१८१ कृष्णवाक्ये

भागसूचना

एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका अर्जुनको जरासंध आदि धर्मद्रोहियोंके वध करनेका कारण बताना

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमस्मद्धितार्थं ते कैश्च योगैर्जनार्दन।
जरासंधप्रभृतयो घातिताः पृथिवीश्वराः ॥ १ ॥

मूलम्

कथमस्मद्धितार्थं ते कैश्च योगैर्जनार्दन।
जरासंधप्रभृतयो घातिताः पृथिवीश्वराः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने पूछा— जनार्दन! आपने हमलोगोंके हितके लिये कैसे किन-किन उपायोंसे जरासंध आदि राजाओंका वध कराया है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीवासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासंधश्चेदिराजो नैषादिश्च महाबलः ।
यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानीं स्युर्भयंकराः ॥ २ ॥

मूलम्

जरासंधश्चेदिराजो नैषादिश्च महाबलः ।
यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानीं स्युर्भयंकराः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— अर्जुन! जरासंध, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्तानवश्यं वृणुयाद् रथसत्तमान् ।
तेऽस्मासु नित्यविद्विष्टाः संश्रयेयुश्च कौरवान् ॥ ३ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्तानवश्यं वृणुयाद् रथसत्तमान् ।
तेऽस्मासु नित्यविद्विष्टाः संश्रयेयुश्च कौरवान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियोंसे अपनी सहायताके लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखनेके कारण निश्चय ही कौरवोंका पक्ष लेते॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते हि वीरा महेष्वासाः कृतास्त्रा दृढयोधिनः।
धार्तराष्ट्रां चमूं कृत्स्नां रक्षेयुरमरा इव ॥ ४ ॥

मूलम्

ते हि वीरा महेष्वासाः कृतास्त्रा दृढयोधिनः।
धार्तराष्ट्रां चमूं कृत्स्नां रक्षेयुरमरा इव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वीर महाधनुर्धर, अस्त्रविद्याके ज्ञाता तथा दृढ़तापूर्वक युद्ध करनेवाले थे; अतः दुर्योधनकी सारी सेनाकी देवताओंके समान रक्षा कर सकते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूतपुत्रो जरासंधश्चेदिराजो निषादजः ।
सुयोधनं समाश्रित्य जयेयुः पृथिवीमिमाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सूतपुत्रो जरासंधश्चेदिराजो निषादजः ।
सुयोधनं समाश्रित्य जयेयुः पृथिवीमिमाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल और निषादनन्दन एकलव्य—ये चारों मिलकर यदि दुर्योधनका पक्ष लेते तो इस पृथ्वीको अवश्य ही जीत लेते॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगैरपि हता यैस्ते तन्मे शृणु धनंजय।
अजय्या हि विना योगैर्मृधे ते दैवतैरपि ॥ ६ ॥

मूलम्

योगैरपि हता यैस्ते तन्मे शृणु धनंजय।
अजय्या हि विना योगैर्मृधे ते दैवतैरपि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! वे जिन उपायोंसे मारे गये हैं, उन्हें बतलाता हूँ, मुझसे सुनो। बिना उपाय किये तो उन्हें युद्धमें देवता भी नहीं जीत सकते थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैको हि पृथक् तेषां समस्तां सुरवाहिनीम्।
योधयेत् समरे पार्थ लोकपालाभिरक्षिताम् ॥ ७ ॥

मूलम्

एकैको हि पृथक् तेषां समस्तां सुरवाहिनीम्।
योधयेत् समरे पार्थ लोकपालाभिरक्षिताम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! उनमेंसे अलग-अलग एक-एक वीर ऐसा था, जो लोकपालोंसे सुरक्षित समस्त देवसेनाके साथ समरांगणमें अकेला ही युद्ध कर सकता था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासंधो हि रुषितो रौहिणेयप्रधर्षितः।
अस्मद्वधार्थं चिक्षेप गदां वै सर्वघातिनीम् ॥ ८ ॥

मूलम्

जरासंधो हि रुषितो रौहिणेयप्रधर्षितः।
अस्मद्वधार्थं चिक्षेप गदां वै सर्वघातिनीम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, रोहिणीनन्दन बलरामजीने युद्धमें जरासंधको पछाड़ दिया था। इससे कुपित होकर जरासंधने हमलोगोंके वधके लिये अपनी सर्वघातिनी गदाका प्रहार किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीमन्तमिव कुर्वाणा नभसः पावकप्रभा।
अदृश्यतापतन्ती सा शक्रमुक्ता यथाशनिः ॥ ९ ॥

मूलम्

सीमन्तमिव कुर्वाणा नभसः पावकप्रभा।
अदृश्यतापतन्ती सा शक्रमुक्ता यथाशनिः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके समान प्रज्वलित वह गदा इन्द्रके चलाये हुए वज्रकी भाँति आकाशमें सीमान्त-रेखा-सी बनाती हुई वहाँ गिरती दिखायी दी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं दृष्ट्वैव गदां रोहिणिनन्दनः।
प्रतिघातार्थमस्त्रं वै स्थूणाकर्णमवासृजत् ॥ १० ॥

मूलम्

तामापतन्तीं दृष्ट्वैव गदां रोहिणिनन्दनः।
प्रतिघातार्थमस्त्रं वै स्थूणाकर्णमवासृजत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ गिरती हुई उस गदाको देखते ही उसके प्रतिघात (निवारण)-के लिये रोहिणीनन्दन बलरामजीने स्थूणाकर्ण नामक अस्त्रका प्रयोग किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रवेगप्रतिहता सा गदा प्रापतद् भुवि।
दारयन्ती धरां देवीं कम्पयन्तीव पर्वतान् ॥ ११ ॥

मूलम्

अस्त्रवेगप्रतिहता सा गदा प्रापतद् भुवि।
दारयन्ती धरां देवीं कम्पयन्तीव पर्वतान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अस्त्रके वेगसे प्रतिहत होकर वह गदा पृथ्वीदेवीको विदीर्ण करती और पर्वतोंको कँपाती हुई-सी भूतलपर गिर पड़ी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र सा राक्षसी घोरा जरानाम्नी सुविक्रमा।
संदधे सा हि संजातं जरासंधमरिंदमम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तत्र सा राक्षसी घोरा जरानाम्नी सुविक्रमा।
संदधे सा हि संजातं जरासंधमरिंदमम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस स्थानपर गदा गिरी, वहाँ उत्तम बल-पराक्रमसे सम्पन्न जरा नामक एक भयंकर राक्षसी रहती थी। उसीने जन्मके पश्चात् शत्रुदमन जरासंधके शरीरको जोड़ा था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वाभ्यां जातो हि मातृभ्यामर्धदेहः पृथक् पृथक्।
जरया संधितो यस्माज्जरासंधस्ततोऽभवत् ॥ १३ ॥

मूलम्

द्वाभ्यां जातो हि मातृभ्यामर्धदेहः पृथक् पृथक्।
जरया संधितो यस्माज्जरासंधस्ततोऽभवत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका आधा-आधा शरीर अलग-अलग दो माताओंके पेटसे पैदा हुआ था। जराने उसे जोड़ा था; इसीलिये उसका नाम जरासंध हुआ॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तु भूमिं गता पार्थ हता ससुतबान्धवा।
गदया तेन चास्त्रेण स्थूणाकर्णेन राक्षसी ॥ १४ ॥

मूलम्

सा तु भूमिं गता पार्थ हता ससुतबान्धवा।
गदया तेन चास्त्रेण स्थूणाकर्णेन राक्षसी ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! भूमिके भीतर रहनेवाली वह राक्षसी उस गदासे तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्रके आघातसे पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित मारी गयी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनाभूतः स गदया जरासंधो महामृधे।
निहतो भीमसेनेन पश्यतस्ते धनंजय ॥ १५ ॥

मूलम्

विनाभूतः स गदया जरासंधो महामृधे।
निहतो भीमसेनेन पश्यतस्ते धनंजय ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! उस महासमरमें जरासंध बिना गदाके हो गया था; इसीलिये तुम्हारे देखते-देखते भीमसेनने उसे मार डाला॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि हि स्याद् गदापाणिर्जरासंधः प्रतापवान्।
सेन्द्रा देवा न तं हन्तुं रणे शक्ता नरोत्तम॥१६॥

मूलम्

यदि हि स्याद् गदापाणिर्जरासंधः प्रतापवान्।
सेन्द्रा देवा न तं हन्तुं रणे शक्ता नरोत्तम॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! यदि प्रतापी जरासंधके हाथमें वह गदा होती तो इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसे युद्धमें मार नहीं सकते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्धितार्थं च नैषादिरङ्‌गुष्ठेन वियोजितः।
द्रोणेनाचार्यकं कृत्वा छद्मना सत्यविक्रमः ॥ १७ ॥

मूलम्

त्वद्धितार्थं च नैषादिरङ्‌गुष्ठेन वियोजितः।
द्रोणेनाचार्यकं कृत्वा छद्मना सत्यविक्रमः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे हितके लिये ही द्रोणाचार्यने सत्यपराक्रमी एकलव्यका आचार्यत्व करके छलपूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु बद्धाङ्‌गुलित्राणो नैषादिर्दृढविक्रमः।
अतिमानी वनचरो बभौ राम इवापरः ॥ १८ ॥

मूलम्

स तु बद्धाङ्‌गुलित्राणो नैषादिर्दृढविक्रमः।
अतिमानी वनचरो बभौ राम इवापरः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुदृढ़ पराक्रमसे सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथोंमें दस्ताने पहनकर वनमें विचरता, उस समय दूसरे परशुरामके समान जान पड़ता था॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकलव्यं हि साङ्‌गुष्ठमशक्ता देवदानवाः।
सराक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित् ॥ १९ ॥

मूलम्

एकलव्यं हि साङ्‌गुष्ठमशक्ता देवदानवाः।
सराक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार! यदि एकलव्यका अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग—ये सब मिलकर भी युद्धमें उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमु मानुषमात्रेण शक्यः स्यात् प्रतिवीक्षितुम्।
दृढमुष्टिः कृती नित्यमस्यमानो दिवानिशम् ॥ २० ॥

मूलम्

किमु मानुषमात्रेण शक्यः स्यात् प्रतिवीक्षितुम्।
दृढमुष्टिः कृती नित्यमस्यमानो दिवानिशम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर कोई मनुष्यमात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था? उसकी मुट्ठी मजबूत थी। वह अस्त्र-विद्याका विद्वान् था और सदा दिन-रात बाण चलानेका अभ्यास करता था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्धितार्थं तु स मया हतः संग्राममूर्धनि।
चेदिराजश्च विक्रान्तः प्रत्यक्षं निहतस्तव ॥ २१ ॥

मूलम्

त्वद्धितार्थं तु स मया हतः संग्राममूर्धनि।
चेदिराजश्च विक्रान्तः प्रत्यक्षं निहतस्तव ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे हितके लिये मैंने ही युद्धके मुहानेपर उसे मार डाला था। पराक्रमी चेदिराज शिशुपाल तो तुम्हारी आँखोंके सामने ही मारा गया था॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चाप्यशक्यः संग्रामे जेतुं सर्वसुरासुरैः।
वधार्थं तस्य जातोऽहमन्येषां च सुरद्विषाम् ॥ २२ ॥
त्वत्सहायो नरव्याघ्र लोकानां हितकाम्यया।

मूलम्

स चाप्यशक्यः संग्रामे जेतुं सर्वसुरासुरैः।
वधार्थं तस्य जातोऽहमन्येषां च सुरद्विषाम् ॥ २२ ॥
त्वत्सहायो नरव्याघ्र लोकानां हितकाम्यया।

अनुवाद (हिन्दी)

वह भी संग्राममें सम्पूर्ण देवताओं और असुरोंद्वारा जीता नहीं जा सकता था। नरव्याघ्र! मैं सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये और शिशुपाल एवं अन्य देवद्रोहियोंका वध करनेके लिये ही तुम्हारे साथ इस जगत्‌में अवतीर्ण हुआ हूँ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिडिम्बवककिर्मीरा भीमसेनेन पातिताः ॥ २३ ॥
रावणेन समप्राणा ब्रह्मयज्ञविनाशनाः ।

मूलम्

हिडिम्बवककिर्मीरा भीमसेनेन पातिताः ॥ २३ ॥
रावणेन समप्राणा ब्रह्मयज्ञविनाशनाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

हिडिम्ब, वक और किर्मीर—ये रावणके समान बलवान् थे और ब्राह्मणों तथा यज्ञोंका विनाश किया करते थे। इन तीनोंको भीमसेनने मार गिराया है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतस्तथैव मायावी हैडिम्बेनाप्यलायुधः ॥ २४ ॥
हैडिम्बश्चाप्युपायेन शक्त्या कर्णेन घातितः।

मूलम्

हतस्तथैव मायावी हैडिम्बेनाप्यलायुधः ॥ २४ ॥
हैडिम्बश्चाप्युपायेन शक्त्या कर्णेन घातितः।

अनुवाद (हिन्दी)

मायावी अलायुध घटोत्कचके हाथसे मारा गया है और घटोत्कचको भी मैंने ही युक्ति लगाकर कर्णकी चलायी हुई शक्तिसे मरवा दिया है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ह्येनं नाहनिष्यत् कर्णः शक्त्या महामृधे ॥ २५ ॥
मया वध्योऽभविष्यत् स भैमसेनिर्घटोत्कचः।

मूलम्

यदि ह्येनं नाहनिष्यत् कर्णः शक्त्या महामृधे ॥ २५ ॥
मया वध्योऽभविष्यत् स भैमसेनिर्घटोत्कचः।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि महासमरमें कर्ण अपनी शक्तिद्वारा भीमसेनपुत्र घटोत्कचको नहीं मारता तो एक दिन मुझे उसका वध करना पड़ता॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया न निहतः पूर्वमेष युष्मत्प्रियेप्सया ॥ २६ ॥
एष हि ब्राह्मणद्वेषी यज्ञद्वेषी च राक्षसः।
धर्मस्य लोप्ता पापात्मा तस्मादेष निपातितः ॥ २७ ॥

मूलम्

मया न निहतः पूर्वमेष युष्मत्प्रियेप्सया ॥ २६ ॥
एष हि ब्राह्मणद्वेषी यज्ञद्वेषी च राक्षसः।
धर्मस्य लोप्ता पापात्मा तस्मादेष निपातितः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमलोगोंका प्रिय करनेकी इच्छासे ही मैंने इसे पहले नहीं मारा था। यह ब्राह्मणों और यज्ञोंसे द्वेष रखनेवाला तथा धर्मका लोप करनेवाला पापात्मा राक्षस था; इसीलिये इसे मरवा दिया है॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यंसिता चाप्युपायेन शक्रदत्ता मयानघ।
ये हि धर्मस्य लोप्तारो वध्यास्ते मम पाण्डव ॥ २८ ॥

मूलम्

व्यंसिता चाप्युपायेन शक्रदत्ता मयानघ।
ये हि धर्मस्य लोप्तारो वध्यास्ते मम पाण्डव ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप पाण्डुनन्दन! इसी उपायसे मैंने इन्द्रकी दी हुई शक्ति भी कर्णके हाथसे दूर कर दी है। धर्मका लोप करनेवाले सभी प्राणी मेरे वध्य हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मसंस्थापनार्थं हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया।
ब्रह्म सत्यं दमः शौचं धर्मो ह्रीः श्रीर्धृतिः क्षमा॥२९॥
यत्र तत्र रमे नित्यमहं सत्येन ते शपे।

मूलम्

धर्मसंस्थापनार्थं हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया।
ब्रह्म सत्यं दमः शौचं धर्मो ह्रीः श्रीर्धृतिः क्षमा॥२९॥
यत्र तत्र रमे नित्यमहं सत्येन ते शपे।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मकी स्थापनाके लिये ही मैंने यह अटल प्रतिज्ञा कर रखी है, मैं तुमसे सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, जहाँ वेद, सत्य, दम, शौच, धर्म, लज्जा, श्री, धृति और क्षमाका निवास है, वहीं मैं सदा सुखपूर्वक रहता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विषादस्त्वया कार्यः कर्णं वैकर्तनं प्रति ॥ ३० ॥
उपदेक्ष्याम्युपायं ते येन तं प्रसहिष्यसि।

मूलम्

न विषादस्त्वया कार्यः कर्णं वैकर्तनं प्रति ॥ ३० ॥
उपदेक्ष्याम्युपायं ते येन तं प्रसहिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हें वैकर्तन कर्णके विषयमें चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे तुम उसका सामना कर सकोगे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुयोधनं चापि रणे हनिष्यति वृकोदरः ॥ ३१ ॥
तस्यापि च वधोपायं वक्ष्यामि तव पाण्डव।

मूलम्

सुयोधनं चापि रणे हनिष्यति वृकोदरः ॥ ३१ ॥
तस्यापि च वधोपायं वक्ष्यामि तव पाण्डव।

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! युद्धमें दुर्योधनका भी वध भीमसेन करेंगे। उसके वधका उपाय भी मैं तुम्हें बताऊँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्धते तुमुलस्त्वेष शब्दः परचमूं प्रति ॥ ३२ ॥
विद्रवन्ति च सैन्यानि त्वदीयानि दिशो दश।

मूलम्

वर्धते तुमुलस्त्वेष शब्दः परचमूं प्रति ॥ ३२ ॥
विद्रवन्ति च सैन्यानि त्वदीयानि दिशो दश।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंकी सेनामें यह भयंकर गर्जनाका शब्द बढ़ता जा रहा है और तुम्हारे सैनिक दसों दिशाओंमें भाग रहे हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्धलक्ष्या हि कौरव्या विधमन्ति चमूं तव।
दहत्येष च वः सैन्यं द्रोणः प्रहरतां वरः ॥ ३३ ॥

मूलम्

लब्धलक्ष्या हि कौरव्या विधमन्ति चमूं तव।
दहत्येष च वः सैन्यं द्रोणः प्रहरतां वरः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवोंका निशाना अचूक हो रहा है। वे तुम्हारी सेनाका विनाश कर रहे हैं। इधर ये योद्धाओंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य तुम्हारे सैनिकोंको दग्ध किये देते हैं॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे कृष्णवाक्ये एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रि-युद्धके समय श्रीकृष्णका कथनविषयक एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८१॥