भागसूचना
पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनका उपालम्भ और द्रोणाचार्यका व्यंगपूर्ण उत्तर
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुर्योधनो द्रोणमभिगम्याब्रवीदिदम् ।
अमर्षवशमापन्नो जनयन् हर्षतेजसी ॥ १ ॥
मूलम्
ततो दुर्योधनो द्रोणमभिगम्याब्रवीदिदम् ।
अमर्षवशमापन्नो जनयन् हर्षतेजसी ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर अमर्षमें भरे हुए दुर्योधनने द्रोणाचार्यके पास जाकर उनमें हर्षोत्साह और उत्तेजना पैदा करते हुए इस प्रकार कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मर्षणीयाः संग्रामे विश्रमन्तः श्रमान्विताः।
सपत्ना ग्लानमनसो लब्धलक्ष्या विशेषतः ॥ २ ॥
मूलम्
न मर्षणीयाः संग्रामे विश्रमन्तः श्रमान्विताः।
सपत्ना ग्लानमनसो लब्धलक्ष्या विशेषतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधन बोला— आचार्य! युद्धमें विशेषतः वे शत्रु, जो लक्ष्य बेधनेमें कभी चूकते न हों, यदि थककर विश्राम ले रहे हों और मनमें ग्लानि भरी होनेसे युद्धविषयक उत्साह खो बैठे हों, उनके प्रति कभी क्षमा नहीं दिखानी चाहिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तु मर्षितमस्माभिर्भवतः प्रियकाम्यया।
त एते परिविश्रान्ताः पाण्डवा बलवत्तराः ॥ ३ ॥
मूलम्
यत् तु मर्षितमस्माभिर्भवतः प्रियकाम्यया।
त एते परिविश्रान्ताः पाण्डवा बलवत्तराः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय जो हमने क्षमा की है—सोते समय शत्रुओंपर प्रहार नहीं किया है, वह केवल आपका प्रिय करनेकी इच्छासे ही हुआ है। इसका फल यह हुआ कि ये पाण्डव-सैनिक पूर्णतः विश्राम करके पुनः अत्यन्त प्रबल हो गये हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा परिहीनाः स्म तेजसा च बलेन च।
भवता पाल्यमानास्ते विवर्धन्ते पुनः पुनः ॥ ४ ॥
मूलम्
सर्वथा परिहीनाः स्म तेजसा च बलेन च।
भवता पाल्यमानास्ते विवर्धन्ते पुनः पुनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोग तेज और बलसे सर्वथा हीन हो गये हैं और वे पाण्डव आपसे सुरक्षित होनेके कारण बारंबार बढ़ते जा रहे हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यान्यस्त्राणि सर्वाणि ब्राह्मादीनि च यानि ह।
तानि सर्वाणि तिष्ठन्ति भवत्येव विशेषतः ॥ ५ ॥
मूलम्
दिव्यान्यस्त्राणि सर्वाणि ब्राह्मादीनि च यानि ह।
तानि सर्वाणि तिष्ठन्ति भवत्येव विशेषतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मास्त्र आदि जितने भी दिव्यास्त्र हैं, वे सब-के-सब विशेषरूपसे आपहीमें प्रतिष्ठित हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पाण्डवेया न वयं नान्ये लोके धनुर्धराः।
युध्यमानस्य ते तुल्याः सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ६ ॥
मूलम्
न पाण्डवेया न वयं नान्ये लोके धनुर्धराः।
युध्यमानस्य ते तुल्याः सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्ध करते समय आपकी समानता न तो पाण्डव, न हमलोग और न संसारके दूसरे धनुर्धर ही कर सकते हैं, यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससुरासुरगन्धर्वानिमाल्ँलोकान् द्विजोत्तम ।
सर्वास्त्रविद् भवान् हन्याद् दिव्यैरस्त्रैर्न संशयः ॥ ७ ॥
मूलम्
ससुरासुरगन्धर्वानिमाल्ँलोकान् द्विजोत्तम ।
सर्वास्त्रविद् भवान् हन्याद् दिव्यैरस्त्रैर्न संशयः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! आप सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता हैं। अतः चाहें तो अपने दिव्यास्त्रोंद्वारा देवता, असुर और गन्धर्वोंसहित इन सम्पूर्ण लोकोंका विनाश कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवान् मर्षयत्येतांस्त्वत्तो भीतान् विशेषतः।
शिष्यत्वं वा पुरस्कृत्य मम वा मन्दभाग्यताम् ॥ ८ ॥
मूलम्
स भवान् मर्षयत्येतांस्त्वत्तो भीतान् विशेषतः।
शिष्यत्वं वा पुरस्कृत्य मम वा मन्दभाग्यताम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भी आप इन पाण्डवोंको क्षमा करते जाते हैं। यद्यपि वे आपसे विशेष भयभीत रहते हैं, तो भी वे आपके शिष्य हैं, इस बातको सामने रखकर या मेरे दुर्भाग्यका विचार करके आप उनकी उपेक्षा करते हैं॥८॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुद्धर्षितो द्रोणः कोपितश्च सुतेन ते।
समन्युरब्रवीद् राजन् दुर्योधनमिदं वचः ॥ ९ ॥
मूलम्
एवमुद्धर्षितो द्रोणः कोपितश्च सुतेन ते।
समन्युरब्रवीद् राजन् दुर्योधनमिदं वचः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! जब इस प्रकार आपके पुत्रने द्रोणाचार्यको उत्साहित करते हुए उनका क्रोध बढ़ाया, तब वे कुपित होकर दुर्योधनसे इस प्रकार बोले—॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थविरः सन् परं शक्त्या घटे दुर्योधनाहवे।
अतः परं मया कार्यं क्षुद्रं विजयगृद्धिना ॥ १० ॥
मूलम्
स्थविरः सन् परं शक्त्या घटे दुर्योधनाहवे।
अतः परं मया कार्यं क्षुद्रं विजयगृद्धिना ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्योधन! यद्यपि मैं बूढ़ा हो गया, तथापि युद्धस्थलमें अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारी विजयके लिये चेष्टा करता हूँ, परंतु जान पड़ता है, अब तुम्हारी जीतकी इच्छासे मुझे नीच कार्य भी करना पड़ेगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनस्त्रविदयं सर्वो हन्तव्योऽस्त्रविदा जनः।
यद् भवान् मन्यते चापि शुभं वा यदि वाशुभम्॥११॥
तद् वै कर्तास्मि कौरव्य वचनात् तव नान्यथा।
मूलम्
अनस्त्रविदयं सर्वो हन्तव्योऽस्त्रविदा जनः।
यद् भवान् मन्यते चापि शुभं वा यदि वाशुभम्॥११॥
तद् वै कर्तास्मि कौरव्य वचनात् तव नान्यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये सब लोग दिव्यास्त्रोंको नहीं जानते और मैं जानता हूँ, इसलिये मुझे उन्हीं अस्त्रोंद्वारा इन सबको मारना पड़ेगा। कुरुनन्दन! तुम शुभ या अशुभ जो कुछ भी कराना उचित समझो, वह तुम्हारे कहनेसे करूँगा; उसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहत्य सर्वपञ्चालान् युद्धे कृत्वा पराक्रमम् ॥ १२ ॥
विमोक्ष्ये कवचं राजन् सत्येनायुधमालभे।
मूलम्
निहत्य सर्वपञ्चालान् युद्धे कृत्वा पराक्रमम् ॥ १२ ॥
विमोक्ष्ये कवचं राजन् सत्येनायुधमालभे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैं सत्यकी शपथ खाकर अपने धनुषको छूते हुए कहता हूँ कि ‘युद्धमें पराक्रम करके समस्त पांचालोंका वध किये बिना कवच नहीं उतारूँगा’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्यसे यच्च कौन्तेयमर्जुनं श्रान्तमाहवे ॥ १३ ॥
तस्य वीर्यं महाबाहो शृणु सत्येन कौरव।
मूलम्
मन्यसे यच्च कौन्तेयमर्जुनं श्रान्तमाहवे ॥ १३ ॥
तस्य वीर्यं महाबाहो शृणु सत्येन कौरव।
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु तुम जो कुन्तीकुमार अर्जुनको युद्धमें थका हुआ समझते हो, वह तुम्हारी भूल है। महाबाहु कुरुराज! मैं उनके पराक्रमका सचाईके साथ वर्णन करता हूँ, सुनो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं न देवा न गन्धर्वा न यक्षा न च राक्षसाः॥१४॥
उत्सहन्ते रणे जेतुं कुपितं सव्यसाचिनम्।
मूलम्
तं न देवा न गन्धर्वा न यक्षा न च राक्षसाः॥१४॥
उत्सहन्ते रणे जेतुं कुपितं सव्यसाचिनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धमें कुपित हुए सव्यसाची अर्जुनको न देवता, न गन्धर्व, न यक्ष और न राक्षस ही जीत सकते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाण्डवे येन भगवान् प्रत्युद्यातः सुरेश्वरः ॥ १५ ॥
सायकैर्वारितश्चापि वर्षमाणो महात्मना ।
मूलम्
खाण्डवे येन भगवान् प्रत्युद्यातः सुरेश्वरः ॥ १५ ॥
सायकैर्वारितश्चापि वर्षमाणो महात्मना ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस महामनस्वी वीरने खाण्डववनमें वर्षा करते हुए भगवान् देवराज इन्द्रका सामना किया और अपने बाणोंद्वारा उन्हें रोक दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यक्षा नागास्तथा दैत्या ये चान्ये बलगर्विताः ॥ १६ ॥
निहताः पुरुषेन्द्रेण तच्चापि विदितं तव।
मूलम्
यक्षा नागास्तथा दैत्या ये चान्ये बलगर्विताः ॥ १६ ॥
निहताः पुरुषेन्द्रेण तच्चापि विदितं तव।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषश्रेष्ठ अर्जुनने उस समय यक्ष, नाग, दैत्य तथा दूसरे भी जो बलका घमंड रखनेवाले वीर थे, उन सबको मार डाला था। यह बात तुम्हें मालूम ही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वा घोषयात्रायां चित्रसेनादयो जिताः ॥ १७ ॥
यूयं तैर्ह्रियमाणाश्च मोक्षिता दृढधन्वना।
मूलम्
गन्धर्वा घोषयात्रायां चित्रसेनादयो जिताः ॥ १७ ॥
यूयं तैर्ह्रियमाणाश्च मोक्षिता दृढधन्वना।
अनुवाद (हिन्दी)
‘घोषयात्राके समय जब चित्रसेन आदि गन्धर्व तुम्हें हरकर लिये जा रहे थे, उस समय सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले अर्जुनने ही उन सबको परास्त किया और तुम्हें बन्धनसे छुड़ाया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवातकवचाश्चापि देवानां शत्रवस्तथा ॥ १८ ॥
सुरैरवध्याः संग्रामे तेन वीरेण निर्जिताः।
मूलम्
निवातकवचाश्चापि देवानां शत्रवस्तथा ॥ १८ ॥
सुरैरवध्याः संग्रामे तेन वीरेण निर्जिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवशत्रु निवातकवच नामक दानव, जिन्हें संग्राममें देवता भी नहीं मार सकते थे, उसी वीर अर्जुनसे पराजित हुए हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानवानां सहस्राणि हिरण्यपुरवासिनाम् ॥ १९ ॥
विजिग्ये पुरुषव्याघ्रः स शक्यो मानुषैः कथम्।
मूलम्
दानवानां सहस्राणि हिरण्यपुरवासिनाम् ॥ १९ ॥
विजिग्ये पुरुषव्याघ्रः स शक्यो मानुषैः कथम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन पुरुषसिंह अर्जुनने हिरण्यपुरनिवासी सहस्रों दानवोंपर विजय पायी है, वे मनुष्योंद्वारा कैसे जीते जा सकते हैं?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं चैव ते सर्वं यथाबलमिदं तव ॥ २० ॥
क्षपितं पाण्डुपुत्रेण चेष्टतां नो विशाम्पते।
मूलम्
प्रत्यक्षं चैव ते सर्वं यथाबलमिदं तव ॥ २० ॥
क्षपितं पाण्डुपुत्रेण चेष्टतां नो विशाम्पते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रजानाथ! हमारे बहुत चेष्टा करनेपर भी पाण्डुपुत्र अर्जुनने जिस प्रकार तुम्हारी इस सेनाका संहार कर डाला है, यह सब तो तुम्हारी आँखोंके सामने ही है’॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तदाभिप्रशंसन्तमर्जुनं कुपितस्तदा ॥ २१ ॥
द्रोणं तव सुतो राजन् पुनरेवेदमब्रवीत्।
मूलम्
तं तदाभिप्रशंसन्तमर्जुनं कुपितस्तदा ॥ २१ ॥
द्रोणं तव सुतो राजन् पुनरेवेदमब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! इस प्रकार अर्जुनकी प्रशंसा करते हुए द्रोणाचार्यसे उस समय आपके पुत्रने कुपित होकर पुनः इस प्रकार कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं दुःशासनः कर्णः शकुनिर्मातुलश्च मे ॥ २२ ॥
हनिष्यामोऽर्जुनं संख्ये द्विधा कृत्वाद्य भारतीम्।
(तिष्ठ स त्वं महाबाहो नित्यं शिष्यः प्रियस्तव॥)
मूलम्
अहं दुःशासनः कर्णः शकुनिर्मातुलश्च मे ॥ २२ ॥
हनिष्यामोऽर्जुनं संख्ये द्विधा कृत्वाद्य भारतीम्।
(तिष्ठ स त्वं महाबाहो नित्यं शिष्यः प्रियस्तव॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज मैं, दुःशासन, कर्ण और मेरे मामा शकुनि कौरव-सेनाको दो भागोंमें बाँटकर युद्धमें अर्जुनको मार डालेंगे। महाबाहो! आप चुपचाप खड़े रहिये, क्योंकि अर्जुन सदासे ही आपके प्रिय शिष्य हैं’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा भारद्वाजो हसन्निव ॥ २३ ॥
अन्ववर्तत राजानं स्वस्ति तेऽस्त्विति चाब्रवीत्।
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा भारद्वाजो हसन्निव ॥ २३ ॥
अन्ववर्तत राजानं स्वस्ति तेऽस्त्विति चाब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनकी यह बात सुनकर द्रोणाचार्यने हँसते हुए-से उसकी बातका अनुमोदन किया और ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ऐसा कहकर वे राजा दुर्योधनसे पुनः इस प्रकार बोले—॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि गाण्डीवधन्वानं ज्वलन्तमिव तेजसा ॥ २४ ॥
अक्षयं क्षपयेत् कश्चित् क्षत्रियः क्षत्रियर्षभम्।
मूलम्
को हि गाण्डीवधन्वानं ज्वलन्तमिव तेजसा ॥ २४ ॥
अक्षयं क्षपयेत् कश्चित् क्षत्रियः क्षत्रियर्षभम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! अपने तेजसे प्रज्वलित होनेवाले क्षत्रिय-शिरोमणि गाण्डीवधारी अविनाशी अर्जुनको कौन क्षत्रिय मार सकता है?॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं न वित्तपतिर्नेन्द्रो न यमो न जलेश्वरः ॥ २५ ॥
नासुरोरगरक्षांसि क्षपयेयुः सहायुधम् ।
मूलम्
तं न वित्तपतिर्नेन्द्रो न यमो न जलेश्वरः ॥ २५ ॥
नासुरोरगरक्षांसि क्षपयेयुः सहायुधम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाथमें धनुष धारण किये हुए अर्जुनको न तो धनाध्यक्ष कुबेर, न इन्द्र, न यमराज, न जलके स्वामी वरुण और न असुर, नाग एवं राक्षस ही नष्ट कर सकते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूढास्त्वेतानि भाषन्ते यानीमान्यात्थ भारत ॥ २६ ॥
युद्धे ह्यर्जुनमासाद्य स्वस्तिमान् को व्रजेद् गृहान्।
मूलम्
मूढास्त्वेतानि भाषन्ते यानीमान्यात्थ भारत ॥ २६ ॥
युद्धे ह्यर्जुनमासाद्य स्वस्तिमान् को व्रजेद् गृहान्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! तुम जो कुछ कह रहे हो, ऐसी बातें मूर्ख मनुष्य कहा करते हैं। भला, युद्धमें अर्जुनका सामना करके कौन कुशलपूर्वक घरको लौट सकता है?॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु सर्वाभिशङ्कित्वान्निष्ठुरः पापनिश्चयः ॥ २७ ॥
श्रेयसस्त्वद्धिते युक्तांस्तत्तद् वक्तुमिहेच्छसि ।
मूलम्
त्वं तु सर्वाभिशङ्कित्वान्निष्ठुरः पापनिश्चयः ॥ २७ ॥
श्रेयसस्त्वद्धिते युक्तांस्तत्तद् वक्तुमिहेच्छसि ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम निष्ठुर और पापपूर्ण विचार रखनेवाले हो; अतः तुम्हारे मनमें सबपर संदेह बना रहता है, इसीलिये तुम्हारे हितमें ही तत्पर रहनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंको भी तुम ऐसी-ऐसी बातें सुनानेकी इच्छा रखते हो॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ त्वमपि कौन्तेयमात्मार्थे जहि मा चिरम् ॥ २८ ॥
त्वमप्याशंसये योद्धुं कुलजः क्षत्रियो ह्यसि।
इमान् किं क्षत्रियान् सर्वान् घातयिष्यस्यनागसः ॥ २९ ॥
मूलम्
गच्छ त्वमपि कौन्तेयमात्मार्थे जहि मा चिरम् ॥ २८ ॥
त्वमप्याशंसये योद्धुं कुलजः क्षत्रियो ह्यसि।
इमान् किं क्षत्रियान् सर्वान् घातयिष्यस्यनागसः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम भी जाओ, अपने हितके लिये कुन्तीकुमार अर्जुनको शीघ्र ही मार डालो। तुम भी तो कुलीन क्षत्रिय हो। मैं आशा करता हूँ, तुममें भी युद्ध करनेकी शक्ति है ही, फिर इन सम्पूर्ण निरपराध क्षत्रियोंको क्यों व्यर्थ कटवाओगे?॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमस्य मूलं वैरस्य तस्मादासादयार्जुनम्।
एष ते मातुलः प्राज्ञः क्षत्रधर्ममनुव्रतः ॥ ३० ॥
दुर्द्यूतदेवी गान्धारे प्रयात्वर्जुनमाहवे ।
मूलम्
त्वमस्य मूलं वैरस्य तस्मादासादयार्जुनम्।
एष ते मातुलः प्राज्ञः क्षत्रधर्ममनुव्रतः ॥ ३० ॥
दुर्द्यूतदेवी गान्धारे प्रयात्वर्जुनमाहवे ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम इस वैरकी जड़ हो, अतः स्वयं ही जाकर अर्जुनका सामना करो, गान्धारीनन्दन! ये कपटद्यूतके खिलाड़ी तुम्हारे मामा शकुनि भी बड़े बुद्धिमान् और क्षत्रियधर्ममें तत्पर रहनेवाले हैं। ये ही युद्धमें अर्जुनपर चढ़ाई करें॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषोऽक्षकुशलो जिह्मो द्यूतकृत् कितवः शठः ॥ ३१ ॥
देविता निकृतिप्रज्ञो युधि जेष्यति पाण्डवान्।
मूलम्
एषोऽक्षकुशलो जिह्मो द्यूतकृत् कितवः शठः ॥ ३१ ॥
देविता निकृतिप्रज्ञो युधि जेष्यति पाण्डवान्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये पासे फेंकनेमें बड़े कुशल हैं। कुटिलता, शठता और धूर्तता तो इनमें कूट-कूटकर भरी है। ये जूएके खिलाड़ी तो हैं ही, छल-विद्याके भी अच्छे जानकार हैं। युद्धमें पाण्डवोंको अवश्य जीत लेंगे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया कथितमत्यर्थं कर्णेन सह हृष्टवत् ॥ ३२ ॥
असकृच्छून्यवन्मोहाद् धृतराष्ट्रस्य शृण्वतः ।
अहं च तात कर्णश्च भ्राता दुःशासनश्च मे ॥ ३३ ॥
पाण्डुपुत्रान् हनिष्यामः सहिताः समरे त्रयः।
इति ते कत्थमानस्य श्रुतं संसदि संसदि ॥ ३४ ॥
मूलम्
त्वया कथितमत्यर्थं कर्णेन सह हृष्टवत् ॥ ३२ ॥
असकृच्छून्यवन्मोहाद् धृतराष्ट्रस्य शृण्वतः ।
अहं च तात कर्णश्च भ्राता दुःशासनश्च मे ॥ ३३ ॥
पाण्डुपुत्रान् हनिष्यामः सहिताः समरे त्रयः।
इति ते कत्थमानस्य श्रुतं संसदि संसदि ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्योधन! तुमने एकान्तस्थानके समान भरी सभामें धृतराष्ट्रके सुनते हुए कर्णके साथ अत्यन्त प्रसन्न-से होकर मोहवश बारंबार बहुत जोर देकर यह बात कही है कि ‘तात! मैं, कर्ण और भाई दुःशासन—ये तीन ही समरभूमिमें एक साथ होकर पाण्डवोंका वध कर डालेंगे।’ प्रत्येक सभामें ऐसी ही शेखी बघारते हुए तुम्हारी बात मैंने सुनी है॥३२—३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुतिष्ठ प्रतिज्ञां तां सत्यवाग् भव तैः सह।
एष ते पाण्डवः शत्रुरविशङ्कोऽग्रतः स्थितः ॥ ३५ ॥
क्षत्रधर्ममवेक्षस्व श्लाघ्यस्तव वधो जयात्।
मूलम्
अनुतिष्ठ प्रतिज्ञां तां सत्यवाग् भव तैः सह।
एष ते पाण्डवः शत्रुरविशङ्कोऽग्रतः स्थितः ॥ ३५ ॥
क्षत्रधर्ममवेक्षस्व श्लाघ्यस्तव वधो जयात्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपनी उस प्रतिज्ञाको पूर्ण करो। उन सबके साथ सत्यवादी बनो। ये तुम्हारे शत्रु पाण्डुपुत्र अर्जुन निर्भय होकर सामने खड़े हैं। क्षत्रियधर्मकी ओर दृष्टिपात करो। युद्धमें विजयकी अपेक्षा अर्जुनके हाथसे तुम्हारा वध भी हो जाय तो वह तुम्हारे लिये प्रशंसाकी बात होगी॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्तं भुक्तमधीतं च प्राप्तमैश्वर्यमीप्सितम् ॥ ३६ ॥
कृतकृत्योऽनृणश्चासि मा भैर्युध्यस्व पाण्डवम्।
मूलम्
दत्तं भुक्तमधीतं च प्राप्तमैश्वर्यमीप्सितम् ॥ ३६ ॥
कृतकृत्योऽनृणश्चासि मा भैर्युध्यस्व पाण्डवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमने बहुत-सा दान कर लिया, भोग भोग लिये, स्वाध्याय भी कर लिया और मनमाना ऐश्वर्य भी पा लिया। अब तुम कृतकृत्य और देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके ऋणसे मुक्त हो गये; अतः डरो मत। पाण्डुपुत्र अर्जुनके साथ युद्ध करो’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा समरे द्रोणो न्यवर्तत यतः परे।
द्वैधीकृत्य ततः सेनां युद्धं समभवत् तदा ॥ ३७ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा समरे द्रोणो न्यवर्तत यतः परे।
द्वैधीकृत्य ततः सेनां युद्धं समभवत् तदा ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर द्रोणाचार्य समरभूमिमें जिस ओर शत्रुओंकी सेना थी, उधर ही लौट पड़े। तत्पश्चात् सेनाके दो विभाग करके उसी क्षण युद्ध आरम्भ हो गया॥३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि द्रोणदुर्योधनभाषणे पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणवधपर्वमें द्रोणाचार्य और दुर्योधनका सम्भाषणविषयक एक सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८५॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ३७ श्लोक हैं।)