भागसूचना
षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनका अद्भुत पराक्रम और सिन्धुराज जयद्रथका वध
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा निनादं धनुषश्च तस्य
विस्पष्टमुत्क्रुष्टमिवान्तकस्य ।
शक्राशनिस्फोटसमं सुघोरं
विकृष्यमाणस्य धनंजयेन ॥ १ ॥
त्रासोद्विग्नं तथोद्भ्रान्तं त्वदीयं तद् बलं नृप।
युगान्तवातसंक्षुब्धं चलद्वीचितरङ्गितम् ॥ २ ॥
प्रलीनमीनमकरं सागराम्भ इवाभवत् ।
मूलम्
श्रुत्वा निनादं धनुषश्च तस्य
विस्पष्टमुत्क्रुष्टमिवान्तकस्य ।
शक्राशनिस्फोटसमं सुघोरं
विकृष्यमाणस्य धनंजयेन ॥ १ ॥
त्रासोद्विग्नं तथोद्भ्रान्तं त्वदीयं तद् बलं नृप।
युगान्तवातसंक्षुब्धं चलद्वीचितरङ्गितम् ॥ २ ॥
प्रलीनमीनमकरं सागराम्भ इवाभवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! उस समय अर्जुनके द्वारा खींचे जानेवाले गाण्डीव धनुषकी अत्यन्त भयंकर टंकार यमराजकी सुस्पष्ट गर्जना तथा इन्द्रके वज्रकी गड़गड़ाहटके समान जान पड़ती थी। उसे सुनकर आपकी सेना भयसे उद्विग्न हो बड़ी घबराहटमें पड़ गयी। उस समय उसकी दशा प्रलयकालकी आँधीसे क्षोभको प्राप्त एवं उत्ताल तरंगोंसे परिपूर्ण हुए उस महासागरके जलकी-सी हो गयी, जिसमें मछली और मगर आदि जलजन्तु छिप जाते हैं॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रणे व्यचरत् पार्थः प्रेक्षमाणो धनंजयः ॥ ३ ॥
युगपद् दिक्षु सर्वासु सर्वाण्यस्त्राणि दर्शयन्।
मूलम्
स रणे व्यचरत् पार्थः प्रेक्षमाणो धनंजयः ॥ ३ ॥
युगपद् दिक्षु सर्वासु सर्वाण्यस्त्राणि दर्शयन्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस रणक्षेत्रमें कुन्तीकुमार अर्जुन एक साथ सम्पूर्ण दिशाओंमें देखते और सब प्रकारके अस्त्रोंका कौशल दिखाते हुए विचर रहे थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आददानं महाराज संदधानं च पाण्डवम् ॥ ४ ॥
उत्कर्षन्तं सृजन्तं च न स्म पश्याम लाघवात्।
मूलम्
आददानं महाराज संदधानं च पाण्डवम् ॥ ४ ॥
उत्कर्षन्तं सृजन्तं च न स्म पश्याम लाघवात्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय अर्जुनकी अद्भुत फुर्तीके कारण हमलोग यह नहीं देख पाते थे कि वे कब बाण निकालते हैं, कब उसे धनुषपर रखते हैं, कब धनुषको खींचते हैं और कब बाण छोड़ते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो महाबाहुरैन्द्रमस्त्रं दुरासदम् ॥ ५ ॥
प्रादुश्चक्रे महाराज त्रासयन् सर्वभारतान्।
मूलम्
ततः क्रुद्धो महाबाहुरैन्द्रमस्त्रं दुरासदम् ॥ ५ ॥
प्रादुश्चक्रे महाराज त्रासयन् सर्वभारतान्।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तदनन्तर महाबाहु अर्जुनने कुपित हो कौरव-सेनाके समस्त सैनिकोंको भयभीत करते हुए दुर्धर्ष इन्द्रास्त्रको प्रकट किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शराः प्रादुरासन् दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रिताः ॥ ६ ॥
प्रदीप्ताश्च शिखिमुखाः शतशोऽथ सहस्रशः।
मूलम्
ततः शराः प्रादुरासन् दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रिताः ॥ ६ ॥
प्रदीप्ताश्च शिखिमुखाः शतशोऽथ सहस्रशः।
अनुवाद (हिन्दी)
इससे दिव्यास्त्रसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित सैकड़ों तथा सहस्रों प्रज्वलित अग्निमुख बाण प्रकट होने लगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकर्णपूर्णनिर्मुक्तैरग्न्यर्कांशुनिभैः शरैः ॥ ७ ॥
नभोऽभवत् तद् दुष्प्रेक्ष्यमुल्काभिरिव संवृतम्।
मूलम्
आकर्णपूर्णनिर्मुक्तैरग्न्यर्कांशुनिभैः शरैः ॥ ७ ॥
नभोऽभवत् तद् दुष्प्रेक्ष्यमुल्काभिरिव संवृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
धनुषको कानतक खींचकर छोड़े गये अग्निशिखा तथा सूर्यकिरणोंके समान तेजस्वी बाणोंसे भरा हुआ आकाश उल्काओंसे व्याप्त-सा जान पड़ता था। उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शस्त्रान्धकारं तत् कौरवैः समुदीरितम् ॥ ८ ॥
अशक्यं मनसाप्यन्यैः पाण्डवः सम्भ्रमन्निव।
नाशयामास विक्रम्य शरैर्दिव्यास्त्रमन्त्रितैः ॥ ९ ॥
नैशं तमोंऽशुभिः क्षिप्रं दिनादाविव भास्करः।
मूलम्
ततः शस्त्रान्धकारं तत् कौरवैः समुदीरितम् ॥ ८ ॥
अशक्यं मनसाप्यन्यैः पाण्डवः सम्भ्रमन्निव।
नाशयामास विक्रम्य शरैर्दिव्यास्त्रमन्त्रितैः ॥ ९ ॥
नैशं तमोंऽशुभिः क्षिप्रं दिनादाविव भास्करः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कौरवोंने अस्त्र-शस्त्रोंकी इतनी वर्षा की कि वहाँ अँधेरा छा गया। दूसरे कोई योद्धा उस अन्धकारको नष्ट करनेका विचार भी मनमें नहीं ला सकते थे; परंतु पाण्डुपुत्र अर्जुनने बड़ी शीघ्रता-सी करते हुए दिव्यास्त्रसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित बाणोंसे पराक्रमपूर्वक उसे नष्ट कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे प्रातःकालमें सूर्य अपनी किरणोंद्वारा रात्रिके अन्धकारको शीघ्र नष्ट कर देते हैं॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु तावकं सैन्यं दीप्तैः शरगभस्तिभिः ॥ १० ॥
आक्षिपत् पल्वलाम्बूनि निदाघार्क इव प्रभुः।
मूलम्
ततस्तु तावकं सैन्यं दीप्तैः शरगभस्तिभिः ॥ १० ॥
आक्षिपत् पल्वलाम्बूनि निदाघार्क इव प्रभुः।
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् जैसे ग्रीष्म-ऋतुके शक्तिशाली सूर्य छोटे-छोटे गड्ढोंके पानीको शीघ्र ही सुखा देते हैं, उसी प्रकार सामर्थ्यशाली अर्जुनरूपी सूर्यने अपनी बाणमयी प्रज्वलित किरणोंद्वारा आपकी सेनारूपी जलको शीघ्र ही सोख लिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दिव्यास्त्रविदुषा प्रहिताः सायकांशवः ॥ ११ ॥
समाप्लवन् द्विषत्सैन्यं लोकं भानोरिवांशवः।
मूलम्
ततो दिव्यास्त्रविदुषा प्रहिताः सायकांशवः ॥ ११ ॥
समाप्लवन् द्विषत्सैन्यं लोकं भानोरिवांशवः।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता अर्जुनरूपी सूर्यकी छिटकायी हुई बाणरूपी किरणोंने शत्रुओंकी सेनाको उसी प्रकार आप्लावित कर दिया, जैसे सूर्यकी रश्मियाँ सारे जगत्को व्याप्त कर लेती हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापरे समुत्सृष्टा विशिखास्तिग्मतेजसः ॥ १२ ॥
हृदयान्याशु वीराणां विविशुः प्रियबन्धुवत्।
मूलम्
अथापरे समुत्सृष्टा विशिखास्तिग्मतेजसः ॥ १२ ॥
हृदयान्याशु वीराणां विविशुः प्रियबन्धुवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अर्जुनके छोड़े हुए दूसरे प्रचण्ड तेजस्वी बाण वीर योद्धाओंके हृदयमें प्रिय बन्धुकी भाँति शीघ्र ही प्रवेश करने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एनमीयुः समरे त्वद्योधाः शूरमानिनः ॥ १३ ॥
शलभा इव ते दीप्तमग्निं प्राप्य ययुः क्षयम्।
मूलम्
य एनमीयुः समरे त्वद्योधाः शूरमानिनः ॥ १३ ॥
शलभा इव ते दीप्तमग्निं प्राप्य ययुः क्षयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें अपनेको शूरवीर माननेवाले आपके जो-जो योद्धा अर्जुनके सामने गये, वे जलती आगमें पड़े हुए पतंगोंके समान नष्ट हो गये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स मृद्नन् शत्रूणां जीवितानि यशांसि च ॥ १४ ॥
पार्थश्चचार संग्रामे मृत्युर्विग्रहवानिव ।
मूलम्
एवं स मृद्नन् शत्रूणां जीवितानि यशांसि च ॥ १४ ॥
पार्थश्चचार संग्रामे मृत्युर्विग्रहवानिव ।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन शत्रुओंके जीवन और यशको धूलमें मिलाते हुए मूर्तिमान् मृत्युके समान संग्रामभूमिमें विचरण करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकिरीटानि वक्त्राणि साङ्गदान् विपुलान् भुजान् ॥ १५ ॥
सकुण्डलयुगान् कर्णान् केषांचिदहरच्छरैः ।
मूलम्
सकिरीटानि वक्त्राणि साङ्गदान् विपुलान् भुजान् ॥ १५ ॥
सकुण्डलयुगान् कर्णान् केषांचिदहरच्छरैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने बाणोंसे किन्हीं शत्रुओंके मुकुटमण्डित मस्तकों, किन्हींके बाजूबंदविभूषित विशाल भुजाओं तथा किन्हींके दो कुण्डलोंसे अलंकृत दोनों कानोंको काट गिराते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतोमरान् गजस्थानां सप्रासान् हयसादिनाम् ॥ १६ ॥
सचर्मणः पदातीनां रथीनां च सधन्वनः।
सप्रतोदान् नियन्तॄणां बाहूंश्चिच्छेद पाण्डवः ॥ १७ ॥
मूलम्
सतोमरान् गजस्थानां सप्रासान् हयसादिनाम् ॥ १६ ॥
सचर्मणः पदातीनां रथीनां च सधन्वनः।
सप्रतोदान् नियन्तॄणां बाहूंश्चिच्छेद पाण्डवः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुकुमार अर्जुनने हाथीसवारोंकी तोमरयुक्त, घुड़सवारोंकी प्रासयुक्त, पैदल सिपाहियोंकी ढालयुक्त, रथियोंकी धनुषयुक्त और सारथियोंकी चाबुकसहित भुजाओंको काट डाला॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदीप्तोग्रशरार्चिष्मान् बभौ तत्र धनंजयः।
सविस्फुलिङ्गाग्रशिखो ज्वलन्निव हुताशनः ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रदीप्तोग्रशरार्चिष्मान् बभौ तत्र धनंजयः।
सविस्फुलिङ्गाग्रशिखो ज्वलन्निव हुताशनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्दीप्त एवं उग्र बाणरूपी शिखाओंसे युक्त तेजस्वी अर्जुन वहाँ चिनगारियों और लपटोंसे युक्त प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं देवराजप्रतिमं सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
युगपद् दिक्षु सर्वासु रथस्थं पुरुषर्षभम् ॥ १९ ॥
निक्षिपन्तं महास्त्राणि प्रेक्षणीयं धनंजयम्।
नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुर्ज्यातलनादिनम् ॥ २० ॥
निरीक्षितुं न शेकुस्ते यत्नवन्तोऽपि पार्थिवाः।
मध्यंदिनगतं सूर्यं प्रतपन्तमिवाम्बरे ॥ २१ ॥
मूलम्
तं देवराजप्रतिमं सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
युगपद् दिक्षु सर्वासु रथस्थं पुरुषर्षभम् ॥ १९ ॥
निक्षिपन्तं महास्त्राणि प्रेक्षणीयं धनंजयम्।
नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुर्ज्यातलनादिनम् ॥ २० ॥
निरीक्षितुं न शेकुस्ते यत्नवन्तोऽपि पार्थिवाः।
मध्यंदिनगतं सूर्यं प्रतपन्तमिवाम्बरे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रके समान रथपर बैठे हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ नरश्रेष्ठ अर्जुन एक ही साथ सम्पूर्ण दिशाओंमें महान् अस्त्रोंका प्रहार करते हुए सबके लिये दर्शनीय हो रहे थे। वे अपने धनुषकी टंकार करते हुए रथके मार्गोंपर नृत्य-सा कर रहे थे। जैसे आकाशमें तपते हुए दोपहरके सूर्यकी ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार उनकी ओर राजालोग यत्न करनेपर भी देख नहीं पाते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीप्तोग्रसम्भृतशरः किरीटी विरराज ह।
वर्षास्विवोदीर्णजलः सेन्द्रधन्वाम्बुदो महान् ॥ २२ ॥
मूलम्
दीप्तोग्रसम्भृतशरः किरीटी विरराज ह।
वर्षास्विवोदीर्णजलः सेन्द्रधन्वाम्बुदो महान् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रज्वलित एवं भयंकर बाण लिये किरीटधारी अर्जुन वर्षा-ऋतुमें अधिक जलसे भरे हुए इन्द्रधनुषसहित महामेघके समान सुशोभित हो रहे थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महास्त्रसम्प्लवे तस्मिन् जिष्णुना सम्प्रवर्तिते।
सुदुस्तरे महाघोरे ममज्जुर्योधपुङ्गवाः ॥ २३ ॥
मूलम्
महास्त्रसम्प्लवे तस्मिन् जिष्णुना सम्प्रवर्तिते।
सुदुस्तरे महाघोरे ममज्जुर्योधपुङ्गवाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धस्थलमें अर्जुनने बड़े-बड़े अस्त्रोंकी ऐसी बाढ़ ला दी थी, जो परम दुस्तर और अत्यन्त भयंकर थी। उसमें कौरवदलके बहुसंख्यक श्रेष्ठ योद्धा डूब गये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्कृत्तवदनैर्देहैः शरीरैः कृत्तबाहुभिः ।
भुजैश्च पाणिनिर्मुक्तैः पाणिभिर्व्यङ्गुलीकृतैः ॥ २४ ॥
कृत्ताग्रहस्तैः करिभिः कृत्तदन्तैर्मदोत्कटैः ।
हयैश्च विधुरग्रीवै रथैश्च शकलीकृतैः ॥ २५ ॥
निकृत्तान्त्रैः कृत्तपादैस्तथान्यैः कृत्तसंधिभिः ।
निश्चेष्टैर्विस्फुरद्भिश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २६ ॥
मृत्योराघातललितं तत्पार्थायोधनं महत् ।
अपश्याम महीपाल भीरूणां भयवर्धनम् ॥ २७ ॥
आक्रीडमिव रुद्रस्य पुराभ्यर्दयतः पशून्।
मूलम्
उत्कृत्तवदनैर्देहैः शरीरैः कृत्तबाहुभिः ।
भुजैश्च पाणिनिर्मुक्तैः पाणिभिर्व्यङ्गुलीकृतैः ॥ २४ ॥
कृत्ताग्रहस्तैः करिभिः कृत्तदन्तैर्मदोत्कटैः ।
हयैश्च विधुरग्रीवै रथैश्च शकलीकृतैः ॥ २५ ॥
निकृत्तान्त्रैः कृत्तपादैस्तथान्यैः कृत्तसंधिभिः ।
निश्चेष्टैर्विस्फुरद्भिश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २६ ॥
मृत्योराघातललितं तत्पार्थायोधनं महत् ।
अपश्याम महीपाल भीरूणां भयवर्धनम् ॥ २७ ॥
आक्रीडमिव रुद्रस्य पुराभ्यर्दयतः पशून्।
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! अर्जुनका वह महान् युद्ध मृत्युका क्रीडास्थल बना हुआ था, जो शस्त्रोंके आघातसे ही सुन्दर लगता था। वहाँ बहुत-सी ऐसी लाशें पड़ी थीं, जिनके मस्तक कट गये थे और भुजाएँ काट दी गयी थीं। बहुत-सी ऐसी भुजाएँ दृष्टिगोचर होती थीं, जिनके हाथ नष्ट हो गये थे और बहुत-से हाथ भी अंगुलियोंसे शून्य थे। कितने ही मदोन्मत्त हाथी धराशायी हो गये थे। जिनकी सूँड़के अग्रभाग और दाँत काट डाले गये थे। बहुतेरे घोड़ोंकी गर्दनें उड़ा दी गयी थीं और रथोंके टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये थे। किन्हींकी आँतें कट गयी थीं, किन्हींके पाँव काट डाले गये थे तथा कुछ दूसरे लोगोंकी संधियाँ (अंगोंके जोड़) खण्डित हो गयी थीं। कुछ लोग निश्चेष्ट हो गये थे और कुछ पड़े-पड़े छटपटा रहे थे। इनकी संख्या सैकड़ों तथा सहस्रों थी। हमने देखा कि वह युद्धस्थल कायरोंके लिये भयवर्धक हो रहा है। मानो पूर्व (प्रयल) कालमें पशुओं (जीवों) को पीड़ा देनेवाले रुद्रदेवका क्रीडास्थल हो॥२४—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजानां क्षुरनिर्मुक्तैः करैः सभुजगेव भूः ॥ २८ ॥
क्वचिद् बभौ स्रग्विणीव वक्त्रपद्मैः समाचिता।
मूलम्
गजानां क्षुरनिर्मुक्तैः करैः सभुजगेव भूः ॥ २८ ॥
क्वचिद् बभौ स्रग्विणीव वक्त्रपद्मैः समाचिता।
अनुवाद (हिन्दी)
क्षुरसे कटे हुए हाथियोंके शुण्डदण्डोंसे यह पृथ्वी सर्पयुक्त-सी जान पड़ती थी। कहीं-कहीं योद्धाओंके मुखकमलोंसे व्याप्त होनेके कारण रणभूमि कमलपुष्पोंकी मालाओंसे अलंकृत-सी प्रतीत होती थी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचित्रोष्णीषमुकुटैः केयूराङ्गदकुण्डलैः ॥ २९ ॥
स्वर्णचित्रतनुत्रैश्च भाण्डैश्च गजवाजिनाम् ।
किरीटशतसंकीर्णा तत्र तत्र समाचिता ॥ ३० ॥
विरराज भृशं चित्रा मही नववधूरिव।
मूलम्
विचित्रोष्णीषमुकुटैः केयूराङ्गदकुण्डलैः ॥ २९ ॥
स्वर्णचित्रतनुत्रैश्च भाण्डैश्च गजवाजिनाम् ।
किरीटशतसंकीर्णा तत्र तत्र समाचिता ॥ ३० ॥
विरराज भृशं चित्रा मही नववधूरिव।
अनुवाद (हिन्दी)
विचित्र पगड़ी, मुकुट, केयूर, अंगद, कुण्डल, स्वर्णजटित कवच, हाथी-घोड़ोंके आभूषण तथा सैकड़ों किरीटोंसे यत्र-तत्र आच्छादित हुई वह युद्धभूमि नववधूके समान अत्यन्त अद्भुत शोभासे सुशोभित हो रही थी॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मज्जामेदःकर्दमिनीं शोणितौघतरङ्गिणीम् ॥ ३१ ॥
मर्मास्थिभिरगाधां च केशशैवलशाद्वलाम् ।
शिरोबाहूपलतटां रुग्णक्रोडास्थिसंकटाम् ॥ ३२ ॥
चित्रध्वजपताकाढ्यां छत्रचापोर्मिमालिनीम् ।
विगतासुमहाकायां गजदेहाभिसंकुलाम् ॥ ३३ ॥
रथोडुपशताकीर्णां हयसंघातरोधसम् ।
रथचक्रयुगेषाक्षकूबरैरतिदुर्गमाम् ॥ ३४ ॥
प्रासासिशक्तिपरशुविशिखाहिदुरासदाम् ।
बलकङ्कमहानक्रां गोमायुमकरोत्कटाम् ॥ ३५ ॥
गृध्रोदग्रमहाग्राहां शिवाविरुतभैरवाम् ।
नृत्यत्प्रेतपिशाचाद्यैर्भूताकीर्णां सहस्रशः ॥ ३६ ॥
गतासुयोधनिश्चेष्टशरीरशतवाहिनीम् ।
महाप्रतिभयां रौद्रां घोरां वैतरणीमिव ॥ ३७ ॥
नदीं प्रवर्तयामास भीरूणां भयवर्धिनीम्।
मूलम्
मज्जामेदःकर्दमिनीं शोणितौघतरङ्गिणीम् ॥ ३१ ॥
मर्मास्थिभिरगाधां च केशशैवलशाद्वलाम् ।
शिरोबाहूपलतटां रुग्णक्रोडास्थिसंकटाम् ॥ ३२ ॥
चित्रध्वजपताकाढ्यां छत्रचापोर्मिमालिनीम् ।
विगतासुमहाकायां गजदेहाभिसंकुलाम् ॥ ३३ ॥
रथोडुपशताकीर्णां हयसंघातरोधसम् ।
रथचक्रयुगेषाक्षकूबरैरतिदुर्गमाम् ॥ ३४ ॥
प्रासासिशक्तिपरशुविशिखाहिदुरासदाम् ।
बलकङ्कमहानक्रां गोमायुमकरोत्कटाम् ॥ ३५ ॥
गृध्रोदग्रमहाग्राहां शिवाविरुतभैरवाम् ।
नृत्यत्प्रेतपिशाचाद्यैर्भूताकीर्णां सहस्रशः ॥ ३६ ॥
गतासुयोधनिश्चेष्टशरीरशतवाहिनीम् ।
महाप्रतिभयां रौद्रां घोरां वैतरणीमिव ॥ ३७ ॥
नदीं प्रवर्तयामास भीरूणां भयवर्धिनीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कायरोंका भय बढ़ानेवाली वैतरणीके समान एक अत्यन्त भयंकर रौद्र और घोर रक्तकी नदी बहा दी, जो प्राणशून्य योद्धाओंके सैकड़ों निश्चेष्ट शरीरोंको बहाये लिये जाती थी। मज्जा और मेद ही उसकी कीचड़ थे। उसमें रक्तका ही प्रवाह था और रक्तकी ही तरंगें उठती थीं। वीरोंके मर्मस्थान एवं हड्डियोंसे व्याप्त हुई वह नदी अगाध जान पड़ती थी। केश ही उस नदीके सेवार और घास थे। योद्धाओंके कटे हुए मस्तक और भुजाएँ ही किनारेके छोटे-छोटे प्रस्तरखण्डोंका काम देती थीं। टूटी हुई छातीकी हड्डियोंसे वह दुर्गम हो रही थी। विचित्र ध्वज और पताकाएँ उसके भीतर पड़ी हुई थीं। छत्र और धनुषरूपी तरंगमालाओंसे वह अलंकृत थी। प्राणशून्य प्राणी ही उसके विशाल शरीरके अवयव थे, हाथियोंकी लाशोंसे वह भरी हुई थी, रथरूपी सैकड़ों नौकाएँ उसपर तैर रही थीं, घोड़ोंके समूह उसके तट थे, रथके पहिये, जूए, ईषादण्ड, धुरी और कूबर आदिके कारण वह नदी अत्यन्त दुर्गम जान पड़ती थी। प्रास, खड्ग, शक्ति, फरसे और बाणरूपी सर्पोंसे युक्त होनेके कारण उसके भीतर प्रवेश करना कठिन था। कौए और कंक आदि जन्तु उसके भीतर निवास करनेवाले बड़े-बड़े नक्र (घड़ियाल) थे। गीदड़रूपी मगरोंके निवाससे उसकी उग्रता और बढ़ गयी थी। गीध ही उसमें प्रचण्ड एवं बड़े-बड़े ग्राह थे। गीदड़ियोंके चीत्कारसे वह नदी बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। नाचते हुए प्रेत-पिशाचादि सहस्रों भूतोंसे वह व्याप्त थी॥३१—३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा तस्य विक्रान्तमन्तकस्येव रूपिणः ॥ ३८ ॥
अभूतपूर्वं कुरुषु भयमागाद् रणाजिरे।
मूलम्
तं दृष्ट्वा तस्य विक्रान्तमन्तकस्येव रूपिणः ॥ ३८ ॥
अभूतपूर्वं कुरुषु भयमागाद् रणाजिरे।
अनुवाद (हिन्दी)
समरांगणमें मूर्तिमान् यमराजके समान अर्जुनके उस अभूतपूर्व पराक्रमको देखकर कौरवोंपर भय छा गया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आदाय वीराणामस्त्रैरस्त्राणि पाण्डवः ॥ ३९ ॥
आत्मानं रौद्रमाचष्ट रौद्रकर्मण्यधिष्ठितः ।
मूलम्
तत आदाय वीराणामस्त्रैरस्त्राणि पाण्डवः ॥ ३९ ॥
आत्मानं रौद्रमाचष्ट रौद्रकर्मण्यधिष्ठितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पाण्डुकुमार अर्जुन अपने अस्त्रोंद्वारा विपक्षी वीरोंके अस्त्र लेकर रौद्रकर्ममें तत्पर हो अपनेको रौद्र सूचित करने लगे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रथवरान् राजन्नत्यतिक्रामदर्जुनः ॥ ४० ॥
मध्यंदिनगतं सूर्यं प्रतपन्तमिवाम्बरे ।
न शेकुः सर्वभूतानि पाण्डवं प्रतिवीक्षितुम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
ततो रथवरान् राजन्नत्यतिक्रामदर्जुनः ॥ ४० ॥
मध्यंदिनगतं सूर्यं प्रतपन्तमिवाम्बरे ।
न शेकुः सर्वभूतानि पाण्डवं प्रतिवीक्षितुम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तत्पश्चात् अर्जुन बड़े-बड़े रथियोंको लाँघकर आगे बढ़ गये। उस समय आकाशमें तपते हुए दोपहरके सूर्यके समान पाण्डुपुत्र अर्जुनकी ओर सम्पूर्ण प्राणी देख नहीं पाते थे॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसृतांस्तस्य गाण्डीवाच्छरव्रातान् महात्मनः ।
संग्रामे सम्प्रपश्यामो हंसपङ्क्तिमिवाम्बरे ॥ ४२ ॥
मूलम्
प्रसृतांस्तस्य गाण्डीवाच्छरव्रातान् महात्मनः ।
संग्रामे सम्प्रपश्यामो हंसपङ्क्तिमिवाम्बरे ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महात्माके गाण्डीव धनुषसे छूटकर संग्राममें फैले हुए बाणसमूहोंको हम आकाशमें हंसोंकी पंक्तिके समान देखते थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिवार्य स वीराणामस्त्रैरस्त्राणि सर्वतः।
दर्शयन् रौद्रमात्मानमुग्रे कर्मणि धिष्ठितः ॥ ४३ ॥
मूलम्
विनिवार्य स वीराणामस्त्रैरस्त्राणि सर्वतः।
दर्शयन् रौद्रमात्मानमुग्रे कर्मणि धिष्ठितः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरोंके अस्त्र-शस्त्रोंको अस्त्रोंद्वारा सब ओरसे रोककर अपने रौद्रभावका दर्शन कराते हुए वे उग्र कर्ममें संलग्न हो गये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तान् रथवरान् राजन्नत्याक्रामत् तदार्जुनः।
मोहयन्निव नाराचैर्जयद्रथवधेप्सया ।
विसृजन् दिक्षु सर्वासु शरानसितसारथिः ॥ ४४ ॥
सरथो व्यचरत् तूर्णं प्रेक्षणीयो धनंजयः।
मूलम्
स तान् रथवरान् राजन्नत्याक्रामत् तदार्जुनः।
मोहयन्निव नाराचैर्जयद्रथवधेप्सया ।
विसृजन् दिक्षु सर्वासु शरानसितसारथिः ॥ ४४ ॥
सरथो व्यचरत् तूर्णं प्रेक्षणीयो धनंजयः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय जयद्रथवधकी इच्छासे अर्जुन नाराचोंद्वारा उन महारथियोंको मोहित करते हुए-से लाँघ गये। श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे धनंजय सम्पूर्ण दिशाओंमें बाणोंकी वृष्टि करते हुए रथसहित तुरंत वहाँ विचरने लगे। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमन्त इव शूरस्य शरव्राता महात्मनः ॥ ४५ ॥
अदृश्यन्तान्तरिक्षस्थाः शतशोऽथ सहस्रशः ।
मूलम्
भ्रमन्त इव शूरस्य शरव्राता महात्मनः ॥ ४५ ॥
अदृश्यन्तान्तरिक्षस्थाः शतशोऽथ सहस्रशः ।
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीर महात्मा अर्जुनके चलाये हुए सैकड़ों और हजारों बाणसमूह आकाशमें घूमते हुए-से दिखायी देते थे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आददानं महेष्वासं संदधानं च सायकम् ॥ ४६ ॥
विसृजन्तं च कौन्तेयं नानुपश्याम वै तदा।
मूलम्
आददानं महेष्वासं संदधानं च सायकम् ॥ ४६ ॥
विसृजन्तं च कौन्तेयं नानुपश्याम वै तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय हम कुन्तीकुमार महाधनुर्धर अर्जुनको बाण लेते, चढ़ाते और छोड़ते समय देख नहीं पाते थे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा सर्वा दिशो राजन् सर्वांश्च रथिनो रणे ॥ ४७ ॥
कदम्बीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत् ।
मूलम्
तथा सर्वा दिशो राजन् सर्वांश्च रथिनो रणे ॥ ४७ ॥
कदम्बीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार अर्जुनने रणक्षेत्रमें सम्पूर्ण दिशाओं और समस्त रथियोंको कदम्बके फूलके समान रोमांचित करके जयद्रथपर धावा किया॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विव्याध च चतुःषष्ट्या शराणां नतपर्वणाम् ॥ ४८ ॥
सैन्धवाभिमुखं यान्तं योधाः सम्प्रेक्ष्य पाण्डवम्।
न्यवर्तन्त रणाद् वीरा निराशास्तस्य जीविते ॥ ४९ ॥
मूलम्
विव्याध च चतुःषष्ट्या शराणां नतपर्वणाम् ॥ ४८ ॥
सैन्धवाभिमुखं यान्तं योधाः सम्प्रेक्ष्य पाण्डवम्।
न्यवर्तन्त रणाद् वीरा निराशास्तस्य जीविते ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही उसे झुकी हुई गाँठवाले चौंसठ बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया। पाण्डुपुत्र अर्जुनको सिंधुराजके सम्मुख जाते देख हमारे पक्षके वीर योद्धा उसके जीवनसे निराश होकर युद्धसे निवृत्त हो गये॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो योऽभ्यधावदाक्रन्दे तावकः पाण्डवं रणे।
तस्य तस्यान्तगा बाणाः शरीरे न्यपतन् प्रभो ॥ ५० ॥
मूलम्
यो योऽभ्यधावदाक्रन्दे तावकः पाण्डवं रणे।
तस्य तस्यान्तगा बाणाः शरीरे न्यपतन् प्रभो ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! उस घोर संग्राममें आपके पक्षका जो-जो योद्धा पाण्डुपुत्र अर्जुनकी ओर बढ़ा, उस-उसके शरीरपर प्राणान्तकारी बाण पड़ने लगे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबन्धसंकुलं चक्रे तव सैन्यं महारथः।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठः शरैरग्न्यंशुसंनिभैः ॥ ५१ ॥
मूलम्
कबन्धसंकुलं चक्रे तव सैन्यं महारथः।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठः शरैरग्न्यंशुसंनिभैः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ महारथी अर्जुनने अग्निकी ज्वालाके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा आपकी सेनाको कबन्धोंसे भर दिया॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तत् तव राजेन्द्र चतुरङ्गबलं तदा।
व्याकुलीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत् ॥ ५२ ॥
मूलम्
एवं तत् तव राजेन्द्र चतुरङ्गबलं तदा।
व्याकुलीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उस समय इस प्रकार आपकी उस चतुरंगिणी सेनाको व्याकुल करके कुन्तीकुमार अर्जुन जयद्रथकी ओर बढ़े॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणिं पञ्चाशताविध्यद् वृषसेनं त्रिभिः शरैः।
कृपायमाणः कौन्तेयः कृपं नवभिरार्दयत् ॥ ५३ ॥
मूलम्
द्रौणिं पञ्चाशताविध्यद् वृषसेनं त्रिभिः शरैः।
कृपायमाणः कौन्तेयः कृपं नवभिरार्दयत् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अश्वत्थामाको पचास और वृषसेनको तीन बाणोंसे बींध डाला। कृपाचार्यको कृपापूर्वक केवल नौ बाण मारे॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शल्यं षोडशभिर्बाणैः कर्णं द्वात्रिंशता शरैः।
सैन्धवं तु चतुःषष्ट्या विद्ध्वा सिंह इवानदत् ॥ ५४ ॥
मूलम्
शल्यं षोडशभिर्बाणैः कर्णं द्वात्रिंशता शरैः।
सैन्धवं तु चतुःषष्ट्या विद्ध्वा सिंह इवानदत् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शल्यको सोलह, कर्णको बत्तीस और सिंधुराजको चौंसठ बाणोंसे घायल करके अर्जुनने सिंहके समान गर्जना की॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैन्धवस्तु तथा विद्धः शरैर्गाण्डीवधन्वना।
न चक्षमे सुसंक्रुद्धस्तोत्रार्दित इव द्विपः ॥ ५५ ॥
मूलम्
सैन्धवस्तु तथा विद्धः शरैर्गाण्डीवधन्वना।
न चक्षमे सुसंक्रुद्धस्तोत्रार्दित इव द्विपः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाण्डीवधारी अर्जुनके चलाये हुए बाणोंसे उस प्रकार घायल होनेपर सिंधुराज सहन न कर सका। वह अंकुशकी मार खाये हुए हाथीके समान अत्यन्त कुपित हो उठा॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वराहध्वजस्तूर्णं गार्धपत्रानजिह्मगान् ।
क्रुद्धाशीविषसंकाशान् कर्मारपरिमार्जितान् ॥ ५६ ॥
आकर्णपूर्णान् चिक्षेप फाल्गुनस्य रथं प्रति।
मूलम्
स वराहध्वजस्तूर्णं गार्धपत्रानजिह्मगान् ।
क्रुद्धाशीविषसंकाशान् कर्मारपरिमार्जितान् ॥ ५६ ॥
आकर्णपूर्णान् चिक्षेप फाल्गुनस्य रथं प्रति।
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी ध्वजापर वाराहका चिह्न था। उसने गीधकी पाँखोंसे युक्त, सीधे जानेवाले, सोनारके माँजे हुए तथा कुपित विषधरके समान बहुत-से बाण धनुषको कानतक खींचकर शीघ्रतापूर्वक अर्जुनके रथकी ओर चलाये॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभिस्तु विद्ध्वा गोविन्दं नाराचैः षड्भिरर्जुनम् ॥ ५७ ॥
अष्टभिर्वाजिनोऽविध्यद् ध्वजं चैकेन पत्रिणा।
मूलम्
त्रिभिस्तु विद्ध्वा गोविन्दं नाराचैः षड्भिरर्जुनम् ॥ ५७ ॥
अष्टभिर्वाजिनोऽविध्यद् ध्वजं चैकेन पत्रिणा।
अनुवाद (हिन्दी)
तीन बाणोंसे श्रीकृष्णको, छः नाराचोंसे अर्जुनको तथा आठ बाणोंसे घोड़ोंको घायल करके जयद्रथने एक बाणसे अर्जुनकी ध्वजाको भी बींध डाला॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विक्षिप्यार्जुनस्तूर्णं सैन्धवप्रहितान् शरान् ॥ ५८ ॥
युगपत् तस्य चिच्छेद शराभ्यां सैन्धवस्य ह।
सारथेश्च शिरः कायाद् ध्वजं च समलंकृतम् ॥ ५९ ॥
मूलम्
स विक्षिप्यार्जुनस्तूर्णं सैन्धवप्रहितान् शरान् ॥ ५८ ॥
युगपत् तस्य चिच्छेद शराभ्यां सैन्धवस्य ह।
सारथेश्च शिरः कायाद् ध्वजं च समलंकृतम् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु अर्जुनने तुरंत ही जयद्रथके चलाये हुए बाणोंको काट गिराया और एक ही साथ दो बाणोंसे सिंधुराजके सारथिका सिर तथा अलंकारोंसे सुशोभित उसका ध्वज भी काट डाला॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स छिन्नयष्टिः सुमहान् धनंजयशराहतः।
वराहः सिन्धुराजस्य पपाताग्निशिखोपमः ॥ ६० ॥
मूलम्
स छिन्नयष्टिः सुमहान् धनंजयशराहतः।
वराहः सिन्धुराजस्य पपाताग्निशिखोपमः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजयके बाणोंसे आहत हो अग्निशिखाके समान तेजस्वी वह सिंधुराजका महान् वाराहध्वज दण्ड कट जानेसे पृथ्वीपर गिर पड़ा॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु द्रुतं गच्छति भास्करे।
अब्रवीत् पाण्डवं राजंस्त्वरमाणो जनार्दनः ॥ ६१ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु द्रुतं गच्छति भास्करे।
अब्रवीत् पाण्डवं राजंस्त्वरमाणो जनार्दनः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी समय जब कि सूर्यदेव तीव्रगतिसे अस्ताचलकी ओर जा रहे थे, उतावले हुए भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डुपुत्र अर्जुनसे कहा—॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मध्ये कृतः षड्भिः पार्थ वीरैर्महारथैः।
जीवितेप्सुर्महाबाहो भीतस्तिष्ठति सैन्धवः ॥ ६२ ॥
मूलम्
एष मध्ये कृतः षड्भिः पार्थ वीरैर्महारथैः।
जीवितेप्सुर्महाबाहो भीतस्तिष्ठति सैन्धवः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु पार्थ! यह सिंधुराज जयद्रथ प्राण बचानेकी इच्छासे भयभीत होकर खड़ा है और उसे छः वीर महारथियोंने अपने बीचमें कर रखा है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताननिर्जित्य रणे षड् रथान् पुरुषर्षभ।
न शक्यः सैन्धवो हन्तुं यतो निर्व्याजमर्जुन ॥ ६३ ॥
मूलम्
एताननिर्जित्य रणे षड् रथान् पुरुषर्षभ।
न शक्यः सैन्धवो हन्तुं यतो निर्व्याजमर्जुन ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ अर्जुन! रणभूमिमें इन छः महारथियोंको परास्त किये बिना सिंधुराजको बिना मायाके जीता नहीं जा सकता है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगमत्र विधास्यामि सूर्यस्यावरणं प्रति।
अस्तंगत इति व्यक्तं द्रक्ष्यत्येकः स सिन्धुराट् ॥ ६४ ॥
मूलम्
योगमत्र विधास्यामि सूर्यस्यावरणं प्रति।
अस्तंगत इति व्यक्तं द्रक्ष्यत्येकः स सिन्धुराट् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः मैं यहाँ सूर्यदेवको ढकनेके लिये कोई युक्ति करूँगा, जिससे अकेला सिंधुराज ही सूर्यको स्पष्टरूपसे अस्त हुआ देखेगा॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्षेण जीविताकाङ्क्षी विनाशार्थं तव प्रभो।
न गोप्स्यति दुराचारः स आत्मानं कथंचन ॥ ६५ ॥
मूलम्
हर्षेण जीविताकाङ्क्षी विनाशार्थं तव प्रभो।
न गोप्स्यति दुराचारः स आत्मानं कथंचन ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! वह दुराचारी हर्षपूर्वक अपने जीवनकी अभिलाषा रखते हुए तुम्हारे विनाशके लिये उतावला होकर किसी प्रकार भी अपने-आपको गुप्त नहीं रख सकेगा॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र छिद्रे प्रहर्तव्यं त्वयास्य कुरुसत्तम।
व्यपेक्षा नैव कर्तव्या गतोऽस्तमिति भास्करः ॥ ६६ ॥
मूलम्
तत्र छिद्रे प्रहर्तव्यं त्वयास्य कुरुसत्तम।
व्यपेक्षा नैव कर्तव्या गतोऽस्तमिति भास्करः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुश्रेष्ठ! वैसा अवसर आनेपर तुम्हें अवश्य उसके ऊपर प्रहार करना चाहिये। इस बातपर ध्यान नहीं देना चाहिये कि सूर्यदेव अस्त हो गये’॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति बीभत्सुः केशवं प्रत्यभाषत।
ततोऽसृजत् तमः कृष्णः सूर्यस्यावरणं प्रति ॥ ६७ ॥
योगी योगेन संयुक्तो योगिनामीश्वरो हरिः।
मूलम्
एवमस्त्विति बीभत्सुः केशवं प्रत्यभाषत।
ततोऽसृजत् तमः कृष्णः सूर्यस्यावरणं प्रति ॥ ६७ ॥
योगी योगेन संयुक्तो योगिनामीश्वरो हरिः।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘प्रभो! ऐसा ही हो।’ तब योगी, योगयुक्त और योगीश्वर भगवान् श्रीकृष्णने सूर्यको छिपानेके लिये अन्धकारकी सृष्टि की॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृष्टे तमसि कृष्णेन गतोऽस्तमिति भास्करः ॥ ६८ ॥
त्वदीया जहृषुर्योधाः पार्थनाशान्नराधिप ।
मूलम्
सृष्टे तमसि कृष्णेन गतोऽस्तमिति भास्करः ॥ ६८ ॥
त्वदीया जहृषुर्योधाः पार्थनाशान्नराधिप ।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! श्रीकृष्णद्वारा अन्धकारकी सृष्टि होनेपर सूर्यदेव अस्त हो गये, ऐसा मानते हुए आपके योद्धा अर्जुनका विनाश निकट देख हर्षमग्न हो गये॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते प्रहृष्टा रणे राजन् नापश्यन् सैनिका रविम् ॥ ६९ ॥
उन्नाम्य वक्त्राणि तदा स च राजा जयद्रथः।
मूलम्
ते प्रहृष्टा रणे राजन् नापश्यन् सैनिका रविम् ॥ ६९ ॥
उन्नाम्य वक्त्राणि तदा स च राजा जयद्रथः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस रणक्षेत्रमें हर्षमग्न हुए आपके सैनिकोंने सूर्यकी ओर देखातक नहीं। केवल राजा जयद्रथ उस समय बारंबार मुँह ऊँचा करके सूर्यकी अरि देख रहा था॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीक्षमाणे ततस्तस्मिन् सिन्धुराजे दिवाकरम् ॥ ७० ॥
पुनरेवाब्रवीत् कृष्णो धनंजयमिदं वचः।
मूलम्
वीक्षमाणे ततस्तस्मिन् सिन्धुराजे दिवाकरम् ॥ ७० ॥
पुनरेवाब्रवीत् कृष्णो धनंजयमिदं वचः।
अनुवाद (हिन्दी)
जब इस प्रकार सिंधुराज दिवाकरकी ओर देखने लगा, तब भगवान् श्रीकृष्ण पुनः अर्जुनसे इस प्रकार बोले—॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य सिन्धुपतिं वीरं प्रेक्षमाणं दिवाकरम् ॥ ७१ ॥
भयं हि विप्रमुच्यैतत् त्वत्तो भरतसत्तम।
मूलम्
पश्य सिन्धुपतिं वीरं प्रेक्षमाणं दिवाकरम् ॥ ७१ ॥
भयं हि विप्रमुच्यैतत् त्वत्तो भरतसत्तम।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! देखो, यह वीर सिंधुराज अब तुम्हारा भय छोड़कर सूर्यदेवकी ओर दृष्टिपात कर रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं कालो महाबाहो वधायास्य दुरात्मनः ॥ ७२ ॥
छिन्धि मूर्धानमस्याशु कुरु साफल्यमात्मनः।
मूलम्
अयं कालो महाबाहो वधायास्य दुरात्मनः ॥ ७२ ॥
छिन्धि मूर्धानमस्याशु कुरु साफल्यमात्मनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! इस दुरात्माके वधका यही अवसर है। तुम शीघ्र इसका मस्तक काट डालो और अपनी प्रतिज्ञा सफल करो’॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं केशवेनोक्तः पाण्डुपुत्रः प्रतापवान् ॥ ७३ ॥
न्यवधीत् तावकं सैन्यं शरैरर्काग्निसंनिभैः।
मूलम्
इत्येवं केशवेनोक्तः पाण्डुपुत्रः प्रतापवान् ॥ ७३ ॥
न्यवधीत् तावकं सैन्यं शरैरर्काग्निसंनिभैः।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर प्रतापी पाण्डुपुत्र अर्जुनने सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा आपकी सेनाका वध आरम्भ किया॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपं विव्याध विंशत्या कर्णं पञ्चाशता शरैः ॥ ७४ ॥
शल्यं दुर्योधनं चैव षड्भिः षड्भिरताडयत्।
वृषसेनं तथाष्टाभिः षष्ट्या सैन्धवमेव च ॥ ७५ ॥
मूलम्
कृपं विव्याध विंशत्या कर्णं पञ्चाशता शरैः ॥ ७४ ॥
शल्यं दुर्योधनं चैव षड्भिः षड्भिरताडयत्।
वृषसेनं तथाष्टाभिः षष्ट्या सैन्धवमेव च ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कृपाचार्यको बीस, कर्णको पचास तथा शल्य और दुर्योधनको छः-छः बाण मारे। साथ ही वृषसेनको आठ और सिंधुराज जयद्रथको साठ बाणोंसे घायल कर दिया॥७४-७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव च महाबाहुस्त्वदीयान् पाण्डुनन्दनः।
गाढं विद्ध्वा शरै राजन् जयद्रथमुपाद्रवत् ॥ ७६ ॥
मूलम्
तथैव च महाबाहुस्त्वदीयान् पाण्डुनन्दनः।
गाढं विद्ध्वा शरै राजन् जयद्रथमुपाद्रवत् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी प्रकार महाबाहु पाण्डुनन्दन अर्जुनने आपके अन्य सैनिकोंको भी बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचाकर जयद्रथपर धावा किया॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं समीपस्थितं दृष्ट्वा लेलिहानमिवानलम्।
जयद्रथस्य गोप्तारः संशयं परमं गताः ॥ ७७ ॥
मूलम्
तं समीपस्थितं दृष्ट्वा लेलिहानमिवानलम्।
जयद्रथस्य गोप्तारः संशयं परमं गताः ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी लपटोंसे सबको चाट जानेवाली आगके समान अर्जुनको निकट खड़ा देख जयद्रथके रक्षक भारी संशयमें पड़ गये॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वे महाराज तव योधा जयैषिणः।
सिषिचुः शरधाराभिः पाकशासनिमाहवे ॥ ७८ ॥
मूलम्
ततः सर्वे महाराज तव योधा जयैषिणः।
सिषिचुः शरधाराभिः पाकशासनिमाहवे ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय विजयकी अभिलाषा रखनेवाले आपके समस्त योद्धा युद्धस्थलमें इन्द्रकुमार अर्जुनका बाणोंकी धाराओंसे अभिषेक करने लगे॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संछाद्यमानः कौन्तेयः शरजालैरनेकशः ।
अक्रुध्यत् स महाबाहुरजितः कुरुनन्दनः ॥ ७९ ॥
मूलम्
संछाद्यमानः कौन्तेयः शरजालैरनेकशः ।
अक्रुध्यत् स महाबाहुरजितः कुरुनन्दनः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बारंबार बाणसमूहोंसे आच्छादित किये जानेपर कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले अपराजित वीर कुन्तीकुमार महाबाहु अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरमयं जालं तुमुलं पाकशासनिः।
व्यसृजत् पुरुषव्याघ्रस्तव सैन्यजिघांसया ॥ ८० ॥
मूलम्
ततः शरमयं जालं तुमुलं पाकशासनिः।
व्यसृजत् पुरुषव्याघ्रस्तव सैन्यजिघांसया ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन पुरुषसिंह इन्द्रकुमारने आपकी सेनाके संहारकी इच्छासे बाणोंका भयंकर जाल बिछाना आरम्भ किया॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते हन्यमाना वीरेण योधा राजन् रणे तव।
प्रजहुः सैन्धवं भीता द्वौ समं नाप्यधावताम् ॥ ८१ ॥
मूलम्
ते हन्यमाना वीरेण योधा राजन् रणे तव।
प्रजहुः सैन्धवं भीता द्वौ समं नाप्यधावताम् ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय रणभूमिमें वीर अर्जुनकी मार खानेवाले योद्धा भयभीत हो सिंधुराजको छोड़ भाग चले। वे इतने डर गये थे कि दो सैनिक भी एक साथ नहीं भागते थे॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राद्भुतमपश्याम कुन्तीपुत्रस्य विक्रमम् ।
तादृङ् न भावी भूतो वा यच्चकार महायशाः ॥ ८२ ॥
मूलम्
तत्राद्भुतमपश्याम कुन्तीपुत्रस्य विक्रमम् ।
तादृङ् न भावी भूतो वा यच्चकार महायशाः ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ हमलोगोंने कुन्तीकुमारका अद्भुत पराक्रम देखा। उन महायशस्वी वीरने उस समय जो पुरुषार्थ प्रकट किया था, वैसा न तो पहले कभी प्रकट हुआ था और न आगे कभी होगा ही॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विपान् द्विपगतांश्चैव हयान् हयगतानपि।
तथा स रथिनश्चैव न्यहन् रुद्रः पशूनिव ॥ ८३ ॥
मूलम्
द्विपान् द्विपगतांश्चैव हयान् हयगतानपि।
तथा स रथिनश्चैव न्यहन् रुद्रः पशूनिव ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे संहारकारी रुद्र समस्त प्राणियोंका विनाश कर डालते हैं, उसी प्रकार उन्होंने हाथियों और हाथीसवारोंको, घोड़ों और घुड़सवारोंको तथा रथों एवं रथियोंको भी नष्ट कर दिया॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र समरे कश्चिन्मया दृष्टो नराधिप।
गजो वाजी नरो वापि यो न पार्थशराहतः ॥ ८४ ॥
मूलम्
न तत्र समरे कश्चिन्मया दृष्टो नराधिप।
गजो वाजी नरो वापि यो न पार्थशराहतः ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस समरभूमिमें मैंने कोई भी ऐसा हाथी, घोड़ा या मनुष्य नहीं देखा, जो अर्जुनके बाणोंसे क्षत-विक्षत न हो गया हो॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजसा तमसा चैव योधाः संछन्नचक्षुषः।
कश्मलं प्राविशन् घोरं नान्वजानन् परस्परम् ॥ ८५ ॥
मूलम्
रजसा तमसा चैव योधाः संछन्नचक्षुषः।
कश्मलं प्राविशन् घोरं नान्वजानन् परस्परम् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय धूल और अन्धकारसे सारे योद्धाओंके नेत्र आच्छादित हो गये थे। वे भयंकर मोहमें पड़ गये। उनके लिये एक-दूसरेको पहचानना भी असम्भव हो गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते शरैर्भिन्नमर्माणः सैनिकाः पार्थचोदितैः।
बभ्रमुश्चस्खलुः पेतुः सेदुर्मम्लुश्च भारत ॥ ८६ ॥
मूलम्
ते शरैर्भिन्नमर्माणः सैनिकाः पार्थचोदितैः।
बभ्रमुश्चस्खलुः पेतुः सेदुर्मम्लुश्च भारत ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अर्जुनके चलाये हुए बाणोंसे जिनके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये थे, वे सैनिक चक्कर काटते, लड़खड़ाते, गिरते, व्यथित होते और प्राणशून्य होकर मलिन हो जाते थे॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् महाभीषणके प्रजानामिव संक्षये।
रणे महति दुष्पारे वर्तमाने सुदारुणे ॥ ८७ ॥
शोणितस्य प्रसेकेन शीघ्रत्वादनिलस्य च।
अशाम्यत् तद् रजो भौममसृक्सिक्ते धरातले ॥ ८८ ॥
आनाभि निरमज्जंश्च रथचक्राणि शोणिते।
मूलम्
तस्मिन् महाभीषणके प्रजानामिव संक्षये।
रणे महति दुष्पारे वर्तमाने सुदारुणे ॥ ८७ ॥
शोणितस्य प्रसेकेन शीघ्रत्वादनिलस्य च।
अशाम्यत् तद् रजो भौममसृक्सिक्ते धरातले ॥ ८८ ॥
आनाभि निरमज्जंश्च रथचक्राणि शोणिते।
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंके प्रलयकालके समान जब वह महाभीषण अत्यन्त दारुण महान् एवं दुर्लङ्घ्य संग्राम चल रहा था, उस समय रक्तकी वर्षासे और वायुके वेगपूर्वक चलनेसे रुधिरसे भीगे हुए धरातलकी धूल शान्त हो गयी। रथके पहिये नाभितक खूनमें डूबे हुए थे॥८७-८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्ता वेगवतो राजंस्तावकानां रणाङ्गणे ॥ ८९ ॥
हस्तिनश्च हतारोहा दारिताङ्गाः सहस्रशः।
स्वान्यनीकानि मृद्नन्त आर्तनादाः प्रदुद्रुवुः ॥ ९० ॥
मूलम्
मत्ता वेगवतो राजंस्तावकानां रणाङ्गणे ॥ ८९ ॥
हस्तिनश्च हतारोहा दारिताङ्गाः सहस्रशः।
स्वान्यनीकानि मृद्नन्त आर्तनादाः प्रदुद्रुवुः ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जिनके सवार मार डाले गये थे और समस्त अंग बाणोंसे विदीर्ण हो रहे थे, वे आपके योद्धाओंके वेगवान् और मदमत्त सहस्रों हाथी समरभूमिमें अपनी ही सेनाओंको रौंदते और आर्तनाद करते हुए जोर-जोरसे भागने लगे॥८९-९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयाश्च पतितारोहाः पत्तयश्च नराधिप।
प्रदुद्रुवुर्भयाद् राजन् धनंजयशराहताः ॥ ९१ ॥
मूलम्
हयाश्च पतितारोहाः पत्तयश्च नराधिप।
प्रदुद्रुवुर्भयाद् राजन् धनंजयशराहताः ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! राजन्! घुड़सवार गिर गये थे और घोड़े एवं पैदल सैनिक धनंजयके बाणोंसे अत्यन्त घायल हो भयके मारे भागे जा रहे थे॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुक्तकेशा विकवचाः क्षरन्तः क्षतजं क्षतैः।
प्रापलायन्त संत्रस्तास्त्यक्त्वा रणशिरो जनाः ॥ ९२ ॥
मूलम्
मुक्तकेशा विकवचाः क्षरन्तः क्षतजं क्षतैः।
प्रापलायन्त संत्रस्तास्त्यक्त्वा रणशिरो जनाः ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोगोंके बाल खुले हुए थे, कवच कटकर गिर गये थे और वे अत्यन्त भयभीत हो युद्धका मुहाना छोड़कर अपने घावोंसे रक्तकी धारा बहाते हुए जान बचानेके लिये भाग रहे थे॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊरुग्राहगृहीताश्च केचित् तत्राभवन् भुवि।
हतानां चापरे मध्ये द्विरदानां निलिल्यिरे ॥ ९३ ॥
मूलम्
ऊरुग्राहगृहीताश्च केचित् तत्राभवन् भुवि।
हतानां चापरे मध्ये द्विरदानां निलिल्यिरे ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग बिना हिले-डुले इस प्रकार भूमिपर खड़े थे, मानो उनकी जाँघें अकड़ गयी हों। दूसरे बहुत-से सैनिक वहाँ मारे गये हाथियोंके बीचमें जा छिपे थे॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तव बलं राजन् द्रावयित्वा धनंजयः।
न्यवधीत् सायकैर्घोरैः सिन्धुराजस्य रक्षिणः ॥ ९४ ॥
मूलम्
एवं तव बलं राजन् द्रावयित्वा धनंजयः।
न्यवधीत् सायकैर्घोरैः सिन्धुराजस्य रक्षिणः ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार अर्जुनने आपकी सेनाको भगाकर भयंकर बाणोंद्वारा सिंधुराजके रक्षकोंको मारना आरम्भ किया॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौणिं कृपं कर्णशल्यौ वृषसेनं सुयोधनम्।
छादयामास तीव्रेण शरजालेन पाण्डवः ॥ ९५ ॥
मूलम्
द्रौणिं कृपं कर्णशल्यौ वृषसेनं सुयोधनम्।
छादयामास तीव्रेण शरजालेन पाण्डवः ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुकुमार अर्जुनने अपने तीखे बाणसमूहसे अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शल्य, वृषसेन तथा दुर्योधनको आच्छादित कर दिया॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न गृह्णन् न क्षिपन् राजन् मुञ्चन्नापि च संदधत्।
अदृश्यतार्जुनः संख्ये शीघ्रास्त्रत्वात् कथंचन ॥ ९६ ॥
मूलम्
न गृह्णन् न क्षिपन् राजन् मुञ्चन्नापि च संदधत्।
अदृश्यतार्जुनः संख्ये शीघ्रास्त्रत्वात् कथंचन ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय युद्धस्थलमें अर्जुन इतनी फुर्तीसे बाण चलाते थे कि कोई किसी प्रकार भी यह न देख सका कि वे कब बाण लेते हैं, कब उसे धनुषपर रखते हैं, कब प्रत्यंचा खींचते हैं और कब वह बाण छोड़ते हैं॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्मण्डलमेवास्य दृश्यते स्मास्यतः सदा।
सायकाश्च व्यदृश्यन्त निश्चरन्तः समन्ततः ॥ ९७ ॥
मूलम्
धनुर्मण्डलमेवास्य दृश्यते स्मास्यतः सदा।
सायकाश्च व्यदृश्यन्त निश्चरन्तः समन्ततः ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निरन्तर बाण छोड़ते हुए अर्जुनका केवल मण्डलाकार धनुष ही लोगोंकी दृष्टिमें आता था एवं चारों ओर फैलते हुए उनके बाण भी दृष्टिगोचर होते थे॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्य तु धनुश्छित्त्वा वृषसेनस्य चैव ह।
शल्यस्य सूतं भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ९८ ॥
मूलम्
कर्णस्य तु धनुश्छित्त्वा वृषसेनस्य चैव ह।
शल्यस्य सूतं भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कर्ण और वृषसेनके धनुष काटकर एक भल्लके द्वारा शल्यके सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाढविद्धावुभौ कृत्वा शरैः स्वस्रीयमातुलौ।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो द्रौणिशारद्वतौ रणे ॥ ९९ ॥
मूलम्
गाढविद्धावुभौ कृत्वा शरैः स्वस्रीयमातुलौ।
अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो द्रौणिशारद्वतौ रणे ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने रणभूमिमें मामा-भानजे कृपाचार्य और अश्वत्थामा दोनोंको बाणोंद्वारा बींधकर गहरी चोट पहुँचायी॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तान् व्याकुलीकृत्य त्वदीयानां महारथान्।
उज्जहार शरं घोरं पाण्डवोऽनलसंनिभम् ॥ १०० ॥
मूलम्
एवं तान् व्याकुलीकृत्य त्वदीयानां महारथान्।
उज्जहार शरं घोरं पाण्डवोऽनलसंनिभम् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आपके उन महारथियोंको व्याकुल करके पाण्डुकुमार अर्जुनने एक अग्निके समान तेजस्वी एवं भयंकर बाण निकाला॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्राशनिसमप्रख्यं दिव्यमस्त्राभिमन्त्रितम् ।
सर्वभारसहं शश्वद् गन्धमाल्यार्चितं महत् ॥ १०१ ॥
मूलम्
इन्द्राशनिसमप्रख्यं दिव्यमस्त्राभिमन्त्रितम् ।
सर्वभारसहं शश्वद् गन्धमाल्यार्चितं महत् ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दिव्य बाण दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित होकर इन्द्रके वज्रके समान प्रकाशित हो रहा था। वह सब प्रकारका भार सहन करनेमें समर्थ और महान् था। उसकी गन्ध और मालाओंद्वारा सदा पूजा की जाती थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रेणास्त्रेण संयोज्य विधिवत् कुरुनन्दनः।
समादधन्महाबाहुर्गाण्डीवे क्षिप्रमर्जुनः ॥ १०२ ॥
मूलम्
वज्रेणास्त्रेण संयोज्य विधिवत् कुरुनन्दनः।
समादधन्महाबाहुर्गाण्डीवे क्षिप्रमर्जुनः ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन महाबाहु अर्जुनने उस बाणको विधिपूर्वक वज्रास्त्रसे संयोजित करके शीघ्र ही गाण्डीव धनुषपर रखा॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् संधीयमाने तु शरे ज्वलनतेजसि।
अन्तरिक्षे महानादो भूतानामभवन्नृप ॥ १०३ ॥
मूलम्
तस्मिन् संधीयमाने तु शरे ज्वलनतेजसि।
अन्तरिक्षे महानादो भूतानामभवन्नृप ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जब अर्जुन अग्निके समान तेजस्वी उस बाणका संधान करने लगे, उस समय आकाशचारी प्राणियोंमें महान् कोलाहल होने लगा॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीच्च पुनस्तत्र त्वरमाणो जनार्दनः।
धनंजय शिरश्छिन्धि सैन्धवस्य दुरात्मनः ॥ १०४ ॥
मूलम्
अब्रवीच्च पुनस्तत्र त्वरमाणो जनार्दनः।
धनंजय शिरश्छिन्धि सैन्धवस्य दुरात्मनः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुनः उतावले होकर बोल उठे—‘धनंजय! तुम दुरात्मा सिंधुराजका मस्तक शीघ्र काट लो॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्तं महीधरश्रेष्ठं यियासति दिवाकरः।
शृणुष्वैतच्च वाक्यं मे जयद्रथवधं प्रति ॥ १०५ ॥
मूलम्
अस्तं महीधरश्रेष्ठं यियासति दिवाकरः।
शृणुष्वैतच्च वाक्यं मे जयद्रथवधं प्रति ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि सूर्य अब पर्वतश्रेष्ठ अस्ताचलपर जाना ही चाहते हैं। जयद्रथवधके विषयमें तुम मेरी यह बात ध्यानसे सुन लो॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धक्षत्रः सैन्धवस्य पिता जगति विश्रुतः।
स कालेनेह महता सैन्धवं प्राप्तवान् सुतम् ॥ १०६ ॥
मूलम्
वृद्धक्षत्रः सैन्धवस्य पिता जगति विश्रुतः।
स कालेनेह महता सैन्धवं प्राप्तवान् सुतम् ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिंधुराजके पिता वृद्धक्षत्र इस जगत्में विख्यात हैं। उन्होंने दीर्घकालके पश्चात् इस सिंधुराज जयद्रथको अपने पुत्रके रूपमें प्राप्त किया॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयद्रथममित्रघ्नं वागुवाचाशरीरिणी ।
नृपमन्तर्हिता वाणी मेघदुन्दुभिनिःस्वना ॥ १०७ ॥
मूलम्
जयद्रथममित्रघ्नं वागुवाचाशरीरिणी ।
नृपमन्तर्हिता वाणी मेघदुन्दुभिनिःस्वना ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसके जन्मकालमें मेघके समान गम्भीर स्वरवाली अदृश्य आकाशवाणीने शत्रुसूदन जयद्रथके विषयमें राजाको सम्बोधित करके इस प्रकार कहा—॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवात्मजो मनुष्येन्द्र कुलशीलदमादिभिः ।
गुणैर्भविष्यति विभो सदृशो वंशयोर्द्वयोः ॥ १०८ ॥
मूलम्
तवात्मजो मनुष्येन्द्र कुलशीलदमादिभिः ।
गुणैर्भविष्यति विभो सदृशो वंशयोर्द्वयोः ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शाक्तिशाली नरेन्द्र! तुम्हारा यह पुत्र कुल, शील और संयम आदि सद्गुणोंके द्वारा दोनों वंशोंके अनुरूप होगा॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियप्रवरो लोके नित्यं शूराभिसत्कृतः।
किं त्वस्य युध्यमानस्य संग्रामे क्षत्रियर्षभः ॥ १०९ ॥
शिरश्छेत्स्यति संक्रुद्धः शत्रुरालक्षितो भुवि।
मूलम्
क्षत्रियप्रवरो लोके नित्यं शूराभिसत्कृतः।
किं त्वस्य युध्यमानस्य संग्रामे क्षत्रियर्षभः ॥ १०९ ॥
शिरश्छेत्स्यति संक्रुद्धः शत्रुरालक्षितो भुवि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस जगत्के क्षत्रियोंमें यह श्रेष्ठ माना जायगा। शूरवीर सदा इसका सत्कार करेंगे; परंतु अन्त समयमें संग्रामभूमिमें युद्ध करते समय कोई क्षत्रियशिरोमणि वीर इसका शत्रु होकर इसके सामने खड़ा हो क्रोधपूर्वक इसका मस्तक काट डालेगा’॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा सिन्धुराजो ध्यात्वा चिरमरिंदमः ॥ ११० ॥
ज्ञातीन् सर्वानुवाचेदं पुत्रस्नेहाभिचोदितः ।
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा सिन्धुराजो ध्यात्वा चिरमरिंदमः ॥ ११० ॥
ज्ञातीन् सर्वानुवाचेदं पुत्रस्नेहाभिचोदितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सुनकर शत्रुओंका दमन करनेवाले सिंधुराज वृद्धछत्र देरतक कुछ सोचते रहे, फिर पुत्रस्नेहसे प्रेरित हो वे समस्त जाति-भाइयोंसे इस प्रकार बोले—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संग्रामे युध्यमानस्य वहतो महतीं धुरम् ॥ १११ ॥
धरण्यां मम पुत्रस्य पातयिष्यति यः शिरः।
तस्यापि शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः ॥ ११२ ॥
मूलम्
संग्रामे युध्यमानस्य वहतो महतीं धुरम् ॥ १११ ॥
धरण्यां मम पुत्रस्य पातयिष्यति यः शिरः।
तस्यापि शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संग्राममें युद्धतत्पर हो भारी भार वहन करते हुए मेरे इस पुत्रके मस्तकको जो पृथ्वीपर गिरा देगा, उसके सिरके भी सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे, इसमें संशय नहीं हैं’॥१११-११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततो राज्ये स्थापयित्वा जयद्रथम्।
वृद्धक्षत्रो वनं यातस्तपश्चोग्रं समास्थितः ॥ ११३ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततो राज्ये स्थापयित्वा जयद्रथम्।
वृद्धक्षत्रो वनं यातस्तपश्चोग्रं समास्थितः ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसा कहकर समय आनेपर वृद्धक्षत्रने जयद्रथको राज्य सिंहासनपर स्थापित कर दिया और स्वयं वनमें जाकर वे उग्र तपस्यामें संलग्न हो गये॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं तप्यति तेजस्वी तपो घोरं दुरासदम्।
समन्तपञ्चकादस्माद् बहिर्वानरकेतन ॥ ११४ ॥
मूलम्
सोऽयं तप्यति तेजस्वी तपो घोरं दुरासदम्।
समन्तपञ्चकादस्माद् बहिर्वानरकेतन ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कपिध्वज अर्जुन! वे तेजस्वी राजा वृद्धक्षत्र इस समय इस समन्तपंचक-क्षेत्रसे बाहर घोर एवं दुर्धर्ष तपस्या कर रहे हैं॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माज्जयद्रथस्य त्वं शिरश्छित्त्वा महामृधे।
दिव्येनास्त्रेण रिपुहन् घोरेणाद्भुतकर्मणा ॥ ११५ ॥
सकुण्डलं सिन्धुपतेः प्रभञ्जनसुतानुज ।
उत्सङ्गे पातयस्वास्य वृद्धक्षत्रस्य भारत ॥ ११६ ॥
मूलम्
तस्माज्जयद्रथस्य त्वं शिरश्छित्त्वा महामृधे।
दिव्येनास्त्रेण रिपुहन् घोरेणाद्भुतकर्मणा ॥ ११५ ॥
सकुण्डलं सिन्धुपतेः प्रभञ्जनसुतानुज ।
उत्सङ्गे पातयस्वास्य वृद्धक्षत्रस्य भारत ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः शत्रुसूदन! तुम अद्भुत कर्म करनेवाले किसी भयंकर दिव्यास्त्रके द्वारा इस महासमरमें सिंधुराज जयद्रथका कुण्डलसहित मस्तक काटकर उसे इस वृद्धक्षत्रकी गोदमें गिरा दो। भारत! तुम भीमसेनके छोटे भाई हो (अतः सब कुछ कर सकते हो)॥११५-११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ त्वमस्य मूर्धानं पातयिष्यसि भूतले।
तवापि शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः ॥ ११७ ॥
मूलम्
अथ त्वमस्य मूर्धानं पातयिष्यसि भूतले।
तवापि शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तुम इसके मस्तकको पृथ्वीपर गिराओगे तो तुम्हारे मस्तकके भी सौ टुकड़े हो जायँगे। इसमें संशय नहीं है’॥११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चेदं न जानीयात् स राजा तपसि स्थितः।
तथा कुरु कुरुश्रेष्ठ दिव्यमस्त्रमुपाश्रितः ॥ ११८ ॥
मूलम्
यथा चेदं न जानीयात् स राजा तपसि स्थितः।
तथा कुरु कुरुश्रेष्ठ दिव्यमस्त्रमुपाश्रितः ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुश्रेष्ठ! राजा वृद्धक्षत्र तपस्यामें संलग्न हैं। तुम दिव्यास्त्रका आश्रय लेकर ऐसा प्रयत्न करो, जिससे उसे इस बातका पता न चले’॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यसाध्यमकार्यं वा विद्यते तव किंचन।
समस्तेष्वपि लोकेषु त्रिषु वासवनन्दन ॥ ११९ ॥
मूलम्
न ह्यसाध्यमकार्यं वा विद्यते तव किंचन।
समस्तेष्वपि लोकेषु त्रिषु वासवनन्दन ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्द्रकुमार! सम्पूर्ण त्रिलोकीमें कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो अथवा जिसे तुम कर न सको’॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं सृक्किणी परिसंलिहन्।
इन्द्राशनिसमस्पर्शं दिव्यमन्त्राभिमन्त्रितम् ॥ १२० ॥
सर्वभारसहं शश्वद् गन्धमाल्यार्चितं शरम्।
विससर्जार्जुनस्तूर्णं सैन्धवस्य वधे धृतम् ॥ १२१ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं सृक्किणी परिसंलिहन्।
इन्द्राशनिसमस्पर्शं दिव्यमन्त्राभिमन्त्रितम् ॥ १२० ॥
सर्वभारसहं शश्वद् गन्धमाल्यार्चितं शरम्।
विससर्जार्जुनस्तूर्णं सैन्धवस्य वधे धृतम् ॥ १२१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर अपने दोनों गलफर चाटते हुए अर्जुनने सिंधुराजके वधके लिये धनुषपर रखे हुए उस बाणको तुरंत ही छोड़ दिया, जिसका स्पर्श इन्द्रके वज्रके समान कठोर था, जिसे दिव्य मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित किया था, जो सारे भारोंको सहनेमें समर्थ था और जिसकी प्रतिदिन चन्दन और पुष्पमालाद्वारा पूजा की जाती थी॥१२०-१२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु गाण्डीवनिर्मुक्तः शरः श्येन इवाशुगः।
छित्त्वा शिरः सिन्धुपतेरुत्पपात विहायसम् ॥ १२२ ॥
मूलम्
स तु गाण्डीवनिर्मुक्तः शरः श्येन इवाशुगः।
छित्त्वा शिरः सिन्धुपतेरुत्पपात विहायसम् ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाण्डीव धनुषसे छूटा हुआ वह शीघ्रगामी बाण सिंधुराजका सिर काटकर बाजपक्षीके समान उसे आकाशमें ले उड़ा॥१२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छिरः सिन्धुराजस्य शरैरूर्ध्वमवाहयत् ।
दुर्हृदामप्रहर्षाय सुहृदां हर्षणाय च ॥ १२३ ॥
मूलम्
तच्छिरः सिन्धुराजस्य शरैरूर्ध्वमवाहयत् ।
दुर्हृदामप्रहर्षाय सुहृदां हर्षणाय च ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिंधुराज जयद्रथके उस मस्तकको उन्होंने बाणोंद्वारा ऊपर-ही-ऊपर ढोना आरम्भ किया। इससे अर्जुनके शत्रुओंको बड़ा दुःख और मित्रोंको महान् हर्ष हुआ॥१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरैः कदम्बकीकृत्य काले तस्मिंश्च पाण्डवः।
योधयामास तांश्चैव पाण्डवः षण्महारथान् ॥ १२४ ॥
मूलम्
शरैः कदम्बकीकृत्य काले तस्मिंश्च पाण्डवः।
योधयामास तांश्चैव पाण्डवः षण्महारथान् ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुनने एकके बाद एक करके अनेक बाण मारकर उस मस्तकको कदम्बके फूल-सा बना दिया। साथ ही वे पूर्वोक्त छः महारथियोंसे युद्ध भी करते रहे॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुमहदाश्चर्यं तत्रापश्याम भारत।
समन्तपञ्चकाद् बाह्यं शिरो यद् व्यहरत् ततः ॥ १२५ ॥
मूलम्
ततः सुमहदाश्चर्यं तत्रापश्याम भारत।
समन्तपञ्चकाद् बाह्यं शिरो यद् व्यहरत् ततः ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस समय हमने समन्तपंचकसे बाहर जहाँ वह बाण उस मस्तकको ले गया था, वहाँ बड़े भारी आश्चर्यकी घटना देखी॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु वृद्धक्षत्रो महीपतिः।
संध्यामुपास्ते तेजस्वी सम्बन्धी तव मारिष ॥ १२६ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु वृद्धक्षत्रो महीपतिः।
संध्यामुपास्ते तेजस्वी सम्बन्धी तव मारिष ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! इसी समय आपके तेजस्वी सम्बन्धी राजा वृद्धक्षत्र संध्योपासना कर रहे थे॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपासीनस्य तस्याथ कृष्णकेशं सकुण्डलम्।
सिन्धुराजस्य मूर्धानमुत्सङ्गे समपातयत् ॥ १२७ ॥
मूलम्
उपासीनस्य तस्याथ कृष्णकेशं सकुण्डलम्।
सिन्धुराजस्य मूर्धानमुत्सङ्गे समपातयत् ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संध्योपासनामें बैठे हुए वृद्धक्षत्रके अंकमें उस बाणने सिंधुराज जयद्रथका वह काले केशोंवाला कुण्डलमण्डित मस्तक डाल दिया॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योत्सङ्गे निपतितं शिरस्तच्चारुकुण्डलम् ।
वृद्धक्षत्रस्य नृपतेरलक्षितमरिंदम ॥ १२८ ॥
मूलम्
तस्योत्सङ्गे निपतितं शिरस्तच्चारुकुण्डलम् ।
वृद्धक्षत्रस्य नृपतेरलक्षितमरिंदम ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! जयद्रथका वह सुन्दर कुण्डलोंसे सुशोभित सिर राजा वृद्धक्षत्रकी गोदमें उनके बिना देखे ही गिर गया॥१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतजप्यस्य तस्याथ वृद्धक्षत्रस्य भारत।
प्रोत्तिष्ठतस्तत् सहसा शिरोऽगच्छद् धरातलम् ॥ १२९ ॥
मूलम्
कृतजप्यस्य तस्याथ वृद्धक्षत्रस्य भारत।
प्रोत्तिष्ठतस्तत् सहसा शिरोऽगच्छद् धरातलम् ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जप समाप्त करके जब वृद्धक्षत्र सहसा उठने लगे, तब उनकी गोदसे वह मस्तक पृथ्वीपर जा गिरा॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्य नरेन्द्रस्य पुत्रमूर्धनि भूतले।
गते तस्यापि शतधा मूर्धागच्छदरिंदम ॥ १३० ॥
मूलम्
ततस्तस्य नरेन्द्रस्य पुत्रमूर्धनि भूतले।
गते तस्यापि शतधा मूर्धागच्छदरिंदम ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन महाराज! पुत्रका मस्तक पृथ्वीपर गिरते ही राजा वृद्धक्षत्रके मस्तकके भी सौ टुकड़े हो गये॥१३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वाणि सैन्यानि विस्मयं जग्मुरुत्तमम्।
वासुदेवं च बीभत्सुं प्रशशंसुर्महारथम् ॥ १३१ ॥
मूलम्
ततः सर्वाणि सैन्यानि विस्मयं जग्मुरुत्तमम्।
वासुदेवं च बीभत्सुं प्रशशंसुर्महारथम् ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सारी सेनाएँ भारी आश्चर्यमें पड़ गयीं और सब लोग श्रीकृष्ण और अर्जुनकी प्रशंसा करने लगे॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विनिहते राजन् सिन्धुराजे किरीटिना।
तमस्तद् वासुदेवेन संहृतं भरतर्षभ ॥ १३२ ॥
मूलम्
ततो विनिहते राजन् सिन्धुराजे किरीटिना।
तमस्तद् वासुदेवेन संहृतं भरतर्षभ ॥ १३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भरतश्रेष्ठ! किरीटधारी अर्जुनके द्वारा सिंधुराज जयद्रथके मारे जानेपर भगवान् श्रीकृष्णने अपने रचे हुए अन्धकारको समेट लिया॥१३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चाज्ज्ञातं महीपाल तव पुत्रैः सहानुगैः।
वासुदेवप्रयुक्तेयं मायेति नृपसत्तम ॥ १३३ ॥
मूलम्
पश्चाज्ज्ञातं महीपाल तव पुत्रैः सहानुगैः।
वासुदेवप्रयुक्तेयं मायेति नृपसत्तम ॥ १३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! महीपाल! पीछे सेवकोंसहित आपके पुत्रोंको यह ज्ञात हुआ कि इस अन्धकारके रूपमें भगवान् श्रीकृष्णद्वारा फैलायी हुई माया थी॥१३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स निहतो राजन् पार्थेनामिततेजसा।
अक्षौहिणीरष्ट हत्वा जामाता तव सैन्धवः ॥ १३४ ॥
मूलम्
एवं स निहतो राजन् पार्थेनामिततेजसा।
अक्षौहिणीरष्ट हत्वा जामाता तव सैन्धवः ॥ १३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार अमित तेजस्वी अर्जुनने आपकी आठ अक्षौहिणी सेनाओंके संहारकी पूर्ति करके आपके दामाद सिंधुराज जयद्रथको मार डाला॥१३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतं जयद्रथं दृष्ट्वा तव पुत्रा नराधिप।
दुःखादश्रूणि मुमुचुर्निराशाश्चाभवन् जये ॥ १३५ ॥
मूलम्
हतं जयद्रथं दृष्ट्वा तव पुत्रा नराधिप।
दुःखादश्रूणि मुमुचुर्निराशाश्चाभवन् जये ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जयद्रथको मारा गया देख आपके पुत्र दुःखसे आँसू बहाने लगे और अपनी विजयसे निराश हो गये॥१३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जयद्रथे राजन् हते पार्थेन केशवः।
दध्मौ शंखं महाबाहुरर्जुनश्च परंतपः ॥ १३६ ॥
मूलम्
ततो जयद्रथे राजन् हते पार्थेन केशवः।
दध्मौ शंखं महाबाहुरर्जुनश्च परंतपः ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कुन्तीकुमारद्वारा जयद्रथके मारे जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण तथा शत्रुतापन महाबाहु अर्जुनने अपना-अपना शंख बजाया॥१३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमश्च वृष्णिसिंहश्च युधामन्युश्च भारत।
उत्तमौजाश्च विक्रान्तः शंखान् दध्मुः पृथक् पृथक् ॥ १३७ ॥
मूलम्
भीमश्च वृष्णिसिंहश्च युधामन्युश्च भारत।
उत्तमौजाश्च विक्रान्तः शंखान् दध्मुः पृथक् पृथक् ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तत्पश्चात् भीमसेन, वृष्णिवंशके सिंह, युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजाने पृथक्-पृथक् शंख बजाये॥१३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा महान्तं तं शब्दं धर्मराजो युधिष्ठिरः।
सैन्धवं निहतं मेने फाल्गुनेन महात्मना ॥ १३८ ॥
मूलम्
श्रुत्वा महान्तं तं शब्दं धर्मराजो युधिष्ठिरः।
सैन्धवं निहतं मेने फाल्गुनेन महात्मना ॥ १३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महान् शंखनादको सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरको यह निश्चय हो गया कि महात्मा अर्जुनने सिंधुराज जयद्रथको मार डाला॥१३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वादित्रघोषेण स्वान् योधान् पर्यहर्षयत्।
अभ्यवर्तत संग्रामे भारद्वाजं युयुत्सया ॥ १३९ ॥
मूलम्
ततो वादित्रघोषेण स्वान् योधान् पर्यहर्षयत्।
अभ्यवर्तत संग्रामे भारद्वाजं युयुत्सया ॥ १३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर युधिष्ठिर भी विजयके बाजे बजवाकर अपने योद्धाओंका हर्ष बढ़ाने लगे। वे युद्धकी इच्छासे संग्रामभूमिमें द्रोणाचार्यके सामने डटे रहे॥१३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रववृते राजन्नस्तंगच्छति भास्करे।
द्रोणस्य सोमकैः सार्धं संग्रामो लोमहर्षणः ॥ १४० ॥
मूलम्
ततः प्रववृते राजन्नस्तंगच्छति भास्करे।
द्रोणस्य सोमकैः सार्धं संग्रामो लोमहर्षणः ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर सूर्यास्त होते समय द्रोणाचार्यका सोमकोंके साथ रोमांचकारी संग्राम छिड़ गया॥१४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु सर्वे प्रयत्नेन भारद्वाजं जिघांसवः।
सैन्धवे निहते राजन्नयुध्यन्त महारथाः ॥ १४१ ॥
मूलम्
ते तु सर्वे प्रयत्नेन भारद्वाजं जिघांसवः।
सैन्धवे निहते राजन्नयुध्यन्त महारथाः ॥ १४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! सिंधुराजके मारे जानेपर समस्त सोमक महारथी द्रोणाचार्यके वधकी इच्छासे प्रयत्नपूर्वक युद्ध करने लगे॥१४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा सैन्धवं विनिहत्य च।
अयोधयंस्तु ते द्रोणं जयोन्मत्तास्ततस्ततः ॥ १४२ ॥
मूलम्
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा सैन्धवं विनिहत्य च।
अयोधयंस्तु ते द्रोणं जयोन्मत्तास्ततस्ततः ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव सिंधुराजको मारकर विजय पा चुके थे। अतः वे विजयोल्लाससे उन्मत्त हो जहाँ-तहाँसे आकर द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करने लगे॥१४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनोऽपि ततो योधांस्तावकान् रथसत्तमान्।
अयोधयन्महाबाहुर्हत्वा सैन्धवकं नृपम् ॥ १४३ ॥
मूलम्
अर्जुनोऽपि ततो योधांस्तावकान् रथसत्तमान्।
अयोधयन्महाबाहुर्हत्वा सैन्धवकं नृपम् ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु अर्जुनने भी सिंधुराजको मारकर आपके श्रेष्ठ रथी योद्धाओंके साथ युद्ध छेड़ दिया॥१४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स देवशत्रूनिव देवराजः
किरीटमाली व्यधमत् समन्तात् ।
यथा तमांस्यभ्युदितस्तमोघ्नः
पूर्वप्रतिज्ञां समवाप्य वीरः ॥ १४४ ॥
मूलम्
स देवशत्रूनिव देवराजः
किरीटमाली व्यधमत् समन्तात् ।
यथा तमांस्यभ्युदितस्तमोघ्नः
पूर्वप्रतिज्ञां समवाप्य वीरः ॥ १४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे देवराज इन्द्र देवशत्रुओंका संहार करते हैं तथा जैसे तिमिरारि सूर्य उदित होकर अन्धकारका विनाश कर डालते हैं, उसी प्रकार किरीटधारी वीर अर्जुनने अपनी पहली प्रतिज्ञा पूरी करके सब ओरसे आपकी सेनाका संहार आरम्भ कर दिया॥१४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि जयद्रथवधे षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें जयद्रथवधविषयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४६॥