१४२ भूरिश्रवोबाहुच्छेदे

भागसूचना

द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भूरिश्रवा और सात्यकिका रोषपूर्वक सम्भाषण और युद्ध तथा सात्यकिका सिर काटनेके लिये उद्यत हुए भूरिश्रवाकी भुजाका अर्जुनद्वारा उच्छेद

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं युद्धदुर्मदम्।
क्रोधाद् भूरिश्रवा राजन् सहसा समुपाद्रवत् ॥ १ ॥

मूलम्

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं युद्धदुर्मदम्।
क्रोधाद् भूरिश्रवा राजन् सहसा समुपाद्रवत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! रणदुर्मद सात्यकिको आते देख भूरिश्रवाने क्रोधपूर्वक सहसा उनपर आक्रमण किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीन्महाराज कौरव्यः शिनिपुङ्गवम् ।
अद्य प्राप्तोऽसि दिष्ट्या मे चक्षुर्विषयमित्युत ॥ २ ॥
चिराभिलषितं काममहं प्राप्स्यामि संयुगे।
न हि मे मोक्ष्यसे जीवन् यदि नोत्सृजसे रणम्॥३॥

मूलम्

तमब्रवीन्महाराज कौरव्यः शिनिपुङ्गवम् ।
अद्य प्राप्तोऽसि दिष्ट्या मे चक्षुर्विषयमित्युत ॥ २ ॥
चिराभिलषितं काममहं प्राप्स्यामि संयुगे।
न हि मे मोक्ष्यसे जीवन् यदि नोत्सृजसे रणम्॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कुरुनन्दन भूरिश्रवाने उस समय शिनिप्रवर सात्यकिसे इस प्रकार कहा—‘युयुधान! बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज तुम मेरी आँखोंके सामने आ गये। आज युद्धमें मैं अपनी बहुत दिनोंकी इच्छा पूर्ण करूँगा। यदि तुम मैदान छोड़कर भाग नहीं गये तो आज मेरे हाथसे जीवित नहीं बचोगे॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य त्वां समरे हत्वा नित्यं शूराभिमानिनम्।
नन्दयिष्यामि दाशार्ह कुरुराजं सुयोधनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

अद्य त्वां समरे हत्वा नित्यं शूराभिमानिनम्।
नन्दयिष्यामि दाशार्ह कुरुराजं सुयोधनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दाशार्ह! तुम सदा अपनेको बड़ा शूरवीर मानते हो। आज मैं समरभूमिमें तुम्हारा वध करके कुरुराज दुर्योधनको आनन्दित करूँगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य मद्बाणनिर्दग्धं पतितं धरणीतले।
द्रक्ष्यतस्त्वां रणे वीरौ सहितौ केशवार्जुनौ ॥ ५ ॥

मूलम्

अद्य मद्बाणनिर्दग्धं पतितं धरणीतले।
द्रक्ष्यतस्त्वां रणे वीरौ सहितौ केशवार्जुनौ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज युद्धमें वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों एक साथ तुम्हें मेरे बाणोंसे दग्ध होकर पृथ्वीपर पड़ा हुआ देखेंगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य धर्मसुतो राजा श्रुत्वा त्वां निहतं मया।
सव्रीडो भविता सद्यो येनासीह प्रवेशितः ॥ ६ ॥

मूलम्

अद्य धर्मसुतो राजा श्रुत्वा त्वां निहतं मया।
सव्रीडो भविता सद्यो येनासीह प्रवेशितः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज जिन्होंने इस सेनाके भीतर तुम्हारा प्रवेश कराया है, वे धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर मेरे द्वारा तुम्हारे मारे जानेका समाचार सुनकर तत्काल लज्जित हो जायँगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य मे विक्रमं पार्थो विज्ञास्यति धनंजयः।
त्वयि भूमौ विनिहते शयाने रुधिरोक्षिते ॥ ७ ॥

मूलम्

अद्य मे विक्रमं पार्थो विज्ञास्यति धनंजयः।
त्वयि भूमौ विनिहते शयाने रुधिरोक्षिते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज जब तुम मारे जाकर खूनसे लथपथ हो धरतीपर सो जाओगे, उस समय कुन्तीपुत्र अर्जुन मेरे पराक्रमको अच्छी तरह जान लेंगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिराभिलषितो ह्येष त्वया सह समागमः।
पुरा देवासुरे युद्धे शक्रस्य बलिना यथा ॥ ८ ॥

मूलम्

चिराभिलषितो ह्येष त्वया सह समागमः।
पुरा देवासुरे युद्धे शक्रस्य बलिना यथा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पूर्वकालमें देवासुर-संग्राममें इन्द्रका राजा बलिके साथ युद्ध हुआ था, उसी प्रकार तुम्हारे साथ मेरा युद्ध हो, यह मेरी बहुत दिनोंकी अभिलाषा थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य युद्धं महाघोरं तव दास्यामि सात्वत।
ततो ज्ञास्यसि तत्त्वेन मद्वीर्यबलपौरुषम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अद्य युद्धं महाघोरं तव दास्यामि सात्वत।
ततो ज्ञास्यसि तत्त्वेन मद्वीर्यबलपौरुषम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सात्वत! आज मैं तुम्हें अत्यन्त घोर संग्रामका अवसर दूँगा। इससे तुम मेरे बल, वीर्य और पुरुषार्थका यथार्थ परिचय प्राप्त करोगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य संयमनीं याता मया त्वं निहतो रणे।
यथा रामानुजेनाजौ रावणिर्लक्ष्मणेन ह ॥ १० ॥

मूलम्

अद्य संयमनीं याता मया त्वं निहतो रणे।
यथा रामानुजेनाजौ रावणिर्लक्ष्मणेन ह ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजीके भाई लक्ष्मणके द्वारा युद्धमें रावणकुमार इन्द्रजित् मारा गया था, उसी प्रकार इस रणभूमिमें मेरे द्वारा मारे जाकर तुम आज ही यमराजकी संयमनीपुरीकी ओर प्रस्थान करोगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य कृष्णश्च पार्थश्च धर्मराजश्च माधव।
हते त्वयि निरुत्साहा रणं त्यक्ष्यन्त्यसंशयम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अद्य कृष्णश्च पार्थश्च धर्मराजश्च माधव।
हते त्वयि निरुत्साहा रणं त्यक्ष्यन्त्यसंशयम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माधव! आज तुम्हारे मारे जानेपर श्रीकृष्ण, अर्जुन और धर्मराज युधिष्ठिर उत्साहशून्य हो युद्ध बंद कर देंगे, इसमें संशय नहीं है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य तेऽपचितिं कृत्वा शितैर्माधव सायकैः।
तत्स्त्रियो नन्दयिष्यामि ये त्वया निहता रणे ॥ १२ ॥

मूलम्

अद्य तेऽपचितिं कृत्वा शितैर्माधव सायकैः।
तत्स्त्रियो नन्दयिष्यामि ये त्वया निहता रणे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुकुलनन्दन! आज तीखे बाणोंसे तुम्हारी पूजा करके मैं उन वीरोंकी स्त्रियोंको आनन्दित करूँगा, जिन्हें रणभूमिमें तुमने मार डाला है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मच्चक्षुर्विषयं प्राप्तो न त्वं माधव मोक्ष्यसे।
सिंहस्य विषयं प्राप्तो यथा क्षुद्रमृगस्तथा ॥ १३ ॥

मूलम्

मच्चक्षुर्विषयं प्राप्तो न त्वं माधव मोक्ष्यसे।
सिंहस्य विषयं प्राप्तो यथा क्षुद्रमृगस्तथा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माधव! जैसे कोई क्षुद्र मृग सिंहकी दृष्टिमें पड़कर जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार मेरी आँखोंके सामने आकर अब तुम जीवित नहीं छूट सकोगे’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युयुधानस्तु तं राजन् प्रत्युवाच हसन्निव।
कौरवेय न संत्रासो विद्यते मम संयुगे ॥ १४ ॥

मूलम्

युयुधानस्तु तं राजन् प्रत्युवाच हसन्निव।
कौरवेय न संत्रासो विद्यते मम संयुगे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! युयुधानने भूरिश्रवाकी यह बात सुनकर हँसते हुए-से यह उत्तर दिया—‘कुरुनन्दन! युद्धमें मुझे कभी किसीसे भय नहीं होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं भीषयितुं शक्यो वाङ्‌मात्रेण तु केवलम्।
स मां निहन्यात् संग्रामे यो मां कुर्यान्निरायुधम् ॥ १५ ॥

मूलम्

नाहं भीषयितुं शक्यो वाङ्‌मात्रेण तु केवलम्।
स मां निहन्यात् संग्रामे यो मां कुर्यान्निरायुधम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे केवल बातें बनाकर नहीं डराया जा सकता। संग्राममें जो मुझे शस्त्रहीन कर दे, वही मेरा वध कर सकता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समास्तु शाश्वतीर्हन्याद् यो मां हन्याद्धि संयुगे।
किं वृथोक्तेन बहुना कर्मणा तत् समाचर ॥ १६ ॥

मूलम्

समास्तु शाश्वतीर्हन्याद् यो मां हन्याद्धि संयुगे।
किं वृथोक्तेन बहुना कर्मणा तत् समाचर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो युद्धमें मुझे मार सकता है, वह सदा सर्वत्र अपने शत्रुओंका वध कर सकता है। अस्तु, व्यर्थ ही बहुत-सी बातें बनानेसे क्या लाभ? तुमने जो कुछ कहा है, उसे करके दिखाओ॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शारदस्येव मेघस्य गर्जितं निष्फलं हि ते।
श्रुत्वा त्वद्‌गर्जितं वीर हास्यं हि मम जायते ॥ १७ ॥

मूलम्

शारदस्येव मेघस्य गर्जितं निष्फलं हि ते।
श्रुत्वा त्वद्‌गर्जितं वीर हास्यं हि मम जायते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शरत्कालके मेघके समान तुम्हारे इस गर्जन-तर्जनका कुछ फल नहीं है। वीर! तुम्हारी यह गर्जना सुनकर मुझे हँसी आती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिरकालेप्सितं लोके युद्धमद्यास्तु कौरव।
त्वरते मे मतिस्तात तव युद्धाभिकाङ्क्षिणी ॥ १८ ॥
नाहत्वाहं निवर्तिष्ये त्वामद्य पुरुषाधम।

मूलम्

चिरकालेप्सितं लोके युद्धमद्यास्तु कौरव।
त्वरते मे मतिस्तात तव युद्धाभिकाङ्क्षिणी ॥ १८ ॥
नाहत्वाहं निवर्तिष्ये त्वामद्य पुरुषाधम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरव! इस लोकमें मेरी भी तुम्हारे साथ युद्ध करनेकी बहुत दिनोंसे अभिलाषा थी। वह आज पूरी हो जाय। तात! तुमसे युद्धकी अभिलाषा रखनेवाली मेरी बुद्धि मुझे जल्दी करनेके लिये प्रेरणा दे रही है। पुरुषाधम! आज तुम्हारा वध किये बिना मैं पीछे नहीं हटूँगा’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यं तौ तथा वाग्भिस्तक्षन्तौ नरपुङ्गवौ ॥ १९ ॥
जिघांसू परमक्रुद्धावभिजघ्नतुराहवे ।

मूलम्

अन्योन्यं तौ तथा वाग्भिस्तक्षन्तौ नरपुङ्गवौ ॥ १९ ॥
जिघांसू परमक्रुद्धावभिजघ्नतुराहवे ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छावाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर परस्पर वाग्बाणोंका प्रहार करते हुए उस युद्धस्थलमें अत्यन्त कुपित हो बाणोंद्वारा आघात करने लगे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेतौ तौ महेष्वासौ शुष्मिणौ स्पर्धिनौ रणे ॥ २० ॥
द्विरदाविव संक्रुद्धौ वासितार्थे मदोत्कटौ।

मूलम्

समेतौ तौ महेष्वासौ शुष्मिणौ स्पर्धिनौ रणे ॥ २० ॥
द्विरदाविव संक्रुद्धौ वासितार्थे मदोत्कटौ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों महाधनुर्धर और पराक्रमी वीर उस रणक्षेत्रमें एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए हथिनीके लिये अत्यन्त कुपित होकर परस्पर युद्ध करनेवाले दो मदोन्मत्त हाथियोंकी तरह एक-दूसरेसे भिड़ गये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूरिश्रवाः सात्यकिश्च ववर्षतुररिंदमौ ॥ २१ ॥
शरवर्षाणि घोराणि मेघाविव परस्परम्।

मूलम्

भूरिश्रवाः सात्यकिश्च ववर्षतुररिंदमौ ॥ २१ ॥
शरवर्षाणि घोराणि मेघाविव परस्परम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भूरिश्रवा और सात्यकि दोनों शत्रुदमन वीरोंने दो मेघोंकी भाँति परस्पर भयंकर बाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौमदत्तिस्तु शैनेयं प्रच्छाद्येषुभिराशुगैः ॥ २२ ॥
जिघांसुर्भरतश्रेष्ठ विव्याध निशितैः शरैः।

मूलम्

सौमदत्तिस्तु शैनेयं प्रच्छाद्येषुभिराशुगैः ॥ २२ ॥
जिघांसुर्भरतश्रेष्ठ विव्याध निशितैः शरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवाने शिनिप्रवर सात्यकिको मार डालनेकी इच्छासे शीघ्रगामी बाणोंद्वारा आच्छादित करके तीखे बाणोंसे घायल कर दिया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशभिः सात्यकिं विद्ध्वा सौमदत्तिरथापरान् ॥ २३ ॥
मुमोच निशितान् बाणान् जिघांसुः शिनिपुङ्गवम्।

मूलम्

दशभिः सात्यकिं विद्ध्वा सौमदत्तिरथापरान् ॥ २३ ॥
मुमोच निशितान् बाणान् जिघांसुः शिनिपुङ्गवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शिनिवंशके प्रधान वीर सात्यकिके वधकी इच्छासे भूरिश्रवाने उन्हें दस बाणोंसे घायल करके उनपर और भी बहुत-से पैने बाण छोड़े॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानस्य विशिखांस्तीक्ष्णानन्तरिक्षे विशाम्पते ॥ २४ ॥
अप्राप्तानस्त्रमायाभिरग्रसत् सात्यकिः प्रभो ।

मूलम्

तानस्य विशिखांस्तीक्ष्णानन्तरिक्षे विशाम्पते ॥ २४ ॥
अप्राप्तानस्त्रमायाभिरग्रसत् सात्यकिः प्रभो ।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! प्रभो! सात्यकिने भूरिश्रवाके उन तीखे बाणोंको अपने पास आनेके पूर्व ही अपने अस्त्र-बलसे आकाशमें ही नष्ट कर दिये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ पृथक् शस्त्रवर्षाभ्यामवर्षेतां परस्परम् ॥ २५ ॥
उत्तमाभिजनौ वीरौ कुरुवृष्णियशस्करौ ।

मूलम्

तौ पृथक् शस्त्रवर्षाभ्यामवर्षेतां परस्परम् ॥ २५ ॥
उत्तमाभिजनौ वीरौ कुरुवृष्णियशस्करौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों वीर उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए थे। एक कुरुकुलकी कीर्तिका विस्तार कर रहा था तो दूसरा वृष्णिवंशका यश बढ़ा रहा था। उन दोनोंने एक-दूसरेपर पृथक्-पृथक् अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा की॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ नखैरिव शार्दूलौ दन्तैरिव महाद्विपौ ॥ २६ ॥
रथशक्तिभिरन्योन्यं विशिखैश्चाप्यकृन्तताम् ।

मूलम्

तौ नखैरिव शार्दूलौ दन्तैरिव महाद्विपौ ॥ २६ ॥
रथशक्तिभिरन्योन्यं विशिखैश्चाप्यकृन्तताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दो सिंह नखोंसे और दो बड़े-बड़े गजराज दाँतोंसे परस्पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर रथ-शक्तियों तथा बाणोंद्वारा एक-दूसरेको क्षत-विक्षत करने लगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्भिन्दन्तौ हि गात्राणि विक्षरन्तौ च शोणितम् ॥ २७ ॥
व्यष्टम्भयेतामन्योन्यं प्राणद्यूताभिदेविनौ ।

मूलम्

निर्भिन्दन्तौ हि गात्राणि विक्षरन्तौ च शोणितम् ॥ २७ ॥
व्यष्टम्भयेतामन्योन्यं प्राणद्यूताभिदेविनौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणोंकी बाजी लगाकर युद्धका जूआ खेलनेवाले वे दोनों वीर एक-दूसरेके अंगोंको विदीर्ण करते और खून बहाते हुए एक-दूसरेको रोकने लगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुत्तमकर्माणौ कुरुवृष्णियशस्करौ ॥ २८ ॥
परस्परमयुध्येतां वारणाविव यूथपौ ।

मूलम्

एवमुत्तमकर्माणौ कुरुवृष्णियशस्करौ ॥ २८ ॥
परस्परमयुध्येतां वारणाविव यूथपौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुल तथा वृष्णिवंशके यशके विस्तार करनेवाले उत्तमकर्मा भूरिश्रवा और सात्यकि इस प्रकार दो यूथपति गजराजोंके समान परस्पर युद्ध करने लगे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावदीर्घेण कालेन ब्रह्मलोकपुरस्कृतौ ॥ २९ ॥
यियासन्तौ परं स्थानमन्योन्यं संजगर्जतुः।

मूलम्

तावदीर्घेण कालेन ब्रह्मलोकपुरस्कृतौ ॥ २९ ॥
यियासन्तौ परं स्थानमन्योन्यं संजगर्जतुः।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मलोकको सामने रखकर परमपद प्राप्त करनेकी इच्छावाले वे दोनों वीर कुछ कालतक एक-दूसरेकी ओर देखकर गर्जन-तर्जन करते रहे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिः सौमदत्तिश्च शरवृष्ट्या परस्परम् ॥ ३० ॥
हृष्टवद् धार्तराष्ट्राणां पश्यतामभ्यवर्षताम् ।

मूलम्

सात्यकिः सौमदत्तिश्च शरवृष्ट्या परस्परम् ॥ ३० ॥
हृष्टवद् धार्तराष्ट्राणां पश्यतामभ्यवर्षताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि और भूरिश्रवा दोनों परस्पर बाणोंकी बौछार कर रहे थे और धृतराष्ट्रके सभी पुत्र हर्षमें भरकर उनके युद्धका दृश्य देख रहे थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रैक्षन्त जनास्तौ तु युध्यमानौ युधाम्पती ॥ ३१ ॥
यूथपौ वासिताहेतोः प्रयुद्धाविव कुञ्जरौ।

मूलम्

सम्प्रैक्षन्त जनास्तौ तु युध्यमानौ युधाम्पती ॥ ३१ ॥
यूथपौ वासिताहेतोः प्रयुद्धाविव कुञ्जरौ।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे हथिनीके लिये दो यूथपति गजराज परस्पर घोर युद्ध करते हैं, उसी प्रकार आपसमें लड़नेवाले उन योद्धाओंके अधिपतियोंको सब लोग दर्शक बनकर देखने लगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यस्य हयान् हत्वा धनुषी विनिकृत्य च ॥ ३२ ॥
विरथावसियुद्धाय समेयातां महारणे ।

मूलम्

अन्योन्यस्य हयान् हत्वा धनुषी विनिकृत्य च ॥ ३२ ॥
विरथावसियुद्धाय समेयातां महारणे ।

अनुवाद (हिन्दी)

दोनोंने दोनोंके घोड़े मारकर धनुष काट दिये तथा उस महासमरमें दोनों ही रथहीन होकर खड्ग-युद्धके लिये एक-दूसरेके सामने आ गये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्षभे चर्मणी चित्रे प्रगृह्य विपुले शुभे ॥ ३३ ॥
विकोशौ चाप्यसी कृत्वा समरे तौ विचेरतुः।

मूलम्

आर्षभे चर्मणी चित्रे प्रगृह्य विपुले शुभे ॥ ३३ ॥
विकोशौ चाप्यसी कृत्वा समरे तौ विचेरतुः।

अनुवाद (हिन्दी)

बैलके चमड़ेसे बनी हुई दो विचित्र, सुन्दर एवं विशाल ढालें लेकर और तलवारोंको म्यानसे बाहर निकालकर वे दोनों समरांगणमें विचरने लगे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन्तौ विविधान् मार्गान् मण्डलानि च भागशः ॥ ३४ ॥
मुहुराजघ्नतुः क्रुद्धावन्योन्यमरिमर्दनौ ।
सखड्गौ चित्रवर्माणौ सनिष्काङ्गदभूषणौ ॥ ३५ ॥

मूलम्

चरन्तौ विविधान् मार्गान् मण्डलानि च भागशः ॥ ३४ ॥
मुहुराजघ्नतुः क्रुद्धावन्योन्यमरिमर्दनौ ।
सखड्गौ चित्रवर्माणौ सनिष्काङ्गदभूषणौ ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर पृथक्-पृथक् नाना प्रकारके मार्ग और मण्डल (पैंतरे और दाँव-पेंच) दिखाते हुए एक-दूसरेपर बारंबार चोट करने लगे। उनके हाथोंमें तलवारें चमक रही थीं। उन दोनोंके ही कवच विचित्र थे तथा वे निष्क और अंगद आदि आभूषणोंसे विभूषित थे॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रान्तमुद्भ्रान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतम् ।
सम्पातं समुदीर्णं च दर्शयन्तौ यशस्विनौ ॥ ३६ ॥
असिभ्यां सम्प्रजह्राते परस्परमरिंदमौ ।

मूलम्

भ्रान्तमुद्भ्रान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतम् ।
सम्पातं समुदीर्णं च दर्शयन्तौ यशस्विनौ ॥ ३६ ॥
असिभ्यां सम्प्रजह्राते परस्परमरिंदमौ ।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों यशस्वी वीर भ्रान्त, उद्भान्त, आविद्ध, आप्लुत, विप्लुत, सृत, सम्पात और समुदीर्ण आदि गति और पैंतरे दिखाते हुए परस्पर तलवारोंका वार करने लगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ छिद्रैषिणौ वीरावुभौ चित्रं ववल्गतुः ॥ ३७ ॥
दर्शयन्तायुभौ शिक्षां लाघवं सौष्ठवं तथा।
रणे रणकृतां श्रेष्ठावन्योन्यं पर्यकर्षताम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

उभौ छिद्रैषिणौ वीरावुभौ चित्रं ववल्गतुः ॥ ३७ ॥
दर्शयन्तायुभौ शिक्षां लाघवं सौष्ठवं तथा।
रणे रणकृतां श्रेष्ठावन्योन्यं पर्यकर्षताम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ही वीर एक-दूसरेके छिद्र (प्रहार करनेके अवसर) पानेकी इच्छा रखते हुए विचित्र रीतिसे उछलते-कूदते थे। दोनों ही अपनी शिक्षा, फुर्ती तथा युद्ध-कौशल दिखाते हुए रणभूमिमें एक-दूसरेको खींच रहे थे। वे दोनों ही योद्धाओंमें श्रेष्ठ थे॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तमिव राजेन्द्र समाहत्य परस्परम्।
पश्यतां सर्वसैन्यानां वीरावाश्वसतां पुनः ॥ ३९ ॥
असिभ्यां चर्मणी चित्रे शतचन्द्रे नराधिप।
निकृत्य पुरुषव्याघ्रौ बाहुयुद्धं प्रचक्रतुः ॥ ४० ॥

मूलम्

मुहूर्तमिव राजेन्द्र समाहत्य परस्परम्।
पश्यतां सर्वसैन्यानां वीरावाश्वसतां पुनः ॥ ३९ ॥
असिभ्यां चर्मणी चित्रे शतचन्द्रे नराधिप।
निकृत्य पुरुषव्याघ्रौ बाहुयुद्धं प्रचक्रतुः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उस समय विश्राम करती हुई सम्पूर्ण सेनाओंके देखते-देखते लगभग दो घड़ीतक एक-दूसरेपर तलवारोंसे चोट करके दोनोंने दोनोंकी सौ चन्द्राकार चिह्नोंसे सुशोभित विचित्र ढालें काट डालीं। नरेश्वर! फिर वे दोनों पुरुषसिंह भुजाओंद्वारा मल्ल-युद्ध करने लगे॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ ।
बाहुभिः समसज्जेतामायसैः परिघैरिव ॥ ४१ ॥

मूलम्

व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ ।
बाहुभिः समसज्जेतामायसैः परिघैरिव ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनोंके वक्षःस्थल चौड़े और भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्ल-युद्धमें कुशल थे और लोहेके परिघोंके समान सुदृढ़ भुजाओंद्वारा एक-दूसरेसे गुथ गये थे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयो राजन् भुजाघातनिग्रहप्रग्रहास्तथा ।
शिक्षाबलसमुद्‌भूताः सर्वयोधप्रहर्षणाः ॥ ४२ ॥

मूलम्

तयो राजन् भुजाघातनिग्रहप्रग्रहास्तथा ।
शिक्षाबलसमुद्‌भूताः सर्वयोधप्रहर्षणाः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन दोनोंके भुजाओंद्वारा आघात, निग्रह (हाथ पकड़ना) और प्रग्रह (गलेमें हाथ लगाना) आदि दाँव उनकी शिक्षा और बलके अनुरूप प्रकट होकर समस्त योद्धाओंका हर्ष बढ़ा रहे थे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोर्नृवरयो राजन् समरे युध्यमानयोः।
भीमोऽभवन्महाशब्दो वज्रपर्वतयोरिव ॥ ४३ ॥

मूलम्

तयोर्नृवरयो राजन् समरे युध्यमानयोः।
भीमोऽभवन्महाशब्दो वज्रपर्वतयोरिव ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! समरभूमिमें जूझते हुए उन दोनों नरश्रेष्ठोंके पारस्परिक आघातसे प्रकट होनेवाला महान् शब्द वज्र और पर्वतके टकरानेके समान भयंकर जान पड़ता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विपाविव विषाणाग्रैः शृङ्गैरिव महर्षभौ।
भुजयोक्त्रावबन्धैश्च शिरोभ्यां चावघातनैः ॥ ४४ ॥
पादावकर्षसंधानैस्तोमराङ्कुशलासनैः ।
पादोदरविबन्धैश्च भूमावुद्भ्रमणैस्तथा ॥ ४५ ॥
गतप्रत्यागताक्षेपैः पातनोत्थानसम्प्लुतैः ।
युयुधाते महात्मानौ कुरुसात्वतपुङ्गवौ ॥ ४६ ॥

मूलम्

द्विपाविव विषाणाग्रैः शृङ्गैरिव महर्षभौ।
भुजयोक्त्रावबन्धैश्च शिरोभ्यां चावघातनैः ॥ ४४ ॥
पादावकर्षसंधानैस्तोमराङ्कुशलासनैः ।
पादोदरविबन्धैश्च भूमावुद्भ्रमणैस्तथा ॥ ४५ ॥
गतप्रत्यागताक्षेपैः पातनोत्थानसम्प्लुतैः ।
युयुधाते महात्मानौ कुरुसात्वतपुङ्गवौ ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दो हाथी दाँतोंके अग्रभागसे तथा दो साँड़ सीगोंसे लड़ते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर कभी भुजपाशोंसे बाँधकर, कभी सिरोंकी टक्कर लगाकर, कभी पैरोंसे खींचकर, कभी पैरमें पैर लपेटकर, कभी तोमर-प्रहारके समान ताल ठोंककर, कभी अंकुश गड़ानेके समान एक-दूसरेको नोचकर, कभी पादबन्ध, उदरबन्ध, उद्‌भ्रमण1, गत[^२], प्रत्यागत[^३], आक्षेप[^४], पातन[^५], उत्थान[^६] और संप्लुत[^७] आदि दावोंका प्रदर्शन करते हुए वे दोनों महामनस्वी कुरु और सात्वतवंशके प्रमुख वीर परस्पर युद्ध कर रहे थे॥४४—४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वात्रिंशत्करणानि स्युर्यानि युद्धानि भारत।
तान्यदर्शयतां तत्र युध्यमानौ महाबलौ ॥ ४७ ॥

मूलम्

द्वात्रिंशत्करणानि स्युर्यानि युद्धानि भारत।
तान्यदर्शयतां तत्र युध्यमानौ महाबलौ ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इस प्रकार वे दोनों महाबली वीर परस्पर जूझते हुए मल्ल-युद्धकी जो बत्तीस कलाएँ हैं, उनका प्रदर्शन करने लगे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीणायुधे सात्वते युध्यमाने
ततोऽब्रवीदर्जुनं वासुदेवः ।
पश्यस्वैनं विरथं युध्यमानं
रणे वरं सर्वधनुर्धराणाम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

क्षीणायुधे सात्वते युध्यमाने
ततोऽब्रवीदर्जुनं वासुदेवः ।
पश्यस्वैनं विरथं युध्यमानं
रणे वरं सर्वधनुर्धराणाम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जब अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो जानेपर सात्यकि युद्ध कर रहे थे, उस समय भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा—‘पार्थ! रणमें समस्त धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ इस सात्यकिकी ओर देखो। यह रथहीन होकर युद्ध कर रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सीदन्तं सात्यकिं पश्य पार्थैनं परिरक्ष च॥)
प्रविष्टो भारतीं भित्त्वा तव पाण्डव पृष्ठतः।
योधितश्च महावीर्यैः सर्वैर्भारत भारतैः ॥ ४९ ॥

मूलम्

(सीदन्तं सात्यकिं पश्य पार्थैनं परिरक्ष च॥)
प्रविष्टो भारतीं भित्त्वा तव पाण्डव पृष्ठतः।
योधितश्च महावीर्यैः सर्वैर्भारत भारतैः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! देखो, सात्यकि शिथिल हो गया है। इसकी रक्षा करो। भारत! पाण्डुनन्दन! तुम्हारे पीछे-पीछे यह कौरव-सेनाका व्यूह भेदकर भीतर घुस आया है और भरतवंशके प्रायः सभी महापराक्रमी योद्धाओंके साथ युद्ध कर चुका है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(धार्तराष्ट्राश्च ये मुख्या ये च मुख्या महारथाः।
निहता वृष्णिवीरेण शतशोऽथ सहस्रशः॥)

मूलम्

(धार्तराष्ट्राश्च ये मुख्या ये च मुख्या महारथाः।
निहता वृष्णिवीरेण शतशोऽथ सहस्रशः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधनकी सेनामें जो मुख्य योद्धा और प्रधान महारथी थे, वे सैकड़ों और हजारोंकी संख्यामें इस वृष्णिवंशी वीरके हाथसे मारे गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिश्रान्तं युधां श्रेष्ठं सम्प्राप्तो भूरिदक्षिणः।
युद्धाकाङ्क्षी समायान्तं नैतत् सममिवार्जुन ॥ ५० ॥

मूलम्

परिश्रान्तं युधां श्रेष्ठं सम्प्राप्तो भूरिदक्षिणः।
युद्धाकाङ्क्षी समायान्तं नैतत् सममिवार्जुन ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! यहाँ आता हुआ योद्धाओंमें श्रेष्ठ सात्यकि बहुत थक गया है, तो भी उनके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे यज्ञोंमें पर्याप्त दक्षिणा देनेवाले भूरिश्रवा आये हैं। यह युद्ध समान योग्यताका नहीं है’॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भूरिश्रवाः क्रुद्धः सात्यकिं युद्धदुर्मदः।
उद्यम्याभ्याहनद् राजन् मत्तो मत्तमिव द्विपम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

ततो भूरिश्रवाः क्रुद्धः सात्यकिं युद्धदुर्मदः।
उद्यम्याभ्याहनद् राजन् मत्तो मत्तमिव द्विपम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसी समय क्रोधमें भरे हुए रणदुर्मद भूरिश्रवाने उद्योग करके सात्यकिपर उसी प्रकार आघात किया, जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत्त हाथीपर चोट करता है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथस्थयोर्द्वयोर्युद्धे क्रुद्धयोर्योधमुख्ययोः ।
केशवार्जुनयो राजन् समरे प्रेक्षमाणयोः ॥ ५२ ॥

मूलम्

रथस्थयोर्द्वयोर्युद्धे क्रुद्धयोर्योधमुख्ययोः ।
केशवार्जुनयो राजन् समरे प्रेक्षमाणयोः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! समरांगणमें रथपर बैठे हुए क्रोधभरे योद्धाओंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन वह युद्ध देख रहे थे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कृष्णो महाबाहुरर्जुनं प्रत्यभाषत।
पश्य वृष्ण्यन्धकव्याघ्रं सौमदत्तिवशं गतम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

अथ कृष्णो महाबाहुरर्जुनं प्रत्यभाषत।
पश्य वृष्ण्यन्धकव्याघ्रं सौमदत्तिवशं गतम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महाबाहु श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा—‘पार्थ! देखो, वृष्णि और अंधकवंशका वह श्रेष्ठ वीर भूरिश्रवाके वशमें हो गया है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिश्रान्तं गतं भूमौ कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
तवान्तेवासिनं वीरं पालयार्जुन सात्यकिम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

परिश्रान्तं गतं भूमौ कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
तवान्तेवासिनं वीरं पालयार्जुन सात्यकिम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह अत्यन्त दुष्कर कर्म करके परिश्रमसे चूर-चूर हो पृथ्वीपर गिर गया है। अर्जुन! वीर सात्यकि तुम्हारा ही शिष्य है। उसकी रक्षा करो॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वशं यज्ञशीलस्य गच्छेदेष वरोऽर्जुन।
त्वत्कृते पुरुषव्याघ्र तदाशु क्रियतां विभो ॥ ५५ ॥

मूलम्

न वशं यज्ञशीलस्य गच्छेदेष वरोऽर्जुन।
त्वत्कृते पुरुषव्याघ्र तदाशु क्रियतां विभो ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह अर्जुन! प्रभो! यह श्रेष्ठ वीर तुम्हारे लिये यज्ञशील भूरिश्रवाके अधीन न हो जाय, ऐसा शीघ्र प्रयत्न करो’॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीद्धृष्टमना वासुदेवं धनंजयः ।
पश्य वृष्णिप्रवीरेण क्रीडन्तं कुरुपुङ्गवम् ॥ ५६ ॥
महाद्विपेनेव वने मत्तेन हरियूथपम्।

मूलम्

अथाब्रवीद्धृष्टमना वासुदेवं धनंजयः ।
पश्य वृष्णिप्रवीरेण क्रीडन्तं कुरुपुङ्गवम् ॥ ५६ ॥
महाद्विपेनेव वने मत्तेन हरियूथपम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने प्रसन्नचित्त होकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘भगवन्! देखिये, जैसे कोई सिंहोंका यूथपति वनमें मतवाले महान् गजके साथ क्रीडा करे, उसी प्रकार कुरुकुलशिरोमणि भूरिश्रवा वृष्णिवंशके प्रमुख वीर सात्यकिके साथ रणक्रीडा कर रहे हैं’॥५६॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं भाषमाणे तु पाण्डवे वै धनंजये ॥ ५७ ॥
हाहाकारो महानासीत् सैन्यानां भरतर्षभ।
तदुद्यम्य महाबाहुः सात्यकिं न्यहनद् भुवि ॥ ५८ ॥

मूलम्

इत्येवं भाषमाणे तु पाण्डवे वै धनंजये ॥ ५७ ॥
हाहाकारो महानासीत् सैन्यानां भरतर्षभ।
तदुद्यम्य महाबाहुः सात्यकिं न्यहनद् भुवि ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन अर्जुन इस प्रकार कह ही रहे थे कि सैनिकोंमें महान् हाहाकार मच गया। महाबाहु भूरिश्रवाने सात्यकिको उठाकर धरतीपर पटक दिया॥५७-५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सिंह इव मातङ्गं विकर्षन् भूरिदक्षिणः।
व्यरोचत कुरुश्रेष्ठः सात्वतप्रवरं युधि ॥ ५९ ॥

मूलम्

स सिंह इव मातङ्गं विकर्षन् भूरिदक्षिणः।
व्यरोचत कुरुश्रेष्ठः सात्वतप्रवरं युधि ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंह किसी मतवाले हाथीको खींचता है, उसी प्रकार प्रचुर दक्षिणा देनेवाले कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा युद्धस्थलमें सात्वतवंशके प्रमुख वीर सात्यकिको घसीटते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कोशाद् विनिष्कृष्य खड्‌गं भूरिश्रवा रणे।
मूर्धजेषु निजग्राह पदा चोरस्यताडयत् ॥ ६० ॥

मूलम्

अथ कोशाद् विनिष्कृष्य खड्‌गं भूरिश्रवा रणे।
मूर्धजेषु निजग्राह पदा चोरस्यताडयत् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भूरिश्रवाने रणभूमिमें तलवारको म्यानसे बाहर निकालकर सात्यकिकी चुटिया पकड़ ली और उनकी छातीमें लात मारी॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्य छेत्तुमारब्धः शिरः कायात्‌ सकुण्डलम्।
तावत्क्षणात् सात्वतोऽति शिरः सम्भ्रमयंस्त्वरन् ॥ ६१ ॥

मूलम्

ततोऽस्य छेत्तुमारब्धः शिरः कायात्‌ सकुण्डलम्।
तावत्क्षणात् सात्वतोऽति शिरः सम्भ्रमयंस्त्वरन् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उसने उनके कुण्डलमण्डित मस्तकको धड़से अलग कर देनेका उद्योग आरम्भ किया। उस समय सात्यकि भी बड़ी शीघ्रताके साथ अपने मस्तकको घुमाने लगे॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चक्रं तु कौलालो दण्डविद्धं तु भारत।
सहैव भूरिश्रवसो बाहुना केशधारिणा ॥ ६२ ॥

मूलम्

यथा चक्रं तु कौलालो दण्डविद्धं तु भारत।
सहैव भूरिश्रवसो बाहुना केशधारिणा ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जैसे कुम्हार छेदमें डंडा डालकर अपनी चाकको घुमाता है, उसी प्रकार केश पकड़े हुए भूरिश्रवाके बाँहके साथ ही सात्यकि अपने सिरको घुमाने लगे॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथा परिकृष्यन्तं दृष्ट्वा सात्वतमाहवे।
वासुदेवस्ततो राजन् भूयोऽर्जुनमभाषत ॥ ६३ ॥

मूलम्

तं तथा परिकृष्यन्तं दृष्ट्वा सात्वतमाहवे।
वासुदेवस्ततो राजन् भूयोऽर्जुनमभाषत ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार युद्धभूमिमें केश खींचे जानेके कारण सात्यकिको कष्ट पाते देख भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनसे पुनः इस प्रकार बोले—॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य वृष्ण्यन्धकव्याघ्रं सौमदत्तिवशं गतम्।
तव शिष्यं महाबाहो धनुष्यनवरं त्वया ॥ ६४ ॥

मूलम्

पश्य वृष्ण्यन्धकव्याघ्रं सौमदत्तिवशं गतम्।
तव शिष्यं महाबाहो धनुष्यनवरं त्वया ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! देखो, वृष्णि और अन्धकवंशका वह सिंह भूरिश्रवाके वशमें पड़ गया है। यह तुम्हारा शिष्य है और धनुर्विद्यामें तुमसे कम नहीं है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असत्यो विक्रमः पार्थ यत्र भूरिश्रवा रणे।
विशेषयति वार्ष्णेयं सात्यकिं सत्यविक्रमम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

असत्यो विक्रमः पार्थ यत्र भूरिश्रवा रणे।
विशेषयति वार्ष्णेयं सात्यकिं सत्यविक्रमम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! पराक्रम मिथ्या है, जिसका आश्रय लेनेपर भी वृष्णिवंशी सत्यपराक्रमी सात्यकिसे रणभूमिमें भूरिश्रवा बढ़ गये हैं’॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो महाबाहुर्वासुदेवेन पाण्डवः ।
मनसा पूजयामास भूरिश्रवसमाहवे ॥ ६६ ॥

मूलम्

एवमुक्तो महाबाहुर्वासुदेवेन पाण्डवः ।
मनसा पूजयामास भूरिश्रवसमाहवे ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर पाण्डुपुत्र महाबाहु अर्जुनने मन-ही-मन युद्धस्थलमें भूरिश्रवाकी प्रशंसा की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकर्षन् सात्वतश्रेष्ठं क्रीडमान इवाहवे।
संहर्षयति मां भूयः कुरूणां कीर्तिवर्धनः ॥ ६७ ॥

मूलम्

विकर्षन् सात्वतश्रेष्ठं क्रीडमान इवाहवे।
संहर्षयति मां भूयः कुरूणां कीर्तिवर्धनः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले भूरिश्रवा इस युद्ध-स्थलमें सात्वतकुलके श्रेष्ठ वीर सात्यकिको घसीटते हुए खेल-सा कर रहे हैं और बारंबार मेरा हर्ष बढ़ा रहे हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवरं वृष्णिवीराणां यन्न हन्याद्धि सात्यकिम्।
महाद्विपमिवारण्ये मृगेन्द्र इव कर्षति ॥ ६८ ॥

मूलम्

प्रवरं वृष्णिवीराणां यन्न हन्याद्धि सात्यकिम्।
महाद्विपमिवारण्ये मृगेन्द्र इव कर्षति ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंह वनमें किसी महान् गजराजको खींचता है, उसी प्रकार ये भूरिश्रवा वृष्णिवंशके प्रमुख वीर सात्यकिको खींच रहे हैं, उसे मार नहीं रहे हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तु मनसा राजन् पार्थः सम्पूज्य कौरवम्।
वासुदेवं महाबाहुरर्जुनः प्रत्यभाषत ॥ ६९ ॥

मूलम्

एवं तु मनसा राजन् पार्थः सम्पूज्य कौरवम्।
वासुदेवं महाबाहुरर्जुनः प्रत्यभाषत ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार मन-ही-मन उस कुरुवंशी वीरकी प्रशंसा करके महाबाहु कुन्तीकुमार अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्धवे सक्तदृष्टित्वान्नैनं पश्यामि माधवम्।
एतत् त्वसुकरं कर्म यादवार्थे करोम्यहम् ॥ ७० ॥

मूलम्

सैन्धवे सक्तदृष्टित्वान्नैनं पश्यामि माधवम्।
एतत् त्वसुकरं कर्म यादवार्थे करोम्यहम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! मेरी दृष्टि सिन्धुराज जयद्रथपर लगी हुई थी। इसलिये मैं सात्यकिको नहीं देख रहा था; परंतु अब मैं इस यदुवंशी वीरकी रक्षाके लिये यह दुष्कर कर्म करता हूँ’॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा वचनं कुर्वन् वासुदेवस्य पाण्डवः।
ततः क्षुरप्रं निशितं गाण्डीवे समयोजयत् ॥ ७१ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा वचनं कुर्वन् वासुदेवस्य पाण्डवः।
ततः क्षुरप्रं निशितं गाण्डीवे समयोजयत् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञाका पालन करते हुए पाण्डुनन्दन अर्जुनने गाण्डीव धनुषपर एक तीखा क्षुरप्र रखा॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थबाहुविसृष्टः स महोल्केव नभश्च्युता।
सखड्‌गं यज्ञशीलस्य साङ्गदं बाहुमच्छिनत् ॥ ७२ ॥

मूलम्

पार्थबाहुविसृष्टः स महोल्केव नभश्च्युता।
सखड्‌गं यज्ञशीलस्य साङ्गदं बाहुमच्छिनत् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनकी भुजाओंसे छोड़े गये उस क्षुरप्रने आकाशसे गिरी हुई बहुत बड़ी उल्काके समान उन यज्ञशील भूरिश्रवाकी बाजूबंदविभूषित (दाहिनी) भुजाको खड्‌गसहित काट गिराया॥७२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भूरिश्रवोबाहुच्छेदे द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भूरिश्रवाकी भुजाका उच्छेदविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४२॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल ७३ श्लोक हैं।)


  1. पृथ्वीपर घुमाना। [^२]:प्रतिद्वन्द्वीकी ओर बढ़ना। [^३]:पीछे लौटना। [^४]:पछाड़ना। [^५]:पृथ्वीपर पटकना। [^६]:उछलकर खड़ा होना। [^७]:पीठ लगाना। ↩︎