१७३ घटोत्कचप्रोत्साहने

भागसूचना

त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्णद्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालोंकी पराजय, युधिष्ठिरकी घबराहट तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनका घटोत्कचको प्रोत्साहन देकर कर्णके साथ युद्धके लिये भेजना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कर्णो रणे दृष्ट्वा पार्षतं परवीरहा।
आजघानोरसि शरैर्दशभिर्मर्मभेदिभिः ॥ १ ॥

मूलम्

ततः कर्णो रणे दृष्ट्वा पार्षतं परवीरहा।
आजघानोरसि शरैर्दशभिर्मर्मभेदिभिः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कर्णने रणभूमिमें धृष्टद्युम्नको उपस्थित देख उनकी छातीमें दस मर्मभेदी बाण मारे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिविव्याध तं तूर्णं धृष्टद्युम्नोऽपि मारिष।
दशभिः सायकैर्हृष्टस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ २ ॥

मूलम्

प्रतिविव्याध तं तूर्णं धृष्टद्युम्नोऽपि मारिष।
दशभिः सायकैर्हृष्टस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! तब धृष्टद्युम्नने भी हर्ष और उत्साहमें भरकर दस बाणोंद्वारा तुरंत ही कर्णको घायल करके बदला चुकाया और कहा—‘खड़ा रह, खड़ा रह’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावन्योन्यं शरैः संख्ये संछाद्य सुमहारथैः।
पुनः पूर्णायतोत्सृष्टैर्विव्यघाते परस्परम् ॥ ३ ॥

मूलम्

तावन्योन्यं शरैः संख्ये संछाद्य सुमहारथैः।
पुनः पूर्णायतोत्सृष्टैर्विव्यघाते परस्परम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों विशाल रथपर आरूढ़ हो युद्धस्थलमें एक-दूसरेको अपने बाणोंद्वारा आच्छादित करके पुनः धनुषको पूर्णरूपसे खींचकर छोड़े गये बाणोंद्वारा परस्पर आघात-प्रत्याघात करने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पाञ्चालमुख्यस्य धृष्टद्युम्नस्य संयुगे।
सारथिं चतुरश्चाश्वान् कर्णो विव्याध सायकैः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः पाञ्चालमुख्यस्य धृष्टद्युम्नस्य संयुगे।
सारथिं चतुरश्चाश्वान् कर्णो विव्याध सायकैः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् रणभूमिमें कर्णने अपने बाणोंद्वारा पांचाल देशके प्रमुख वीर धृष्टद्युम्नके सारथि और चारों घोड़ोंको घायल कर दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्मुकप्रवरं चापि प्रचिच्छेद शितैः शरैः।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ५ ॥

मूलम्

कार्मुकप्रवरं चापि प्रचिच्छेद शितैः शरैः।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उसने अपने तीखे बाणोंसे धृष्टद्युम्नके श्रेष्ठ धनुषको भी काट दिया और एक भल्ल मारकर उनके सारथिको भी रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टद्युम्नस्तु विरथो हताश्वो हतसारथिः।
गृहीत्वा परिघं घोरं कर्णस्याश्वानपीपिषत् ॥ ६ ॥

मूलम्

धृष्टद्युम्नस्तु विरथो हताश्वो हतसारथिः।
गृहीत्वा परिघं घोरं कर्णस्याश्वानपीपिषत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घोड़े और सारथिके मारे जानेपर रथहीन हुए धृष्टद्युम्नने एक भयंकर परिघ उठाकर उसके द्वारा कर्णके घोड़ोंको पीस डाला॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्धश्च बहुभिस्तेन शरैराशीविषोपमैः ।
ततो युधिष्ठिरानीकं पद्भ्यामेवान्वपद्यत ॥ ७ ॥

मूलम्

विद्धश्च बहुभिस्तेन शरैराशीविषोपमैः ।
ततो युधिष्ठिरानीकं पद्भ्यामेवान्वपद्यत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कर्णने विषधर सर्पके समान भयंकर एवं बहुसंख्यक बाणोंद्वारा उन्हें क्षत-विक्षत कर दिया। फिर वे युधिष्ठिरकी सेनामें पैदल ही चले गये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरुरोह रथं चापि सहदेवस्य मारिष।
प्रयातुकामः कर्णाय वारितो धर्मसूनुना ॥ ८ ॥

मूलम्

आरुरोह रथं चापि सहदेवस्य मारिष।
प्रयातुकामः कर्णाय वारितो धर्मसूनुना ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! वहाँ धृष्टद्युम्न सहदेवके रथपर जा चढ़े और पुनः कर्णका सामना करनेके लिये जानेको उद्यत हुए, किंतु धर्मपुत्र युधिष्ठिरने उन्हें रोक दिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्तु सुमहातेजाः सिंहनादविमिश्रितम् ।
धनुःशब्दं महच्चक्रे दध्मौ तारेण चाम्बुजम् ॥ ९ ॥

मूलम्

कर्णस्तु सुमहातेजाः सिंहनादविमिश्रितम् ।
धनुःशब्दं महच्चक्रे दध्मौ तारेण चाम्बुजम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर महातेजस्वी कर्णने सिंहनादके साथ-साथ अपने धनुषकी महती टंकारध्वनि फैलायी और उच्चस्वरसे शंख बजाया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा विनिर्जितं युद्धे पार्षतं ते महारथाः।
अमर्षवशमापन्नाः पञ्चालाः सहसोमकाः ॥ १० ॥
सूतपुत्रवधार्थाय शस्त्राण्यादाय सर्वशः ।
प्रययुः कर्णमुद्दिश्य मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ११ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा विनिर्जितं युद्धे पार्षतं ते महारथाः।
अमर्षवशमापन्नाः पञ्चालाः सहसोमकाः ॥ १० ॥
सूतपुत्रवधार्थाय शस्त्राण्यादाय सर्वशः ।
प्रययुः कर्णमुद्दिश्य मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें धृष्टद्युम्नको परास्त हुआ देख अमर्षमें भरे हुए वे पांचाल और सोमक महारथी सूतपुत्र कर्णके वधके लिये सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर मृत्युको ही युद्धसे निवृत्त होनेकी अवधि निश्चित करके उसकी ओर चल दिये॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्यापि रथे वाहानन्यान् सूतोऽभ्ययोजयत्।
शङ्खवर्णान् महावेगान् सैन्धवान् साधुवाहिनः ॥ १२ ॥

मूलम्

कर्णस्यापि रथे वाहानन्यान् सूतोऽभ्ययोजयत्।
शङ्खवर्णान् महावेगान् सैन्धवान् साधुवाहिनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर कर्णके रथमें भी उसके सारथिने दूसरे घोड़े जोत दिये। वे सिंधी घोड़े अच्छी तरह सवारीका काम देते थे। उनका रंग शंखके समान सफेद था और वे बड़े वेगशाली थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्धलक्ष्यस्तु राधेयः पञ्चालानां महारथान्।
अभ्यपीडयदायस्तः शरैर्मेघ इवाचलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

लब्धलक्ष्यस्तु राधेयः पञ्चालानां महारथान्।
अभ्यपीडयदायस्तः शरैर्मेघ इवाचलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राधापुत्र कर्णका निशाना कभी चूकता नहीं था। जैसे मेघ किसी पर्वतपर जलकी धारा गिराता है, उसी प्रकार वह प्रयत्नपूर्वक बाणोंकी वर्षा करके पांचाल महारथियोंको पीड़ा देने लगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा पीड्यमाना कर्णेन पञ्चालानां महाचमूः।
सम्प्राद्रवत् सुसंत्रस्ता सिंहेनेवार्दिता मृगी ॥ १४ ॥

मूलम्

सा पीड्यमाना कर्णेन पञ्चालानां महाचमूः।
सम्प्राद्रवत् सुसंत्रस्ता सिंहेनेवार्दिता मृगी ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके द्वारा पीड़ित होनेवाली पांचालोंकी वह विशाल वाहिनी सिंहसे सतायी गयी हरिणीकी भाँति अत्यन्त भयभीत होकर वेगपूर्वक भागने लगी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतितास्तुरगेभ्यश्च गजेभ्यश्च महीतले ।
रथेभ्यश्च नरास्तूर्णमदृश्यन्त ततस्ततः ॥ १५ ॥

मूलम्

पतितास्तुरगेभ्यश्च गजेभ्यश्च महीतले ।
रथेभ्यश्च नरास्तूर्णमदृश्यन्त ततस्ततः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही मनुष्य वहाँ इधर-उधर घोड़ों, हाथियों और रथोंसे तुरंत ही गिरकर धराशायी हुए दिखायी देने लगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावमानस्य योधस्य क्षुरप्रैः स महामृधे।
बाहू चिच्छेद वै कर्णः शिरश्चैव सकुण्डलम् ॥ १६ ॥

मूलम्

धावमानस्य योधस्य क्षुरप्रैः स महामृधे।
बाहू चिच्छेद वै कर्णः शिरश्चैव सकुण्डलम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण उस महासमरमें अपने क्षुरप्रोंद्वारा भागते हुए योद्धाकी दोनों भुजाओं तथा कुण्डलमण्डित मस्तकको भी काट डाला था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊरू चिच्छेद चान्यस्य गजस्थस्य विशाम्पते।
वाजिपृष्ठगतस्यापि भूमिष्ठस्य च मारिष ॥ १७ ॥

मूलम्

ऊरू चिच्छेद चान्यस्य गजस्थस्य विशाम्पते।
वाजिपृष्ठगतस्यापि भूमिष्ठस्य च मारिष ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय प्रजानाथ! दूसरे योद्धा जो हाथियोंपर बैठे थे, घोड़ोंकी पीठपर सवार थे और पृथ्वीपर पैदल चलते थे, उनकी भी जाँघें कर्णने काट डालीं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाज्ञासिषुर्धावमाना बहवश्च महारथाः ।
संछिन्नान्यात्मगात्राणि वाहनानि च संयुगे ॥ १८ ॥

मूलम्

नाज्ञासिषुर्धावमाना बहवश्च महारथाः ।
संछिन्नान्यात्मगात्राणि वाहनानि च संयुगे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भागते हुए बहुत-से महारथी उस युद्धस्थलमें अपने कटे हुए अंगों और वाहनोंको नहीं जान पाते थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वध्यमानाः समरे पञ्चालाः सृञ्जयैः सह।
तृणप्रस्पन्दनाच्चापि सूतपुत्रं स्म मेनिरे ॥ १९ ॥

मूलम्

ते वध्यमानाः समरे पञ्चालाः सृञ्जयैः सह।
तृणप्रस्पन्दनाच्चापि सूतपुत्रं स्म मेनिरे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरांगणमें मारे जाते हुए पांचाल और सृंजय एक तिनकेके हिल जानेसे भी सूतपुत्र कर्णको ही आया हुआ मानने लगते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि स्वं समरे योधं धावमानं विचेतसम्।
कर्णमेवाभ्यमन्यन्त ततो भीता द्रवन्ति ते ॥ २० ॥

मूलम्

अपि स्वं समरे योधं धावमानं विचेतसम्।
कर्णमेवाभ्यमन्यन्त ततो भीता द्रवन्ति ते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रणभूमिमें अचेत होकर भागते हुए अपने योद्धाको भी वे कर्ण ही समझ लेते और उसीसे डरकर भागने लगते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्यनीकानि भग्नानि द्रवमाणानि भारत।
अभ्यद्रवद्‌ द्रुतं कर्णः पृष्ठतो विकिरन् शरान् ॥ २१ ॥

मूलम्

तान्यनीकानि भग्नानि द्रवमाणानि भारत।
अभ्यद्रवद्‌ द्रुतं कर्णः पृष्ठतो विकिरन् शरान् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भयभीत होकर भागते हुए उन सैनिकोंके पीछे बाणोंकी वर्षा करता हुआ कर्ण बड़े वेगसे धावा करता था॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवेक्षमाणास्त्वन्योन्यं सुसम्मूढा विचेतसः ।
नाशक्नुवन्नवस्थातुं काल्यमाना महात्मना ॥ २२ ॥

मूलम्

अवेक्षमाणास्त्वन्योन्यं सुसम्मूढा विचेतसः ।
नाशक्नुवन्नवस्थातुं काल्यमाना महात्मना ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामनस्वी कर्णके द्वारा कालके गालमें भेजे जाते हुए मोहित एवं अचेत पांचाल-सैनिक एक-दूसरेकी ओर देखते हुए कहीं भी ठहर न सके॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णेनाभ्याहता राजन् पञ्चालाः परमेषुभिः।
द्रोणेन च दिशः सर्वा वीक्षमाणाः प्रदुद्रुवुः ॥ २३ ॥

मूलम्

कर्णेनाभ्याहता राजन् पञ्चालाः परमेषुभिः।
द्रोणेन च दिशः सर्वा वीक्षमाणाः प्रदुद्रुवुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कर्ण और द्रोणाचार्यके चलाये हुए उत्तम बाणोंसे घायल होकर पांचाल-सैनिक सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर देखते हुए भाग रहे थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो राजा स्वसैन्यं प्रेक्ष्य विद्रुतम्।
अपयाने मनः कृत्वा फाल्गुनं वाक्यमब्रवीत् ॥ २४ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो राजा स्वसैन्यं प्रेक्ष्य विद्रुतम्।
अपयाने मनः कृत्वा फाल्गुनं वाक्यमब्रवीत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राजा युधिष्ठिरने अपनी सेनाको भागती देख स्वयं भी युद्धभूमिसे हट जानेका विचार करके अर्जुनसे इस प्रकार कहा—॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य कर्णं महेष्वासं धनुष्पाणिमवस्थितम्।
निशीथे दारुणे काले तपन्तमिव भास्करम् ॥ २५ ॥

मूलम्

पश्य कर्णं महेष्वासं धनुष्पाणिमवस्थितम्।
निशीथे दारुणे काले तपन्तमिव भास्करम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! महाधनुर्धर कर्णको देखो; वह हाथमें धनुष लिये खड़ा है और इस भयंकर आधी रातके समय सूर्यके समान तप रहा है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णसायकनुन्नानां क्रोशतामेष निःस्वनः ।
अनिशं श्रूयते पार्थ त्वद्बन्धूनामनाथवत् ॥ २६ ॥

मूलम्

कर्णसायकनुन्नानां क्रोशतामेष निःस्वनः ।
अनिशं श्रूयते पार्थ त्वद्बन्धूनामनाथवत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! कर्णके बाणोंसे घायल होकर अनाथके समान चीखते-चिल्लाते हुए तुम्हारे सहायक बन्धुओंका यह आर्तनाद निरन्तर सुनायी दे रहा है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा विसृजतश्चास्य संदधानस्य चाशुगान्।
पश्यामि नान्तरं पार्थ क्षपयिष्यति नो ध्रुवम् ॥ २७ ॥

मूलम्

यथा विसृजतश्चास्य संदधानस्य चाशुगान्।
पश्यामि नान्तरं पार्थ क्षपयिष्यति नो ध्रुवम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण कब बाणोंको धनुषपर रखता है और कब उन्हें छोड़ता है, इसमें तनिक भी अन्तर मुझे नहीं दिखायी देता है। इससे जान पड़ता है यह निश्चय ही हमारी सारी सेनाका संहार कर डालेगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदत्रानन्तरं कार्यं प्राप्तकालं च पश्यसि।
कर्णस्य वधसंयुक्तं तत् कुरुष्व धनंजय ॥ २८ ॥

मूलम्

यदत्रानन्तरं कार्यं प्राप्तकालं च पश्यसि।
कर्णस्य वधसंयुक्तं तत् कुरुष्व धनंजय ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनंजय! अब यहाँ कर्णके वधके सम्बन्धमें तुम्हें जो समयोचित कर्तव्य दिखायी देता हो, उसे करो’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो महाराज पार्थः कृष्णमथाब्रवीत्।
भीतः कुन्तीसुतो राजा राधेयस्याद्य विक्रमात् ॥ २९ ॥

मूलम्

एवमुक्तो महाराज पार्थः कृष्णमथाब्रवीत्।
भीतः कुन्तीसुतो राजा राधेयस्याद्य विक्रमात् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णसे बोले—‘प्रभो! आज कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर राधापुत्र कर्णके पराक्रमसे भयभीत हो गये हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंगते प्राप्तकालं कर्णानीके पुनः पुनः।
भवान् व्यवस्यतु क्षिप्रं द्रवते हि वरूथिनी ॥ ३० ॥

मूलम्

एवंगते प्राप्तकालं कर्णानीके पुनः पुनः।
भवान् व्यवस्यतु क्षिप्रं द्रवते हि वरूथिनी ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसी अवस्थामें कर्णकी सेनाके पास हमारा जो समयोचित कर्तव्य हो, उसका आप शीघ्र निश्चय करें; क्योंकि हमारी सेना बारंबार भाग रही है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणसायकनुन्नानां भग्नानां मधुसूदन ।
कर्णेन त्रास्यमानानामवस्थानं न विद्यते ॥ ३१ ॥

मूलम्

द्रोणसायकनुन्नानां भग्नानां मधुसूदन ।
कर्णेन त्रास्यमानानामवस्थानं न विद्यते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! द्रोणाचार्यके बाणोंसे घायल और कर्णसे भयभीत होकर भागते हुए हमारे सैनिक कहीं भी ठहर नहीं पाते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यामि च तथा कर्णं विचरन्तमभीतवत्।
द्रवमाणान् रथोदारान् किरन्तं निशितैः शरैः ॥ ३२ ॥

मूलम्

पश्यामि च तथा कर्णं विचरन्तमभीतवत्।
द्रवमाणान् रथोदारान् किरन्तं निशितैः शरैः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं देखता हूँ, कर्ण निर्भय-सा विचर रहा है और भागते हुए श्रेष्ठ रथियोंपर भी पीछेसे तीखे बाणोंकी वर्षा कर रहा है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैनं शक्ष्यामि संसोढुं चरन्तं रणमूर्धनि।
प्रत्यक्षं वृष्णिशार्दूल पादस्पर्शमिवोरगः ॥ ३३ ॥

मूलम्

नैनं शक्ष्यामि संसोढुं चरन्तं रणमूर्धनि।
प्रत्यक्षं वृष्णिशार्दूल पादस्पर्शमिवोरगः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृष्णिसिंह! जैसे सर्प किसीके चरणोंका स्पर्श नहीं सह सकता, उसी प्रकार मैं युद्धके मुहानोंपर अपनी आँखोंके सामने कर्णका इस प्रकार विचरना नहीं सह सकूँगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवांस्तत्र यात्वाशु यत्र कर्णो महारथः।
अहमेनं हनिष्यामि मां वैष मधुसूदन ॥ ३४ ॥

मूलम्

स भवांस्तत्र यात्वाशु यत्र कर्णो महारथः।
अहमेनं हनिष्यामि मां वैष मधुसूदन ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! अतः आप शीघ्र वहीं चलिये, जहाँ महारथी कर्ण है। आज मैं इसे मार डालूँगा या यह मुझे (मार डालेगा)’॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीवासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यामि कर्णं कौन्तेय देवराजमिवाहवे।
विचरन्तं नरव्याघ्रमतिमानुषविक्रमम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

पश्यामि कर्णं कौन्तेय देवराजमिवाहवे।
विचरन्तं नरव्याघ्रमतिमानुषविक्रमम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— कुन्तीनन्दन! आज युद्धस्थलमें मैं पुरुषसिंह कर्णको देवराज इन्द्रके समान अमानुषिक पराक्रम प्रकट करते और विचरते देख रहा हूँ॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्यान्योऽस्ति संग्रामे प्रत्युद्याता धनंजय।
ऋते त्वां पुरुषव्याघ्र राक्षसाद् वा घटोत्कचात् ॥ ३६ ॥

मूलम्

नैतस्यान्योऽस्ति संग्रामे प्रत्युद्याता धनंजय।
ऋते त्वां पुरुषव्याघ्र राक्षसाद् वा घटोत्कचात् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह धनंजय! संग्रामभूमिमें तुम्हें अथवा राक्षस घटोत्कचको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो इसका सामना कर सके॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु तावदहं मन्ये प्राप्तकालं तवानघ।
समागमं महाबाहो सूतपुत्रेण संयुगे ॥ ३७ ॥

मूलम्

न तु तावदहं मन्ये प्राप्तकालं तवानघ।
समागमं महाबाहो सूतपुत्रेण संयुगे ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप महाबाहु अर्जुन! इस समय रणक्षेत्रमें सूतपुत्रके साथ तुम्हारा युद्ध करना मैं उचित नहीं मानता॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीप्यमाना महोल्केव तिष्ठत्यस्य हि वासवी।
त्वदर्थं हि महाबाहो सूतपुत्रेण संयुगे ॥ ३८ ॥
रक्ष्यते शक्तिरेषा हि रौद्रं रूपं बिभर्ति च।

मूलम्

दीप्यमाना महोल्केव तिष्ठत्यस्य हि वासवी।
त्वदर्थं हि महाबाहो सूतपुत्रेण संयुगे ॥ ३८ ॥
रक्ष्यते शक्तिरेषा हि रौद्रं रूपं बिभर्ति च।

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि उसके पास इन्द्रकी दी हुई शक्ति है, जो प्रज्वलित उल्काके समान प्रकाशित होती है। महाबाहो! सूतपुत्रने युद्धस्थलमें तुम्हारे ऊपर प्रयोग करनेके लिये ही इस शक्तिको सुरक्षित रखा है, यह बड़ा भयंकर रूप धारण करती है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटोत्कचस्तु राधेयं प्रत्युद्यातु महाबलः ॥ ३९ ॥
स हि भीमेन बलिना जातः सुरपराक्रमः।
तस्मिन्नस्त्राणि दिव्यानि राक्षसान्यासुराणि च ॥ ४० ॥

मूलम्

घटोत्कचस्तु राधेयं प्रत्युद्यातु महाबलः ॥ ३९ ॥
स हि भीमेन बलिना जातः सुरपराक्रमः।
तस्मिन्नस्त्राणि दिव्यानि राक्षसान्यासुराणि च ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मेरी रायमें इस समय महाबली घटोत्कच ही राधापुत्र कर्णका सामना करनेके लिये जाय; क्योंकि वह बलवान् भीमसेनका बेटा है, देवताओंके समान पराक्रमी है तथा उसके पास राक्षससम्बन्धी एवं असुरसम्बन्धी सभी प्रकारके दिव्य अस्त्र-शस्त्र हैं॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सततं चानुरक्तो वो हितैषी च घटोत्कचः।
विजेष्यति रणे कर्णमिति मे नात्र संशयः ॥ ४१ ॥

मूलम्

सततं चानुरक्तो वो हितैषी च घटोत्कचः।
विजेष्यति रणे कर्णमिति मे नात्र संशयः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कच तुमलोगोंका हितैषी है और सदा तुम्हारे प्रति अनुराग रखता है। वह रणभूमिमें कर्णको जीत लेगा, इसमें मुझे संशय नहीं है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो महाबाहुः पार्थः पुष्करलोचनः।
आजुहावाथ तद् रक्षस्तच्चासीत् प्रादुरग्रतः ॥ ४२ ॥

मूलम्

एवमुक्तो महाबाहुः पार्थः पुष्करलोचनः।
आजुहावाथ तद् रक्षस्तच्चासीत् प्रादुरग्रतः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर महाबाहु कमलनयन कुन्तीकुमारने राक्षस घटोत्कचका आवाहन किया और वह तत्काल उनके सामने प्रकट हो गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवची सशरः खड्गी सधन्वा च विशाम्पते।
अभिवाद्य ततः कृष्णं पाण्डवं च धनंजयम्।
अब्रवीच्च तदा कृष्णमयमस्म्यनुशाधि माम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

कवची सशरः खड्गी सधन्वा च विशाम्पते।
अभिवाद्य ततः कृष्णं पाण्डवं च धनंजयम्।
अब्रवीच्च तदा कृष्णमयमस्म्यनुशाधि माम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! उसने कवच, धनुष, बाण और खड्ग धारण कर रखे थे। वह श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र धनंजयको प्रणाम करके उस समय भगवान् श्रीकृष्णसे बोला—‘प्रभो! यह मैं सेवामें उपस्थित हूँ। मुझे आज्ञा दीजिये, क्या करूँ?’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं मेघसंकाशं दीप्तास्यं दीप्तकुण्डलम्।
अभ्यभाषत हैडिम्बिं दाशार्हः प्रहसन्निव ॥ ४४ ॥

मूलम्

ततस्तं मेघसंकाशं दीप्तास्यं दीप्तकुण्डलम्।
अभ्यभाषत हैडिम्बिं दाशार्हः प्रहसन्निव ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रज्वलित मुख और प्रकाशित कुण्डलोंवाले मेघके समान काले हिडिम्बाकुमार घटोत्कचसे भगवान् श्रीकृष्णने हँसते हुए-से कहा॥४४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीवासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटोत्कच विजानीहि यत् त्वां वक्ष्यामि पुत्रक।
प्राप्तो विक्रमकालोऽयं तव नान्यस्य कस्यचित् ॥ ४५ ॥

मूलम्

घटोत्कच विजानीहि यत् त्वां वक्ष्यामि पुत्रक।
प्राप्तो विक्रमकालोऽयं तव नान्यस्य कस्यचित् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— बेटा घटोत्कच! मैं तुमसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे सुनो और समझो। यह तुम्हारे लिये ही पराक्रम दिखानेका अवसर आया है, दूसरे किसीके लिये नहीं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् मज्जमानानां बन्धूनां त्वं प्लवो भव।
विविधानि तवास्त्राणि सन्ति माया च राक्षसी ॥ ४६ ॥

मूलम्

स भवान् मज्जमानानां बन्धूनां त्वं प्लवो भव।
विविधानि तवास्त्राणि सन्ति माया च राक्षसी ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे ये बन्धु संकटके समुद्रमें डूब रहे हैं, तुम इनके जहाज बन जाओ। तुम्हारे पास नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र हैं और तुममें राक्षसी मायाका भी बल है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य कर्णेन हैडिम्बे पाण्डवानामनीकिनी।
काल्यमाना यथा गावः पालेन रणमूर्धनि ॥ ४७ ॥

मूलम्

पश्य कर्णेन हैडिम्बे पाण्डवानामनीकिनी।
काल्यमाना यथा गावः पालेन रणमूर्धनि ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिडिम्बानन्दन! देखो, जैसे चरवाहा गायोंको हाँकता है, उसी प्रकार युद्धके मुहानेपर खड़ा हुआ कर्ण पाण्डवोंकी इस विशाल सेनाको खदेड़ रहा है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष कर्णो महेष्वासो मतिमान् दृढविक्रमः।
पाण्डवानामनीकेषु निहन्ति क्षत्रियर्षभान् ॥ ४८ ॥

मूलम्

एष कर्णो महेष्वासो मतिमान् दृढविक्रमः।
पाण्डवानामनीकेषु निहन्ति क्षत्रियर्षभान् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कर्ण महाधनुर्धर, बुद्धिमान् और दृढ़तापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाला है। यह पाण्डवोंकी सेनाओंमें जो श्रेष्ठ क्षत्रिय वीर हैं, उनका विनाश कर रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरन्तः शरवर्षाणि महान्ति दृढधन्विनः।
न शक्नुवन्त्यवस्थातुं पीड्यमानाः शरार्चिषा ॥ ४९ ॥

मूलम्

किरन्तः शरवर्षाणि महान्ति दृढधन्विनः।
न शक्नुवन्त्यवस्थातुं पीड्यमानाः शरार्चिषा ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाणोंकी आगसे संतप्त हो बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा करनेवाले सुदृढ़ धनुर्धर वीर भी युद्धभूमिमें ठहर नहीं पाते हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशीथे सूतपुत्रेण शरवर्षेण पीडिताः।
एते द्रवन्ति पञ्चालाः सिंहेनेवार्दिता मृगाः ॥ ५० ॥

मूलम्

निशीथे सूतपुत्रेण शरवर्षेण पीडिताः।
एते द्रवन्ति पञ्चालाः सिंहेनेवार्दिता मृगाः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, जैसे सिंहसे पीड़ित हुए मृग भागते हैं, उसी प्रकार इस आधी रातके समय सूतपुत्रके द्वारा की हुई बाण-वर्षासे व्यथित हो ये पांचाल सैनिक भागे जा रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्यैवं प्रवृद्धस्य सूतपुत्रस्य संयुगे।
निषेद्धा विद्यते नान्यस्त्वामृते भीमविक्रम ॥ ५१ ॥

मूलम्

एतस्यैवं प्रवृद्धस्य सूतपुत्रस्य संयुगे।
निषेद्धा विद्यते नान्यस्त्वामृते भीमविक्रम ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयंकर पराक्रमी वीर! इस युद्धस्थलमें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा योद्धा नहीं है, जो इस प्रकार आगे बढ़नेवाले सूतपुत्र कर्णको रोक सके॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं कुरु महाबाहो कर्म युक्तमिहात्मनः।
मातुलानां पितॄणां च तेजसोऽस्त्रबलस्य च ॥ ५२ ॥

मूलम्

स त्वं कुरु महाबाहो कर्म युक्तमिहात्मनः।
मातुलानां पितॄणां च तेजसोऽस्त्रबलस्य च ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! इसलिये तुम अपने पिता, मामा, तेज, अस्त्रबल तथा अपनी प्रतिष्ठके अनुरूप युद्धमें पराक्रम करो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदर्थं हि हैडिम्बे पुत्रानिच्छन्ति मानवाः।
कथं नस्तारयेद् दुःखात्‌ स त्वं तारय बान्धवान् ॥ ५३ ॥

मूलम्

एतदर्थं हि हैडिम्बे पुत्रानिच्छन्ति मानवाः।
कथं नस्तारयेद् दुःखात्‌ स त्वं तारय बान्धवान् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिडिम्बाकुमार! मनुष्य इसीलिये पुत्रकी इच्छा करते हैं कि वह किसी प्रकार हमें दुःखसे छुड़ायेगा; अतः तुम अपने बन्धु-बान्धवोंको उबारो॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छन्ति पितरः पुत्रान् स्वार्थहेतोर्घटोत्कच।
इहलोकात् परे लोके तारयिष्यन्ति ये हिताः ॥ ५४ ॥

मूलम्

इच्छन्ति पितरः पुत्रान् स्वार्थहेतोर्घटोत्कच।
इहलोकात् परे लोके तारयिष्यन्ति ये हिताः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कच! प्रत्येक पिता अपने इसी स्वार्थके लिये पुत्रोंकी इच्छा करता है कि वे पुत्र मेरे हितैषी होकर मुझे इस लोकसे परलोकमें तार देंगे॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव ह्यत्र बलं भीमं मायाश्च तव दुस्तराः।
संग्रामे युध्यमानस्य सततं भीमनन्दन ॥ ५५ ॥

मूलम्

तव ह्यत्र बलं भीमं मायाश्च तव दुस्तराः।
संग्रामे युध्यमानस्य सततं भीमनन्दन ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमनन्दन! संग्रामभूमिमें युद्ध करते समय सदा तुम्हारा भयंकर बल बढ़ता है और तुम्हारी मायाएँ दुस्तर होती हैं॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवानां प्रभग्नानां कर्णेन निशि सायकैः।
मज्जतां धार्तराष्ट्रेषु भव पारं परंतप ॥ ५६ ॥

मूलम्

पाण्डवानां प्रभग्नानां कर्णेन निशि सायकैः।
मज्जतां धार्तराष्ट्रेषु भव पारं परंतप ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप! रातके समय कर्णके बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर पाण्डव-सैनिकोंके पाँव उखड़ गये हैं और वे कौरव-सेनारूपी समुद्रमें डूब रहे हैं। तुम उनके लिये तटभूमि बन जाओ॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रात्रौ हि राक्षसा भूयो भवन्त्यमितविक्रमाः।
बलवन्तः सुदुर्धर्षाः शूरा विक्रान्तचारिणः ॥ ५७ ॥

मूलम्

रात्रौ हि राक्षसा भूयो भवन्त्यमितविक्रमाः।
बलवन्तः सुदुर्धर्षाः शूरा विक्रान्तचारिणः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रिके समय राक्षसोंका अनन्त पराक्रम और भी बढ़ जाता है। वे बलवान्, परम दुर्धर्ष, शूरवीर और पराक्रमपूर्वक विचरनेवाले होते हैं॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहि कर्णं महेष्वासं निशीथे मायया रणे।
पार्था द्रोणं वधिष्यन्ति धृष्टद्युम्नपुरोगमाः ॥ ५८ ॥

मूलम्

जहि कर्णं महेष्वासं निशीथे मायया रणे।
पार्था द्रोणं वधिष्यन्ति धृष्टद्युम्नपुरोगमाः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम आधी रातके समय अपनी मायाद्वारा रणभूमिमें महाधनुर्धर कर्णको मार डालो और धृष्टद्युम्न आदि पाण्डव-सैनिक द्रोणाचार्यका वध करेंगे॥५८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशवस्य वचः श्रुत्वा बीभत्सुरपि राक्षसम्।
अभ्यभाषत कौरव्य घटोत्कचमरिंदमम् ॥ ५९ ॥

मूलम्

केशवस्य वचः श्रुत्वा बीभत्सुरपि राक्षसम्।
अभ्यभाषत कौरव्य घटोत्कचमरिंदमम् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— कुरुराज! भगवान् श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर अर्जुनने भी शत्रुओंका दमन करनेवाले राक्षस घटोत्कचसे कहा—॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटोत्कच भवांश्चैव दीर्घबाहुश्च सात्यकिः।
मतो मे सर्वसैन्येषु भीमसेनश्च पाण्डवः ॥ ६० ॥

मूलम्

घटोत्कच भवांश्चैव दीर्घबाहुश्च सात्यकिः।
मतो मे सर्वसैन्येषु भीमसेनश्च पाण्डवः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘घटोत्कच! मेरी सम्पूर्ण सेनाओंमें तीन ही वीर श्रेष्ठ माने गये हैं—तुम, महाबाहु सात्यकि तथा पाण्डुनन्दन भीमसेन॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्भवान् यातु कर्णेन द्वैरथं युध्यतां निशि।
सात्यकिः पृष्ठगोपस्ते भविष्यति महारथः ॥ ६१ ॥

मूलम्

तद्भवान् यातु कर्णेन द्वैरथं युध्यतां निशि।
सात्यकिः पृष्ठगोपस्ते भविष्यति महारथः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः तुम इस निशीथकालमें कर्णके साथ द्वैरथ युद्ध करो और महारथी सात्यकि तुम्हारे पृष्ठरक्षक होंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहि कर्णं रणे शूरं सात्वतेन सहायवान्।
यथेन्द्रस्तारकं पूर्वं स्कन्देन सह जघ्निवान् ॥ ६२ ॥

मूलम्

जहि कर्णं रणे शूरं सात्वतेन सहायवान्।
यथेन्द्रस्तारकं पूर्वं स्कन्देन सह जघ्निवान् ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे पूर्वकालमें स्कन्दके साथ रहकर इन्द्रने तारकासुरका वध किया था, उसी प्रकार तुम भी सात्यकिकी सहायता पाकर रणभूमिमें शूरवीर कर्णको मार डालो’॥

मूलम् (वचनम्)

घटोत्कच उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एवमेव महाबाहो यथा वदसि मां प्रभो।
त्वया नियुक्तो गच्छामि कर्णस्य वधकाङ्क्षया॥)
अलमेवास्मि कर्णाय द्रोणायालं च भारत।
अन्येषां क्षत्रियाणां च कृतास्त्राणां महात्मनाम् ॥ ६३ ॥

मूलम्

(एवमेव महाबाहो यथा वदसि मां प्रभो।
त्वया नियुक्तो गच्छामि कर्णस्य वधकाङ्क्षया॥)
अलमेवास्मि कर्णाय द्रोणायालं च भारत।
अन्येषां क्षत्रियाणां च कृतास्त्राणां महात्मनाम् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घटोत्कचने कहा— महाबाहो! प्रभो! आप मुझे जैसा कह रहे हैं, वैसा ही है। मैं आपका भेजा हुआ कर्णके वधकी इच्छासे जा रहा हूँ। भारत! मैं कर्णका सामना करनेमें तो समर्थ हूँ ही, द्रोणाचार्यका भी अच्छी तरह सामना कर सकता हूँ। अस्त्र-विद्याके जाननेवाले ये जो दूसरे महामनस्वी क्षत्रिय हैं, उनके साथ भी लोहा ले सकता हूँ॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य दास्यामि संग्रामं सूतपुत्राय तं निशि।
यं जनाः सम्प्रवक्ष्यन्ति यावद् भूमिर्धरिष्यति ॥ ६४ ॥

मूलम्

अद्य दास्यामि संग्रामं सूतपुत्राय तं निशि।
यं जनाः सम्प्रवक्ष्यन्ति यावद् भूमिर्धरिष्यति ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज मैं इस रातमें सूतपुत्र कर्णके साथ ऐसा संग्राम करूँगा, जिसकी चर्चा जबतक यह पृथ्वी रहेगी, तबतक लोग करते रहेंगे॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चात्र शूरान्‌ मोक्ष्यामि न भीतान्न कृताञ्जलीन्।
सर्वानेव वधिष्यामि राक्षसं धर्ममास्थितः ॥ ६५ ॥

मूलम्

न चात्र शूरान्‌ मोक्ष्यामि न भीतान्न कृताञ्जलीन्।
सर्वानेव वधिष्यामि राक्षसं धर्ममास्थितः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस युद्धमें मैं न तो शूरवीरोंको जीवित छोड़ूँगा, न डरनेवालोंको और न हाथ जोड़नेवालोंको ही। राक्षस-धर्मका आश्रय लेकर सबका ही संहार कर डालूँगा॥६५॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महाबाहुर्हैडिम्बिर्वरवीरहा ।
अभ्ययात् तुमुले कर्णं तव सैन्यं विभीषयन् ॥ ६६ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महाबाहुर्हैडिम्बिर्वरवीरहा ।
अभ्ययात् तुमुले कर्णं तव सैन्यं विभीषयन् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! श्रेष्ठ वीरोंका संहार करनेवाला महाबाहु हिडिम्बाकुमार ऐसा कहकर उस भयंकर युद्धमें आपकी सेनाको भयभीत करता हुआ कर्णका सामना करनेके लिये गया॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं संक्रुद्धं दीप्तास्यं दीप्तमूर्धजम्।
प्रहसन् पुरुषव्याघ्रः प्रतिजग्राह सूतजः ॥ ६७ ॥

मूलम्

तमापतन्तं संक्रुद्धं दीप्तास्यं दीप्तमूर्धजम्।
प्रहसन् पुरुषव्याघ्रः प्रतिजग्राह सूतजः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए उस प्रज्वलित मुख और चमकीले केशोंवाले राक्षसको आते हुए देख पुरुषसिंह सूतपुत्र कर्णने हँसते हुए उसे अपने प्रतिद्वन्द्वीके रूपमें ग्रहण किया॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः समभवद् युद्धं कर्णराक्षसयोर्मृधे।
गर्जतो राजशार्दूल शक्रप्रह्रादयोरिव ॥ ६८ ॥

मूलम्

तयोः समभवद् युद्धं कर्णराक्षसयोर्मृधे।
गर्जतो राजशार्दूल शक्रप्रह्रादयोरिव ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! संग्रामभूमिमें गर्जना करते हुए कर्ण और राक्षस दोनोंमें इन्द्र और प्रह्लादके समान युद्ध होने लगा॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे घटोत्कचप्रोत्साहने त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके समय ‘घटोत्कचको भगवान्‌का प्रोत्साहन देना’ विषयक एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६९ श्लोक हैं।)