भागसूचना
द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके उपालम्भसे द्रोणाचार्य और कर्णका घोर युद्ध, पाण्डव-सेनाका पलायन, भीमसेनका सेनाको लौटाकर लाना और अर्जुनसहित भीमसेनका कौरवोंपर आक्रमण करना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्रुतं स्वबलं दृष्ट्वा वध्यमानं महात्मभिः।
क्रोधेन महताऽऽविष्टः पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ १ ॥
मूलम्
विद्रुतं स्वबलं दृष्ट्वा वध्यमानं महात्मभिः।
क्रोधेन महताऽऽविष्टः पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— प्रजानाथ! अपनी सेनाको उन महामनस्वी वीरोंकी मार खाकर भागती देख आपके पुत्र दुर्योधनको महान् क्रोध हुआ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्येत्य सहसा कर्णं द्रोणं च जयतां वरम्।
अमर्षवशमापन्नो वाक्यज्ञो वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
मूलम्
अभ्येत्य सहसा कर्णं द्रोणं च जयतां वरम्।
अमर्षवशमापन्नो वाक्यज्ञो वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बातचीतकी कला जाननेवाले दुर्योधनने सहसा विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ कर्ण और द्रोणाचार्यके पास जाकर अमर्षके वशीभूत हो इस प्रकार कहा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवद्भ््यामिह संग्रामः क्रुद्धाभ्यां सम्प्रवर्तितः।
आहवे निहतं दृष्ट्वा सैन्धवं सव्यसाचिना ॥ ३ ॥
मूलम्
भवद्भ््यामिह संग्रामः क्रुद्धाभ्यां सम्प्रवर्तितः।
आहवे निहतं दृष्ट्वा सैन्धवं सव्यसाचिना ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सव्यसाची अर्जुनके द्वारा युद्धस्थलमें सिंधुराज जयद्रथको मारा गया देख क्रोधमें भरे हुए आप दोनों वीरोंने यहाँ रातके समय इस युद्धको जारी रखा था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहन्यमानां पाण्डूनां बलेन मम वाहिनीम्।
भूत्वा तद्विजये शक्तावशक्ताविव पश्यतः ॥ ४ ॥
मूलम्
निहन्यमानां पाण्डूनां बलेन मम वाहिनीम्।
भूत्वा तद्विजये शक्तावशक्ताविव पश्यतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु इस समय पाण्डव-सेनाद्वारा मेरी विशाल वाहिनीका विनाश हो रहा है और आपलोग उसे जीतनेमें समर्थ होकर भी असमर्थकी भाँति देख रहे हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यहं भवतोस्त्याज्यो न वाच्योऽस्मि तदैव हि।
आवां पाण्डुसुतान् संख्ये जेष्याव इति मानदौ ॥ ५ ॥
मूलम्
यद्यहं भवतोस्त्याज्यो न वाच्योऽस्मि तदैव हि।
आवां पाण्डुसुतान् संख्ये जेष्याव इति मानदौ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दूसरोंको मान देनेवाले वीरो! यदि आपलोग मुझे त्याग देना ही उचित समझते थे तो आपको उसी समय मुझसे यह नहीं कहना चाहिये था कि ‘हमलोग पाण्डवोंको युद्धमें जीत लेंगे’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैवाहं वचः श्रुत्वा भवद्भ्यामनुसम्मतम्।
नाकरिष्यमिदं पार्थैर्वैरं योधविनाशनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
तदैवाहं वचः श्रुत्वा भवद्भ्यामनुसम्मतम्।
नाकरिष्यमिदं पार्थैर्वैरं योधविनाशनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसी समय आपलोगोंकी सम्मति सुनकर मैं कुन्तीपुत्रोंके साथ यह वैर नहीं करता, जो सम्पूर्ण योद्धाओंके लिये विनाशकारी हो रहा है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि नाहं परित्याज्यो भवद्भ्यां पुरुषर्षभौ।
युध्यतामनुरूपेण विक्रमेण सुविक्रमौ ॥ ७ ॥
मूलम्
यदि नाहं परित्याज्यो भवद्भ्यां पुरुषर्षभौ।
युध्यतामनुरूपेण विक्रमेण सुविक्रमौ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अत्यन्त पराक्रमी पुरुषप्रवर वीरो! यदि आप मुझे त्याग देना न चाहते हों तो अपने अनुरूप पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध कीजिये’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक्प्रतोदेन तौ वीरौ प्रणुन्नौ तनयेन ते।
प्रावर्तयेतां संग्रामं घट्टिताविव पन्नगौ ॥ ८ ॥
मूलम्
वाक्प्रतोदेन तौ वीरौ प्रणुन्नौ तनयेन ते।
प्रावर्तयेतां संग्रामं घट्टिताविव पन्नगौ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब आपके पुत्रने अपने वचनोंकी चाबुकसे उन दोनों वीरोंको पीड़ित किया, तब उन्होंने कुचले हुए सर्पोंकी भाँति कुपित हो पुनः घोर युद्ध आरम्भ किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ रथिनां श्रेष्ठौ सर्वलोकधनुर्धरौ।
शैनेयप्रमुखान् पार्थानभिदुद्रुवतू रणे ॥ ९ ॥
मूलम्
ततस्तौ रथिनां श्रेष्ठौ सर्वलोकधनुर्धरौ।
शैनेयप्रमुखान् पार्थानभिदुद्रुवतू रणे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण लोकमें विख्यात धनुर्धर, रथियोंमें श्रेष्ठ उन द्रोणाचार्य और कर्णने रणभूमिमें पुनः सात्यकि आदि पाण्डव महारथियोंपर धावा किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव सहिताः पार्थाः सर्वसैन्येन संवृताः।
अभ्यवर्तन्त तौ वीरौ नर्दमानौ मुहुर्मुहुः ॥ १० ॥
मूलम्
तथैव सहिताः पार्थाः सर्वसैन्येन संवृताः।
अभ्यवर्तन्त तौ वीरौ नर्दमानौ मुहुर्मुहुः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार सम्पूर्ण सेनाओंके साथ संगठित होकर आये हुए कुन्तीके पुत्र भी बारंबार गर्जनेवाले उन दोनों वीरोंका सामना करने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ द्रोणो महेष्वासो दशभिः शिनिपुङ्गवम्।
अविध्यत् त्वरितं क्रुद्धः सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ११ ॥
मूलम्
अथ द्रोणो महेष्वासो दशभिः शिनिपुङ्गवम्।
अविध्यत् त्वरितं क्रुद्धः सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महाधनुर्धर द्रोणाचार्यने कुपित होकर तुरंत ही दस बाणोंसे शिनिप्रवर सात्यकिको बींध डाला॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णश्च दशभिर्बाणैः पुत्रश्च तव सप्तभिः।
दशभिर्वृषसेनश्च सौबलश्चापि सप्तभिः ॥ १२ ॥
एते कौरव संक्रन्दे शैनेयं पर्यवाकिरन्।
मूलम्
कर्णश्च दशभिर्बाणैः पुत्रश्च तव सप्तभिः।
दशभिर्वृषसेनश्च सौबलश्चापि सप्तभिः ॥ १२ ॥
एते कौरव संक्रन्दे शैनेयं पर्यवाकिरन्।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर कर्णने दस, आपके पुत्रने सात, वृषसेनने दस और शकुनिने भी सात बाण मारे। कुरुराज! इन वीरोंने युद्धमें शिनिपौत्र सात्यकिपर चारों ओरसे बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा च समरे द्रोणं निघ्नन्तं पाण्डवीं चमूम् ॥ १३ ॥
विव्यधुः सोमकास्तूर्णं समन्ताच्छरवृष्टिभिः ।
मूलम्
दृष्ट्वा च समरे द्रोणं निघ्नन्तं पाण्डवीं चमूम् ॥ १३ ॥
विव्यधुः सोमकास्तूर्णं समन्ताच्छरवृष्टिभिः ।
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें द्रोणाचार्यको पाण्डव-सेनाका संहार करते देख सोमकोंने चारों ओरसे बाणोंकी वर्षा करके उन्हें तुरंत घायल कर दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र द्रोणोऽहरत् प्राणान् क्षत्रियाणां विशाम्पते ॥ १४ ॥
रश्मिभिर्भास्करो राजंस्तमांसीव समन्ततः ।
मूलम्
तत्र द्रोणोऽहरत् प्राणान् क्षत्रियाणां विशाम्पते ॥ १४ ॥
रश्मिभिर्भास्करो राजंस्तमांसीव समन्ततः ।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापालक नरेश! जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा चारों ओरके अन्धकारको दूर कर देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य वहाँ क्षत्रियोंके प्राण लेने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणेन वध्यमानानां पञ्चालानां विशाम्पते ॥ १५ ॥
शुश्रुवे तुमुलः शब्दः क्रोशतामितरेतरम्।
मूलम्
द्रोणेन वध्यमानानां पञ्चालानां विशाम्पते ॥ १५ ॥
शुश्रुवे तुमुलः शब्दः क्रोशतामितरेतरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! द्रोणाचार्यकी मार खाकर परस्पर चीखते-चिल्लाते हुए पांचालोंका घोर आर्तनाद सुनायी देने लगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रानन्ये पितॄनन्ये भ्रातॄनन्ये च मातुलान् ॥ १६ ॥
भागिनेयान् वयस्यांश्च तथा सम्बन्धिबान्धवान्।
उत्सृज्योत्सृज्य गच्छन्ति त्वरिता जीवितेप्सवः ॥ १७ ॥
मूलम्
पुत्रानन्ये पितॄनन्ये भ्रातॄनन्ये च मातुलान् ॥ १६ ॥
भागिनेयान् वयस्यांश्च तथा सम्बन्धिबान्धवान्।
उत्सृज्योत्सृज्य गच्छन्ति त्वरिता जीवितेप्सवः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई पुत्रोंको, कोई पिताओंको, कोई भाइयोंको, कोई मामा, भानजों, मित्रों, सम्बन्धियों तथा बन्धु-बान्धवोंको छोड़-छोड़कर अपनी जान बचानेके लिये तुरंत ही भाग चले॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे मोहिता मोहात् तमेवाभिमुखा ययुः।
पाण्डवानां रणे योधाः परलोकं गताः परे ॥ १८ ॥
मूलम्
अपरे मोहिता मोहात् तमेवाभिमुखा ययुः।
पाण्डवानां रणे योधाः परलोकं गताः परे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ पाण्डव-सैनिक रणभूमिमें मोहित होकर मोहवश पुनः द्रोणाचार्यके ही सामने चले गये और मारे गये। बहुत-से सैनिक परलोक सिधार गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तथा पाण्डवी सेना पीड्यमाना महात्मना।
निशि सम्प्राद्रवद् राजन्नुत्सृज्योल्काः सहस्रशः ॥ १९ ॥
पश्यतो भीमसेनस्य विजयस्याच्युतस्य च।
यमयोर्धर्मपुत्रस्य पार्षतस्य च पश्यतः ॥ २० ॥
मूलम्
सा तथा पाण्डवी सेना पीड्यमाना महात्मना।
निशि सम्प्राद्रवद् राजन्नुत्सृज्योल्काः सहस्रशः ॥ १९ ॥
पश्यतो भीमसेनस्य विजयस्याच्युतस्य च।
यमयोर्धर्मपुत्रस्य पार्षतस्य च पश्यतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना द्रोणाचार्यसे इस प्रकार पीड़ित हुई वह पाण्डव-सेना उस रातके समय सहस्रों मशालें फेंक-फेंककर भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, नकुल, सहदेव, धर्मपुत्र युधिष्ठिर और धृष्टद्युम्नके सामने ही उनके देखते-देखते भाग रही थी॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमसा संवृते लोके न प्राज्ञायत किंचन।
कौरवाणां प्रकाशेन दृश्यन्ते विद्रुताः परे ॥ २१ ॥
मूलम्
तमसा संवृते लोके न प्राज्ञायत किंचन।
कौरवाणां प्रकाशेन दृश्यन्ते विद्रुताः परे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पाण्डवदल अन्धकारसे आच्छन्न हो गया था। किसीको कुछ जान नहीं पड़ता था। कौरवदलमें जो प्रकाश हो रहा था, उसीसे कुछ भागते हुए सैनिक दिखायी देते थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रवमाणं तु तत् सैन्यं द्रोणकर्णौ महारथौ।
जघ्नतुः पृष्ठतो राजन् किरन्तौ सायकान् बहून् ॥ २२ ॥
मूलम्
द्रवमाणं तु तत् सैन्यं द्रोणकर्णौ महारथौ।
जघ्नतुः पृष्ठतो राजन् किरन्तौ सायकान् बहून् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महारथी द्रोणाचार्य और कर्ण बहुत-से बाणोंकी वर्षा करते हुए उस भागती हुई पाण्डव-सेनाको पीछेसे मार रहे थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चालेषु प्रभग्नेषु क्षीयमाणेषु सर्वतः।
जनार्दनो दीनमनाः प्रत्यभाषत फाल्गुनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
पञ्चालेषु प्रभग्नेषु क्षीयमाणेषु सर्वतः।
जनार्दनो दीनमनाः प्रत्यभाषत फाल्गुनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब पांचाल योद्धा सब ओरसे नष्ट होने और भागने लगे, तब भगवान् श्रीकृष्णने दीनचित्त होकर अर्जुनसे इस प्रकार कहा—॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणकर्णौ महेष्वासावेतौ पार्षतसात्यकी ।
पञ्चालांश्चैव सहितौ जघ्नतुः सायकैर्भृशम् ॥ २४ ॥
मूलम्
द्रोणकर्णौ महेष्वासावेतौ पार्षतसात्यकी ।
पञ्चालांश्चैव सहितौ जघ्नतुः सायकैर्भृशम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन! द्रोणाचार्य और कर्ण इन दोनों महा-धनुर्धरोंने एक साथ होकर धृष्टद्युम्न, सात्यकि और पांचालोंको अपने बाणोंद्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतयोः शरवर्षेण प्रभग्ना नो महारथाः।
वार्यमाणापि कौन्तेय पृतना नावतिष्ठते ॥ २५ ॥
मूलम्
एतयोः शरवर्षेण प्रभग्ना नो महारथाः।
वार्यमाणापि कौन्तेय पृतना नावतिष्ठते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! इन दोनोंकी बाण-वर्षासे हमारे महारथियोंके पाँव उखड़ गये हैं। हमारी सेना रोकनेपर भी रुक नहीं रही है’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तु विद्रवतीं दृष्ट्वा ऊचतुः केशवार्जुनौ।
मा विद्रवत वित्रस्ता भयं त्यजत पाण्डवाः ॥ २६ ॥
मूलम्
तां तु विद्रवतीं दृष्ट्वा ऊचतुः केशवार्जुनौ।
मा विद्रवत वित्रस्ता भयं त्यजत पाण्डवाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी सेनाको भागती देख श्रीकृष्ण और अर्जुनने उससे कहा—‘पाण्डव वीरो! भयभीत होकर भागो मत। भय छोड़ो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावावां सर्वसैन्यैश्च व्यूहैः सम्यगुदायुधैः।
द्रोणं च सूतपुत्रं च प्रयतावः प्रबाधितुम् ॥ २७ ॥
मूलम्
तावावां सर्वसैन्यैश्च व्यूहैः सम्यगुदायुधैः।
द्रोणं च सूतपुत्रं च प्रयतावः प्रबाधितुम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हम दोनों अस्त्र-शस्त्रोंसे भलीभाँति सुसज्जित सम्पूर्ण सेनाओंका व्यूह बनाकर द्रोणाचार्य और सूतपुत्र कर्णको बाधा देनेका प्रयत्न कर रहे हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतौ हि बलिनौ शूरौ कृतास्त्रौ जितकाशिनौ।
उपेक्षितौ तव बलैर्नाशयेतां निशामिमाम् ॥ २८ ॥
मूलम्
एतौ हि बलिनौ शूरौ कृतास्त्रौ जितकाशिनौ।
उपेक्षितौ तव बलैर्नाशयेतां निशामिमाम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये दोनों—द्रोण और कर्ण बलवान्, शूरवीर, अस्त्रवेत्ता तथा विजयश्रीसे सुशोभित हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गयी तो ये इसी रातमें तुमलोगोंकी सारी सेनाका विनाश कर डालेंगे’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः संवदतोरेवं भीमकर्मा महाबलः।
आयाद् वृकोदरः शीघ्रं पुनरावर्त्य वाहिनीम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तयोः संवदतोरेवं भीमकर्मा महाबलः।
आयाद् वृकोदरः शीघ्रं पुनरावर्त्य वाहिनीम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों इस प्रकार अपने सैनिकोंसे बातें कर ही रहे थे कि भयंकर कर्म करनेवाले महाबली भीमसेन पुनः अपनी सेनाको लौटाकर शीघ्र वहाँ आ पहुँचे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृकोदरमथायान्तं दृष्ट्वा तत्र जनार्दनः।
पुनरेवाब्रवीद् राजन् हर्षयन्निव पाण्डवम् ॥ ३० ॥
मूलम्
वृकोदरमथायान्तं दृष्ट्वा तत्र जनार्दनः।
पुनरेवाब्रवीद् राजन् हर्षयन्निव पाण्डवम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भीमसेनको वहाँ आते देख भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्र अर्जुनका हर्ष बढ़ाते हुए-से पुनः इस प्रकार बोले—॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष भीमो रणश्लाघी वृतः सोमकपाण्डवैः।
अभ्यवर्तत वेगेन द्रोणकर्णौ महारथौ ॥ ३१ ॥
मूलम्
एष भीमो रणश्लाघी वृतः सोमकपाण्डवैः।
अभ्यवर्तत वेगेन द्रोणकर्णौ महारथौ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये युद्धकी स्पृहा रखनेवाले भीमसेन सोमक और पाण्डवयोद्धाओंसे घिरकर महारथी द्रोण और कर्णका सामना करनेके लिये बड़े वेगसे आ रहे हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेन सहितो युद्ध्य पञ्चालैश्च महारथैः।
आश्वासनार्थं सैन्यानां सर्वेषां पाण्डुनन्दन ॥ ३२ ॥
मूलम्
एतेन सहितो युद्ध्य पञ्चालैश्च महारथैः।
आश्वासनार्थं सैन्यानां सर्वेषां पाण्डुनन्दन ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन! इनके और पांचाल महारथियोंके साथ रहकर तुम अपनी सारी सेनाओंको सान्त्वना देनेके लिये यहाँ युद्ध करो’॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ पुरुषव्याघ्रावुभौ माधवपाण्डवौ ।
द्रोणकर्णौ समासाद्य धिष्ठितौ रणमूर्धनि ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततस्तौ पुरुषव्याघ्रावुभौ माधवपाण्डवौ ।
द्रोणकर्णौ समासाद्य धिष्ठितौ रणमूर्धनि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे दोनों पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्धके मुहानेपर द्रोणाचार्य और कर्णके सामने जाकर खड़े हो गये॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत् पुनरावृत्तं युधिष्ठिरबलं महत्।
ततो द्रोणश्च कर्णश्च परान् ममृदतुर्युधि ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततस्तत् पुनरावृत्तं युधिष्ठिरबलं महत्।
ततो द्रोणश्च कर्णश्च परान् ममृदतुर्युधि ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर युधिष्ठिरकी वह विशाल सेना पुनः लौट आयी। तत्पश्चात् द्रोणाचार्य और कर्ण युद्धके मैदानमें शत्रुओंको रौंदने लगे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सम्प्रहारस्तुमुलो निशि प्रत्यभवन्महान्।
यथा सागरयो राजंश्चन्द्रोदयविवृद्धयोः ॥ ३५ ॥
मूलम्
स सम्प्रहारस्तुमुलो निशि प्रत्यभवन्महान्।
यथा सागरयो राजंश्चन्द्रोदयविवृद्धयोः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस रात्रिमें चन्द्रोदयकालमें उमड़े हुए दो महासागरोंके सदृश उन दोनों दलोंका वह महान् संग्राम अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्सृज्य पाणिभ्यां प्रदीपांस्तव वाहिनी।
युयुधे पाण्डवैः सार्धमुन्मत्तवदसंकुला ॥ ३६ ॥
मूलम्
तत उत्सृज्य पाणिभ्यां प्रदीपांस्तव वाहिनी।
युयुधे पाण्डवैः सार्धमुन्मत्तवदसंकुला ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आपकी सेना अपने हाथोंसे मशालें फेंककर उन्मत्तके समान असंकुलभावसे पाण्डव-सैनिकोंके साथ युद्ध करने लगी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजसा तमसा चैव संवृते भृशदारुणे।
केवलं नामगोत्रेण प्रायुध्यन्त जयैषिणः ॥ ३७ ॥
मूलम्
रजसा तमसा चैव संवृते भृशदारुणे।
केवलं नामगोत्रेण प्रायुध्यन्त जयैषिणः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धूल और अंधकारसे छाये हुए उस अत्यन्त भयंकर संग्राममें विजयाभिलाषी योद्धा केवल नाम और गोत्रका परिचय पाकर युद्ध करते थे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रूयन्त हि नामानि श्राव्यमाणानि पार्थिवैः।
प्रहरद्भिर्महाराज स्वयंवर इवाहवे ॥ ३८ ॥
मूलम्
अश्रूयन्त हि नामानि श्राव्यमाणानि पार्थिवैः।
प्रहरद्भिर्महाराज स्वयंवर इवाहवे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! स्वयंवरकी भाँति उस युद्धस्थलमें भी प्रहार करनेवाले नरेशोंद्वारा सुनाये जाते हुए नाम श्रवणगोचर हो रहे थे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःशब्दमासीत् सहसा पुनः शब्दो महानभूत्।
क्रुद्धानां युध्यमानानां जीयतां जयतामपि ॥ ३९ ॥
मूलम्
निःशब्दमासीत् सहसा पुनः शब्दो महानभूत्।
क्रुद्धानां युध्यमानानां जीयतां जयतामपि ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधमें भरकर युद्ध करते हुए पराजित एवं विजयी होनेवाले योद्धाओंका शब्द वहाँ सहसा बंद होकर कभी सन्नाटा छा जाता था और कभी पुनः महान् कोलाहल होने लगता था॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र स्म दृश्यने प्रदीपाः कुरुसत्तम।
तत्र तत्र स्म शूरास्ते निपतन्ति पतङ्गवत् ॥ ४० ॥
मूलम्
यत्र यत्र स्म दृश्यने प्रदीपाः कुरुसत्तम।
तत्र तत्र स्म शूरास्ते निपतन्ति पतङ्गवत् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! जहाँ-जहाँ मशालें दिखायी देती थीं, वहाँ-वहाँ शूरवीर सैनिक पतंगोंकी तरह टूट पड़ते थे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा संयुध्यमानानां विगाढासीन्महानिशा ।
पाण्डवानां च राजेन्द्र कौरवाणां च सर्वशः ॥ ४१ ॥
मूलम्
तथा संयुध्यमानानां विगाढासीन्महानिशा ।
पाण्डवानां च राजेन्द्र कौरवाणां च सर्वशः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! इस प्रकार युद्धमें लगे हुए पाण्डवों और कौरवोंकी वह महारात्रि सर्वथा प्रगाढ़ हो चली॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे संकुलयुद्धे द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके अवसरपर संकुलयुद्धविषयक एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७२॥