष्टपूर्वं पश्यन्तस्तद् युद्धं गुरुशिष्ययोः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! गुरु और शिष्यके उस अपूर्व युद्धको देखते हुए सब योद्धा संग्रामसे विरत हो गये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचित्रान् पृतनामध्ये रथमार्गानुदीर्य तौ।
अन्योन्यमपसव्यं च कर्तुं वीरौ तदेषतुः ॥ २७ ॥

मूलम्

विचित्रान् पृतनामध्ये रथमार्गानुदीर्य तौ।
अन्योन्यमपसव्यं च कर्तुं वीरौ तदेषतुः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों वीर सेनाके बीचमें रथके विचित्र पैंतरे प्रकट करते हुए उस समय एक-दूसरेको दायें कर देनेकी चेष्टा करने लगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराक्रमं तयोर्योधा ददृशुस्ते सुविस्मिताः।
तयोः समभवद् युद्धं द्रोणपाण्डवयोर्महत् ॥ २८ ॥
आमिषार्थे महाराज गगने श्येनयोरिव।

मूलम्

पराक्रमं तयोर्योधा ददृशुस्ते सुविस्मिताः।
तयोः समभवद् युद्धं द्रोणपाण्डवयोर्महत् ॥ २८ ॥
आमिषार्थे महाराज गगने श्येनयोरिव।

अनुवाद (हिन्दी)

उन द्रोणाचार्य और पाण्डुपुत्र अर्जुनके पराक्रमको वे सब सैनिक अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। महाराज! जैसे मांसके टुकड़ेके लिये आकाशमें दो बाज लड़ रहे हों, उसी प्रकार राज्यके लिये उन दोनों गुरु-शिष्योंमें बड़ा भारी युद्ध हो रहा था॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यच्चकार द्रोणस्तु कुन्तीपुत्रजिगीषया ॥ २९ ॥
तत् तत् प्रतिजघानाशु प्रहसंस्तस्य पाण्डवः।

मूलम्

यद् यच्चकार द्रोणस्तु कुन्तीपुत्रजिगीषया ॥ २९ ॥
तत् तत् प्रतिजघानाशु प्रहसंस्तस्य पाण्डवः।

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य कुन्तीपुत्र अर्जुनको जीतनेकी इच्छासे जिस-जिस अस्त्रका प्रयोग करते थे, उस-उसको पाण्डुपुत्र अर्जुन हँसते हुए तत्काल काट देते थे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा द्रोणो न शक्नोति पाण्डवं स्म विशेषितुम् ॥ ३० ॥
ततः प्रादुश्चकारास्त्रमस्त्रमार्गविशारदः ।

मूलम्

यदा द्रोणो न शक्नोति पाण्डवं स्म विशेषितुम् ॥ ३० ॥
ततः प्रादुश्चकारास्त्रमस्त्रमार्गविशारदः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जब द्रोणाचार्य पाण्डुपुत्र अर्जुनकी अपेक्षा अपनी विशेषता न सिद्ध कर सके, तब अस्त्रमार्गोंके ज्ञाता गुरुदेवने दिव्यास्त्रोंको प्रकट किया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐन्द्रं पाशुपतं त्वाष्ट्रं वायव्यमथ वारुणम् ॥ ३१ ॥
मुक्तं मुक्तं द्रोणचापात् तज्जघान धनंजयः।

मूलम्

ऐन्द्रं पाशुपतं त्वाष्ट्रं वायव्यमथ वारुणम् ॥ ३१ ॥
मुक्तं मुक्तं द्रोणचापात् तज्जघान धनंजयः।

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके धनुषसे क्रमशः छूटे हुए ऐन्द्र, पाशुपत, त्वाष्ट्र, वायव्य तथा वारुण नामक अस्त्रको अर्जुनने तत्काल शान्त कर दिया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्राण्यस्त्रैर्यदा तस्य विधिवद्धन्ति पाण्डवः ॥ ३२ ॥
ततोऽस्त्रैः परमैर्दिव्यैर्द्रोणः पार्थमवाकिरत् ।

मूलम्

अस्त्राण्यस्त्रैर्यदा तस्य विधिवद्धन्ति पाण्डवः ॥ ३२ ॥
ततोऽस्त्रैः परमैर्दिव्यैर्द्रोणः पार्थमवाकिरत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जब पाण्डुकुमार अर्जुन आचार्यके सभी अस्त्रोंको अपने अस्त्रोंद्वारा विधिपूर्वक नष्ट करने लगे, तब द्रोणने परम दिव्य अस्त्रोंद्वारा अर्जुनको ढक दिया॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यदस्त्रं स पार्थाय प्रयुङ्‌क्ते विजिगीषया ॥ ३३ ॥
तस्य तस्य विघाताय तत् तद्धि कुरुतेऽर्जुनः।

मूलम्

यद् यदस्त्रं स पार्थाय प्रयुङ्‌क्ते विजिगीषया ॥ ३३ ॥
तस्य तस्य विघाताय तत् तद्धि कुरुतेऽर्जुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु विजयकी इच्छासे वे पार्थपर जिस-जिस अस्त्रका प्रयोग करते थे, उस-उसके विनाशके लिये अर्जुन वैसे ही अस्त्रोंका प्रयोग करते थे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वध्यमानेष्वस्त्रेषु दिव्येष्वपि यथाविधि ॥ ३४ ॥
अर्जुनेनार्जुनं द्रोणो मनसैवाभ्यपूजयत् ।

मूलम्

स वध्यमानेष्वस्त्रेषु दिव्येष्वपि यथाविधि ॥ ३४ ॥
अर्जुनेनार्जुनं द्रोणो मनसैवाभ्यपूजयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जब अर्जुनके द्वारा उनके विधिपूर्वक चलाये हुए दिव्यास्त्र भी प्रतिहत होने लगे, तब द्रोणने अर्जुनकी मन-ही-मन सराहना की॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेने चात्मानमधिकं पृथिव्यामधि भारत ॥ ३५ ॥
तेन शिष्येण सर्वेभ्यः शस्त्रविद्भ्यः परंतपः।

मूलम्

मेने चात्मानमधिकं पृथिव्यामधि भारत ॥ ३५ ॥
तेन शिष्येण सर्वेभ्यः शस्त्रविद्भ्यः परंतपः।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! शत्रुओंको संताप देनेवाले द्रोणाचार्य उस शिष्यके द्वारा अपने-आपको भूमण्डलके सभी शस्त्रवेत्ताओंसे श्रेष्ठ मानने लगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वार्यमाणस्तु पार्थेन तथा मध्ये महात्मनाम् ॥ ३६ ॥
यतमानोऽर्जुनं प्रीत्या प्रत्यवारयदुत्स्मयन् ।

मूलम्

वार्यमाणस्तु पार्थेन तथा मध्ये महात्मनाम् ॥ ३६ ॥
यतमानोऽर्जुनं प्रीत्या प्रत्यवारयदुत्स्मयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

महामनस्वी वीरोंके बीचमें अर्जुनके द्वारा इस प्रकार रोके जाते हुए द्रोणाचार्य प्रयत्न करके प्रसन्नतापूर्वक मुसकराते हुए स्वयं भी अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोकने लगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्तरिक्षे देवाश्च गन्धर्वाश्च सहस्रशः ॥ ३७ ॥
ऋषयः सिद्धसंघाश्च व्यतिष्ठन्त दिदृक्षया।

मूलम्

ततोऽन्तरिक्षे देवाश्च गन्धर्वाश्च सहस्रशः ॥ ३७ ॥
ऋषयः सिद्धसंघाश्च व्यतिष्ठन्त दिदृक्षया।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वह युद्ध देखनेकी इच्छासे आकाशमें बहुत-से देवता, सहस्रों गन्धर्व, ऋषि और सिद्धसमुदाय खड़े हो गये॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदप्सरोभिराकीर्णं यक्षगन्धर्वसंकुलम् ॥ ३८ ॥
श्रीमदाकाशमभवद् भूयो मेघाकुलं यथा।

मूलम्

तदप्सरोभिराकीर्णं यक्षगन्धर्वसंकुलम् ॥ ३८ ॥
श्रीमदाकाशमभवद् भूयो मेघाकुलं यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

अप्सराओं, यक्षों और गन्धर्वोंसे भरा हुआ आकाश ऐसी विशिष्ट शोभा पा रहा था, मानो उसमें मेघोंकी घटा घिर आयी हो॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र स्मान्तर्हिता वाचो व्यचरन्त पुनः पुनः ॥ ३९ ॥
द्रोणपार्थस्तवोपेता व्यश्रूयन्त नराधिप ।

मूलम्

तत्र स्मान्तर्हिता वाचो व्यचरन्त पुनः पुनः ॥ ३९ ॥
द्रोणपार्थस्तवोपेता व्यश्रूयन्त नराधिप ।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! वहाँ द्रोणाचार्य और अर्जुनकी स्तुतिसे युक्त अदृश्य व्यक्तियोंके मुखोंसे निकली हुई बातें बारंबार सुनायी देने लगीं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसृज्यमानेष्वस्त्रेषु ज्वालयत्सु दिशो दश ॥ ४० ॥
अब्रुवंस्तत्र सिद्धाश्च ऋषयश्च समागताः।

मूलम्

विसृज्यमानेष्वस्त्रेषु ज्वालयत्सु दिशो दश ॥ ४० ॥
अब्रुवंस्तत्र सिद्धाश्च ऋषयश्च समागताः।

अनुवाद (हिन्दी)

जब दिव्यास्त्रोंके प्रयोग होने लगे और उनके तेजसे दसों दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं, उस समय आकाशमें एकत्र हुए सिद्ध और ऋषि इस प्रकार वार्तालाप करने लगे—॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवेदं मानुषं युद्धं नासुरं न च राक्षसम् ॥ ४१ ॥
न दैवं न च गान्धर्वं ब्राह्मं ध्रुवमिदं परम्।
विचित्रमिदमाश्चर्यं न नो दृष्टं न च श्रुतम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

नैवेदं मानुषं युद्धं नासुरं न च राक्षसम् ॥ ४१ ॥
न दैवं न च गान्धर्वं ब्राह्मं ध्रुवमिदं परम्।
विचित्रमिदमाश्चर्यं न नो दृष्टं न च श्रुतम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह युद्ध न तो मनुष्योंका है, न असुरोंका, न राक्षसोंका है और न देवताओं एवं गन्धर्वोंका ही। निश्चय ही यह परम उत्तम ब्राह्म युद्ध है। ऐसा विचित्र एवं आश्चर्यजनक संग्राम हमलोगोंने न तो कभी देखा था और न सुना ही था॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति पाण्डवमाचार्यो द्रोणं चाप्यति पाण्डवः।
नानयोरन्तरं शक्यं द्रष्टुमन्येन केनचित् ॥ ४३ ॥

मूलम्

अति पाण्डवमाचार्यो द्रोणं चाप्यति पाण्डवः।
नानयोरन्तरं शक्यं द्रष्टुमन्येन केनचित् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्य द्रोण पाण्डुपुत्र अर्जुनसे बढ़कर हैं और पाण्डुपुत्र अर्जुन भी आचार्य द्रोणसे बढ़कर हैं। इन दोनोंमें कितना अन्तर है, इसे दूसरा कोई नहीं देख सकता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि रुद्रो द्विधाकृत्य
युध्येतात्मानम् आत्मना।
तत्र शक्योपमा कर्तुम्
अन्यत्र तु न विद्यते ॥ ४४ ॥+++(5)+++

मूलम्

यदि रुद्रो द्विधाकृत्य युध्येतात्मानमात्मना।
तत्र शक्योपमा कर्तुमन्यत्र तु न विद्यते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि भगवान् शंकर अपने दो रूप बनाकर स्वयं ही अपने साथ युद्ध करें तो उसी युद्धसे इनकी उपमा दी जा सकती है और कहीं इन दोनोंकी समता नहीं है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानमेकस्थमाचार्ये ज्ञानं योगश्च पाण्डवे।
शौर्यमेकस्थमाचार्ये बलं शौर्यं च पाण्डवे ॥ ४५ ॥

मूलम्

ज्ञानमेकस्थमाचार्ये ज्ञानं योगश्च पाण्डवे।
शौर्यमेकस्थमाचार्ये बलं शौर्यं च पाण्डवे ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्य द्रोणमें सारा ज्ञान एकत्र संचित है; परंतु पाण्डुपुत्र अर्जुनमें ज्ञानके साथ-साथ योग भी है। इसी प्रकार आचार्य द्रोणमें सारा शौर्य एक स्थानपर आ गया है; परंतु पाण्डुनन्दन अर्जुनमें शौर्यके साथ बल भी है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेमौ शक्यौ महेष्वासौ युद्धे क्षपयितुं परैः।
इच्छमानौ पुनरिमौ हन्येतां सामरं जगत् ॥ ४६ ॥

मूलम्

नेमौ शक्यौ महेष्वासौ युद्धे क्षपयितुं परैः।
इच्छमानौ पुनरिमौ हन्येतां सामरं जगत् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये दोनों महाधनुर्धर वीर युद्धमें दूसरे किन्हीं योद्धाओंके द्वारा नहीं मारे जा सकते। परंतु यदि ये दोनों चाहें तो देवताओंसहित सम्पूर्ण जगत्‌का विनाश कर सकते हैं’॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यब्रुवन् महाराज दृष्ट्‌वा तौ पुरुषर्षभौ।
अन्तर्हितानि भूतानि प्रकाशानि च सर्वशः ॥ ४७ ॥

मूलम्

इत्यब्रुवन् महाराज दृष्ट्‌वा तौ पुरुषर्षभौ।
अन्तर्हितानि भूतानि प्रकाशानि च सर्वशः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उन दोनों पुरुषप्रवर वीरोंको देखकर आकाशमें छिपे हुए तथा प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले प्राणी भी सब ओर यही बातें कह रहे थे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं प्रादुश्चक्रे महामतिः।
संतापयन् रणे पार्थं भूतान्यन्तर्हितानि च ॥ ४८ ॥

मूलम्

ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं प्रादुश्चक्रे महामतिः।
संतापयन् रणे पार्थं भूतान्यन्तर्हितानि च ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् परम बुद्धिमान् द्रोणाचार्यने रणभूमिमें अर्जुनको तथा आकाशवर्ती अदृश्य प्राणियोंको संताप देते हुए ब्रह्मास्त्र प्रकट किया॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चचाल पृथिवी सपर्वतवनद्रुमा ।
ववौ च विषमो वायुः सागराश्चापि चुक्षुभुः ॥ ४९ ॥

मूलम्

ततश्चचाल पृथिवी सपर्वतवनद्रुमा ।
ववौ च विषमो वायुः सागराश्चापि चुक्षुभुः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो पर्वत, वन और वृक्षोंसहित धरती डोलने लगी, आँधी उठ गयी और समुद्रोंमें ज्वार आ गया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्रासो महानासीत् कुरुपाण्डवसेनयोः ।
सर्वेषां चैव भूतानामुद्यतेऽस्त्रे महात्मना ॥ ५० ॥

मूलम्

ततस्त्रासो महानासीत् कुरुपाण्डवसेनयोः ।
सर्वेषां चैव भूतानामुद्यतेऽस्त्रे महात्मना ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना द्रोणके द्वारा ब्रह्मास्त्रके उठाये जाते ही कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाओंपर तथा समस्त प्राणियोंमें बड़ा भारी आतंक छा गया॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पार्थोऽप्यसम्भ्रान्तस्तदस्त्रं प्रतिजघ्निवान् ।
ब्रह्मास्त्रेणैव राजेन्द्र ततः सर्वमशीशमत् ॥ ५१ ॥

मूलम्

ततः पार्थोऽप्यसम्भ्रान्तस्तदस्त्रं प्रतिजघ्निवान् ।
ब्रह्मास्त्रेणैव राजेन्द्र ततः सर्वमशीशमत् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तब अर्जुनने भी बिना किसी घबराहटके ब्रह्मास्त्रसे ही द्रोणाचार्यके उस अस्त्रको दबा दिया; फिर सारा उपद्रव शान्त हो गया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा न गम्यते पारं तयोरन्यतरस्य वा।
ततः संकुलयुद्धेन तद् युद्धं व्याकुलीकृतम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

यदा न गम्यते पारं तयोरन्यतरस्य वा।
ततः संकुलयुद्धेन तद् युद्धं व्याकुलीकृतम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब द्रोणाचार्य और अर्जुनमेंसे कोई भी किसीको परास्त न कर सका, तब सामूहिक युद्धके द्वारा उस संग्रामको व्यापक बना दिया गया॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाज्ञायत ततः किंचित् पुनरेव विशाम्पते।
प्रवृत्ते तुमुले युद्धे द्रोणपाण्डवयोर्मृधे ॥ ५३ ॥

मूलम्

नाज्ञायत ततः किंचित् पुनरेव विशाम्पते।
प्रवृत्ते तुमुले युद्धे द्रोणपाण्डवयोर्मृधे ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! रणभूमिमें द्रोणाचार्य और अर्जुनमें घमासान युद्ध छिड़ जानेपर फिर किसीको कुछ सूझ नहीं रहा था॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(द्रोणो मुक्त्वा रणे पार्थं पञ्चालानन्वधावत।
अर्जुनोऽपि रणे द्रोणं त्यक्त्वा प्राद्रावयत् कुरून्॥

मूलम्

(द्रोणो मुक्त्वा रणे पार्थं पञ्चालानन्वधावत।
अर्जुनोऽपि रणे द्रोणं त्यक्त्वा प्राद्रावयत् कुरून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यने युद्धस्थलमें अर्जुनको छोड़कर पांचालोंपर धावा किया और अर्जुनने भी वहाँ द्रोणाचार्यका मुकाबला छोड़कर कौरव-सैनिकोंको वेगपूर्वक खदेड़ना आरम्भ किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरौघैरथ ताभ्यां तु छायाभूतं महामृधे।
तुमुलं प्रबभौ राजन् सर्वस्य जगतो भयम्॥)

मूलम्

शरौघैरथ ताभ्यां तु छायाभूतं महामृधे।
तुमुलं प्रबभौ राजन् सर्वस्य जगतो भयम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस महासमरमें उन दोनोंने अपने बाणसमूहोंद्वारा सब कुछ अन्धकारसे आच्छन्न कर दिया। वह तुमुल युद्ध सम्पूर्ण जगत्‌के लिये भयदायक प्रतीत हो रहा था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरजालैः समाकीर्णे मेघजालैरिवाम्बरे ।
नापतच्च ततः कश्चिदन्तरिक्षचरस्तदा ॥ ५४ ॥

मूलम्

शरजालैः समाकीर्णे मेघजालैरिवाम्बरे ।
नापतच्च ततः कश्चिदन्तरिक्षचरस्तदा ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें इस प्रकार बाणोंका जाल बिछ गया, मानो वहाँ मेघोंकी घटा घिर आयी हो। इससे वहाँ उस समय कोई आकाशचारी पक्षी भी कहीं उड़कर न जा सका॥५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि संकुलयुद्धे अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणवधपर्वमें घमासान युद्धविषयक एक सौ अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५६ श्लोक हैं।)