१४९ युधिष्ठिरहर्षे

भागसूचना

एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे विजयका समाचार सुनाना और युधिष्ठिरद्वारा श्रीकृष्णाकी स्तुति तथा अर्जुन, भीम एवं सात्यकिका अभिनन्दन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राजानमभ्येत्य धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
ववन्दे स प्रहृष्टात्मा हते पार्थेन सैन्धवे ॥ १ ॥

मूलम्

ततो राजानमभ्येत्य धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
ववन्दे स प्रहृष्टात्मा हते पार्थेन सैन्धवे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर अर्जुनद्वारा सिंधुराज जयद्रथके मारे जानेपर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरके पास पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्णने हर्षपूर्ण हृदयसे उन्हें प्रणाम किया और कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्‌या वर्धसि राजेन्द्र हतशत्रुर्नरोत्तम।
दिष्ट्‌या निस्तीर्णवांश्चैव प्रतिज्ञामनुजस्तव ॥ २ ॥

मूलम्

दिष्ट्‌या वर्धसि राजेन्द्र हतशत्रुर्नरोत्तम।
दिष्ट्‌या निस्तीर्णवांश्चैव प्रतिज्ञामनुजस्तव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! सौभाग्यसे आपका अभ्युदय हो रहा है। नरश्रेष्ठ! आपका शत्रु मारा गया। आपके छोटे भाईने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली, यह महान् सौभाग्यकी बात है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वेवमुक्तः कृष्णेन हृष्टः परपुरंजयः।
ततो युधिष्ठिरो राजा रथादाप्लुत्य भारत ॥ ३ ॥
पर्यष्वजत् तदा कृष्णावानन्दाश्रुपरिप्लुतः ।

मूलम्

स त्वेवमुक्तः कृष्णेन हृष्टः परपुरंजयः।
ततो युधिष्ठिरो राजा रथादाप्लुत्य भारत ॥ ३ ॥
पर्यष्वजत् तदा कृष्णावानन्दाश्रुपरिप्लुतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले राजा युधिष्ठिर हर्षमें भरकर अपने रथसे कूद पड़े और आनन्दके आँसू बहाते हुए उन्होंने उस समय श्रीकृष्ण और अर्जुनको हृदयसे लगा लिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमृज्य वदनं शुभ्रं पुण्डरीकसमप्रभम् ॥ ४ ॥
अब्रवीद् वासुदेवं च पाण्डवं च धनंजयम्।

मूलम्

प्रमृज्य वदनं शुभ्रं पुण्डरीकसमप्रभम् ॥ ४ ॥
अब्रवीद् वासुदेवं च पाण्डवं च धनंजयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उनके कमलके समान कान्तिमान् सुन्दर मुखपर हाथ फेरते हुए वे वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनसे इस प्रकार बोले—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियमेतदुपश्रुत्य त्वत्तः पुष्करलोचन ॥ ५ ॥
नान्तं गच्छामि हर्षस्य तितीर्षुरुदधेरिव।
अत्यद्भुतमिदं कृष्ण कृतं पार्थेन धीमता ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रियमेतदुपश्रुत्य त्वत्तः पुष्करलोचन ॥ ५ ॥
नान्तं गच्छामि हर्षस्य तितीर्षुरुदधेरिव।
अत्यद्भुतमिदं कृष्ण कृतं पार्थेन धीमता ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कमलनयन कृष्ण! जैसे तैरनेकी इच्छावाला पुरुष समुद्रका पार नहीं पाता, उसी प्रकार आपके मुखसे यह प्रिय समाचार सुनकर मेरे हर्षकी सीमा नहीं रह गयी है। बुद्धिमान् अर्जुनने यह अत्यन्त अद्भुत पराक्रम किया है॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या पश्यामि संग्रामे तीर्णभारौ महारथौ।
दिष्ट्या विनिहतः पापः सैन्धवः पुरुषाधमः ॥ ७ ॥

मूलम्

दिष्ट्या पश्यामि संग्रामे तीर्णभारौ महारथौ।
दिष्ट्या विनिहतः पापः सैन्धवः पुरुषाधमः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज सौभाग्यवश संग्रामभूमिमें मैं आप दोनों महारथियोंको प्रतिज्ञाके भारसे मुक्त हुआ देखता हूँ। यह बड़े हर्षकी बात है कि पापी नराधम सिंधुराज जयद्रथ मारा गया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण दिष्ट्या मम प्रीतिर्महती प्रतिपादिता।
त्वया गुप्तेन गोविन्द घ्नता पापं जयद्रथम् ॥ ८ ॥

मूलम्

कृष्ण दिष्ट्या मम प्रीतिर्महती प्रतिपादिता।
त्वया गुप्तेन गोविन्द घ्नता पापं जयद्रथम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! गोविन्द! सौभाग्यवश आपके द्वारा सुरक्षित हुए अर्जुनने पापी जयद्रथको मारकर मुझे महान् हर्ष प्रदान किया है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तु नात्यद्भुतं तेषां येषां नस्त्वं समाश्रयः।
न तेषां दुष्कृतं किंचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ९ ॥
सर्वलोकगुरुर्येषां त्वं नाथो मधुसूदन।
त्वत्प्रसादाद्धि गोविन्द वयं जेष्यामहे रिपून् ॥ १० ॥

मूलम्

किं तु नात्यद्भुतं तेषां येषां नस्त्वं समाश्रयः।
न तेषां दुष्कृतं किंचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ९ ॥
सर्वलोकगुरुर्येषां त्वं नाथो मधुसूदन।
त्वत्प्रसादाद्धि गोविन्द वयं जेष्यामहे रिपून् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु जिनके आप आश्रय हैं, उन हमलोगोंके लिये विजय और सौभाग्यकी प्राप्ति अत्यन्त अद्भुत बात नहीं है। मुधुसूदन! सम्पूर्ण जगत्‌के गुरु आप जिनके रक्षक हैं, उनके लिये तीनों लोकोंमें कहीं कुछ भी दुष्कर नहीं है। गोविन्द! हम आपकी कृपासे शत्रुओंपर निश्चय ही विजय पायेंगे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थितः सर्वात्मना नित्यं प्रियेषु च हितेषु च।
त्वां चैवास्माभिराश्रित्य कृतः शस्त्रसमुद्यमः ॥ ११ ॥
सुरैरिवासुरवधे शक्रं शक्रानुजाहवे ।

मूलम्

स्थितः सर्वात्मना नित्यं प्रियेषु च हितेषु च।
त्वां चैवास्माभिराश्रित्य कृतः शस्त्रसमुद्यमः ॥ ११ ॥
सुरैरिवासुरवधे शक्रं शक्रानुजाहवे ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उपेन्द्र! आप सदा सब प्रकारसे हमारे प्रिय और हितसाधनमें लगे हुए हैं। हमलोगोंने आपका ही आश्रय लेकर शस्त्रोंद्वारा युद्धकी तैयारी की है। ठीक उसी तरह, जैसे देवता इन्द्रका आश्रय लेकर युद्धमें असुरोंके वधका उद्योग करते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भाव्यमिदं कर्म देवैरपि जनार्दन ॥ १२ ॥
त्वद्‌बुद्धिबलवीर्येण कृतवानेष फाल्गुनः ।

मूलम्

असम्भाव्यमिदं कर्म देवैरपि जनार्दन ॥ १२ ॥
त्वद्‌बुद्धिबलवीर्येण कृतवानेष फाल्गुनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! आपकी ही बुद्धि, बल और पराक्रमसे इस अर्जुनने यह देवताओंके लिये भी असम्भव कर्म कर दिखाया है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाल्यात् प्रभृति ते कृष्ण कर्माणि श्रुतवानहम् ॥ १३ ॥
अमानुषाणि दिव्यानि महान्ति च बहूनि च।
तदैवाज्ञासिषं शत्रून् हतान् प्राप्तां च मेदिनीम् ॥ १४ ॥

मूलम्

बाल्यात् प्रभृति ते कृष्ण कर्माणि श्रुतवानहम् ॥ १३ ॥
अमानुषाणि दिव्यानि महान्ति च बहूनि च।
तदैवाज्ञासिषं शत्रून् हतान् प्राप्तां च मेदिनीम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! बाल्यावस्थासे ही आपने जो बहुत-से अलौकिक, दिव्य एवं महान् कर्म किये हैं, उन्हें जबसे मैंने सुना है, तभीसे यह निश्चितरूपसे जान लिया है कि मेरे शत्रु मारे गये और मैंने भूमण्डलका राज्य प्राप्त कर लिया॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्प्रसादसमुत्थेन विक्रमेणारिसूदन ।
सुरेशत्वं गतः शक्रो हत्वा दैत्यान् सहस्रशः ॥ १५ ॥

मूलम्

त्वत्प्रसादसमुत्थेन विक्रमेणारिसूदन ।
सुरेशत्वं गतः शक्रो हत्वा दैत्यान् सहस्रशः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन! आपकी कृपासे प्राप्त हुए पराक्रमद्वारा इन्द्र सहस्रों दैत्योंका संहार करके देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हुए हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्प्रसादाद्धृषीकेश जगत् स्थावरजङ्गमम् ।
स्ववर्त्मनि स्थितं वीर जपहोमेषु वर्तते ॥ १६ ॥

मूलम्

त्वत्प्रसादाद्धृषीकेश जगत् स्थावरजङ्गमम् ।
स्ववर्त्मनि स्थितं वीर जपहोमेषु वर्तते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर हृषीकेश! आपके ही प्रसादसे यह स्थावर-जंगमरूप जगत् अपनी मर्यादामें स्थित रहकर जप और होम आदि सत्कर्मोंमें संलग्न होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकार्णवमिदं पूर्वं सर्वमासीत् तमोमयम्।
त्वत्प्रसादान्महाबाहो जगत् प्राप्तं नरोत्तम ॥ १७ ॥

मूलम्

एकार्णवमिदं पूर्वं सर्वमासीत् तमोमयम्।
त्वत्प्रसादान्महाबाहो जगत् प्राप्तं नरोत्तम ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! नरश्रेष्ठ! पहले यह सारा जगत् एकार्णवके जलमें निमग्न हो अन्धकारमें विलीन हो गया था। फिर आपकी ही कृपादृष्टिसे यह वर्तमान रूपमें उपलब्ध हुआ है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रष्टारं सर्वलोकानां परमात्मानमव्ययम् ।
ये पश्यन्ति हृषीकेशं न ते मुह्यन्ति कर्हिचित् ॥ १८ ॥

मूलम्

स्रष्टारं सर्वलोकानां परमात्मानमव्ययम् ।
ये पश्यन्ति हृषीकेशं न ते मुह्यन्ति कर्हिचित् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि करनेवाले आप अविनाशी परमात्मा हृषीकेशका दर्शन पा जाते हैं, वे कभी मोहके वशीभूत नहीं होते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराणं परमं देवं देवदेवं सनातनम्।
ये प्रपन्नाः सुरगुरुं न ते मुह्यन्ति कर्हिचित् ॥ १९ ॥

मूलम्

पुराणं परमं देवं देवदेवं सनातनम्।
ये प्रपन्नाः सुरगुरुं न ते मुह्यन्ति कर्हिचित् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप पुराण पुरुष, परमदेव, देवताओंके भी देवता, देवगुरु एवं सनातन परमात्मा हैं। जो लोग आपकी शरणमें जाते हैं, वे कभी मोहमें नहीं पड़ते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादिनिधनं देवं लोककर्तारमव्ययम् ।
ये भक्तास्त्वां हृषीकेश दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ २० ॥

मूलम्

अनादिनिधनं देवं लोककर्तारमव्ययम् ।
ये भक्तास्त्वां हृषीकेश दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हृषीकेश! आप आदि-अन्तसे रहित विश्वविधाता और अविकारी देवता हैं। जो आपके भक्त हैं, वे बड़े-बड़े संकटोंसे पार हो जाते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं पुराणं पुरुषं पराणां परमं च यत्।
प्रपद्यतस्तत् परमं परा भूतिर्विधीयते ॥ २१ ॥

मूलम्

परं पुराणं पुरुषं पराणां परमं च यत्।
प्रपद्यतस्तत् परमं परा भूतिर्विधीयते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप परम पुरातन पुरुष हैं। परसे भी पर हैं। आप परमेश्वरकी शरण लेनेवाले पुरुषको परम ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गायन्ति चतुरो वेदा यश्च वेदेषु गीयते।
तं प्रपद्य महात्मानं भूतिमश्नाम्यनुत्तमाम् ॥ २२ ॥

मूलम्

गायन्ति चतुरो वेदा यश्च वेदेषु गीयते।
तं प्रपद्य महात्मानं भूतिमश्नाम्यनुत्तमाम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चारों वेद जिनके यशका गान करते हैं, जो सम्पूर्ण वेदोंमें गाये जाते हैं, उस महात्मा श्रीकृष्णकी शरण लेकर मैं सर्वोत्तम ऐश्वर्य (कल्याण) प्राप्त करूँगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमेश परेशेश तिर्यगीश नरेश्वर।
सर्वेश्वरेश्वरेशेश नमस्ते पुरुषोत्तम ॥ २३ ॥

मूलम्

परमेश परेशेश तिर्यगीश नरेश्वर।
सर्वेश्वरेश्वरेशेश नमस्ते पुरुषोत्तम ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषोत्तम! आप परमेश्वर हैं। पशु, पक्षी तथा मनुष्योंके भी ईश्वर हैं। ‘परमेश्वर’ कहे जानेवाले इन्द्रादि लोकपालोंके भी स्वामी हैं। सर्वेश्वर! जो सबके ईश्वर हैं, उनके भी आप ही ईश्वर हैं। आपको नमस्कार है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमीशेशेश्वरेशान प्रभो वर्धस्व माधव।
प्रभवाप्यय सर्वस्य सर्वात्मन् पृथुलोचन ॥ २४ ॥

मूलम्

त्वमीशेशेश्वरेशान प्रभो वर्धस्व माधव।
प्रभवाप्यय सर्वस्य सर्वात्मन् पृथुलोचन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशाल नेत्रोंवाले माधव! आप ईश्वरोंके भी ईश्वर और शासक हैं। प्रभो! आपका अभ्युदय हो। सर्वात्मन्! आप ही सबके उत्पत्ति और प्रलयके कारण हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजयसखा यश्च धनंजयहितश्च यः।
धनंजयस्य गोप्ता तं प्रपद्य सुखमेधते ॥ २५ ॥

मूलम्

धनंजयसखा यश्च धनंजयहितश्च यः।
धनंजयस्य गोप्ता तं प्रपद्य सुखमेधते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अर्जुनके मित्र, अर्जुनके हितैषी और अर्जुनके रक्षक हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णकी शरण लेकर मनुष्य सुखी होता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्कण्डेयः पुराणर्षिश्चरितज्ञस्तवानघ ।
माहात्म्यमनुभावं च पुरा कीर्तितवान् मुनिः ॥ २६ ॥

मूलम्

मार्कण्डेयः पुराणर्षिश्चरितज्ञस्तवानघ ।
माहात्म्यमनुभावं च पुरा कीर्तितवान् मुनिः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप श्रीकृष्ण! प्राचीनकालके महर्षि मार्कण्डेय आपके चरित्रको जानते हैं। उन मुनिश्रेष्ठने पहले (वनवासके समय) आपके प्रभाव और माहात्म्यका मुझसे वर्णन किया था॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असितो देवलश्चैव नारदश्च महातपाः।
पितामहश्च मे व्यासस्त्वामाहुर्विधिमुत्तमम् ॥ २७ ॥

मूलम्

असितो देवलश्चैव नारदश्च महातपाः।
पितामहश्च मे व्यासस्त्वामाहुर्विधिमुत्तमम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘असित, देवल, महातपस्वी नारद तथा मेरे पितामह व्यासने आपको ही सर्वोत्तम विधि बताया है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं तेजस्त्वं परं ब्रह्म त्वं सत्यं त्वं महत् तपः।
त्वं श्रेयस्त्वं यशश्चाग्र्यं कारणं जगतस्तथा ॥ २८ ॥
त्वया सृष्टमिदं सर्वं जगत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रलये समनुप्राप्ते त्वां वै निविशते पुनः ॥ २९ ॥

मूलम्

त्वं तेजस्त्वं परं ब्रह्म त्वं सत्यं त्वं महत् तपः।
त्वं श्रेयस्त्वं यशश्चाग्र्यं कारणं जगतस्तथा ॥ २८ ॥
त्वया सृष्टमिदं सर्वं जगत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रलये समनुप्राप्ते त्वां वै निविशते पुनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप ही तेज, आप ही परब्रह्म, आप ही सत्य, आप ही महान् तप, आप ही श्रेय, आप ही उत्तम यश और आप ही जगत्‌के कारण हैं। आपने ही इस सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत्‌की सृष्टि की है और प्रलयकाल आनेपर यह पुनः आपहीमें लीन हो जाता है॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादिनिधनं देवं विश्वस्येशं जगत्पते।
धातारमजमव्यक्तमाहुर्वेदविदो जनाः ॥ ३० ॥
भूतात्मानं महात्मानमनन्तं विश्वतोमुखम् ।

मूलम्

अनादिनिधनं देवं विश्वस्येशं जगत्पते।
धातारमजमव्यक्तमाहुर्वेदविदो जनाः ॥ ३० ॥
भूतात्मानं महात्मानमनन्तं विश्वतोमुखम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जगत्पते! वेदवेत्ता पुरुष आपको आदि-अन्तसे रहित, दिव्यस्वरूप, विश्वेश्वर, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, भूतात्मा, महात्मा, अनन्त तथा विश्वतोमुख आदि नामोंसे पुकारते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि देवा न जानन्ति गुह्यमाद्यं जगत्पतिम् ॥ ३१ ॥
नारायणं परं देवं परमात्मानमीश्वरम्।
ज्ञानयोनिं हरिं विष्णुं मुमुक्षूणां परायणम्।
परं पुराणं पुरुषं पुराणानां परं च यत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अपि देवा न जानन्ति गुह्यमाद्यं जगत्पतिम् ॥ ३१ ॥
नारायणं परं देवं परमात्मानमीश्वरम्।
ज्ञानयोनिं हरिं विष्णुं मुमुक्षूणां परायणम्।
परं पुराणं पुरुषं पुराणानां परं च यत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपका रहस्य गूढ़ है। आप सबके आदि कारण और इस जगत्‌के स्वामी हैं। आप ही परमदेव, नारायण, परमात्मा और ईश्वर हैं। ज्ञानस्वरूप श्रीहरि तथा मुमुक्षुओंके परम आश्रय भगवान् विष्णु भी आप ही हैं। आपके यथार्थ स्वरूपको देवता भी नहीं जानते हैं। आप ही परम पुराणपुरुष तथा पुराणोंसे भी परे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमादिगुणानां ते कर्मणां दिवि चेह च।
अतीतभूतभव्यानां संख्यातात्र न विद्यते ॥ ३३ ॥
सर्वतो रक्षणीयाः स्म शक्रेणेव दिवौकसः।
यैस्त्वं सर्वगुणोपेतः सुहृन्न उपपादितः ॥ ३४ ॥

मूलम्

एवमादिगुणानां ते कर्मणां दिवि चेह च।
अतीतभूतभव्यानां संख्यातात्र न विद्यते ॥ ३३ ॥
सर्वतो रक्षणीयाः स्म शक्रेणेव दिवौकसः।
यैस्त्वं सर्वगुणोपेतः सुहृन्न उपपादितः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके ऐसे-ऐसे गुणों तथा भूत, वर्तमान एवं भविष्यकालमें होनेवाले कर्मोंकी गणना करनेवाला इस भूलोकमें या स्वर्गमें भी कोई नहीं है। जैसे इन्द्र देवताओंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार हम सब लोग आपके द्वारा सर्वथा रक्षणीय हैं। हमें आप सर्वगुणसम्पन्न सुहृद्‌के रूपमें प्राप्त हुए हैं’॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं धर्मराजेन हरिरुक्तो महायशाः।
अनुरूपमिदं वाक्यं प्रत्युवाच जनार्दनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

इत्येवं धर्मराजेन हरिरुक्तो महायशाः।
अनुरूपमिदं वाक्यं प्रत्युवाच जनार्दनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराज युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर महायशस्वी भगवान् जनार्दनने उनके कथनके अनुरूप इस प्रकार उत्तर दिया—॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवता तपसोग्रेण धर्मेण परमेण च।
साधुत्वादार्जवाच्चैव हतः पापो जयद्रथः ॥ ३६ ॥

मूलम्

भवता तपसोग्रेण धर्मेण परमेण च।
साधुत्वादार्जवाच्चैव हतः पापो जयद्रथः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मराज! आपकी उग्र तपस्या, परम धर्म, साधुता तथा सरलतासे ही पापी जयद्रथ मारा गया है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं च पुरुषव्याघ्र त्वदनुध्यानसंवृतः।
हत्वा योधसहस्राणि न्यहन् जिष्णुर्जयद्रथम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

अयं च पुरुषव्याघ्र त्वदनुध्यानसंवृतः।
हत्वा योधसहस्राणि न्यहन् जिष्णुर्जयद्रथम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! आपने जो निरन्तर शुभ-चिन्तन किया है, उसीसे सुरक्षित हो अर्जुनने सहस्रों योद्धाओंका संहार करके जयद्रथका वध किया है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतित्वे बाहुवीर्ये च तथैवासम्भ्रमेऽपि च।
शीघ्रतामोघबुद्धित्वे नास्ति पार्थसमः क्वचित् ॥ ३८ ॥

मूलम्

कृतित्वे बाहुवीर्ये च तथैवासम्भ्रमेऽपि च।
शीघ्रतामोघबुद्धित्वे नास्ति पार्थसमः क्वचित् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अस्त्रोंके ज्ञान, बाहुबल, स्थिरता, शीघ्रता और अमोघबुद्धिता आदि गुणोंमें कहीं कोई भी कुन्तीकुमार अर्जुनकी समता करनेवाला नहीं है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदयं भरतश्रेष्ठ भ्राता तेऽद्य यदर्जुनः।
सैन्यक्षयं रणे कृत्वा सिन्धुराजशिरोऽहरत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

तदयं भरतश्रेष्ठ भ्राता तेऽद्य यदर्जुनः।
सैन्यक्षयं रणे कृत्वा सिन्धुराजशिरोऽहरत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! इसीलिये आज आपके इस छोटे भाई अर्जुनने संग्राममें शत्रुसेनाका संहार करके सिंधुराजका सिर काट लिया है’॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धर्मसुतो जिष्णुं परिष्वज्य विशाम्पते।
प्रमृज्य वदनं तस्य पर्याश्वासयत प्रभुः ॥ ४० ॥

मूलम्

ततो धर्मसुतो जिष्णुं परिष्वज्य विशाम्पते।
प्रमृज्य वदनं तस्य पर्याश्वासयत प्रभुः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! तब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरने अर्जुनको हृदयसे लगा लिया और उनका मुँह पोंछकर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा—॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव सुमहत् कर्म कृतवानसि फाल्गुन।
असह्यं चाविषह्यं च देवैरपि सवासवैः ॥ ४१ ॥

मूलम्

अतीव सुमहत् कर्म कृतवानसि फाल्गुन।
असह्यं चाविषह्यं च देवैरपि सवासवैः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फाल्गुन! आज तुमने बड़ा भारी कर्म कर दिखाया। इसका सम्पादन करना अथवा इसके भारको सह लेना इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी असम्भव था॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या निस्तीर्णभारोऽसि हतारिश्चासि शत्रुहन्।
दिष्ट्या सत्या प्रतिज्ञेयं कृता हत्वा जयद्रथम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

दिष्ट्या निस्तीर्णभारोऽसि हतारिश्चासि शत्रुहन्।
दिष्ट्या सत्या प्रतिज्ञेयं कृता हत्वा जयद्रथम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन! आज तुम अपने शत्रुको मारकर प्रतिज्ञाके भारसे मुक्त हो गये। यह सौभाग्यकी बात है। हर्षका विषय है कि तुमने जयद्रथको मारकर अपनी यह प्रतिज्ञा सत्य कर दिखायी’॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा गुडाकेशं धर्मराजो महायशाः।
पस्पर्श पुण्यगन्धेन पृष्ठे हस्तेन पार्थिवः ॥ ४३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा गुडाकेशं धर्मराजो महायशाः।
पस्पर्श पुण्यगन्धेन पृष्ठे हस्तेन पार्थिवः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महायशस्वी धर्मराज राजा युधिष्ठिरने निद्राविजयी अर्जुनसे ऐसा कहकर उनकी पीठपर पवित्र सुगन्धसे युक्त अपना हाथ फेरा॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तौ महात्मानावुभौ केशवपाण्डवौ ।
तावब्रूतां तदा कृष्णौ राजानं पृथिवीपतिम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

एवमुक्तौ महात्मानावुभौ केशवपाण्डवौ ।
तावब्रूतां तदा कृष्णौ राजानं पृथिवीपतिम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ऐसा कहनेपर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुनने उस समय उन पृथ्वीपति नरेशसे इस प्रकार कहा—॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव कोपाग्निना दग्धः पापो राजा जयद्रथः।
उत्तीर्णं चापि सुमहद् धार्तराष्ट्रबलं रणे ॥ ४५ ॥

मूलम्

तव कोपाग्निना दग्धः पापो राजा जयद्रथः।
उत्तीर्णं चापि सुमहद् धार्तराष्ट्रबलं रणे ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! पापी राजा जयद्रथ आपकी क्रोधाग्निसे दग्ध हो गया है तथा रणभूमिमें दुर्योधनकी विशाल सेनासे पार पाना भी आपकी कृपासे ही सम्भव हुआ है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यन्ते निहताश्चैव विनङ्क्ष्यन्ति च भारत।
तव क्रोधहता ह्येते कौरवाः शत्रुसूदन ॥ ४६ ॥

मूलम्

हन्यन्ते निहताश्चैव विनङ्क्ष्यन्ति च भारत।
तव क्रोधहता ह्येते कौरवाः शत्रुसूदन ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! शत्रुसूदन! ये सारे कौरव आपके क्रोधसे ही नष्ट होकर मारे गये हैं, मारे जाते हैं और भविष्यमें भी मारे जायँगे॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां हि चक्षुर्हणं वीरं कोपयित्वा सुयोधनः।
समित्रबन्धुः समरे प्राणांस्त्यक्ष्यति दुर्मतिः ॥ ४७ ॥

मूलम्

त्वां हि चक्षुर्हणं वीरं कोपयित्वा सुयोधनः।
समित्रबन्धुः समरे प्राणांस्त्यक्ष्यति दुर्मतिः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्रोधपूर्ण दृष्टिपातमात्रसे विरोधीको दग्ध कर देनेवाले आप-जैसे वीरको कुपित करके दुर्बुद्धि दुर्योधन अपने मित्रों और वन्धुओंके साथ समरभूमिमें प्राणोंका परित्याग कर देगा॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव क्रोधहतः पूर्वं देवैरपि सुदुर्जयः।
शरतल्पगतः शेते भीष्मः कुरुपितामहः ॥ ४८ ॥

मूलम्

तव क्रोधहतः पूर्वं देवैरपि सुदुर्जयः।
शरतल्पगतः शेते भीष्मः कुरुपितामहः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनपर विजय पाना पहले देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन था, वे कुरुकुलके पितामह भीष्म आपके क्रोधसे ही दग्ध होकर इस समय बाणशय्यापर सो रहे हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्लभो विजयस्तेषां संग्रामे रिपुसूदन।
याता मृत्युवशं ते वै येषां क्रुद्धोऽसि पाण्डव ॥ ४९ ॥

मूलम्

दुर्लभो विजयस्तेषां संग्रामे रिपुसूदन।
याता मृत्युवशं ते वै येषां क्रुद्धोऽसि पाण्डव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन पाण्डुनन्दन! आप जिनपर कुपित हैं, उनके लिये युद्धमें विजय दुर्लभ है। वे निश्चय ही मृत्युके वशमें हो गये हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं प्राणाः श्रियः पुत्राः सौख्यानि विविधानि च।
अचिरात् तस्य नश्यन्ति येषां क्रुद्धोऽसि मानद ॥ ५० ॥

मूलम्

राज्यं प्राणाः श्रियः पुत्राः सौख्यानि विविधानि च।
अचिरात् तस्य नश्यन्ति येषां क्रुद्धोऽसि मानद ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरोंको मान देनेवाले नरेश! जिनपर आपका क्रोध हुआ है, उनके राज्य, प्राण, सम्पत्ति, पुत्र तथा नाना प्रकारके सौख्य शीघ्र नष्ट हो जायँगे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनष्टान् कौरवान् मन्ये सपुत्रपशुबान्धवान्।
राजधर्मपरे नित्यं त्वयि क्रुद्धे परंतप ॥ ५१ ॥

मूलम्

विनष्टान् कौरवान् मन्ये सपुत्रपशुबान्धवान्।
राजधर्मपरे नित्यं त्वयि क्रुद्धे परंतप ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर! सदा राजधर्मके पालनमें तत्पर रहनेवाले आपके कुपित होनेपर मैं कौरवोंको पुत्र, पशु तथा बन्धु-बान्धवोंसहित नष्ट हुआ ही मानता हूँ’॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः।
अभिवाद्य गुरुं ज्येष्ठं मार्गणैः क्षतविक्षतौ ॥ ५२ ॥
क्षितावास्तां महेष्वासौ पाञ्चाल्यैः परिवारितौ।
तौ दृष्ट्वा मुदितौ वीरौ प्राञ्जली चाग्रतः स्थितौ ॥ ५३ ॥
अभ्यनन्दत कौन्तेयस्तावुभौ भीमसात्यकी ।

मूलम्

ततो भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः।
अभिवाद्य गुरुं ज्येष्ठं मार्गणैः क्षतविक्षतौ ॥ ५२ ॥
क्षितावास्तां महेष्वासौ पाञ्चाल्यैः परिवारितौ।
तौ दृष्ट्वा मुदितौ वीरौ प्राञ्जली चाग्रतः स्थितौ ॥ ५३ ॥
अभ्यनन्दत कौन्तेयस्तावुभौ भीमसात्यकी ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर, बाणोंसे क्षत-विक्षत हुए महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि अपने ज्येष्ठ गुरु युधिष्ठिरको प्रणाम करके भूमिपर खड़े हो गये। पांचालोंसे घिरे हुए उन दोनों महाधनुर्धर वीरोंको प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़े सामने खड़े देख कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने भीम और सात्यकि दोनोंका अभिनन्दन किया॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या पश्यामि वां शूरौ विमुक्तौ सैन्यसागरात् ॥ ५४ ॥
द्रोणग्राहदुराधर्षाद्धार्दिक्यमकरालयात् ।

मूलम्

दिष्ट्या पश्यामि वां शूरौ विमुक्तौ सैन्यसागरात् ॥ ५४ ॥
द्रोणग्राहदुराधर्षाद्धार्दिक्यमकरालयात् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोले—‘बड़े सौभाग्यकी बात है कि मैं तुम दोनों शूरवीरोंको शत्रुसेनाके समुद्रसे पार हुआ देख रहा हूँ। वह सैन्यसागर द्रोणाचार्यरूपी ग्राहके कारण दुर्धर्ष है और कृतवर्मा जैसे मगरोंका वासस्थान बना हुआ है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या विनिर्जिताः संख्ये पृथिव्यां सर्वपार्थिवाः ॥ ५५ ॥
युवां विजयिनौ चापि दिष्ट्या पश्यामि संयुगे।

मूलम्

दिष्ट्या विनिर्जिताः संख्ये पृथिव्यां सर्वपार्थिवाः ॥ ५५ ॥
युवां विजयिनौ चापि दिष्ट्या पश्यामि संयुगे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धमें सारे भूपाल पराजित हो गये और संग्राम-भूमिमें मैं तुम दोनोंको विजयी देख रहा हूँ—यह बड़े हर्षका विषय है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या द्रोणोजितः संख्ये हार्दिक्यश्च महाबलः ॥ ५६ ॥
दिष्ठ्या विकर्णिभिः कर्णो रणे नीतः पराभवम्।
विमुखश्च कृतः शल्यो युवाभ्यां पुरुषर्षभौ ॥ ५७ ॥

मूलम्

दिष्ट्या द्रोणोजितः संख्ये हार्दिक्यश्च महाबलः ॥ ५६ ॥
दिष्ठ्या विकर्णिभिः कर्णो रणे नीतः पराभवम्।
विमुखश्च कृतः शल्यो युवाभ्यां पुरुषर्षभौ ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमारे सौभाग्यसे ही आचार्य द्रोण और महाबली कृतवर्मा युद्धमें परास्त हो गये। भाग्यसे ही कर्ण भी तुम्हारे बाणोंद्वारा रणक्षेत्रमें पराभवको पहुँच गया। नरश्रेष्ठ वीरो! तुम दोनोंने राजा शल्यको भी युद्धसे विमुख कर दिया॥५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या युवां कुशलिनौ संग्रामात् पुनरागतौ।
पश्यामि रथिनां श्रेष्ठावुभौ युद्धविशारदौ ॥ ५८ ॥

मूलम्

दिष्ट्या युवां कुशलिनौ संग्रामात् पुनरागतौ।
पश्यामि रथिनां श्रेष्ठावुभौ युद्धविशारदौ ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रथियोंमें श्रेष्ठ तथा युद्धमें कुशल तुम दोनों वीरोंको मैं पुनः रणभूमिसे सकुशल लौटा हुआ देख रहा हूँ—यह मेरे लिये बड़े आनन्दकी बात है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम वाक्यकरौ वीरौ मम गौरवयन्त्रितौ।
सैन्यार्णवं समुत्तीर्णौ दिष्ट्या पश्यामि वामहम् ॥ ५९ ॥

मूलम्

मम वाक्यकरौ वीरौ मम गौरवयन्त्रितौ।
सैन्यार्णवं समुत्तीर्णौ दिष्ट्या पश्यामि वामहम् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे प्रति गौरवसे बँधकर मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले तुम दोनों वीरोंको मैं सैन्य-समुद्रसे पार हुआ देख रहा हूँ, यह सौभाग्यका विषय है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समरश्लाघिनौ वीरौ समरेष्वपराजितौ ।
मम वाक्यसमौ चैव दिष्ट्या पश्यामि वामहम् ॥ ६० ॥

मूलम्

समरश्लाघिनौ वीरौ समरेष्वपराजितौ ।
मम वाक्यसमौ चैव दिष्ट्या पश्यामि वामहम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम दोनों वीर मेरे कथनके अनुरूप ही युद्धकी श्लाघा रखनेवाले तथा समरांगणमें पराजित न होनेवाले हो। सौभाग्यसे मैं तुम दोनोंको यहाँ सकुशल देख रहा हूँ’॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पाण्डवो राजन् युयुधानवृकोदरौ।
सस्वजे पुरुषव्याघ्रौ हर्षाद् वाष्पं मुमोच ह ॥ ६१ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पाण्डवो राजन् युयुधानवृकोदरौ।
सस्वजे पुरुषव्याघ्रौ हर्षाद् वाष्पं मुमोच ह ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पुरुषसिंह सात्यकि और भीमसेनसे ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने उन दोनोंको हृदयसे लगा लिया और वे हर्षके आँसू बहाने लगे॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रमुदितं सर्वं बलमासीद् विशाम्पते।
पाण्डवानां रणे हृष्टं युद्धाय तु मनो दधे ॥ ६२ ॥

मूलम्

ततः प्रमुदितं सर्वं बलमासीद् विशाम्पते।
पाण्डवानां रणे हृष्टं युद्धाय तु मनो दधे ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! तदनन्तर पाण्डवोंकी सारी सेनाने युद्धस्थलमें प्रसन्न एवं उत्साहित होकर संग्राममें ही मन लगाया॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि युधिष्ठिरहर्षे एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें युधिष्ठिरका हर्षविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४९॥