भागसूचना
द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कर्णने अर्जुनपर शक्ति क्यों नहीं छोड़ी, इसके उत्तरमें संजयका धृतराष्ट्रसे और श्रीकृष्णका सात्यकिसे रहस्ययुक्त कथन
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकवीरवधे मोघा शक्तिः सूतात्मजे यदा।
कस्मात् सर्वान् समुत्सृज्य स तां पार्थे न मुक्तवान्॥१॥
मूलम्
एकवीरवधे मोघा शक्तिः सूतात्मजे यदा।
कस्मात् सर्वान् समुत्सृज्य स तां पार्थे न मुक्तवान्॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! कर्णके पास जो शक्ति थी, वह यदि एक ही वीरका वध करके निष्फल हो जानेवाली थी तो उसने सबको छोड़कर अर्जुनपर ही उसका प्रहार क्यों नहीं किया?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् हते हता हि स्युः सर्वे पाण्डवसृञ्जयाः।
एकवीरवधे कस्माद् युद्धे न जयमादधे ॥ २ ॥
मूलम्
तस्मिन् हते हता हि स्युः सर्वे पाण्डवसृञ्जयाः।
एकवीरवधे कस्माद् युद्धे न जयमादधे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके मारे जानेपर समस्त सृंजय और पाण्डव अपने-आप नष्ट हो जाते। अतः एक वीर अर्जुनका ही वध करके उसने युद्धमें क्यों नहीं विजय प्राप्त की?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहूतो न निवर्तेयमिति तस्य महाव्रतम्।
स्वयं मार्गयितव्यः स सूतपुत्रेण फाल्गुनः ॥ ३ ॥
मूलम्
आहूतो न निवर्तेयमिति तस्य महाव्रतम्।
स्वयं मार्गयितव्यः स सूतपुत्रेण फाल्गुनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनका तो यह महान् व्रत ही है कि युद्धमें किसीके बुलानेपर मैं पीछे नहीं लौट सकता; ऐसी दशामें सूतपुत्र कर्णको स्वयं ही अर्जुनकी खोज करनी चाहिये थी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्वैरथमानीय फाल्गुनं शक्रदत्तया।
जघान न वृषः कस्मात् तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ४ ॥
मूलम्
ततो द्वैरथमानीय फाल्गुनं शक्रदत्तया।
जघान न वृषः कस्मात् तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! इस प्रकार अर्जुनको द्वैरथयुद्धमें लाकर धर्मात्मा कर्णने इन्द्रकी दी हुई शक्तिसे उन्हें क्यों नहीं मार डाला? यह मुझे बताओ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं बुद्धिविहीनश्चाप्यसहायश्च मे सुतः।
शत्रुभिर्व्यंसितः पापः कथं नु स जयेदरीन् ॥ ५ ॥
मूलम्
नूनं बुद्धिविहीनश्चाप्यसहायश्च मे सुतः।
शत्रुभिर्व्यंसितः पापः कथं नु स जयेदरीन् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही मेरा पुत्र दुर्योधन बुद्धिहीन और असहाय है। शत्रुओंने उसे ठग लिया। अब वह पापी अपने शत्रुओंपर कैसे विजय पा सकता है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या ह्यस्य परमा शक्तिर्जयस्य च परायणम्।
सा शक्तिर्वासुदेवेन व्यंसिता च घटोत्कचे ॥ ६ ॥
मूलम्
या ह्यस्य परमा शक्तिर्जयस्य च परायणम्।
सा शक्तिर्वासुदेवेन व्यंसिता च घटोत्कचे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इसकी सबसे बड़ी शक्ति और विजयका आधार-स्तम्भ थी, उस दिव्य शक्तिको घटोत्कचपर चलवाकर श्रीकृष्णने व्यर्थ कर दिया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुणेर्यथा हस्तगतं ह्रियेत् फलं बलीयसा।
तथा शक्तिरमोघा सा मोघीभूता घटोत्कचे ॥ ७ ॥
मूलम्
कुणेर्यथा हस्तगतं ह्रियेत् फलं बलीयसा।
तथा शक्तिरमोघा सा मोघीभूता घटोत्कचे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई बलवान् पुरुष लुंजे (टूंटे)-के हाथका फल छीन ले, उसी प्रकार श्रीकृष्णने उस अमोघ शक्तिको घटोत्कचपर चलवाकर अन्यत्रके लिये निष्फल कर दिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वराहस्य शुनश्च युध्यतो-
स्तयोरभावे श्वपचस्य लाभः ।
मन्ये विद्वन् वासुदेवस्य तद्वद्
युद्धे लाभः कर्णहैडिम्बयोर्वै ॥ ८ ॥
मूलम्
यथा वराहस्य शुनश्च युध्यतो-
स्तयोरभावे श्वपचस्य लाभः ।
मन्ये विद्वन् वासुदेवस्य तद्वद्
युद्धे लाभः कर्णहैडिम्बयोर्वै ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वन्! जैसे सूअर और कुत्तेके आपसमें लड़नेपर उन दोनोंमेंसे किसीकी भी मृत्यु हो जाय तो चाण्डालको लाभ ही होता है, उसी प्रकार कर्ण और घटोत्कचके युद्धमें मैं वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णका ही लाभ हुआ मानता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचो यदि हन्याद्धि कर्णं
परो लाभः स भवेत् पाण्डवानाम्।
वैकर्तनो वा यदि तं निहन्यात्
तथापि कृत्यं शक्तिनाशात् कृतं स्यात् ॥ ९ ॥
मूलम्
घटोत्कचो यदि हन्याद्धि कर्णं
परो लाभः स भवेत् पाण्डवानाम्।
वैकर्तनो वा यदि तं निहन्यात्
तथापि कृत्यं शक्तिनाशात् कृतं स्यात् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घटोत्कच यदि कर्णको मार देगा तो पाण्डवोंको बहुत बड़ा लाभ होगा और यदि वैकर्तन कर्ण घटोत्कचको मार डालेगा तो भी इन्द्रकी दी हुई शक्तिका नाश हो जानेसे उनका ही प्रयोजन सिद्ध होगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति प्राज्ञः प्रज्ञयैतद् विचिन्त्य
घटोत्कचं सूतपुत्रेण युद्धे ।
अघातयद् वासुदेवो नृसिंहः
प्रियं कुर्वन् पाण्डवानां हितं च ॥ १० ॥
मूलम्
इति प्राज्ञः प्रज्ञयैतद् विचिन्त्य
घटोत्कचं सूतपुत्रेण युद्धे ।
अघातयद् वासुदेवो नृसिंहः
प्रियं कुर्वन् पाण्डवानां हितं च ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी बुद्धिमान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णने अपनी बुद्धिसे यही सोचकर पाण्डवोंका प्रिय तथा हित करते हुए युद्धमें सूतपुत्र कर्णके द्वारा घटोत्कचको मरवा दिया॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्चिकीर्षितं ज्ञात्वा कर्णस्य मधुसूदनः।
नियोजयामास तदा द्वैरथे राक्षसेश्वरम् ॥ ११ ॥
घटोत्कचं महावीर्यं महाबुद्धिर्जनार्दनः ।
अमोघाया विघातार्थं राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ १२ ॥
मूलम्
एतच्चिकीर्षितं ज्ञात्वा कर्णस्य मधुसूदनः।
नियोजयामास तदा द्वैरथे राक्षसेश्वरम् ॥ ११ ॥
घटोत्कचं महावीर्यं महाबुद्धिर्जनार्दनः ।
अमोघाया विघातार्थं राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! कर्ण भी उस शक्तिसे अर्जुनका ही वध करना चाहता था। उसके इस अभिप्रायको जानकर परम बुद्धिमान् मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्णने उस अमोघ शक्तिको नष्ट करनेके लिये ही कर्णके साथ द्वैरथ युद्धमें उस समय महापराक्रमी राक्षसराज घटोत्कचको लगाया। महाराज! यह सब आपकी कुमन्त्रणाका ही फल है॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैव कृतकार्या हि वयं स्याम कुरूद्वह।
न रक्षेद् यदि कृष्णस्तं पार्थं कर्णान्महारथात् ॥ १३ ॥
मूलम्
तदैव कृतकार्या हि वयं स्याम कुरूद्वह।
न रक्षेद् यदि कृष्णस्तं पार्थं कर्णान्महारथात् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! यदि श्रीकृष्ण महारथी कर्णसे कुन्तीकुमार अर्जुनकी रक्षा न करते तो हमलोग उसी समय कृतकार्य हो गये होते॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साश्वध्वजरथः संख्ये धृतराष्ट्र पतेद् भुवि।
विना जनार्दनं पार्थो योगानामीश्वरं प्रभुम् ॥ १४ ॥
मूलम्
साश्वध्वजरथः संख्ये धृतराष्ट्र पतेद् भुवि।
विना जनार्दनं पार्थो योगानामीश्वरं प्रभुम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज धृतराष्ट्र! यदि योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण न हों तो अर्जुन घोड़े, ध्वज और रथसहित निश्चय ही युद्धमें धराशायी हो जायँ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैस्तैरुपायैर्बहुभी रक्ष्यमाणः स पार्थिव।
जयत्यभिमुखः शत्रून् पार्थः कृष्णेन पालितः ॥ १५ ॥
मूलम्
तैस्तैरुपायैर्बहुभी रक्ष्यमाणः स पार्थिव।
जयत्यभिमुखः शत्रून् पार्थः कृष्णेन पालितः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! नाना प्रकारके विभिन्न उपायोंसे श्रीकृष्णद्वारा सुरक्षित रहकर ही अर्जुन सम्मुख युद्धमें शत्रुओंपर विजय पाते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विशेषात् त्वमोघायाः कृष्णोऽरक्षत पाण्डवम्।
हन्यात् क्षिप्रं हि कौन्तेयं शक्तिर्वृक्षमिवाशनिः ॥ १६ ॥
मूलम्
स विशेषात् त्वमोघायाः कृष्णोऽरक्षत पाण्डवम्।
हन्यात् क्षिप्रं हि कौन्तेयं शक्तिर्वृक्षमिवाशनिः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने विशेष प्रयत्न करके उस अमोघ शक्तिसे पाण्डुपुत्र अर्जुनकी रक्षा की है, नहीं तो जैसे वज्र गिरकर वृक्षको भस्म कर देता है, उसी प्रकार वह शक्ति कुन्तीकुमार अर्जुनको शीघ्र ही नष्ट कर देती॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरोधी च कुमन्त्री च प्राज्ञमानी ममात्मजः।
यस्यैव समतिक्रान्तो वधोपायो जयं प्रति ॥ १७ ॥
मूलम्
विरोधी च कुमन्त्री च प्राज्ञमानी ममात्मजः।
यस्यैव समतिक्रान्तो वधोपायो जयं प्रति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने कहा— संजय! मेरा पुत्र दुर्योधन सबका विरोधी और अपनेको ही सबसे अधिक बुद्धिमान् समझनेवाला है। उसके मन्त्री भी अच्छे नहीं हैं; इसीलिये अर्जुनके वध और विजय-लाभका यह अमोघ उपाय उसके हाथसे निकल गया है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वा कर्णो महाबुद्धिः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
न मुक्तवान् कथं सूत ताममोघां धनंजये ॥ १८ ॥
मूलम्
स वा कर्णो महाबुद्धिः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
न मुक्तवान् कथं सूत ताममोघां धनंजये ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूत! समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ कर्ण तो बड़ा बुद्धिमान् है; उसने स्वयं ही उस अमोघ शक्तिको अर्जुनपर कैसे नहीं छोड़ा?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवापि समतिक्रान्तमेतद् गावल्गणे कथम्।
एतमर्थं महाबुद्धे यत् त्वया नावबोधितः ॥ १९ ॥
मूलम्
तवापि समतिक्रान्तमेतद् गावल्गणे कथम्।
एतमर्थं महाबुद्धे यत् त्वया नावबोधितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम बुद्धिमान् गवल्गणकुमार! तुम्हारे ध्यानसे यह बात कैसे निकल गयी कि तुमने कर्णको इसके विषयमें कुछ नहीं समझाया॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनस्य शकुनेर्मम दुःशासनस्य च।
रात्रौ रात्रौ भवत्येषा नित्यमेव समर्थना ॥ २० ॥
श्वः सर्वसैन्यान्युत्सृज्य जहि कर्ण धनंजयम्।
प्रेष्यवत् पाण्डुपञ्चालानुपभोक्ष्यामहे ततः ॥ २१ ॥
मूलम्
दुर्योधनस्य शकुनेर्मम दुःशासनस्य च।
रात्रौ रात्रौ भवत्येषा नित्यमेव समर्थना ॥ २० ॥
श्वः सर्वसैन्यान्युत्सृज्य जहि कर्ण धनंजयम्।
प्रेष्यवत् पाण्डुपञ्चालानुपभोक्ष्यामहे ततः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! प्रतिदिन रातको दुर्योधन, शकुनि और दुःशासनका तथा मेरा भी कर्णसे यही आग्रह रहता था कि ‘कर्ण! कल सबेरे तुम सारी सेनाओंको छोड़कर अर्जुनको मार डालो। फिर तो पाण्डवों और पांचालोंका हम भृत्योंके समान उपभोग करेंगे॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा निहते पार्थे पाण्डवान्यतमं ततः।
स्थापयेद् यदि वार्ष्णेयस्तस्मात्कृष्णो हि हन्यताम् ॥ २२ ॥
मूलम्
अथवा निहते पार्थे पाण्डवान्यतमं ततः।
स्थापयेद् यदि वार्ष्णेयस्तस्मात्कृष्णो हि हन्यताम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि ऐसा सोचो कि अर्जुनके मारे जानेपर श्रीकृष्ण दूसरे किसी पाण्डवको युद्धके लिये खड़ा कर लेंगे तो श्रीकृष्णको ही मार डालो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णो हि मूलं पापडूनां पार्थः स्कन्ध इवोद्गतः।
शाखा इवेतरे पार्थाः पञ्चालाः पत्रसंज्ञिताः ॥ २३ ॥
मूलम्
कृष्णो हि मूलं पापडूनां पार्थः स्कन्ध इवोद्गतः।
शाखा इवेतरे पार्थाः पञ्चालाः पत्रसंज्ञिताः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण ही पाण्डवोंकी जड़ हैं, अर्जुन ऊपरके तनेके समान हैं, अन्य कुन्तीपुत्र शाखाएँ हैं तथा पांचाल सैनिक पत्तोंके समान हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णाश्रयाः कृष्णबलाः कृष्णनाथाश्च पाण्डवाः।
कृष्णः परायणं चैषां ज्योतिषामिव चन्द्रमाः ॥ २४ ॥
मूलम्
कृष्णाश्रयाः कृष्णबलाः कृष्णनाथाश्च पाण्डवाः।
कृष्णः परायणं चैषां ज्योतिषामिव चन्द्रमाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण ही पाण्डवोंके आश्रय, बल और रक्षक हैं। जैसे नक्षत्रोंके परम आश्रय चन्द्रमा हैं, उसी प्रकार इन पाण्डवोंका सबसे बड़ा सहारा श्रीकृष्ण हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् पर्णानि शाखाश्च स्कन्धं चोत्सृज्य सूतज।
कृष्णं हि विद्धि पाण्डूनां मूलं सर्वत्र सर्वदा ॥ २५ ॥
मूलम्
तस्मात् पर्णानि शाखाश्च स्कन्धं चोत्सृज्य सूतज।
कृष्णं हि विद्धि पाण्डूनां मूलं सर्वत्र सर्वदा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः सूतनन्दन! तुम पत्तों, डालियों और तनेको छोड़कर जड़को ही काट दो। सर्वत्र और सदा श्रीकृष्णको ही पाण्डवोंकी जड़ समझो’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्याद् यदि हि दाशार्हं कर्णो यादवनन्दनम्।
कृत्स्ना वसुमती राजन् वशे तस्य न संशयः ॥ २६ ॥
मूलम्
हन्याद् यदि हि दाशार्हं कर्णो यादवनन्दनम्।
कृत्स्ना वसुमती राजन् वशे तस्य न संशयः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि कर्ण यादवनन्दन श्रीकृष्णको मार डालता, तो यह सारी पृथ्वी उसके वशमें हो जाती, इसमें संशय नहीं है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि हि स निहतः शयीत भूमौ
यदुकुलपाण्डवनन्दनो महात्मा ।
ननु तव वसुधा नरेन्द्र सर्वा
सगिरिसमुद्रवना वशं व्रजेत ॥ २७ ॥
मूलम्
यदि हि स निहतः शयीत भूमौ
यदुकुलपाण्डवनन्दनो महात्मा ।
ननु तव वसुधा नरेन्द्र सर्वा
सगिरिसमुद्रवना वशं व्रजेत ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! यदि यदुकुल और पाण्डवोंको आनन्दित करनेवाले महात्मा श्रीकृष्ण उस शक्तिसे मारे जाकर रणभूमिमें सो जाते, तो पर्वत, समुद्र और वनोंसहित यह सारी पृथ्वी आपके वशमें आ जाती॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तु बुद्धिः कृताप्येवं जाग्रति त्रिदशेश्वरे।
अप्रमेये हृषीकेशे युद्धकालेऽप्यमुह्यत ॥ २८ ॥
मूलम्
सा तु बुद्धिः कृताप्येवं जाग्रति त्रिदशेश्वरे।
अप्रमेये हृषीकेशे युद्धकालेऽप्यमुह्यत ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय कर लेनेके बाद भी जब वह युद्धके समय सदा सजग रहनेवाले अप्रमेयस्वरूप देवेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके समीप जाता तो उसपर मोह छा जाता था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनं चापि राधेयात् सदा रक्षति केशवः।
न ह्येनमैच्छत् प्रमुखे सौतेः स्थापयितुं रणे ॥ २९ ॥
मूलम्
अर्जुनं चापि राधेयात् सदा रक्षति केशवः।
न ह्येनमैच्छत् प्रमुखे सौतेः स्थापयितुं रणे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनको सदा राधानन्दन कर्णसे बचाये रखते थे। उन्होंने रणभूमिमें अर्जुनको सूतपुत्र कर्णके सम्मुख खड़ा करनेकी कभी इच्छा नहीं की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यांश्चास्मै रथोदारानुपास्थापयदच्युतः ।
अमोघां तां कथं शक्तिं मोघां कुर्यामिति प्रभो ॥ ३० ॥
मूलम्
अन्यांश्चास्मै रथोदारानुपास्थापयदच्युतः ।
अमोघां तां कथं शक्तिं मोघां कुर्यामिति प्रभो ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अन्यान्य महारथियोंको कर्णके पास इसलिये भेजा करते थे कि किसी प्रकार उस अमोघ शक्तिको व्यर्थ कर दूँ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैवं रक्षते पार्थं कर्णात् कृष्णो महामनाः।
आत्मानं स कथं राजन् न रक्षेत् पुरुषोत्तमः ॥ ३१ ॥
मूलम्
यश्चैवं रक्षते पार्थं कर्णात् कृष्णो महामनाः।
आत्मानं स कथं राजन् न रक्षेत् पुरुषोत्तमः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो महामनस्वी पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण कर्णसे अर्जुनकी इस प्रकार रक्षा करते हैं, वे अपनी रक्षा कैसे नहीं करेंगे?॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिचिन्त्य तु पश्यामि चक्रायुधमरिंदमम्।
न सोऽस्ति त्रिषु लोकेषु यो जयेत जनार्दनम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
परिचिन्त्य तु पश्यामि चक्रायुधमरिंदमम्।
न सोऽस्ति त्रिषु लोकेषु यो जयेत जनार्दनम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भलीभाँति सोच-विचारकर देखता हूँ तो तीनों लोकोंमें कोई ऐसा वीर उपलब्ध नहीं होता, जो शत्रुओंका दमन करनेवाले चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्णको जीत सके॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृष्णं महाबाहुं सात्यकिः सत्यविक्रमः।
पप्रच्छ रथशार्दूलः कर्णं प्रति महारथः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततः कृष्णं महाबाहुं सात्यकिः सत्यविक्रमः।
पप्रच्छ रथशार्दूलः कर्णं प्रति महारथः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रथियोंमें सिंहके समान शूरवीर सत्यपराक्रमी महारथी सात्यकिने महाबाहु श्रीकृष्णसे कर्णके विषयमें इस प्रकार प्रश्न किया—॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं च प्रत्ययः कर्णे शक्तिश्चामितविक्रमा।
किमर्थं सूतपुत्रेण न मुक्ता फाल्गुने तु सा ॥ ३४ ॥
मूलम्
अयं च प्रत्ययः कर्णे शक्तिश्चामितविक्रमा।
किमर्थं सूतपुत्रेण न मुक्ता फाल्गुने तु सा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! कर्णको उस शक्तिके प्रभावपर विश्वास तो था ही। वह अमित पराक्रम कर दिखानेवाली दिव्य शक्ति उसके हाथमें मौजूद भी थी, तथापि सूतपुत्रने अर्जुनपर उसका प्रयोग कैसे नहीं किया?’॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीवासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःशासनश्च कर्णश्च शकुनिश्च ससैन्धवः।
सततं मन्त्रयन्ति स्म दुर्योधनपुरोगमाः ॥ ३५ ॥
कर्ण कर्ण महेष्वास रणेऽमितपराक्रम।
नान्यस्य शक्तिरेषा ते मोक्तव्या जयतां वर ॥ ३६ ॥
ऋते महारथात् कर्ण कुन्तीपुत्राद् धनंजयात्।
मूलम्
दुःशासनश्च कर्णश्च शकुनिश्च ससैन्धवः।
सततं मन्त्रयन्ति स्म दुर्योधनपुरोगमाः ॥ ३५ ॥
कर्ण कर्ण महेष्वास रणेऽमितपराक्रम।
नान्यस्य शक्तिरेषा ते मोक्तव्या जयतां वर ॥ ३६ ॥
ऋते महारथात् कर्ण कुन्तीपुत्राद् धनंजयात्।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण बोले— सात्यके! दुःशासन, कर्ण, शकुनि और जयद्रथ—ये दुर्योधनको आगे रखकर सदा गुप्त मन्त्रणा करते और कर्णको यह सलाह देते थे कि ‘रणभूमिमें अनन्त पराक्रम प्रकट करनेवाले, विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ महाधनुर्धर कर्ण! तुम कुन्तीपुत्र महारथी अर्जुनको छोड़कर दूसरे किसीपर इस शक्तिको न छोड़ना॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि तेषामतियशा देवानामिव वासवः ॥ ३७ ॥
तस्मिन् विनिहते पार्थे पाण्डवाः सृञ्जयैः सह।
भविष्यन्ति गतात्मानः सुरा इव निरग्नयः ॥ ३८ ॥
मूलम्
स हि तेषामतियशा देवानामिव वासवः ॥ ३७ ॥
तस्मिन् विनिहते पार्थे पाण्डवाः सृञ्जयैः सह।
भविष्यन्ति गतात्मानः सुरा इव निरग्नयः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि देवताओंमें इन्द्रके समान उन पाण्डवोंमें अर्जुन ही सबसे अधिक यशस्वी हैं। अर्जुनके मारे जानेपर सृंजयोंसहित पाण्डव मुखस्वरूप अग्निसे हीन देवताओंके समान मृतप्राय हो जायँगे॥।३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति च प्रतिज्ञातं कर्णेन शिनिपुङ्गव।
हृदि नित्यं च कर्णस्य वधो गाण्डीवधन्वनः ॥ ३९ ॥
मूलम्
तथेति च प्रतिज्ञातं कर्णेन शिनिपुङ्गव।
हृदि नित्यं च कर्णस्य वधो गाण्डीवधन्वनः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिनिप्रवर! कर्णने वैसा ही करनेकी उनके सामने प्रतिज्ञा भी की थी। कर्णके हृदयमें नित्य-निरन्तर गाण्डीवधारी अर्जुनके वधका संकल्प उठता रहता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेव तु राधेयं मोहयामि युधां वर।
ततो नावासृजच्छक्तिं पाण्डवे श्वेतवाहने ॥ ४० ॥
मूलम्
अहमेव तु राधेयं मोहयामि युधां वर।
ततो नावासृजच्छक्तिं पाण्डवे श्वेतवाहने ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योद्धाओंमें श्रेष्ठ सात्यके! परंतु मैं ही राधापुत्र कर्णको मोहित किये रहता था; इसीलिये श्वेतवाहन अर्जुनपर उसने वह शक्ति नहीं छोड़ी॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फाल्गुनस्य हि सा मृत्युरिति चिन्तयतोऽनिशम्।
न निद्रा न च मे हर्षो मनसोऽस्ति युधां वर॥४१॥
मूलम्
फाल्गुनस्य हि सा मृत्युरिति चिन्तयतोऽनिशम्।
न निद्रा न च मे हर्षो मनसोऽस्ति युधां वर॥४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर! वह शक्ति अर्जुनके लिये मृत्युस्वरूप है, इस चिन्तामें निरन्तर डूबे रहनेके कारण न तो मुझे नींद आती थी और न मेरे मनमें कभी हर्षका उदय होता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचे व्यंसितां तु दृष्ट्वा तां शिनिपुङ्गव।
मृत्योरास्यान्तरान्मुक्तं पश्याम्यद्य धनंजयम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
घटोत्कचे व्यंसितां तु दृष्ट्वा तां शिनिपुङ्गव।
मृत्योरास्यान्तरान्मुक्तं पश्याम्यद्य धनंजयम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिनिवंशशिरोमणे! वह शक्ति घटोत्कचपर छोड़ दी गयी, यह देखकर आज मैं यह समझता हूँ कि अर्जुन मौतके मुखसे निकल आये हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पिता न च मे माता न यूयं भ्रातरस्तथा।
न च प्राणास्तथा रक्ष्या यथा बीभत्सुराहवे ॥ ४३ ॥
मूलम्
न पिता न च मे माता न यूयं भ्रातरस्तथा।
न च प्राणास्तथा रक्ष्या यथा बीभत्सुराहवे ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे युद्धमें अर्जुनकी रक्षा जितनी आवश्यक प्रतीत होती है, उतनी पिता, माता, तुम-जैसे भाइयों तथा अपने प्राणोंकी रक्षा भी नहीं प्रतीत होती॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्यराज्याद् यत् किंचिद् भवेदन्यत् सुदुर्लभम्।
नेच्छेयं सात्वताहं तद् विना पार्थं धनंजयम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
त्रैलोक्यराज्याद् यत् किंचिद् भवेदन्यत् सुदुर्लभम्।
नेच्छेयं सात्वताहं तद् विना पार्थं धनंजयम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात्यके! तीनों लोकोंके राज्यसे भी बढ़कर यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वस्तु हो तो उसे भी मैं कुन्तीनन्दन अर्जुनके बिना नहीं पाना चाहता॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः प्रहर्षः सुमहान् युयुधानाद्य मेऽभवत्।
मृतं प्रत्यागतमिव दृष्ट्वा पार्थं धनंजयम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
अतः प्रहर्षः सुमहान् युयुधानाद्य मेऽभवत्।
मृतं प्रत्यागतमिव दृष्ट्वा पार्थं धनंजयम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युयुधान! इसीलिये जैसे कोई मरकर लौट आया हो उसी प्रकार कुन्तीपुत्र अर्जुनको देखकर आज मुझे बड़ा भारी हर्ष हुआ था॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतश्च प्रहितो युद्धे मया कर्णाय राक्षसः।
न ह्यन्यः समरे रात्रौ शक्तः कर्णं प्रबाधितुम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
अतश्च प्रहितो युद्धे मया कर्णाय राक्षसः।
न ह्यन्यः समरे रात्रौ शक्तः कर्णं प्रबाधितुम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी उद्देश्यसे मैंने युद्धमें कर्णका सामना करनेके लिये उस राक्षसको भेजा था। उसके सिवा दूसरा कोई रात्रिके समय समरांगणमें कर्णको पीड़ित नहीं कर सकता था॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सात्यकये प्राह तदा देवकिनन्दनः।
धनंजयहिते युक्तस्तत्प्रिये सततं रतः ॥ ४७ ॥
मूलम्
इति सात्यकये प्राह तदा देवकिनन्दनः।
धनंजयहिते युक्तस्तत्प्रिये सततं रतः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! इस प्रकार अर्जुनके हितमें संलग्न और उनके प्रिय साधनमें निरन्तर तत्पर रहनेवाले भगवान् देवकीनन्दनने उस समय सात्यकिसे यह बात कही थी॥४७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे कृष्णवाक्ये द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके समय श्रीकृष्णवाक्यविषयक एक सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८२॥