१८७ नकुलयुद्धे

भागसूचना

सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युद्धस्थलकी भीषण अवस्थाका वर्णन और नकुलके द्वारा दुर्योधनकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तथैव महाराज दंशिता रणमूर्धनि।
संध्यागतं सहस्रांशुमादित्यमुपतस्थिरे ॥ १ ॥

मूलम्

ते तथैव महाराज दंशिता रणमूर्धनि।
संध्यागतं सहस्रांशुमादित्यमुपतस्थिरे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! वे समस्त योद्धा पूर्ववत् कवच बाँधे हुए ही युद्धके मुहानेपर प्रातः-संध्याके समय सहस्रों किरणोंसे सुशोभित भगवान् सूर्यका उपस्थान करने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदिते तु सहस्रांशौ तप्तकाञ्चनसप्रभे।
प्रकाशितेषु लोकेषु पुनर्युद्धमवर्तत ॥ २ ॥

मूलम्

उदिते तु सहस्रांशौ तप्तकाञ्चनसप्रभे।
प्रकाशितेषु लोकेषु पुनर्युद्धमवर्तत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान् सूर्यदेवका उदय होनेपर जब सम्पूर्ण लोकोंमें प्रकाश छा गया, तब पुनः युद्ध होने लगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वन्द्वानि तत्र यान्यासन् संसक्तानि पुरोदयात्।
तान्येवाभ्युदिते सूर्ये समसज्जन्त भारत ॥ ३ ॥

मूलम्

द्वन्द्वानि तत्र यान्यासन् संसक्तानि पुरोदयात्।
तान्येवाभ्युदिते सूर्ये समसज्जन्त भारत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! सूर्योदयसे पहले जिन लोगोंमें द्वन्द्व-युद्ध चल रहा था, सूर्योदयके बाद भी पुनः वे ही लोग परस्पर जूझने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथैर्हया हयैर्नागाः पादातैश्चापि कुञ्जराः।
हयैर्हयाः समाजग्मुः पादाताश्च पदातिभिः ॥ ४ ॥

मूलम्

रथैर्हया हयैर्नागाः पादातैश्चापि कुञ्जराः।
हयैर्हयाः समाजग्मुः पादाताश्च पदातिभिः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथोंसे घोड़े, घोड़ोंसे हाथी, पैदलोंसे हाथीसवार, घोड़ोंसे घोड़े तथा पैदलोंसे पैदल भिड़ गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथा रथैरिभैर्नागास्तथैव भरतर्षभ ।
संसक्ताश्च वियुक्ताश्च योधाः संन्यपतन् रणे ॥ ५ ॥

मूलम्

रथा रथैरिभैर्नागास्तथैव भरतर्षभ ।
संसक्ताश्च वियुक्ताश्च योधाः संन्यपतन् रणे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! रथोंसे रथ और हाथियोंसे हाथी गुँथ जाते थे। इस प्रकार कभी सटकर और कभी विलग होकर वे योद्धा रणभूमिमें गिरने लगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते रात्रौ कृतकर्माणः श्रान्ताः सूर्यस्य तेजसा।
क्षुत्पिपासापरीताङ्गा विसंज्ञा बहवोऽभवन् ॥ ६ ॥

मूलम्

ते रात्रौ कृतकर्माणः श्रान्ताः सूर्यस्य तेजसा।
क्षुत्पिपासापरीताङ्गा विसंज्ञा बहवोऽभवन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी रातमें युद्ध करके थक गये थे। फिर सबेरे सूर्यकी धूप लगनेसे उनके अंग-अंगमें भूख-प्यास व्याप्त हो गयी, जिससे बहुतेरे सैनिक अपनी सुध-बुध खो बैठे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खभेरीमृदङ्गानां कुञ्जराणां च गर्जताम्।
विस्फारितविकृष्टानां कार्मुकाणां च कूजताम् ॥ ७ ॥
शब्दः समभवद् राजन् दिविस्पृग् भरतर्षभ।

मूलम्

शङ्खभेरीमृदङ्गानां कुञ्जराणां च गर्जताम्।
विस्फारितविकृष्टानां कार्मुकाणां च कूजताम् ॥ ७ ॥
शब्दः समभवद् राजन् दिविस्पृग् भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतश्रेष्ठ! उस समय शंख, भेरी और मृदंगोंकी ध्वनि, गरजते हुए गजराजोंका चीत्कार और फैलाये तथा खींचे गये धनुषोंकी टंकार—इन सबका सम्मिलित शब्द आकाशमें गूँज उठा था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रवतां च पदातीनां शस्त्राणां पततामपि ॥ ८ ॥
हयानां ह्रेषतां चापि रथानां च निवर्तताम्।
क्रोशतां गर्जतां चैव तदाऽऽसीत् तुमुलं महत् ॥ ९ ॥

मूलम्

द्रवतां च पदातीनां शस्त्राणां पततामपि ॥ ८ ॥
हयानां ह्रेषतां चापि रथानां च निवर्तताम्।
क्रोशतां गर्जतां चैव तदाऽऽसीत् तुमुलं महत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दौड़ते हुए पैदलों, गिरते हुए शस्त्रों, हिनहिनाते हुए घोड़ों, लौटते हुए रथों तथा चीखते-चिल्लाते और गरजते हुए शूरवीरोंका मिला हुआ महाभयंकर शब्द वहाँ गूँज रहा था॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवृद्धस्तुमुलः शब्दो द्यामगच्छन्महांस्तदा ।
नानायुधनिकृत्तानां चेष्टतामातुरः स्वनः ॥ १० ॥
भूमावश्रूयत महांस्तदाऽऽसीत् कृपणं महत्।
पततां पात्यमानानां पत्त्यश्वरथदन्तिनाम् ॥ ११ ॥

मूलम्

विवृद्धस्तुमुलः शब्दो द्यामगच्छन्महांस्तदा ।
नानायुधनिकृत्तानां चेष्टतामातुरः स्वनः ॥ १० ॥
भूमावश्रूयत महांस्तदाऽऽसीत् कृपणं महत्।
पततां पात्यमानानां पत्त्यश्वरथदन्तिनाम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बढ़ा हुआ अत्यन्त भयानक शब्द उस समय स्वर्गलोकतक जा पहुँचा था। नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे कटकर छटपटाते हुए योद्धाओंका महान् आर्तनाद धरतीपर सुनायी दे रहा था। गिरते और गिराये जाते हुए पैदल, घोड़े, रथ और हाथियोंकी अत्यन्त दयनीय दशा दिखायी देती थी॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु सर्वेष्वनीकेषु व्यतिषक्तेष्वनेकशः ।
स्वे स्वाञ्जघ्नुः परे स्वांश्च स्वान् परेषां परे परान्॥१२॥

मूलम्

तेषु सर्वेष्वनीकेषु व्यतिषक्तेष्वनेकशः ।
स्वे स्वाञ्जघ्नुः परे स्वांश्च स्वान् परेषां परे परान्॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सभी सेनाओंमें बारंबार मुठभेड़ होती थी और उसमें अपने ही पक्षके लोग अपने ही पक्षवालोंको मार डालते थे। शत्रुपक्षके लोग भी अपने पक्षके लोगोंको मारते थे। शत्रुपक्षके जो स्वजन थे उनको तथा शत्रुओंको भी शत्रुपक्षके योद्धा मार डालते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीरबाहुविमृष्टाश्च योधेषु च गजेषु च।
राशयः प्रत्यदृश्यन्त वाससां नेजनेष्विव ॥ १३ ॥

मूलम्

वीरबाहुविमृष्टाश्च योधेषु च गजेषु च।
राशयः प्रत्यदृश्यन्त वाससां नेजनेष्विव ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कपड़े धोनेके घाटोंपर ढेर-के-ढेर वस्त्र दिखायी देते हैं, उसी प्रकार योद्धाओं और हाथियोंपर वीरोंकी भुजाओंद्वारा छोड़े गये अस्त्र-शस्त्रोंकी राशियाँ दिखायी देती थीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यतप्रतिपिष्टानां खड्‌गानां वीरबाहुभिः ।
स एव शब्दस्तद्रूपो वाससां निज्यतामिव ॥ १४ ॥

मूलम्

उद्यतप्रतिपिष्टानां खड्‌गानां वीरबाहुभिः ।
स एव शब्दस्तद्रूपो वाससां निज्यतामिव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूरवीरोंके हाथोंमें उठकर विपक्षी योद्धाओंके शस्त्रोंसे टकराये हुए खड्गोंका शब्द वैसा ही जान पड़ता था, जैसे धोबियोंके पटहोंपर पीटे जानेवाले कपड़ोंका शब्द होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्धासिभिस्तथा खड्‌गैस्तोमरैः सपरश्वधैः ।
निकृष्टयुद्धं संसक्तं महदासीत् सुदारुणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अर्धासिभिस्तथा खड्‌गैस्तोमरैः सपरश्वधैः ।
निकृष्टयुद्धं संसक्तं महदासीत् सुदारुणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर धारवाली और दुधारी तलवारों, तोमरों तथा फरसोंद्वारा जो अत्यन्त निकटसे युद्ध चल रहा था, वह भी बहुत ही क्रूरतापूर्ण एवं भयंकर था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजाश्वकायप्रभवां नरदेहप्रवाहिनीम् ।
शस्त्रमत्स्यसुसम्पूर्णां मांसशोणितकर्दमाम् ॥ १६ ॥
आर्तनादस्वनवतीं पताकाशस्त्रफेनिलाम् ।
नदीं प्रावर्तयन् वीराः परलोकौघगामिनीम् ॥ १७ ॥

मूलम्

गजाश्वकायप्रभवां नरदेहप्रवाहिनीम् ।
शस्त्रमत्स्यसुसम्पूर्णां मांसशोणितकर्दमाम् ॥ १६ ॥
आर्तनादस्वनवतीं पताकाशस्त्रफेनिलाम् ।
नदीं प्रावर्तयन् वीराः परलोकौघगामिनीम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ युद्ध करनेवाले वीरोंने खूनकी नदी बहा दी, जिसका प्रवाह परलोककी ओर ले जानेवाला था। वह रक्तकी नदी हाथी और घोड़ोंकी लाशोंसे प्रकट हुई थी। मनुष्योंके शरीरोंको बहाये लिये जाती थी। उसमें शस्त्ररूपी मछलियाँ भरी थीं। मांस और रक्त ही उसकी कीचड़ थे। पीड़ितोंके आर्तनाद ही उसकी कलकल ध्वनि थे तथा पताका और शस्त्र उसमें फेनके समान जान पड़ते थे॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरशक्त्यर्दिताः क्लान्ता रात्रिमूढाल्पचेतसः ।
विष्टभ्य सर्वगात्राणि व्यतिष्ठन् गजवाजिनः ॥ १८ ॥

मूलम्

शरशक्त्यर्दिताः क्लान्ता रात्रिमूढाल्पचेतसः ।
विष्टभ्य सर्वगात्राणि व्यतिष्ठन् गजवाजिनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रिके युद्धसे मोहित, अल्प चेतनावाले, बाणों और शक्तियोंसे पीड़ित तथा थके-माँदे हाथी एवं घोड़े आदि वाहन अपने सारे अंगोंको स्तब्ध करके वहाँ खड़े थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुभिः कवचैश्चित्रैः शिरोभिश्चारुकुण्डलैः ।
युद्धोपकरणैश्चान्यैस्तत्र तत्र चकाशिरे ॥ १९ ॥

मूलम्

बाहुभिः कवचैश्चित्रैः शिरोभिश्चारुकुण्डलैः ।
युद्धोपकरणैश्चान्यैस्तत्र तत्र चकाशिरे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धाओंकी कटी हुई भुजाओं, विचित्र कवचों, मनोहर कुण्डलमण्डित मस्तकों तथा इधर-उधर बिखरी हुई अन्यान्य युद्ध-सामग्रियोंसे रणभूमिके विभिन्न प्रदेश प्रकाशित हो रहे थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रव्यादसङ्घैराकीर्णं मृतैरर्धमृतैरपि ।
नासीद् रथपथस्तत्र सर्वमायोधनं प्रति ॥ २० ॥

मूलम्

क्रव्यादसङ्घैराकीर्णं मृतैरर्धमृतैरपि ।
नासीद् रथपथस्तत्र सर्वमायोधनं प्रति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं कच्चा मांस खानेवाले प्राणियोंका समुदाय भरा था, कहीं मरे और अधमरे जीव पड़े थे। इन सबके कारण उस सारी युद्धभूमिमें कहीं भी रथ जानेके लिये रास्ता नहीं मिलता था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मज्जत्सु चक्रेषु रथान् सत्त्वमास्थाय वाजिनः।
कथंचिदवहञ्श्रान्ता वेपमानाः शरार्दिताः ॥ २१ ॥
कुलसत्त्वबलोपेता वाजिनो वारणोपमाः ।

मूलम्

मज्जत्सु चक्रेषु रथान् सत्त्वमास्थाय वाजिनः।
कथंचिदवहञ्श्रान्ता वेपमानाः शरार्दिताः ॥ २१ ॥
कुलसत्त्वबलोपेता वाजिनो वारणोपमाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

रथोंके पहिये रक्तकी कीचमें डूब जाते थे, तो भी उन रथोंको बाणोंसे पीड़ित हो काँपते हुए और परिश्रमसे थके-माँदे घोड़े किसी प्रकार धैर्य धारण करके ढोते थे। वे सभी घोड़े उत्तम कुल, साहस और बलसे सम्पन्न तथा हाथियोंके समान विशालकाय थे (इसीलिये ऐसा पराक्रम कर पाते थे)॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विह्वलं तूर्णमुद्भ्रान्तं सभयं भारतातुरम् ॥ २२ ॥
बलमासीत् तदा सर्वमृते द्रोणार्जुनावुभौ।
तावेवास्तां निलयनं तावार्तायनमेव च ॥ २३ ॥
तावेवान्ये समासाद्य जग्मुर्वैवस्वतक्षयम् ।

मूलम्

विह्वलं तूर्णमुद्भ्रान्तं सभयं भारतातुरम् ॥ २२ ॥
बलमासीत् तदा सर्वमृते द्रोणार्जुनावुभौ।
तावेवास्तां निलयनं तावार्तायनमेव च ॥ २३ ॥
तावेवान्ये समासाद्य जग्मुर्वैवस्वतक्षयम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय द्रोणाचार्य और अर्जुन—इन दो वीरोंको छोड़कर शेष सारी सेना तुरंत विह्वल, उद्भ्रान्त, भयभीत और आतुर हो गयी। वे ही दोनों अपने-अपने पक्षके योद्धाओंके लिये छिपनेके स्थान थे और वे ही पीड़ितोंके आश्रय बने हुए थे। परंतु विपक्षी योद्धा इन्हीं दोनोंके समीप जाकर यमलोक पहुँच जाते थे॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आविग्नमभवत् सर्वं कौरवाणां महद् बलम् ॥ २४ ॥
पञ्चालानां च संसक्तं न प्राज्ञायत किंचन।
अन्तकाक्रीडसदृशं भीरूणां भयवर्धनम् ॥ २५ ॥

मूलम्

आविग्नमभवत् सर्वं कौरवाणां महद् बलम् ॥ २४ ॥
पञ्चालानां च संसक्तं न प्राज्ञायत किंचन।
अन्तकाक्रीडसदृशं भीरूणां भयवर्धनम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवों तथा पांचालोंके सारे विशाल सैन्य परस्पर मिलकर व्यग्र हो उठे थे। उस समय उनमेंसे किसी दलको अलग-अलग पहचाना नहीं जाता था। वह समरांगण यमराजका क्रीडास्थल-सा हो रहा था और कायरोंका भय बढ़ा रहा था॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिव्यां राजवंश्यानामुत्थिते महति क्षये।
न तत्र कर्णं द्रोणं वा नार्जुनं न युधिष्ठिरम्॥२६॥
न भीमसेनं न यमौ न पाञ्चाल्यं न सात्यकिम्।
न च दुःशासनं द्रौणिं न दुर्योधनसौबलौ ॥ २७ ॥
न कृपं मद्रराजं च कृतवर्माणमेव च।
न चान्यान् नैव चात्मानं न क्षितिं न दिशस्तथा॥२८॥
पश्याम राजन् संसक्तान् सैन्येन रजसाऽऽवृतान्।

मूलम्

पृथिव्यां राजवंश्यानामुत्थिते महति क्षये।
न तत्र कर्णं द्रोणं वा नार्जुनं न युधिष्ठिरम्॥२६॥
न भीमसेनं न यमौ न पाञ्चाल्यं न सात्यकिम्।
न च दुःशासनं द्रौणिं न दुर्योधनसौबलौ ॥ २७ ॥
न कृपं मद्रराजं च कृतवर्माणमेव च।
न चान्यान् नैव चात्मानं न क्षितिं न दिशस्तथा॥२८॥
पश्याम राजन् संसक्तान् सैन्येन रजसाऽऽवृतान्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भूमण्डलके राजवंशमें उत्पन्न हुए क्षत्रियोंका वह महान् संहार उपस्थित होनेपर वहाँ युद्धमें तत्पर हुए सब लोग सेनाद्वारा उड़ायी हुई धूलसे ढक गये थे। इसीलिये हमलोग वहाँ न तो कर्णको देख पाते थे, न द्रोणाचार्यको। न अर्जुन दिखायी देते थे, न युधिष्ठिर। भीमसेन, नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न और सात्यकिको भी हम नहीं देख पाते थे। दुःशासन, अश्वत्थामा, दुर्योधन, शकुनि, कृपाचार्य, शल्य, कृतवर्मा तथा अन्य महारथी भी हमारी दृष्टिमें नहीं आते थे। औरोंकी तो बात ही क्या है? हम अपने शरीरको भी नहीं देख पाते थे, पृथिवी और दिशाएँ भी नहीं सूझती थीं॥२६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भ्रान्ते तुमुले घोरे रजोमेघे समुत्थिते ॥ २९ ॥
द्वितीयामिव सम्प्राप्ताममन्यन्त निशां तदा।

मूलम्

सम्भ्रान्ते तुमुले घोरे रजोमेघे समुत्थिते ॥ २९ ॥
द्वितीयामिव सम्प्राप्ताममन्यन्त निशां तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ धूलरूपी मेघकी भयंकर एवं घोर घटा घुमड़-घुमड़कर घिर आयी थी, जिससे सब लोगोंको उस समय ऐसा मालूम होता था, मानो दूसरी रात्रि आ पहुँची हो॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ज्ञायन्ते कौरवेया न पञ्चाला न पाण्डवाः ॥ ३० ॥
न दिशो द्यौर्न चोर्वी च न समं विषमं तथा।

मूलम्

न ज्ञायन्ते कौरवेया न पञ्चाला न पाण्डवाः ॥ ३० ॥
न दिशो द्यौर्न चोर्वी च न समं विषमं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

उस अन्धकारमें न तो कौरव पहचाने जाते थे और न पांचाल तथा पाण्डव ही। दिशा, आकाश, भूमण्डल और सम-विषम स्थान आदिका भी पता नहीं चलता था॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तसंस्पर्शमापन्नान् परानप्यथवा स्वकान् ॥ ३१ ॥
न्यपातयंस्तदा युद्धे नराः स्म विजयैषिणः।

मूलम्

हस्तसंस्पर्शमापन्नान् परानप्यथवा स्वकान् ॥ ३१ ॥
न्यपातयंस्तदा युद्धे नराः स्म विजयैषिणः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो हाथकी पकड़में आ गये या छू गये, वे अपने हों या पराये, विजयकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य उन्हें तत्काल युद्धमें मार गिराते थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्धूतत्वात् तु रजसः प्रसेकाच्छोणितस्य च ॥ ३२ ॥
प्राशाम्यत रजो भौमं शीघ्रत्वादनिलस्य च।

मूलम्

उद्धूतत्वात् तु रजसः प्रसेकाच्छोणितस्य च ॥ ३२ ॥
प्राशाम्यत रजो भौमं शीघ्रत्वादनिलस्य च।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय तेज हवा चलनेसे कुछ धूल तो ऊपर उड़ गयी और कुछ योद्धाओंके रक्तसे सिंचकर नीचे बैठ गयी। इससे भूतलकी वह सारी धूलराशि शान्त हो गयी॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र नागा हया योधा रथिनोऽथ पदातयः ॥ ३३ ॥
पारिजातवनानीव व्यरोचन् रुधिरोक्षिताः ।

मूलम्

तत्र नागा हया योधा रथिनोऽथ पदातयः ॥ ३३ ॥
पारिजातवनानीव व्यरोचन् रुधिरोक्षिताः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वहाँ खूनसे लथपथ हुए हाथी, घोड़े, रथी और पैदल सैनिक पारिजातके जंगलोंके समान सुशोभित होने लगे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनः कर्णो द्रोणो दुःशासनस्तथा ॥ ३४ ॥
पाण्डवैः समसज्जन्त चतुर्भिश्चतुरो रथाः।

मूलम्

ततो दुर्योधनः कर्णो द्रोणो दुःशासनस्तथा ॥ ३४ ॥
पाण्डवैः समसज्जन्त चतुर्भिश्चतुरो रथाः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दुर्योधन, कर्ण, द्रोणाचार्य और दुःशासन—ये चार महारथी चार पाण्डवोंके साथ युद्ध करने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनः सह भ्रात्रा यमाभ्यां समसज्जत ॥ ३५ ॥
वृकोदरेण राधेयो भारद्वाजेन चार्जुनः।

मूलम्

दुर्योधनः सह भ्रात्रा यमाभ्यां समसज्जत ॥ ३५ ॥
वृकोदरेण राधेयो भारद्वाजेन चार्जुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन अपने भाई दुःशासनको साथ लेकर नकुल और सहदेवसे भिड़ गया। राधापुत्र कर्ण भीमसेनके साथ और अर्जुन आचार्य द्रोणके साथ युद्ध करने लगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् घोरं महदाश्चर्यं सर्वे प्रैक्षन्त सर्वतः ॥ ३६ ॥
रथर्षभाणामुग्राणां संनिपातममानुषम् ।

मूलम्

तद् घोरं महदाश्चर्यं सर्वे प्रैक्षन्त सर्वतः ॥ ३६ ॥
रथर्षभाणामुग्राणां संनिपातममानुषम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन उग्र महारथियोंका वह घोर, अत्यन्त आश्चर्यजनक और अमानुषिक संग्राम वहाँ सब लोग सब ओरसे देखने लगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथमार्गैर्विचित्रैस्तैर्विचित्ररथसंकुलम् ॥ ३७ ॥
अपश्यन् रथिनो युद्धं विचित्रं चित्रयोधिनाम्।

मूलम्

रथमार्गैर्विचित्रैस्तैर्विचित्ररथसंकुलम् ॥ ३७ ॥
अपश्यन् रथिनो युद्धं विचित्रं चित्रयोधिनाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

रथके विचित्र पैंतरोंसे विचरनेवाले तथा विचित्र युद्ध करनेवाले उन महारथियोंका विचित्र रथोंसे व्याप्त वह विचित्र युद्ध वहाँ सब रथी दर्शककी भाँति देखने लगे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतमानाः पराक्रान्ताः परस्परजिगीषवः ॥ ३८ ॥
जीमूता इव घर्मान्ते शरवर्षैरवाकिरन्।

मूलम्

यतमानाः पराक्रान्ताः परस्परजिगीषवः ॥ ३८ ॥
जीमूता इव घर्मान्ते शरवर्षैरवाकिरन्।

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छावाले वे वीर योद्धा प्रयत्नपूर्वक पराक्रममें तत्पर हो वर्षाकालके मेघोंकी भाँति बाणरूपी जलकी वर्षा कर रहे थे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते रथान् सूर्यसंकाशानास्थिताः पुरुषर्षभाः ॥ ३९ ॥
अशोभन्त यथा मेघाः शारदाश्चलविद्युतः।

मूलम्

ते रथान् सूर्यसंकाशानास्थिताः पुरुषर्षभाः ॥ ३९ ॥
अशोभन्त यथा मेघाः शारदाश्चलविद्युतः।

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके समान तेजस्वी रथोंपर बैठे हुए वे पुरुषप्रवर योद्धा चंचल चपलाओंकी चमकसे युक्त शरत्कालके मेघोंकी भाँति शोभा पा रहे थे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योधास्ते तु महाराज क्रोधामर्षसमन्विताः ॥ ४० ॥
स्पर्धिनश्च महेष्वासाः कृतयत्ना धनुर्धराः।
अभ्यगच्छंस्तथान्योन्यं मत्ता गजवृषा इव ॥ ४१ ॥

मूलम्

योधास्ते तु महाराज क्रोधामर्षसमन्विताः ॥ ४० ॥
स्पर्धिनश्च महेष्वासाः कृतयत्ना धनुर्धराः।
अभ्यगच्छंस्तथान्योन्यं मत्ता गजवृषा इव ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! क्रोध और अमर्षमें भरे हुए वे परस्पर स्पर्धा रखनेवाले, विजयके लिये प्रयत्नशील और विशाल धनुष धारण करनेवाले धनुर्धर योद्धा मतवाले गजराजोंके समान एक-दूसरेसे जूझ रहे थे॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न नूनं देहभेदोऽस्ति काले राजन्ननागते।
यत्र सर्वे न युगपद् व्यशीर्यन्त महारथाः ॥ ४२ ॥

मूलम्

न नूनं देहभेदोऽस्ति काले राजन्ननागते।
यत्र सर्वे न युगपद् व्यशीर्यन्त महारथाः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! निश्चय ही अन्तकाल आये बिना किसीके शरीरका नाश नहीं होता है, तभी तो उस संग्राममें क्षत-विक्षत हुए वे समस्त महारथी एक साथ ही नष्ट नहीं हो गये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुभिश्चरणैश्छिन्नैः शिरोभिश्च सकुण्डलैः ।
कार्मुकैर्विशिखैः प्रासैः खड्गैः परशुपट्टिशैः ॥ ४३ ॥
नालीकैः क्षुद्रनाराचैर्नखरैः शक्तितोमरैः ।
अन्यैश्च विविधाकारैर्धौतैः प्रहरणोत्तमैः ॥ ४४ ॥
विचित्रैर्विविधाकारैः शरीरावरणैरपि ।
विचित्रैश्च रथैर्भग्नैर्हतैश्च गजवाजिभिः ॥ ४५ ॥
शून्यैश्च नगराकारैर्हतयोधध्वजै रथैः ।
अमनुष्यैर्हयैस्त्रस्तैः कृष्यमाणैस्ततस्ततः ॥ ४६ ॥
वातायमानैरसकृद्धतवीरैरलङ्कृतैः ।
व्यजनैः कङ्कटैश्चैव ध्वजैश्च विनिपातितैः ॥ ४७ ॥
छत्रैराभरणैर्वस्त्रैर्माल्यैश्च ससुगन्धिभिः ।
हारैः किरीटैर्मुकुटैरुष्णीषैः किङ्किणीगणैः ॥ ४८ ॥
उरस्थैर्मणिभिर्निष्कैश्चूडामणिभिरेव च ।
आसीदायोधनं तत्र नभस्तारागणैरिव ॥ ४९ ॥

मूलम्

बाहुभिश्चरणैश्छिन्नैः शिरोभिश्च सकुण्डलैः ।
कार्मुकैर्विशिखैः प्रासैः खड्गैः परशुपट्टिशैः ॥ ४३ ॥
नालीकैः क्षुद्रनाराचैर्नखरैः शक्तितोमरैः ।
अन्यैश्च विविधाकारैर्धौतैः प्रहरणोत्तमैः ॥ ४४ ॥
विचित्रैर्विविधाकारैः शरीरावरणैरपि ।
विचित्रैश्च रथैर्भग्नैर्हतैश्च गजवाजिभिः ॥ ४५ ॥
शून्यैश्च नगराकारैर्हतयोधध्वजै रथैः ।
अमनुष्यैर्हयैस्त्रस्तैः कृष्यमाणैस्ततस्ततः ॥ ४६ ॥
वातायमानैरसकृद्धतवीरैरलङ्कृतैः ।
व्यजनैः कङ्कटैश्चैव ध्वजैश्च विनिपातितैः ॥ ४७ ॥
छत्रैराभरणैर्वस्त्रैर्माल्यैश्च ससुगन्धिभिः ।
हारैः किरीटैर्मुकुटैरुष्णीषैः किङ्किणीगणैः ॥ ४८ ॥
उरस्थैर्मणिभिर्निष्कैश्चूडामणिभिरेव च ।
आसीदायोधनं तत्र नभस्तारागणैरिव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय योद्धाओंके कटे हुए हाथ, पैर, कुण्डलमण्डित मस्तक, धनुष, बाण, प्रास, खड्ग, परशु, पट्टिश, नालीक, छोटे नाराच, नखर, शक्ति, तोमर, अन्यान्य नाना प्रकारके साफ किये हुए उत्तम आयुध, भाँति-भाँतिके विचित्र कवच, टूटे हुए विचित्र रथ तथा मारे गये हाथी, घोड़े, इधर-उधर पड़े थे। वायुके समान वेगशाली, सारथिशून्य, भयभीत घोड़े जिन्हें बारंबार इधर-उधर खींच रहे थे, जिनके रथी योद्धा और ध्वज नष्ट हो गये थे, ऐसे नगराकार सुनसान रथ भी वहाँ दृष्टिगोचर हो रहे थे। आभूषणोंसे विभूषित वीरोंके मृतशरीर यत्र-तत्र गिरे हुए थे, काटकर गिराये हुए व्यजन, कवच, ध्वज, छत्र, आभूषण, वस्त्र, सुगन्धित फूलोंके हार, रत्नोंके हार, किरीट, मुकुट, पगड़ी, किंकिणीसमूह, छातीपर धारण की जानेवाली मणि, सोनेके निष्क और चूड़ामणि आदि वस्तुएँ भी इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। इन सबसे भरा हुआ वह युद्धस्थल वहाँ नक्षत्रोंसे व्याप्त आकाशके समान सुशोभित हो रहा था॥४३—४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनस्यासीन्नकुलेन समागमः ।
अमर्षितेन क्रुद्धस्य क्रुद्धेनामर्षितस्य च ॥ ५० ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनस्यासीन्नकुलेन समागमः ।
अमर्षितेन क्रुद्धस्य क्रुद्धेनामर्षितस्य च ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय क्रुद्ध और असहिष्णु दुर्योधनका रोष और अमर्षसे भरे हुए नकुलके साथ युद्ध आरम्भ हुआ॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपसव्यं चकाराथ माद्रीपुत्रस्तवात्मजम् ।
किरन् शरशतैर्हृष्टस्तत्र नादो महानभूत् ॥ ५१ ॥

मूलम्

अपसव्यं चकाराथ माद्रीपुत्रस्तवात्मजम् ।
किरन् शरशतैर्हृष्टस्तत्र नादो महानभूत् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्रीपुत्र नकुलने आपके पुत्र दुर्योधनको दाहिने कर दिया और हर्षमें भरकर उसपर सैकड़ों बाणोंकी झड़ी लगा दी; फिर तो वहाँ महान् कोलाहल हुआ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपसव्यं कृतं संख्ये भ्रातृव्येनात्यमर्षिणा।
नामृष्यत तमप्याजौ प्रतिचक्रेऽपसव्यतः ॥ ५२ ॥
पुत्रस्तव महाराज राजा दुर्योधनो द्रुतम्।

मूलम्

अपसव्यं कृतं संख्ये भ्रातृव्येनात्यमर्षिणा।
नामृष्यत तमप्याजौ प्रतिचक्रेऽपसव्यतः ॥ ५२ ॥
पुत्रस्तव महाराज राजा दुर्योधनो द्रुतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अमर्षशील शत्रुके द्वारा युद्धस्थलमें अपने-आपको दाहिने किया हुआ देख दुर्योधन इसे सहन न कर सका। महाराज! फिर आपके पुत्र राजा दुर्योधनने भी तुरंत ही रणभूमिमें नकुलको भी अपने दाहिने ला देनेका प्रयत्न किया॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रतिचिकीर्षन्तमपसव्यं तु ते सुतम् ॥ ५३ ॥
न्यवारयत तेजस्वी नकुलश्चित्रमार्गवित् ।

मूलम्

ततः प्रतिचिकीर्षन्तमपसव्यं तु ते सुतम् ॥ ५३ ॥
न्यवारयत तेजस्वी नकुलश्चित्रमार्गवित् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तेजस्वी नकुल युद्धकी विचित्र प्रणालियोंके ज्ञाता थे। उन्होंने यह देखकर कि धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन मुझे दाहिने लानेकी चेष्टा कर रहा है, उसे सहसा रोक दिया॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सर्वतो निवार्यैनं शरजालेन पीडयन् ॥ ५४ ॥
विमुखं नकुलश्चक्रे तत् सैन्याः समपूजयन्।

मूलम्

स सर्वतो निवार्यैनं शरजालेन पीडयन् ॥ ५४ ॥
विमुखं नकुलश्चक्रे तत् सैन्याः समपूजयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

नकुलने दुर्योधनको अपने बाणसमूहोंद्वारा पीड़ित करते हुए उसे सब ओरसे रोककर युद्धसे विमुख कर दिया। उनके इस पराक्रमकी समस्त सैनिक सराहना करने लगे॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठ तिष्ठेति नकुलो बभाषे तनयं तव।
संस्मृत्य सर्वदुःखानि तव दुर्मन्त्रितं च तत् ॥ ५५ ॥

मूलम्

तिष्ठ तिष्ठेति नकुलो बभाषे तनयं तव।
संस्मृत्य सर्वदुःखानि तव दुर्मन्त्रितं च तत् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय आपकी कुमन्त्रणा तथा अपनेको प्राप्त हुए सम्पूर्ण दुःखोंको स्मरण करके नकुलने आपके पुत्रको ललकारते हुए कहा—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥५५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि नकुलयुद्धे सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणवधपर्वमें नकुलका युद्धविषयक एक सौ सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८७॥