१५१ द्रोणवाक्ये

भागसूचना

एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोणाचार्यका दुर्योधनको उत्तर और युद्धके लिये प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिन्धुराजे हते तात समरे सव्यसाचिना।
तथैव भूरिश्रवसि किमासीद् वो मनस्तदा ॥ १ ॥

मूलम्

सिन्धुराजे हते तात समरे सव्यसाचिना।
तथैव भूरिश्रवसि किमासीद् वो मनस्तदा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— तात! समरांगणमें सव्यसाची अर्जुनके द्वारा सिंधुराज जयद्रथके तथा सात्यकिद्वारा भूरिश्रवाके मारे जानेपर उस समय तुमलोगोंके मनकी कैसी अवस्था हुई?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनेन च द्रोणस्तथोक्तः कुरुसंसदि।
किमुक्तवान् परं तस्मै तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥

मूलम्

दुर्योधनेन च द्रोणस्तथोक्तः कुरुसंसदि।
किमुक्तवान् परं तस्मै तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! दुर्योधनने जब कौरव-सभामें द्रोणाचार्यसे वैसी बातें कहीं, तब उन्होंने उसे क्या उत्तर दिया? यह मुझे बताओ॥२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्टानको महानासीत् सैन्यानां तव भारत।
सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा भूरिश्रवसमेव च ॥ ३ ॥

मूलम्

निष्टानको महानासीत् सैन्यानां तव भारत।
सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा भूरिश्रवसमेव च ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— भारत! सिंधुराज जयद्रथ तथा भूरिश्रवाको मारा गया देखकर आपकी सेनाओंमें महान् आर्तनाद होने लगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रितं तव पुत्रस्य ते सर्वमवमेनिरे।
येन मन्त्रेण निहताः शतशः क्षत्रियर्षभाः ॥ ४ ॥

मूलम्

मन्त्रितं तव पुत्रस्य ते सर्वमवमेनिरे।
येन मन्त्रेण निहताः शतशः क्षत्रियर्षभाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब लोग आपके पुत्र दुर्योधनकी उस सारी मन्त्रणाका अनादर करने लगे, जिससे सैकड़ों क्षत्रिय-शिरोमणि कालके गालमें चले गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणस्तु तद् वचः श्रुत्वा पुत्रस्य तव दुर्मनाः।
मुहूर्तमिव तद् ध्यात्वा भृशमार्तोऽभ्यभाषत ॥ ५ ॥

मूलम्

द्रोणस्तु तद् वचः श्रुत्वा पुत्रस्य तव दुर्मनाः।
मुहूर्तमिव तद् ध्यात्वा भृशमार्तोऽभ्यभाषत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके पुत्रका पूर्वोक्त वचन सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन दुःखी हो उठे। उन्होंने दो घड़ीतक कुछ सोच-विचारकर अत्यन्त आर्तभावसे इस प्रकार कहा॥

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन किमेवं मां वाक्‌शरैरपि कृन्तसि।
अजय्यं सततं संख्ये ब्रुवाणं सव्यसाचिनम् ॥ ६ ॥

मूलम्

दुर्योधन किमेवं मां वाक्‌शरैरपि कृन्तसि।
अजय्यं सततं संख्ये ब्रुवाणं सव्यसाचिनम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य बोले— दुर्योधन! तुम क्यों इस प्रकार अपने वचनरूपी बाणोंसे मुझे छेद रहे हो? मैं तो सदासे ही कहता आया हूँ कि सव्यसाची अर्जुन युद्धमें अजेय हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेनैवार्जुनं ज्ञातुमलं कौरव संयुगे।
यच्छिखण्ड्यवधीद् भीष्मं पाल्यमानः किरीटिना ॥ ७ ॥

मूलम्

एतेनैवार्जुनं ज्ञातुमलं कौरव संयुगे।
यच्छिखण्ड्यवधीद् भीष्मं पाल्यमानः किरीटिना ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! अर्जुनको तो केवल इसी बातसे समझ लेना चाहिये था कि उनके द्वारा सुरक्षित होकर शिखण्डीने भी युद्धके मैदानमें भीष्मको मार डाला॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवध्यं निहतं दृष्ट्वा संयुगे देवदानवैः।
तदैवाज्ञासिषमहं नेयमस्तीति भारती ॥ ८ ॥

मूलम्

अवध्यं निहतं दृष्ट्वा संयुगे देवदानवैः।
तदैवाज्ञासिषमहं नेयमस्तीति भारती ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो देवताओं और दानवोंके लिये भी अवध्य थे, उन्हें युद्धमें मारा गया देख मैंने उसी समय यह जान लिया कि यह कौरव-सेना अब नहीं रह सकेगी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं पुंसां त्रिषु लोकेषु सर्वशूरममंस्महि।
तस्मिन् निपतिते शूरे किं शेषं पर्युपास्महे ॥ ९ ॥

मूलम्

यं पुंसां त्रिषु लोकेषु सर्वशूरममंस्महि।
तस्मिन् निपतिते शूरे किं शेषं पर्युपास्महे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग जिन्हें तीनों लोकोंके पुरुषोंमें सबसे अधिक शूरवीर मानते थे, उन शौर्यसम्पन्न भीष्मके मारे जानेपर हम दूसरोंका क्या भरोसा करें?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान् स्म तान् ग्लहते तात शकुनिः कुरुसंसदि।
अक्षान् न तेऽक्षा निशिता बाणास्ते शत्रुतापनाः ॥ १० ॥

मूलम्

यान् स्म तान् ग्लहते तात शकुनिः कुरुसंसदि।
अक्षान् न तेऽक्षा निशिता बाणास्ते शत्रुतापनाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्यूतक्रीड़ाके समय विदुरजीने तुमसे कहा था कि ‘तात! कौरव-सभामें शकुनि जिन पासोंको फेंक रहा है, उन्हें पासे न समझो, वे किसी दिन शत्रुओंको संताप देनेवाले तीखे बाण बन सकते हैं’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त एते घ्नन्ति नस्तात विशिखाः पार्थचोदिताः।
तांस्तदाऽऽख्यायमानस्त्वं विदुरेण न बुद्धवान् ॥ ११ ॥

मूलम्

त एते घ्नन्ति नस्तात विशिखाः पार्थचोदिताः।
तांस्तदाऽऽख्यायमानस्त्वं विदुरेण न बुद्धवान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु वत्स! उस समय विदुरजीकी कही हुई बातोंको तुमने कुछ नहीं समझा। तात! वे ही पासे ये अर्जुनके चलाये हुए बाण बनकर हमें मार रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यास्ता विजयतश्चापि विदुरस्य महात्मनः।
धीरस्य वाचो नाश्रौषीः क्षेमाय वदतः शिवाः ॥ १२ ॥
तदिदं वर्तते घोरमागतं वैशसं महत्।
तस्यावमानाद् वाक्यस्य दुर्योधन कृते तव ॥ १३ ॥

मूलम्

यास्ता विजयतश्चापि विदुरस्य महात्मनः।
धीरस्य वाचो नाश्रौषीः क्षेमाय वदतः शिवाः ॥ १२ ॥
तदिदं वर्तते घोरमागतं वैशसं महत्।
तस्यावमानाद् वाक्यस्य दुर्योधन कृते तव ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन! विदुरजी धीर हैं, महात्मा पुरुष हैं। उन्होंने तुम्हारे कल्याणके लिये जो मंगलकारक वचन कहे थे और जिन्हें तुमने विजयके उल्लासमें अनसुना कर दिया था, उनके उन वचनोंके अनादरसे ही तुम्हारे लिये यह घोर महासंहार प्राप्त हुआ है॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽवमन्य वचः पथ्यं सुहृदामाप्तकारिणाम्।
स्वमतं कुरुते मूढः स शोच्यो नचिरादिव ॥ १४ ॥

मूलम्

योऽवमन्य वचः पथ्यं सुहृदामाप्तकारिणाम्।
स्वमतं कुरुते मूढः स शोच्यो नचिरादिव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूर्ख अपने हितैषी मित्रोंके हितकर वचनकी अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करता है, वह थोड़े ही समयमें शोचनीय दशाको प्राप्त हो जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च नः प्रेक्षमाणानां कृष्णामानाय्य तत्सभाम्।
अनर्हन्तीं कुले जातां सर्वधर्मानुचारिणीम् ॥ १५ ॥
तस्याधर्मस्य गान्धारे फलं प्राप्तमिदं महत्।
नो चेत् पापं परे लोके त्वमर्च्छेथास्ततोऽधिकम् ॥ १६ ॥

मूलम्

यच्च नः प्रेक्षमाणानां कृष्णामानाय्य तत्सभाम्।
अनर्हन्तीं कुले जातां सर्वधर्मानुचारिणीम् ॥ १५ ॥
तस्याधर्मस्य गान्धारे फलं प्राप्तमिदं महत्।
नो चेत् पापं परे लोके त्वमर्च्छेथास्ततोऽधिकम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा तुमने हमलोगोंके सामने ही जो द्रौपदीको सभामें बुलाकर अपमानित किया, वह अपमान उसके योग्य नहीं था। वह उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई है और सम्पूर्ण धर्मोंका निरन्तर पालन करती है। गान्धारीनन्दन! द्रौपदीके अपमानरूपी तुम्हारे अधर्मका ही यह महान् फल प्राप्त हुआ है कि तुम्हारे दलका विनाश हो रहा है। यदि यहाँ यह फल नहीं मिलता तो परलोकमें तुम्हें उस पापका इससे भी अधिक दण्ड भोगना पड़ता॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च तान् पाण्डवान् द्यूते विषमेण विजित्य ह।
प्राव्राजयस्तदारण्ये रौरवाजिनवाससः ॥ १७ ॥

मूलम्

यच्च तान् पाण्डवान् द्यूते विषमेण विजित्य ह।
प्राव्राजयस्तदारण्ये रौरवाजिनवाससः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, तुमने पाण्डवोंको जूएमें बेईमानीसे जीतकर और मृगचर्ममय वस्त्र पहनाकर उन्हें वनवास दे दिया (इस अधर्मका भी फल तुम्हें भोगना पड़ता है)॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्राणामिव चैतेषां धर्ममाचरतां सदा।
द्रुह्येत् को नु नरो लोके मदन्यो ब्राह्मणब्रुवः ॥ १८ ॥

मूलम्

पुत्राणामिव चैतेषां धर्ममाचरतां सदा।
द्रुह्येत् को नु नरो लोके मदन्यो ब्राह्मणब्रुवः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डव मेरे पुत्रके समान हैं और वे सदा धर्मका आचरण करते रहते हैं। संसारमें मेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो ब्राह्मण कहलाकर भी उनसे द्रोह करे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवानामयं कोपस्त्वया शकुनिना सह।
आहृतो धृतराष्ट्रस्य सम्मते कुरुसंसदि ॥ १९ ॥

मूलम्

पाण्डवानामयं कोपस्त्वया शकुनिना सह।
आहृतो धृतराष्ट्रस्य सम्मते कुरुसंसदि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने राजा धृतराष्ट्रकी सम्मतिसे कौरवोंकी सभामें शकुनिके साथ बैठकर पाण्डवोंका यह क्रोध मोल लिया है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनेन संयुक्तः कर्णेन परिवर्धितः।
क्षत्तुर्वाक्यमनादृत्य त्वयाभ्यस्तः पुनः पुनः ॥ २० ॥

मूलम्

दुःशासनेन संयुक्तः कर्णेन परिवर्धितः।
क्षत्तुर्वाक्यमनादृत्य त्वयाभ्यस्तः पुनः पुनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कार्यमें दुःशासनने तुम्हारा साथ दिया है, कर्णसे भी उस क्रोधको बढ़ावा मिला है और विदुरजीके उपदेशकी अवहेलना करके तुमने बारंबार पाण्डवोंके उस क्रोधको बढ़नेका अवसर दिया है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्ताः सर्वे पराभूताः पर्यवारयताऽर्जुनम्।
सिन्धुराजानमाश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः ॥ २१ ॥

मूलम्

यत्ताः सर्वे पराभूताः पर्यवारयताऽर्जुनम्।
सिन्धुराजानमाश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम सब लोगोंने बड़ी सावधानीसे अर्जुनको घेर लिया था। फिर सब-के-सब पराजित कैसे हो गये? तुमने सिंधुराजको आश्रय दिया था। फिर तुम्हारे बीचमें वह कैसे मारा गया?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं त्वयि च कर्णे च कृपे शल्ये च जीवति।
अश्वत्थाम्नि च कौरव्य निधनं सैन्धवोऽगमत् ॥ २२ ॥

मूलम्

कथं त्वयि च कर्णे च कृपे शल्ये च जीवति।
अश्वत्थाम्नि च कौरव्य निधनं सैन्धवोऽगमत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! तुम और कर्ण तो नहीं मर गये थे, कृपाचार्य, शल्य और अश्वत्थामा तो जीवित थे; फिर तुम्हारे रहते सिंधुराजकी मृत्यु क्यों हुई?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यन्तः सर्वराजानस्तेजस्तिग्ममुपासते ।
सिन्धुराजं परित्रातुं स वो मध्ये कथं हतः ॥ २३ ॥

मूलम्

युध्यन्तः सर्वराजानस्तेजस्तिग्ममुपासते ।
सिन्धुराजं परित्रातुं स वो मध्ये कथं हतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध करते हुए समस्त राजा सिंधुराजकी रक्षाके लिये प्रचण्ड तेजका आश्रय लिये हुए थे। फिर वह आपलोगोंके बीचमें कैसे मारा गया?॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मय्येव हि विशेषेण तथा दुर्योधन त्वयि।
आशंसत परित्राणमर्जुनात् स महीपतिः ॥ २४ ॥

मूलम्

मय्येव हि विशेषेण तथा दुर्योधन त्वयि।
आशंसत परित्राणमर्जुनात् स महीपतिः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन! राजा जयद्रथ विशेषतः मुझपर और तुमपर ही अर्जुनसे अपनी जीवन-रक्षाका भरोसा किये बैठा था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्मिन् परित्राणमलब्धवति फाल्गुनात् ।
न किंचिदनुपश्यामि जीवितस्थानमात्मनः ॥ २५ ॥

मूलम्

ततस्तस्मिन् परित्राणमलब्धवति फाल्गुनात् ।
न किंचिदनुपश्यामि जीवितस्थानमात्मनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो भी जब अर्जुनसे उसकी रक्षा न की जा सकी, तब मुझे अब अपने जीवनकी रक्षाके लिये भी कोई स्थान दिखायी नहीं देता॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मज्जन्तमिव चात्मानं धृष्टद्युम्नस्य किल्बिषे।
पश्याम्यहत्वा पञ्चालान् सह तेन शिखण्डिना ॥ २६ ॥

मूलम्

मज्जन्तमिव चात्मानं धृष्टद्युम्नस्य किल्बिषे।
पश्याम्यहत्वा पञ्चालान् सह तेन शिखण्डिना ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं धृष्टद्युम्न और शिखण्डीसहित समस्त पांचालोंका वध न करके अपने-आपको धृष्टद्युम्नके पापपूर्ण संकल्पमें डूबता-सा देख रहा हूँ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मां किमभितप्यन्तं वाक्‌शरैरेव कृन्तसि।
अशक्तः सिन्धुराजस्य भूत्वा त्राणाय भारत ॥ २७ ॥

मूलम्

तन्मां किमभितप्यन्तं वाक्‌शरैरेव कृन्तसि।
अशक्तः सिन्धुराजस्य भूत्वा त्राणाय भारत ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ऐसी दशामें तुम स्वयं सिंधुराजकी रक्षामें असमर्थ होकर मुझे अपने वाग्बाणोंसे क्यों छेद रहे हो? मै तो स्वयं ही संतप्त हो रहा हूँ॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौवर्णं सत्यसंधस्य ध्वजमक्लिष्टकर्मणः ।
अपश्यन् युधि भीष्मस्य कथमाशंससे जयम् ॥ २८ ॥

मूलम्

सौवर्णं सत्यसंधस्य ध्वजमक्लिष्टकर्मणः ।
अपश्यन् युधि भीष्मस्य कथमाशंससे जयम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनायास ही महान् कर्म करनेवाले सत्यप्रतिज्ञ भीष्मके सुवर्णमय ध्वजको अब युद्धस्थलमें फहराता न देखकर भी तुम विजयकी आशा कैसे करते हो?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्ये महारथानां च यत्राहन्यत सैन्धवः।
हतो भूरिश्रवाश्चैव किं शेषं तत्र मन्यसे ॥ २९ ॥

मूलम्

मध्ये महारथानां च यत्राहन्यत सैन्धवः।
हतो भूरिश्रवाश्चैव किं शेषं तत्र मन्यसे ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ बड़े-बड़े महारथियोंके बीच सिंधुराज जयद्रथ और भूरिश्रवा मारे गये, वहाँ तुम किसके बचनेकी आशा करते हो?॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृप एव च दुर्धर्षो यदि जीवति पार्थिव।
यो नागात् सिन्धुराजस्य वर्त्म तं पूजयाम्यहम् ॥ ३० ॥

मूलम्

कृप एव च दुर्धर्षो यदि जीवति पार्थिव।
यो नागात् सिन्धुराजस्य वर्त्म तं पूजयाम्यहम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपते! दुर्धर्ष वीर कृपाचार्य यदि जीवित हैं, यदि सिंधुराजके पथपर नहीं गये हैं तो मैं उनके बल और सौभाग्यकी प्रशंसा करता हूँ॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्रापश्यं हतं भीष्मं पश्यतस्तेऽनुजस्य वै।
दुःशासनस्य कौरव्य कुर्वाणं कर्म दुष्करम् ॥ ३१ ॥
अवध्यकल्पं संग्रामे देवैरपि सवासवैः।
न ते वसुन्धरास्तीति तदाहं चिन्तये नृप ॥ ३२ ॥

मूलम्

यत्रापश्यं हतं भीष्मं पश्यतस्तेऽनुजस्य वै।
दुःशासनस्य कौरव्य कुर्वाणं कर्म दुष्करम् ॥ ३१ ॥
अवध्यकल्पं संग्रामे देवैरपि सवासवैः।
न ते वसुन्धरास्तीति तदाहं चिन्तये नृप ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! नरेश! जिन्हें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी युद्धमें नहीं मार सकते थे, दुष्कर कर्म करनेवाले उन्हीं भीष्मको जबसे मैंने तुम्हारे छोटे भाई दुःशासनके देखते-देखते मारा गया देखा है, तबसे मैं यही सोचता हूँ कि अब यह पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें नहीं रह सकती॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमानि पाण्डवानां च सृञ्जयानां च भारत।
अनीकान्याद्रवन्ते मां सहितान्यद्य भारत ॥ ३३ ॥

मूलम्

इमानि पाण्डवानां च सृञ्जयानां च भारत।
अनीकान्याद्रवन्ते मां सहितान्यद्य भारत ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वह देखो, पाण्डवों और सृंजयोंकी सेनाएँ एक साथ मिलकर इस समय मुझपर चढ़ी आ रही हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहत्वा सर्वपञ्चालान् कवचस्य विमोक्षणम्।
कर्तास्मि समरे कर्म धार्तराष्ट्र हितं तव ॥ ३४ ॥

मूलम्

नाहत्वा सर्वपञ्चालान् कवचस्य विमोक्षणम्।
कर्तास्मि समरे कर्म धार्तराष्ट्र हितं तव ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन! अब मैं समस्त पांचालोंको मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा। मैं समरांगणमें वही कार्य करूँगा, जिससे तुम्हारा हित हो॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् ब्रूयाः सुतं मे त्वमश्वत्थामानमाहवे।
न सोमकाः प्रमोक्तव्या जीवितं परिरक्षता ॥ ३५ ॥

मूलम्

राजन् ब्रूयाः सुतं मे त्वमश्वत्थामानमाहवे।
न सोमकाः प्रमोक्तव्या जीवितं परिरक्षता ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम मेरे पुत्र अश्वत्थामासे जाकर कहना कि ‘वह युद्धमें अपने जीवनकी रक्षा करते हुए जैसे भी हो, सोमकोंको जीवित न छोड़े’॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च पित्रानुशिष्टोऽसि तद् वचः परिपालय।
आनृशंस्ये दमे सत्ये चार्जवे च स्थिरो भव ॥ ३६ ॥

मूलम्

यच्च पित्रानुशिष्टोऽसि तद् वचः परिपालय।
आनृशंस्ये दमे सत्ये चार्जवे च स्थिरो भव ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह भी कहना कि ‘पिताने जो तुम्हें उपदेश दिया है, उसका पालन करो। दया, दम, सत्य और सरलता आदि सद्‌गुणोंमें स्थिर रहो॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थकामकुशलो धर्मार्थावप्यपीडयन् ।
धर्मप्रधानकार्याणि कुर्याश्चेति पुनः पुनः ॥ ३७ ॥

मूलम्

धर्मार्थकामकुशलो धर्मार्थावप्यपीडयन् ।
धर्मप्रधानकार्याणि कुर्याश्चेति पुनः पुनः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम धर्म, अर्थ और कामके साधनमें कुशल हो। अतः धर्म और अर्थको पीड़ा न देते हुए बारंबार धर्मप्रधान कर्मोंका ही अनुष्ठान करो॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्षुर्मनोभ्यां संतोष्या विप्राः पूज्याश्च शक्तितः।
न चैषां विप्रियं कार्यं ते हि वह्निशिखोपमाः ॥ ३८ ॥

मूलम्

चक्षुर्मनोभ्यां संतोष्या विप्राः पूज्याश्च शक्तितः।
न चैषां विप्रियं कार्यं ते हि वह्निशिखोपमाः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विनयपूर्ण दृष्टि और श्रद्धायुत्ह हृदयसे ब्राह्मणोंको संतुष्ट रखना, यथाशक्ति उनका आदर-सत्कार करते रहना। कभी उनका अप्रिय न करना; क्योंकि वे अग्निकी ज्वालाके समान तेजस्वी होते हैं’॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष त्वहमनीकानि प्रविशाम्यरिसूदन ।
रणाय महते राजंस्त्वया वाक्‌शरपीडितः ॥ ३९ ॥

मूलम्

एष त्वहमनीकानि प्रविशाम्यरिसूदन ।
रणाय महते राजंस्त्वया वाक्‌शरपीडितः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! शत्रुसूदन! अब मैं तुम्हारे वाग्बाणोंसे पीड़ित हो महान् युद्धके लिये शत्रुओंकी सेनामें प्रवेश करता हूँ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं च दुर्योधन बलं यदि शक्तोऽसि पालय।
रात्रावपि च योत्स्यन्ते संरब्धाः कुरुसृञ्जयाः ॥ ४० ॥

मूलम्

त्वं च दुर्योधन बलं यदि शक्तोऽसि पालय।
रात्रावपि च योत्स्यन्ते संरब्धाः कुरुसृञ्जयाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन! यदि तुममें शक्ति हो तो सेनाकी रक्षा करना; क्योंकि इस समय क्रोधमें भरे हुए कौरव और सृंजय रात्रिमें भी युद्ध करेंगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततः प्रायाद् द्रोणः पाण्डवसृञ्जयान्।
मुष्णन् क्षत्रियतेजांसि नक्षत्राणामिवांशुमान् ॥ ४१ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततः प्रायाद् द्रोणः पाण्डवसृञ्जयान्।
मुष्णन् क्षत्रियतेजांसि नक्षत्राणामिवांशुमान् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्य नक्षत्रोंके तेज हर लेते हैं, उसी प्रकार क्षत्रियोंके तेजका अपहरण करते हुए आचार्य द्रोण दुर्योधनसे पूर्वोक्त बातें कहकर पाण्डवों और सृंजयोंसे युद्ध करनेके लिये चल दिये॥४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि द्रोणवाक्ये एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें द्रोणवाक्यविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५१॥