१४५ संकुलयुद्धे

भागसूचना

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका जयद्रथपर आक्रमण, कर्ण और दुर्योधनकी बातचीत, कर्णके साथ अर्जुनका युद्ध और कर्णकी पराजय तथा सब योद्धाओंके साथ अर्जुनका घोर युद्ध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदवस्थे हते तस्मिन् भूरिश्रवसि कौरवे।
यथा भूयोऽभवद् युद्धं तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

मूलम्

तदवस्थे हते तस्मिन् भूरिश्रवसि कौरवे।
यथा भूयोऽभवद् युद्धं तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! उस अवस्थामें कुरुवंशी भूरिश्रवाके मारे जानेपर पुनः जिस प्रकार युद्ध हुआ, वह मुझे बताओ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूरिश्रवसि संक्रान्ते परलोकाय भारत।
वासुदेवं महाबाहुरर्जुनः समचूचुदत् ॥ २ ॥

मूलम्

भूरिश्रवसि संक्रान्ते परलोकाय भारत।
वासुदेवं महाबाहुरर्जुनः समचूचुदत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— भारत! भूरिश्रवाके परलोकगामी हो जानेपर महाबाहु अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णको प्रेरित करते हुए कहा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोदयाश्वान् भृशं कृष्ण यतो राजा जयद्रथः।
श्रूयते पुण्डरीकाक्ष त्रिषु धर्मेषु वर्तते ॥ ३ ॥
प्रतिज्ञां सफलां चापि कर्तुमर्हसि मेऽनघ।
अस्तमेति महाबाहो त्वरमाणो दिवाकरः ॥ ४ ॥

मूलम्

चोदयाश्वान् भृशं कृष्ण यतो राजा जयद्रथः।
श्रूयते पुण्डरीकाक्ष त्रिषु धर्मेषु वर्तते ॥ ३ ॥
प्रतिज्ञां सफलां चापि कर्तुमर्हसि मेऽनघ।
अस्तमेति महाबाहो त्वरमाणो दिवाकरः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! जिस ओर राजा जयद्रथ खड़ा है, उसी ओर अब इन घोड़ोंको शीघ्रतापूर्वक हाँकिये। कमलनयन! सुना जाता है कि वह इस समय तीन धर्मोंमें विद्यमान है। निष्पाप केशव! मेरी प्रतिज्ञा आप सफल करें। महाबाहो! सूर्यदेव तीव्रगतिसे अस्ताचलकी ओर जा रहे हैं॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्धि पुरुषव्याघ्र महदभ्युद्यंतं मया।
कार्यं संरक्ष्यते चैष कुरुसेनामहारथैः ॥ ५ ॥

मूलम्

एतद्धि पुरुषव्याघ्र महदभ्युद्यंतं मया।
कार्यं संरक्ष्यते चैष कुरुसेनामहारथैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! मैंने यह बहुत बड़े कार्यके लिये उद्योग आरम्भ किया है। कौरव-सेनाके महारथी इस जयद्रथकी रक्षा कर रहे हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा नाभ्येति सूर्योऽस्तं यथा सत्यं भवेद् वचः।
चोदयाश्वांस्तथा कृष्ण यथा हन्यां जयद्रथम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तथा नाभ्येति सूर्योऽस्तं यथा सत्यं भवेद् वचः।
चोदयाश्वांस्तथा कृष्ण यथा हन्यां जयद्रथम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! जबतक सूर्य अस्ताचलको न चले जायँ, तभीतक जैसे भी मेरी प्रतिज्ञा सच्ची हो जाय और जैसे भी मैं जयद्रथको मार सकूँ, उसी प्रकार शीघ्रतापूर्वक इन घोड़ोंको हाँकिये’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कृष्णो महाबाहू रजतप्रतिमान् हयान्।
हयज्ञश्चोदयामास जयद्रथवधं प्रति ॥ ७ ॥

मूलम्

ततः कृष्णो महाबाहू रजतप्रतिमान् हयान्।
हयज्ञश्चोदयामास जयद्रथवधं प्रति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अश्वविद्याके ज्ञाता महाबाहु श्रीकृष्णने जयद्रथको मारनेके उद्देश्यसे उसकी ओर चाँदीके समान श्वेत घोड़ोंको हाँका॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रयान्तममोघेषुमुत्पतद्भिरिवाशुगैः ।
त्वरमाणा महाराज सेनामुख्याः समाद्रवन् ॥ ८ ॥

मूलम्

तं प्रयान्तममोघेषुमुत्पतद्भिरिवाशुगैः ।
त्वरमाणा महाराज सेनामुख्याः समाद्रवन् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जिनके बाण कभी व्यर्थ नहीं जाते, उन अर्जुनको धनुषसे छूटे हुए बाणोंके समान उड़ते हुए-से अश्वोंद्वारा जयद्रथकी ओर जाते देख कौरव-सेनाके प्रधान-प्रधान वीर बड़े वेगसे दौड़े॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनश्च कर्णश्च वृषसेनोऽथ मद्रराट्।
अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धवः ॥ ९ ॥

मूलम्

दुर्योधनश्च कर्णश्च वृषसेनोऽथ मद्रराट्।
अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धवः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और स्वयं सिंधुराज जयद्रथ—ये सभी युद्धके लिये डट गये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समासाद्य च बीभत्सुः सैन्धवं समुपस्थितम्।
नेत्राभ्यां क्रोधदीप्ताभ्यां सम्प्रैक्षन्निर्दहन्निव ॥ १० ॥

मूलम्

समासाद्य च बीभत्सुः सैन्धवं समुपस्थितम्।
नेत्राभ्यां क्रोधदीप्ताभ्यां सम्प्रैक्षन्निर्दहन्निव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उपस्थित हुए सिंधुराजको सामने पाकर अर्जुनने क्रोधसे उद्दीप्त नेत्रोंद्वारा उसे इस प्रकार देखा, मानो जलाकर भस्म कर देंगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो राजा राधेयं त्वरितोऽब्रवीत्।
अर्जुनं प्रेक्ष्य संयातं जयद्रथवधं प्रति ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनो राजा राधेयं त्वरितोऽब्रवीत्।
अर्जुनं प्रेक्ष्य संयातं जयद्रथवधं प्रति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा दुर्योधनने अर्जुनको जयद्रथको मारनेके लिये उसकी ओर जाते देख तुरंत ही राधापुत्र कर्णसे कहा—॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स वैकर्तन युद्धकालो
विदर्शयस्वात्मबलं महात्मन् ।
यथा न वध्येत रणेऽर्जुनेन
जयद्रथः कर्ण तथा कुरुष्व ॥ १२ ॥

मूलम्

अयं स वैकर्तन युद्धकालो
विदर्शयस्वात्मबलं महात्मन् ।
यथा न वध्येत रणेऽर्जुनेन
जयद्रथः कर्ण तथा कुरुष्व ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूर्यपुत्र! यही वह युद्धका समय आया है। महात्मन्! तुम इस समय अपना बल दिखाओ। कर्ण! रणभूमिमें अर्जुनके द्वारा जैसे भी जयद्रथका वध न होने पावे, वैसा प्रयत्न करो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पावशेषो दिवसो नृवीर
विघातयस्वाद्य रिपुं शरौघैः ।
दिनक्षयं प्राप्य नरप्रवीर
ध्रुवो हि नः कर्ण जयो भविष्यति ॥ १३ ॥

मूलम्

अल्पावशेषो दिवसो नृवीर
विघातयस्वाद्य रिपुं शरौघैः ।
दिनक्षयं प्राप्य नरप्रवीर
ध्रुवो हि नः कर्ण जयो भविष्यति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरवीर! अब दिनका थोड़ा-सा ही भाग शेष है। तुम अपने बाणसमूहोंद्वारा इस समय शत्रुको घायल करके उसके कार्यमें बाधा डालो। मनुष्यलोकके प्रमुख वीर कर्ण! दिन समाप्त होनेपर तो निश्चय ही हमारी विजय हो जायगी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्धवे रक्ष्यमाणे तु सूर्यस्यास्तमनं प्रति।
मिथ्याप्रतिज्ञः कौन्तेयः प्रवेक्ष्यति हुताशनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

सैन्धवे रक्ष्यमाणे तु सूर्यस्यास्तमनं प्रति।
मिथ्याप्रतिज्ञः कौन्तेयः प्रवेक्ष्यति हुताशनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूर्यास्त होनेतक यदि सिंधुराज सुरक्षित रहे तो प्रतिज्ञा झूठी होनेके कारण अर्जुन अग्निमें प्रवेश कर जायँगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनर्जुनायां च भुवि मुहूर्तमपि मानद।
जीवितुं नोत्सहेरन् वै भ्रातरोऽस्य सहानुगाः ॥ १५ ॥

मूलम्

अनर्जुनायां च भुवि मुहूर्तमपि मानद।
जीवितुं नोत्सहेरन् वै भ्रातरोऽस्य सहानुगाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! फिर अर्जुनरहित भूतलपर उनके भाई और अनुगामी सेवक दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनष्टैः पाण्डवेयैश्च सशैलवनकाननाम् ।
वसुंधरामिमां कर्ण भोक्ष्यामो हतकण्टकाम् ॥ १६ ॥

मूलम्

विनष्टैः पाण्डवेयैश्च सशैलवनकाननाम् ।
वसुंधरामिमां कर्ण भोक्ष्यामो हतकण्टकाम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! पाण्डवोंके नष्ट हो जानेपर हमलोग पर्वत, वन और काननोंसहित इस निष्कण्टक वसुधाका राज्य भोगेंगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवेनोपहतः पार्थो विपरीतश्च मानद।
कार्याकार्यमजानानः प्रतिज्ञां कृतवान् रणे ॥ १७ ॥

मूलम्

दैवेनोपहतः पार्थो विपरीतश्च मानद।
कार्याकार्यमजानानः प्रतिज्ञां कृतवान् रणे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! दैवके मारे हुए अर्जुनकी बुद्धि विपरीत हो गयी थी। इसीलिये कर्तव्य और अकर्तव्यका विचार न करके उन्होंने रणभूमिमें जयद्रथको मारनेकी प्रतिज्ञा कर ली॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनमात्मविनाशाय पाण्डवेन किरीटिना ।
प्रतिज्ञेयं कृता कर्ण जयद्रथवधं प्रति ॥ १८ ॥

मूलम्

नूनमात्मविनाशाय पाण्डवेन किरीटिना ।
प्रतिज्ञेयं कृता कर्ण जयद्रथवधं प्रति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! निश्चय ही किरीटधारी पाण्डव अर्जुनने अपने ही विनाशके लिये जयद्रथ-वधकी यह प्रतिज्ञा कर डाली है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं जीवति दुर्धर्षे त्वयि राधेय फाल्गुनः।
अनस्तंगत आदित्ये हन्यात् सैन्धवकं नृपम् ॥ १९ ॥

मूलम्

कथं जीवति दुर्धर्षे त्वयि राधेय फाल्गुनः।
अनस्तंगत आदित्ये हन्यात् सैन्धवकं नृपम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राधानन्दन! तुम-जैसे दुर्धर्ष वीरके जीते-जी अर्जुन सिंधुराजको सूर्यास्त होनेसे पहले ही कैसे मार सकेंगे?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षितं मद्रराजेन कृपेण च महात्मना।
जयद्रथं रणमुखे कथं हन्याद् धनंजयः ॥ २० ॥

मूलम्

रक्षितं मद्रराजेन कृपेण च महात्मना।
जयद्रथं रणमुखे कथं हन्याद् धनंजयः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मद्रराज शल्य और महामना कृपाचार्यसे सुरक्षित हुए जयद्रथको अर्जुन युद्धके मुहानेपर कैसे मार सकेंगे?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौणिना रक्ष्यमाणं च मया दुःशासनेन च।
कथं प्राप्स्यति बीभत्सुः सैन्धवं कालचोदितः ॥ २१ ॥

मूलम्

द्रौणिना रक्ष्यमाणं च मया दुःशासनेन च।
कथं प्राप्स्यति बीभत्सुः सैन्धवं कालचोदितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं, दुःशासन तथा अश्वत्थामा जिनकी रक्षा कर रहे हैं, उन सिंधुराज जयद्रथको अर्जुन कैसे प्राप्त कर सकेंगे? जान पड़ता है कि वे कालसे प्रेरित हो रहे हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यन्ते बहवः शूरा लम्बते च दिवाकरः।
शङ्के जयद्रथं पार्थो नैव प्राप्स्यति मानद ॥ २२ ॥

मूलम्

युध्यन्ते बहवः शूरा लम्बते च दिवाकरः।
शङ्के जयद्रथं पार्थो नैव प्राप्स्यति मानद ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! बहुत-से शूरवीर युद्ध कर रहे हैं, उधर सूर्य भी अस्ताचलपर जा रहे हैं। अतः मुझे संदेह यह होता है कि अर्जुन जयद्रथतक नहीं पहुँच पायेंगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं कर्ण मया सार्धं शूरैश्चान्यैर्महारथैः।
द्रौणिना त्वं हि सहितो मद्रेशेन कृपेण च ॥ २३ ॥
युध्यस्व यत्नमास्थाय परं पार्थेन संयुगे।

मूलम्

स त्वं कर्ण मया सार्धं शूरैश्चान्यैर्महारथैः।
द्रौणिना त्वं हि सहितो मद्रेशेन कृपेण च ॥ २३ ॥
युध्यस्व यत्नमास्थाय परं पार्थेन संयुगे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! तुम मेरे, अश्वत्थामाके, मद्रराज शल्यके, कृपाचार्यके तथा अन्य शूरवीर महारथियोंके साथ पूरा प्रयत्न करके रणक्षेत्रमें अर्जुनके साथ युद्ध करो’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु राधेयस्तव पुत्रेण मारिष ॥ २४ ॥
दुर्योधनमिदं वाक्यं प्रत्युवाच कुरूत्तमम्।

मूलम्

एवमुक्तस्तु राधेयस्तव पुत्रेण मारिष ॥ २४ ॥
दुर्योधनमिदं वाक्यं प्रत्युवाच कुरूत्तमम्।

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! आपके पुत्रके ऐसा कहनेपर राधानन्दन कर्णने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढलक्ष्येण वीरेण भीमसेनेन धन्विना ॥ २५ ॥
भृशं भिन्नतनुः संख्ये शरजालैरनेकशः।
स्थातव्यमिति तिष्ठामि रणे सम्प्रति मानद ॥ २६ ॥

मूलम्

दृढलक्ष्येण वीरेण भीमसेनेन धन्विना ॥ २५ ॥
भृशं भिन्नतनुः संख्ये शरजालैरनेकशः।
स्थातव्यमिति तिष्ठामि रणे सम्प्रति मानद ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानद! सुदृढ़ लक्ष्यवाले वीर धनुर्धर भीमसेनने संग्राममें अपने बाणसमूहोंद्वारा अनेक बार मेरे शरीरको अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है। मुझे खड़ा रहना चाहिये (भागना नहीं चाहिये), यह सोचकर ही इस समय मैं रणभूमिमें ठहरा हुआ हूँ॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाङ्गमिङ्गति किंचिन्मे संतप्तस्य महेषुभिः।
योत्स्यामि तु यथाशक्त्या त्वदर्थं जीवितं मम ॥ २७ ॥

मूलम्

नाङ्गमिङ्गति किंचिन्मे संतप्तस्य महेषुभिः।
योत्स्यामि तु यथाशक्त्या त्वदर्थं जीवितं मम ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय मेरा कोई भी अंग किसी प्रकारकी चेष्टा नहीं कर रहा है। मैं बड़े-बड़े बाणोंकी आगसे संतप्त हूँ, तथापि यथाशक्ति युद्ध करूँगा; क्योंकि यह मेरा जीवन तुम्हारे लिये ही है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पाण्डवमुख्योऽसौ न हनिष्यति सैन्धवम्।
न हि मे युध्यमानस्य सायकानस्यतः शितान् ॥ २८ ॥
सैन्धवं प्राप्स्यते वीरः सव्यसाची धनंजयः।

मूलम्

यथा पाण्डवमुख्योऽसौ न हनिष्यति सैन्धवम्।
न हि मे युध्यमानस्य सायकानस्यतः शितान् ॥ २८ ॥
सैन्धवं प्राप्स्यते वीरः सव्यसाची धनंजयः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंके प्रधान वीर अर्जुन जैसे भी किसी तरह सिंधुराजको नहीं मार सकेंगे, वैसा प्रयत्न करूँगा। जबतक मैं युद्धमें तत्पर होकर पैने बाण छोड़ता रहूँगा, तबतक सव्यसाची वीर धनंजय सिंधुराजको नहीं पा सकेंगे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तु भक्तिमता कार्यं सततं हितकाङ्क्षिणा ॥ २९ ॥
तत् करिष्यामि कौरव्य जयो दैवे प्रतिष्ठितः।

मूलम्

यत्तु भक्तिमता कार्यं सततं हितकाङ्क्षिणा ॥ २९ ॥
तत् करिष्यामि कौरव्य जयो दैवे प्रतिष्ठितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! सदा मित्रका हित चाहनेवाले भक्तिमान् पुरुषको जो कार्य करना चाहिये, वह मैं करूँगा। विजयकी प्राप्ति तो दैवके अधीन है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्धवार्थे परं यत्नं करिष्याम्यद्य संयुगे ॥ ३० ॥
त्वत्प्रियार्थं महाराज जयो दैवे प्रतिष्ठितः।

मूलम्

सैन्धवार्थे परं यत्नं करिष्याम्यद्य संयुगे ॥ ३० ॥
त्वत्प्रियार्थं महाराज जयो दैवे प्रतिष्ठितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आज युद्धस्थलमें आपका प्रिय करनेके लिये मैं सिंधुराजकी रक्षाके निमित्त पूरा प्रयत्न करूँगा। विजय तो दैवके अधीन है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य योत्स्येऽर्जुनमहं पौरुषं स्वं व्यपाश्रितः ॥ ३१ ॥
त्वदर्थे पुरुषव्याघ्र जयो दैवे प्रतिष्ठितः।

मूलम्

अद्य योत्स्येऽर्जुनमहं पौरुषं स्वं व्यपाश्रितः ॥ ३१ ॥
त्वदर्थे पुरुषव्याघ्र जयो दैवे प्रतिष्ठितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! आज मैं अपने पुरुषार्थका भरोसा करके तुम्हारे हितके लिये अर्जुनके साथ युद्ध करूँगा। विजयकी प्राप्ति तो दैवके अधीन है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य युद्धं कुरुश्रेष्ठ मम पार्थस्य चोभयोः ॥ ३२ ॥
पश्यन्तु सर्वसैन्यानि दारुणं लोमहर्षणम्।

मूलम्

अद्य युद्धं कुरुश्रेष्ठ मम पार्थस्य चोभयोः ॥ ३२ ॥
पश्यन्तु सर्वसैन्यानि दारुणं लोमहर्षणम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुश्रेष्ठ! आज सारी सेनाएँ मेरे और अर्जुन दोनोंके भयंकर एवं रोमांचकारी युद्धको देखें’॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णकौरवयोरेवं रणे सम्भाषमाणयोः ॥ ३३ ॥
अर्जुनो निशितैर्बाणैर्जघान तव वाहिनीम्।

मूलम्

कर्णकौरवयोरेवं रणे सम्भाषमाणयोः ॥ ३३ ॥
अर्जुनो निशितैर्बाणैर्जघान तव वाहिनीम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जब रणक्षेत्रमें कर्ण और दुर्योधन इस तरह वार्तालाप कर रहे थे, उस समय अर्जुनने अपने पैने बाणोंद्वारा आपकी सेनाका संहार आरम्भ किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिच्छेद निशितैर्बाणैः शूराणामनिवर्तिनाम् ॥ ३४ ॥
भुजान् परिघसंकाशान् हस्तिहस्तोपमान् रणे।

मूलम्

चिच्छेद निशितैर्बाणैः शूराणामनिवर्तिनाम् ॥ ३४ ॥
भुजान् परिघसंकाशान् हस्तिहस्तोपमान् रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने तीखे बाणोंसे रणभूमिमें कभी पीठ न दिखानेवाले शूरवीरोंकी परिघके समान सुदृढ़ तथा हाथीकी सूँड़के समान मोटी भुजाओंको काट डाला॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरांसि च महाबाहुश्चिच्छेद निशितैः शरैः ॥ ३५ ॥
हस्तिहस्तान् हयग्रीवान् रथाक्षांश्च समन्ततः।

मूलम्

शिरांसि च महाबाहुश्चिच्छेद निशितैः शरैः ॥ ३५ ॥
हस्तिहस्तान् हयग्रीवान् रथाक्षांश्च समन्ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु अर्जुनने सब ओर अपने तीखे बाणोंसे शत्रुओंके मस्तक, हाथियोंके शुण्डदण्डों, घोड़ोंकी गर्दनों तथा रथके धुरोंको भी खण्डित कर दिया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोणिताक्तान् हयारोहान् गृहीतप्रासतोमरान् ॥ ३६ ॥
क्षुरैश्चिच्छेद बीभत्सुर्द्विधैकैकं त्रिधैव च।

मूलम्

शोणिताक्तान् हयारोहान् गृहीतप्रासतोमरान् ॥ ३६ ॥
क्षुरैश्चिच्छेद बीभत्सुर्द्विधैकैकं त्रिधैव च।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने हाथोंमें प्रास और तोमर लिये खूनसे रँगे हुए घुड़सवारोंमेंसे प्रत्येकके अपने छुरोंद्वारा दो-दो और तीन-तीन टुकड़े कर डाले॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हया वारणमुख्याश्च प्रापतन्त समन्ततः ॥ ३७ ॥
ध्वजाश्छत्राणि चापानि चामराणि शिरांसि च।

मूलम्

हया वारणमुख्याश्च प्रापतन्त समन्ततः ॥ ३७ ॥
ध्वजाश्छत्राणि चापानि चामराणि शिरांसि च।

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े हाथी और घोड़े सब ओर धराशायी होने लगे। ध्वज, छत्र, धनुष, चँवर तथा योद्धाओंके मस्तक कट-कटकर गिरने लगे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कक्षमग्निरिवोद्धूतः प्रदहंस्तव वाहिनीम् ॥ ३८ ॥
अचिरेण महीं पार्थश्चकार रुधिरोत्तराम्।

मूलम्

कक्षमग्निरिवोद्धूतः प्रदहंस्तव वाहिनीम् ॥ ३८ ॥
अचिरेण महीं पार्थश्चकार रुधिरोत्तराम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे प्रचण्ड अग्नि घास-फूसके जंगलको जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुनने आपकी सेनाको दग्ध करते हुए थोड़ी ही देरमें वहाँकी भूमिको रक्तसे आप्लावित कर दिया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतभूयिष्ठयोधं तत् कृत्वा तव बलं बली ॥ ३९ ॥
आससाद दुराधर्षः सैन्धवं सत्यविक्रमः।

मूलम्

हतभूयिष्ठयोधं तत् कृत्वा तव बलं बली ॥ ३९ ॥
आससाद दुराधर्षः सैन्धवं सत्यविक्रमः।

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यपराक्रमी, बलवान् एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुनने आपकी सेनाके अधिकांश योद्धाओंको मारकर सिंधुराजपर आक्रमण किया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीभत्सुर्भीमसेनेन सात्वतेन च रक्षितः ॥ ४० ॥
प्रबभौ भरतश्रेष्ठ ज्वलन्निव हुताशनः।

मूलम्

बीभत्सुर्भीमसेनेन सात्वतेन च रक्षितः ॥ ४० ॥
प्रबभौ भरतश्रेष्ठ ज्वलन्निव हुताशनः।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! भीमसेन और सात्यकिसे सुरक्षित अर्जुन उस समय प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथावस्थितं दृष्ट्वा त्वदीया वीर्यसम्पदा ॥ ४१ ॥
नामृष्यन्त महेष्वासाः पाण्डवं पुरुषर्षभाः।

मूलम्

तं तथावस्थितं दृष्ट्वा त्वदीया वीर्यसम्पदा ॥ ४१ ॥
नामृष्यन्त महेष्वासाः पाण्डवं पुरुषर्षभाः।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनको इस प्रकार बल-पराक्रमकी सम्पत्तिसे युक्त होकर युद्धके लिये डटा हुआ देख आपकी सेनाके श्रेष्ठ पुरुष एवं महाधनुर्धर वीर सहन न कर सके॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनश्च कर्णश्च वृषसेनोऽथ मद्रराट् ॥ ४२ ॥
अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धवः।
संनद्धाः सैन्धवस्यार्थे समावृण्वन् किरीटिनम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

दुर्योधनश्च कर्णश्च वृषसेनोऽथ मद्रराट् ॥ ४२ ॥
अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धवः।
संनद्धाः सैन्धवस्यार्थे समावृण्वन् किरीटिनम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा स्वयं सिंधुराज जयद्रथ—इन सबने जयद्रथकी रक्षाके लिये संनद्ध होकर किरीटधारी अर्जुनको सब ओरसे घेर लिया॥४२-४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुर्ज्यातलनिःस्वनैः ।
संग्रामकोविदं पार्थं सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ४४ ॥
अभीताः पर्यवर्तन्त व्यादितास्यमिवान्तकम् ।

मूलम्

नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुर्ज्यातलनिःस्वनैः ।
संग्रामकोविदं पार्थं सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ४४ ॥
अभीताः पर्यवर्तन्त व्यादितास्यमिवान्तकम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय युद्धकुशल कुन्तीकुमार धनुषकी टंकार करते हुए रथके मार्गोंपर नाच रहे थे और मुँह बाये हुए यमराजके समान भयंकर जान पड़ते थे। उन्हें युद्धविशारद समस्त कौरव-महारथियोंने निर्भय हो चारों ओरसे घेर लिया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्धवं पृष्ठतः कृत्वा जिघांसन्तोऽच्युतार्जुनौ ॥ ४५ ॥
सूर्यास्तमनमिच्छन्तो लोहितायति भास्करे ।

मूलम्

सैन्धवं पृष्ठतः कृत्वा जिघांसन्तोऽच्युतार्जुनौ ॥ ४५ ॥
सूर्यास्तमनमिच्छन्तो लोहितायति भास्करे ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे श्रीकृष्ण और अर्जुनको मार डालनेकी इच्छासे सिंधुराज जयद्रथको पीछे करके सूर्यास्त होनेकी इच्छा और प्रतीक्षा करने लगे। उस समय सूर्य लाल-से हो चले॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते भुजैर्भोगिभोगाभैर्धनूंष्यानम्य सायकान् ॥ ४६ ॥
मुमुचुः सूर्यरश्म्याभान् शतशः फाल्गुनं प्रति।

मूलम्

ते भुजैर्भोगिभोगाभैर्धनूंष्यानम्य सायकान् ॥ ४६ ॥
मुमुचुः सूर्यरश्म्याभान् शतशः फाल्गुनं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

उन कौरव-सैनिकोंने सर्पके शरीरके समान प्रतीत होनेवाली अपनी भुजाओंद्वारा धनुषोंको नवाकर अर्जुनपर सूर्यकी किरणोंके समान चमकीले सैकड़ों बाण छोड़े॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तानस्यमानांश्च किरीटी युद्धदुर्मदः ॥ ४७ ॥
द्विधा त्रिधाष्टधैकैकं छित्त्वा विव्याध तान् रथान्।

मूलम्

ततस्तानस्यमानांश्च किरीटी युद्धदुर्मदः ॥ ४७ ॥
द्विधा त्रिधाष्टधैकैकं छित्त्वा विव्याध तान् रथान्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रणदुर्मद किरीटधारी अर्जुनने उन छोड़े गये बाणोंमेंसे प्रत्येकके दो-दो, तीन-तीन और आठ-आठ टुकड़े करके उन रथियोंको भी घायल कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहलाङ्‌गूलकेतुस्तु दर्शयन् वीर्यमात्मनः ॥ ४८ ॥
शारद्वतीसुतो राजन्नर्जुनं प्रत्यवारयत् ।

मूलम्

सिंहलाङ्‌गूलकेतुस्तु दर्शयन् वीर्यमात्मनः ॥ ४८ ॥
शारद्वतीसुतो राजन्नर्जुनं प्रत्यवारयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिनकी ध्वजामें सिंहकी पूँछका चिह्न था, उन शारद्वतीपुत्र कृपाचार्यने अपना बल-पराक्रम दिखाते हुए अर्जुनको रोका॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विद्ध्वा दशभिः पार्थं वासुदेवं च सप्तभिः ॥ ४९ ॥
अतिष्ठद् रथमार्गेषु सैन्धवं प्रतिपालयन्।

मूलम्

स विद्ध्वा दशभिः पार्थं वासुदेवं च सप्तभिः ॥ ४९ ॥
अतिष्ठद् रथमार्गेषु सैन्धवं प्रतिपालयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

वे दस बाणोंसे अर्जुनको और सातसे श्रीकृष्णको घायल करके रथके मार्गोंपर जयद्रथकी रक्षा करते हुए खड़े थे॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं कौरवश्रेष्ठाः सर्व एव महारथाः ॥ ५० ॥
महता रथवंशेन सर्वतः प्रत्यवारयन्।

मूलम्

अथैनं कौरवश्रेष्ठाः सर्व एव महारथाः ॥ ५० ॥
महता रथवंशेन सर्वतः प्रत्यवारयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् कौरव-सेनाके सभी श्रेष्ठ महारथियोंने विशाल रथसमूहके द्वारा कृपाचार्यको सब ओरसे घेर लिया॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विस्फारयन्तश्चापानि विसृजन्तश्च सायकान् ॥ ५१ ॥
सैन्धवं पर्यरक्षन्त शासनात् तनयस्य ते।

मूलम्

विस्फारयन्तश्चापानि विसृजन्तश्च सायकान् ॥ ५१ ॥
सैन्धवं पर्यरक्षन्त शासनात् तनयस्य ते।

अनुवाद (हिन्दी)

वे आपके पुत्रकी आज्ञासे धनुष खींचते और बाण छोड़ते हुए वहाँ जयद्रथकी सब ओरसे रक्षा करने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पार्थस्य शूरस्य बाह्वोर्बलमदृश्यत ॥ ५२ ॥
इषूणामक्षयत्वं च धनुषो गाण्डिवस्य च।

मूलम्

ततः पार्थस्य शूरस्य बाह्वोर्बलमदृश्यत ॥ ५२ ॥
इषूणामक्षयत्वं च धनुषो गाण्डिवस्य च।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वहाँ शूरवीर कुन्तीकुमारकी भुजाओंका बल देखा गया। उनके गाण्डीव धनुष तथा बाणोंकी अक्षयताका परिचय मिला॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणेः शारद्वतस्य च ॥ ५३ ॥
एकैकं दशभिर्बाणैः सर्वानेव समार्पयत्।

मूलम्

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणेः शारद्वतस्य च ॥ ५३ ॥
एकैकं दशभिर्बाणैः सर्वानेव समार्पयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यके अस्त्रोंका अपने अस्त्रोंद्वारा निवारण करके बारी-बारीसे उन सबको दस-दस बाण मारे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं द्रौणिः पञ्चविंशत्या वृषसेनश्च सप्तभिः ॥ ५४ ॥
दुर्योधनस्तु विंशत्या कर्णशल्यौ त्रिभिस्त्रिभिः।

मूलम्

तं द्रौणिः पञ्चविंशत्या वृषसेनश्च सप्तभिः ॥ ५४ ॥
दुर्योधनस्तु विंशत्या कर्णशल्यौ त्रिभिस्त्रिभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामाने पचीस, वृषसेनने सात, दुर्योधनने बीस तथा कर्ण और शल्यने तीन-तीन बाणोंसे अर्जुनको घायल कर दिया॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त एनमभिगर्जन्तो विध्यन्तश्च पुनः पुनः ॥ ५५ ॥
विधुन्वतश्च चापानि सर्वतः प्रत्यवारयन्।

मूलम्

त एनमभिगर्जन्तो विध्यन्तश्च पुनः पुनः ॥ ५५ ॥
विधुन्वतश्च चापानि सर्वतः प्रत्यवारयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

वे अर्जुनको लक्ष्य करके बार-बार गरजते, उन्हें बारंबार बाणोंसे बींधते और धनुषको हिलाते हुए सब ओरसे उन्हें आगे बढ़नेसे रोकने लगे॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्लिष्टं च सर्वतश्चक्रू रथमण्डलमाशु ते ॥ ५६ ॥
सूर्यास्तमनमिच्छन्तस्त्वरमाणा महारथाः ।

मूलम्

श्लिष्टं च सर्वतश्चक्रू रथमण्डलमाशु ते ॥ ५६ ॥
सूर्यास्तमनमिच्छन्तस्त्वरमाणा महारथाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन महारथियोंने सूर्यास्तकी इच्छा रखते हुए बड़ी उतावलीके साथ अपने रथसमूहको परस्पर सटाकर सब ओरसे खड़ा कर दिया॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त एनमभिनर्दन्तो विधुन्वाना धनूंषि च ॥ ५७ ॥
सिषिचुर्मार्गणैस्तीक्ष्णैर्गिरिं मेघा इवाम्बुभिः ।

मूलम्

त एनमभिनर्दन्तो विधुन्वाना धनूंषि च ॥ ५७ ॥
सिषिचुर्मार्गणैस्तीक्ष्णैर्गिरिं मेघा इवाम्बुभिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बादल पर्वतशिखरपर अपने जलकी बूँदोंसे आघात करते हैं, उसी प्रकार वे कौरव-महारथी धनुष हिलाते तथा अर्जुनके सामने गर्जना करते हुए उनपर तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते महास्त्राणि दिव्यानि तत्र राजन् व्यदर्शयन् ॥ ५८ ॥
धनंजयस्य गात्रे तु शूराः परिघबाहवः।

मूलम्

ते महास्त्राणि दिव्यानि तत्र राजन् व्यदर्शयन् ॥ ५८ ॥
धनंजयस्य गात्रे तु शूराः परिघबाहवः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! परिघके समान सुदृढ़ भुजाओंवाले उन शूरवीरोंने अर्जुनके शरीरपर वहाँ बड़े-बड़े दिव्यास्त्रोंका प्रदर्शन किया॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतभूयिष्ठयोधं तत् कृत्वा तव बलं बली ॥ ५९ ॥
आससाद दुराधर्षः सैन्धवं सत्यविक्रमः।

मूलम्

हतभूयिष्ठयोधं तत् कृत्वा तव बलं बली ॥ ५९ ॥
आससाद दुराधर्षः सैन्धवं सत्यविक्रमः।

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि सत्यपराक्रमी बलवान् एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुनने आपकी सेनाके अधिकांश योद्धाओंका संहार करके सिन्धुराजपर आक्रमण किया॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं कर्णः संयुगे राजन् प्रत्यवारयदाशुगैः ॥ ६० ॥
मिषतो भीमसेनस्य सात्वतस्य च भारत।

मूलम्

तं कर्णः संयुगे राजन् प्रत्यवारयदाशुगैः ॥ ६० ॥
मिषतो भीमसेनस्य सात्वतस्य च भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतनन्दन! उस युद्धस्थलमें कर्णने भीमसेन और सात्यकिके देखते-देखते अपने शीघ्रगामी बाणोंद्वारा अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोक दिया॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं पार्थो दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यद् रणाजिरे ॥ ६१ ॥
सूतपुत्रं महाबाहुः सर्वसैन्यस्य पश्यतः।

मूलम्

तं पार्थो दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यद् रणाजिरे ॥ ६१ ॥
सूतपुत्रं महाबाहुः सर्वसैन्यस्य पश्यतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाबाहु अर्जुनने समरांगणमें सारी सेनाके देखते-देखते सूतपुत्र कर्णको दस बाणोंसे घायल कर दिया॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्वतश्च त्रिभिर्बाणैः कर्णं विव्याध मारिष ॥ ६२ ॥
भीमसेनस्त्रिभिश्चैव पुनः पार्थश्च सप्तभिः।

मूलम्

सात्वतश्च त्रिभिर्बाणैः कर्णं विव्याध मारिष ॥ ६२ ॥
भीमसेनस्त्रिभिश्चैव पुनः पार्थश्च सप्तभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! तदनन्तर सात्यकिने तीन बाणोंसे कर्णको वेध दिया, फिर भीमसेनने भी उसे तीन बाण मारे और अर्जुनने पुनः सात बाणोंसे कर्णको घायल कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् कर्णः प्रतिविव्याध षष्ट्या षष्ट्या महारथः ॥ ६३ ॥
तद् युद्धमभवद् राजन् कर्णस्य बहुभिः सह।

मूलम्

तान् कर्णः प्रतिविव्याध षष्ट्या षष्ट्या महारथः ॥ ६३ ॥
तद् युद्धमभवद् राजन् कर्णस्य बहुभिः सह।

अनुवाद (हिन्दी)

तब महारथी कर्णने उन तीनोंको साठ-साठ बाण मारकर बदला चुकाया। राजन्! कर्णका वह युद्ध अनेक वीरोंके साथ हो रहा था॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतमपश्याम सूतपुत्रस्य मारिष ॥ ६४ ॥
यदेकः समरे क्रुद्धस्त्रीन् रथान् पर्यवारयत्।

मूलम्

तत्राद्भुतमपश्याम सूतपुत्रस्य मारिष ॥ ६४ ॥
यदेकः समरे क्रुद्धस्त्रीन् रथान् पर्यवारयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! वहाँ हमने सूतपुत्रका अद्भुत पराक्रम देखा कि समरभूमिमें कुपित होकर उसने अकेले ही तीन-तीन महारथियोंको रोक दिया था॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फाल्गुनस्तु महाबाहुः कर्णं वैकर्तनं रणे ॥ ६५ ॥
सायकानां शतेनैव सर्वमर्मस्वताडयत् ।

मूलम्

फाल्गुनस्तु महाबाहुः कर्णं वैकर्तनं रणे ॥ ६५ ॥
सायकानां शतेनैव सर्वमर्मस्वताडयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महाबाहु अर्जुनने रणभूमिमें सौ बाणोंद्वारा, सूर्यपुत्र कर्णको उसके सम्पूर्ण मर्मस्थानोंमें चोट पहुँचायी॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः सूतपुत्रः प्रतापवान् ॥ ६६ ॥
शरैः पञ्चाशता वीरः फाल्गुनं प्रत्यविध्यत।
तस्य तल्लाघवं दृष्ट्वा नामृष्यत रणेऽर्जुनः ॥ ६७ ॥

मूलम्

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः सूतपुत्रः प्रतापवान् ॥ ६६ ॥
शरैः पञ्चाशता वीरः फाल्गुनं प्रत्यविध्यत।
तस्य तल्लाघवं दृष्ट्वा नामृष्यत रणेऽर्जुनः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतापी सूतपुत्र कर्णके सारे अंग खूनसे लथपथ हो गये, तथापि उस वीरने पचास बाणोंसे अर्जुनको भी घायल कर दिया। रणक्षेत्रमें उसकी यह फुर्ती देखकर अर्जुन सहन न कर सके॥६६-६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पार्थो धनुश्छित्त्वा विव्याधैनं स्तनान्तरे।
सायकैर्नवभिर्वीरस्त्वरमाणो धनंजयः ॥ ६८ ॥

मूलम्

ततः पार्थो धनुश्छित्त्वा विव्याधैनं स्तनान्तरे।
सायकैर्नवभिर्वीरस्त्वरमाणो धनंजयः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुन्तीकुमार वीर धनंजयने कर्णका धनुष काटकर बड़ी उतावलीके साथ उसकी छातीमें नौ बाणोंका प्रहार किया॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यद् धनुरादाय सूतपुत्रः प्रतापवान्।
सायकैरष्टसाहस्रैश्छादयामास पाण्डवम् ॥ ६९ ॥

मूलम्

अथान्यद् धनुरादाय सूतपुत्रः प्रतापवान्।
सायकैरष्टसाहस्रैश्छादयामास पाण्डवम् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब प्रतापी सूतपुत्रने दूसरा धनुष हाथमें लेकर आठ हजार बाणोंसे पाण्डुपुत्र अर्जुनको ढक दिया॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां बाणवृष्टिमतुलां कर्णचापसमुत्थिताम् ।
व्यधमत् सायकैः पार्थः शलभानिव मारुतः ॥ ७० ॥

मूलम्

तां बाणवृष्टिमतुलां कर्णचापसमुत्थिताम् ।
व्यधमत् सायकैः पार्थः शलभानिव मारुतः ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके धनुषसे प्रकट हुई उस अनुपम बाण-वर्षाको अर्जुनने बाणोंद्वारा उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे वायु टिड्डियोंके दलको उड़ा देती है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छादयामास च तदा सायकैरर्जुनो रणे।
पश्यतां सर्वयोधानां दर्शयन् पाणिलाघवम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

छादयामास च तदा सायकैरर्जुनो रणे।
पश्यतां सर्वयोधानां दर्शयन् पाणिलाघवम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अर्जुनने रणभूमिमें दर्शक बने हुए समस्त योद्धाओंको अपने हाथोंकी फुर्ती दिखाते हुए उस समय कर्णको भी आच्छादित कर दिया॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधार्थं चास्य समरे सायकं सूर्यवर्चसम्।
चिक्षेप त्वरया युक्तस्त्वराकाले धनंजयः ॥ ७२ ॥

मूलम्

वधार्थं चास्य समरे सायकं सूर्यवर्चसम्।
चिक्षेप त्वरया युक्तस्त्वराकाले धनंजयः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही शीघ्रताके अवसरपर शीघ्रता करनेवाले अर्जुनने समरभूमिमें सूतपुत्रका वध करनेके लिये उसके ऊपर सूर्यके समान तेजस्वी बाण चलाया॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं वेगेन द्रौणिश्चिच्छेद सायकम्।
अर्धचन्द्रेण तीक्ष्णेन स च्छिन्नः प्रापतद् भुवि ॥ ७३ ॥

मूलम्

तमापतन्तं वेगेन द्रौणिश्चिच्छेद सायकम्।
अर्धचन्द्रेण तीक्ष्णेन स च्छिन्नः प्रापतद् भुवि ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बाणको वेगपूर्वक आते देख अश्वत्थामाने तीखे अर्धचन्द्रसे बीचमें ही काट दिया। कटकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णोऽपि द्विषतां हन्ता छादयामास फाल्गुनम्।
सायकैर्बहुसाहस्रैः कृतप्रतिकृतेप्सया ॥ ७४ ॥

मूलम्

कर्णोऽपि द्विषतां हन्ता छादयामास फाल्गुनम्।
सायकैर्बहुसाहस्रैः कृतप्रतिकृतेप्सया ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शत्रुहन्ता कर्णने भी उनके किये हुए प्रहारका बदला चुकानेकी इच्छासे अनेक सहस्र बाणोंद्वारा पुनः अर्जुनको आच्छादित कर दिया॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ वृषाविव नर्दन्तौ नरसिंहौ महारथौ।
सायकैस्तु प्रतिच्छन्नं चक्रतुः खमजिह्मगैः ॥ ७५ ॥

मूलम्

तौ वृषाविव नर्दन्तौ नरसिंहौ महारथौ।
सायकैस्तु प्रतिच्छन्नं चक्रतुः खमजिह्मगैः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों पुरुषसिंह महारथी दो साँड़ोंके समान हँकड़ते हुए अपने सीधे जानेवाले बाणोंद्वारा आकाशको आच्छादित करने लगे॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृश्यौ च शरौघैस्तौ निघ्नन्तावितरेतरम्।
कर्ण पार्थोऽस्मि तिष्ठ त्वं कर्णोऽहं तिष्ठ फाल्गुन ॥ ७६ ॥

मूलम्

अदृश्यौ च शरौघैस्तौ निघ्नन्तावितरेतरम्।
कर्ण पार्थोऽस्मि तिष्ठ त्वं कर्णोऽहं तिष्ठ फाल्गुन ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों एक-दूसरेपर चोट करते हुए स्वयं बाण-समूहोंसे ढककर अदृश्य हो गये थे और एक-दूसरेको पुकारकर इस प्रकार कहते थे—‘कर्ण! तू खड़ा रह, मैं अर्जुन हूँ; ‘अर्जुन! खड़ा रह, मैं कर्ण हूँ’॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं तर्जयन्तौ तौ वाक्शल्यैस्तुदतां तदा।
युध्येतां समरे वीरौ चित्रं लघु च सुष्ठु च॥७७॥

मूलम्

इत्येवं तर्जयन्तौ तौ वाक्शल्यैस्तुदतां तदा।
युध्येतां समरे वीरौ चित्रं लघु च सुष्ठु च॥७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार एक-दूसरेको ललकारते और डाँटते हुए वे दोनों वीर वाक्यरूपी बाणोंद्वारा परस्पर चोट करते हुए समरांगणमें शीघ्रतापूर्वक और सुन्दर ढंगसे विचित्र युद्ध कर रहे थे॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेक्षणीयौ चाभवतां सर्वयोधसमागमे ।
प्रशस्यमानौ समरे सिद्धचारणपन्नगैः ॥ ७८ ॥
अयुध्येतां महाराज परस्परवधैषिणौ ।

मूलम्

प्रेक्षणीयौ चाभवतां सर्वयोधसमागमे ।
प्रशस्यमानौ समरे सिद्धचारणपन्नगैः ॥ ७८ ॥
अयुध्येतां महाराज परस्परवधैषिणौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण योद्धाओंके उस सम्मेलनमें वे दोनों दर्शनीय हो रहे थे। महाराज! समरभूमिमें सिद्ध, चारण और नागोंद्वारा प्रशंसित होते हुए कर्ण और अर्जुन एक-दूसरेके वधकी इच्छासे युद्ध कर रहे थे॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनो राजंस्तावकानभ्यभाषत ॥ ७९ ॥
यत्नाद् रक्षत राधेयं नाहत्वा समरेऽर्जुनम्।
निवर्तिष्यति राधेय इति मामुक्तवान् वृषः ॥ ८० ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनो राजंस्तावकानभ्यभाषत ॥ ७९ ॥
यत्नाद् रक्षत राधेयं नाहत्वा समरेऽर्जुनम्।
निवर्तिष्यति राधेय इति मामुक्तवान् वृषः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर दुर्योधनने आपके सैनिकोंसे कहा—‘वीरो! तुम यत्नपूर्वक राधापुत्र कर्णकी रक्षा करो। वह युद्धस्थलमें अर्जुनका वध किये बिना नहीं लौटेगा; क्योंकि उसने मुझसे यही बात कही है’॥७९-८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे राजन् दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्।
आकर्णमुक्तैरिषुभिः कर्णस्य चतुरो हयान् ॥ ८१ ॥
अनयत् प्रेतलोकाय चतुर्भिः श्वेतवाहनः।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ८२ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे राजन् दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्।
आकर्णमुक्तैरिषुभिः कर्णस्य चतुरो हयान् ॥ ८१ ॥
अनयत् प्रेतलोकाय चतुर्भिः श्वेतवाहनः।
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसी समय कर्णका वह पराक्रम देखकर श्वेतवाहन अर्जुनने कानतक खींचकर छोड़े हुए चार बाणोंद्वारा कर्णके चारों घोड़ोंको प्रेतलोक पहुँचा दिया और एक भल्ल मारकर उसके सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया॥८१-८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छादयामास स शरैस्तव पुत्रस्य पश्यतः।
संछाद्यमानः समरे हताश्वो हतसारथिः ॥ ८३ ॥
मोहितः शरजालेन कर्तव्यं नाभ्यपद्यत।

मूलम्

छादयामास स शरैस्तव पुत्रस्य पश्यतः।
संछाद्यमानः समरे हताश्वो हतसारथिः ॥ ८३ ॥
मोहितः शरजालेन कर्तव्यं नाभ्यपद्यत।

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, आपके पुत्रके देखते-देखते उन्होंने कर्णको बाणोंसे ढक दिया। घोड़ और सारथिके मारे जानेपर समरांगणमें बाणोंसे ढका हुआ कर्ण बाण-जालसे मोहित हो यह भी नहीं सोच सका कि अब क्या करना चाहिये॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथा विरथं दृष्ट्वा रथमारोप्य तं तदा ॥ ८४ ॥
अश्वत्थामा महाराज भूयोऽर्जुनमयोधयत् ।

मूलम्

तं तथा विरथं दृष्ट्वा रथमारोप्य तं तदा ॥ ८४ ॥
अश्वत्थामा महाराज भूयोऽर्जुनमयोधयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कर्णको इस प्रकार रथहीन हुआ देख अश्वत्थामाने उस समय उसे रथपर बैठा लिया और वह पुनः अर्जुनके साथ युद्ध करने लगा॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्रराजश्च कौन्तेयमविध्यत् त्रिंशता शरैः ॥ ८५ ॥
शारद्वतस्तु विंशत्या वासुदेवं समार्पयत्।
धनंजयं द्वादशभिराजघान शिलीमुखैः ॥ ८६ ॥

मूलम्

मद्रराजश्च कौन्तेयमविध्यत् त्रिंशता शरैः ॥ ८५ ॥
शारद्वतस्तु विंशत्या वासुदेवं समार्पयत्।
धनंजयं द्वादशभिराजघान शिलीमुखैः ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रराज शल्यने कुन्तीकुमार अर्जुनको तीस बाणोंसे घायल कर दिया। कृपाचार्यने भगवान् श्रीकृष्णको बीस बाण मारे और अर्जुनपर बारह बाणोंका प्रहार किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिः सिन्धुराजश्च वृषसेनश्च सप्तभिः।
पृथक् पृथङ्‌महाराज विव्यधुः कृष्णपाण्डवौ ॥ ८७ ॥

मूलम्

चतुर्भिः सिन्धुराजश्च वृषसेनश्च सप्तभिः।
पृथक् पृथङ्‌महाराज विव्यधुः कृष्णपाण्डवौ ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! फिर सिन्धुराजने चार और वृषसेनने सात बाणोंद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको पृथक्-पृथक् घायल कर दिया॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव तान् प्रत्यविध्यत् कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
द्रोणपुत्रं चतुःषष्ट्या मद्रराजं शतेन च ॥ ८८ ॥
सैन्धवं दशभिर्बाणैर्वृषसेनं त्रिभिः शरैः।
शारद्वतं च विंशत्या विद्ध्वा पार्थो ननाद ह ॥ ८९ ॥

मूलम्

तथैव तान् प्रत्यविध्यत् कुन्तीपुत्रो धनंजयः।
द्रोणपुत्रं चतुःषष्ट्या मद्रराजं शतेन च ॥ ८८ ॥
सैन्धवं दशभिर्बाणैर्वृषसेनं त्रिभिः शरैः।
शारद्वतं च विंशत्या विद्ध्वा पार्थो ननाद ह ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार कुन्तीपुत्र अर्जुनने भी उन्हें बाणोंसे बींधकर बदला चुकाया। अर्जुनने द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको चौंसठ, मद्रराज शल्यको सौ, सिन्धुराज जयद्रथको दस, वृषसेनको तीन और कृपाचार्यको बीस बाणोंसे घायल करके सिंहनाद किया॥८८-८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते प्रतिज्ञाप्रतीघातमिच्छन्तः सव्यसाचिनः ।
सहितास्तावकास्तूर्णमभिपेतुर्धनंजयम् ॥ ९० ॥

मूलम्

ते प्रतिज्ञाप्रतीघातमिच्छन्तः सव्यसाचिनः ।
सहितास्तावकास्तूर्णमभिपेतुर्धनंजयम् ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख सव्यसाची अर्जुनकी प्रतिज्ञाको भंग करनेकी अभिलाषासे आपके वे सभी सैनिक एक साथ संगठित हो तुरंत उनपर टूट पड़े॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथार्जुनः सर्वतो वारुणास्त्रं
प्रादुश्चक्रे त्रासयन् धार्तराष्ट्रान् ।
तं प्रत्युदीयुः कुरवः पाण्डुपुत्रं
रथैर्महार्हैः शरवर्षाण्यवर्षन् ॥ ९१ ॥

मूलम्

अथार्जुनः सर्वतो वारुणास्त्रं
प्रादुश्चक्रे त्रासयन् धार्तराष्ट्रान् ।
तं प्रत्युदीयुः कुरवः पाण्डुपुत्रं
रथैर्महार्हैः शरवर्षाण्यवर्षन् ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अर्जुनने धृतराष्ट्रके पुत्रोंको भयभीत करते हुए सब ओर वारुणास्त्र प्रकट किया। कौरव-सैनिक अपने बहुमूल्य रथोंद्वारा पाण्डुपुत्र अर्जुनकी ओर बढ़े और उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु तस्मिंस्तुमुले समुत्थिते
सुदारुणे भारत मोहनीये ।
नोऽमुह्यत प्राप्य स राजपुत्रः
किरीटमाली व्यसृजच्छरौघान् ॥ ९२ ॥

मूलम्

ततस्तु तस्मिंस्तुमुले समुत्थिते
सुदारुणे भारत मोहनीये ।
नोऽमुह्यत प्राप्य स राजपुत्रः
किरीटमाली व्यसृजच्छरौघान् ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! सबको मोहमें डालनेवाले उस अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्धके उपस्थित होनेपर भी किरीटधारी राजकुमार अर्जुन तनिक भी मोहित नहीं हुए। वे बाणसमूहोंकी वर्षा करते ही रहे॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यप्रेप्सुः सव्यसाची कुरूणां
स्मरन् क्लेशान् द्वादशवर्षवृत्तान् ।
गाण्डीवमुक्तैरिषुभिर्महात्मा
सर्वा दिशो व्यावृणोदप्रमेयः ॥ ९३ ॥

मूलम्

राज्यप्रेप्सुः सव्यसाची कुरूणां
स्मरन् क्लेशान् द्वादशवर्षवृत्तान् ।
गाण्डीवमुक्तैरिषुभिर्महात्मा
सर्वा दिशो व्यावृणोदप्रमेयः ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अप्रमेय शक्तिशाली महामनस्वी सव्यसाची अर्जुन अपना राज्य प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने कौरवोंके दिये हुए क्लेशों और बारह वर्षोंतक भोगे हुए वनवासके कष्टोंको स्मरण करते हुए गाण्डीव धनुषसे छूटनेवाले बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित कर दिया॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदीप्तोल्कमभवच्चान्तरिक्षं
मृतेषु देहेष्वपतन् वयांसि ।
यत् पिङ्गलज्येन किरीटमाली
क्रुद्धो रिपूनाजगवेन हन्ति ॥ ९४ ॥

मूलम्

प्रदीप्तोल्कमभवच्चान्तरिक्षं
मृतेषु देहेष्वपतन् वयांसि ।
यत् पिङ्गलज्येन किरीटमाली
क्रुद्धो रिपूनाजगवेन हन्ति ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें कितनी ही उल्काएँ प्रज्वलित हो उठीं और योद्धाओंके मृत शरीरोंपर मांसभक्षी पक्षी गिरने लगे; क्योंकि उस समय क्रोधमें भरे हुए किरीटधारी अर्जुन पीली प्रत्यंचावाले गाण्डीव धनुषके द्वारा शत्रुओंका संहार कर रहे थे॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः किरीटी महता महायशाः
शरासनेनास्य शराननीकजित् ।
हयप्रवेकोत्तमनागधूर्गतान्
कुरुप्रवीरानिषुभिर्व्यपातयत् ॥ ९५ ॥

मूलम्

ततः किरीटी महता महायशाः
शरासनेनास्य शराननीकजित् ।
हयप्रवेकोत्तमनागधूर्गतान्
कुरुप्रवीरानिषुभिर्व्यपातयत् ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् शत्रुसेनाको जीतनेवाले महायशस्वी किरीटधारी अर्जुनने विशाल धनुषके द्वारा बाणोंका प्रहार करके उत्तम घोड़ों और श्रेष्ठ हाथियोंकी पीठपर बैठे हुए प्रमुख कौरव-वीरोंको मार गिराया॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदाश्च गुर्वीः परिघानयस्मया-
नसींश्च शक्तीश्च रणे नराधिपाः।
महान्ति शस्त्राणि च भीमदर्शनाः
प्रगृह्य पार्थं सहसाभिदुद्रुवुः ॥ ९६ ॥

मूलम्

गदाश्च गुर्वीः परिघानयस्मया-
नसींश्च शक्तीश्च रणे नराधिपाः।
महान्ति शस्त्राणि च भीमदर्शनाः
प्रगृह्य पार्थं सहसाभिदुद्रुवुः ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रणक्षेत्रमें भयंकर दिखायी देनेवाले कितने ही नरेश भारी गदाओं, लोहेके परिघों, तलवारों, शक्तियों और बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्रोंको हाथमें लेकर कुन्तीनन्दन अर्जुनपर सहसा टूट पड़े॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युगान्ताभ्रसमस्वनं मह-
न्महेन्द्रचापप्रतिमं च गाण्डिवम् ।
चकर्ष दोर्भ्यां विहसन् भृशं ययौ
दहंस्त्वदीयान् यमराष्ट्रवर्धनः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो युगान्ताभ्रसमस्वनं मह-
न्महेन्द्रचापप्रतिमं च गाण्डिवम् ।
चकर्ष दोर्भ्यां विहसन् भृशं ययौ
दहंस्त्वदीयान् यमराष्ट्रवर्धनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाले अर्जुनने प्रलयकालके मेघोंके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले तथा इन्द्रधनुषके समान प्रतीत होनेवाले विशाल गाण्डीव धनुषको हँसते हुए दोनों हाथोंसे खींचा और आपके सैनिकोंको दग्ध करते हुए वे बड़े वेगसे आगे बढ़े॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तानुदीर्णान् सरथान् सवारणान्
पदातिसङ्घांश्च महाधनुर्धरः ।
विपन्नसर्वायुधजीवितान् रणे
चकार वीरो यमराष्ट्रवर्धनान् ॥ ९८ ॥

मूलम्

स तानुदीर्णान् सरथान् सवारणान्
पदातिसङ्घांश्च महाधनुर्धरः ।
विपन्नसर्वायुधजीवितान् रणे
चकार वीरो यमराष्ट्रवर्धनान् ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाधनुर्धर वीर अर्जुनने रथ, हाथी और पैदल-समूहोंसहित उन कौरव-सैनिकोंको प्रचण्ड गतिसे आगे बढ़ते देख उनके सम्पूर्ण आयुधों और जीवनको भी नष्ट करके उन्हें यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाला बना दिया॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि संकुलयुद्धे पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें संकुलयुद्धविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४५॥