१६२ रात्रियुद्धे

भागसूचना

द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सात्यकिद्वारा सोमदत्तका वध, द्रोणाचार्य और युधिष्ठिरका युद्ध तथा भगवान् श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यसे दूर रहनेका आदेश

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमदत्तं तु सम्प्रेक्ष्य विधुन्वानं महद् धनुः।
सात्यकिः प्राह यन्तारं सोमदत्ताय मां वह ॥ १ ॥

मूलम्

सोमदत्तं तु सम्प्रेक्ष्य विधुन्वानं महद् धनुः।
सात्यकिः प्राह यन्तारं सोमदत्ताय मां वह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! सोमदत्तको अपना विशाल धनुष हिलाते देख सात्यकिने अपने सारथिसे कहा—‘मुझे सोमदत्तके पास ले चलो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यहत्वा रणे शत्रुं सोमदत्तं महाबलम्।
निवर्तिष्ये रणात् सूत सत्यमेतद् वचो मम ॥ २ ॥

मूलम्

न ह्यहत्वा रणे शत्रुं सोमदत्तं महाबलम्।
निवर्तिष्ये रणात् सूत सत्यमेतद् वचो मम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूत! आज मैं रणभूमिमें अपने महाबली शत्रु सोमदत्तका वध किये बिना वहाँसे पीछे नहीं लौटूँगा। मेरी यह बात सत्य है’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सम्प्रैषयद् यन्ता सैन्धवांस्तान् मनोजवान्।
तुरङ्गमाञ्छङ्खवर्णान् सर्वशब्दातिगान् रणे ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः सम्प्रैषयद् यन्ता सैन्धवांस्तान् मनोजवान्।
तुरङ्गमाञ्छङ्खवर्णान् सर्वशब्दातिगान् रणे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सारथिने शंखके समान श्वेतवर्णवाले तथा सम्पूर्ण शब्दोंका अतिक्रमण करनेवाले मनके समान वेगशाली सिंधी घोड़ोंको रणभूमिमें आगे बढ़ाया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽवहन् युयुधानं तु मनोमारुतरंहसः।
यथेन्द्रं हरयो राजन् पुरा दैत्यवधोद्यतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

तेऽवहन् युयुधानं तु मनोमारुतरंहसः।
यथेन्द्रं हरयो राजन् पुरा दैत्यवधोद्यतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मन और वायुके समान वेगशाली वे घोड़े युयुधानको उसी प्रकार ले जाने लगे, जैसे पूर्वकालमें दैत्य-वधके लिये उद्यत देवराज इन्द्रको उनके घोड़े ले गये थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं रभसं रणे।
सोमदत्तो महाबाहुरसम्भ्रान्तो न्यवर्तत ॥ ५ ॥

मूलम्

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं रभसं रणे।
सोमदत्तो महाबाहुरसम्भ्रान्तो न्यवर्तत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेगशाली सात्यकिको रणभूमिमें अपनी ओर आते देख महाबाहु सोमदत्त बिना किसी घबराहटके उनकी ओर लौट पड़े॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुञ्चञ्छरवर्षाणि पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
छादयामास शैनेयं जलदो भास्करं यथा ॥ ६ ॥

मूलम्

विमुञ्चञ्छरवर्षाणि पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
छादयामास शैनेयं जलदो भास्करं यथा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षा करनेवाले मेघकी भाँति बाणसमूहोंकी वृष्टि करते हुए सोमदत्तने, जैसे बादल सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार शिनिपौत्र सात्यकिको आच्छादित कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भ्रान्तश्च समरे सात्यकिः कुरुपुङ्गवम्।
छादयामास बाणौघैः समन्ताद् भरतर्षभ ॥ ७ ॥

मूलम्

असम्भ्रान्तश्च समरे सात्यकिः कुरुपुङ्गवम्।
छादयामास बाणौघैः समन्ताद् भरतर्षभ ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उस समरांगणमें सम्भ्रमरहित सात्यकिने भी अपने बाणसमूहोंद्वारा सब ओरसे कुरुप्रवर सोमदत्तको आच्छादित कर दिया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमदत्तस्तु तं षष्ट्या विव्याधोरसि माधवम्।
सात्यकिश्चापि तं राजन्नविध्यत् सायकैः शितैः ॥ ८ ॥

मूलम्

सोमदत्तस्तु तं षष्ट्या विव्याधोरसि माधवम्।
सात्यकिश्चापि तं राजन्नविध्यत् सायकैः शितैः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फिर सोमदत्तने सात्यकिकी छातीमें साठ बाण मारे और सात्यकिने भी उन्हें तीखे बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावन्योन्यं शरैः कृत्तौ व्यराजेतां नरर्षभौ।
सुपुष्पौ पुष्पसमये पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ९ ॥

मूलम्

तावन्योन्यं शरैः कृत्तौ व्यराजेतां नरर्षभौ।
सुपुष्पौ पुष्पसमये पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों नरश्रेष्ठ एक-दूसरेके बाणोंसे घायल होकर वसन्त-ऋतुमें सुन्दर पुष्पवाले दो विकसित पलाशवृक्षोंके समान शोभा पा रहे थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गौ कुरुवृष्णियशस्करौ ।
परस्परमवेक्षेतां दहन्ताविव लोचनैः ॥ १० ॥

मूलम्

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गौ कुरुवृष्णियशस्करौ ।
परस्परमवेक्षेतां दहन्ताविव लोचनैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुल और वृष्णिवंशके यश बढ़ानेवाले उन दोनों वीरोंके सारे अंग खूनसे लथपथ हो रहे थे। वे नेत्रोंद्वारा एक-दूसरेको जलाते हुए-से देख रहे थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथमण्डलमार्गेषु चरन्तावरिमर्दनौ ।
घोररूपौ हि तावास्तां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ ॥ ११ ॥

मूलम्

रथमण्डलमार्गेषु चरन्तावरिमर्दनौ ।
घोररूपौ हि तावास्तां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथ मण्डलके मार्गोंपर विचरते हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर वर्षा करनेवाले दो बादलोंके समान भंयकर रूप धारण किये हुए थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरसम्भिन्नगात्रौ तु सर्वतः शकलीकृतौ।
श्वाविधाविव राजेन्द्र दृश्येतां शरविक्षतौ ॥ १२ ॥

मूलम्

शरसम्भिन्नगात्रौ तु सर्वतः शकलीकृतौ।
श्वाविधाविव राजेन्द्र दृश्येतां शरविक्षतौ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उनके शरीर बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर सब ओरसे खण्डित-से हो बाणविद्ध हिंसक पशुओंके समान दिखायी दे रहे थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णपुङ्खैरिषुभिराचितौ तौ व्यराजताम् ।
खद्योतैरावृतौ राजन् प्रावृषीव वनस्पती ॥ १३ ॥

मूलम्

सुवर्णपुङ्खैरिषुभिराचितौ तौ व्यराजताम् ।
खद्योतैरावृतौ राजन् प्रावृषीव वनस्पती ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे व्याप्त होकर वे दोनों योद्धा वर्षाकालमें जुगनुओंसे व्याप्त हुए दो वृक्षोंके समान सुशोभित हो रहे थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रदीपितसर्वाङ्गौ सायकैस्तैर्महारथौ ।
अदृश्येतां रणे क्रुद्धावुल्काभिरिव कुञ्जरौ ॥ १४ ॥

मूलम्

सम्प्रदीपितसर्वाङ्गौ सायकैस्तैर्महारथौ ।
अदृश्येतां रणे क्रुद्धावुल्काभिरिव कुञ्जरौ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों महारथियोंके सारे अंग उन बाणोंसे उद्भासित हो रहे थे; इसीलिये वे दोनों, रणक्षेत्रमें उल्काओंसे प्रकाशित एवं क्रोधमें भरे हुए दो हाथियोंके समान दिखायी देते थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधि महाराज सोमदत्तो महारथः।
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद माधवस्य महद् धनुः ॥ १५ ॥

मूलम्

ततो युधि महाराज सोमदत्तो महारथः।
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद माधवस्य महद् धनुः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर युद्धस्थलमें महारथी सोमदत्तने अर्धचन्द्राकार बाणसे सात्यकिके विशाल धनुषको काट दिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं पञ्चविंशत्या सायकानां समार्पयत्।
त्वरमाणस्त्वराकाले पुनश्च दशभिः शरैः ॥ १६ ॥

मूलम्

अथैनं पञ्चविंशत्या सायकानां समार्पयत्।
त्वरमाणस्त्वराकाले पुनश्च दशभिः शरैः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और तत्काल ही उनपर पचीस बाणोंका प्रहार किया। शीघ्रताके अवसरपर शीघ्रता करनेवाले सोमदत्तने सात्यकिको पुनः दस बाणोंसे घायल कर दिया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यद् धनुरादाय सात्यकिर्वेगवत्तरम् ।
पञ्चभिः सायकैस्तूर्णं सोमदत्तमविध्यत ॥ १७ ॥

मूलम्

अथान्यद् धनुरादाय सात्यकिर्वेगवत्तरम् ।
पञ्चभिः सायकैस्तूर्णं सोमदत्तमविध्यत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सात्यकिने अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथमें लेकर तुरंत ही पाँच बाणोंसे सोमदत्तको बींध डाला॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपरेण भल्लेन ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम्।
बाह्लीकस्य रणे राजन् सात्यकिः प्रहसन्निव ॥ १८ ॥

मूलम्

ततोऽपरेण भल्लेन ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम्।
बाह्लीकस्य रणे राजन् सात्यकिः प्रहसन्निव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फिर सात्यकिने हँसते हुए-से रणभूमिमें एक दूसरे भल्लके द्वारा बाह्लीकपुत्र सोमदत्तके सुवर्णमय ध्वजको काट दिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमदत्तस्त्वसम्भ्रान्तो दृष्ट्वा केतुं निपातितम्।
शैनेयं पञ्चविंशत्या सायकानां समाचिनोत् ॥ १९ ॥

मूलम्

सोमदत्तस्त्वसम्भ्रान्तो दृष्ट्वा केतुं निपातितम्।
शैनेयं पञ्चविंशत्या सायकानां समाचिनोत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्वजको गिराया हुआ देख सम्भ्रमरहित सोमदत्तने सात्यकिके शरीरमें पचीस बाण चुन दिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्वतोऽपि रणे क्रुद्धः सोमदत्तस्य धन्विनः।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन क्षुरप्रेण शितेन ह ॥ २० ॥

मूलम्

सात्वतोऽपि रणे क्रुद्धः सोमदत्तस्य धन्विनः।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन क्षुरप्रेण शितेन ह ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रणक्षेत्रमें कुपित हुए सात्यकिने भी तीखे क्षुरप्र नामक भल्लसे धनुर्धर सोमदत्तके धनुषको काट दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं रुक्मपुङ्खानां शतेन नतपर्वणाम्।
आचिनोद् बहुधा राजन् भग्नदंष्ट्रमिव द्विपम् ॥ २१ ॥

मूलम्

अथैनं रुक्मपुङ्खानां शतेन नतपर्वणाम्।
आचिनोद् बहुधा राजन् भग्नदंष्ट्रमिव द्विपम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तत्पश्चात् उन्होंने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंखवाले सौ बाणोंसे टूटे दाँतवाले हाथीके समान सोमदत्तके शरीरको अनेक बार बींध दिया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यद् धनुरादाय सोमदत्तो महारथः।
सात्यकिं छादयामास शरवृष्ट्‌या महाबलः ॥ २२ ॥

मूलम्

अथान्यद् धनुरादाय सोमदत्तो महारथः।
सात्यकिं छादयामास शरवृष्ट्‌या महाबलः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद महारथी महाबली सोमदत्तने दूसरा धनुष लेकर सात्यकिको बाणोंकी वर्षासे ढक दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमदत्तं तु संक्रुद्धो रणे विव्याध सात्यकिः।
सात्यकिं शरजालेन सोमदत्तोऽप्यपीडयत् ॥ २३ ॥

मूलम्

सोमदत्तं तु संक्रुद्धो रणे विव्याध सात्यकिः।
सात्यकिं शरजालेन सोमदत्तोऽप्यपीडयत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस युद्धमें क्रुद्ध हुए सात्यकिने सोमदत्तको गहरी चोट पहुँचायी और सोमदत्तने भी अपने बाणसमूहद्वारा सात्यकिको पीड़ित कर दिया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशभिः सात्वतस्यार्थे भीमोऽहन् बाह्लिकात्मजम्।
सोमदत्तोऽप्यसम्भ्रान्तो भीममार्च्छच्छितैः शरैः ॥ २४ ॥

मूलम्

दशभिः सात्वतस्यार्थे भीमोऽहन् बाह्लिकात्मजम्।
सोमदत्तोऽप्यसम्भ्रान्तो भीममार्च्छच्छितैः शरैः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भीमसेनने सात्यकिकी सहायताके लिये सोमदत्तको दस बाण मारे। इससे सोमदत्तको तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्होंने भी तीखे बाणोंसे भीमसेनको पीड़ित कर दिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु सात्वतस्यार्थे भीमसेनो नवं दृढम्।
मुमोच परिघं घोरं सोमदत्तस्य वक्षसि ॥ २५ ॥

मूलम्

ततस्तु सात्वतस्यार्थे भीमसेनो नवं दृढम्।
मुमोच परिघं घोरं सोमदत्तस्य वक्षसि ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सात्यकिकी ओरसे भीमसेनने सोमदत्तकी छातीको लक्ष्य करके एक नूतन सुदृढ़ एवं भयंकर परिघ छोड़ा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं वेगेन परिघं घोरदर्शनम्।
द्विधा चिच्छेद समरे प्रहसन्निव कौरवः ॥ २६ ॥

मूलम्

तमापतन्तं वेगेन परिघं घोरदर्शनम्।
द्विधा चिच्छेद समरे प्रहसन्निव कौरवः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरांगणमें बड़े वेगसे आते हुए उस भयंकर परिघके कुरुवंशी सोमदत्तने हँसते हुए-से दो टुकड़े कर डाले॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पपात द्विधा छिन्न आयसः परिघो महान्।
महीधरस्येव महच्छिखरं वज्रदारितम् ॥ २७ ॥

मूलम्

स पपात द्विधा छिन्न आयसः परिघो महान्।
महीधरस्येव महच्छिखरं वज्रदारितम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोहेका वह महान् परिघ दो खण्डोंमें विभक्त होकर वज्रसे विदीर्ण किये गये महान् पर्वतशिखरके समान पृथ्वीपर गिर पड़ा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु सात्यकी राजन् सोमदत्तस्य संयुगे।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन हस्तावापं च पञ्चभिः ॥ २८ ॥

मूलम्

ततस्तु सात्यकी राजन् सोमदत्तस्य संयुगे।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन हस्तावापं च पञ्चभिः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर संग्रामभूमिमें सात्यकिने एक भल्लसे सोमदत्तका धनुष काट दिया और पाँच बाणोंसे उनके दस्ताने नष्ट कर दिये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चतुर्भिश्च शरैस्तूर्णं तांस्तुरगोत्तमान् ।
समीपं प्रेषयामास प्रेतराजस्य भारत ॥ २९ ॥

मूलम्

ततश्चतुर्भिश्च शरैस्तूर्णं तांस्तुरगोत्तमान् ।
समीपं प्रेषयामास प्रेतराजस्य भारत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! फिर तत्काल ही चार बाणोंसे उन्होंने सोमदत्तके उन उत्तम घोड़ोंको प्रेतराज यमके समीप भेज दिया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारथेश्च शिरः कायाद् भल्लेन नतपर्वणा।
जहार नरशार्दूलः प्रहसञ्छिनिपुङ्गवः ॥ ३० ॥

मूलम्

सारथेश्च शिरः कायाद् भल्लेन नतपर्वणा।
जहार नरशार्दूलः प्रहसञ्छिनिपुङ्गवः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद पुरुषसिंह शिनिप्रवर सात्यकिने हँसते हुए झुकी हुई गाँठवाले भल्लसे सोमदत्तके सारथिका सिर धड़से अलग कर दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरं महाघोरं ज्वलन्तमिव पावकम्।
मुमोच सात्वतो राजन् स्वर्णपुङ्खं शिलाशितम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततः शरं महाघोरं ज्वलन्तमिव पावकम्।
मुमोच सात्वतो राजन् स्वर्णपुङ्खं शिलाशितम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तत्पश्चात् सात्वतवंशी सात्यकिने प्रज्वलित पावकके समान एक महाभयंकर, सुवर्णमय पंखवाला और शिलापर तेज किया हुआ बाण सोमदत्तपर छोड़ा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विमुक्तो बलवता शैनेयेन शरोत्तमः।
घोरस्तस्योरसि विभो निपपाताशु भारत ॥ ३२ ॥

मूलम्

स विमुक्तो बलवता शैनेयेन शरोत्तमः।
घोरस्तस्योरसि विभो निपपाताशु भारत ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! प्रभो! शिनिवंशी बलवान् सात्यकिके द्वारा छोड़ा हुआ वह श्रेष्ठ एवं भयंकर बाण शीघ्र ही सोमदत्तकी छातीपर जा पड़ा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिविद्धो महाराज सात्वतेन महारथः।
सोमदत्तो महाबाहुर्निपपात ममार च ॥ ३३ ॥

मूलम्

सोऽतिविद्धो महाराज सात्वतेन महारथः।
सोमदत्तो महाबाहुर्निपपात ममार च ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सात्यकिके चलाये हुए उस बाणसे अत्यन्त घायल होकर महारथी महाबाहु सोमदत्त पृथ्वीपर गिरे और मर गये॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा निहतं तत्र सोमदत्तं महारथाः।
महता शरवर्षेण युयुधानमुपाद्रवन् ॥ ३४ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा निहतं तत्र सोमदत्तं महारथाः।
महता शरवर्षेण युयुधानमुपाद्रवन् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमदत्तको मारा गया देख आपके बहुसंख्यक महारथी बाणोंकी भारी वृष्टि करते हुए वहाँ सात्यकिपर टूट पड़े॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छाद्यमानं शरैर्दृष्ट्‌वा युयुधानं युधिष्ठिरः।
पाण्डवाश्च महाराज सह सर्वैः प्रभद्रकैः।
महत्या सेनया सार्धं द्रोणानीकमुपाद्रवन् ॥ ३५ ॥

मूलम्

छाद्यमानं शरैर्दृष्ट्‌वा युयुधानं युधिष्ठिरः।
पाण्डवाश्च महाराज सह सर्वैः प्रभद्रकैः।
महत्या सेनया सार्धं द्रोणानीकमुपाद्रवन् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय सात्यकिको बाणोंद्वारा आच्छादित होते देख युधिष्ठिर तथा अन्य पाण्डवोंने समस्त प्रभद्रकोंसहित विशाल सेनाके साथ द्रोणाचार्यकी सेनापर धावा किया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरः क्रुद्धस्तावकानां महाबलम्।
शरैर्विद्रावयामास भारद्वाजस्य पश्यतः ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरः क्रुद्धस्तावकानां महाबलम्।
शरैर्विद्रावयामास भारद्वाजस्य पश्यतः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए राजा युधिष्ठिरने अपने बाणोंकी मारसे आपकी विशाल वाहिनीको द्रोणाचार्यके देखते-देखते खदेड़ना आरम्भ किया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्यानि द्रावयन्तं तु द्रोणो दृष्ट्‌वा युधिष्ठिरम्।
अभिदुद्राव वेगेन क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ ३७ ॥

मूलम्

सैन्यानि द्रावयन्तं तु द्रोणो दृष्ट्‌वा युधिष्ठिरम्।
अभिदुद्राव वेगेन क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यने देखा कि युधिष्ठिर मेरे सैनिकोंको खदेड़ रहे हैं, तब वे क्रोधसे लाल आँखें करके बड़े वेगसे उनकी ओर दौड़े॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुनिशितैर्बाणैः पार्थं विव्याध सप्तभिः।
युधिष्ठिरोऽपि संक्रुद्धः प्रतिविव्याध पञ्चभिः ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततः सुनिशितैर्बाणैः पार्थं विव्याध सप्तभिः।
युधिष्ठिरोऽपि संक्रुद्धः प्रतिविव्याध पञ्चभिः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने सात तीखे बाणोंसे कुन्तीकुमार युधिष्ठिरको घायल कर दिया। अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए युधिष्ठिरने भी उन्हें पाँच बाणोंसे बींधकर बदला चुकाया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिविद्धो महाबाहुः सृक्किणी परिसंलिहन्।
युधिष्ठिरस्य चिच्छेद ध्वजं कार्मुकमेव च ॥ ३९ ॥
स च्छिन्नधन्वा त्वरितस्त्वराकाले नृपोत्तमः।
अन्यदादत्त वेगेन कार्मुकं समरे दृढम् ॥ ४० ॥

मूलम्

सोऽतिविद्धो महाबाहुः सृक्किणी परिसंलिहन्।
युधिष्ठिरस्य चिच्छेद ध्वजं कार्मुकमेव च ॥ ३९ ॥
स च्छिन्नधन्वा त्वरितस्त्वराकाले नृपोत्तमः।
अन्यदादत्त वेगेन कार्मुकं समरे दृढम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अत्यन्त घायल हुए महाबाहु द्रोणाचार्य अपने दोनों गलफर चाटने लगे। उन्होंने युधिष्ठिरके ध्वज और धनुषको भी काट दिया। शीघ्रताके समय शीघ्रता करनेवाले नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरने समरांगणमें धनुष कट जानेपर दूसरे सुदृढ़ धनुषको वेगपूर्वक हाथमें ले लिया॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरसहस्रेण द्रोणं विव्याध पार्थिवः।
साश्वसूतध्वजरथं तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४१ ॥

मूलम्

ततः शरसहस्रेण द्रोणं विव्याध पार्थिवः।
साश्वसूतध्वजरथं तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सहस्रों बाणोंकी वर्षा करके राजाने घोड़े, सारथि, रथ और ध्वजसहित द्रोणाचार्यको बींध डाला। वह अद्‌भुत-सा कार्य हुआ॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मुहूर्तं व्यथितः शरपातप्रपीडितः।
निषसाद रथोपस्थे द्रोणो भरतसत्तम ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततो मुहूर्तं व्यथितः शरपातप्रपीडितः।
निषसाद रथोपस्थे द्रोणो भरतसत्तम ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उन बाणोंके आघातसे अत्यन्त पीड़ित एवं व्यथित होकर द्रोणाचार्य दो घड़ीतक रथके पिछले भागमें बैठे रहे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां मुहूर्ताद् द्विजसत्तमः।
क्रोधेन महताऽऽविष्टो वायव्यास्त्रमवासृजत् ॥ ४३ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां मुहूर्ताद् द्विजसत्तमः।
क्रोधेन महताऽऽविष्टो वायव्यास्त्रमवासृजत् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सचेत होनेपर द्विजश्रेष्ठ द्रोणने महान् क्रोधमें भरकर वायव्यास्त्रका प्रयोग किया॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भ्रान्तस्ततः पार्थो धनुराकृष्य वीर्यवान्।
ततस्तदस्त्रमस्त्रेण स्तम्भयामास भारत ॥ ४४ ॥

मूलम्

असम्भ्रान्तस्ततः पार्थो धनुराकृष्य वीर्यवान्।
ततस्तदस्त्रमस्त्रेण स्तम्भयामास भारत ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! तदनन्तर पराक्रमी युधिष्ठिरने सम्भ्रमरहित हो धनुष खींचकर उनके उस अस्त्रको अपने दिव्यास्त्र-द्वारा कुण्ठित कर दिया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिच्छेद च धनुर्दीर्घं ब्राह्मणस्य च पाण्डवः।
ततोऽन्यद् धनुरादत्त द्रोणः क्षत्रियमर्दनः ॥ ४५ ॥
तदप्यस्य शितैर्भल्लैश्चिच्छेद कुरुपुङ्गवः ।

मूलम्

चिच्छेद च धनुर्दीर्घं ब्राह्मणस्य च पाण्डवः।
ततोऽन्यद् धनुरादत्त द्रोणः क्षत्रियमर्दनः ॥ ४५ ॥
तदप्यस्य शितैर्भल्लैश्चिच्छेद कुरुपुङ्गवः ।

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उन पाण्डुकुमारने विप्रवर द्रोणाचार्यके विशाल धनुषको भी काट दिया। फिर क्षत्रियोंका मान-मर्दन करनेवाले द्रोणाचार्यने दूसरा धनुष हाथमें लिया। परंतु कुरुप्रवर युधिष्ठिरने अपने तीखे भल्लोंसे उसको भी काट दिया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीद् वासुदेवः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ४६ ॥
युधिष्ठिर महाबाहो यत्त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु।
उपारमस्व युद्धे त्वं द्रोणाद् भरतसत्तम ॥ ४७ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीद् वासुदेवः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥ ४६ ॥
युधिष्ठिर महाबाहो यत्त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु।
उपारमस्व युद्धे त्वं द्रोणाद् भरतसत्तम ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरसे कहा—‘महाबाहु युधिष्ठिर! मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, उसे सुनो। भरतश्रेष्ठ! तुम युद्धमें द्रोणाचार्यसे अलग रहो॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतते हि सदा द्रोणो ग्रहणे तव संयुगे।
नानुरूपमहं मन्ये युद्धमस्य त्वया सह ॥ ४८ ॥

मूलम्

यतते हि सदा द्रोणो ग्रहणे तव संयुगे।
नानुरूपमहं मन्ये युद्धमस्य त्वया सह ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि द्रोणाचार्य युद्धस्थलमें सदा तुम्हें कैद करनेके प्रयत्नमें रहते हैं; अतः तुम्हारे साथ इनका युद्ध होना मैं उचित नहीं मानता॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽस्य सृष्टो विनाशाय स एवैनं हनिष्यति।
परिवर्ज्य गुरुं याहि यत्र राजा सुयोधनः ॥ ४९ ॥

मूलम्

योऽस्य सृष्टो विनाशाय स एवैनं हनिष्यति।
परिवर्ज्य गुरुं याहि यत्र राजा सुयोधनः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो इनके विनाशके लिये उत्पन्न हुआ है, वही इन्हें मारेगा। तुम अपने गुरुदेवको छोड़कर जहाँ राजा दुर्योधन हैं, वहाँ जाओ॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा राज्ञा हि योद्धव्यो नाराज्ञा युद्धमिष्यते।
तत्र त्वं गच्छ कौन्तेय हस्त्यश्वरथसंवृतः ॥ ५० ॥

मूलम्

राजा राज्ञा हि योद्धव्यो नाराज्ञा युद्धमिष्यते।
तत्र त्वं गच्छ कौन्तेय हस्त्यश्वरथसंवृतः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि राजाको राजाके ही साथ युद्ध करना चाहिये। जो राजा नहीं है, उसके साथ उसका युद्ध अभीष्ट नहीं है। अतः कुन्तीनन्दन! तुम हाथी, घोड़े और रथोंकी सेनासे घिरे रहकर वहीं जाओ॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्मात्रेण च मया सहायेन धनंजयः।
भीमश्च रथशार्दूलो युध्यते कौरवैः सह ॥ ५१ ॥

मूलम्

यावन्मात्रेण च मया सहायेन धनंजयः।
भीमश्च रथशार्दूलो युध्यते कौरवैः सह ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तबतक मेरे साथ रहकर अर्जुन तथा रथियोंमें सिंहके समान पराक्रमी भीमसेन कौरवोंके साथ युद्ध करते हैं’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेववचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु ततो दारुणमाहवम् ॥ ५२ ॥
प्रायाद् द्रुतममित्रघ्नो यत्र भीमो व्यवस्थितः।
विनिघ्नंस्तावकान् योधान् व्यादितास्य इवान्तकः ॥ ५३ ॥

मूलम्

वासुदेववचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु ततो दारुणमाहवम् ॥ ५२ ॥
प्रायाद् द्रुतममित्रघ्नो यत्र भीमो व्यवस्थितः।
विनिघ्नंस्तावकान् योधान् व्यादितास्य इवान्तकः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने दो घड़ीतक उस दारुण युद्धके विषयमें सोचा। फिर वे तुरंत वहाँ चले गये, जहाँ शत्रुओंका संहार करनेवाले भीमसेन आपके योद्धाओंका वध करते हुए मुँह फैलाये यमराजके समान खड़े थे॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथघोषेण महता नादयन् वसुधातलम्।
पर्जन्य इव घर्मान्ते नादयन् वै दिशो दश ॥ ५४ ॥
भीमस्य निघ्नतः शत्रून् पार्ष्णिं जग्राह पाण्डवः।
द्रोणोऽपि पाण्डुपञ्चालान् व्यधमद् रजनीमुखे ॥ ५५ ॥

मूलम्

रथघोषेण महता नादयन् वसुधातलम्।
पर्जन्य इव घर्मान्ते नादयन् वै दिशो दश ॥ ५४ ॥
भीमस्य निघ्नतः शत्रून् पार्ष्णिं जग्राह पाण्डवः।
द्रोणोऽपि पाण्डुपञ्चालान् व्यधमद् रजनीमुखे ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर अपने रथकी भारी घर्घराहटसे भूतलको उसी प्रकार प्रतिध्वनित कर रहे थे, जैसे वर्षाकालमें गर्जना करता हुआ मेघ दसों दिशाओंको गुँजा देता है। उन्होंने शत्रुओंका संहार करनेवाले भीमसेनके पार्श्वभागकी रक्षाका भार ले लिया। उधर द्रोणाचार्य भी रात्रिके समय पाण्डव तथा पांचाल सैनिकोंका संहार करने लगे॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धविषयक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६२॥