१८० घटोत्कचवधे

भागसूचना

अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

घटोत्कचके वधसे पाण्डवोंका शोक तथा श्रीकृष्णकी प्रसन्नता और उसका कारण

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हैडिम्बिं निहतं दृष्ट्वा विशीर्णमिव पर्वतम्।
बभूवुः पाण्डवाः सर्वे शोकबाष्पाकुलेक्षणाः ॥ १ ॥

मूलम्

हैडिम्बिं निहतं दृष्ट्वा विशीर्णमिव पर्वतम्।
बभूवुः पाण्डवाः सर्वे शोकबाष्पाकुलेक्षणाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! जैसे पर्वत ढह गया हो, उसी प्रकार हिडिम्बाकुमार घटोत्कचको मारा गया देख समस्त पाण्डवोंके नेत्रोंमें शोकके आँसू भर आये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवस्तु हर्षेण महताभिपरिप्लुतः ।
ननाद सिंहनादं वै पर्यष्वजत फाल्गुनम् ॥ २ ॥

मूलम्

वासुदेवस्तु हर्षेण महताभिपरिप्लुतः ।
ननाद सिंहनादं वै पर्यष्वजत फाल्गुनम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण बड़े हर्षमें मग्न होकर सिंहनाद करने लगे। उन्होंने अर्जुनको छातीसे लगा लिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विनद्य महानादमभीषून् संनियम्य च।
ननर्त हर्षसंवीतो वातोद्‌धूत इव द्रुमः ॥ ३ ॥

मूलम्

स विनद्य महानादमभीषून् संनियम्य च।
ननर्त हर्षसंवीतो वातोद्‌धूत इव द्रुमः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बड़े जोरसे गर्जना करके घोड़ोंकी रास रोककर हवाके हिलाये हुए वृक्षके समान हर्षसे झूमकर नाचने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परिष्वज्य पुनः पार्थमास्फोट्‌य चासकृत्।
रथोपस्थगतो धीमान् प्राणदत् पुनरच्युतः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः परिष्वज्य पुनः पार्थमास्फोट्‌य चासकृत्।
रथोपस्थगतो धीमान् प्राणदत् पुनरच्युतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् पुनः अर्जुनको हृदयसे लगाकर बारंबार उनकी पीठ ठोंककर रथके पिछले भागमें बैठे हुए बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण फिर जोर-जोरसे गर्जना करने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहृष्टमनसं ज्ञात्वा वासुदेवं महाबलः।
अर्जुनोऽथाब्रवीद् राजन्नातिहृष्टमना इव ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रहृष्टमनसं ज्ञात्वा वासुदेवं महाबलः।
अर्जुनोऽथाब्रवीद् राजन्नातिहृष्टमना इव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भगवान् श्रीकृष्णके मनमें अधिक प्रसन्नता हुई जानकर महाबली अर्जुन कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिहर्षोऽयमस्थाने तवाद्य मधुसूदन ।
शोकस्थाने तु सम्प्राप्ते हैडिम्बस्य वधेन तु ॥ ६ ॥

मूलम्

अतिहर्षोऽयमस्थाने तवाद्य मधुसूदन ।
शोकस्थाने तु सम्प्राप्ते हैडिम्बस्य वधेन तु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! हिडिम्बाकुमार घटोत्कचके वधसे आज हमारे लिये तो शोकका अवसर प्राप्त हुआ है, परंतु आपको यह बेमौके अधिक हर्ष हो रहा है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुखानीह सैन्यानि हतं दृष्ट्वा घटोत्कचम्।
वयं च भृशमुद्विग्ना हैडिम्बेस्तु निपातनात् ॥ ७ ॥

मूलम्

विमुखानीह सैन्यानि हतं दृष्ट्वा घटोत्कचम्।
वयं च भृशमुद्विग्ना हैडिम्बेस्तु निपातनात् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘घटोत्कचको मारा गया देख हमारी सेनाएँ यहाँ युद्धसे विमुख होकर भागी जा रही हैं। हिडिम्बाकुमारके धराशायी होनेसे हमलोग भी अत्यन्त उद्विग्न हो उठे हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतत्कारणमल्पं हि भविष्यति जनार्दन।
तदद्य शंस मे पृष्टः सत्यं सत्यवतां वर ॥ ८ ॥

मूलम्

नैतत्कारणमल्पं हि भविष्यति जनार्दन।
तदद्य शंस मे पृष्टः सत्यं सत्यवतां वर ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु जनार्दन! आपको जो इतनी खुशी हो रही है उसका कोई छोटा-मोटा कारण न होगा। वही मैं आपसे पूछता हूँ। सत्यवक्ताओंमें श्रेष्ठ प्रभो! आप इसका मुझे यथार्थ कारण बताइये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येतन्न रहस्यं ते वक्तुमर्हस्यरिंदम।
धैर्यस्य वैकृतं ब्रूहि त्वमद्य मधुसूदन ॥ ९ ॥

मूलम्

यद्येतन्न रहस्यं ते वक्तुमर्हस्यरिंदम।
धैर्यस्य वैकृतं ब्रूहि त्वमद्य मधुसूदन ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! यदि कोई गोपनीय बात न हो तो मुझे अवश्य बतावें। मधुसूदन! आपके इस हर्ष-प्रदर्शनसे आज हमारा धैर्य छूटा जा रहा है, अतः आप इसका कारण अवश्य बतावें॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्रस्येव संशोषं मेरोरिव विसर्पणम्।
तथैतदद्य मन्येऽहं तव कर्म जनार्दन ॥ १० ॥

मूलम्

समुद्रस्येव संशोषं मेरोरिव विसर्पणम्।
तथैतदद्य मन्येऽहं तव कर्म जनार्दन ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! जैसे समुद्रका सूखना और मेरु पर्वतका विचलित होना आश्चर्यकी बात है, उसी प्रकार आज मैं आपके इस हर्षप्रकाशनरूपी कर्मको आश्चर्यजनक मानता हूँ’॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीवासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिहर्षमिमं प्राप्तं शृणु मे त्वं धनंजय।
अतीव मनसः सद्यः प्रसादकरमुत्तमम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अतिहर्षमिमं प्राप्तं शृणु मे त्वं धनंजय।
अतीव मनसः सद्यः प्रसादकरमुत्तमम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— धनंजय! आज वास्तवमें मुझे यह अत्यन्त हर्षका अवसर प्राप्त हुआ है, इसका क्या कारण है, यह तुम मुझसे सुनो। मेरे मनको तत्काल अत्यन्त प्रसन्नता प्रदान करनेवाला वह उत्तम कारण इस प्रकार है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिं घटोत्कचेनेमां व्यंसयित्वा महाद्युते।
कर्णं निहतमेवाजौ विद्धि सद्यो धनंजय ॥ १२ ॥

मूलम्

शक्तिं घटोत्कचेनेमां व्यंसयित्वा महाद्युते।
कर्णं निहतमेवाजौ विद्धि सद्यो धनंजय ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी धनंजय! इन्द्रकी दी हुई शक्तिको घटोत्कचके द्वारा कर्णके हाथसे दूर कराकर अब तुम युद्धमें कर्णको शीघ्र मरा हुआ ही समझो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिहस्तं पुनः कर्णं को लोकेऽस्ति पुमानिह।
य एनमभितस्तिष्ठेत् कार्तिकेयमिवाहवे ॥ १३ ॥

मूलम्

शक्तिहस्तं पुनः कर्णं को लोकेऽस्ति पुमानिह।
य एनमभितस्तिष्ठेत् कार्तिकेयमिवाहवे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस संसारमें कौन ऐसा पुरुष है, जो युद्धस्थलमें कार्तिकेयके समान शक्तिशाली कर्णके सामने खड़ा हो सके॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्यापनीतकवचो दिष्ट्यापहृतकुण्डलः ।
दिष्ट्या सा व्यंसिता शक्तिरमोघास्य घटोत्कचे ॥ १४ ॥

मूलम्

दिष्ट्यापनीतकवचो दिष्ट्यापहृतकुण्डलः ।
दिष्ट्या सा व्यंसिता शक्तिरमोघास्य घटोत्कचे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौभाग्यकी बात है कि कर्णका दिव्य कवच उतर गया, सौभाग्यसे ही उसके कुण्डल छीने गये तथा सौभाग्यसे ही उसकी वह अमोघशक्ति घटोत्कचपर गिरकर उसके हाथसे निकल गयी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि हि स्यात् सकवचस्तथैव स्यात् सकुण्डलः।
सामरानपि लोकांस्त्रीनेकः कर्णो जयेद् रणे ॥ १५ ॥

मूलम्

यदि हि स्यात् सकवचस्तथैव स्यात् सकुण्डलः।
सामरानपि लोकांस्त्रीनेकः कर्णो जयेद् रणे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कर्ण कवच और कुण्डलोंसे सम्पन्न होता तो वह अकेला ही रणभूमिमें देवताओंसहित तीनों लोकोंको जीत सकता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासवो वा कुबेरो वा वरुणो वा जलेश्वरः।
यमो वा नोत्सहेत् कर्णं रणे प्रतिसमासितुम् ॥ १६ ॥

मूलम्

वासवो वा कुबेरो वा वरुणो वा जलेश्वरः।
यमो वा नोत्सहेत् कर्णं रणे प्रतिसमासितुम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अवस्थामें इन्द्र, कुबेर, जलेश्वर वरुण अथवा यमराज भी रणभूमिमें कर्णका सामना नहीं कर सकते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाण्डीवमुद्यम्य भवांश्चक्रं चाहं सुदर्शनम्।
न शक्तौ स्वो रणे जेतुं तथायुक्तं नरर्षभम् ॥ १७ ॥

मूलम्

गाण्डीवमुद्यम्य भवांश्चक्रं चाहं सुदर्शनम्।
न शक्तौ स्वो रणे जेतुं तथायुक्तं नरर्षभम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम गाण्डीव उठाकर और मैं सुदर्शनचक्र लेकर दोनों एक साथ जाते तो भी समरांगणमें कवच-कुण्डलोंसे युक्त नरश्रेष्ठ कर्णको नहीं जीत सकते थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्धितार्थं तु शक्रेण मायापहृतकुण्डलः।
विहीनकवचश्चायं कृतः परपुरंजयः ॥ १८ ॥

मूलम्

त्वद्धितार्थं तु शक्रेण मायापहृतकुण्डलः।
विहीनकवचश्चायं कृतः परपुरंजयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे हितके लिये इन्द्रने शत्रु-नगरीपर विजय पानेवाले कर्णके दोनों कुण्डल मायासे हर लिये और उसे कवचसे भी वंचित कर दिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्कृत्य कवचं यस्मात् कुण्डले विमले च ते।
प्रादाच्छक्राय कर्णो वै तेन वैकर्तनः स्मृतः ॥ १९ ॥

मूलम्

उत्कृत्य कवचं यस्मात् कुण्डले विमले च ते।
प्रादाच्छक्राय कर्णो वै तेन वैकर्तनः स्मृतः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कवच तथा उन निर्मल कुण्डलोंको स्वयं ही अपने शरीरसे कुतरकर इन्द्रको दे दिया था; इसीलिये उसका नाम वैकर्तन हुआ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशीविष इव क्रुद्धो जृभितो मन्त्रतेजसा।
तथाद्य भाति कर्णो मे शान्तज्वाल इवानलः ॥ २० ॥

मूलम्

आशीविष इव क्रुद्धो जृभितो मन्त्रतेजसा।
तथाद्य भाति कर्णो मे शान्तज्वाल इवानलः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे क्रोधमें भरे हुए सर्पको मन्त्रके तेजसे स्तब्ध कर दिया जाय तथा प्रज्वलित आगकी ज्वालाको बुझा दिया जाय, शक्तिसे वंचित हुआ कर्ण भी आज मुझे वैसा ही प्रतीत होता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाप्रभृति कर्णाय शक्तिर्दत्ता महात्मना।
वासवेन महाबाहो क्षिप्ता यासै घटोत्कचे ॥ २१ ॥
कुण्डलाभ्यां निमायाथ दिव्येन कवचेन च।
तां प्राप्यामन्यत वृषः सततं त्वां हतं रणे ॥ २२ ॥

मूलम्

यदाप्रभृति कर्णाय शक्तिर्दत्ता महात्मना।
वासवेन महाबाहो क्षिप्ता यासै घटोत्कचे ॥ २१ ॥
कुण्डलाभ्यां निमायाथ दिव्येन कवचेन च।
तां प्राप्यामन्यत वृषः सततं त्वां हतं रणे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! जबसे महात्मा इन्द्रने कर्णको उसके दिव्य कवच और कुण्डलोंके बदलेमें अपनी शक्ति दी थी, जिसे उसने घटोत्कचपर चला दिया है, उस शक्तिको पाकर धर्मात्मा कर्ण सदा तुम्हें रणभूमिमें मारा गया ही मानता था॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंगतोऽपि शक्योऽयं हन्तुं नान्येन केनचित्।
ऋते त्वां पुरुषव्याघ्र शपे सत्येन चानघ ॥ २३ ॥

मूलम्

एवंगतोऽपि शक्योऽयं हन्तुं नान्येन केनचित्।
ऋते त्वां पुरुषव्याघ्र शपे सत्येन चानघ ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! आज ऐसी अवस्थामें आकर भी कर्ण तुम्हारे सिवा किसी दूसरे योद्धासे नहीं मारा जा सकता। अनघ! मैं सत्यकी शपथ खाकर यह बात कहता हूँ॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्यः सत्यवादी च तपस्वी नियतव्रतः।
रिपुष्वपि दयावांश्च तस्मात् कर्णो वृषः स्मृतः ॥ २४ ॥

मूलम्

ब्रह्मण्यः सत्यवादी च तपस्वी नियतव्रतः।
रिपुष्वपि दयावांश्च तस्मात् कर्णो वृषः स्मृतः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, तपस्वी, नियम और व्रतका पालक तथा शत्रुओंपर भी दया करनेवाला है; इसीलिये उसे वृष (धर्मात्मा) कहा गया है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धशौण्डो महाबाहुर्नित्योद्यतशरासनः ।
केसरीव वने नर्दन् मातङ्ग इव यूथपान् ॥ २५ ॥
विमदान् रथशार्दूलान् कुरुते रणमूर्धनि।

मूलम्

युद्धशौण्डो महाबाहुर्नित्योद्यतशरासनः ।
केसरीव वने नर्दन् मातङ्ग इव यूथपान् ॥ २५ ॥
विमदान् रथशार्दूलान् कुरुते रणमूर्धनि।

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु कर्ण युद्धमें कुशल है। उसका धनुष सदा उठा ही रहता है। वनमें दहाड़नेवाले सिंहके समान वह सदा गर्जता रहता है। जैसे मतवाला हाथी कितने ही यूथपतियोंको मदरहित कर देता है, उसी प्रकार कर्ण युद्धके मुहानेपर सिंहके समान पराक्रमी महारथियोंका भी घमंड चूर कर देता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यं गत इवादित्यो यो न शक्यो निरीक्षितुम् ॥ २६ ॥
त्वदीयैः पुरुषव्याघ्र योधमुख्यैर्महात्मभिः ।
शरजालसहस्रांशुः शरदीव दिवाकरः ॥ २७ ॥

मूलम्

मध्यं गत इवादित्यो यो न शक्यो निरीक्षितुम् ॥ २६ ॥
त्वदीयैः पुरुषव्याघ्र योधमुख्यैर्महात्मभिः ।
शरजालसहस्रांशुः शरदीव दिवाकरः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! तुम्हारे महामनस्वी श्रेष्ठ योद्धा दोपहरके तपते हुए सूर्यकी भाँति कर्णकी ओर देख भी नहीं सकते। जैसे शरद्-ऋतुके निर्मल आकाशमें सूर्य अपनी सहस्रों किरणें बिखेरता है, उसी प्रकार कर्ण युद्धमें अपने बाणोंका जाल-सा बिछा देता है॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपान्ते जलदो यद्वच्छरधाराः क्षरन् मुहुः।
दिव्यास्त्रजलदः कर्णः पर्जन्य इव वृष्टिमान् ॥ २८ ॥

मूलम्

तपान्ते जलदो यद्वच्छरधाराः क्षरन् मुहुः।
दिव्यास्त्रजलदः कर्णः पर्जन्य इव वृष्टिमान् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वर्षाकालमें बरसनेवाला मेघ पानीकी धारा गिराता है, उसी प्रकार दिव्यास्त्ररूपी जल प्रदान करनेवाला कर्णरूपी मेघ बारंबार बाणधाराकी वर्षा करता रहता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिदशैरपि चास्यद्भिः शरवर्षं समन्ततः।
अशक्यस्तदयं जेतुं स्रवद्भिर्मांसशोणितम् ॥ २९ ॥

मूलम्

त्रिदशैरपि चास्यद्भिः शरवर्षं समन्ततः।
अशक्यस्तदयं जेतुं स्रवद्भिर्मांसशोणितम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर बाणोंकी वृष्टि करके शत्रुओंके शरीरोंसे रक्त और मांस बहानेवाले देवता भी कर्णको परास्त नहीं कर सकते॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवचेन विहीनश्च कुण्डलाभ्यां च पाण्डव।
सोऽद्य मानुषतां प्राप्तो विमुक्तः शक्रदत्तया ॥ ३० ॥

मूलम्

कवचेन विहीनश्च कुण्डलाभ्यां च पाण्डव।
सोऽद्य मानुषतां प्राप्तो विमुक्तः शक्रदत्तया ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! कर्ण कवच और कुण्डलसे हीन तथा इन्द्रकी दी हुई शक्तिसे शून्य होकर अब साधारण मनुष्यके समान हो गया है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको हि योगोऽस्य भवेद् वधाय
च्छिद्रे ह्येनं स्वप्रमत्तः प्रमत्तम्।
कृच्छ्रं प्राप्तं रथचक्रे विमग्ने
हन्याः पूर्वं त्वं तु संज्ञां विचार्य ॥ ३१ ॥

मूलम्

एको हि योगोऽस्य भवेद् वधाय
च्छिद्रे ह्येनं स्वप्रमत्तः प्रमत्तम्।
कृच्छ्रं प्राप्तं रथचक्रे विमग्ने
हन्याः पूर्वं त्वं तु संज्ञां विचार्य ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेपर भी इसके वधका एक ही उपाय है। कोई छिद्र प्राप्त होनेपर जब वह असावधान हो, तुम्हारे साथ युद्ध होते समय जब कर्णके रथका पहिया (शापवश) धरतीमें धँस जाय और वह संकटमें पड़ जाय, उस समय तुम पूर्ण सावधान हो मेरे संकेतपर ध्यान देकर उसे पहले ही मार डालना॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्युद्यतास्त्रं युधि हन्यादजय्य-
मप्येकवीरो बलभित् सवज्रः ।
जरासंधश्चेदिराजो महात्मा
महाबाहुश्चैकलव्यो निषादः ॥ ३२ ॥
एकैकशो निहताः सर्व एते
योगैस्तैस्तैस्त्वद्धितार्थं मयैव ।

मूलम्

न ह्युद्यतास्त्रं युधि हन्यादजय्य-
मप्येकवीरो बलभित् सवज्रः ।
जरासंधश्चेदिराजो महात्मा
महाबाहुश्चैकलव्यो निषादः ॥ ३२ ॥
एकैकशो निहताः सर्व एते
योगैस्तैस्तैस्त्वद्धितार्थं मयैव ।

अनुवाद (हिन्दी)

अन्यथा जब वह युद्धके लिये अस्त्र उठा लेगा, उस समय उस अजेय वीर कर्णको त्रिलोकीके एकमात्र शूरवीर वज्रधारी इन्द्र भी नहीं मार सकेंगे। मगधराज जरासंध, महामनस्वी चेदिराज शिशुपाल और निषादजातीय महाबाहु एकलव्य—इन सबको मैंने ही तुम्हारे हितके लिये विभिन्न उपायोंद्वारा एक-एक करके मार डाला है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापरे निहता राक्षसेन्द्रा
हिडिम्बकिर्मीरवकप्रधानाः ।
अलायुधः परचक्रावमर्दी
घटोत्कचश्चोग्रकर्मा तरस्वी ॥ ३३ ॥

मूलम्

अथापरे निहता राक्षसेन्द्रा
हिडिम्बकिर्मीरवकप्रधानाः ।
अलायुधः परचक्रावमर्दी
घटोत्कचश्चोग्रकर्मा तरस्वी ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके सिवा हिडिम्ब, किर्मीर और बक आदि दूसरे-दूसरे राक्षसराज, शत्रुदलका संहार करनेवाला अलायुध और भयंकर कर्म करनेवाला वेगशाली घटोत्कच भी तुम्हारे हितके लिये ही मारे और मरवाये गये हैं॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे घटोत्कचवधे श्रीकृष्णहर्षेऽशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके समय घटोत्कचका वध होनेपर श्रीकृष्णका हर्षविषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८०॥