१५८ रात्रियुद्धे

भागसूचना

अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधन और कर्णकी बातचीत, कृपाचार्यद्वारा कर्णको फटकारना तथा कर्णद्वारा कृपाचार्यका अपमान

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदीर्यमाणं तद् दृष्ट्वा पाण्डवानां महद् बलम्।
अविषह्यं च मन्वानः कर्णं दुर्योधनोऽब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

उदीर्यमाणं तद् दृष्ट्वा पाण्डवानां महद् बलम्।
अविषह्यं च मन्वानः कर्णं दुर्योधनोऽब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! पाण्डवोंकी उस विशाल सेनाका जोर बढ़ते देख उसे असह्य मानकर दुर्योधनने कर्णसे कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स कालः सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल।
त्रायस्व समरे कर्ण सर्वान् योधान् महारथान् ॥ २ ॥
पञ्चालैर्मत्स्यकैकेयैः पाण्डवैश्च महारथैः ।
वृतान् समन्तात् संक्रुद्धैर्निःश्वसद्भिरिवोरगैः ॥ ३ ॥

मूलम्

अयं स कालः सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल।
त्रायस्व समरे कर्ण सर्वान् योधान् महारथान् ॥ २ ॥
पञ्चालैर्मत्स्यकैकेयैः पाण्डवैश्च महारथैः ।
वृतान् समन्तात् संक्रुद्धैर्निःश्वसद्भिरिवोरगैः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रवत्सल कर्ण! यही मित्रोंके कर्तव्यपालनका उपयुक्त अवसर आया है। क्रोधमें भरे हुए पांचाल, मत्स्य, केकय तथा पाण्डव महारथी फुफकारते हुए सर्पोंके समान भयंकर हो उठे हैं। उनके द्वारा चारों ओरसे घिरे हुए मेरे समस्त महारथी योद्धाओंकी आज तुम समरांगणमें रक्षा करो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते नदन्ति संहृष्टाः पाण्डवा जितकाशिनः।
शक्रोपमाश्च बहवः पञ्चालानां रथव्रजाः ॥ ४ ॥

मूलम्

एते नदन्ति संहृष्टाः पाण्डवा जितकाशिनः।
शक्रोपमाश्च बहवः पञ्चालानां रथव्रजाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, ये विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डव तथा इन्द्रके समान पराक्रमी बहुसंख्यक पांचाल महारथी कैसे हर्षोत्फुल्ल होकर सिंहनाद कर रहे हैं’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परित्रातुमिह प्राप्तो यदि पार्थं पुरंदरः।
तमप्याशु पराजित्य ततो हन्तास्मि पाण्डवम् ॥ ५ ॥

मूलम्

परित्रातुमिह प्राप्तो यदि पार्थं पुरंदरः।
तमप्याशु पराजित्य ततो हन्तास्मि पाण्डवम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— राजन्! यदि साक्षात् इन्द्र यहाँ कुन्तीकुमार अर्जुनकी रक्षा करनेके लिये आ गये हों तो उन्हें भी शीघ्र ही पराजित करके मैं पाण्डुपुत्र अर्जुनको अवश्य मार डालूँगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं ते प्रतिजानामि समाश्वसिहि भारत।
हन्तास्मि पाण्डुतनयान् पञ्चालांश्च समागतान् ॥ ६ ॥

मूलम्

सत्यं ते प्रतिजानामि समाश्वसिहि भारत।
हन्तास्मि पाण्डुतनयान् पञ्चालांश्च समागतान् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! तुम धैर्य धारण करो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि युद्धस्थलमें आये हुए पाण्डवों तथा पांचालोंको निश्चय ही मारूँगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयं ते प्रतिदास्यामि वासवस्येव पावकिः।
प्रियं तव मया कार्यमिति जीवामि पार्थिव ॥ ७ ॥

मूलम्

जयं ते प्रतिदास्यामि वासवस्येव पावकिः।
प्रियं तव मया कार्यमिति जीवामि पार्थिव ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अग्निकुमार कार्तिकेयने तारकासुरका विनाश करके इन्द्रको विजय दिलायी थी, उसी प्रकार मैं आज तुम्हें विजय प्रदान करूँगा। भूपाल! मुझे तुम्हारा प्रिय करना है, इसीलिये जीवन धारण करता हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषामेव पार्थानां फाल्गुनो बलवत्तरः।
तस्यामोघां विमोक्ष्यामि शक्तिं शक्रविनिर्मिताम् ॥ ८ ॥

मूलम्

सर्वेषामेव पार्थानां फाल्गुनो बलवत्तरः।
तस्यामोघां विमोक्ष्यामि शक्तिं शक्रविनिर्मिताम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीके सभी पुत्रोंमें अर्जुन ही अधिक शक्तिशाली हैं, अतः मैं इन्द्रकी दी हुई अमोघ शक्तिको अर्जुनपर ही छोड़ूँगा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् हते महेष्वासे भ्रातरस्तस्य मानद।
तव वश्या भविष्यन्ति वनं यास्यन्ति वा पुनः ॥ ९ ॥

मूलम्

तस्मिन् हते महेष्वासे भ्रातरस्तस्य मानद।
तव वश्या भविष्यन्ति वनं यास्यन्ति वा पुनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानद! महाधनुर्धर अर्जुनके मारे जानेपर उनके सभी भाई तुम्हारे वशमें हो जायँगे अथवा पुनः वनमें चले जायँगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि जीवति कौरव्य विषादं मा कृथाः क्वचित्।
अहं जेष्यामि समरे सहितान् सर्वपाण्डवान् ॥ १० ॥

मूलम्

मयि जीवति कौरव्य विषादं मा कृथाः क्वचित्।
अहं जेष्यामि समरे सहितान् सर्वपाण्डवान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! तुम मेरे जीते-जी कभी विषाद न करो। मैं समरभूमिमें संगठित होकर आये हुए समस्त पाण्डवोंको जीत लूँगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंचालान्‌ केकयांश्चैव वृष्णींश्चापि समागतान्।
बाणौघैः शकलीकृत्य तव दास्यामि मेदिनीम् ॥ ११ ॥

मूलम्

पंचालान्‌ केकयांश्चैव वृष्णींश्चापि समागतान्।
बाणौघैः शकलीकृत्य तव दास्यामि मेदिनीम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने बाणसमूहोंद्वारा रणभूमिमें पधारे हुए पांचालों, केकयों और वृष्णिवंशियोंके भी टुकड़े-टुकड़े करके यह सारी पृथ्वी तुम्हें दे दूँगा॥११॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणं कर्णं तु कृपः शारद्वतोऽब्रवीत्।
स्मयन्निव महाबाहुः सूतपुत्रमिदं वचः ॥ १२ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणं कर्णं तु कृपः शारद्वतोऽब्रवीत्।
स्मयन्निव महाबाहुः सूतपुत्रमिदं वचः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! इस तरहकी बातें करते हुए सूतपुत्र कर्णसे शरद्वान्‌के पुत्र महाबाहु कृपाचार्यने मुसकराते हुए-से यह बात कही—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोभनं शोभनं कर्ण सनाथः कुरुपुङ्गवः।
त्वया नाथेन राधेय वचसा यदि सिध्यति ॥ १३ ॥

मूलम्

शोभनं शोभनं कर्ण सनाथः कुरुपुङ्गवः।
त्वया नाथेन राधेय वचसा यदि सिध्यति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा! राधापुत्र! यदि बात बनानेसे ही कार्य सिद्ध हो जाय, तब तो तुम-जैसे सहायकको पाकर कुरुराज दुर्योधन सनाथ हो गये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुशः कत्थसे कर्ण कौरवस्य समीपतः।
न तु ते विक्रमः कश्चिद् दृश्यते फलमेव वा॥१४॥

मूलम्

बहुशः कत्थसे कर्ण कौरवस्य समीपतः।
न तु ते विक्रमः कश्चिद् दृश्यते फलमेव वा॥१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! तुम कुरुनन्दन सुयोधनके समीप तो बहुत बढ़कर बातें किया करते हो; किंतु न तो कभी कोई तुम्हारा पराक्रम देखा जाता है और न उसका कोई फल ही सामने आता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समागमः पाण्डुसुतैर्दृष्टस्ते बहुशो युधि।
सर्वत्र निर्जितश्चासि पाण्डवैः सूतनन्दन ॥ १५ ॥

मूलम्

समागमः पाण्डुसुतैर्दृष्टस्ते बहुशो युधि।
सर्वत्र निर्जितश्चासि पाण्डवैः सूतनन्दन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूतनन्दन! पाण्डुके पुत्रोंसे युद्धस्थलमें तुम्हारी अनेकों बार मुठभेड़ हुई है; पंरतु सर्वत्र पाण्डवोंसे तुम्हीं परास्त हुए हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रियमाणे तदा कर्ण गन्धर्वैर्धृतराष्ट्रजे।
तदायुध्यन्त सैन्यानि त्वमेकोऽग्रेऽपलायिथाः ॥ १६ ॥

मूलम्

ह्रियमाणे तदा कर्ण गन्धर्वैर्धृतराष्ट्रजे।
तदायुध्यन्त सैन्यानि त्वमेकोऽग्रेऽपलायिथाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! याद है कि नहीं, जब गन्धर्व दुर्योधनको पकड़कर लिये जा रहे थे, उस समय सारी सेना तो युद्ध कर रही थी और अकेले तुम ही सबसे पहले पलायन कर गये थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विराटनगरे चापि समेताः सर्वकौरवाः।
पार्थेन निर्जिता युद्धे त्वं च कर्ण सहानुजः ॥ १७ ॥

मूलम्

विराटनगरे चापि समेताः सर्वकौरवाः।
पार्थेन निर्जिता युद्धे त्वं च कर्ण सहानुजः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! विराट नगरमें भी सम्पूर्ण कौरव एकत्र हुए थे; किंतु अर्जुनने अकेले ही वहाँ सबको हरा दिया था। कर्ण! तुम भी अपने भाइयोंके साथ परास्त हुए थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्याप्यसमर्थस्त्वं फाल्गुनस्य रणाजिरे ।
कथमुत्सहसे जेतुं सकृष्णान् सर्वपाण्डवान् ॥ १८ ॥

मूलम्

एकस्याप्यसमर्थस्त्वं फाल्गुनस्य रणाजिरे ।
कथमुत्सहसे जेतुं सकृष्णान् सर्वपाण्डवान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समरांगणमें अकेले अर्जुनका सामना करनेकी भी तुममें शक्ति नहीं है; फिर श्रीकृष्णसहित सम्पूर्ण पाण्डवोंको जीत लेनेका उत्साह कैसे दिखाते हो?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रुवन् कर्ण युध्यस्व कत्थसे बहु सूनज।
अनुक्त्वा विक्रमेद् यस्तु तद् वै सत्पुरुषव्रतम् ॥ १९ ॥

मूलम्

अब्रुवन् कर्ण युध्यस्व कत्थसे बहु सूनज।
अनुक्त्वा विक्रमेद् यस्तु तद् वै सत्पुरुषव्रतम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूतपुत्र कर्ण! चुपचाप युद्ध करो। तुम बातें बहुत बनाते हो। जो बिना कुछ कहे ही पराक्रम दिखाये, वही वीर है और वैसा करना ही सत्पुरुषोंका व्रत है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्जित्वा सूतपुत्र त्वं शारदाभ्रमिवाफलम्।
निष्फलो दृश्यसे कर्ण तच्च राजा न बुध्यते ॥ २० ॥

मूलम्

गर्जित्वा सूतपुत्र त्वं शारदाभ्रमिवाफलम्।
निष्फलो दृश्यसे कर्ण तच्च राजा न बुध्यते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूतपुत्र कर्ण! तुम शरद्-ऋतुके निष्फल बादलोंके समान गर्जना करके भी निष्फल ही दिखायी देते हो; किंतु राजा दुर्योधन इस बातको नहीं समझ रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावद् गर्जस्व राधेय यावत् पार्थं न पश्यसि।
आरात् पार्थं हि ते दृष्ट्वा दुर्लभं गर्जितं पुनः॥२१॥

मूलम्

तावद् गर्जस्व राधेय यावत् पार्थं न पश्यसि।
आरात् पार्थं हि ते दृष्ट्वा दुर्लभं गर्जितं पुनः॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राधानन्दन! जबतक तुम अर्जुनको नहीं देखते हो, तभीतक गर्जना कर लो। कुन्तीकुमार अर्जुनको समीप देख लेनेपर फिर यह गर्जना तुम्हारे लिये दुर्लभ हो जायगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमनासाद्य तान् बाणान् फाल्गुनस्य विगर्जसि।
पार्थसायकविद्धस्य दुर्लभं गर्जितं तव ॥ २२ ॥

मूलम्

त्वमनासाद्य तान् बाणान् फाल्गुनस्य विगर्जसि।
पार्थसायकविद्धस्य दुर्लभं गर्जितं तव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जबतक अर्जुनके वे बाण तुम्हारे पड़ रहे हैं, तभीतक तुम जोर-जोरसे गरज रहे हो। अर्जुनके बाणोंसे घायल होनेपर तुम्हारे लिये यह गर्जन-तर्जन दुर्लभ हो जायगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुभिः क्षत्रियाः शूरा वाग्भिः शूरा द्विजातयः।
धनुषा फाल्गुनः शूरः कर्णः शूरो मनोरथैः ॥ २३ ॥
तोषितो येन रुद्रोऽपि कः पार्थं प्रतिघातयेत्।

मूलम्

बाहुभिः क्षत्रियाः शूरा वाग्भिः शूरा द्विजातयः।
धनुषा फाल्गुनः शूरः कर्णः शूरो मनोरथैः ॥ २३ ॥
तोषितो येन रुद्रोऽपि कः पार्थं प्रतिघातयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्षत्रिय अपनी भुजाओंसे शौर्यका परिचय देते हैं। ब्राह्मण वाणीद्वारा प्रवचन करनेमें वीर होते हैं। अर्जुन धनुष चलानेमें शूर हैं; किंतु कर्ण केवल मनसूबे बाँधनेमें वीर है। जिन्होंने अपने पराक्रमसे भगवान् शंकरको भी संतुष्ट किया है, उन अर्जुनको कौन मार सकता है?’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संरुषितस्तेन तदा शारद्वतेन ह ॥ २४ ॥
कर्णः प्रहरतां श्रेष्ठः कृपं वाक्यमथाब्रवीत्।

मूलम्

एवं संरुषितस्तेन तदा शारद्वतेन ह ॥ २४ ॥
कर्णः प्रहरतां श्रेष्ठः कृपं वाक्यमथाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

उन कृपाचार्यके ऐसा कहनेपर योद्धाओंमें श्रेष्ठ कर्णने उस समय रुष्ट होकर कृपाचार्यसे इस प्रकार कहा—॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूरा गर्जन्ति सततं प्रावृषीव बलाहकाः ॥ २५ ॥
फलं चाशु प्रयच्छन्ति बीजमुप्तमृताविव।

मूलम्

शूरा गर्जन्ति सततं प्रावृषीव बलाहकाः ॥ २५ ॥
फलं चाशु प्रयच्छन्ति बीजमुप्तमृताविव।

अनुवाद (हिन्दी)

‘शूरवीर वर्षाकालके मेघोंकी तरह सदा गरजते हैं और ठीक ऋतुमें बोये हुए बीजके समान शीघ्र ही फल भी देते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषमत्र न पश्यामि शूराणां रणमूर्धनि ॥ २६ ॥
तत्तद् विकत्थमानानां भारं चोद्वहतां मृधे।

मूलम्

दोषमत्र न पश्यामि शूराणां रणमूर्धनि ॥ २६ ॥
तत्तद् विकत्थमानानां भारं चोद्वहतां मृधे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धस्थलमें महान् भार उठानेवाले शूरवीर यदि युद्धके मुहानेपर अपनी प्रशंसाकी ही बातें कहते हैं तो इसमें मुझे उनका कोई दोष नहीं दिखायी देता॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं भारं पुरुषो वोढुं मनसा हि व्यवस्यति ॥ २७ ॥
दैवमस्य ध्रुवं तत्र साहाय्यायोपपद्यते।

मूलम्

यं भारं पुरुषो वोढुं मनसा हि व्यवस्यति ॥ २७ ॥
दैवमस्य ध्रुवं तत्र साहाय्यायोपपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुष अपने मनसे जिस भारको ढोनेका निश्चय करता है, उसमें दैव अवश्य ही उसकी सहायता करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यवसायद्वितीयोऽहं मनसा भारमुद्वहन् ॥ २८ ॥
हत्वा पाण्डुसुतानाजौ सकृष्णान् सहसात्वतान्।
गर्जामि यद्यहं विप्र तव किं तत्र नश्यति ॥ २९ ॥

मूलम्

व्यवसायद्वितीयोऽहं मनसा भारमुद्वहन् ॥ २८ ॥
हत्वा पाण्डुसुतानाजौ सकृष्णान् सहसात्वतान्।
गर्जामि यद्यहं विप्र तव किं तत्र नश्यति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं मनसे जिस कार्यभारका वहन कर रहा हूँ, उसकी सिद्धिमें दृढ़ निश्चय ही मेरा सहायक है। विप्रवर! मैं कृष्ण और सात्यकिसहित समस्त पाण्डवोंको युद्धमें मारनेका निश्चय करके यदि गरज रहा हूँ तो उसमें आपका क्या नष्ट हुआ जा रहा है?॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृथा शूरा न गर्जन्ति शारदा इव तोयदाः।
सामर्थ्यमात्मनो ज्ञात्वा ततो गर्जन्ति पण्डिताः ॥ ३० ॥

मूलम्

वृथा शूरा न गर्जन्ति शारदा इव तोयदाः।
सामर्थ्यमात्मनो ज्ञात्वा ततो गर्जन्ति पण्डिताः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शरद्-ऋतुके बादलोंके समान शूरवीर व्यर्थ नहीं गरजते हैं। विद्वान् पुरुष पहले अपनी सामर्थ्यको समझ लेते हैं, उसके बाद गर्जना करते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमद्य रणे यत्तौ सहितौ कृष्णपाण्डवौ।
उत्सहे मनसा जेतुं ततो गर्जामि गौतम ॥ ३१ ॥

मूलम्

सोऽहमद्य रणे यत्तौ सहितौ कृष्णपाण्डवौ।
उत्सहे मनसा जेतुं ततो गर्जामि गौतम ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौतम! आज मैं रणभूमिमें विजयके लिये साथ-साथ प्रयत्न करनेवाले श्रीकृष्ण और अर्जुनको जीत लेनेके लिये मन-ही-मन उत्साह रखता हूँ। इसीलिये गर्जना करता हूँ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य त्वं गर्जितस्यास्य फलं मे विप्र सानुगान्।
हत्वा पाण्डुसुतानाजौ सहकृष्णान् ससात्वतान् ॥ ३२ ॥
दुर्योधनाय दास्यामि पृथिवीं हतकण्टकाम्।

मूलम्

पश्य त्वं गर्जितस्यास्य फलं मे विप्र सानुगान्।
हत्वा पाण्डुसुतानाजौ सहकृष्णान् ससात्वतान् ॥ ३२ ॥
दुर्योधनाय दास्यामि पृथिवीं हतकण्टकाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! मेरी इस गर्जनाका फल देख लेना। मैं युद्धमें श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अनुगामियोंसहित पाण्डवोंको मारकर इस भूमण्डलका निष्कण्टक राज्य दुर्योधनको दे दूँगा’॥

मूलम् (वचनम्)

कृप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोरथप्रलापा मे न ग्राह्यास्तव सूतज ॥ ३३ ॥
सदा क्षिपसि वै कृष्णौ धर्मराजं च पाण्डवम्।
ध्रुवस्तत्र जयः कर्ण यत्र युद्धविशारदौ ॥ ३४ ॥

मूलम्

मनोरथप्रलापा मे न ग्राह्यास्तव सूतज ॥ ३३ ॥
सदा क्षिपसि वै कृष्णौ धर्मराजं च पाण्डवम्।
ध्रुवस्तत्र जयः कर्ण यत्र युद्धविशारदौ ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाचार्य बोले— सूतपुत्र! तुम्हारे ये मनसूबे बाँधनेके निरर्थक प्रलाप मेरे लिये विश्वासके योग्य नहीं हैं। कर्ण! तुम सदा ही श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरपर आक्षेप किया करते हो; परंतु विजय उसी पक्षकी होगी, जहाँ युद्धविशारद श्रीकृष्ण और अर्जुन विद्यमान हैं॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्वयक्षाणां मनुष्योरगरक्षसाम् ।
दंशितानामपि रणे अजेयौ कृष्णपाण्डवौ ॥ ३५ ॥

मूलम्

देवगन्धर्वयक्षाणां मनुष्योरगरक्षसाम् ।
दंशितानामपि रणे अजेयौ कृष्णपाण्डवौ ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, सर्प और राक्षस भी कवच बाँधकर युद्धके लिये आ जायँ तो रणभूमिमें श्रीकृष्ण और अर्जुनको वे भी जीत नहीं सकते॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्यः सत्यवाग् दान्तो गुरुदैवतपूजकः।
नित्यं धर्मरतश्चैव कृतास्त्रश्च विशेषतः ॥ ३६ ॥
धृतिमांश्च कृतज्ञश्च धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।

मूलम्

ब्रह्मण्यः सत्यवाग् दान्तो गुरुदैवतपूजकः।
नित्यं धर्मरतश्चैव कृतास्त्रश्च विशेषतः ॥ ३६ ॥
धृतिमांश्च कृतज्ञश्च धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मपुत्र युधिष्ठिर ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, गुरु और देवताओंका सम्मान करनेवाले, सदा धर्मपरायण, अस्त्रविद्यामें विशेष कुशल, धैर्यवान् और कृतज्ञ हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातरश्चास्य बलिनः सर्वास्त्रेषु कृतश्रमाः ॥ ३७ ॥
गुरुवृत्तिरताः प्राज्ञा धर्मनित्या यशस्विनः।

मूलम्

भ्रातरश्चास्य बलिनः सर्वास्त्रेषु कृतश्रमाः ॥ ३७ ॥
गुरुवृत्तिरताः प्राज्ञा धर्मनित्या यशस्विनः।

अनुवाद (हिन्दी)

इनके बलवान् भाई भी सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी कलामें परिश्रम किये हुए हैं। वे गुरुसेवापरायण, विद्वान्, धर्मतत्पर और यशस्वी हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्बन्धिनश्चेन्द्रवीर्याः स्वनुरक्ताः प्रहारिणः ॥ ३८ ॥
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च दौर्मुखिर्जनमेजयः।
चन्द्रसेनो रुद्रसेनः कीर्तिधर्मा ध्रुवो धरः ॥ ३९ ॥
वसुचन्द्रो दामचन्द्रः सिंहचन्द्रः सुतेजनः।
द्रुपदस्य तथा पुत्रा द्रुपदश्च महास्त्रवित् ॥ ४० ॥

मूलम्

सम्बन्धिनश्चेन्द्रवीर्याः स्वनुरक्ताः प्रहारिणः ॥ ३८ ॥
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च दौर्मुखिर्जनमेजयः।
चन्द्रसेनो रुद्रसेनः कीर्तिधर्मा ध्रुवो धरः ॥ ३९ ॥
वसुचन्द्रो दामचन्द्रः सिंहचन्द्रः सुतेजनः।
द्रुपदस्य तथा पुत्रा द्रुपदश्च महास्त्रवित् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सम्बन्धी भी इन्द्रके समान पराक्रमी, उनमें अनुराग रखनेवाले और प्रहार करनेमें कुशल हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं—धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, दुर्मुखपुत्र जनमेजय, चन्द्रसेन, रुद्रसेन, कीर्तिधर्मा, ध्रुव, धर, वसुचन्द्र, दामचन्द्र, सिंहचन्द्र, सुतेजन, द्रुपदके पुत्रगण तथा महान् अस्त्रवेत्ता द्रुपद॥३८—४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषामर्थाय संयत्तो मत्स्यराजः सहानुजः।
शतानीकः सूर्यदत्तः श्रुतानीकः श्रुतध्वजः ॥ ४१ ॥
बलानीको जयानीको जयाश्वो रथवाहनः।
चन्द्रोदयः समरथो विराटभ्रातरः शुभाः ॥ ४२ ॥
यमौ च द्रौपदेयाश्च राक्षसश्च घटोत्कचः।
येषामर्थाय युध्यन्ते न तेषां विद्यते क्षयः ॥ ४३ ॥

मूलम्

येषामर्थाय संयत्तो मत्स्यराजः सहानुजः।
शतानीकः सूर्यदत्तः श्रुतानीकः श्रुतध्वजः ॥ ४१ ॥
बलानीको जयानीको जयाश्वो रथवाहनः।
चन्द्रोदयः समरथो विराटभ्रातरः शुभाः ॥ ४२ ॥
यमौ च द्रौपदेयाश्च राक्षसश्च घटोत्कचः।
येषामर्थाय युध्यन्ते न तेषां विद्यते क्षयः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके लिये शतानीक, सूर्यदत्त, श्रुतानीक, श्रुतध्वज, बलानीक, जयानीक, जयाश्व, रथवाहन, चन्द्रोदय तथा समरथ—ये विराटके श्रेष्ठ भाई और इन भाइयोंसहित मत्स्यराज विराट युद्ध करनेको तैयार हैं, नकुल, सहदेव, द्रौपदीके पुत्र तथा राक्षस घटोत्कच—ये वीर जिनके लिये युद्ध कर रहे हैं, उन पाण्डवोंकी कभी कोई क्षति नहीं हो सकती है॥४१—४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते चान्ये च बहवो गुणाः पाण्डुसुतस्य वै।
कामं खलु जगत्सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ ४४ ॥
सयक्षराक्षसगणं सभूतभुजगद्विपम् ।
निःशेषमस्त्रवीर्येण कुर्वाते भीमफाल्गुनौ ॥ ४५ ॥

मूलम्

एते चान्ये च बहवो गुणाः पाण्डुसुतस्य वै।
कामं खलु जगत्सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ ४४ ॥
सयक्षराक्षसगणं सभूतभुजगद्विपम् ।
निःशेषमस्त्रवीर्येण कुर्वाते भीमफाल्गुनौ ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके ये तथा और भी बहुत-से गुण हैं। भीमसेन और अर्जुन यदि चाहें तो अपने अस्त्रबलसे देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, राक्षस, भूत, नाग और हाथियोंसहित इस सम्पूर्ण जगत्‌का सर्वथा विनाश कर सकते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरश्च पृथिवीं निर्दहेद् घोरचक्षुषा।
अप्रमेयबलः शौरिर्येषामर्थे च दंशितः ॥ ४६ ॥
कथं तान् संयुगे कर्ण जेतुमुत्सहसे परान्।

मूलम्

युधिष्ठिरश्च पृथिवीं निर्दहेद् घोरचक्षुषा।
अप्रमेयबलः शौरिर्येषामर्थे च दंशितः ॥ ४६ ॥
कथं तान् संयुगे कर्ण जेतुमुत्सहसे परान्।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर भी यदि रोषभरी दृष्टिसे देखें तो इस भूमण्डलको भस्म कर सकते हैं। कर्ण! जिनके लिये अनन्त बलशाली भगवान् श्रीकृष्ण भी कवच धारण करके लड़नेको तैयार हैं, उन शत्रुओंको युद्धमें जीतनेका साहस तुम कैसे कर रहे हो?॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानपनयस्त्वेष नित्यं हि तव सूतज ॥ ४७ ॥
यस्त्वमुत्सहसे योद्‌धुं समरे शौरिणा सह।

मूलम्

महानपनयस्त्वेष नित्यं हि तव सूतज ॥ ४७ ॥
यस्त्वमुत्सहसे योद्‌धुं समरे शौरिणा सह।

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र! तुम जो सदा समरभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेका उत्साह दिखाते हो, यह तुम्हारा महान् अन्याय (अक्षम्य अपराध) है॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु राधेयः प्रहसन् भरतर्षभ ॥ ४८ ॥
अब्रवीच्च तदा कर्णो गुरुं शारद्वतं कृपम्।

मूलम्

एवमुक्तस्तु राधेयः प्रहसन् भरतर्षभ ॥ ४८ ॥
अब्रवीच्च तदा कर्णो गुरुं शारद्वतं कृपम्।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— भरतश्रेष्ठ! उनके ऐसा कहनेपर राधापुत्र कर्ण ठठाकर हँस पड़ा और शरद्वान्‌के पुत्र गुरु कृपाचार्यसे उस समय यों बोला—॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यमुक्तं त्वया ब्रह्मन् पाण्डवान् प्रति यद् वचः ॥ ४९ ॥
एते चान्ये च बहवो गुणाः पाण्डुसुतेषु वै।

मूलम्

सत्यमुक्तं त्वया ब्रह्मन् पाण्डवान् प्रति यद् वचः ॥ ४९ ॥
एते चान्ये च बहवो गुणाः पाण्डुसुतेषु वै।

अनुवाद (हिन्दी)

‘बाबाजी! पाण्डवोंके विषयमें तुमने जो बात कही है वह सब सत्य है। यही नहीं, पाण्डवोंमें और भी बहुत-से गुण हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजय्याश्च रणे पार्था देवैरपि सवासवैः ॥ ५० ॥
सदैत्ययक्षगन्धर्वैः पिशाचोरगराक्षसैः ।

मूलम्

अजय्याश्च रणे पार्था देवैरपि सवासवैः ॥ ५० ॥
सदैत्ययक्षगन्धर्वैः पिशाचोरगराक्षसैः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह भी ठीक है कि कुन्तीके पुत्रोंको रणभूमिमें इन्द्र आदि देवता, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षस भी जीत नहीं सकते॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि पार्थाञ्जेष्यामि शक्त्या वासवदत्तया ॥ ५१ ॥
मम ह्यमोघा दत्तेयं शक्तिः शक्रेण वै द्विज।
एतया निहनिष्यामि सव्यसाचिनमाहवे ॥ ५२ ॥

मूलम्

तथापि पार्थाञ्जेष्यामि शक्त्या वासवदत्तया ॥ ५१ ॥
मम ह्यमोघा दत्तेयं शक्तिः शक्रेण वै द्विज।
एतया निहनिष्यामि सव्यसाचिनमाहवे ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तथापि मैं इन्द्रकी दी हुई शक्तिसे कुन्तीके पुत्रोंको जीत लूँगा। ब्रह्मन्! मुझे इन्द्रने यह अमोघ शक्ति दे रखी है; इसके द्वारा मैं सव्यसाची अर्जुनको युद्धमें अवश्य मार डालूँगा॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हते तु पाण्डवे कृष्णे भ्रातरश्चास्य सोदराः।
अनर्जुना न शक्ष्यन्ति महीं भोक्तुं कथञ्चन ॥ ५३ ॥

मूलम्

हते तु पाण्डवे कृष्णे भ्रातरश्चास्य सोदराः।
अनर्जुना न शक्ष्यन्ति महीं भोक्तुं कथञ्चन ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुपुत्र अर्जुनके मारे जानेपर उनके बिना उनके सहोदर भाई किसी तरह इस पृथ्वीका राज्य नहीं भोग सकेंगे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषु नष्टेषु सर्वेषु पृथिवीयं ससागरा।
अयत्नात् कौरवेन्द्रस्य वशे स्थास्यति गौतम ॥ ५४ ॥

मूलम्

तेषु नष्टेषु सर्वेषु पृथिवीयं ससागरा।
अयत्नात् कौरवेन्द्रस्य वशे स्थास्यति गौतम ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौतम! उन सबके नष्ट हो जानेपर बिना किसी प्रयत्नके ही यह समुद्रसहित सारी पृथ्वी कौरवराज दुर्योधनके वशमें हो जायगी॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनीतैरिह सर्वार्थाः सिध्यन्ते नात्र संशयः।
एतमर्थमहं ज्ञात्वा ततो गर्जामि गौतम ॥ ५५ ॥

मूलम्

सुनीतैरिह सर्वार्थाः सिध्यन्ते नात्र संशयः।
एतमर्थमहं ज्ञात्वा ततो गर्जामि गौतम ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौतम! इस संसारमें सुनीतिपूर्ण प्रयत्नोंसे सारे कार्य सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं है। इस बातको समझकर ही मैं गर्जना करता हूँ॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं तु विप्रश्च वृद्धश्च अशक्तश्चापि संयुगे।
कृतस्नेहश्च पार्थेषु मोहान्मामवमन्यसे ॥ ५६ ॥

मूलम्

त्वं तु विप्रश्च वृद्धश्च अशक्तश्चापि संयुगे।
कृतस्नेहश्च पार्थेषु मोहान्मामवमन्यसे ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम तो ब्राह्मण और उसमें भी बूढ़े हो। तुममें युद्ध करनेकी शक्ति है ही नहीं। इसके सिवा, तुम कुन्तीके पुत्रोंपर स्नेह रखते हो; इसलिये मोहवश मेरा अपमान कर रहे हो॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येवं वक्ष्यसे भूयो ममाप्रियमिह द्विज।
ततस्ते खड्‌गमुद्यम्य जिह्वां छेत्स्यामि दुर्मते ॥ ५७ ॥

मूलम्

यद्येवं वक्ष्यसे भूयो ममाप्रियमिह द्विज।
ततस्ते खड्‌गमुद्यम्य जिह्वां छेत्स्यामि दुर्मते ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्बुद्धि ब्राह्मण! यदि यहाँ पुनः इस प्रकार मुझे अप्रिय लगनेवाली बात बोलोगे तो मैं अपनी तलवार उठाकर तुम्हारी जीभ काट लूँगा॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चापि पाण्डवान् विप्र स्तोतुमिच्छसि संयुगे।
भीषयन् सर्वसैन्यानि कौरवेयाणि दुर्मते ॥ ५८ ॥
अत्रापि शृणु मे वाक्यं यथावद् ब्रुवतो द्विज।

मूलम्

यच्चापि पाण्डवान् विप्र स्तोतुमिच्छसि संयुगे।
भीषयन् सर्वसैन्यानि कौरवेयाणि दुर्मते ॥ ५८ ॥
अत्रापि शृणु मे वाक्यं यथावद् ब्रुवतो द्विज।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! दुर्मते! तुम तो युद्धस्थलमें समस्त कौरव-सेनाओंको भयभीत करनेके लिये पाण्डवोंके गुण गाना चाहते हो, उसके विषयमें भी मैं जो यथार्थ बात कह रहा हूँ, उसे सुन लो॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनश्च द्रोणश्च शकुनिर्दुर्मुखो जयः ॥ ५९ ॥
दुःशासनो वृषसेनो मद्रराजस्त्वमेव च।
सोमदत्तश्च भूरिश्च तथा द्रौणिर्विविंशतिः ॥ ६० ॥
तिष्ठेयुर्दंशिता यत्र सर्वे युद्धविशारदाः।
जयेदेतान् नरः को नु शक्रतुल्यबलोऽप्यरिः ॥ ६१ ॥

मूलम्

दुर्योधनश्च द्रोणश्च शकुनिर्दुर्मुखो जयः ॥ ५९ ॥
दुःशासनो वृषसेनो मद्रराजस्त्वमेव च।
सोमदत्तश्च भूरिश्च तथा द्रौणिर्विविंशतिः ॥ ६० ॥
तिष्ठेयुर्दंशिता यत्र सर्वे युद्धविशारदाः।
जयेदेतान् नरः को नु शक्रतुल्यबलोऽप्यरिः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन, द्रोण, शकुनि, दुर्मुख, जय, दुःशासन, वृषसेन, मद्रराज शल्य, तुम स्वयं, सोमदत, भूरि, अश्वत्थामा और विविंशति—ये युद्धकुशल सम्पूर्ण वीर जहाँ कवच बाँधकर खड़े हो जायँगे, वहाँ इन्हें कौन मनुष्य जीत सकता है? वह इन्द्रके तुल्य बलवान् शत्रु ही क्यों न हो (इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूराश्च हि कृतास्त्राश्च बलिनः स्वर्गलिप्सवः।
धर्मज्ञा युद्धकुशला हन्युर्युद्धे सुरानपि ॥ ६२ ॥

मूलम्

शूराश्च हि कृतास्त्राश्च बलिनः स्वर्गलिप्सवः।
धर्मज्ञा युद्धकुशला हन्युर्युद्धे सुरानपि ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो शूरवीर, अस्त्रोंके ज्ञाता, बलवान्, स्वर्गप्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाले, धर्मज्ञ और युद्धकुशल हैं वे देवताओंको भी युद्धमें मार सकते हैं॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते स्थास्यन्ति संग्रामे पाण्डवानां वधार्थिनः।
जयमाकाङ्क्षमाणा हि कौरवेयस्य दंशिताः ॥ ६३ ॥

मूलम्

एते स्थास्यन्ति संग्रामे पाण्डवानां वधार्थिनः।
जयमाकाङ्क्षमाणा हि कौरवेयस्य दंशिताः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये वीरगण कुरुराज दुर्योधनकी जय चाहते हुए पाण्डवोंके वधकी इच्छासे संग्राममें कवच बाँधकर डट जायँगे॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवायत्तमहं मन्ये जयं सुबलिनामपि।
यत्र भीष्मो महाबाहुः शेते शरशताचितः ॥ ६४ ॥

मूलम्

दैवायत्तमहं मन्ये जयं सुबलिनामपि।
यत्र भीष्मो महाबाहुः शेते शरशताचितः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तो बड़े-से-बड़े बलवानोंकी भी विजय दैवके ही अधीन मानता हूँ। दैवाधीन होनेके कारण महाबाहु भीष्म आज सैकड़ों बाणोंसे विद्ध होकर रणभूमिमें शयन करते हैं॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकर्णश्चित्रसेनश्च बाह्लीकोऽथ जयद्रथः ।
भूरिश्रवा जयश्चैव जलसंधः सुदक्षिणः ॥ ६५ ॥
शलश्च रथिनां श्रेष्ठो भगदत्तश्च वीर्यवान्।
एते चान्ये च राजानो देवैरपि सुदुर्जयाः ॥ ६६ ॥

मूलम्

विकर्णश्चित्रसेनश्च बाह्लीकोऽथ जयद्रथः ।
भूरिश्रवा जयश्चैव जलसंधः सुदक्षिणः ॥ ६५ ॥
शलश्च रथिनां श्रेष्ठो भगदत्तश्च वीर्यवान्।
एते चान्ये च राजानो देवैरपि सुदुर्जयाः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विकर्ण, चित्रसेन, बाह्लीक, जयद्रथ, भूरिश्रवा, जय, जलसंध, सुदक्षिण, रथियोंमें श्रेष्ठ शल तथा पराक्रमी भगदत्त—ये और दूसरे भी बहुत-से राजा देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्जय थे॥६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहताः समरे शूराः पाण्डवैर्बलवत्तराः।
किमन्यद् दैवसंयोगान्मन्यसे पुरुषाधम ॥ ६७ ॥

मूलम्

निहताः समरे शूराः पाण्डवैर्बलवत्तराः।
किमन्यद् दैवसंयोगान्मन्यसे पुरुषाधम ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु उन अत्यन्त प्रबल तथा शूरवीर नरेशोंको भी पाण्डवोंने युद्धमें मार डाला। पुरुषाधम! तुम इसमें दैवसंयोगके सिवा दूसरा कौन-सा कारण मानते हो?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यांश्च तान् स्तौषि सततं दुर्योधनरिपून् द्विज।
तेषामपि हताः शूराः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६८ ॥

मूलम्

यांश्च तान् स्तौषि सततं दुर्योधनरिपून् द्विज।
तेषामपि हताः शूराः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! तुम दुर्योधनके जिन शत्रुओंकी सदा स्तुति करते रहते हो, उनके भी तो सैकड़ों और सहस्रों शूरवीर मारे गये हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीयन्ते सर्वसैन्यानि कुरूणां पाण्डवैः सह।
प्रभावं नात्र पश्यामि पाण्डवानां कथंचन ॥ ६९ ॥

मूलम्

क्षीयन्ते सर्वसैन्यानि कुरूणां पाण्डवैः सह।
प्रभावं नात्र पश्यामि पाण्डवानां कथंचन ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरव तथा पाण्डव दोनों दलोंकी सारी सेनाएँ प्रतिदिन नष्ट हो रही हैं। मुझे इसमें किसी प्रकार भी पाण्डवोंका कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखायी देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तान् बलवतो नित्यं मन्यसे त्वं द्विजाधम।
यतिष्येऽहं यथाशक्ति योद्‌धुं तैः सह संयुगे।
दुर्योधनहितार्थाय ‘जयो दैवे प्रतिष्ठितः’ ॥ ७० ॥

मूलम्

यस्तान् बलवतो नित्यं मन्यसे त्वं द्विजाधम।
यतिष्येऽहं यथाशक्ति योद्‌धुं तैः सह संयुगे।
दुर्योधनहितार्थाय ‘जयो दैवे प्रतिष्ठितः’ ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजाधम! तुम जिन्हें सदा बलवान् मानते रहते हो, उन्हींके साथ मैं संग्रामभूमिमें दुर्योधनके हितके लिये यथाशक्ति युद्ध करनेका प्रयत्न करूँगा। विजय तो दैवके अधीन है’॥७०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे कृपकर्णवाक्येऽष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें कृपाचार्य और कर्णका विवादविषयक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५८॥