भागसूचना
पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
घटोत्कच और उसके रथ आदिके स्वरूपका वर्णन तथा कर्ण और घटोत्कचका घोर संग्राम
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्तद् वैकर्तनः कर्णो राक्षसश्च घटोत्कचः।
निशीथे समसज्जेतां तद् युद्धमभवत् कथम् ॥ १ ॥
मूलम्
यत्तद् वैकर्तनः कर्णो राक्षसश्च घटोत्कचः।
निशीथे समसज्जेतां तद् युद्धमभवत् कथम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! आधी रातके समय सूर्यपुत्र कर्ण तथा राक्षस घटोत्कच जो एक-दूसरेसे भिड़े हुए थे, उनका वह युद्ध किस प्रकार हुआ?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशं चाभवद् रूपं तस्य घोरस्य रक्षसः।
रथश्च कीदृशस्तस्य हयाः सर्वायुधानि च ॥ २ ॥
मूलम्
कीदृशं चाभवद् रूपं तस्य घोरस्य रक्षसः।
रथश्च कीदृशस्तस्य हयाः सर्वायुधानि च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस भयंकर राक्षसका रूप उस समय कैसा था? उसका रथ कैसा था? उसके घोड़े और सम्पूर्ण आयुध कैसे थे?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंप्रमाणा हयास्तस्य रथकेतुर्धनुस्तथा ।
कीदृशं वर्म चैवास्य शिरस्त्राणं च कीदृशम् ॥ ३ ॥
पृष्टस्त्वमेतदाचक्ष्व कुशलो ह्यसि संजय।
मूलम्
किंप्रमाणा हयास्तस्य रथकेतुर्धनुस्तथा ।
कीदृशं वर्म चैवास्य शिरस्त्राणं च कीदृशम् ॥ ३ ॥
पृष्टस्त्वमेतदाचक्ष्व कुशलो ह्यसि संजय।
अनुवाद (हिन्दी)
उसके घोड़े कितने बड़े थे, रथकी ध्वजाकी ऊँचाई और धनुषकी लंबाई कितनी थी? उसके कवच और शिरस्त्राण कैसे थे, संजय! मेरे प्रश्नके अनुसार ये सारी बातें बताओ; क्योंकि तुम इस कार्यमें कुशल हो॥३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोहिताक्षो महाकायस्ताम्रास्यो निम्नितोदरः ॥ ४ ॥
ऊर्ध्वरोमा हरिश्मश्रुः शङ्कुकर्णो महाहनुः।
आकर्णदारितास्यश्च तीक्ष्णदंष्ट्रः करालवान् ॥ ५ ॥
मूलम्
लोहिताक्षो महाकायस्ताम्रास्यो निम्नितोदरः ॥ ४ ॥
ऊर्ध्वरोमा हरिश्मश्रुः शङ्कुकर्णो महाहनुः।
आकर्णदारितास्यश्च तीक्ष्णदंष्ट्रः करालवान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! घटोत्कचका शरीर बहुत बड़ा था। उसकी आँखें सुर्ख रंगकी थीं। मुँह ताँबेके रंगका और पेट धँसा हुआ था। उसके रोएँ ऊपरकी ओर उठे हुए थे, दाढ़ी-मूँछ काली थी, ठोड़ी बड़ी दिखायी देती थी। मुँह कानोंतक फटा हुआ था, दाढ़ें तीखी होनेके कारण वह विकराल जान पड़ता था॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदीर्घताम्रजिह्वोष्ठो लम्बभ्रूः स्थूलनासिकः ।
नीलाङ्गो लोहितग्रीवो गिरिवर्ष्मा भयंकरः ॥ ६ ॥
मूलम्
सुदीर्घताम्रजिह्वोष्ठो लम्बभ्रूः स्थूलनासिकः ।
नीलाङ्गो लोहितग्रीवो गिरिवर्ष्मा भयंकरः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीभ और ओठ ताँबेके समान लाल और लम्बे थे, भौंहें बड़ी-बड़ी, नाक मोटी, शरीरका रंग काला, गर्दन लाल और शरीर पर्वताकार था। वह देखनेमें बड़ा भयंकर जान पड़ता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाकायो महाबाहुर्महाशीर्षो महाबलः ।
विकृतः परुषस्पर्शो विकटोद्वृद्धपिण्डकः ॥ ७ ॥
मूलम्
महाकायो महाबाहुर्महाशीर्षो महाबलः ।
विकृतः परुषस्पर्शो विकटोद्वृद्धपिण्डकः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी देह, भुजा और मस्तक सभी विशाल थे। उसका बल भी महान् था। आकृति बेडौल थी। उसका स्पर्श कठोर था। उसकी पिंडलियाँ विकट एवं सुदृढ़ थीं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थूलस्फिग्गूढनाभिश्च शिथिलोपचयो महान् ।
तथैव हस्ताभरणी महामायोऽङ्गदी तथा ॥ ८ ॥
मूलम्
स्थूलस्फिग्गूढनाभिश्च शिथिलोपचयो महान् ।
तथैव हस्ताभरणी महामायोऽङ्गदी तथा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके नितम्बभाग स्थूल थे। उसकी नाभि छोटी होनेके कारण छिपी हुई थी। उसके शरीरकी बढ़ती रुक गयी थी। वह लंबे कदका था। उसने हाथोंमें आभूषण पहन रखे थे। भुजाओंमें बाजूबन्द धारण कर रखे थे। वह बड़ी-बड़ी मायाओंका जानकार था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उरसा धारयन् निष्कमग्निमालां यथाचलः।
तस्य हेममयं चित्रं बहुरूपाङ्गशोभितम् ॥ ९ ॥
तोरणप्रतिमं शुभ्रं किरीटं मूर्ध्न्यशोभत।
मूलम्
उरसा धारयन् निष्कमग्निमालां यथाचलः।
तस्य हेममयं चित्रं बहुरूपाङ्गशोभितम् ॥ ९ ॥
तोरणप्रतिमं शुभ्रं किरीटं मूर्ध्न्यशोभत।
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपनी छातीपर सुवर्णमय निष्क (पदक) पहनकर अग्निकी माला धारण किये पर्वतके समान प्रतीत होता था। उसके मस्तकपर सोनेका बना हुआ विचित्र उज्ज्वल मुकुट तोरणके समान सुशोभित हो रहा था। उस मुकुटकी विविध अंगोंसे बड़ी शोभा हो रही थी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुण्डले बालसूर्याभे मालां हेममयीं शुभाम् ॥ १० ॥
धारयन् विपुलं कांस्यं कवचं च महाप्रभम्।
मूलम्
कुण्डले बालसूर्याभे मालां हेममयीं शुभाम् ॥ १० ॥
धारयन् विपुलं कांस्यं कवचं च महाप्रभम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वह प्रभातकालके सूर्यकी भाँति कान्तिमान् दो कुण्डल, सोनेकी सुन्दर माला और काँसीका विशाल एवं चमकीला कवच धारण किये हुए था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंकिणीशतनिर्घोषं रक्तध्वजपताकिनम् ॥ ११ ॥
ऋक्षचर्मावनद्धाङ्गं नल्वमात्रं महारथम् ।
मूलम्
किंकिणीशतनिर्घोषं रक्तध्वजपताकिनम् ॥ ११ ॥
ऋक्षचर्मावनद्धाङ्गं नल्वमात्रं महारथम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उसके रथमें सैकड़ों क्षुद्र घण्टिकाओंका मधुर घोष होता था। उसपर लाल रंगकी ध्वजा-पताका फहरा रही थी। उस रथके सम्पूर्ण अंगोंपर रीछकी खाल मढ़ी गयी थी। वह विशाल रथ चारों ओरसे चार सौ हाथ लंबा था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वायुधवरोपेतमास्थितो ध्वजशालिनम् ॥ १२ ॥
अष्टचक्रसमायुक्तं मेघगम्भीरनिःस्वनम् ।
मूलम्
सर्वायुधवरोपेतमास्थितो ध्वजशालिनम् ॥ १२ ॥
अष्टचक्रसमायुक्तं मेघगम्भीरनिःस्वनम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उसपर सभी प्रकारके श्रेष्ठ आयुध रखे गये थे। उसमें आठ पहिये लगे थे और चलते समय उस रथसे मेघ-गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनि होती थी। विशाल ध्वज उस रथकी शोभा बढ़ा रहा था। उसीपर घटोत्कच आरूढ़ था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तमातङ्गसंकाशा लोहिताक्षा विभीषणाः ॥ १३ ॥
कामवर्णजवा युक्ता बलवन्तः शतं हयाः।
मूलम्
मत्तमातङ्गसंकाशा लोहिताक्षा विभीषणाः ॥ १३ ॥
कामवर्णजवा युक्ता बलवन्तः शतं हयाः।
अनुवाद (हिन्दी)
मतवाले हाथीके समान प्रतीत होनेवाले सौ बलवान् एवं भयंकर घोड़े उस रथमें जुते हुए थे। जिनकी आँखें लाल थीं तथा जो इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले और मनचाहे वेगसे चलनेवाले थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वहन्तो राक्षसं घोरं वालवन्तो जितश्रमाः ॥ १४ ॥
विपुलाभिः सटाभिस्ते ह्रेषमाणा मुहुर्मुहुः।
मूलम्
वहन्तो राक्षसं घोरं वालवन्तो जितश्रमाः ॥ १४ ॥
विपुलाभिः सटाभिस्ते ह्रेषमाणा मुहुर्मुहुः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन घोड़ोंके कंधोंपर लंबे-लंबे बाल थे। वे परिश्रमको जीत चुके थे। वे सभी अपने विशाल केसरों (गर्दनके लंबे बालों)-से सुशोभित थे और उस भयानक राक्षसका भार वहन करते हुए वे बारंबार हिनहिना रहे थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसोऽस्य विरूपाक्षः सूतो दीप्तास्यकुण्डलः ॥ १५ ॥
रश्मिभिः सूर्यरश्म्याभैः संजग्राह हयान् रणे।
स तेन सहितस्तस्थावरुणेन यथा रविः ॥ १६ ॥
मूलम्
राक्षसोऽस्य विरूपाक्षः सूतो दीप्तास्यकुण्डलः ॥ १५ ॥
रश्मिभिः सूर्यरश्म्याभैः संजग्राह हयान् रणे।
स तेन सहितस्तस्थावरुणेन यथा रविः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीप्तिमान् मुख और कुण्डलोंसे युक्त विरूपाक्ष नामक राक्षस घटोत्कचका सारथि था, जो रणभूमिमें सूर्यकी किरणोंके समान चमकीली बागडोर पकड़कर उन घोड़ोंको काबूमें रखता था। उसके साथ रथपर बैठा हुआ घटोत्कच ऐसा जान पड़ता था, मानो अरुण नामक सारथिके साथ सूर्यदेव अपने रथपर विराजमान हों॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसक्त इव चाभ्रेण यथाद्रिर्महता महान्।
दिवःस्पृक् सुमहान् केतुः स्यन्दनेऽस्य समुच्छ्रितः ॥ १७ ॥
रक्तोत्तमाङ्गः क्रव्यादो गृध्रः परमभीषणः।
मूलम्
संसक्त इव चाभ्रेण यथाद्रिर्महता महान्।
दिवःस्पृक् सुमहान् केतुः स्यन्दनेऽस्य समुच्छ्रितः ॥ १७ ॥
रक्तोत्तमाङ्गः क्रव्यादो गृध्रः परमभीषणः।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे महान् पर्वत किसी महामेघसे संयुक्त हो जाय, उसी प्रकार अपने सारथिके साथ बैठे हुए घटोत्कचकी शोभा हो रही थी। उसके रथपर बहुत ऊँची गगन-चुम्बिनी पताका फहरा रही थी, जिसपर एक लाल सिरवाला अत्यन्त भयंकर मांसभोजी गीध दिखायी देता था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासवाशनिनिर्घोषं दृढज्यमतिविक्षिपन् ॥ १८ ॥
व्यक्तं किष्कुपरीणाहं द्वादशारत्निकार्मुकम् ।
रथाक्षमात्रैरिषुभिः सर्वाः प्रच्छादयन् दिशः ॥ १९ ॥
तस्यां वीरापहारिण्यां निशायां कर्णमभ्ययात्।
मूलम्
वासवाशनिनिर्घोषं दृढज्यमतिविक्षिपन् ॥ १८ ॥
व्यक्तं किष्कुपरीणाहं द्वादशारत्निकार्मुकम् ।
रथाक्षमात्रैरिषुभिः सर्वाः प्रच्छादयन् दिशः ॥ १९ ॥
तस्यां वीरापहारिण्यां निशायां कर्णमभ्ययात्।
अनुवाद (हिन्दी)
वीरोंका संहार करनेवाली उस रात्रिमें इन्द्रके वज्रकी भाँति भयानक टंकार करनेवाले और सुदृढ़ प्रत्यंचावाले एक हाथ चौड़े एवं बारह अरत्नि लंबे धनुषको खींचता और रथके धुरेके समान मोटे बाणोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित करता हुआ घटोत्कच (पूर्वोक्त रथपर आरूढ़ हो) कर्णकी ओर चला॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य विक्षिपतश्चापं रथे विष्टभ्य तिष्ठतः ॥ २० ॥
अश्रूयत धनुर्घोषो विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
मूलम्
तस्य विक्षिपतश्चापं रथे विष्टभ्य तिष्ठतः ॥ २० ॥
अश्रूयत धनुर्घोषो विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
अनुवाद (हिन्दी)
रथपर स्थिरतापूर्वक खड़े हो जब वह अपने धनुषको खींच रहा था, उस समय उसकी टंकार वज्रकी गड़गड़ाहटके समान सुनायी देती थी॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन वित्रास्यमानानि तव सैन्यानि भारत ॥ २१ ॥
समकम्पन्त सर्वाणि सिन्धोरिव महोर्मयः।
मूलम्
तेन वित्रास्यमानानि तव सैन्यानि भारत ॥ २१ ॥
समकम्पन्त सर्वाणि सिन्धोरिव महोर्मयः।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस घोर शब्दसे डरायी हुई आपकी सारी सेनाएँ समुद्रकी बड़ी-बड़ी लहरोंके समान काँपने लगीं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य विरूपाक्षं विभीषणम् ॥ २२ ॥
उत्स्मयन्निव राधेयस्त्वरमाणोऽभ्यवारयत् ।
मूलम्
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य विरूपाक्षं विभीषणम् ॥ २२ ॥
उत्स्मयन्निव राधेयस्त्वरमाणोऽभ्यवारयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
विकराल नेत्रोंवाले उस भयानक राक्षसको आते देख राधापुत्र कर्णने मुसकराते हुए-से शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़कर उसे रोका॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कर्णोऽभ्ययादेनमस्यन्नस्यन्तमन्तिकात् ॥ २३ ॥
मातङ्ग इव मातङ्गं यूथर्षभमिवर्षभः।
मूलम्
ततः कर्णोऽभ्ययादेनमस्यन्नस्यन्तमन्तिकात् ॥ २३ ॥
मातङ्ग इव मातङ्गं यूथर्षभमिवर्षभः।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे एक यूथपति गजराजका सामना करनेके लिये दूसरे यूथका अधिपति गजराज चढ़ आता है, उसी प्रकार बाणोंकी वर्षा करते हुए घटोत्कचपर बाणोंकी बौछार करते हुए कर्णने उसके ऊपर निकटसे आक्रमण किया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संनिपातस्तुमुलस्तयोरासीद् विशाम्पते ॥ २४ ॥
कर्णराक्षसयो राजन्निन्द्रशम्बरयोरिव ।
मूलम्
स संनिपातस्तुमुलस्तयोरासीद् विशाम्पते ॥ २४ ॥
कर्णराक्षसयो राजन्निन्द्रशम्बरयोरिव ।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! राजन्! पूर्वकालमें जैसे इन्द्र और शम्बरासुरमें युद्ध हुआ था, उसी प्रकार कर्ण और राक्षसका वह संग्राम बड़ा भयंकर हुआ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ प्रगृह्य महावेगे धनुषी भीमनिःस्वने ॥ २५ ॥
प्राच्छादयेतामन्योन्यं तक्षमाणौ महेषुभिः ।
मूलम्
तौ प्रगृह्य महावेगे धनुषी भीमनिःस्वने ॥ २५ ॥
प्राच्छादयेतामन्योन्यं तक्षमाणौ महेषुभिः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों भयंकर टंकार करनेवाले अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर बड़े-बड़े बाणोंद्वारा एक-दूसरेको क्षत-विक्षत करते हुए आच्छादित करने लगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैरिषुभिर्नतपर्वभिः ॥ २६ ॥
न्यवारयेतामन्योन्यं कांस्ये निर्भिद्य वर्मणी।
मूलम्
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैरिषुभिर्नतपर्वभिः ॥ २६ ॥
न्यवारयेतामन्योन्यं कांस्ये निर्भिद्य वर्मणी।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे दोनों वीर धनुषको पूर्णतः खींचकर छोड़े गये झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा परस्पर कांस्यनिर्मित कवचोंको छिन्न-भिन्न करके एक-दूसरेको रोकने लगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ नखैरिव शार्दूलौ दन्तैरिव महाद्विपौ ॥ २७ ॥
रथशक्तिभिरन्योन्यं विशिखैश्च ततक्षतुः ।
मूलम्
तौ नखैरिव शार्दूलौ दन्तैरिव महाद्विपौ ॥ २७ ॥
रथशक्तिभिरन्योन्यं विशिखैश्च ततक्षतुः ।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे दो सिंह नखोंसे और दो महान् गजराज दाँतोंसे परस्पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों योद्धा रथशक्तियों और बाणोंद्वारा एक-दूसरेको घायल करने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संछिन्दन्तौ च गात्राणि संदधानौ च सायकान् ॥ २८ ॥
दहन्तौ च शरोल्काभिर्दुष्प्रेक्ष्यौ च बभूवतुः।
मूलम्
संछिन्दन्तौ च गात्राणि संदधानौ च सायकान् ॥ २८ ॥
दहन्तौ च शरोल्काभिर्दुष्प्रेक्ष्यौ च बभूवतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
वे सायकोंका संधान करके एक-दूसरेके अंगोंको छेदते और बाणमयी उल्काओंसे दग्ध करते थे। उससे उन दोनोंकी ओर देखना अत्यन्त कठिन हो रहा था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तु विक्षतसर्वाङ्गौ रुधिरौघपरिप्लुतौ ॥ २९ ॥
व्यभ्राजेतां यथा वारि स्रवन्तौ गैरिकाचलौ।
मूलम्
तौ तु विक्षतसर्वाङ्गौ रुधिरौघपरिप्लुतौ ॥ २९ ॥
व्यभ्राजेतां यथा वारि स्रवन्तौ गैरिकाचलौ।
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके सारे अंग घावोंसे भर गये थे और दोनों ही खूनसे लथपथ हो गये थे। उस समय वे जलका स्रोत बहाते हुए गेरूके दो पर्वतोंके समान शोभा पा रहे भे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ शराग्रविनुन्नाङ्गौ निर्भिन्दन्तौ परस्परम् ॥ ३० ॥
नाकम्पयेतामन्योन्यं यतमानौ महाद्युती ।
मूलम्
तौ शराग्रविनुन्नाङ्गौ निर्भिन्दन्तौ परस्परम् ॥ ३० ॥
नाकम्पयेतामन्योन्यं यतमानौ महाद्युती ।
अनुवाद (हिन्दी)
दोनोंके अंग बाणोंके अग्रभागसे छिदकर छलनी हो रहे थे। दोनों ही एक-दूसरेको विदीर्ण कर रहे थे, तो भी वे महातेजस्वी वीर परस्पर विजयके प्रयत्नमें लगे रहे और एक-दूसरेको कम्पित न कर सके॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् प्रवृत्तं निशायुद्धं चिरं सममिवाभवत् ॥ ३१ ॥
प्राणयोर्दीव्यतो राजन् कर्णराक्षसयोर्मृधे ।
मूलम्
तत् प्रवृत्तं निशायुद्धं चिरं सममिवाभवत् ॥ ३१ ॥
प्राणयोर्दीव्यतो राजन् कर्णराक्षसयोर्मृधे ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! युद्धके जूएमें प्राणोंकी बाजी लगाकर खेलते हुए कर्ण और राक्षसका वह रात्रियुद्ध दीर्घकालतक समानरूपमें ही चलता रहा॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य संदधतस्तीक्ष्णान् शरांश्चासक्तमस्यतः ॥ ३२ ॥
धनुर्घोषेण वित्रस्ताः स्वे परे च तदाभवन्।
मूलम्
तस्य संदधतस्तीक्ष्णान् शरांश्चासक्तमस्यतः ॥ ३२ ॥
धनुर्घोषेण वित्रस्ताः स्वे परे च तदाभवन्।
अनुवाद (हिन्दी)
घटोत्कच तीखे बाणोंका संधान करके उन्हें इस प्रकार छोड़ता कि वे एक-दूसरेसे सटे हुए निकलते थे। उसके धनुषकी टंकारसे अपने और शत्रुपक्षके योद्धा भी भयसे थर्रा उठते थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचं यदा कर्णो विशेषयति नो नृप ॥ ३३ ॥
ततः प्रादुष्करोद् दिव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः।
मूलम्
घटोत्कचं यदा कर्णो विशेषयति नो नृप ॥ ३३ ॥
ततः प्रादुष्करोद् दिव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जब कर्ण घटोत्कचसे बढ़ न सका, तब उस अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ वीरने दिव्यास्त्र प्रकट किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णेन संधितं दृष्ट्वा दिव्यमस्त्रं घटोत्कचः ॥ ३४ ॥
प्रादुश्चक्रे महामायां राक्षसीं पाण्डुनन्दनः।
मूलम्
कर्णेन संधितं दृष्ट्वा दिव्यमस्त्रं घटोत्कचः ॥ ३४ ॥
प्रादुश्चक्रे महामायां राक्षसीं पाण्डुनन्दनः।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णको दिव्यास्त्रका संधान करते देख पाण्डवनन्दन घटोत्कचने अपनी राक्षसी महामाया प्रकट की॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूलमुद्गरधारिण्या शैलपादपहस्तया ॥ ३५ ॥
रक्षसां घोररूपाणां महत्या सेनया वृतः।
मूलम्
शूलमुद्गरधारिण्या शैलपादपहस्तया ॥ ३५ ॥
रक्षसां घोररूपाणां महत्या सेनया वृतः।
अनुवाद (हिन्दी)
वह तत्काल ही शूल, मुद्गर, शिलाखण्ड और वृक्ष हाथमें लिये हुए घोररूपधारी राक्षसोंकी विशाल सेनासे घिर गया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुद्यतमहाचापं दृष्ट्वा ते व्यथिता नृपाः ॥ ३६ ॥
भूतान्तकमिवायान्तं कालदण्डोग्रधारिणम् ।
मूलम्
तमुद्यतमहाचापं दृष्ट्वा ते व्यथिता नृपाः ॥ ३६ ॥
भूतान्तकमिवायान्तं कालदण्डोग्रधारिणम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
भयानक कालदण्ड धारण किये, समस्त भूतोंके प्राणहन्ता यमराजके समान उसे विशाल धनुष उठाये आते देख वहाँ उपस्थित हुए वे सभी नरेश व्यथित हो उठे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचप्रयुक्तेन सिंहनादेन भीषिताः ॥ ३७ ॥
प्रसुस्रुवुर्गजा मूत्रं विव्यथुश्च नरा भृशम्।
मूलम्
घटोत्कचप्रयुक्तेन सिंहनादेन भीषिताः ॥ ३७ ॥
प्रसुस्रुवुर्गजा मूत्रं विव्यथुश्च नरा भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
घटोत्कचके सिंहनादसे भयभीत हो हाथियोंके पेशाब झरने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो गये॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽश्मवृष्टिरत्युग्रा महत्यासीत् समन्ततः ॥ ३८ ॥
अर्धरात्रेऽधिकबलैर्विमुक्ता रक्षसां बलैः ।
मूलम्
ततोऽश्मवृष्टिरत्युग्रा महत्यासीत् समन्ततः ॥ ३८ ॥
अर्धरात्रेऽधिकबलैर्विमुक्ता रक्षसां बलैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर चारों ओरसे पत्थरोंकी अत्यन्त भयंकर एवं भारी वर्षा होने लगी। आधी रातके समय अधिक बलशाली हुए राक्षसोंके समुदाय वह प्रस्तर-वर्षा कर रहे थे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयसानि च चक्राणि भुशुण्ड्यः शक्तितोमराः ॥ ३९ ॥
पतन्त्यविरलाः शूलाः शतघ्न्यः पट्टिशास्तथा।
मूलम्
आयसानि च चक्राणि भुशुण्ड्यः शक्तितोमराः ॥ ३९ ॥
पतन्त्यविरलाः शूलाः शतघ्न्यः पट्टिशास्तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
लोहेके चक्र, भुशुण्डी, शक्ति, तोमर, शूल, शतघ्नी और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रोंकी अविरल धाराएँ गिर रही थीं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुग्रमतिरौद्रं च दृष्ट्वा युद्धं नराधिप ॥ ४० ॥
पुत्राश्च तव योधाश्च व्यथिता विप्रदुद्रुवुः।
मूलम्
तदुग्रमतिरौद्रं च दृष्ट्वा युद्धं नराधिप ॥ ४० ॥
पुत्राश्च तव योधाश्च व्यथिता विप्रदुद्रुवुः।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस अत्यन्त भयंकर और उग्र संग्रामको देखकर आपके पुत्र और योद्धा भयभीत होकर भाग चले॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैकोऽस्त्रबलश्लाघी कर्णो मानी न विव्यथे ॥ ४१ ॥
व्यधमच्च शरैर्मायां तां घटोत्कचनिर्मिताम्।
मूलम्
तत्रैकोऽस्त्रबलश्लाघी कर्णो मानी न विव्यथे ॥ ४१ ॥
व्यधमच्च शरैर्मायां तां घटोत्कचनिर्मिताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अपने अस्त्रबलकी प्रशंसा करनेवाला एकमात्र अभिमानी कर्ण ही वहाँ खड़ा रहा। उसके मनमें तनिक भी व्यथा नहीं हुई। उसने अपने बाणोंसे घटोत्कचद्वारा निर्मित मायाको नष्ट कर दिया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायायां तु प्रहीणायाममर्षाच्च घटोत्कचः ॥ ४२ ॥
विससर्ज शरान् घोरान् सूतपुत्रं त आविशन्।
मूलम्
मायायां तु प्रहीणायाममर्षाच्च घटोत्कचः ॥ ४२ ॥
विससर्ज शरान् घोरान् सूतपुत्रं त आविशन्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस मायाके नष्ट हो जानेपर घटोत्कचने अमर्षमें भरकर भयंकर बाण छोड़े, जो सूतपुत्रके शरीरमें समा गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते रुधिराभ्यक्ता भित्त्वा कर्णं महाहवे ॥ ४३ ॥
विविशुर्धरणीं बाणाः संक्रुद्धा इव पन्नगाः।
मूलम्
ततस्ते रुधिराभ्यक्ता भित्त्वा कर्णं महाहवे ॥ ४३ ॥
विविशुर्धरणीं बाणाः संक्रुद्धा इव पन्नगाः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे रुधिरसे रँगे हुए बाण उस महासमरमें कर्णको छेदकर कुपित हुए सर्पोंके समान धरतीमें समा गये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतपुत्रस्तु संक्रुद्धो लघुहस्तः प्रतापवान् ॥ ४४ ॥
घटोत्कचमतिक्रम्य बिभेद दशभिः शरैः।
मूलम्
सूतपुत्रस्तु संक्रुद्धो लघुहस्तः प्रतापवान् ॥ ४४ ॥
घटोत्कचमतिक्रम्य बिभेद दशभिः शरैः।
अनुवाद (हिन्दी)
इससे शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाला प्रतापी वीर सूतपुत्र कर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने घटोत्कचका उल्लंघन करके उसे दस बाणोंसे घायल कर दिया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचो विनिर्भिन्नः सूतपुत्रेण मर्मसु ॥ ४५ ॥
चक्रं दिव्यं सहस्रारमगृह्णाद् व्यथितो भृशम्।
मूलम्
घटोत्कचो विनिर्भिन्नः सूतपुत्रेण मर्मसु ॥ ४५ ॥
चक्रं दिव्यं सहस्रारमगृह्णाद् व्यथितो भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
सूतपुत्रके द्वारा मर्मस्थानोंमें विदीर्ण होकर अत्यन्त व्यथित हुए घटोत्कचने दिव्य सहस्रार चक्र हाथमें लिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुरान्तं बालसूर्याभं मणिरत्नविभूषितम् ॥ ४६ ॥
चिक्षेपाधिरथेः क्रुद्धो भैमसेनिर्जिघांसया ।
मूलम्
क्षुरान्तं बालसूर्याभं मणिरत्नविभूषितम् ॥ ४६ ॥
चिक्षेपाधिरथेः क्रुद्धो भैमसेनिर्जिघांसया ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस चक्रके किनारे-किनारे छुरे लगे हुए थे। मणि एवं रत्नोंसे विभूषित हुआ वह चक्र प्रातःकालीन सूर्यके समान प्रतीत होता था। क्रोधमें भरे हुए भीमसेनकुमार घटोत्कचने अधिरथपुत्र कर्णको मार डालनेकी इच्छासे उस चक्रको चला दिया॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविद्धमतिवेगेन विक्षिप्तं कर्णसायकैः ॥ ४७ ॥
अभाग्यस्येव संकल्पस्तन्मोघमपतद् भुवि ।
मूलम्
प्रविद्धमतिवेगेन विक्षिप्तं कर्णसायकैः ॥ ४७ ॥
अभाग्यस्येव संकल्पस्तन्मोघमपतद् भुवि ।
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु अत्यन्त वेगसे फेंका गया वह घूमता हुआ चक्र कर्णके बाणोंद्वारा आहत हो भाग्यहीनके संकल्पकी भाँति व्यर्थ होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचस्तु संक्रुद्धो दृष्ट्वा चक्रं निपातितम् ॥ ४८ ॥
कर्णं प्राच्छादयद् बाणैः स्वर्भानुरिव भास्करम्।
मूलम्
घटोत्कचस्तु संक्रुद्धो दृष्ट्वा चक्रं निपातितम् ॥ ४८ ॥
कर्णं प्राच्छादयद् बाणैः स्वर्भानुरिव भास्करम्।
अनुवाद (हिन्दी)
चक्रको गिराया हुआ देख क्रोधमें भरे हुए घटोत्कचने अपने बाणोंद्वारा कर्णको उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे राहु सूर्यको ढक देता है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतपुत्रस्त्वसम्भ्रान्तो रुद्रोपेन्द्रेन्द्रविक्रमः ॥ ४९ ॥
घटोत्कचरथं तूर्णं छादयामास पत्रिभिः।
मूलम्
सूतपुत्रस्त्वसम्भ्रान्तो रुद्रोपेन्द्रेन्द्रविक्रमः ॥ ४९ ॥
घटोत्कचरथं तूर्णं छादयामास पत्रिभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु रुद्र, विष्णु और इन्द्रके समान पराक्रमी सूतपुत्र कर्णको इससे तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने तुरंत ही पंखदार बाणोंसे घटोत्कचके रथको आच्छादित कर दिया॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचेन क्रुद्धेन गदा हेमाङ्गदा तदा ॥ ५० ॥
क्षिप्ताऽऽभ्राम्य शरैः सापि कर्णेनाभ्याहतापतत्।
मूलम्
घटोत्कचेन क्रुद्धेन गदा हेमाङ्गदा तदा ॥ ५० ॥
क्षिप्ताऽऽभ्राम्य शरैः सापि कर्णेनाभ्याहतापतत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुपित हुए घटोत्कचने सोनेके कड़ेसे विभूषित गदा घुमाकर चलायी, किंतु कर्णके बाणोंसे आहत होकर वह भी नीचे गिर पड़ी॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्तरिक्षमुत्पत्य कालमेघ इवोन्नदन् ॥ ५१ ॥
प्रववर्ष महाकायो द्रुमवर्षं नभस्तलात्।
मूलम्
ततोऽन्तरिक्षमुत्पत्य कालमेघ इवोन्नदन् ॥ ५१ ॥
प्रववर्ष महाकायो द्रुमवर्षं नभस्तलात्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अन्तरिक्षमें उछलकर वह विशालकाय राक्षस प्रलयकालके मेघकी भाँति गर्जना करता हुआ आकाशसे वृक्षोंकी वर्षा करने लगा॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मायाविनं कर्णो भीमसेनसुतं दिवि ॥ ५२ ॥
मार्गणैरभिविव्याध घनं सूर्य इवांशुभिः।
मूलम्
ततो मायाविनं कर्णो भीमसेनसुतं दिवि ॥ ५२ ॥
मार्गणैरभिविव्याध घनं सूर्य इवांशुभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब कर्ण भीमसेनके मायावी पुत्रको अपने बाणोंद्वारा आकाशमें उसी प्रकार बींधने लगा, जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा मेघोंको विद्ध कर देते हैं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य सर्वान् हयान् हत्वा संछिद्य शतधा रथम् ॥ ५३ ॥
अभ्यवर्षच्छरैः कर्णः पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
मूलम्
तस्य सर्वान् हयान् हत्वा संछिद्य शतधा रथम् ॥ ५३ ॥
अभ्यवर्षच्छरैः कर्णः पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
अनुवाद (हिन्दी)
उसके सारे घोड़ोंको मारकर और रथके सैकड़ों टुकड़े करके कर्णने वर्षा करनेवाले मेघकी भाँति बाणोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चास्यासीदनिर्भिन्नं गात्रे द्व्यङ्गुलमन्तरम् ॥ ५४ ॥
सोऽदृश्यत मुहूर्तेन श्वाविच्छललितो यथा।
मूलम्
न चास्यासीदनिर्भिन्नं गात्रे द्व्यङ्गुलमन्तरम् ॥ ५४ ॥
सोऽदृश्यत मुहूर्तेन श्वाविच्छललितो यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
घटोत्कचके शरीरमें दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं बचा था, जो बाणोंसे विदीर्ण न हो गया हो। वह दो ही घड़ीमें काँटोंसे युक्त साहीके समान दिखायी देने लगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हयान्न रथं तस्य न ध्वजं न घटोत्कचम्॥५५॥
दृष्टवन्तः स्म समरे शरौघैरभिसंवृतम्।
मूलम्
न हयान्न रथं तस्य न ध्वजं न घटोत्कचम्॥५५॥
दृष्टवन्तः स्म समरे शरौघैरभिसंवृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें बाणोंके समूहसे घिरे हुए घटोत्कचको, उसके घोड़ोंको, रथको तथा ध्वजको भी कोई नहीं देख पाते थे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु कर्णस्य तद् दिव्यमस्त्रमस्त्रेण शातयन् ॥ ५६ ॥
मायायुद्धेन मायावी सूतपुत्रमयोधयत् ।
मूलम्
स तु कर्णस्य तद् दिव्यमस्त्रमस्त्रेण शातयन् ॥ ५६ ॥
मायायुद्धेन मायावी सूतपुत्रमयोधयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह मायावी राक्षस कर्णके दिव्यास्त्रको अपने अस्त्रद्वारा काटते हुए वहाँ सूतपुत्रके साथ मायामय युद्ध करने लगा॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयोधयत् तदा कर्णं मायया लाघवेन च ॥ ५७ ॥
अलक्ष्यमाणानि दिवि शरजालानि चापतन्।
मूलम्
सोऽयोधयत् तदा कर्णं मायया लाघवेन च ॥ ५७ ॥
अलक्ष्यमाणानि दिवि शरजालानि चापतन्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय माया तथा शीघ्रकारिताके द्वारा वह कर्णको लड़ा रहा था। आकाशसे कर्णपर अलक्षित बाणसमूहोंकी वर्षा हो रही थी॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भैमसेनिर्महामायो मायया कुरुसत्तम ॥ ५८ ॥
विचचार महाकायो मोहयन्निव भारत।
मूलम्
भैमसेनिर्महामायो मायया कुरुसत्तम ॥ ५८ ॥
विचचार महाकायो मोहयन्निव भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! भरतनन्दन! वह विशालकाय महामायावी भीमसेनकुमार घटोत्कच मायासे सबको मोहित करता हुआ-सा सब ओर विचरने लगा॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु कृत्वा विरूपाणि वदनान्यशुभानि च ॥ ५९ ॥
अग्रसत् सूतपुत्रस्य दिव्यान्यस्त्राणि मायया।
मूलम्
स तु कृत्वा विरूपाणि वदनान्यशुभानि च ॥ ५९ ॥
अग्रसत् सूतपुत्रस्य दिव्यान्यस्त्राणि मायया।
अनुवाद (हिन्दी)
उसने मायाद्वारा बहुत-से विकराल एवं अमंगल-सूचक मुख बनाकर सूतपुत्रके दिव्यास्त्रोंको अपना ग्रास बना लिया॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्चापि महाकायः संछिन्नः शतधा रणे ॥ ६० ॥
गतसत्त्वो निरुत्साहः पतितः खाद्ध्यदृश्यत।
मूलम्
पुनश्चापि महाकायः संछिन्नः शतधा रणे ॥ ६० ॥
गतसत्त्वो निरुत्साहः पतितः खाद्ध्यदृश्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह महाकाय राक्षस धैर्यहीन एवं उत्साहशून्य-सा होकर रणभूमिमें आकाशसे सैकड़ों टुकड़ोंमें कटकर गिरा हुआ दिखायी दिया॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं हतं मन्यमानाः स्म प्राणदन् कुरुपुङ्गवाः ॥ ६१ ॥
अथ देहैर्नवैरन्यैर्दिक्षु सर्वास्वदृश्यत ।
मूलम्
तं हतं मन्यमानाः स्म प्राणदन् कुरुपुङ्गवाः ॥ ६१ ॥
अथ देहैर्नवैरन्यैर्दिक्षु सर्वास्वदृश्यत ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उसे मरा हुआ मानकर कौरव-दलके प्रमुख वीर जोर-जोरसे गर्जना करने लगे। इतनेहीमें वह दूसरे बहुत-से नये-नये शरीर धारण करके सम्पूर्ण दिशाओंमें दिखायी देने लगा॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्चापि महाकायः शतशीर्षः शतोदरः ॥ ६२ ॥
व्यदृश्यत महाबाहुर्मैनाक इव पर्वतः।
मूलम्
पुनश्चापि महाकायः शतशीर्षः शतोदरः ॥ ६२ ॥
व्यदृश्यत महाबाहुर्मैनाक इव पर्वतः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह बड़ी-बड़ी बाँहोंवाला एक ही विशालकाय रूप धारण करके मैनाक पर्वतके समान दृष्टिगोचर हुआ। उस समय उसके सौ मस्तक तथा सौ पेट हो गये थे॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गुष्ठमात्रो भूत्वा च पुनरेव स राक्षसः ॥ ६३ ॥
सागरोर्मिरिवोद्धूतस्तिर्यगूर्ध्वमवर्तत ।
मूलम्
अङ्गुष्ठमात्रो भूत्वा च पुनरेव स राक्षसः ॥ ६३ ॥
सागरोर्मिरिवोद्धूतस्तिर्यगूर्ध्वमवर्तत ।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वह राक्षस अँगूठेके बराबर होकर उछलती हुई समुद्रकी लहरके समान कभी ऊपर और कभी इधर-उधर होने लगा॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुधां दारयित्वा च पुनरप्सु न्यमज्जत ॥ ६४ ॥
अदृश्यत तदा तत्र पुनरुन्मज्जितोऽन्यतः।
मूलम्
वसुधां दारयित्वा च पुनरप्सु न्यमज्जत ॥ ६४ ॥
अदृश्यत तदा तत्र पुनरुन्मज्जितोऽन्यतः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर पृथ्वीको फाड़कर वह पानीमें डूब गया और दूसरी जगह पुनः जलसे ऊपर आकर दिखायी देने लगा॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽवतीर्य पुनस्तस्थौ रथे हेमपरिष्कृते ॥ ६५ ॥
क्षितिं खं च दिशश्चैव माययाभ्येत्य दंशितः।
गत्वा कर्णरथाभ्याशं व्यचरत् कुण्डलाननः ॥ ६६ ॥
मूलम्
सोऽवतीर्य पुनस्तस्थौ रथे हेमपरिष्कृते ॥ ६५ ॥
क्षितिं खं च दिशश्चैव माययाभ्येत्य दंशितः।
गत्वा कर्णरथाभ्याशं व्यचरत् कुण्डलाननः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद आकाशसे उतरकर वह पुनः अपने सुवर्णमण्डित रथपर स्थित हो गया और मायासे ही पृथ्वी, आकाश एवं सम्पूर्ण दिशाओंमें घूमता हुआ कवचसे सुसज्जित हो कर्णके रथके समीप जाकर विचरने लगा। उस समय उसका मुख कुण्डलोंसे सुशोभित हो रहा था॥६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राह वाक्यमसम्भ्रान्तः सूतपुत्रं विशाम्पते।
तिष्ठेदानीं क्व मे जीवन् सूतपुत्र गमिष्यसि ॥ ६७ ॥
युद्धश्रद्धामहं तेऽद्य विनेष्यामि रणाजिरे।
मूलम्
प्राह वाक्यमसम्भ्रान्तः सूतपुत्रं विशाम्पते।
तिष्ठेदानीं क्व मे जीवन् सूतपुत्र गमिष्यसि ॥ ६७ ॥
युद्धश्रद्धामहं तेऽद्य विनेष्यामि रणाजिरे।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! अब घटोत्कच सम्भ्रमरहित हो सूतपुत्र कर्णसे बोला—‘सारथिके बेटे! खड़ा रह। अब तू मुझसे जीवित बचकर कहाँ जायगा? आज मैं समरांगणमें तेरा युद्धका हौसला मिटा दूँगा’॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षं रक्षः क्रूरपराक्रमम् ॥ ६८ ॥
उत्पपातान्तरिक्षं च जहास च सुविस्तरम्।
कर्णमभ्यहनच्चैव गजेन्द्रमिव केसरी ॥ ६९ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षं रक्षः क्रूरपराक्रमम् ॥ ६८ ॥
उत्पपातान्तरिक्षं च जहास च सुविस्तरम्।
कर्णमभ्यहनच्चैव गजेन्द्रमिव केसरी ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधसे लाल आँखें किये वह क्रूर पराक्रमी राक्षस उपर्युक्त बात कहकर आकाशमें उछला और बड़े जोरसे अट्टहास करने लगा। फिर जैसे सिंह गजराजपर चोट करता है, उसी प्रकार वह कर्णपर आघात करने लगा॥६८-६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथाक्षमात्रैरिषुभिरभ्यवर्षद् घटोत्कचः ।
रथिनामृषभं कर्णं धाराभिरिव तोयदः ॥ ७० ॥
मूलम्
रथाक्षमात्रैरिषुभिरभ्यवर्षद् घटोत्कचः ।
रथिनामृषभं कर्णं धाराभिरिव तोयदः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बादल पर्वतपर जलकी धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियोंमें श्रेष्ठ कर्णपर रथके धुरेके समान मोटे-मोटे बाणोंकी वर्षा करने लगा॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरवृष्टिं च तां कर्णो दूरात् प्राप्तामशातयत्।
दृष्ट्वा च विहतां मायां कर्णेन भरतर्षभ ॥ ७१ ॥
घटोत्कचस्ततो मायां ससर्जान्तर्हितः पुनः।
मूलम्
शरवृष्टिं च तां कर्णो दूरात् प्राप्तामशातयत्।
दृष्ट्वा च विहतां मायां कर्णेन भरतर्षभ ॥ ७१ ॥
घटोत्कचस्ततो मायां ससर्जान्तर्हितः पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
अपने ऊपर प्राप्त हुई उस बाण-वर्षाको कर्णने दूरसे ही काट गिराया। भरतश्रेष्ठ! कर्णके द्वारा अपनी मायाको नष्ट हुई देख घटोत्कचने अदृश्य होकर पुनः दूसरी मायाकी सृष्टि की॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभवद् गिरिरत्युच्चः शिखरैस्तरुसंकटैः ॥ ७२ ॥
शूलप्रासासिमुसलजलप्रस्रवणो महान् ।
मूलम्
सोऽभवद् गिरिरत्युच्चः शिखरैस्तरुसंकटैः ॥ ७२ ॥
शूलप्रासासिमुसलजलप्रस्रवणो महान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह वृक्षावलियोंद्वारा हरे-भरे शिखरोंसे सुशोभित एक अत्यन्त ऊँचा महान् पर्वत बन गया और उससे पानीके झरनेकी भाँति शूल, प्रास, खड्ग और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रोंका स्रोत बहने लगा॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमञ्जनचयप्रख्यं कर्णो दृष्ट्वा महीधरम् ॥ ७३ ॥
प्रपातैरायुधान्युग्राण्युद्वहन्तं न चुक्षुभे ।
स्मयन्निव ततः कर्णो दिव्यमस्त्रमुदैरयत् ॥ ७४ ॥
मूलम्
तमञ्जनचयप्रख्यं कर्णो दृष्ट्वा महीधरम् ॥ ७३ ॥
प्रपातैरायुधान्युग्राण्युद्वहन्तं न चुक्षुभे ।
स्मयन्निव ततः कर्णो दिव्यमस्त्रमुदैरयत् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घटोत्कचको अंजनराशिके समान काला पर्वत बनकर अपने झरनोंद्वारा भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंको प्रवाहित करते देखकर भी कर्णके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। उसने मुसकराते हुए-से अपना दिव्यास्त्र प्रकट किया॥७३-७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सोऽस्त्रेण शैलेन्द्रो विक्षिप्तो वै व्यनश्यत।
ततः स तोयदो भूत्वा नीलः सेन्द्रायुधो दिवि ॥ ७५ ॥
अश्मवृष्टिभिरत्युग्रः सूतपुत्रमवाकिरत् ।
मूलम्
ततः सोऽस्त्रेण शैलेन्द्रो विक्षिप्तो वै व्यनश्यत।
ततः स तोयदो भूत्वा नीलः सेन्द्रायुधो दिवि ॥ ७५ ॥
अश्मवृष्टिभिरत्युग्रः सूतपुत्रमवाकिरत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस दिव्यास्त्रद्वारा दूर फेंका गया वह पर्वतराज क्षणभरमें अदृश्य हो गया और पुनः आकाशमें इन्द्रधनुषसहित काला मेघ बनकर वह अत्यन्त भयंकर राक्षस सूतपुत्र कर्णपर पत्थरोंकी वर्षा करने लगा॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ संधाय वायव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः ॥ ७६ ॥
व्यधमत् कालमेघं तं कर्णो वैकर्तनो वृषः।
मूलम्
अथ संधाय वायव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः ॥ ७६ ॥
व्यधमत् कालमेघं तं कर्णो वैकर्तनो वृषः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ वैकर्तन दानी कर्णने वायव्यास्त्रका संधान करके उस काले मेघको नष्ट कर दिया॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मार्गणगणैः कर्णो दिशः प्रच्छाद्य सर्वशः ॥ ७७ ॥
जघानास्त्रं महाराज घटोत्कचसमीरितम् ।
मूलम्
स मार्गणगणैः कर्णो दिशः प्रच्छाद्य सर्वशः ॥ ७७ ॥
जघानास्त्रं महाराज घटोत्कचसमीरितम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कर्णने अपने बाणसमूहोंद्वारा सारी दिशाओंको आच्छादित करके घटोत्कचद्वारा चलाये गये अस्त्रोंको काट डाला॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रहस्य समरे भैमसेनिर्महाबलः ॥ ७८ ॥
प्रादुश्चक्रे महामायां कर्णं प्रति महारथम्।
मूलम्
ततः प्रहस्य समरे भैमसेनिर्महाबलः ॥ ७८ ॥
प्रादुश्चक्रे महामायां कर्णं प्रति महारथम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाबली भीमसेनकुमारने जोर-जोरसे हँसकर समरभूमिमें महारथी कर्णके प्रति अपनी महामाया प्रकट की॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दृष्ट्वा पुनरायान्तं रथेन रथिनां वरम् ॥ ७९ ॥
घटोत्कचमसम्भ्रान्तं राक्षसैर्बहुभिर्वृतम् ।
सिंहशार्दूलसदृशैर्मत्तमातङ्गविक्रमैः ॥ ८० ॥
मूलम्
स दृष्ट्वा पुनरायान्तं रथेन रथिनां वरम् ॥ ७९ ॥
घटोत्कचमसम्भ्रान्तं राक्षसैर्बहुभिर्वृतम् ।
सिंहशार्दूलसदृशैर्मत्तमातङ्गविक्रमैः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कर्णने रथियोंमें श्रेष्ठ घटोत्कचको पुनः रथपर बैठकर आते देखा। उसके मनमें तनिक भी घबराहट नहीं थी। सिंह, शार्दूल और मतवाले गजराजके समान पराक्रमी बहुत-से राक्षस उसे घेरे हुए थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजस्थैश्च रथस्थैश्च वाजिपृष्ठगतैस्तथा ।
नानाशस्त्रधरैर्घोरैर्नानाकवचभूषणैः ॥ ८१ ॥
मूलम्
गजस्थैश्च रथस्थैश्च वाजिपृष्ठगतैस्तथा ।
नानाशस्त्रधरैर्घोरैर्नानाकवचभूषणैः ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन राक्षसोंमेंसे कुछ हाथियोंपर, कुछ रथोंपर और कुछ घोड़ोंकी पीठोंपर सवार थे। वे भयंकर निशाचर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र, कवच और आभूषण धारण किये हुए थे॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृतं घटोत्कचं क्रूरैर्मरुद्भिरिव वासवम्।
दृष्ट्वा कर्णो महेष्वासो योधयामास राक्षसम् ॥ ८२ ॥
मूलम्
वृतं घटोत्कचं क्रूरैर्मरुद्भिरिव वासवम्।
दृष्ट्वा कर्णो महेष्वासो योधयामास राक्षसम् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रके समान क्रूर राक्षसोंसे आवृत घटोत्कचको सामने देखकर महाधनुर्धर कर्णने उस निशाचरके साथ युद्ध आरम्भ किया॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचस्ततः कर्णं विद््ध्वा पञ्चभिराशुगैः।
ननाद भैरवं नादं भीषयन् सर्वपार्थिवान् ॥ ८३ ॥
मूलम्
घटोत्कचस्ततः कर्णं विद््ध्वा पञ्चभिराशुगैः।
ननाद भैरवं नादं भीषयन् सर्वपार्थिवान् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर घटोत्कचने कर्णको पाँच बाणोंसे घायल करके समस्त राजाओंको भयभीत करते हुए वहाँ भयानक गर्जना की॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयश्चाञ्जलिकेनाथ सम्मार्गणगणं महत् ।
कर्णहस्तस्थितं चापं चिच्छेदाशु घटोत्कचः ॥ ८४ ॥
मूलम्
भूयश्चाञ्जलिकेनाथ सम्मार्गणगणं महत् ।
कर्णहस्तस्थितं चापं चिच्छेदाशु घटोत्कचः ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अंजलिक नामक बाण मारकर घटोत्कचने कर्णके हाथमें स्थित हुए विशाल धनुषको बाणसमूहोंसहित शीघ्र काट डाला॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यद् धनुरादाय दृढं भारसहं महत्।
विचकर्ष बलात् कर्ण इन्द्रायुधमिवोच्छ्रितम् ॥ ८५ ॥
मूलम्
अथान्यद् धनुरादाय दृढं भारसहं महत्।
विचकर्ष बलात् कर्ण इन्द्रायुधमिवोच्छ्रितम् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कर्णने भार सहन करनेमें समर्थ दूसरा विशाल, सुदृढ़ एवं इन्द्रधनुषके समान ऊँचा धनुष हाथमें लेकर उसे बलपूर्वक खींचा॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कर्णो महाराज प्रेषयामास सायकान्।
सुवर्णपुङ्खाञ्छत्रुघ्नान् खेचरान् राक्षसान् प्रति ॥ ८६ ॥
मूलम्
ततः कर्णो महाराज प्रेषयामास सायकान्।
सुवर्णपुङ्खाञ्छत्रुघ्नान् खेचरान् राक्षसान् प्रति ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर कर्णने उन आकाशचारी राक्षसोंको लक्ष्य करके सोनेके पंखवाले बहुत-से शत्रुनाशक बाण चलाये॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्।
सिंहेनेवार्दितं वन्यं गजानामाकुलं कुलम् ॥ ८७ ॥
मूलम्
तद् बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्।
सिंहेनेवार्दितं वन्यं गजानामाकुलं कुलम् ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन बाणोंसे पीड़ित हुआ चौड़ी छातीवाले राक्षसोंका वह समूह सिंहके सताये हुए जंगली हाथियोंके झुंडकी भाँति व्याकुल हो उठा॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधम्य राक्षसान् बाणैः साश्वसूतगजान् विभुः।
ददाह भगवान् वह्निर्भूतानीव युगक्षये ॥ ८८ ॥
मूलम्
विधम्य राक्षसान् बाणैः साश्वसूतगजान् विभुः।
ददाह भगवान् वह्निर्भूतानीव युगक्षये ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे प्रलयकालमें भगवान् अग्निदेव सम्पूर्ण भूतोंको भस्म कर डालते हैं, उसी प्रकार शक्तिशाली कर्णने अपने बाणोंद्वारा घोड़े, सारथि और हाथियोंसहित उन राक्षसोंको संतप्त करके जला डाला॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हत्वा राक्षसीं सेनां
शुशुभे सूतनन्दनः।
पुरेव त्रिपुरं दग्ध्वा
दिवि देवो महेश्वरः ॥ ८९ ॥
मूलम्
स हत्वा राक्षसीं सेनां शुशुभे सूतनन्दनः।
पुरेव त्रिपुरं दग्ध्वा दिवि देवो महेश्वरः ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पूर्वकालमें भगवान् महेश्वर आकाशमें त्रिपुरासुरका दाह करके सुशोभित हुए थे, उसी प्रकार उस राक्षस-सेनाका संहार करके सूतनन्दन कर्ण बड़ी शोभा पाने लगा॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु राजसहस्रेषु पाण्डवेयेषु मारिष।
नैनं निरीक्षितुमपि कश्चिच्छक्नोति पार्थिवः ॥ ९० ॥
मूलम्
तेषु राजसहस्रेषु पाण्डवेयेषु मारिष।
नैनं निरीक्षितुमपि कश्चिच्छक्नोति पार्थिवः ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माननीय नरेश! पाण्डवपक्षके सहस्रों राजाओंमेंसे कोई भी भूपाल उस समय कर्णकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋते घटोत्कचाद् राजन् राक्षसेन्द्रान्महाबलात्।
भीमवीर्यबलोपेतात् क्रुद्धाद् वैवस्वतादिव ॥ ९१ ॥
मूलम्
ऋते घटोत्कचाद् राजन् राक्षसेन्द्रान्महाबलात्।
भीमवीर्यबलोपेतात् क्रुद्धाद् वैवस्वतादिव ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! क्रोधमें भरे हुए यमराजके समान भयंकर बल-पराक्रमसे सम्पन्न महाबली राक्षसराज घटोत्कचको छोड़कर दूसरा कोई कर्णका सामना न कर सका॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य क्रुद्धस्य नेत्राभ्यां पावकः समजायत।
महोल्काभ्यां यथा राजन् सार्चिषः स्नेहबिन्दवः ॥ ९२ ॥
मूलम्
तस्य क्रुद्धस्य नेत्राभ्यां पावकः समजायत।
महोल्काभ्यां यथा राजन् सार्चिषः स्नेहबिन्दवः ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जैसे मशालोंसे जलती हुई तेलकी बूँदें गिरती हैं, उसी प्रकार क्रुद्ध हुए घटोत्कचके दोनों नेत्रोंसे आगकी चिनगारियाँ छूटने लगीं॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तलं तलेन संहत्य संदश्य दशनच्छदम्।
रथमास्थाय च पुनर्मायया निर्मितं तदा ॥ ९३ ॥
युक्तं गजनिभैर्वाहैः पिशाचवदनैः खरैः।
स सूतमब्रवीत् क्रुद्धः सूतपुत्राय मां वह ॥ ९४ ॥
मूलम्
तलं तलेन संहत्य संदश्य दशनच्छदम्।
रथमास्थाय च पुनर्मायया निर्मितं तदा ॥ ९३ ॥
युक्तं गजनिभैर्वाहैः पिशाचवदनैः खरैः।
स सूतमब्रवीत् क्रुद्धः सूतपुत्राय मां वह ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने उस समय हाथसे हाथ मलकर, दाँतोंसे ओठ चबाकर, पुनः हाथी-जैसे बलवान् एवं पिशाचोंके-से मुखवाले प्रखर गधोंसे जुते हुए मायानिर्मित रथपर बैठकर अपने सारथिसे कहा—‘तुम मुझे सूतपुत्र कर्णके पास ले चलो’॥९३-९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ययौ घोररूपेण रथेन रथिनां वरः।
द्वैरथं सूतपुत्रेण पुनरेव विशाम्पते ॥ ९५ ॥
मूलम्
स ययौ घोररूपेण रथेन रथिनां वरः।
द्वैरथं सूतपुत्रेण पुनरेव विशाम्पते ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! ऐसा कहकर रथियोंमें श्रेष्ठ घटोत्कच पुनः उस भयंकर रथके द्वारा सूतपुत्र कर्णके साथ द्वैरथ युद्ध करनेके लिये गया॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चिक्षेप पुनः क्रुद्धः
सूतपुत्राय राक्षसः।
अष्ट-चक्रां महा-घोराम्
अशनिं रुद्र-निर्मिताम् ॥ ९६ ॥
+++(द्रोणपुत्रायाष्टघण्टां क्षिप्तवान् यथा।)+++
द्वियोजनसमुत्सेधां योजनायामविस्तराम् ।
आयसीं निचितां शूलैः कदम्बमिव केसरैः ॥ ९७ ॥
मूलम्
स चिक्षेप पुनः क्रुद्धः सूतपुत्राय राक्षसः।
अष्टचक्रां महाघोरामशनिं रुद्रनिर्मिताम् ॥ ९६ ॥
द्वियोजनसमुत्सेधां योजनायामविस्तराम् ।
आयसीं निचितां शूलैः कदम्बमिव केसरैः ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस राक्षसने कुपित होकर पुनः सूतपुत्र कर्णपर आठ चक्रोंसे युक्त एक अत्यन्त भयंकर रुद्रनिर्मित अशनि चलायी, जिसकी ऊँचाई दो योजन और लंबाई-चौड़ाई एक-एक योजनकी थी। लोहेकी बनी हुई उस शक्तिमें शूल चुने गये थे। इससे वह केसरोंसे युक्त कदम्ब-पुष्पके समान जान पड़ती थी॥९६-९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामवप्लुत्य जग्राह कर्णो न्यस्य महद् धनुः।
चिक्षेप चैनां तस्यैव स्यन्दनात् सोऽवपुप्लुवे ॥ ९८ ॥
मूलम्
तामवप्लुत्य जग्राह कर्णो न्यस्य महद् धनुः।
चिक्षेप चैनां तस्यैव स्यन्दनात् सोऽवपुप्लुवे ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने अपना विशाल धनुष नीचे रख दिया और उछलकर उस अशनिको हाथसे पकड़ लिया; फिर उसे घटोत्कचपर ही चला दिया। घटोत्कच शीघ्र ही उस रथसे कूद पड़ा॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साश्वसूतध्वजं यानं भस्म कृत्वा महाप्रभा।
विवेश वसुधां भित्त्वा सुरास्तत्र विसिस्मियुः ॥ ९९ ॥
मूलम्
साश्वसूतध्वजं यानं भस्म कृत्वा महाप्रभा।
विवेश वसुधां भित्त्वा सुरास्तत्र विसिस्मियुः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अतिशय प्रभापूर्ण अशनि घोड़े, सारथि और ध्वजसहित घटोत्कचके रथको भस्म करके धरती फाड़कर समा गयी। यह देख वहाँ खड़े हुए सब देवता आश्चर्यचकित हो उठे॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णं तु सर्वभूतानि पूजयामासुरञ्जसा।
यदवप्लुत्य जग्राह देवसृष्टां महाशनिम् ॥ १०० ॥
मूलम्
कर्णं तु सर्वभूतानि पूजयामासुरञ्जसा।
यदवप्लुत्य जग्राह देवसृष्टां महाशनिम् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ सम्पूर्ण प्राणी कर्णकी प्रशंसा करने लगे; क्योंकि उसने महादेवजीकी बनायी हुई उस विशाल अशनिको अनायास ही उछलकर पकड़ लिया था॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कृत्वा रणे कर्ण आरुरोह रथं पुनः।
ततो मुमोच नाराचान् सूतपुत्रः परंतप ॥ १०१ ॥
मूलम्
एवं कृत्वा रणे कर्ण आरुरोह रथं पुनः।
ततो मुमोच नाराचान् सूतपुत्रः परंतप ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें ऐसा पराक्रम करके कर्ण पुनः अपने रथपर आ बैठा। शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! फिर सूतपुत्र कर्ण नाराचोंकी वर्षा करने लगा॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशक्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु मानद।
यदकार्षीत् तदा कर्णः संग्रामे भीमदर्शने ॥ १०२ ॥
मूलम्
अशक्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु मानद।
यदकार्षीत् तदा कर्णः संग्रामे भीमदर्शने ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंको सम्मान देनेवाले महाराज! उस भयंकर संग्राममें कर्णने उस समय जो कार्य किया था, उसे सम्पूर्ण प्राणियोंमें दूसरा कोई नहीं कर सकता था॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हन्यमानो नाराचैर्धाराभिरिव पर्वतः।
गन्धर्वनगराकारः पुनरन्तरधीयत ॥ १०३ ॥
मूलम्
स हन्यमानो नाराचैर्धाराभिरिव पर्वतः।
गन्धर्वनगराकारः पुनरन्तरधीयत ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पर्वतपर जलकी धाराएँ गिरती हैं, उसी प्रकार नाराचोंके प्रहारसे आहत हुआ घटोत्कच गन्धर्व-नगरके समान पुनः अदृश्य हो गया॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स वै महाकायो मायया लाघवेन च।
अस्त्राणि तानि दिव्यानि जघान रिपुसूदनः ॥ १०४ ॥
मूलम्
एवं स वै महाकायो मायया लाघवेन च।
अस्त्राणि तानि दिव्यानि जघान रिपुसूदनः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शत्रुओंका संहार करनेवाले विशालकाय घटोत्कचने अपनी माया तथा अस्त्र-संचालनकी शीघ्रतासे कर्णके उन दिव्यास्त्रोंको नष्ट कर दिया॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहन्यमानेष्वस्त्रेषु मायया तेन रक्षसा।
असम्भ्रान्तस्तदा कर्णस्तद् रक्षः प्रत्ययुध्यत ॥ १०५ ॥
मूलम्
निहन्यमानेष्वस्त्रेषु मायया तेन रक्षसा।
असम्भ्रान्तस्तदा कर्णस्तद् रक्षः प्रत्ययुध्यत ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस राक्षसके द्वारा मायासे अपने अस्त्रोंके नष्ट हो जानेपर भी उस समय कर्णके मनमें तनिक भी घबराहट नहीं हुई। वह उस राक्षसके साथ युद्ध करता ही रहा॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो महाराज भैमसेनिर्महाबलः।
चकार बहुधाऽऽत्मानं भीषयाणो महारथान् ॥ १०६ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो महाराज भैमसेनिर्महाबलः।
चकार बहुधाऽऽत्मानं भीषयाणो महारथान् ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए महाबली भीमसेनकुमार घटोत्कचने महारथियोंको भयभीत करते हुए अपने बहुत-से रूप बना लिये॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दिग्भ्यः समापेतुः सिंहव्याघ्रतरक्षवः।
अग्निजिह्वाश्च भुजगा विहगाश्चाप्ययोमुखाः ॥ १०७ ॥
मूलम्
ततो दिग्भ्यः समापेतुः सिंहव्याघ्रतरक्षवः।
अग्निजिह्वाश्च भुजगा विहगाश्चाप्ययोमुखाः ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सम्पूर्ण दिशाओंसे सिंह, व्याघ्र, तरक्षु (जरख) अग्निमयी जिह्वावाले सर्प तथा लोहमय चंचुवाले पक्षी आक्रमण करने लगे॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कीर्यमाणो विशिखैः कर्णचापच्युतैः शरैः।
नागराडिव दुष्प्रेक्ष्यस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १०८ ॥
मूलम्
स कीर्यमाणो विशिखैः कर्णचापच्युतैः शरैः।
नागराडिव दुष्प्रेक्ष्यस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागराजके समान घटोत्कचकी ओर देखना कठिन हो रहा था। वह कर्णके धनुषसे छूटे हुए शिखाहीन बाणोंद्वारा आच्छादित हो वहीं अन्तर्धान हो गया॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसाश्च पिशाचाश्च यातुधानास्तथैव च।
शालावृकाश्च बहवो वृकाश्च विकृताननाः ॥ १०९ ॥
ते कर्णं क्षपयिष्यन्तः सर्वतः समुपाद्रवन्।
अथैनं वाग्भिरुग्राभिस्त्रासयांचक्रिरे तदा ॥ ११० ॥
मूलम्
राक्षसाश्च पिशाचाश्च यातुधानास्तथैव च।
शालावृकाश्च बहवो वृकाश्च विकृताननाः ॥ १०९ ॥
ते कर्णं क्षपयिष्यन्तः सर्वतः समुपाद्रवन्।
अथैनं वाग्भिरुग्राभिस्त्रासयांचक्रिरे तदा ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय बहुत-से राक्षस, पिशाच, यातुधान, कुत्ते और विकराल मुखवाले भेड़िये कर्णको काटनेके लिये सब ओरसे उसपर टूट पड़े और अपनी भयंकर गर्जनाओंद्वारा उसे भयभीत करने लगे॥१०९-११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यतैर्बहुभिर्घोरैरायुधैः शोणितोक्षितैः ।
तेषामनेकैरेकैकं कर्णो विव्याध सायकैः ॥ १११ ॥
मूलम्
उद्यतैर्बहुभिर्घोरैरायुधैः शोणितोक्षितैः ।
तेषामनेकैरेकैकं कर्णो विव्याध सायकैः ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने खूनसे रँगे हुए अपने बहुत-से भयंकर आयुधों तथा बाणोंद्वारा उनमेंसे प्रत्येकको बींध डाला॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिहत्य तु तां मायां दिव्येनास्त्रेण राक्षसीम्।
आजघान हयानस्य शरैः संनतपर्वभिः ॥ ११२ ॥
मूलम्
प्रतिहत्य तु तां मायां दिव्येनास्त्रेण राक्षसीम्।
आजघान हयानस्य शरैः संनतपर्वभिः ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने दिव्यास्त्रसे उस राक्षसी मायाका विनाश करके उसने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे घटोत्कचके घोड़ोंको मार डाला॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते भग्ना विक्षताङ्गाश्च भिन्नपृष्ठाश्च सायकैः।
वसुधामन्वपद्यन्त पश्यतस्तस्य रक्षसः ॥ ११३ ॥
मूलम्
ते भग्ना विक्षताङ्गाश्च भिन्नपृष्ठाश्च सायकैः।
वसुधामन्वपद्यन्त पश्यतस्तस्य रक्षसः ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन घोड़ोंके सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये थे, बाणोंकी मारसे उनके पृष्ठभाग फट गये थे, अतः उस राक्षसके देखते-देखते वे पृथ्वीपर गिर पड़े॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भग्नमायो हैडिम्बिः कर्णं वैकर्तनं तदा।
एष ते विदधे मृत्युमित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ ११४ ॥
मूलम्
स भग्नमायो हैडिम्बिः कर्णं वैकर्तनं तदा।
एष ते विदधे मृत्युमित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपनी माया नष्ट हो जानेपर हिडिम्बाकुमार घटोत्कचने सूर्यपुत्र कर्णसे कहा—‘यह ले, मैं अभी तेरी मृत्युका आयोजन करता हूँ’ ऐसा कहकर वह वहीं अदृश्य हो गया॥११४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे कर्णघटोत्कचयुद्धे पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें कर्ण और घटोत्कचका युद्धविषयक एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७५॥