१४३ भूरिश्रवोवधे

भागसूचना

त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भूरिश्रवाका अर्जुनको उपालम्भ देना, अर्जुनका उत्तर और आमरण अनशनके लिये बैठे हुए भूरिश्रवाका सात्यकिके द्वारा वध

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स बाहुर्न्यपतद् भूमौ सखड्‌गः सशुभाङ्गदः।
आदधज्जीवलोकस्य दुःखमद्भुतमुत्तमः ॥ १ ॥

मूलम्

स बाहुर्न्यपतद् भूमौ सखड्‌गः सशुभाङ्गदः।
आदधज्जीवलोकस्य दुःखमद्भुतमुत्तमः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! भूरिश्रवाकी सुन्दर बाजूबंदसे विभूषित वह उत्तम बाँह समस्त प्राणियोंके मनमें अद्भुत दुःखका संचार करती हुई खड्गसहित कटकर पृथ्वीपर गिर पड़ी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहरिष्यन् हृतो बाहुरदृश्येन किरीटिना।
वेगेन न्यपतद् भूमौ पञ्चास्य इव पन्नगः ॥ २ ॥

मूलम्

प्रहरिष्यन् हृतो बाहुरदृश्येन किरीटिना।
वेगेन न्यपतद् भूमौ पञ्चास्य इव पन्नगः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रहार करनेके लिये उद्यत हुई वह भुजा अलक्ष्य अर्जुनके बाणसे कटकर पाँच मुखवाले सर्पकी भाँति बड़े वेगसे पृथ्वीपर गिर पड़ी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मोघं कृतमात्मानं दृष्ट्वा पार्थेन कौरवः।
उत्सृज्य सात्यकिं क्रोधाद् गर्हयामास पाण्डवम् ॥ ३ ॥

मूलम्

स मोघं कृतमात्मानं दृष्ट्वा पार्थेन कौरवः।
उत्सृज्य सात्यकिं क्रोधाद् गर्हयामास पाण्डवम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार अर्जुनके द्वारा अपनेको असफल किया हुआ देख कुरुवंशी भूरिश्रवाने कुपित हो सात्यकिको छोड़कर पाण्डुनन्दन अर्जुनकी निन्दा करते हुए कहा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(स विबाहुर्महाराज एकपक्ष इवाण्डजः।
एकचक्रो रथो यद्वद् धरणीमास्थितो नृपः।
उवाच पाण्डवं चैव सर्वक्षत्रस्य शृण्वतः॥)

मूलम्

(स विबाहुर्महाराज एकपक्ष इवाण्डजः।
एकचक्रो रथो यद्वद् धरणीमास्थितो नृपः।
उवाच पाण्डवं चैव सर्वक्षत्रस्य शृण्वतः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वे राजा भूरिश्रवा एक बाँहसे रहित हो एक पाँखके पक्षी और एक पहियेके रथकी भाँति पृथ्वीपर खड़े हो सम्पूर्ण क्षत्रियोंके सुनते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुनसे बोले।

मूलम् (वचनम्)

भूरिश्रवा उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसं बत कौन्तेय कर्मेदं कृतवानसि।
अपश्यतो विषक्तस्य यन्मे बाहुमचिच्छिदः ॥ ४ ॥

मूलम्

नृशंसं बत कौन्तेय कर्मेदं कृतवानसि।
अपश्यतो विषक्तस्य यन्मे बाहुमचिच्छिदः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूरिश्रवा बोले— कुन्तीकुमार! तुमने यह बड़ा कठोर कर्म किया है; क्योंकि मैं तुम्हें देख नहीं रहा था और दूसरेसे युद्ध करनेमें लगा हुआ था, उस दशामें तुमने मेरी बाँह काट दी है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु वक्ष्यसि राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
किं कुर्वाणो मया संख्ये हतो भूरिश्रवा रणे ॥ ५ ॥

मूलम्

किं नु वक्ष्यसि राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।
किं कुर्वाणो मया संख्ये हतो भूरिश्रवा रणे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरसे क्या कहोगे? यही न कि ‘भूरिश्रवा किसी और कार्यमें लगे थे और मैंने उसी दशामें उन्हें युद्धमें मार डाला है’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमिन्द्रेण ते साक्षादुपदिष्टं महात्मना।
अस्त्रं रुद्रेण वा पार्थ द्रोणेनाथ कृपेण वा ॥ ६ ॥

मूलम्

इदमिन्द्रेण ते साक्षादुपदिष्टं महात्मना।
अस्त्रं रुद्रेण वा पार्थ द्रोणेनाथ कृपेण वा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! इस अस्त्र-विद्याका उपदेश तुम्हें साक्षात् महात्मा इन्द्रने दिया है, या रुद्र, द्रोण अथवा कृपाचार्यने?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु नामास्त्रधर्मज्ञस्त्वं लोकेऽभ्यधिकः परैः।
सोऽयुध्यमानस्य कथं रणे प्रहृतवानसि ॥ ७ ॥

मूलम्

ननु नामास्त्रधर्मज्ञस्त्वं लोकेऽभ्यधिकः परैः।
सोऽयुध्यमानस्य कथं रणे प्रहृतवानसि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम तो इस लोकमें दूसरोंसे अधिक अस्त्र-धर्मके ज्ञाता हो, फिर जो तुम्हारे साथ युद्ध नहीं कर रहा था, उसपर संग्राममें तुमने कैसे प्रहार किया?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न प्रमत्ताय भीताय विरथाय प्रयाचते।
व्यसने वर्तमानाय प्रहरन्ति मनस्विनः ॥ ८ ॥

मूलम्

न प्रमत्ताय भीताय विरथाय प्रयाचते।
व्यसने वर्तमानाय प्रहरन्ति मनस्विनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनस्वी पुरुष असावधान, डरे हुए, रथहीन, प्राणों-की भिक्षा माँगनेवाले तथा संकटमें पड़े हुए मनुष्यपर प्रहार नहीं करते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु नीचाचरितमसत्पुरुषसेवितम् ।
कथमाचरितं पार्थ पापकर्म सुदुष्करम् ॥ ९ ॥

मूलम्

इदं तु नीचाचरितमसत्पुरुषसेवितम् ।
कथमाचरितं पार्थ पापकर्म सुदुष्करम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! यह नीच पुरुषोंद्वारा आचरित और दुष्ट पुरुषोंद्वारा सेवित अत्यन्त दुष्कर पापकर्म तुमने कैसे किया?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्येण सुकरं त्वाहुरार्यकर्म धनंजय।
अनार्यकर्म त्वार्येण सुदुष्करतमं भुवि ॥ १० ॥

मूलम्

आर्येण सुकरं त्वाहुरार्यकर्म धनंजय।
अनार्यकर्म त्वार्येण सुदुष्करतमं भुवि ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! श्रेष्ठ पुरुषके लिये श्रेष्ठ कर्म ही सुकर बताया गया है। नीच कर्मका आचरण तो इस पृथ्वीपर उसके लिये अत्यन्त दुष्कर माना गया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषु येषु नरव्याघ्र यत्र यत्र च वर्तते।
आशु तच्छीलतामेति तदिदं त्वयि दृश्यते ॥ ११ ॥

मूलम्

येषु येषु नरव्याघ्र यत्र यत्र च वर्तते।
आशु तच्छीलतामेति तदिदं त्वयि दृश्यते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरव्याघ्र! मनुष्य जहाँ-जहाँ जिन-जिन लोगोंके समीप रहता है, उसमें शीघ्र ही उन लोगोंका शीलस्वभाव आ जाता है; यही बात तुममें भी देखी जाती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं हि राजवंश्यस्त्वं कौरवेयो विशेषतः।
क्षत्रधर्मादपक्रान्तः सुवृत्तश्चरितव्रतः ॥ १२ ॥

मूलम्

कथं हि राजवंश्यस्त्वं कौरवेयो विशेषतः।
क्षत्रधर्मादपक्रान्तः सुवृत्तश्चरितव्रतः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्यथा राजाके वंशज और विशेषतः कुरुकुलमें उत्पन्न होकर भी तुम क्षत्रिय-धर्मसे कैसे गिर जाते? तुम्हारा शील-स्वभाव तो बहुत उत्तम था और तुमने श्रेष्ठ व्रतोंका पालन भी किया था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु यदतिक्षुद्रं वार्ष्णेयार्थे कृतं त्वया।
वासुदेवमतं नूनं नैतत् त्वय्युपपद्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

इदं तु यदतिक्षुद्रं वार्ष्णेयार्थे कृतं त्वया।
वासुदेवमतं नूनं नैतत् त्वय्युपपद्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने सात्यकिको बचानेके लिये जो यह अत्यन्त नीच कर्म किया है, यह निश्चय ही वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णका मत है, तुममें यह नीच विचार सम्भव नहीं है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि नाम प्रमत्ताय परेण सह युध्यते।
ईदृशं व्यसनं दद्याद् यो न कृष्णसखो भवेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

को हि नाम प्रमत्ताय परेण सह युध्यते।
ईदृशं व्यसनं दद्याद् यो न कृष्णसखो भवेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौन ऐसा मनुष्य है, जो दूसरेके साथ युद्ध करनेवाले असावधान योद्धाको ऐसा संकट प्रदान कर सकता है। जो श्रीकृष्णका मित्र न हो, उससे ऐसा कर्म नहीं बन सकता॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रात्याः संक्लिष्टकर्माणः प्रकृत्यैव च गर्हिताः।
वृष्ण्यन्धकाः कथं पार्थ प्रमाणं भवता कृताः ॥ १५ ॥

मूलम्

व्रात्याः संक्लिष्टकर्माणः प्रकृत्यैव च गर्हिताः।
वृष्ण्यन्धकाः कथं पार्थ प्रमाणं भवता कृताः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! वृष्णि और अन्धकवंशके लोग तो संस्कारभ्रष्ट हिंसा-प्रधान कर्म करनेवाले और स्वभावसे ही निन्दित हैं। फिर उनको तुमने प्रमाण कैसे मान लिया?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो रणे पार्थो भूरिश्रवसमब्रवीत्।

मूलम्

एवमुक्तो रणे पार्थो भूरिश्रवसमब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें भूरिश्रवाके ऐसा कहनेपर अर्जुनने उससे कहा ॥ १५ ॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तं हि जीर्यमाणोऽपि बुद्धिं जरयते नरः ॥ १६ ॥
अनर्थकमिदं सर्वं यत् त्वया व्याहृतं प्रभो।
जानन्नेव हृषीकेशं गर्हसे मां च पाण्डवम् ॥ १७ ॥

मूलम्

व्यक्तं हि जीर्यमाणोऽपि बुद्धिं जरयते नरः ॥ १६ ॥
अनर्थकमिदं सर्वं यत् त्वया व्याहृतं प्रभो।
जानन्नेव हृषीकेशं गर्हसे मां च पाण्डवम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— प्रभो! यह स्पष्ट है कि मनुष्यके बूढ़े होनेके साथ-साथ उसकी बुद्धि भी बूढ़ी हो जाती है। तुमने इस समय जो कुछ कहा है, वह सब व्यर्थ है। तुम सम्पूर्ण इन्द्रियोंके नियन्ता भगवान् श्रीकृष्णको और मुझ पाण्डुपुत्र अर्जुनको भी जानते हो, तो भी हमारी निन्दा करते हो॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संग्रामाणां हि धर्मज्ञः सर्वशास्त्रार्थपारगः।
न चाधर्ममहं कुर्यां जानंश्चैव हि मुह्यसे ॥ १८ ॥

मूलम्

संग्रामाणां हि धर्मज्ञः सर्वशास्त्रार्थपारगः।
न चाधर्ममहं कुर्यां जानंश्चैव हि मुह्यसे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं संग्रामके धर्मोंको जानता हूँ और सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंके अर्थज्ञानमें पारंगत हूँ। मैं किसी प्रकार अधर्म नहीं कर सकता; यह जानते हुए भी तुम मेरे विषयमें मोहित हो रहे हो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यन्ति क्षत्रियाः शत्रून् स्वैः स्वैः परिवृता नराः।
भ्रातृभिः पितृभिः पुत्रैस्तथा सम्बन्धिबान्धवैः ॥ १९ ॥
वयस्यैरथ मित्रैश्च ते च बाहुं समाश्रिताः।

मूलम्

युध्यन्ति क्षत्रियाः शत्रून् स्वैः स्वैः परिवृता नराः।
भ्रातृभिः पितृभिः पुत्रैस्तथा सम्बन्धिबान्धवैः ॥ १९ ॥
वयस्यैरथ मित्रैश्च ते च बाहुं समाश्रिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियलोग अपने-अपने भाई, पिता, पुत्र, सम्बन्धी, बन्धु-बान्धवों, समान अवस्थावाले साथी और मित्रोंसे घिरकर शत्रुओंके साथ युद्ध करते हैं। वे सब लोग उस प्रधान योद्धाके बाहुबलके आश्रित होते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कथं सात्यकिं शिष्यं सुखसम्बन्धमेव च ॥ २० ॥
अस्मदर्थे च युध्यन्तं त्यक्त्वा प्राणान् सुदुस्त्यजान्।
मम बाहुं रणे राजन् दक्षिणं युद्धदुर्मदम् ॥ २१ ॥
(निकृष्यमाणं तं दृष्ट्वा कथं शत्रुवशं गतम्।
त्वया विकृष्यमाणं च दृष्टवानस्मि निष्क्रियम्॥)

मूलम्

स कथं सात्यकिं शिष्यं सुखसम्बन्धमेव च ॥ २० ॥
अस्मदर्थे च युध्यन्तं त्यक्त्वा प्राणान् सुदुस्त्यजान्।
मम बाहुं रणे राजन् दक्षिणं युद्धदुर्मदम् ॥ २१ ॥
(निकृष्यमाणं तं दृष्ट्वा कथं शत्रुवशं गतम्।
त्वया विकृष्यमाणं च दृष्टवानस्मि निष्क्रियम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि मेरा शिष्य और सुखप्रद सम्बन्धी है। वह मेरे ही लिये अपने दुस्त्यज प्राणोंका मोह छोड़कर युद्ध कर रहा है। राजन्! रणदुर्मद सात्यकि युद्धस्थलमें मेरी दाहिनी भुजाके समान है। उसे तुम्हारे द्वारा कष्ट पाते देख मैं कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता था। मैंने देखा है तुम उसे घसीट रहे थे और वह शत्रुके अधीन होकर निश्चेष्ट हो गया था॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चात्मा रक्षितव्यो वै राजन् रणगतेन हि।
यो यस्य युज्यतेऽर्थेषु स वै रक्ष्यो नराधिप ॥ २२ ॥

मूलम्

न चात्मा रक्षितव्यो वै राजन् रणगतेन हि।
यो यस्य युज्यतेऽर्थेषु स वै रक्ष्यो नराधिप ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! रणभूमिमें गये हुए वीरके लिये केवल अपनी ही रक्षा करना उचित नहीं है। नरेश्वर! जो जिसके कार्योंमें संलग्न होता है, वह अवश्य ही उसके द्वारा रक्षणीय हुआ करता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तै रक्ष्यमाणैः स नृपो रक्षितव्यो महामृधे।
यद्यहं सात्यकिं पश्ये वध्यमानं महारणे ॥ २३ ॥
ततस्तस्य वियोगेन पापं मेऽनर्थतो भवेत्।
रक्षितश्च मया यस्मात्‌ तस्मात्‌ क्रुध्यसि किं मयि ॥ २४ ॥

मूलम्

तै रक्ष्यमाणैः स नृपो रक्षितव्यो महामृधे।
यद्यहं सात्यकिं पश्ये वध्यमानं महारणे ॥ २३ ॥
ततस्तस्य वियोगेन पापं मेऽनर्थतो भवेत्।
रक्षितश्च मया यस्मात्‌ तस्मात्‌ क्रुध्यसि किं मयि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार उन सुरक्षित होनेवाले सुहृदोंका भी कर्तव्य है कि वे महासमरमें अपने राजाकी रक्षा करें। यदि मैं इस महायुद्धमें सात्यकिको अपने सामने मरते देखता तो उसके वियोगसे मुझे अनर्थकारी पाप लगता। इसीलिये मैंने उसकी रक्षा की है। अतः तुम मुझपर क्यों क्रोध करते हो?॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च मे गर्हसे राजन्नन्येन सह संगतम्।
अहं त्वया विनिकृतस्तत्र मे बुद्धिविभ्रमः ॥ २५ ॥

मूलम्

यच्च मे गर्हसे राजन्नन्येन सह संगतम्।
अहं त्वया विनिकृतस्तत्र मे बुद्धिविभ्रमः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप जो यह कहकर मेरी निन्दा कर रहे हैं कि ‘अर्जुन! मैं दूसरेके साथ युद्धमें लगा हुआ था, उस दशामें तुमने मेरे साथ छल किया’ आपकी इस बातसे मेरी बुद्धिमें भ्रम पैदा हो गया है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवचं धुन्वतस्तुभ्यं रथं चारोहतः स्वयम्।
धनुर्ज्यां कर्षतश्चैव युध्यतः सह शत्रुभिः ॥ २६ ॥
एवं रथगजाकीर्णे हयपत्तिसमाकुले ।
सिंहनादोद्धतरवे गम्भीरे सैन्यसागरे ॥ २७ ॥
स्वैः परैश्च समेतेभ्यः सात्वतेन च संगमे।
एकस्यैकेन हि कथं संग्रामः सम्भविष्यति ॥ २८ ॥

मूलम्

कवचं धुन्वतस्तुभ्यं रथं चारोहतः स्वयम्।
धनुर्ज्यां कर्षतश्चैव युध्यतः सह शत्रुभिः ॥ २६ ॥
एवं रथगजाकीर्णे हयपत्तिसमाकुले ।
सिंहनादोद्धतरवे गम्भीरे सैन्यसागरे ॥ २७ ॥
स्वैः परैश्च समेतेभ्यः सात्वतेन च संगमे।
एकस्यैकेन हि कथं संग्रामः सम्भविष्यति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम स्वयं कवच हिलाते हुए रथपर चढ़े थे, धनुषकी प्रत्यंचा खींचते थे और अपने बहुसंख्यक शत्रुओंके साथ युद्ध कर रहे थे। इस प्रकार रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदलोंसे भरे हुए सिंहनादकी भैरव गर्जनासे व्याप्त गम्भीर सैन्य-समुद्रमें जहाँ अपने और शत्रुपक्षके एकत्र हुए लोगोंका परस्पर युद्ध चल रहा था, तुम्हारी सात्यकिके साथ मुठभेड़ हुई थी। ऐसे तुमुल युद्धमें किसी भी एक योद्धाका एक ही योद्धाके साथ संग्राम कैसे माना जा सकता है?॥२६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुभिः सह संगम्य निर्जित्य च महारथान्।
श्रान्तश्च श्रान्तवाहश्च विमनाः शस्त्रपीडितः ॥ २९ ॥

मूलम्

बहुभिः सह संगम्य निर्जित्य च महारथान्।
श्रान्तश्च श्रान्तवाहश्च विमनाः शस्त्रपीडितः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि बहुत-से योद्धाओंके साथ युद्ध करके कितने ही महारथियोंको पराजित करनेके बाद थक गया था। उसके घोड़े भी परिश्रमसे चूर-चूर हो रहे थे और वह अस्त्र-शस्त्रोंसे पीड़ित हो खिन्नचित्त हो गया था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशं सात्यकिं संख्ये निर्जित्य च महारथम्।
अधिकत्वं विजानीषे स्ववीर्यवशमागतम् ॥ ३० ॥

मूलम्

ईदृशं सात्यकिं संख्ये निर्जित्य च महारथम्।
अधिकत्वं विजानीषे स्ववीर्यवशमागतम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी अवस्थामें महारथी सात्यकिको युद्धमें जीतकर तुम यह समझने लगे कि मैं सात्यकिसे बड़ा वीर हूँ और वह मेरे पराक्रमसे वशमें आ गया है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिच्छसि शिरश्चास्य असिना हन्तुमाहवे।
तथा कृच्छ्रगतं चैव सात्यकिं कः क्षमिष्यति ॥ ३१ ॥

मूलम्

यदिच्छसि शिरश्चास्य असिना हन्तुमाहवे।
तथा कृच्छ्रगतं चैव सात्यकिं कः क्षमिष्यति ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम युद्धस्थलमें तलवारसे उसका सिर काट लेना चाहते थे। सात्यकिको वैसे संकटमें देखकर मेरे पक्षका कौन वीर सहन करेगा?॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वै विगर्हयात्मानमात्मानं यो न रक्षसि।
कथं करिष्यसे वीर यो वा त्वां संश्रयेज्जनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

त्वं वै विगर्हयात्मानमात्मानं यो न रक्षसि।
कथं करिष्यसे वीर यो वा त्वां संश्रयेज्जनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम अपनी ही निन्दा करो, जो कि अपनी भी रक्षातक नहीं कर सकते। वीरवर! फिर जो तुम्हारे आश्रयमें होगा, उसकी रक्षा कैसे कर सकोगे?॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो महाबाहुर्यूपकेतुर्महायशाः ।
युयुधानं समुत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवमुक्तो महाबाहुर्यूपकेतुर्महायशाः ।
युयुधानं समुत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! अर्जुनके ऐसा कहनेपर यूपके चिह्नसे युक्त ध्वजावाले महायशस्वी महाबाहु भूरिश्रवा सात्यकिको छोड़कर रणभूमिमें आमरण अनशनका नियम लेकर बैठ गये॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरानास्तीर्य सव्येन पाणिना पुण्यलक्षणः।
यियासुर्ब्रह्मलोकाय प्राणान् प्राणेष्वथाजुहोत् ॥ ३४ ॥

मूलम्

शरानास्तीर्य सव्येन पाणिना पुण्यलक्षणः।
यियासुर्ब्रह्मलोकाय प्राणान् प्राणेष्वथाजुहोत् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र लक्षणोंवाले भूरिश्रवाने बायें हाथसे बाण बिछाकर ब्रह्मलोकमें जानेकी इच्छासे प्राणायामके द्वारा प्राणोंको प्राणोंमें ही होम दिया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्ये चक्षुः समाधाय प्रसन्नं सलिले मनः।
ध्यायन् महोपनिषदं योगयुक्तोऽभवन्मुनिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

सूर्ये चक्षुः समाधाय प्रसन्नं सलिले मनः।
ध्यायन् महोपनिषदं योगयुक्तोऽभवन्मुनिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नेत्रोंको सूर्यमें और प्रसन्न मनको जलमें समाहित करके महोपनिषत्प्रतिपादित परब्रह्मका चिन्तन करते हुए योगयुक्त मुनि हो गये॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स सर्वसेनायां जनः कृष्णधनंजयौ।
गर्हयामास तं चापि शशंस पुरुषर्षभम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततः स सर्वसेनायां जनः कृष्णधनंजयौ।
गर्हयामास तं चापि शशंस पुरुषर्षभम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सारी कौरव-सेनाके लोग श्रीकृष्ण और अर्जुनकी निन्दा तथा नरश्रेष्ठ भूरिश्रवाकी प्रशंसा करने लगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निन्द्यमानौ तथा कृष्णौ नोचतुः किंचिदप्रियम्।
ततः प्रशस्यमानश्च नाहृष्यद् यूपकेतनः ॥ ३७ ॥

मूलम्

निन्द्यमानौ तथा कृष्णौ नोचतुः किंचिदप्रियम्।
ततः प्रशस्यमानश्च नाहृष्यद् यूपकेतनः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके द्वारा निन्दित होनेपर भी श्रीकृष्ण और अर्जुनने कोई अप्रिय बात नहीं कही तथा प्रशंसित होनेपर भी यूपकेतु भूरिश्रवाने हर्ष नहीं प्रकट किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तथावादिनो राजन् पुत्रांस्तव धनंजयः।
अमृष्यमाणो मनसा तेषां तस्य च भाषितम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

तांस्तथावादिनो राजन् पुत्रांस्तव धनंजयः।
अमृष्यमाणो मनसा तेषां तस्य च भाषितम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपके पुत्र जब भूरिश्रवाकी ही भाँति निन्दाकी बातें कहने लगे, तब अर्जुन उनके तथा भूरिश्रवाके उस कथनको मन-ही-मन सहन न कर सके॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंक्रुद्धमना वाचः स्मारयन्निव भारत।
उवाच पाण्डुतनयः साक्षेपमिव फाल्गुनः ॥ ३९ ॥

मूलम्

असंक्रुद्धमना वाचः स्मारयन्निव भारत।
उवाच पाण्डुतनयः साक्षेपमिव फाल्गुनः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! पाण्डुपुत्र अर्जुनके मनमें तनिक भी क्रोध नहीं हुआ। उन्होंने मानो पुरानी बातें याद दिलाते हुए, कौरवोंपर आक्षेप करते हुए-से कहा—॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम सर्वेऽपि राजानो जानन्त्येव महाव्रतम्।
न शक्यो मामको हन्तुं यो मे स्याद् बाणगोचरे॥४०॥

मूलम्

मम सर्वेऽपि राजानो जानन्त्येव महाव्रतम्।
न शक्यो मामको हन्तुं यो मे स्याद् बाणगोचरे॥४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सब राजा मेरे इस महान् व्रतको जानते ही हैं कि जो कोई मेरा आत्मीयजन मेरे बाणोंकी पहुँचके भीतर होगा, वह किसी शत्रुके द्वारा मारा नहीं जा सकता॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यूपकेतो निरीक्ष्यैतन्न मामर्हसि गर्हितुम्।
न हि धर्ममविज्ञाय युक्तं गर्हयितुं परम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

यूपकेतो निरीक्ष्यैतन्न मामर्हसि गर्हितुम्।
न हि धर्ममविज्ञाय युक्तं गर्हयितुं परम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यूपध्वज भूरिश्रवाजी! इस बातपर ध्यान देकर आपको मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये। धर्मके स्वरूपको जाने बिना दूसरे किसीकी निन्दा करना उचित नहीं है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्तशस्त्रस्य हि रणे वृष्णिवीरं जिघांसतः।
यदहं बाहुमच्छैत्सं न स धर्मो विगर्हितः ॥ ४२ ॥

मूलम्

आत्तशस्त्रस्य हि रणे वृष्णिवीरं जिघांसतः।
यदहं बाहुमच्छैत्सं न स धर्मो विगर्हितः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप तलवार हाथमें लेकर रणभूमिमें वृष्णिवीर सात्यकिका वध करना चाहते थे। उस दशामें मैंने जो आपकी बाँह काट डाली है, वह आश्रित-रक्षारूप धर्म निन्दित नहीं है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यस्तशस्त्रस्य बालस्य विरथस्य विवर्मणः।
अभिमन्योर्वधं तात धार्मिकः को नु पूजयेत् ॥ ४३ ॥

मूलम्

न्यस्तशस्त्रस्य बालस्य विरथस्य विवर्मणः।
अभिमन्योर्वधं तात धार्मिकः को नु पूजयेत् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! बालक अभिमन्यु शस्त्र, कवच और रथसे हीन हो चुका था, उस दशामें जो उसका वध किया गया, उसकी कौन धार्मिक पुरुष प्रशंसा कर सकता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(दुर्योधनस्य क्षुद्रस्य न प्रमाणेऽवतिष्ठतः।
सौमदत्तेर्वधः साधुः स वै साहाय्यकारिणः॥

मूलम्

(दुर्योधनस्य क्षुद्रस्य न प्रमाणेऽवतिष्ठतः।
सौमदत्तेर्वधः साधुः स वै साहाय्यकारिणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो शास्त्रीय मर्यादामें स्थित नहीं रहता, उस नीच दुर्योधनकी सहायता करनेवाले सोमदत्तकुमार भूरिश्रवाका जो इस प्रकार वध हुआ है, वह ठीक ही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मदीया मया रक्ष्याः प्राणबाध उपस्थिते।
ये मे प्रत्यक्षतो वीरा हन्येरन्निति मे मतिः॥

मूलम्

अस्मदीया मया रक्ष्याः प्राणबाध उपस्थिते।
ये मे प्रत्यक्षतो वीरा हन्येरन्निति मे मतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि मुझे प्राण-संकट उपस्थित होनेपर आत्मीय जनोंकी रक्षा करनी चाहिये; विशेषतः उन वीरोंकी जो मेरी आँखोंके सामने मारे जा रहे हों।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिश्च वशं नीतः कौरवेण महात्मना।
ततो मयैतच्चरितं प्रतिज्ञारक्षणं प्रति॥

मूलम्

सात्यकिश्च वशं नीतः कौरवेण महात्मना।
ततो मयैतच्चरितं प्रतिज्ञारक्षणं प्रति॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुवंशी महामना भूरिश्रवाने सात्यकिको अपने वशमें कर लिया था। इसीसे अपनी प्रतिज्ञाकी रक्षाके लिये मैंने यह कार्य किया है’।

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च कृपयाऽऽविष्टो बहु तत्तद् विचिन्तयन्।
उवाच चैनं कौरव्यमर्जुनः शोकपीडितः॥

मूलम्

पुनश्च कृपयाऽऽविष्टो बहु तत्तद् विचिन्तयन्।
उवाच चैनं कौरव्यमर्जुनः शोकपीडितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! फिर बहुत-सी भिन्न-भिन्न बातें सोचकर अर्जुन दयासे द्रवित और शोकसे पीड़ित हो उठे तथा कुरुवंशी भूरिश्रवासे इस प्रकार बोले।

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगस्तु क्षत्रधर्मं तु यत्र त्वं पुरुषेश्वरः।
अवस्थामीदृशीं प्राप्तः शरण्यः शरणप्रदः।

मूलम्

धिगस्तु क्षत्रधर्मं तु यत्र त्वं पुरुषेश्वरः।
अवस्थामीदृशीं प्राप्तः शरण्यः शरणप्रदः।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— उस क्षत्रिय-धर्मको धिक्कार है, जहाँ दूसरोंको शरण देनेवाले आप-जैसे शरणागतवत्सल नरेश एसी अवस्थाको जा पहुँचे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि नाम पुमाल्ँलोके मादृशः पुरुषोत्तमः।
प्रहरेत् त्वद्विधं त्वद्य प्रतिज्ञा यदि नो भवेत्॥)

मूलम्

को हि नाम पुमाल्ँलोके मादृशः पुरुषोत्तमः।
प्रहरेत् त्वद्विधं त्वद्य प्रतिज्ञा यदि नो भवेत्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

यदि पहलेसे प्रतिज्ञा न की गयी होती तो संसारमें मेरे-जैसा कौन श्रेष्ठ पुरुष आप-जैसे गुरुजनपर आज ऐसा प्रहार कर सकता था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स पार्थेन शिरसा भूमिमस्पृशत्।
पाणिना चैव सव्येन प्राहिणोदस्य दक्षिणम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स पार्थेन शिरसा भूमिमस्पृशत्।
पाणिना चैव सव्येन प्राहिणोदस्य दक्षिणम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार अर्जुनके ऐसा कहनेपर भूरिश्रवाने अपने मस्तकसे भूमिका स्पर्श किया। बायें हाथसे अपना दाहिना हाथ उठाकर अर्जुनके पास फेंक दिया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् पार्थस्य तु वचस्ततः श्रुत्वा महाद्युतिः।
यूपकेतुर्महाराज तूष्णीमासीदवाङ्‌मुखः ॥ ४५ ॥

मूलम्

एतत् पार्थस्य तु वचस्ततः श्रुत्वा महाद्युतिः।
यूपकेतुर्महाराज तूष्णीमासीदवाङ्‌मुखः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! पार्थकी उपर्युक्त बात सुनकर यूप-चिह्नित ध्वजावाले महातेजस्वी भूरिश्रवा नीचे मुँह किये मौन रह गये॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

या प्रीतिर्धर्मराजे मे भीमे च बलिनां वरे।
नकुले सहदेवे च सा मे त्वयि शलाग्रज ॥ ४६ ॥

मूलम्

या प्रीतिर्धर्मराजे मे भीमे च बलिनां वरे।
नकुले सहदेवे च सा मे त्वयि शलाग्रज ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अर्जुनने कहा— शलके बड़े भाई भूरिश्रवाजी! मेरा जो प्रेम धर्मराज युधिष्ठिर, बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन, नकुल और सहदेवमें है, वही आपमें भी है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया त्वं समनुज्ञातः कृष्णेन च महात्मना।
गच्छ पुण्यकृताल्ँलोकान् शिबिरौशीनरो यथा ॥ ४७ ॥

मूलम्

मया त्वं समनुज्ञातः कृष्णेन च महात्मना।
गच्छ पुण्यकृताल्ँलोकान् शिबिरौशीनरो यथा ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं और महात्मा भगवान् श्रीकृष्ण आपको यह आज्ञा देते हैं कि आप उशीनरपुत्र शिबिके समान पुण्यात्मा पुरुषोंके लोकोंमे जायँ॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये लोका मम विमलाः सकृद् विभाता
ब्रह्माद्यैः सुरवृषभैरपीष्यमाणाः ।
तान् क्षिप्रं व्रज सतताग्निहोत्रयाजिन्
मत्तुल्यो भव गरुडोत्तमाङ्गयानः ॥ ४८ ॥

मूलम्

ये लोका मम विमलाः सकृद् विभाता
ब्रह्माद्यैः सुरवृषभैरपीष्यमाणाः ।
तान् क्षिप्रं व्रज सतताग्निहोत्रयाजिन्
मत्तुल्यो भव गरुडोत्तमाङ्गयानः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बोले— निरन्तर अग्निहोत्रद्वारा यजन करनेवाले भूरिश्रवाजी! मेरे जो निरन्तर प्रकाशित होनेवाले निर्मल लोक हैं और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी जहाँ जानेकी सदैव अभिलाषा रखते हैं, उन्हीं लोकोंमें आप शीघ्र पधारिये और मेरे ही समान गरुड़की पीठपर बैठकर विचरनेवाले होइये॥४८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थितः स तु शैनेयो विमुक्तः सौमदत्तिना।
खड्‌गमादाय चिच्छित्सुः शिरस्तस्य महात्मनः ॥ ४९ ॥

मूलम्

उत्थितः स तु शैनेयो विमुक्तः सौमदत्तिना।
खड्‌गमादाय चिच्छित्सुः शिरस्तस्य महात्मनः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! सोमदत्तकुमार भूरिश्रवाके छोड़ देनेपर शिनिपौत्र सात्यकि उठकर खड़े हो गये। फिर उन्होंने तलवार लेकर महामना भूरिश्रवाका सिर काट लेनेका निश्चय किया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहतं पाण्डुपुत्रेण प्रसक्तं भूरिदक्षिणम्।
इयेष सात्यकिर्हन्तुं शलाग्रजमकल्मषम् ॥ ५० ॥
निकृत्तभुजमासीनं छिन्नहस्तमिव द्विपम् ।

मूलम्

निहतं पाण्डुपुत्रेण प्रसक्तं भूरिदक्षिणम्।
इयेष सात्यकिर्हन्तुं शलाग्रजमकल्मषम् ॥ ५० ॥
निकृत्तभुजमासीनं छिन्नहस्तमिव द्विपम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

शलके बड़े भाई प्रचुर दक्षिणा देनेवाले भूरिश्रवा सर्वथा निष्पाप थे। पाण्डुपुत्र अर्जुनने उनकी बाँह काटकर उनका वध-सा ही कर दिया था और इसीलिये वे आमरण अनशनका निश्चय लेकर ध्यान आदि अन्य कार्योमें आसक्त हो गये थे। उस अवस्थामें सात्यकिने बाँह कट जानेसे सूँड़ कटे हाथीके समान बैठे हुए भूरिश्रवाको मार डालनेकी इच्छा की॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोशतां सर्वसैन्यानां निन्द्यमानः सुदुर्मनाः ॥ ५१ ॥
वार्यमाणः स कृष्णेन पार्थेन च महात्मना।
भीमेन चक्ररक्षाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च ॥ ५२ ॥
कर्णेन वृषसेनेन सैन्धवेन तथैव च।
विक्रोशतां च सैन्यानामवधीत् तं धृतव्रतम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

क्रोशतां सर्वसैन्यानां निन्द्यमानः सुदुर्मनाः ॥ ५१ ॥
वार्यमाणः स कृष्णेन पार्थेन च महात्मना।
भीमेन चक्ररक्षाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च ॥ ५२ ॥
कर्णेन वृषसेनेन सैन्धवेन तथैव च।
विक्रोशतां च सैन्यानामवधीत् तं धृतव्रतम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय समस्त सेनाके लोग चिल्ला-चिल्लाकर सात्यकिकी निन्दा कर रहे थे। परंतु सात्यकिकी मनोदशा बहुत बुरी थी। भगवान् श्रीकृष्ण तथा महात्मा अर्जुन भी उन्हें रोक रहे थे। भीमसेन, चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, वृषसेन तथा सिंधुराज जयद्रथ भी उन्हें मना करते रहे, किंतु समस्त सैनिकोंके चीखने-चिल्लानेपर भी सात्यकिने उस व्रतधारी भूरिश्रवाका वध कर ही डाला॥५१—५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायोपविष्टाय रणे पार्थेन छिन्नबाहवे।
सात्यकिः कौरवेयाय खड्गेनापाहरच्छिरः ॥ ५४ ॥

मूलम्

प्रायोपविष्टाय रणे पार्थेन छिन्नबाहवे।
सात्यकिः कौरवेयाय खड्गेनापाहरच्छिरः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें अर्जुनने जिनकी भुजा काट डाली थी तथा जो आमरण उपवासका व्रत लेकर बैठे थे, उन भूरिश्रवापर सात्यकिने खड्गका प्रहार किया और उनका सिर काट लिया॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभ्यनन्दन्त सैन्यानि सात्यकिं तेन कर्मणा।
अर्जुनेन हतं पूर्वं यज्जघान कुरूद्वहम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

नाभ्यनन्दन्त सैन्यानि सात्यकिं तेन कर्मणा।
अर्जुनेन हतं पूर्वं यज्जघान कुरूद्वहम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने पहले जिन्हें मार डाला था, उन कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवाका सात्यकिने जो वध किया, उनके उस कर्मसे सैनिकोंने उनका अभिनन्दन नहीं किया॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहस्राक्षसमं चैव सिद्धचारणमानवाः ।
भूरिश्रवसमालोक्य युद्धे प्रायगतं हतम् ॥ ५६ ॥
अपूजयन्त तं देवा विस्मितास्तेऽस्य कर्मभिः।

मूलम्

सहस्राक्षसमं चैव सिद्धचारणमानवाः ।
भूरिश्रवसमालोक्य युद्धे प्रायगतं हतम् ॥ ५६ ॥
अपूजयन्त तं देवा विस्मितास्तेऽस्य कर्मभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें प्रायोपवेशन करनेवाले, इन्द्रके समान पराक्रमी भूरिश्रवाको मारा गया देख सिद्ध, चारण, मनुष्य और देवताओंने उनका गुणगान किया; क्योंकि वे भूरिश्रवाके कर्मोंसे आश्चर्यचकित हो रहे थे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षवादांश्च सुबहून् प्रावदंस्तव सैनिकाः ॥ ५७ ॥
न वार्ष्णेयस्यापराधो भवितव्यं हि तत् तथा।
तस्मान्मन्युर्न वः कार्यः क्रोधो दुःखतरो नृणाम् ॥ ५८ ॥

मूलम्

पक्षवादांश्च सुबहून् प्रावदंस्तव सैनिकाः ॥ ५७ ॥
न वार्ष्णेयस्यापराधो भवितव्यं हि तत् तथा।
तस्मान्मन्युर्न वः कार्यः क्रोधो दुःखतरो नृणाम् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके सैनिकोंने सात्यकिके पक्ष और विपक्षमें बहुत-सी बातें कहीं। अन्तमें वे इस प्रकार बोले—‘इसमें सात्यकिका कोई अपराध नहीं है। होनहार ही ऐसी थी। इसलिये आपलोगोंको अपने मनमें क्रोध नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्रोध ही मनुष्योंके लिये अधिक दुःखदायी होता है॥५७-५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्तव्यश्चैव वीरेण नात्र कार्या विचारणा।
विहितो ह्यस्य धात्रैव मृत्युः सात्यकिराहवे ॥ ५९ ॥

मूलम्

हन्तव्यश्चैव वीरेण नात्र कार्या विचारणा।
विहितो ह्यस्य धात्रैव मृत्युः सात्यकिराहवे ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर सात्यकिके द्वारा ही भूरिश्रवा मारे जानेवाले थे। विधाताने युद्धस्थलमें ही सात्यकिको उनकी मृत्यु निश्चित कर दिया था; इसलिये इसमें विचार नहीं करना चाहिये॥५९॥

मूलम् (वचनम्)

सात्यकिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हन्तव्यो न हन्तव्य इति यन्मां प्रभाषत।
धर्मवादैरधर्मिष्ठा धर्मकञ्चुकमास्थिताः ॥ ६० ॥

मूलम्

न हन्तव्यो न हन्तव्य इति यन्मां प्रभाषत।
धर्मवादैरधर्मिष्ठा धर्मकञ्चुकमास्थिताः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि बोले— धर्मका चोला पहनकर खड़े हुए अधर्मपरायण पापात्माओ! इस समय धर्मकी बातें बनाते हुए तुमलोग जो मुझसे बारंबार कह रहे हो कि ‘न मारो, न मारो’ उसका उत्तर मुझसे सुन लो॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा बालः सुभद्रायाः सुतः शस्त्रविना कृतः।
युष्माभिर्निहतो युद्धे तदा धर्मः क्व वो गतः ॥ ६१ ॥

मूलम्

यदा बालः सुभद्रायाः सुतः शस्त्रविना कृतः।
युष्माभिर्निहतो युद्धे तदा धर्मः क्व वो गतः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब तुमलोगोंने सुभद्राके बालक पुत्र अभिमन्युको युद्धमें शस्त्रहीन करके मार डाला था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया त्वेतत् प्रतिज्ञातं क्षेपे कस्मिंश्चिदेव हि।
यो मां निष्पिष्य संग्रामे जीवन् हन्यात् पदा रुषा॥६२॥
स मे वध्यो भवेच्छत्रुर्यद्यपि स्यान्मुनिव्रतः।

मूलम्

मया त्वेतत् प्रतिज्ञातं क्षेपे कस्मिंश्चिदेव हि।
यो मां निष्पिष्य संग्रामे जीवन् हन्यात् पदा रुषा॥६२॥
स मे वध्यो भवेच्छत्रुर्यद्यपि स्यान्मुनिव्रतः।

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने तो पहलेसे ही यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिसके द्वारा कभी भी मेरा तिरस्कार हो जायगा अथवा जो संग्रामभूमिमें मुझे पटककर जीते-जी रोषपूर्वक मुझे लात मारेगा, वह शत्रु मुनियोंके समान मौनव्रत लेकर ही क्यों न बैठा हो, अवश्य मेरा वध्य होगा॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेष्टमानं प्रतीघाते सभुजं मां सचक्षुषः ॥ ६३ ॥
मन्यध्वं मृत इत्येवमेतद् वो बुद्धिलाघवम्।
युक्तो ह्यस्य प्रतीघातः कृतो मे कुरुपुङ्गवाः ॥ ६४ ॥

मूलम्

चेष्टमानं प्रतीघाते सभुजं मां सचक्षुषः ॥ ६३ ॥
मन्यध्वं मृत इत्येवमेतद् वो बुद्धिलाघवम्।
युक्तो ह्यस्य प्रतीघातः कृतो मे कुरुपुङ्गवाः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी बाँहें मौजूद हैं और मैं अपने ऊपर किये गये आघातका बदला लेनेकी निरन्तर चेष्टा करता आया हूँ तो भी तुमलोग आँख रहते हुए भी यदि मुझे मरा हुआ मान लेते हो, तो यह तुम्हारी बुद्धिकी मन्दताका परिचायक है। कुरुश्रेष्ठ वीरो! मैंने तो भूरिश्रवाका वध करके बदला चुकाया है, जो सर्वथा उचित है॥६३-६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु पार्थेन मां दृष्ट्वा प्रतिज्ञामभिरक्षता।
सखड्‌गोऽस्य हृतो बाहुरेतेनैवास्मि वञ्चितः ॥ ६५ ॥

मूलम्

यत् तु पार्थेन मां दृष्ट्वा प्रतिज्ञामभिरक्षता।
सखड्‌गोऽस्य हृतो बाहुरेतेनैवास्मि वञ्चितः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार अर्जुनने अपनी प्रतिज्ञाकी रक्षा करते हुए जो मुझे संकटमें देखकर भूरिश्रवाकी तलवारसहित बाँह काट डाली, इसीसे मैं भूरिश्रवाको मारनेके यशसे वंचित रह गया॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवितव्यं हि यद् भावि दैवं चेष्टयतीव च।
सोऽयं हतो विमर्देऽस्मिन् किमत्राधर्मचेष्टितम् ॥ ६६ ॥

मूलम्

भवितव्यं हि यद् भावि दैवं चेष्टयतीव च।
सोऽयं हतो विमर्देऽस्मिन् किमत्राधर्मचेष्टितम् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो होनहार होती है, उसके अनुकूल ही दैव चेष्टा कराता है। इसीके अनुसार इस संग्राममें भूरिश्रवा मारे गये हैं। इसमें अधर्मपूर्ण चेष्टा क्या है?॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि।
न हन्तव्याः स्त्रिय इति यद् ब्रवीषि प्लवङ्गम ॥ ६७ ॥
सर्वकालं मनुष्येण व्यवसायवता सदा।
पीडाकरममित्राणां यत् स्यात् कर्तव्यमेव तत् ॥ ६८ ॥

मूलम्

अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि।
न हन्तव्याः स्त्रिय इति यद् ब्रवीषि प्लवङ्गम ॥ ६७ ॥
सर्वकालं मनुष्येण व्यवसायवता सदा।
पीडाकरममित्राणां यत् स्यात् कर्तव्यमेव तत् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि वाल्मीकिने पूर्वकालमें ही इस भूतलपर एक श्लोकका गान किया है। जिसका भावार्थ इस प्रकार है—‘वानर! तुम जो यह कहते हो कि स्त्रियोंका वध नहीं करना चाहिये, उसके उत्तरमें मेरा यह कहना है कि उद्योगी मनुष्यके लिये सदा सब समय वह कार्य करने ही योग्य माना गया है, जो शत्रुओंको पीड़ा देनेवाला हो’॥६७-६८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते महाराज सर्वे कौरवपुङ्गवाः।
न स्म किंचिदभाषन्त मनसा समपूजयन् ॥ ६९ ॥

मूलम्

एवमुक्ते महाराज सर्वे कौरवपुङ्गवाः।
न स्म किंचिदभाषन्त मनसा समपूजयन् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! सात्यकिके ऐसा कहनेपर समस्त श्रेष्ठ कौरवोंने उसके उत्तरमें कुछ नहीं कहा। वे मन-ही-मन उनकी प्रशंसा करने लगे॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्राभिपूतस्य महाध्वरेषु
यशस्विनो भूरिसहस्रदस्य च ।
मुनेरिवारण्यगतस्य तस्य
न तत्र कश्चिद् वधमभ्यनन्दत ॥ ७० ॥

मूलम्

मन्त्राभिपूतस्य महाध्वरेषु
यशस्विनो भूरिसहस्रदस्य च ।
मुनेरिवारण्यगतस्य तस्य
न तत्र कश्चिद् वधमभ्यनन्दत ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े यज्ञोंमें मन्त्रयुक्त अभिषेकसे जो पवित्र हो चुके थे, यज्ञोंमें कई हजार स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणा देते थे, जिनका यश सर्वत्र फैला हुआ था और जो वनवासी मुनिके समान वहाँ बैठे हुए थे, उन भूरिश्रवाके वधका किसीने भी अभिनन्दन नहीं किया॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनीलकेशं वरदस्य तस्य
शूरस्य पारावतलोहिताक्षम् ।
अश्वस्य मेध्यस्य शिरो निकृत्तं
न्यस्तं हविर्धानमिवान्तरेण ॥ ७१ ॥

मूलम्

सुनीलकेशं वरदस्य तस्य
शूरस्य पारावतलोहिताक्षम् ।
अश्वस्य मेध्यस्य शिरो निकृत्तं
न्यस्तं हविर्धानमिवान्तरेण ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर देनेवाले भूरिश्रवाका नीले केशोंसे अलंकृत तथा कबूतरके समान लाल नेत्रोंवाला वह कटा हुआ सिर ऐसा जान पड़ता था, मानो अश्वमेधके मेध्य अश्वका कटा हुआ मस्तक अग्निकुण्डके भीतर रखा गया हो॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेजसा शस्त्रकृतेन पूतो
महाहवे देहवरं विसृज्य ।
आक्रामदूर्ध्वं वरदो वरार्हो
व्यावृत्त्य धर्मेण परेण रोदसी ॥ ७२ ॥

मूलम्

स तेजसा शस्त्रकृतेन पूतो
महाहवे देहवरं विसृज्य ।
आक्रामदूर्ध्वं वरदो वरार्हो
व्यावृत्त्य धर्मेण परेण रोदसी ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वरदायक तथा वर पानेके योग्य भूरिश्रवाने उस महायुद्धमें शस्त्रके तेजसे पवित्र हो अपने उत्तम शरीरका परित्याग करके उत्कृष्ट धर्मके द्वारा पृथ्वी और आकाशको लाँघकर ऊर्ध्वलोकमें गमन किया॥७२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भूरिश्रवोवधे त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भूरिश्रवाका वधविषयक एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४३॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८ श्लोक मिलाकर कुल ८० श्लोक हैं।)