१६९ संकुलयुद्धे

भागसूचना

एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नकुलके द्वारा शकुनिकी पराजय तथा शिखण्डी और कृपाचार्यका घोर युद्ध

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलं रभसं युद्धे निघ्नन्तं वाहिनीं तव।
अभ्ययात् सौबलः क्रुद्धस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

नकुलं रभसं युद्धे निघ्नन्तं वाहिनीं तव।
अभ्ययात् सौबलः क्रुद्धस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! वेगशाली नकुल युद्धमें आपकी सेनाका संहार कर रहे थे। उनका सामना करनेके लिये क्रोधमें भरा हुआ सुबलपुत्र शकुनि आया और बोला ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतवैरौ तु तौ वीरावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ।
शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः ॥ २ ॥

मूलम्

कृतवैरौ तु तौ वीरावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ।
शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों वीरोंने पहलेसे ही आपसमें वैर बाँध रखा था, वे एक-दूसरेका वध करना चाहते थे; इसलिये पूर्णतः कानतक खींचकर छोड़े हुए बाणोंसे वे एक-दूसरेको घायल करने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैव नकुलो राजन् शरवर्षाण्यमुञ्चत।
तथैव सौबलश्चापि शिक्षां संदर्शयन् युधि ॥ ३ ॥

मूलम्

यथैव नकुलो राजन् शरवर्षाण्यमुञ्चत।
तथैव सौबलश्चापि शिक्षां संदर्शयन् युधि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! नकुल जैसे-जैसे बाणोंकी वर्षा करते, शकुनि भी वैसे-ही-वैसे युद्धविषयक शिक्षाका प्रदर्शन करता हुआ बाण छोड़ता था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा।
व्यराजेतां महाराज श्वाविधौ शललैरिव ॥ ४ ॥

मूलम्

तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा।
व्यराजेतां महाराज श्वाविधौ शललैरिव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वे दोनों शूरवीर समरांगणमें बाणरूपी कंटकोंसे युक्त होकर काँटेदार शरीरवाले साहीके समान सुशोभित हो रहे थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्मपुङ्खैरजिह्माग्रैः शरैश्छिन्नतनुच्छदौ ।
रुधिरौघपरिक्लिन्नौ व्यभ्राजेतां महामृधे ॥ ५ ॥
तपनीयनिभौ चित्रौ कल्पवृक्षाविव द्रुमौ।
किंशुकाविव चोत्फुल्लो प्रकाशेते रणाजिरे ॥ ६ ॥

मूलम्

रुक्मपुङ्खैरजिह्माग्रैः शरैश्छिन्नतनुच्छदौ ।
रुधिरौघपरिक्लिन्नौ व्यभ्राजेतां महामृधे ॥ ५ ॥
तपनीयनिभौ चित्रौ कल्पवृक्षाविव द्रुमौ।
किंशुकाविव चोत्फुल्लो प्रकाशेते रणाजिरे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोनेके पंख और सीधे अग्रभागवाले बाणोंसे उन दोनोंके कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे। दोनों ही उस महासमरमें खूनसे लथपथ हो सुवर्णके समान विचित्र कान्तिसे सुशोभित हो रहे थे। वे दो कल्पवृक्षों और खिले हुए दो ढाकके पेड़ोंके समान समरांगणमें प्रकाशित हो रहे थे॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा।
व्यराजेतां महाराज कण्टकैरिव शाल्मली ॥ ७ ॥

मूलम्

तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा।
व्यराजेतां महाराज कण्टकैरिव शाल्मली ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जैसे काँटोंसे सेमरका वृक्ष सुशोभित होता है, उसी प्रकार वे दोनों शूरवीर समरभूमिमें बाणरूपी कंटकोंसे युक्त दिखायी देते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुजिह्मं प्रेक्षमाणौ च राजन् विवृतलोचनौ।
क्रोधसंरक्तनयनौ निर्दहन्तौ परस्परम् ॥ ८ ॥

मूलम्

सुजिह्मं प्रेक्षमाणौ च राजन् विवृतलोचनौ।
क्रोधसंरक्तनयनौ निर्दहन्तौ परस्परम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे अत्यन्त कुटिलभावसे परस्पर आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे और क्रोधसे लाल नेत्र करके एक-दूसरेको ऐसे देखते थे, मानो भस्म कर देंगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्यालस्तु तव संक्रुद्धो माद्रीपुत्रं हसन्निव।
कर्णिनैकेन विव्याध हृदये निशितेन ह ॥ ९ ॥

मूलम्

श्यालस्तु तव संक्रुद्धो माद्रीपुत्रं हसन्निव।
कर्णिनैकेन विव्याध हृदये निशितेन ह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अत्यन्त क्रोधमें भरकर हँसते हुए-से आपके सालेने एक तीखे कर्णी नामक बाणसे माद्रीपुत्र नकुलकी छातीमें गहरा आघात किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलस्तु भृशं विद्धः श्यालेन तव धन्विना।
निषसाद रथोपस्थे कश्मलं चाविशन्महत् ॥ १० ॥

मूलम्

नकुलस्तु भृशं विद्धः श्यालेन तव धन्विना।
निषसाद रथोपस्थे कश्मलं चाविशन्महत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके धनुर्धर सालेके द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए नकुल रथके पिछले भागमें बैठ गये और भारी मूर्च्छामें पड़ गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यन्तवैरिणं दृप्तं दृष्ट्वा शत्रुं तथागतम्।
ननाद शकुनी राजंस्तपान्ते जलदो यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

अत्यन्तवैरिणं दृप्तं दृष्ट्वा शत्रुं तथागतम्।
ननाद शकुनी राजंस्तपान्ते जलदो यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अपने अत्यन्त वैरी और अभिमानी शत्रुको वैसी अवस्थामें पड़ा देख शकुनि वर्षाकालके मेघके समान जोर-जोरसे गर्जना करने लगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां नकुलः पाण्डुनन्दनः।
अभ्ययात् सौबलं भूयो व्यात्तानन इवान्तकः ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां नकुलः पाण्डुनन्दनः।
अभ्ययात् सौबलं भूयो व्यात्तानन इवान्तकः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही पाण्डुनन्दन नकुल होशमें आकर मुँह बाये हुए यमराजके समान पुनः सुबलपुत्रका सामना करनेके लिये आगे बढ़े॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संक्रुद्धः शकुनिं षष्ट्या विव्याध भरतर्षभ।
पुनश्चैनं शतेनैव नाराचानां स्तनान्तरे ॥ १३ ॥

मूलम्

संक्रुद्धः शकुनिं षष्ट्या विव्याध भरतर्षभ।
पुनश्चैनं शतेनैव नाराचानां स्तनान्तरे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इन्होंने कुपित होकर शकुनिको साठ बाणोंसे घायल कर दिया। फिर उसकी छातीमें इन्होंने सौ नाराच मारे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथास्य सशरं चापं मुष्टिदेशेऽच्छिनत् तदा।
ध्वजं च त्वरितं छित्त्वा रथाद् भूमावपातयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

अथास्य सशरं चापं मुष्टिदेशेऽच्छिनत् तदा।
ध्वजं च त्वरितं छित्त्वा रथाद् भूमावपातयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् नकुलने शकुनिके बाणसहित धनुषको मुट्ठी पकड़नेकी जगहसे काट दिया और तुरंत ही उसकी ध्वजाको भी काटकर रथसे भूमिपर गिरा दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशिखेन च तीक्ष्णेन पीतेन निशितेन च।
ऊरू निर्भिद्य चैकेन नकुलः पाण्डुनन्दनः ॥ १५ ॥
श्येनं सपक्षं व्याधेन पातयामास तं तदा।

मूलम्

विशिखेन च तीक्ष्णेन पीतेन निशितेन च।
ऊरू निर्भिद्य चैकेन नकुलः पाण्डुनन्दनः ॥ १५ ॥
श्येनं सपक्षं व्याधेन पातयामास तं तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद एक पानीदार पैने एवं तीखे बाणसे पाण्डुनन्दन नकुलने शकुनिकी दोनों जाँघोंको विदीर्ण करके व्याधद्वारा विद्ध हुए पंखयुक्त बाज पक्षीके समान उसे गिरा दिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिविद्धो महाराज रथोपस्थ उपाविशत् ॥ १६ ॥
ध्वजयष्टिं परिक्लिश्य कामुकः कामिनीं यथा।

मूलम्

सोऽतिविद्धो महाराज रथोपस्थ उपाविशत् ॥ १६ ॥
ध्वजयष्टिं परिक्लिश्य कामुकः कामिनीं यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस बाणसे अत्यन्त घायल हुआ शकुनि, जैसे कामी पुरुष कामिनीका आलिंगन करता है, उसी प्रकार ध्वज-यष्टि (ध्वजाके डंडे)-को दोनों भुजाओंसे पकड़कर रथके पिछले भागमें बैठ गया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विसंज्ञं निपतितं दृष्ट्वा श्यालं तवानघ ॥ १७ ॥
अपोवाह रथेनाशु सारथिर्ध्वजिनीमुखात् ।

मूलम्

तं विसंज्ञं निपतितं दृष्ट्वा श्यालं तवानघ ॥ १७ ॥
अपोवाह रथेनाशु सारथिर्ध्वजिनीमुखात् ।

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! आपके सालेको बेहोश पड़ा देख सारथि रथके द्वारा शीघ्र ही उसे सेनाके आगेसे दूर हटा ले गया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संचुक्रुशुः पार्था ये च तेषां पदानुगाः ॥ १८ ॥
निर्जित्य च रणे शत्रुं नकुलः शत्रुतापनः।
अब्रवीत् सारथिं क्रुद्धो द्रोणानीकाय मां वह ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः संचुक्रुशुः पार्था ये च तेषां पदानुगाः ॥ १८ ॥
निर्जित्य च रणे शत्रुं नकुलः शत्रुतापनः।
अब्रवीत् सारथिं क्रुद्धो द्रोणानीकाय मां वह ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो कुन्तीके पुत्र और उनके सेवक बड़े जोरसे सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार रणभूमिमें शत्रुको परास्त करके क्रोधमें भरे हुए शत्रुसंतापी नकुलने अपने सारथिसे कहा—‘सूत! मुझे द्रोणाचार्यकी सेनाके पास ले चलो’॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा माद्रीपुत्रस्य सारथिः।
प्रायात् तेन तदा राजन् यत्र द्रोणो व्यवस्थितः ॥ २० ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा माद्रीपुत्रस्य सारथिः।
प्रायात् तेन तदा राजन् यत्र द्रोणो व्यवस्थितः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! माद्रीकुमारका वह वचन सुनकर सारथि उस रथके द्वारा जहाँ द्रोणाचार्य खड़े थे, वहाँ तत्काल जा पहुँचा॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डिनं तु समरे द्रोणप्रेप्सुं विशाम्पते।
कृपः शारद्वतो यत्तः प्रत्यगच्छत् सवेगितः ॥ २१ ॥

मूलम्

शिखण्डिनं तु समरे द्रोणप्रेप्सुं विशाम्पते।
कृपः शारद्वतो यत्तः प्रत्यगच्छत् सवेगितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! द्रोणाचार्यके साथ युद्धकी इच्छावाले शिखण्डीका समरभूमिमें सामना करनेके लिये प्रयत्नशील हो शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्य बड़े वेगसे आगे बढ़े॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौतमं द्रुतमायान्तं द्रोणानीकमरिंदमम् ।
विव्याध नवभिर्भल्लैः शिखण्डी प्रहसन्निव ॥ २२ ॥

मूलम्

गौतमं द्रुतमायान्तं द्रोणानीकमरिंदमम् ।
विव्याध नवभिर्भल्लैः शिखण्डी प्रहसन्निव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको दमन करनेवाले, द्रोणरक्षक, गौतमगोत्रीय कृपाचार्यको शीघ्रतापूर्वक आते देख हँसते हुए-से शिखण्डीने उन्हें नौ भल्लोंसे बींध डाला॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाचार्यो महाराज विद््ध्वा पञ्चभिराशुगैः।
पुनर्विव्याध विंशत्या पुत्राणां प्रियकृत् तव ॥ २३ ॥

मूलम्

तमाचार्यो महाराज विद््ध्वा पञ्चभिराशुगैः।
पुनर्विव्याध विंशत्या पुत्राणां प्रियकृत् तव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब आपके पुत्रोंका प्रिय करनेवाले कृपाचार्यने शिखण्डीको पाँच बाणोंसे बींधकर फिर बीस बाणोंसे घायल कर दिया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महद् युद्धं तयोरासीद् घोररूपं भयानकम्।
यथा देवासुरे युद्धे शम्बरामरराजयोः ॥ २४ ॥

मूलम्

महद् युद्धं तयोरासीद् घोररूपं भयानकम्।
यथा देवासुरे युद्धे शम्बरामरराजयोः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें देवासुर-संग्रामके अवसरपर शम्बरासुर और इन्द्रमें जैसा युद्ध हुआ था, वैसा ही घोर भयानक एवं महान् युद्ध उन दोनोंमें भी हुआ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरजालावृतं व्योम चक्रतुस्तौ महारथौ।
मेघाविव तपापाये वीरौ समरदुर्मदौ ॥ २५ ॥

मूलम्

शरजालावृतं व्योम चक्रतुस्तौ महारथौ।
मेघाविव तपापाये वीरौ समरदुर्मदौ ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों रणदुर्मद वीर महारथियोंने वर्षाकालके दो मेघोंके समान आकाशको बाणसमूहोंसे व्याप्त कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृत्या घोररूपं तदासीद् घोरतरं पुनः।
रात्रिश्च भरतश्रेष्ठ योधानां युद्धशालिनाम् ॥ २६ ॥
कालरात्रिनिभा ह्यासीद् घोररूपा भयानका।

मूलम्

प्रकृत्या घोररूपं तदासीद् घोरतरं पुनः।
रात्रिश्च भरतश्रेष्ठ योधानां युद्धशालिनाम् ॥ २६ ॥
कालरात्रिनिभा ह्यासीद् घोररूपा भयानका।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! स्वभावसे ही भयंकर दिखायी देनेवाला आकाश उस समय और भी घोरतर हो उठा। युद्धभूमिमें शोभा पानेवाले योद्धाओंके लिये वह घोर एवं भयानक रात्रि कालरात्रिके समान प्रतीत होती थी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डी तु महाराज गौतमस्य महद् धनुः ॥ २७ ॥
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद सज्यं सविशिखं तदा।

मूलम्

शिखण्डी तु महाराज गौतमस्य महद् धनुः ॥ २७ ॥
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद सज्यं सविशिखं तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! शिखण्डीने उस समय अर्धचन्द्राकार बाण मारकर प्रत्यंचा और बाणसहित कृपाचार्यके विशाल धनुषको काट दिया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य क्रुद्धः कृपो राजन् शक्तिं चिक्षेप दारुणाम् ॥ २८ ॥
स्वर्णदण्डामकुण्ठाग्रां कर्मारपरिमार्जिताम् ।

मूलम्

तस्य क्रुद्धः कृपो राजन् शक्तिं चिक्षेप दारुणाम् ॥ २८ ॥
स्वर्णदण्डामकुण्ठाग्रां कर्मारपरिमार्जिताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब कृपाचार्यने कुपित होकर सोनेके दण्ड और अप्रतिहत धारवाली तथा कारीगरके द्वारा साफ की हुई एक भयंकर शक्ति उसके ऊपर चलायी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं चिच्छेद शिखण्डी बहुभिः शरैः ॥ २९ ॥
साऽपतन्मेदिनीं दीप्ता भासयन्ती महाप्रभा।

मूलम्

तामापतन्तीं चिच्छेद शिखण्डी बहुभिः शरैः ॥ २९ ॥
साऽपतन्मेदिनीं दीप्ता भासयन्ती महाप्रभा।

अनुवाद (हिन्दी)

अपने ऊपर आती हुई उस शक्तिको शिखण्डीने बहुत-से बाण मारकर काट दिया। वह अत्यन्त कान्तिमती एवं प्रकाशमान शक्ति खण्डित हो सब ओर प्रकाश बिखेरती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यद् धनुरादाय गौतमो रथिनां वरः ॥ ३० ॥
प्राच्छादयच्छितैर्बाणैर्महाराज शिखण्डिनम् ।

मूलम्

अथान्यद् धनुरादाय गौतमो रथिनां वरः ॥ ३० ॥
प्राच्छादयच्छितैर्बाणैर्महाराज शिखण्डिनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब रथियोंमें श्रेष्ठ कृपाचार्यने दूसरा धनुष हाथमें लेकर पैने बाणोंद्वारा शिखण्डीको ढक दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च्छाद्यमानः समरे गौतमेन यशस्विना ॥ ३१ ॥
न्यषीदत रथोपस्थे शिखण्डी रथिनां वरः।

मूलम्

स च्छाद्यमानः समरे गौतमेन यशस्विना ॥ ३१ ॥
न्यषीदत रथोपस्थे शिखण्डी रथिनां वरः।

अनुवाद (हिन्दी)

समरभूमिमें यशस्वी कृपाचार्यद्वारा बाणोंसे आच्छादित किया जाता हुआ रथियोंमें श्रेष्ठ शिखण्डी रथके पिछले भागमें शिथिल होकर बैठ गया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीदन्तं चैनमालोक्य कृपः शारद्वतो युधि ॥ ३२ ॥
आजघ्ने बहुभिर्बाणैर्जिघांसन्निव भारत ।

मूलम्

सीदन्तं चैनमालोक्य कृपः शारद्वतो युधि ॥ ३२ ॥
आजघ्ने बहुभिर्बाणैर्जिघांसन्निव भारत ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! युद्धस्थलमें शिखण्डीको शिथिल हुआ देख शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्यने उसपर बहुत-से बाणोंका प्रहार किया, मानो वे उसे मार डालना चाहते हों॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुखं तु रणे दृष्ट्वा याज्ञसेनिं महारथम् ॥ ३३ ॥
पञ्चालाः सोमकाश्चैव परिवव्रुः समन्ततः।

मूलम्

विमुखं तु रणे दृष्ट्वा याज्ञसेनिं महारथम् ॥ ३३ ॥
पञ्चालाः सोमकाश्चैव परिवव्रुः समन्ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा द्रुपदके उस महारथी पुत्रको युद्धविमुख हुआ देख पांचालों और सोमकोंने उसे चारों ओरसे घेरकर अपने बीचमें कर लिया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव तव पुत्राश्च परिवव्रुर्द्विजोत्तमम् ॥ ३४ ॥
महत्या सेनया सार्धं ततो युद्धमवर्तत।

मूलम्

तथैव तव पुत्राश्च परिवव्रुर्द्विजोत्तमम् ॥ ३४ ॥
महत्या सेनया सार्धं ततो युद्धमवर्तत।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार आपके पुत्रोंने भी विशाल सेनाके साथ आकर द्विजश्रेष्ठ कृपाचार्यको अपने बीचमें कर लिया। फिर दोनों दलोंमें घोर युद्ध होने लगा॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथानां च रणे राजन्नन्योन्यमभिधावताम् ॥ ३५ ॥
बभूव तुमुलः शब्दो मेघानां गर्जतामिव।

मूलम्

रथानां च रणे राजन्नन्योन्यमभिधावताम् ॥ ३५ ॥
बभूव तुमुलः शब्दो मेघानां गर्जतामिव।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! रणभूमिमें परस्पर धावा करनेवाले रथोंकी घर्घराहटका भयंकर शब्द मेघोंकी गर्जनाके समान जान पड़ता था॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रवतां सादिनां चैव गजानां च विशाम्पते ॥ ३६ ॥
अन्योन्यमभितो राजन् क्रूरमायोधनं बभौ।

मूलम्

द्रवतां सादिनां चैव गजानां च विशाम्पते ॥ ३६ ॥
अन्योन्यमभितो राजन् क्रूरमायोधनं बभौ।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजापालक नरेश! चारों ओर एक-दूसरेपर आक्रमण करनेवाले घुड़सवारों और हाथीसवारोंके संघर्षसे वह रणभूमि अत्यन्त दारुण प्रतीत होने लगी॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्तीनां द्रवतां चैव पादशब्देन मेदिनी ॥ ३७ ॥
अकम्पत महाराज भयत्रस्तेव चाङ्गना।

मूलम्

पत्तीनां द्रवतां चैव पादशब्देन मेदिनी ॥ ३७ ॥
अकम्पत महाराज भयत्रस्तेव चाङ्गना।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! दौड़ते हुए पैदल सैनिकोंके पैरोंकी धमकसे यह पृथ्वी भयभीत अबलाके समान काँपने लगी॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथिनो रथमारुह्य प्रद्रुता वेगवत्तरम् ॥ ३८ ॥
अगृह्णन् बहवो राजन् शलभान् वायसा इव।

मूलम्

रथिनो रथमारुह्य प्रद्रुता वेगवत्तरम् ॥ ३८ ॥
अगृह्णन् बहवो राजन् शलभान् वायसा इव।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे कौए दौड़-दौड़कर टिड्डियोंको पकड़ते हैं, उसी प्रकार रथपर बैठकर बड़े वेगसे धावा करनेवाले बहुसंख्यक रथी शत्रुपक्षके सैनिकोंको दबोच लेते थे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा गजान् प्रभिन्नांश्च सम्प्रभिन्ना महागजाः ॥ ३९ ॥
तस्मिन्नेव पदे यत्ता निगृह्णन्ति स्म भारत।

मूलम्

तथा गजान् प्रभिन्नांश्च सम्प्रभिन्ना महागजाः ॥ ३९ ॥
तस्मिन्नेव पदे यत्ता निगृह्णन्ति स्म भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! मदस्रावी विशाल हाथी मदकी धारा बहानेवाले दूसरे गजराजोंसे सहसा भिड़कर एक-दूसरेको यत्नपूर्वक काबूमें कर लेते थे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सादी सादिनमासाद्य पत्तयश्च पदातिनम् ॥ ४० ॥
समासाद्य रणेऽन्योन्यं संरब्धा नातिचक्रमुः।

मूलम्

सादी सादिनमासाद्य पत्तयश्च पदातिनम् ॥ ४० ॥
समासाद्य रणेऽन्योन्यं संरब्धा नातिचक्रमुः।

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें घुड़सवार घुड़सवारोंसे और पैदल पैदलोंसे भिड़कर परस्पर कुपित होते हुए भी एक-दूसरेको लाँघकर आगे नहीं बढ़ पाते थे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावतां द्रवतां चैव पुनरावर्ततामपि ॥ ४१ ॥
बभूव तत्र सैन्यानां शब्दः सुविपुलो निशि।

मूलम्

धावतां द्रवतां चैव पुनरावर्ततामपि ॥ ४१ ॥
बभूव तत्र सैन्यानां शब्दः सुविपुलो निशि।

अनुवाद (हिन्दी)

उस रात्रिके समय दौड़ते, भागते और पुनः लौटते हुए सैनिकोंका महान् कोलाहल सुनायी पड़ता था॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीप्यमानाः प्रदीपाश्च रथवारणवाजिषु ॥ ४२ ॥
अदृश्यन्त महाराज महोल्का इव खाच्च्युताः।

मूलम्

दीप्यमानाः प्रदीपाश्च रथवारणवाजिषु ॥ ४२ ॥
अदृश्यन्त महाराज महोल्का इव खाच्च्युताः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! रथों, हाथियों और घोड़ोंपर चलती हुई मशालें आकाशसे गिरी हुई बड़ी-बड़ी उल्काओंके समान दिखायी देती थीं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा निशा भरतश्रेष्ठ प्रदीपैरवभासिता ॥ ४३ ॥
दिवसप्रतिमा राजन् बभूव रणमूर्धनि।

मूलम्

सा निशा भरतश्रेष्ठ प्रदीपैरवभासिता ॥ ४३ ॥
दिवसप्रतिमा राजन् बभूव रणमूर्धनि।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण नरेश! प्रदीपोंसे प्रकाशित हुई वह रात्रि युद्धके मुहानेपर दिनके समान हो गयी थी॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्येन यथा व्याप्तं तमो लोके प्रणश्यति ॥ ४४ ॥
तथा नष्टं तमो घोरं दीपैर्दीप्तैरितस्ततः।

मूलम्

आदित्येन यथा व्याप्तं तमो लोके प्रणश्यति ॥ ४४ ॥
तथा नष्टं तमो घोरं दीपैर्दीप्तैरितस्ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्यके प्रकाशसे सम्पूर्ण जगत्‌में फैला हुआ अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इधर-उधर जलती हुई मशालोंसे वहाँका भयानक अँधेरा नष्ट हो गया था॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्यौश्चैव पृथिवी चापि दिशश्च प्रदिशस्तथा ॥ ४५ ॥
रजसा तमसा व्याप्ता द्योतिताः प्रभया पुनः।

मूलम्

द्यौश्चैव पृथिवी चापि दिशश्च प्रदिशस्तथा ॥ ४५ ॥
रजसा तमसा व्याप्ता द्योतिताः प्रभया पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

धूल और अन्धकारसे व्याप्त आकाश, पृथ्वी, दिशा और विदिशाएँ प्रदीपोंकी प्रभासे पुनः प्रकाशित हो उठी थीं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्राणां कवचानां च मणीनां च महात्मनाम् ॥ ४६ ॥
अन्तर्दधुः प्रभाः सर्वा दीपैस्तैरवभासिताः।

मूलम्

अस्त्राणां कवचानां च मणीनां च महात्मनाम् ॥ ४६ ॥
अन्तर्दधुः प्रभाः सर्वा दीपैस्तैरवभासिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

महामनस्वी योद्धाओंके अस्त्रों, कवचों और मणियोंकी सारी प्रभा उन प्रदीपोंके प्रकाशसे तिरोहित हो गयी थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् कोलाहले युद्धे वर्तमाने निशामुखे ॥ ४७ ॥
न किंचिद् विदुरात्मानमयमस्मीति भारत।

मूलम्

तस्मिन् कोलाहले युद्धे वर्तमाने निशामुखे ॥ ४७ ॥
न किंचिद् विदुरात्मानमयमस्मीति भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस रात्रिके समय जब वह भयंकर कोलाहलपूर्ण संग्राम चल रहा था, तब योद्धाओंको कुछ भी पता नहीं चलता था। वे अपने-आपके विषयमें भी यह नहीं जान पाते थे कि ‘मैं अमुक हूँ’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवधीत् समरे पुत्रं पिता भरतसत्तम ॥ ४८ ॥
पुत्रश्च पितरं मोहात् सखायं च सखा तथा।
स्वस्रीयं मातुलश्चापि स्वस्रीयश्चापि मातुलम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

अवधीत् समरे पुत्रं पिता भरतसत्तम ॥ ४८ ॥
पुत्रश्च पितरं मोहात् सखायं च सखा तथा।
स्वस्रीयं मातुलश्चापि स्वस्रीयश्चापि मातुलम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उस समरांगणमें मोहवश पिताने पुत्रका वध कर डाला और पुत्रने पिताका। मित्रने मित्रके प्राण ले लिये। मामाने भानजेको मार डाला और भानजेने मामाको॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वे स्वान् परे परांश्चापि निजघ्नुरितरेतरम्।
निर्मर्यादमभूद् युद्धं रात्रौ भीरुभयानकम् ॥ ५० ॥

मूलम्

स्वे स्वान् परे परांश्चापि निजघ्नुरितरेतरम्।
निर्मर्यादमभूद् युद्धं रात्रौ भीरुभयानकम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पक्षके योद्धा अपने ही सैनिकोंपर तथा शत्रुपक्षके सैनिक भी अपने ही योद्धाओंपर परस्पर घातक प्रहार करने लगे। इस प्रकार रात्रिमें वह युद्ध मर्यादारहित होकर कायरोंके लिये अत्यन्त भयानक हो उठा॥५०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे संकुलयुद्धे एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके समय संकुलयुद्धविषयक एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६९॥