भागसूचना
सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनके बाणोंसे कृपाचार्यका मूर्च्छित होना, अर्जुनका खेद तथा कर्ण और सात्यकिका युद्ध एवं कर्णकी पराजय
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना।
मामका यदकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिन् विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना।
मामका यदकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! सव्यसाची अर्जुनके द्वारा वीर सिंधुराजके मारे जानेपर मेरे पुत्रोंने क्या किया? यह मुझे बताओ॥१॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा रणे पार्थेन भारत।
अमर्षवशमापन्नः कृपः शारद्वतस्ततः ॥ २ ॥
महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्।
द्रौणिश्चाभ्यद्रवद् राजन् रथमास्थाय फाल्गुनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा रणे पार्थेन भारत।
अमर्षवशमापन्नः कृपः शारद्वतस्ततः ॥ २ ॥
महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्।
द्रौणिश्चाभ्यद्रवद् राजन् रथमास्थाय फाल्गुनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— भरतनन्दन! सिंधुराजको अर्जुनके द्वारा रणभूमिमें मारा गया देख शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्य अमर्षके वशीभूत हो बाणकी भारी वर्षा करके पाण्डुपुत्र अर्जुनको आच्छादित करने लगे। राजन्! द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने भी रथपर बैठकर अर्जुनपर धावा किया॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावेतौ रथिनां श्रेष्ठौ रथाभ्यां रथसत्तमौ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तावेतौ रथिनां श्रेष्ठौ रथाभ्यां रथसत्तमौ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओंसे आकर अर्जुनपर पैने बाणोंकी वर्षा करने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्भ्यां महाभुजः।
पीड्यमानः परामार्तिमगमद् रथिनां वरः ॥ ५ ॥
मूलम्
स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्भ्यां महाभुजः।
पीड्यमानः परामार्तिमगमद् रथिनां वरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार दो दिशाओंसे होनेवाली उस भारी बाणवर्षासे पीड़ित हो रथियोंमें श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुन अत्यन्त व्यथित हो उठे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽजिघांसुर्गुरुं संख्ये गुरोस्तनयमेव च।
चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ ६ ॥
मूलम्
सोऽजिघांसुर्गुरुं संख्ये गुरोस्तनयमेव च।
चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे युद्धस्थलमें गुरु तथा गुरुपुत्रका वध करना नहीं चाहते थे। अतः कुन्तीपुत्र धनंजयने वहाँ अपने आचार्यका सम्मान किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणेः शारद्वतस्य च।
मन्दवेगानिषूंस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत् ॥ ७ ॥
मूलम्
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणेः शारद्वतस्य च।
मन्दवेगानिषूंस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने अस्त्रोंद्वारा अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यके अस्त्रोंका निवारण करके उनका वध करनेकी इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेगवाले बाण चलाये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते चापि भृशमभ्यघ्नन् विशिखाः पार्थचोदिताः।
बहुत्वात् तु परामार्तिं शराणां तावगच्छताम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ते चापि भृशमभ्यघ्नन् विशिखाः पार्थचोदिताः।
बहुत्वात् तु परामार्तिं शराणां तावगच्छताम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके चलाये हुए उन बाणोंकी संख्या अधिक होनेके कारण उनके द्वारा उन दोनोंको भारी चोट पहुँची। वे बड़ी वेदनाका अनुभव करने लगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शारद्वतो राजन् कौन्तेयशरपीडितः।
अवासीदद् रथोपस्थे मूर्च्छामभिजगाम ह ॥ ९ ॥
मूलम्
अथ शारद्वतो राजन् कौन्तेयशरपीडितः।
अवासीदद् रथोपस्थे मूर्च्छामभिजगाम ह ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कृपाचार्य अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित हो मूर्च्छित हो गये और रथके पिछले भागमें जा बैठे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारं शरपीडितम्।
हतोऽयमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत् ॥ १० ॥
मूलम्
विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारं शरपीडितम्।
हतोऽयमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने स्वामीको बाणोंसे पीड़ित एवं विह्वल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझकर सारथि रणभूमिसे दूर हटा ले गया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि।
अश्वत्थामाप्यपायासीत् पाण्डवेयाद् रथान्तरम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्मिन् भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि।
अश्वत्थामाप्यपायासीत् पाण्डवेयाद् रथान्तरम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! युद्धस्थलमें शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्यके अचेत होकर वहाँसे हट जानेपर अश्वत्थामा भी अर्जुनको छोड़कर दूसरे किसी रथीका सामना करनेके लिये चला गया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा शारद्वतं पार्थो मूर्च्छितं शरपीडितम्।
रथ एव महेष्वासः सकृपं पर्यदेवयत् ॥ १२ ॥
अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचनं चेदमब्रवीत्।
मूलम्
दृष्ट्वा शारद्वतं पार्थो मूर्च्छितं शरपीडितम्।
रथ एव महेष्वासः सकृपं पर्यदेवयत् ॥ १२ ॥
अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचनं चेदमब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्यको बाणोंसे पीड़ित एवं मूर्च्छित देखकर महाधनुर्धर कुन्तीकुमार अर्जुन दयावश रथपर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे। उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। वे दीनभावसे इस प्रकार कहने लगे—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यन्निदं महाप्राज्ञः क्षत्ता राजानमुक्तवान् ॥ १३ ॥
कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः ॥ १४ ॥
अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भसम्।
मूलम्
पश्यन्निदं महाप्राज्ञः क्षत्ता राजानमुक्तवान् ॥ १३ ॥
कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः ॥ १४ ॥
अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भसम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधनका जन्म हुआ था, उस समय महाज्ञानी विदुरजीने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्रसे कहा था कि ‘इस कुलांगार बालकको परलोक भेज दिया जाय, यही अच्छा होगा; क्योंकि इससे प्रधान-प्रधान कुरुवंशियोंको महान् भय उत्पन्न होगा’॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः ॥ १५ ॥
तत्कृते ह्यद्य पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम् ॥ १६ ॥
मूलम्
तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः ॥ १५ ॥
तत्कृते ह्यद्य पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्यवादी विदुरजीका वह कथन आज सत्य हो रहा है। दुर्योधनके ही कारण आज मैं अपने गुरुको शर-शय्यापर पड़ा देखता हूँ। क्षत्रियके आचार, बल और पुरुषार्थको धिक्कार है! धिक्कार है॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्येत मादृशः।
ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्य परमः सखा ॥ १७ ॥
एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्बाणपीडितः।
मूलम्
को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्येत मादृशः।
ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्य परमः सखा ॥ १७ ॥
एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्बाणपीडितः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे-जैसा कौन पुरुष ब्राह्मण एवं आचार्यसे द्रोह करेगा? ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य तथा गुरुवर द्रोणाचार्यके परम सखा कृप मेरे बाणोंसे पीड़ित हो रथकी बैठकमें पड़े हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भृशम् ॥ १८ ॥
अवसीदन् रथोपस्थे प्राणान् पीडयतीव मे।
मूलम्
अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भृशम् ॥ १८ ॥
अवसीदन् रथोपस्थे प्राणान् पीडयतीव मे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने इच्छा न रहते हुए भी उन्हें बाणोंद्वारा अधिक चोट पहुँचायी है। वे रथकी बैठकमें पड़े-पड़े कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यन्त पीड़ित-सा कर रहे हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रशोकाभितप्तेन शरैरभ्यर्दितेन च ॥ १९ ॥
अभ्यस्तो बहुभिर्बाणैर्दशधर्मगतेन वै ।
मूलम्
पुत्रशोकाभितप्तेन शरैरभ्यर्दितेन च ॥ १९ ॥
अभ्यस्तो बहुभिर्बाणैर्दशधर्मगतेन वै ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने पुत्रशोकसे संतप्त, बाणोंद्वारा पीड़ित तथा भारी दुरवस्थाको प्राप्त होकर बहुसंख्यक बाणोंद्वारा उन्हें अनेक बार चोट पहुँचायी है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोचयत्येष नियतं भूयः पुत्रवधाद्धि माम् ॥ २० ॥
कृपणं स्वरथे सन्नं पश्य कृष्ण यथागतम्।
मूलम्
शोचयत्येष नियतं भूयः पुत्रवधाद्धि माम् ॥ २० ॥
कृपणं स्वरथे सन्नं पश्य कृष्ण यथागतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही ये कृपाचार्य आहत होकर मुझे पुत्रवधकी अपेक्षा भी अधिक शोकमें डाल रहे हैं। श्रीकृष्ण! देखिये, वे अपने रथपर कैसे सन्न और दीन होकर पड़े हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपाकृत्य तु वै विद्यामाचार्येभ्यो नरर्षभाः ॥ २१ ॥
प्रयच्छन्तीह ये कामान् देवत्वमुपयान्ति ते।
मूलम्
उपाकृत्य तु वै विद्यामाचार्येभ्यो नरर्षभाः ॥ २१ ॥
प्रयच्छन्तीह ये कामान् देवत्वमुपयान्ति ते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आचार्योंसे विद्या ग्रहण करके जो श्रेष्ठ पुरुष उन्हें उनकी अभीष्ट वस्तुएँ देते हैं, वे देवत्वको प्राप्त होते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च विद्यामुपादाय गुरुभ्यः पुरुषाधमाः ॥ २२ ॥
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तास्ते वै निरयगामिनः।
मूलम्
ये च विद्यामुपादाय गुरुभ्यः पुरुषाधमाः ॥ २२ ॥
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तास्ते वै निरयगामिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘गुरुसे विद्या ग्रहण करके जो नराधम उनपर ही चोट करते हैं, वे दुराचारी मानव निश्चय ही नरकगामी होते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं नरकायाद्य कृतं कर्म मया ध्रुवम् ॥ २३ ॥
आचार्यं शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्।
मूलम्
तदिदं नरकायाद्य कृतं कर्म मया ध्रुवम् ॥ २३ ॥
आचार्यं शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने आचार्य कृपको अपने बाणोंकी वर्षाद्वारा रथपर सुला दिया है। निश्चय ही यह कर्म मैंने आज नरकमें जानेके लिये ही किया है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तत् पूर्वमुपाकुर्वन्नस्त्रं मामब्रवीत् कृपः ॥ २४ ॥
न कथंचन कौरव्य प्रहर्तव्यं गुराविति।
मूलम्
यत् तत् पूर्वमुपाकुर्वन्नस्त्रं मामब्रवीत् कृपः ॥ २४ ॥
न कथंचन कौरव्य प्रहर्तव्यं गुराविति।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालमें मुझे अस्त्रविद्याकी शिक्षा देकर कृपाचार्यने जो मुझसे यह कहा था कि ‘कुरुनन्दन! तुम्हें गुरुके ऊपर किसी प्रकार भी प्रहार नहीं करना चाहिये’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं वचनं साधोराचार्यस्य महात्मनः ॥ २५ ॥
नानुष्ठितं तमेवाजौ विशिखैरभिवर्षता ।
मूलम्
तदिदं वचनं साधोराचार्यस्य महात्मनः ॥ २५ ॥
नानुष्ठितं तमेवाजौ विशिखैरभिवर्षता ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन श्रेष्ठ महात्मा आचार्यका यह वचन युद्धस्थलमें उन्हींपर बाणोंकी वर्षा करके मैंने नहीं माना है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने ॥ २६ ॥
धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्यहम्।
मूलम्
नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने ॥ २६ ॥
धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्यहम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वार्ष्णेय! युद्धमें कभी पीठ न दिखानेवाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्यको मेरा नमस्कार है। मैं जो उनपर प्रहार करता हूँ, इसके लिये मुझे धिक्कार है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा विलपमाने तु सव्यसाचिनि तं प्रति ॥ २७ ॥
सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा राधेयः समुपाद्रवत्।
मूलम्
तथा विलपमाने तु सव्यसाचिनि तं प्रति ॥ २७ ॥
सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा राधेयः समुपाद्रवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
सव्यसाची अर्जुन कृपाचार्यके लिये विलाप कर ही रहे थे कि सिंधुराजको मारा गया देख राधानन्दन कर्णने उनपर धावा कर दिया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं राधेयमर्जुनस्य रथं प्रति ॥ २८ ॥
पाञ्चाल्यौ सात्यकिश्चैव सहसा समुपाद्रवन्।
मूलम्
तमापतन्तं राधेयमर्जुनस्य रथं प्रति ॥ २८ ॥
पाञ्चाल्यौ सात्यकिश्चैव सहसा समुपाद्रवन्।
अनुवाद (हिन्दी)
राधापुत्र कर्णको अर्जुनके रथकी ओर आते देख दोनों भाई पांचालराजकुमार (युधामन्यु और उत्तमौजा) तथा सात्वतवंशी सात्यकि सहसा उसकी और दौड़े॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायान्तं तु राधेयं दृष्ट्वा पार्थो महारथः ॥ २९ ॥
प्रहसन् देवकीपुत्रमिदं वचनमब्रवीत् ।
मूलम्
उपायान्तं तु राधेयं दृष्ट्वा पार्थो महारथः ॥ २९ ॥
प्रहसन् देवकीपुत्रमिदं वचनमब्रवीत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
राधापुत्रको अपने समीप आते देख महारथी कुन्तीकुमार अर्जुनने देवकीनन्दन श्रीकृष्णसे हँसते हुए कहा—॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष प्रयात्याधिरथिः सात्यकेः स्यन्दनं प्रति ॥ ३० ॥
न मृष्यति हतं नूनं भूरिश्रवसमाहवे।
मूलम्
एष प्रयात्याधिरथिः सात्यकेः स्यन्दनं प्रति ॥ ३० ॥
न मृष्यति हतं नूनं भूरिश्रवसमाहवे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह अधिरथपुत्र कर्ण सात्यकिके रथकी ओर जा रहा है। अवश्य ही युद्धस्थलमें भूरिश्रवाका मारा जाना इसके लिये असह्य हो उठा है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यात्येष तत्र त्वं चोदयाश्वान् जनार्दन ॥ ३१ ॥
न सौमदत्तिपदवीं गमयेत् सात्यकिं वृषः।
मूलम्
यत्र यात्येष तत्र त्वं चोदयाश्वान् जनार्दन ॥ ३१ ॥
न सौमदत्तिपदवीं गमयेत् सात्यकिं वृषः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! यह जहाँ जाता है, वहीं आप भी अपने घोड़ोंको हाँकिये। कहीं ऐसा न हो कि कर्ण सात्यकिको भूरिश्रवाके पथपर पहुँचा दे’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो महाबाहुः केशवः सव्यसाचिना ॥ ३२ ॥
प्रत्युवाच महातेजाः कालयुक्तमिदं वचः।
मूलम्
एवमुक्तो महाबाहुः केशवः सव्यसाचिना ॥ ३२ ॥
प्रत्युवाच महातेजाः कालयुक्तमिदं वचः।
अनुवाद (हिन्दी)
सव्यसाची अर्जुनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी महाबाहु केशवने उनसे यह समयोचित वचन कहा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलमेष महाबाहुः कर्णायैकोऽपि पाण्डव ॥ ३३ ॥
किं पुनर्द्रौपदेयाभ्यां सहितः सात्वतर्षभः।
मूलम्
अलमेष महाबाहुः कर्णायैकोऽपि पाण्डव ॥ ३३ ॥
किं पुनर्द्रौपदेयाभ्यां सहितः सात्वतर्षभः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन! यह महाबाहु सात्वतशिरोमणि सात्यकि अकेला भी कर्णके लिये पर्याप्त है। फिर इस समय जब द्रुपदके दोनों पुत्र इसके साथ हैं, तब तो कहना ही क्या है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च तावत् क्षमः पार्थ तव कर्णेन सङ्गरः॥३४॥
प्रज्वलन्ती महोल्केव तिष्ठत्यस्य हि वासवी।
मूलम्
न च तावत् क्षमः पार्थ तव कर्णेन सङ्गरः॥३४॥
प्रज्वलन्ती महोल्केव तिष्ठत्यस्य हि वासवी।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीकुमार! इस समय कर्णके साथ तुम्हारा युद्ध होना ठीक नहीं है; क्योंकि उसके पास बड़ी भारी उल्काके समान प्रज्वलित होनेवाली इन्द्रकी दी हुई शक्ति है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदर्थं पूज्यमानैषा रक्ष्यते परवीरहन् ॥ ३५ ॥
अतः कर्णः प्रयात्वत्र सात्वतस्य यथातथा।
मूलम्
त्वदर्थं पूज्यमानैषा रक्ष्यते परवीरहन् ॥ ३५ ॥
अतः कर्णः प्रयात्वत्र सात्वतस्य यथातथा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुन! तुम्हारे लिये कर्ण उसकी प्रतिदिन पूजा करते हुए उसे सदा सुरक्षित रखता है; अतः कर्ण सात्यकिके पास जैसे-तैसे जाय और युद्ध करे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं ज्ञास्यामि कौन्तेय कालमस्य दुरात्मनः।
यत्रैनं विशिखैस्तीक्ष्णैः पातयिष्यसि भूतले ॥ ३६ ॥
मूलम्
अहं ज्ञास्यामि कौन्तेय कालमस्य दुरात्मनः।
यत्रैनं विशिखैस्तीक्ष्णैः पातयिष्यसि भूतले ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीकुमार! मैं उस दुरात्माका अन्तकाल जानता हूँ, जब कि तुम अपने तीखे बाणोंद्वारा उसे पृथ्वीपर मार गिराओगे’॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ कर्णेन वीरस्य वार्ष्णेयस्य समागमः।
हते तु भूरिश्रवसि सैन्धवे च निपातिते ॥ ३७ ॥
मूलम्
योऽसौ कर्णेन वीरस्य वार्ष्णेयस्य समागमः।
हते तु भूरिश्रवसि सैन्धवे च निपातिते ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! भूरिश्रवाके मारे जाने और सिंधुराजके धराशायी किये जानेपर कर्णके साथ वीरवर सात्यकिका जो संग्राम हुआ, वह कैसा था?॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिश्चापि विरथः कं समारूढवान् रथम्।
चक्ररक्षौ च पाञ्चाल्यौ तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ३८ ॥
मूलम्
सात्यकिश्चापि विरथः कं समारूढवान् रथम्।
चक्ररक्षौ च पाञ्चाल्यौ तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! सात्यकि भी तो रथहीन हो चुके थे। वे किस रथपर आरूढ़ हुए तथा चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा इन दोनों पांचाल वीरोंने किसके साथ युद्ध किया? यह सब मुझे बताओ॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त ते वर्तयिष्यामि यथा वृत्तं महारणे।
शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा दुराचरितमात्मनः ॥ ३९ ॥
मूलम्
हन्त ते वर्तयिष्यामि यथा वृत्तं महारणे।
शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा दुराचरितमात्मनः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! मैं बड़े खेदके साथ उस महासमरमें घटित हुई घटनाओंका आपके समक्ष वर्णन करूँगा। आप स्थिर होकर अपने दुराचारका परिणाम सुनें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमेव हि कृष्णस्य मनोगतमिदं प्रभो।
विजेतव्यो यथा वीरः सात्यकिः सौमदत्तिना ॥ ४० ॥
मूलम्
पूर्वमेव हि कृष्णस्य मनोगतमिदं प्रभो।
विजेतव्यो यथा वीरः सात्यकिः सौमदत्तिना ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! भगवान् श्रीकृष्णके मनमें पहले ही यह बात आ गयी थी कि आज वीर सात्यकिको सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा परास्त कर देगा॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीतानागते राजन् स हि वेत्ति जनार्दनः।
ततः सूतं समाहूय दारुकं संदिदेश ह ॥ ४१ ॥
रथो मे युज्यतां कल्यमिति राजन् महाबलः।
न हि देवा न गन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः ॥ ४२ ॥
मानवा वापि जेतारः कृष्णयोः सन्ति केचन।
मूलम्
अतीतानागते राजन् स हि वेत्ति जनार्दनः।
ततः सूतं समाहूय दारुकं संदिदेश ह ॥ ४१ ॥
रथो मे युज्यतां कल्यमिति राजन् महाबलः।
न हि देवा न गन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः ॥ ४२ ॥
मानवा वापि जेतारः कृष्णयोः सन्ति केचन।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे जनार्दन भूत और भविष्य दोनों कालोंको जानते हैं। इसीलिये उन्होंने अपने सारथि दारुकको बुलाकर पहले ही दिन यह आज्ञा दे दी थी कि कल सबेरेसे ही मेरा रथ जोतकर तैयार रखना। महाराज! श्रीकृष्णका बल महान् है। श्रीकृष्ण और अर्जुनको परास्त करनेवाले न तो कोई देवता हैं, न गन्धर्व हैं, न यक्ष, नाग तथा राक्षस हैं और न मनुष्य ही हैं॥४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहपुरोगाश्च देवाः सिद्धाश्च तं विदुः ॥ ४३ ॥
तयोः प्रभावमतुलं शृणु युद्धं तु तत् तथा।
मूलम्
पितामहपुरोगाश्च देवाः सिद्धाश्च तं विदुः ॥ ४३ ॥
तयोः प्रभावमतुलं शृणु युद्धं तु तत् तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें ब्रह्मा आदि देवता और सिद्ध पुरुष ही यथार्थ रूपसे जान पाते हैं। उन दोनोंके प्रभावकी कहीं तुलना नहीं है। अच्छा, अब युद्धका वृत्तान्त सुनिये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिं विरथं दृष्ट्वा कर्णं चाभ्युद्यतं रणे ॥ ४४ ॥
दध्मौ शङ्खं महानादमार्षभेणाथ माधवः।
मूलम्
सात्यकिं विरथं दृष्ट्वा कर्णं चाभ्युद्यतं रणे ॥ ४४ ॥
दध्मौ शङ्खं महानादमार्षभेणाथ माधवः।
अनुवाद (हिन्दी)
सात्यकिको रथहीन और कर्णको युद्धके लिये उद्यत देख भगवान् श्रीकृष्णने बड़े जोरकी ध्वनि करनेवाले शंखको ऋषभस्वरसे बजाया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारुकोऽवेत्य संदेशं श्रुत्वा शङ्खस्य च स्वनम् ॥ ४५ ॥
रथमन्वानयत् तस्मै सुपर्णोच्छ्रितकेतनम् ।
मूलम्
दारुकोऽवेत्य संदेशं श्रुत्वा शङ्खस्य च स्वनम् ॥ ४५ ॥
रथमन्वानयत् तस्मै सुपर्णोच्छ्रितकेतनम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
दारुकने उस शंखध्वनिको सुनकर भगवान्के संदेशको स्मरण करके तुरंत ही उनके लिये अपना रथ ला दिया, जिसपर गरुड़चिह्नसे युक्त ऊँची ध्वजा फहरा रही थी॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स केशवस्यानुमते रथं दारुकसंयुतम् ॥ ४६ ॥
आरुरोह शिनेः पौत्रो ज्वलनादित्यसंनिभम्।
मूलम्
स केशवस्यानुमते रथं दारुकसंयुतम् ॥ ४६ ॥
आरुरोह शिनेः पौत्रो ज्वलनादित्यसंनिभम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमति पाकर शिनिपौत्र सात्यकि दारुकद्वारा जोते हुए अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी उस रथपर आरूढ़ हुए॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामगैः शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकैः ॥ ४७ ॥
हयोदग्रैर्महावेगैर्हेमभाण्डविभूषितैः ।
युक्तं समारुह्य च तं विमानप्रतिमं रथम् ॥ ४८ ॥
अभ्यद्रवत राधेयं प्रवपन् सायकान् बहून्।
मूलम्
कामगैः शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकैः ॥ ४७ ॥
हयोदग्रैर्महावेगैर्हेमभाण्डविभूषितैः ।
युक्तं समारुह्य च तं विमानप्रतिमं रथम् ॥ ४८ ॥
अभ्यद्रवत राधेयं प्रवपन् सायकान् बहून्।
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें इच्छानुसार चलनेवाले महान् वेगशाली और सुवर्णमय अलंकारोंसे विभूषित शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामवाले श्रेष्ठ अश्व जुते हुए थे। वह रथ विमानके समान जान पड़ता था। उसपर आरूढ़ होकर बहुत-से बाणोंकी वर्षा करते हुए सात्यकिने राधापुत्र कर्णपर धावा किया॥४७-४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्ररक्षावपि तदा युधामन्यूत्तमौजसौ ॥ ४९ ॥
धनंजयरथं हित्वा राधेयं प्रत्युदीयतुः।
मूलम्
चक्ररक्षावपि तदा युधामन्यूत्तमौजसौ ॥ ४९ ॥
धनंजयरथं हित्वा राधेयं प्रत्युदीयतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजाने भी धनंजयका रथ छोड़कर कर्णपर ही आक्रमण किया॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राधेयोऽपि महाराज शरवर्षं समुत्सृजन् ॥ ५० ॥
अभ्यद्रवत् सुसंक्रुद्धो रणे शैनेयमच्युतम्।
मूलम्
राधेयोऽपि महाराज शरवर्षं समुत्सृजन् ॥ ५० ॥
अभ्यद्रवत् सुसंक्रुद्धो रणे शैनेयमच्युतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए कर्णने भी उस युद्धस्थलमें अपनी मर्यादासे च्युत न होनेवाले सात्यकिपर बाणोंकी वर्षा करते हुए धावा किया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव दैवं न गान्धर्वं नासुरं न च राक्षसम्॥५१॥
तादृशं भुवि नो युद्धं दिवि वा श्रुतमित्युत।
मूलम्
नैव दैवं न गान्धर्वं नासुरं न च राक्षसम्॥५१॥
तादृशं भुवि नो युद्धं दिवि वा श्रुतमित्युत।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मैंने इस पृथ्वीपर या स्वर्गमें देवताओं, गन्धर्वों, असुरों तथा राक्षसोंका भी वैसा युद्ध नहीं सुना था॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपारमत तत् सैन्यं सरथाश्वनरद्विपम् ॥ ५२ ॥
तयोर्दृष्ट्वा महाराज कर्म सम्मूढचेतसः।
सर्वे च समपश्यन्त तद् युद्धमतिमानुषम् ॥ ५३ ॥
तयोर्नृवरयो राजन् सारथ्यं दारुकस्य च।
मूलम्
उपारमत तत् सैन्यं सरथाश्वनरद्विपम् ॥ ५२ ॥
तयोर्दृष्ट्वा महाराज कर्म सम्मूढचेतसः।
सर्वे च समपश्यन्त तद् युद्धमतिमानुषम् ॥ ५३ ॥
तयोर्नृवरयो राजन् सारथ्यं दारुकस्य च।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उन दोनोंका वह संग्राम देखकर सबके चित्तमें मोह छा गया। राजन्! सभी दर्शकके समान उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंके उस अतिमानव युद्धको और दारुकके सारथ्य कर्मको देखने लगे। हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्योंसे युक्त वह चतुरंगिणी सेना भी युद्धसे उपरत हो गयी थी॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतप्रत्यागतावृत्तैर्मण्डलैः संनिवर्तनैः ॥ ५४ ॥
सारथेस्तु रथस्थस्य काश्यपेयस्य विस्मिताः।
नभस्तलगताश्चैव देवगन्धर्वदानवाः ॥ ५५ ॥
अतीवावहिता द्रष्टुं कर्णशैनेययो रणम्।
मित्रार्थे तौ पराक्रान्तौ शुष्मिणौ स्पर्धिनौ रणे ॥ ५६ ॥
मूलम्
गतप्रत्यागतावृत्तैर्मण्डलैः संनिवर्तनैः ॥ ५४ ॥
सारथेस्तु रथस्थस्य काश्यपेयस्य विस्मिताः।
नभस्तलगताश्चैव देवगन्धर्वदानवाः ॥ ५५ ॥
अतीवावहिता द्रष्टुं कर्णशैनेययो रणम्।
मित्रार्थे तौ पराक्रान्तौ शुष्मिणौ स्पर्धिनौ रणे ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथपर बैठे हुए कश्यपगोत्रीय सारथि दारुकके रथ-संचालनकी गमन, प्रत्यागमन, आवर्तन, मण्डल तथा संनिवर्तन आदि विविध रीतियोंसे आकाशमें खड़े हुए देवता, गन्धर्व और दानव भी चकित हो उठे तथा कर्ण और सात्यकिके युद्धको देखनेके लिये अत्यन्त सावधान हो गये। वे दोनों बलवान् वीर रणभूमिमें एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए अपने-अपने मित्रके लिये पराक्रम दिखा रहे थे॥५४-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णश्चामरसंकाशो युयुधानश्च सात्यकिः ।
अन्योन्यं तौ महाराज शरवर्षैरवर्षताम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
कर्णश्चामरसंकाशो युयुधानश्च सात्यकिः ।
अन्योन्यं तौ महाराज शरवर्षैरवर्षताम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! देवताओंके समान तेजस्वी कर्ण तथा सत्यकपुत्र युयुधान दोनों एक-दूसरेपर बाणोंकी बौछार करने लगे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रममाथ शिनेः पौत्रं कर्णः सायकवृष्टिभिः।
अमृष्यमाणो निधनं कौरव्यजलसंधयोः ॥ ५८ ॥
मूलम्
प्रममाथ शिनेः पौत्रं कर्णः सायकवृष्टिभिः।
अमृष्यमाणो निधनं कौरव्यजलसंधयोः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने भूरिश्रवा और जलसंधके वधको सहन न करनेके कारण अपने बाणोंकी वर्षासे शिनिपौत्र सात्यकिको मथ डाला॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णः शोकसमाविष्टो महोरग इव श्वसन्।
स शैनेयं रणे क्रुद्धः प्रदहन्निव चक्षुषा ॥ ५९ ॥
अभ्यधावत वेगेन पुनः पुनररिंदम।
मूलम्
कर्णः शोकसमाविष्टो महोरग इव श्वसन्।
स शैनेयं रणे क्रुद्धः प्रदहन्निव चक्षुषा ॥ ५९ ॥
अभ्यधावत वेगेन पुनः पुनररिंदम।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! कर्ण उन दोनोंकी मृत्युसे शोकमग्न हो फुफकारते हुए महान् सर्पकी भाँति लंबी साँसें खींच रहा था। वह युद्धमें क्रुद्ध हो अपने नेत्रोंसे सात्यकिकी ओर इस प्रकार देख रहा था, मानो वह उन्हें जलाकर भस्म कर देगा। उसने बारंबार वेगपूर्वक सात्यकिपर धावा किया॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु सक्रोधमालोक्य सात्यकिः प्रत्ययुध्यत ॥ ६० ॥
महता शरवर्षेण गजं प्रति गजो यथा।
मूलम्
तं तु सक्रोधमालोक्य सात्यकिः प्रत्ययुध्यत ॥ ६० ॥
महता शरवर्षेण गजं प्रति गजो यथा।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णको कुपित देख सात्यकि बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा करते हुए उसका सामना करने लगे, मानो एक हाथी दूसरे हाथीसे लड़ रहा हो॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ समेतौ नरव्याघ्रौ व्याघ्राविव तरस्विनौ ॥ ६१ ॥
अन्योन्यं संततक्षाते रणेऽनुपमविक्रमौ ।
मूलम्
तौ समेतौ नरव्याघ्रौ व्याघ्राविव तरस्विनौ ॥ ६१ ॥
अन्योन्यं संततक्षाते रणेऽनुपमविक्रमौ ।
अनुवाद (हिन्दी)
वेगशाली व्याघ्रोंके समान परस्पर भिड़े हुए वे दोनों पुरुषसिंह युद्धमें अनुपम पराक्रम दिखाते हुए एक-दूसरेको क्षत-विक्षत कर रहे थे॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कर्णं शिनेः पौत्रः सर्वपारसवैः शरैः ॥ ६२ ॥
बिभेद सर्वगात्रेषु पुनः पुनररिंदम।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ६३ ॥
मूलम्
ततः कर्णं शिनेः पौत्रः सर्वपारसवैः शरैः ॥ ६२ ॥
बिभेद सर्वगात्रेषु पुनः पुनररिंदम।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले महाराज! तदनन्तर शिनिपौत्र सात्यकिने सम्पूर्णतः लोहमय बाणोंद्वारा कर्णको उसके सारे अंगोंमें बारंबार चोट पहुँचायी और एक भल्लद्वारा उसके सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया॥६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वांश्च चतुरः श्वेतान् निजघान शितैः शरैः।
छित्त्वा ध्वजं रथं चैव शतधा पुरुषर्षभ ॥ ६४ ॥
चकार विरथं कर्णं तव पुत्रस्य पश्यतः।
मूलम्
अश्वांश्च चतुरः श्वेतान् निजघान शितैः शरैः।
छित्त्वा ध्वजं रथं चैव शतधा पुरुषर्षभ ॥ ६४ ॥
चकार विरथं कर्णं तव पुत्रस्य पश्यतः।
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! इसके बाद सात्यकिने तीखे बाणोंद्वारा कर्णके चारों श्वेत घोड़ोंको मार डाला और उसके ध्वजको काटकर रथके सैकड़ों टुकड़े करके आपके पुत्रके देखते-देखते कर्णको रथहीन कर दिया॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विमनसो राजंस्तावकास्ते महारथाः ॥ ६५ ॥
वृषसेनः कर्णसुतः शल्यो मद्राधिपस्तथा।
द्रोणपुत्रश्च शैनेयं सर्वतः पर्यवारयन् ॥ ६६ ॥
मूलम्
ततो विमनसो राजंस्तावकास्ते महारथाः ॥ ६५ ॥
वृषसेनः कर्णसुतः शल्यो मद्राधिपस्तथा।
द्रोणपुत्रश्च शैनेयं सर्वतः पर्यवारयन् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इससे खिन्नचित्त होकर आपके महारथी वीर कर्णपुत्र वृषसेन, मद्रराज शल्य तथा द्रोणकुमार अश्वत्थामाने सात्यकिको सब ओरसे घेर लिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पर्याकुलं सर्वं न प्राज्ञायत किंचन।
तथा सात्यकिना वीरे विरथे सूतजे कृते ॥ ६७ ॥
मूलम्
ततः पर्याकुलं सर्वं न प्राज्ञायत किंचन।
तथा सात्यकिना वीरे विरथे सूतजे कृते ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात्यकिके द्वारा वीरवर सूतपुत्र कर्णके रथहीन कर दिये जानेपर सारा सैन्यदल सब ओरसे व्याकुल हो उठा। किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता था॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकारस्ततो राजन् सर्वसैन्येष्वभून्महान् ।
कर्णोऽपि विरथो राजन् सात्वतेन कृतः शरैः ॥ ६८ ॥
दुर्योधनरथं तूर्णमारुरोह विनिःश्वसन् ।
मूलम्
हाहाकारस्ततो राजन् सर्वसैन्येष्वभून्महान् ।
कर्णोऽपि विरथो राजन् सात्वतेन कृतः शरैः ॥ ६८ ॥
दुर्योधनरथं तूर्णमारुरोह विनिःश्वसन् ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय सारी सेनाओंमें महान् हाहाकार होने लगा। महाराज! सात्यकिके बाणोंसे रथहीन किया गया कर्ण भी लंबी साँस खींचता हुआ तुरंत ही दुर्योधनके रथपर जा बैठा॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानयंस्तव पुत्रस्य बाल्यात् प्रभृति सौहृदम् ॥ ६९ ॥
कृतां राज्यप्रदानेन प्रतिज्ञां परिपालयन्।
मूलम्
मानयंस्तव पुत्रस्य बाल्यात् प्रभृति सौहृदम् ॥ ६९ ॥
कृतां राज्यप्रदानेन प्रतिज्ञां परिपालयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
बचपनसे लेकर सदा ही किये हुए आपके पुत्रके सौहार्दका वह समादर करता था और दुर्योधनको राज्य दिलानेकी जो उसने प्रतिज्ञा कर रखी थी, उसके पालनमें वह तत्पर था॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तु विरथं कर्णं पुत्रांश्च तव पार्थिव ॥ ७० ॥
दुःशासनमुखान् वीरान् नावधीत् सात्यकिर्वशी।
रक्षन् प्रतिज्ञां भीमेन पार्थेन च पुराकृताम् ॥ ७१ ॥
मूलम्
तथा तु विरथं कर्णं पुत्रांश्च तव पार्थिव ॥ ७० ॥
दुःशासनमुखान् वीरान् नावधीत् सात्यकिर्वशी।
रक्षन् प्रतिज्ञां भीमेन पार्थेन च पुराकृताम् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अपने मनको वशमें करनेवाले सात्यकिने रथहीन हुए कर्णको तथा दुःशासन आदि आपके वीर पुत्रोंको भी उस समय इसलिये नहीं मारा कि वे भीमसेन और अर्जुनकी पहलेसे की हुई प्रतिज्ञाकी रक्षा कर रहे थे॥७०-७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरथान् विह्वलांश्चक्रे न तु प्राणैर्व्ययोजयत्।
भीमसेनेन तु वधः पुत्राणां ते प्रतिश्रुतः ॥ ७२ ॥
अनुद्यूते च पार्थेन वधः कर्णस्य संश्रुतः।
मूलम्
विरथान् विह्वलांश्चक्रे न तु प्राणैर्व्ययोजयत्।
भीमसेनेन तु वधः पुत्राणां ते प्रतिश्रुतः ॥ ७२ ॥
अनुद्यूते च पार्थेन वधः कर्णस्य संश्रुतः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने उन सबको रथहीन और अत्यन्त व्याकुल तो कर दिया, परंतु उनके प्राण नहीं लिये। जब दुबारा द्यूत हुआ था, उस समय भीमसेनने आपके पुत्रोंके वधकी प्रतिज्ञा की थी और अर्जुनने कर्णको मार डालनेकी घोषणा की थी॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधे त्वकुर्वन् यत्नं ते तस्य कर्णमुखास्तदा ॥ ७३ ॥
नाशक्नुवंस्ततो हन्तुं सात्यकिं प्रवरा रथाः।
मूलम्
वधे त्वकुर्वन् यत्नं ते तस्य कर्णमुखास्तदा ॥ ७३ ॥
नाशक्नुवंस्ततो हन्तुं सात्यकिं प्रवरा रथाः।
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण आदि श्रेष्ठ महारथियोंने सात्यकिके वधके लिये पूरा प्रयत्न किया; परंतु वे उन्हें मार न सके॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणिश्च कृतवर्मा च तथैवान्ये महारथाः ॥ ७४ ॥
निर्जिता धनुषैकेन शतशः क्षत्रियर्षभाः।
काङ्क्षता परलोकं च धर्मराजस्य च प्रियम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
द्रौणिश्च कृतवर्मा च तथैवान्ये महारथाः ॥ ७४ ॥
निर्जिता धनुषैकेन शतशः क्षत्रियर्षभाः।
काङ्क्षता परलोकं च धर्मराजस्य च प्रियम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वत्थामा, कृतवर्मा, अन्यान्य महारथी तथा सैकड़ों क्षत्रियशिरोमणि सात्यकिद्वारा एकमात्र धनुषसे परास्त कर दिये गये। सात्यकि धर्मराजका प्रिय करना और परलोकपर विजय पाना चाहते थे॥७४-७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णयोः सदृशो वीर्ये सात्यकिः शत्रुतापनः।
जितवान् सर्वसैन्यानि तावकानि हसन्निव ॥ ७६ ॥
मूलम्
कृष्णयोः सदृशो वीर्ये सात्यकिः शत्रुतापनः।
जितवान् सर्वसैन्यानि तावकानि हसन्निव ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको संताप देनेवाले सात्यकि श्रीकृष्ण और अर्जुनके समान पराक्रमी थे। उन्होंने आपकी सारी सेनाओंको हँसते हुए-से जीत लिया था॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णो वापि भवेल्लोके पार्थो वापि धनुर्धरः।
शैनेयो वा नरव्याघ्र चतुर्थस्तु न विद्यते ॥ ७७ ॥
मूलम्
कृष्णो वापि भवेल्लोके पार्थो वापि धनुर्धरः।
शैनेयो वा नरव्याघ्र चतुर्थस्तु न विद्यते ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरव्याघ्र! संसारमें श्रीकृष्ण, कुन्तीकुमार अर्जुन और शिनिपौत्र सात्यकि—ये तीन ही वास्तवमें धनुर्धर हैं। इनके समान चौथा कोई नहीं है॥७७॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजय्यं वासुदेवस्य रथमास्थाय सात्यकिः।
विरथं कृतवान् कर्णं वासुदेवसमो युधि ॥ ७८ ॥
दारुकेण समायुक्तः स्वबाहुबलदर्पितः ।
कच्चिदन्यं समारूढः सात्यकिः शत्रुतापनः ॥ ७९ ॥
मूलम्
अजय्यं वासुदेवस्य रथमास्थाय सात्यकिः।
विरथं कृतवान् कर्णं वासुदेवसमो युधि ॥ ७८ ॥
दारुकेण समायुक्तः स्वबाहुबलदर्पितः ।
कच्चिदन्यं समारूढः सात्यकिः शत्रुतापनः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! सात्यकि युद्धमें भगवान् श्रीकृष्णके समान हैं। उन्होंने श्रीकृष्णके ही अजेय रथपर आरूढ़ होकर कर्णको रथहीन कर दिया। उस समय उनके साथ दारुक-जैसा सारथि था और उन्हें अपने बाहुबलका अभिमान तो था ही; परंतु शत्रुओंको संताप देनेवाले सात्यकि क्या किसी दूसरे रथपर भी आरूढ़ हुए थे?॥७८-७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छाम्यहं श्रीतुं कुशलो ह्यसि भाषितुम्।
असह्यं तमहं मन्ये तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ८० ॥
मूलम्
एतदिच्छाम्यहं श्रीतुं कुशलो ह्यसि भाषितुम्।
असह्यं तमहं मन्ये तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं यह सुनना चाहता हूँ। तुम कथा कहनेमें बड़े कुशल हो। मैं तो सात्यकिको किसीके लिये भी असह्य मानता हूँ, अतः संजय! तुम मुझसे सारी बातें स्पष्ट रूपसे बताओ॥८०॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् यथावृत्तं रथमन्यं महामतिः।
दारुकस्यानुजस्तूर्णं कल्पनाविधिकल्पितम् ॥ ८१ ॥
मूलम्
शृणु राजन् यथावृत्तं रथमन्यं महामतिः।
दारुकस्यानुजस्तूर्णं कल्पनाविधिकल्पितम् ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— राजन्! सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे सुनिये। दारुकका एक छोटा भाई था, जो बड़ा बुद्धिमान् था। वह तुरंत ही रथ सजानेकी विधिसे सुसज्जित किया हुआ एक दूसरा रथ ले आया॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयसैः काञ्चनैश्चापि पट्टैः संनद्धकूबरम्।
तारासहस्रखचितं सिंहध्वजपताकिनम् ॥ ८२ ॥
मूलम्
आयसैः काञ्चनैश्चापि पट्टैः संनद्धकूबरम्।
तारासहस्रखचितं सिंहध्वजपताकिनम् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोहे और सोनेके पट्टोंसे उसका कूबर अच्छी तरह कसा हुआ था। उसमें सहस्रों तारे जड़े गये थे। उसकी ध्वजा-पताकाओंमें सिंहका चिह्न बना हुआ था॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वैर्वातजवैर्युक्तं हेमभाण्डपरिच्छदैः ।
सैन्धवैरिन्दुसंकाशैः सर्वशब्दातिगैर्दृढैः ॥ ८३ ॥
मूलम्
अश्वैर्वातजवैर्युक्तं हेमभाण्डपरिच्छदैः ।
सैन्धवैरिन्दुसंकाशैः सर्वशब्दातिगैर्दृढैः ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस रथमें सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित, वायुके समान वेगशाली, सम्पूर्ण शब्दोंको लाँघ जानेवाले, सुदृढ़ तथा चन्द्रमाके समान श्वेतवर्ण सिन्धी घोड़े जुते हुए थे॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रकाञ्चनसंनाहैर्वाजिमुख्यैर्विशाम्पते ।
घण्टाजालाकुलरवं शक्तितोमरविद्युतम् ॥ ८४ ॥
मूलम्
चित्रकाञ्चनसंनाहैर्वाजिमुख्यैर्विशाम्पते ।
घण्टाजालाकुलरवं शक्तितोमरविद्युतम् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उन घोड़ोंको विचित्र स्वर्णमय कवचोंसे सुसज्जित किया गया था। वे सभी अश्व अच्छी श्रेणीके थे। उनसे जुते हुए उस रथमें क्षुद्र घंटिकाओंके समूहसे निकलती हुई मधुर ध्वनि व्याप्त हो रही थी। वहाँ रखे हुए शक्ति और तोमर आदि शस्त्र विद्युत्के समान प्रकाशित होते थे॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्तं सांग्रामिकैर्द्रव्यैर्बहुशस्त्रपरिच्छदैः ।
रथं सम्पादयामास मेघगम्भीरनिःस्वनम् ॥ ८५ ॥
मूलम्
युक्तं सांग्रामिकैर्द्रव्यैर्बहुशस्त्रपरिच्छदैः ।
रथं सम्पादयामास मेघगम्भीरनिःस्वनम् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें बहुत-से अस्त्र-शस्त्र आदि युद्धोपयोगी आवश्यक सामान एवं द्रव्य यथास्थान रखे गये थे। उस रथके चलनेपर मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर शब्द होता था। दारुकका छोटा भाई उस रथको सात्यकिके पास ले आया॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं समारुह्य शैनेयस्तव सैन्यमुपाद्रवत्।
दारुकोऽपि यथाकामं प्रययौ केशवान्तिकम् ॥ ८६ ॥
मूलम्
तं समारुह्य शैनेयस्तव सैन्यमुपाद्रवत्।
दारुकोऽपि यथाकामं प्रययौ केशवान्तिकम् ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात्यकिने उसीपर आरूढ़ होकर आपकी सेनापर आक्रमण किया। दारुक भी इच्छानुसार भगवान् श्रीकृष्णके निकट चला गया॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्यापि रथं राजन् शंखगोक्षीरपाण्डुरैः।
चित्रकाञ्चनसंनाहैः सदश्वैर्वेगवत्तरैः ॥ ८७ ॥
मूलम्
कर्णस्यापि रथं राजन् शंखगोक्षीरपाण्डुरैः।
चित्रकाञ्चनसंनाहैः सदश्वैर्वेगवत्तरैः ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कर्णके लिये भी एक सुन्दर रथ लाया गया, जिसमें शंख और गोदुग्धके समान श्वेतवर्णवाले, विचित्र सुवर्णमय कवचसे सुसज्जित और अत्यन्त वेगशाली श्रेष्ठ अश्व जुते हुए थे॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेमकक्ष्याध्वजोपेतं क्लृप्तयन्त्रपताकिनम् ।
अग्र्यं रथं सुयन्तारं बहुशस्त्रपरिच्छदम् ॥ ८८ ॥
मूलम्
हेमकक्ष्याध्वजोपेतं क्लृप्तयन्त्रपताकिनम् ।
अग्र्यं रथं सुयन्तारं बहुशस्त्रपरिच्छदम् ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें सुवर्णमयी रज्जुसे आवेष्टित ध्वजा फहरा रही थी। वह रथ यन्त्र और पताकाओंसे सुशोभित था। उसके भीतर बहुत-से अस्त्र-शस्त्र आदि आवश्यक सामान रखे गये थे। उस श्रेष्ठ रथका सारथि भी सुयोग्य था॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपाजह्रुस्तमास्थाय कर्णोऽप्यभ्यद्रवद् रिपून् ।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिमृच्छसि ॥ ८९ ॥
मूलम्
उपाजह्रुस्तमास्थाय कर्णोऽप्यभ्यद्रवद् रिपून् ।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिमृच्छसि ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनके सेवक वह रथ लेकर आये और कर्णने उसके ऊपर आरूढ़ होकर शत्रुओंपर धावा किया। राजन्! आप मुझसे जो कुछ पूछ रहे थे, वह सब मैंने आपको बता दिया॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयश्चापि निबोधेमं तवापनयजं क्षयम्।
एकत्रिंशत् तव सुता भीमसेनेन पातिताः ॥ ९० ॥
दुर्मुखं प्रमुखे कृत्वा सततं चित्रयोधिनम्।
मूलम्
भूयश्चापि निबोधेमं तवापनयजं क्षयम्।
एकत्रिंशत् तव सुता भीमसेनेन पातिताः ॥ ९० ॥
दुर्मुखं प्रमुखे कृत्वा सततं चित्रयोधिनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अब पुनः आपके ही अन्यायसे होनेवाले इस महान् जनसंहारका वृत्तान्त सुनिये। भीमसेनने अबतक सदा विचित्र युद्ध करनेवाले दुर्मुख आदि आपके इकतीस पुत्रोंको मार गिराया है॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतशो निहताः शूराः सात्वतेनार्जुनेन च ॥ ९१ ॥
भीष्मं प्रमुखतः कृत्वा भगदत्तं च भारत।
एवमेष क्षयो वृत्तो राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ९२ ॥
मूलम्
शतशो निहताः शूराः सात्वतेनार्जुनेन च ॥ ९१ ॥
भीष्मं प्रमुखतः कृत्वा भगदत्तं च भारत।
एवमेष क्षयो वृत्तो राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इसी प्रकार सात्यकि और अर्जुनने भी भीष्म और भगदत्त आदि सैकड़ों शूरवीरोंका संहार कर डाला है। राजन्! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणाके फलस्वरूप यह विनाश-कार्य सम्पन्न हुआ है॥९१-९२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि कर्णसात्यकियुद्धे सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें कर्ण और सात्यकिका युद्धविषयक एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४७॥