१३९ भीमकर्णयुद्धे

भागसूचना

एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेन और कर्णका भयंकर युद्ध, पहले भीमकी और पीछे कर्णकी विजय, उसके बाद अर्जुनके बाणोंसे व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामाका पलायन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कर्णो महाराज भीमं विद्ध्वा त्रिभिः शरैः।
मुमोच शरवर्षाणि विचित्राणि बहूनि च ॥ १ ॥

मूलम्

ततः कर्णो महाराज भीमं विद्ध्वा त्रिभिः शरैः।
मुमोच शरवर्षाणि विचित्राणि बहूनि च ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! तदनन्तर कर्णने तीन बाणोंसे भीमसेनको घायल करके उनपर बहुत-से विचित्र बाण बरसाये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वध्यमानो महाबाहुः सूतपुत्रेण पाण्डवः।
न विव्यथे भीमसेनो भिद्यमान इवाचलः ॥ २ ॥

मूलम्

वध्यमानो महाबाहुः सूतपुत्रेण पाण्डवः।
न विव्यथे भीमसेनो भिद्यमान इवाचलः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्रके द्वारा बेधे जानेपर भी महाबाहु पाण्डुपुत्र भीमसेनको विद्ध होनेवाले पर्वतके समान तनिक भी व्यथा नहीं हुई॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कर्णं कर्णिना कर्णे पीतेन निशितेन च।
विव्याध सुभृशं संख्ये तैलधौतेन मारिष ॥ ३ ॥

मूलम्

स कर्णं कर्णिना कर्णे पीतेन निशितेन च।
विव्याध सुभृशं संख्ये तैलधौतेन मारिष ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! फिर उन्होंने भी युद्धस्थलमें तेलके धोये हुए पानीदार तीखे ‘कर्णी’ नामक बाणसे कर्णके कानमें गहरी चोट पहुँचायी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कुण्डलं महच्चारु कर्णस्यापातयद् भुवि।
तपनीयं महाराज दीप्तं ज्योतिरिवाम्बरात् ॥ ४ ॥

मूलम्

स कुण्डलं महच्चारु कर्णस्यापातयद् भुवि।
तपनीयं महाराज दीप्तं ज्योतिरिवाम्बरात् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! भीमने कर्णके सोनेके बने हुए विशाल एवं सुन्दर कुण्डलको आकाशसे चमकते हुए तारेके समान पृथ्वीपर काट गिराया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापरेण भल्लेन सूतपुत्रं स्तनान्तरे।
आजघान भृशं क्रुद्धो हसन्निव वृकोदरः ॥ ५ ॥

मूलम्

अथापरेण भल्लेन सूतपुत्रं स्तनान्तरे।
आजघान भृशं क्रुद्धो हसन्निव वृकोदरः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भीमसेनने अत्यन्त कुपित हो हँसते हुए-से दूसरे भल्लसे सूतपुत्रकी छातीमें बड़े जोरसे आघात किया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरस्य त्वरन् भीमो नाराचान् दश भारत।
रणे प्रैषीन्महाबाहुर्निर्मुक्ताशीविषोपमान् ॥ ६ ॥

मूलम्

पुनरस्य त्वरन् भीमो नाराचान् दश भारत।
रणे प्रैषीन्महाबाहुर्निर्मुक्ताशीविषोपमान् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! फिर महाबाहु भीमने बड़ी उतावलीके साथ केंचुलसे छूटे हुए विषधर सर्पोंके समान दस नाराच उस रणक्षेत्रमें कर्णपर चलाये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते ललाटं विनिर्भिद्य सूतपुत्रस्य भारत।
विविशुश्चोदितास्तेन वल्मीकमिव पन्नगाः ॥ ७ ॥

मूलम्

ते ललाटं विनिर्भिद्य सूतपुत्रस्य भारत।
विविशुश्चोदितास्तेन वल्मीकमिव पन्नगाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उनके चलाये हुए वे नाराच सूतपुत्रका ललाट छेद करके बाँबीमें सर्पोंके समान उसके भीतर घुस गये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ललाटस्थैस्ततो बाणैः सूतपुत्रो व्यरोचत।
नीलोत्पलमयीं मालां धारयन् वै यथा पुरा ॥ ८ ॥

मूलम्

ललाटस्थैस्ततो बाणैः सूतपुत्रो व्यरोचत।
नीलोत्पलमयीं मालां धारयन् वै यथा पुरा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ललाटमें स्थित हुए उन बाणोंद्वारा सूतपुत्रकी उसी प्रकार शोभा हुई, जैसे वह पहले मस्तकपर नील कमलकी माला धारण करके सुशोभित होता था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽतिविद्धो भृशं कर्णः पाण्डवेन तरस्विना।
रथकूबरमालम्ब्य न्यमीलयत लोचने ॥ ९ ॥

मूलम्

सोऽतिविद्धो भृशं कर्णः पाण्डवेन तरस्विना।
रथकूबरमालम्ब्य न्यमीलयत लोचने ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेगवान् पाण्डुपुत्र भीमके द्वारा अत्यन्त घायल कर दिये जानेपर कर्णने रथके कूबरका सहारा लेकर आँखें बंद कर लीं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मुहूर्तात् पुनः संज्ञां लेभे कर्णः परंतपः।
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः क्रोधमाहारयत् परम् ॥ १० ॥

मूलम्

स मुहूर्तात् पुनः संज्ञां लेभे कर्णः परंतपः।
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः क्रोधमाहारयत् परम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले कर्णको पुनः दो ही घड़ीके बाद चेत हो गया। उस समय उसका सारा शरीर रक्तसे भीग गया था। उस दशामें उसे बड़ा क्रोध हुआ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो रणे कर्णः पीडितो दृढधन्वना।
वेगं चक्रे महावेगो भीमसेनरथं प्रति ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो रणे कर्णः पीडितो दृढधन्वना।
वेगं चक्रे महावेगो भीमसेनरथं प्रति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले भीमसेनसे पीड़ित हुए महान् वेगशाली कर्णने रणभूमिमें कुपित हो भीमसेनके रथकी ओर बड़े वेगसे आक्रमण किया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै कर्णः शतं राजन्निषूणां गार्ध्रवाससाम्।
अमर्षी बलवान् क्रुद्धः प्रेषयामास भारत ॥ १२ ॥

मूलम्

तस्मै कर्णः शतं राजन्निषूणां गार्ध्रवाससाम्।
अमर्षी बलवान् क्रुद्धः प्रेषयामास भारत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतनन्दन! अमर्षशील एवं क्रोधमें भरे हुए बलवान् कर्णने भीमसेनपर गीधके पंखवाले सौ बाण चलाये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः।
समरे तमनादृत्य तस्य वीर्यमचिन्तयन् ॥ १३ ॥

मूलम्

ततः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः।
समरे तमनादृत्य तस्य वीर्यमचिन्तयन् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब समरभूमिमें कर्णके पराक्रमको कुछ न समझते हुए उसकी अवहेलना करके पाण्डुनन्दन भीमसेनने उसके ऊपर भयंकर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्ततो महाराज पाण्डवं नवभिः शरैः।
आजघानोरसि क्रुद्धः क्रुद्धरूपं परंतप ॥ १४ ॥

मूलम्

कर्णस्ततो महाराज पाण्डवं नवभिः शरैः।
आजघानोरसि क्रुद्धः क्रुद्धरूपं परंतप ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले महाराज! तब कर्णने कुपित हो क्रोधमें भरे हुए पाण्डुपुत्र भीमसेनकी छातीमें नौ बाण मारे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ नरशार्दूलौ शार्दूलाविव दंष्ट्रिणौ।
जीमूताविव चान्योन्यं प्रववर्षतुराहवे ॥ १५ ॥

मूलम्

तावुभौ नरशार्दूलौ शार्दूलाविव दंष्ट्रिणौ।
जीमूताविव चान्योन्यं प्रववर्षतुराहवे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों पुरुषसिंह दाढ़ोंवाले दो सिंहोंके समान परस्पर जूझ रहे थे और आकाशमें दो मेघोंके समान युद्धस्थलमें वे दोनों एक-दूसरेपर बाणोंकी वर्षा कर रहे थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तलशब्दरवैश्चैव त्रासयेतां परस्परम् ।
शरजालैश्च विविधैस्त्रासयामासतुर्मृधे ॥ १६ ॥
अन्योन्यं समरे क्रुद्धो कृतप्रतिकृतैषिणौ।

मूलम्

तलशब्दरवैश्चैव त्रासयेतां परस्परम् ।
शरजालैश्च विविधैस्त्रासयामासतुर्मृधे ॥ १६ ॥
अन्योन्यं समरे क्रुद्धो कृतप्रतिकृतैषिणौ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपनी हथेलियोंके शब्दसे एक-दूसरेको डराते हुए युद्धस्थलमें विविध बाणसमूहोंद्वारा परस्पर त्रास पहुँचा रहे थे। वे दोनों वीर समरमें कुपित हो एक-दूसरेके किये हुए प्रहारका प्रतीकार करनेकी अभिलाषा रखते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाबाहुः सूतपुत्रस्य भारत ॥ १७ ॥
क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा ननाद परवीरहा।

मूलम्

ततो भीमो महाबाहुः सूतपुत्रस्य भारत ॥ १७ ॥
क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा ननाद परवीरहा।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! तब शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले महाबाहु भीमसेनने क्षुरप्रके द्वारा सूतपुत्रके धनुषको काटकर बड़े जोरसे गर्जना की॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदपास्य धनुश्छिन्नं सूतपुत्रो महारथः ॥ १८ ॥
अन्यत् कार्मुकमादत्त भारघ्नं वेगवत्तरम्।

मूलम्

तदपास्य धनुश्छिन्नं सूतपुत्रो महारथः ॥ १८ ॥
अन्यत् कार्मुकमादत्त भारघ्नं वेगवत्तरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तब महारथी सूतपुत्र कर्णने उस कटे हुए धनुषको फेंककर भार निवारण करनेमें समर्थ और अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथमें लिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदप्यथ निमेषार्धाच्चिच्छेदास्य वृकोदरः ॥ १९ ॥
तृतीयं च चतुर्थं च पञ्चमं षष्ठमेव हि।
सप्तमं चाष्टमं चैव नवमं दशमं तथा ॥ २० ॥
एकादशं द्वादशं च त्रयोदशमथापि च।
चतुर्दशं पञ्चदशं षोडशं च वृकोदरः ॥ २१ ॥

मूलम्

तदप्यथ निमेषार्धाच्चिच्छेदास्य वृकोदरः ॥ १९ ॥
तृतीयं च चतुर्थं च पञ्चमं षष्ठमेव हि।
सप्तमं चाष्टमं चैव नवमं दशमं तथा ॥ २० ॥
एकादशं द्वादशं च त्रयोदशमथापि च।
चतुर्दशं पञ्चदशं षोडशं च वृकोदरः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु भीमसेनने आधे निमेषमें ही उसे भी काट दिया। इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहवें धनुषको भी भीमसेनने काट डाला॥१९—२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा सप्तदशं वेगादष्टादशमथापि वा।
बहूनि भीमश्चिच्छेद कर्णस्यैवं धनूंषि हि ॥ २२ ॥

मूलम्

तथा सप्तदशं वेगादष्टादशमथापि वा।
बहूनि भीमश्चिच्छेद कर्णस्यैवं धनूंषि हि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, भीमने सत्रहवें, अठारहवें तथा और भी बहुत-से कर्णके धनुषोंको वेगपूर्वक काट दिया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमेषार्धात् ततः कर्णो धनुर्हस्तो व्यतिष्ठत।
दृष्ट्वा स कुरुसौवीरसिन्धुवीरबलक्षयम् ॥ २३ ॥
सवर्मध्वजशस्त्रैश्च पतितैः संवृतां महीम्।
हस्त्यश्वरथदेहांश्च गतासून् प्रेक्ष्य सर्वशः ॥ २४ ॥
सूतपुत्रस्य संरम्भाद् दीप्तं वपुरजायत।

मूलम्

निमेषार्धात् ततः कर्णो धनुर्हस्तो व्यतिष्ठत।
दृष्ट्वा स कुरुसौवीरसिन्धुवीरबलक्षयम् ॥ २३ ॥
सवर्मध्वजशस्त्रैश्च पतितैः संवृतां महीम्।
हस्त्यश्वरथदेहांश्च गतासून् प्रेक्ष्य सर्वशः ॥ २४ ॥
सूतपुत्रस्य संरम्भाद् दीप्तं वपुरजायत।

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेपर भी कर्ण आधे ही निमेषमें दूसरा धनुष हाथमें लेकर खड़ा हो गया। कुरु, सौवीर तथा सिंधुदेशके वीरोंकी सेनाका विनाश, सब ओर गिरे हुए कवच, ध्वज तथा अस्त्र-शस्त्रोंसे आच्छादित हुई भूमि और प्राणशून्य हाथी, घोड़े एवं रथियोंके शरीरोंको सब ओर देखकर सूतपुत्र कर्णका शरीर क्रोधसे उद्दीप्त हो उठा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विस्फार्य महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ॥ २५ ॥
भीमं प्रैक्षत राधेयो घोरं घोरेण चक्षुषा।

मूलम्

स विस्फार्य महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् ॥ २५ ॥
भीमं प्रैक्षत राधेयो घोरं घोरेण चक्षुषा।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राधानन्दन कर्णने कुपित हो अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुषकी टंकार करते हुए भयानक भीमसेनको घोर दृष्टिसे देखा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धः शरानस्यन् सूतपुत्रो व्यरोचत ॥ २६ ॥
मध्यंदिनगतोऽर्चिष्मान् शरदीव दिवाकरः ।

मूलम्

ततः क्रुद्धः शरानस्यन् सूतपुत्रो व्यरोचत ॥ २६ ॥
मध्यंदिनगतोऽर्चिष्मान् शरदीव दिवाकरः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् सूतपुत्र कुपित हो बाणोंकी वर्षा करता हुआ शरत्कालके दोपहरके तेजस्वी सूर्यकी भाँति शोभा पाने लगा॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरीचिविकचस्येव राजन् भानुमतो वपुः ॥ २७ ॥
आसीदाधिरथेर्घोरं वपुः शरशताचितम् ।

मूलम्

मरीचिविकचस्येव राजन् भानुमतो वपुः ॥ २७ ॥
आसीदाधिरथेर्घोरं वपुः शरशताचितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अधिरथपुत्र कर्णका भयंकर शरीर सैकड़ों बाणोंसे व्याप्त था। वह किरणोंसे प्रकाशित होनेवाले सूर्यके समान जान पड़ता था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कराभ्यामाददानस्य संदधानस्य चाशुगान् ॥ २८ ॥
कर्षतो मुञ्चतो बाणान् नान्तरं ददृशे रणे।

मूलम्

कराभ्यामाददानस्य संदधानस्य चाशुगान् ॥ २८ ॥
कर्षतो मुञ्चतो बाणान् नान्तरं ददृशे रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

उस रणभूमिमें दोनों हाथोंसे बाणोंको लेते, धनुषपर रखते, खींचते और छोड़ते हुए कर्णके इन कार्योंमें कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निचक्रोपमं घोरं मण्डलीकृतमायुधम् ॥ २९ ॥
कर्णस्यासीन्महीपाल सव्यदक्षिणमस्यतः ।

मूलम्

अग्निचक्रोपमं घोरं मण्डलीकृतमायुधम् ॥ २९ ॥
कर्णस्यासीन्महीपाल सव्यदक्षिणमस्यतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! दायें-बायें बाण चलाते हुए कर्णका मण्डलाकार धनुष अग्निचक्रके समान भयंकर प्रतीत होता था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्णपुङ्खाः सुनिशिताः कर्णचापच्युताः शराः ॥ ३० ॥
प्राच्छादयन्महाराज दिशः सूर्यस्य च प्रभाः।

मूलम्

स्वर्णपुङ्खाः सुनिशिताः कर्णचापच्युताः शराः ॥ ३० ॥
प्राच्छादयन्महाराज दिशः सूर्यस्य च प्रभाः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कर्णके धनुषसे छूटे हुए सुवर्णमय पंखवाले अत्यन्त तीखे बाणोंने सम्पूर्ण दिशाओं तथा सूर्यकी प्रभाको भी ढक दिया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कनकपुङ्खानां शराणां नतपर्वणाम् ॥ ३१ ॥
धनुश्च्युतानां वियति ददृशे बहुधा व्रजः।

मूलम्

ततः कनकपुङ्खानां शराणां नतपर्वणाम् ॥ ३१ ॥
धनुश्च्युतानां वियति ददृशे बहुधा व्रजः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर धनुषसे छूटे हुए झुकी हुई गाँठ तथा सुवर्णमय पंखवाले बहुत-से बाणोंके समूह आकाशमें दृष्टिगोचर होने लगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाणासनादाधिरथेः प्रभवन्ति स्म सायकाः ॥ ३२ ॥
श्रेणीकृता व्यरोचन्त राजन् क्रौञ्चा इवाम्बरे।

मूलम्

बाणासनादाधिरथेः प्रभवन्ति स्म सायकाः ॥ ३२ ॥
श्रेणीकृता व्यरोचन्त राजन् क्रौञ्चा इवाम्बरे।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अधिरथपुत्रके धनुषसे जो बाण छूटते थे, वे श्रेणीबद्ध होकर आकाशमें क्रौंच पक्षियोंके समान सुशोभित होते थे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गार्ध्रपत्रान् शिलाधौतान् कार्तस्वरविभूषितान् ॥ ३३ ॥
महावेगान् प्रदीप्ताग्रान् मुमोचाधिरथिः शरान्।

मूलम्

गार्ध्रपत्रान् शिलाधौतान् कार्तस्वरविभूषितान् ॥ ३३ ॥
महावेगान् प्रदीप्ताग्रान् मुमोचाधिरथिः शरान्।

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्रने गीधके पाँखवाले, शिलापर तेज किये, सुवर्णभूषित, महान् वेगशाली और प्रज्वलित अग्र-भागवाले बहुत-से बाण छोड़े॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु चापबलोद्धूताः शातकुम्भविभूषिताः ॥ ३४ ॥
अजस्रमपतन् बाणा भीमसेनरथं प्रति।

मूलम्

ते तु चापबलोद्धूताः शातकुम्भविभूषिताः ॥ ३४ ॥
अजस्रमपतन् बाणा भीमसेनरथं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

धनुषके बलसे उठे हुए वे सुवर्णभूषित बाण भीमसेनके रथपर लगातार गिर रहे थे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते व्योम्नि रुक्मविकृता व्यकाशन्त सहस्रशः ॥ ३५ ॥
शलभानामिव व्राताः शराः कर्णसमीरिताः।

मूलम्

ते व्योम्नि रुक्मविकृता व्यकाशन्त सहस्रशः ॥ ३५ ॥
शलभानामिव व्राताः शराः कर्णसमीरिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके चलाये हुए सहस्रों सुवर्णमय बाण आकाशमें टिड्डीदलोंके समान प्रकाशित हो रहे थे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चापादाधिरथेर्बाणाः प्रपतन्तश्चकाशिरे ॥ ३६ ॥
एको दीर्घ इवात्यर्थमाकाशे संस्थितः शरः।

मूलम्

चापादाधिरथेर्बाणाः प्रपतन्तश्चकाशिरे ॥ ३६ ॥
एको दीर्घ इवात्यर्थमाकाशे संस्थितः शरः।

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्रके धनुषसे गिरते हुए बाण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो एक ही अत्यन्त विशाल-सा बाण आकाशमें खड़ा हो॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्वतं वारिधाराभिश्छादयन्निव तोयदः ॥ ३७ ॥
कर्णः प्राच्छादयत्‌ क्रुद्धो भीमं सायकवृष्टिभिः।

मूलम्

पर्वतं वारिधाराभिश्छादयन्निव तोयदः ॥ ३७ ॥
कर्णः प्राच्छादयत्‌ क्रुद्धो भीमं सायकवृष्टिभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए कर्णने अपने बाणोंकी वर्षासे भीमसेनको उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे बादल जलकी धाराओंसे पर्वतको ढक देता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र भारत भीमस्य बलं वीर्यं पराक्रमम् ॥ ३८ ॥
व्यवसायं च पुत्रास्ते ददृशुः सहसैनिकाः।

मूलम्

तत्र भारत भीमस्य बलं वीर्यं पराक्रमम् ॥ ३८ ॥
व्यवसायं च पुत्रास्ते ददृशुः सहसैनिकाः।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वहाँ सैनिकोंसहित आपके पुत्रोंने भीमसेनके बल, वीर्य, पराक्रम और उद्योगको देखा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां समुद्रमिवोद्धूतां शरवृष्टिं समुत्थिताम् ॥ ३९ ॥
अचिन्तयित्वा भीमस्तु क्रुद्धः कर्णमुपाद्रवत्।

मूलम्

तां समुद्रमिवोद्धूतां शरवृष्टिं समुत्थिताम् ॥ ३९ ॥
अचिन्तयित्वा भीमस्तु क्रुद्धः कर्णमुपाद्रवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए भीमसेनने समुद्रकी भाँति उठी हुई उस बाण-वर्षाकी तनिक भी परवा न करके कर्णपर धावा बोल दिया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्मपृष्ठं महच्चापं भीमस्यासीद् विशाम्पते ॥ ४० ॥
आकर्षान्मण्डलीभूतं शक्रचापमिवापरम् ।
तस्माच्छराः प्रादुरासन् पूरयन्त इवाम्बरम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

रुक्मपृष्ठं महच्चापं भीमस्यासीद् विशाम्पते ॥ ४० ॥
आकर्षान्मण्डलीभूतं शक्रचापमिवापरम् ।
तस्माच्छराः प्रादुरासन् पूरयन्त इवाम्बरम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! सुवर्णमय पृष्ठवाला भीमसेनका विशाल धनुष प्रत्यंचा खींचनेसे मण्डलाकार हो दूसरे इन्द्र-धनुषके समान प्रतीत हो रहा था। उससे जो बाण प्रकट होते थे, वे मानो आकाशको भर रहे थे॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णपुङ्खैर्भीमेन सायकैर्नतपर्वभिः ।
गगने रचिता माला काञ्चनीव व्यरोचत ॥ ४२ ॥

मूलम्

सुवर्णपुङ्खैर्भीमेन सायकैर्नतपर्वभिः ।
गगने रचिता माला काञ्चनीव व्यरोचत ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे आकाशमें सोनेकी माला-सी रच डाली थी, जो बड़ी शोभा पा रही थी॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्योम्नि विषक्तानि शरजालानि भागशः।
आहतानि व्यशीर्यन्त भीमसेनस्य पत्रिभिः ॥ ४३ ॥

मूलम्

ततो व्योम्नि विषक्तानि शरजालानि भागशः।
आहतानि व्यशीर्यन्त भीमसेनस्य पत्रिभिः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भीमसेनके बाणोंसे आहत होकर आकाशमें फैले हुए बाणोंके जाल टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्य शरजालौघैर्भीमसेनस्य चोभयोः ।
अग्निस्फुलिङ्गसंस्पर्शैरञ्जोगतिभिराहवे ॥ ४४ ॥
तैस्तैः कनकपुङ्खानां द्यौरासीत् संवृता व्रजैः।

मूलम्

कर्णस्य शरजालौघैर्भीमसेनस्य चोभयोः ।
अग्निस्फुलिङ्गसंस्पर्शैरञ्जोगतिभिराहवे ॥ ४४ ॥
तैस्तैः कनकपुङ्खानां द्यौरासीत् संवृता व्रजैः।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण और भीमसेन दोनोंके बाणसमूह स्पर्श करनेपर आगकी चिनगारियोंके समान प्रतीत होते थे। अनायास ही उनकी युद्धमें सर्वत्र गति थी। सुवर्णमय पंखवाले उन बाणोंके समूहसे सारा आकाश छा गया था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्म सूर्यस्तदा भाति न स्म वाति समीरणः॥४५॥
शरजालावृते व्योम्नि न प्राज्ञायत किंचन।

मूलम्

न स्म सूर्यस्तदा भाति न स्म वाति समीरणः॥४५॥
शरजालावृते व्योम्नि न प्राज्ञायत किंचन।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय न तो सूर्यका पता चलता था और न वायु ही चल पाती थी। बाणोंके समूहसे आच्छादित हुए आकाशमें कुछ भी जान नहीं पड़ता था॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भीमं छादयन् बाणैः सूतपुत्रः पृथग्विधैः ॥ ४६ ॥
उपारोहदनादृत्य तस्य वीर्यं महात्मनः।

मूलम्

स भीमं छादयन् बाणैः सूतपुत्रः पृथग्विधैः ॥ ४६ ॥
उपारोहदनादृत्य तस्य वीर्यं महात्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्र कर्ण नाना प्रकारके बाणोंद्वारा भीमसेनको आच्छादित करता हुआ उन महामनस्वी वीरके पराक्रमका तिरस्कार करके उनपर चढ़ आया॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोर्विसृजतोस्तत्र शरजालानि मारिष ॥ ४७ ॥
वायुभूतान्यदृश्यन्त संसक्तानीतरेतरम् ।

मूलम्

तयोर्विसृजतोस्तत्र शरजालानि मारिष ॥ ४७ ॥
वायुभूतान्यदृश्यन्त संसक्तानीतरेतरम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! उन दोनोंके छोड़े हुए बाणसमूह वहाँ परस्पर सटकर अत्यन्त वेगके कारण वायुस्वरूप दिखायी देते थे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यशरसंस्पर्शात् तयोर्मनुजसिंहयोः ॥ ४८ ॥
आकाशे भरतश्रेष्ठ पावकः समजायत।

मूलम्

अन्योन्यशरसंस्पर्शात् तयोर्मनुजसिंहयोः ॥ ४८ ॥
आकाशे भरतश्रेष्ठ पावकः समजायत।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उन दोनों पुरुषसिंहोंके बाणोंके परस्पर टकरानेसे आकाशमें आग प्रकट हो जाती थी॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा कर्णः शितान् बाणान् कर्मारपरिमार्जितान् ॥ ४९ ॥
सुवर्णविकृतान्‌ क्रुद्धः प्राहिणोद् वधकाङ्क्षया।

मूलम्

तथा कर्णः शितान् बाणान् कर्मारपरिमार्जितान् ॥ ४९ ॥
सुवर्णविकृतान्‌ क्रुद्धः प्राहिणोद् वधकाङ्क्षया।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कुपित होकर भीमसेनके वधकी इच्छासे सुनारके माँजे हुए सुवर्णभूषित तीखे बाणोंका प्रहार किया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानन्तरिक्षे विशिखैस्त्रिधैकैकमशातयत् ॥ ५० ॥
विशेषयन् सूतपुत्रं भीमस्तिष्ठेति चाब्रवीत्।

मूलम्

तानन्तरिक्षे विशिखैस्त्रिधैकैकमशातयत् ॥ ५० ॥
विशेषयन् सूतपुत्रं भीमस्तिष्ठेति चाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु भीमसेनने अपनेको सूतपुत्रसे विशिष्ट सिद्ध करते हुए बाणोंद्वारा आकाशमें उन बाणोंमेंसे प्रत्येकके तीन-तीन टुकड़े कर डाले और कर्णसे कहा—‘अरे! खड़ा रह’॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः ॥ ५१ ॥
अमर्षी बलवान् क्रुद्धो दिधक्षन्निव पावकः।

मूलम्

पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः ॥ ५१ ॥
अमर्षी बलवान् क्रुद्धो दिधक्षन्निव पावकः।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर क्रोध एवं अमर्षमें भरे हुए बलवान् भीमसेनने जलानेकी इच्छावाले अग्निदेवके समान भयंकर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चटचटाशब्दो गोधाघातादभूत् तयोः ॥ ५२ ॥
तलशब्दश्च सुमहान् सिंहनादश्च भैरवः।
रथनेमिनिनादश्च ज्याशब्दश्चैव दारुणः ॥ ५३ ॥

मूलम्

ततश्चटचटाशब्दो गोधाघातादभूत् तयोः ॥ ५२ ॥
तलशब्दश्च सुमहान् सिंहनादश्च भैरवः।
रथनेमिनिनादश्च ज्याशब्दश्चैव दारुणः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उन दोनोंके गोहचर्मके बने हुए दस्तानोंके आघातसे चटाचटकी आवाज होने लगी। साथ ही हथेलीका शब्द और महाभयंकर सिंहनाद भी होने लगा। रथके पहियोंकी घरघराहट और प्रत्यंचाकी भयंकर टंकार भी कानोंमें पड़ने लगी॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योधा व्युपारमन् युद्धाद् दिदृक्षन्तः पराक्रमम्।
कर्णपाण्डवयो राजन् परस्परवधैषिणोः ॥ ५४ ॥

मूलम्

योधा व्युपारमन् युद्धाद् दिदृक्षन्तः पराक्रमम्।
कर्णपाण्डवयो राजन् परस्परवधैषिणोः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! परस्पर वधकी इच्छा रखनेवाले कर्ण और भीमसेनके पराक्रमको देखनेकी अभिलाषासे समस्त योद्धा युद्धसे उपरत हो गये॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षिसिद्धगन्धर्वाः साधु साध्वित्यपूजयन् ।
मुमुचुः पुष्पवर्षं च विद्याधरगणास्तथा ॥ ५५ ॥

मूलम्

देवर्षिसिद्धगन्धर्वाः साधु साध्वित्यपूजयन् ।
मुमुचुः पुष्पवर्षं च विद्याधरगणास्तथा ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व और विद्याधरगण ‘साधु-साधु’ कहकर उन दोनोंकी प्रशंसा और फूलोंकी वर्षा करने लगे॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाबाहुः संरम्भी दृढविक्रमः।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य शरैर्विव्याध सूतजम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

ततो भीमो महाबाहुः संरम्भी दृढविक्रमः।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य शरैर्विव्याध सूतजम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए सुदृढ़ पराक्रमी महाबाहु भीमसेनने अपने अस्त्रोंद्वारा कर्णके अस्त्रोंका निवारण करके उसे बाणोंसे बींध डाला॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णोऽपि भीमसेनस्य निवार्येषून् महाबलः।
प्राहिणोन्नव नाराचानाशीविषसमान् रणे ॥ ५७ ॥

मूलम्

कर्णोऽपि भीमसेनस्य निवार्येषून् महाबलः।
प्राहिणोन्नव नाराचानाशीविषसमान् रणे ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली कर्णने भी रणक्षेत्रमें भीमसेनके बाणोंका निवारण करके उनके ऊपर विषैले सर्पोंके समान नौ नाराच चलाये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावद्भिरथ तान् भीमो व्योम्नि चिच्छेद पत्रिभिः।
नाराचान् सूतपुत्रस्य तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ५८ ॥

मूलम्

तावद्भिरथ तान् भीमो व्योम्नि चिच्छेद पत्रिभिः।
नाराचान् सूतपुत्रस्य तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने उतने ही बाणोंसे आकाशमें सूतपुत्रके सारे नाराच काट डाले और उससे कहा ‘खड़ा रह, खड़ा रह’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो महाबाहुः शरं क्रुद्धान्तकोपमम्।
मुमोचाधिरथेर्वीरो यमदण्डमिवापरम् ॥ ५९ ॥

मूलम्

ततो भीमो महाबाहुः शरं क्रुद्धान्तकोपमम्।
मुमोचाधिरथेर्वीरो यमदण्डमिवापरम् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् महाबाहु वीर भीमसेनने कर्णके ऊपर ऐसा बाण चलाया, जो क्रुद्ध यमराजके समान तथा दूसरे यमदण्डके सदृश भयंकर था॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं चिच्छेद राधेयः प्रहसन्निव।
त्रिभिः शरैः शरं राजन् पाण्डवस्य प्रतापवान् ॥ ६० ॥

मूलम्

तमापतन्तं चिच्छेद राधेयः प्रहसन्निव।
त्रिभिः शरैः शरं राजन् पाण्डवस्य प्रतापवान् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अपने ऊपर आते हुए भीमसेनके उस बाणको प्रतापी राधानन्दन कर्णने तीन बाणोंद्वारा हँसते हुए-से काट डाला॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः ।
तस्य तान्याददे कर्णः सर्वाण्यस्त्राण्यभीतवत् ॥ ६१ ॥

मूलम्

पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः ।
तस्य तान्याददे कर्णः सर्वाण्यस्त्राण्यभीतवत् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डुनन्दन भीमने पुनः भयानक बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी; परंतु कर्णने उन सब अस्त्रोंको निर्भयतापूर्वक आत्मसात् कर लिया॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यमानस्य भीमस्य सूतपुत्रोऽस्त्रमायया ।
तस्येषुधी धनुर्ज्यां च बाणैः संनतपर्वभिः ॥ ६२ ॥
रश्मीन् योक्त्राणि चाश्वानां क्रुद्धः कर्णोऽच्छिनन्मृधे।
तस्याश्वांश्च पुनर्हत्वा सूतं विव्याध पञ्चभिः ॥ ६३ ॥

मूलम्

युध्यमानस्य भीमस्य सूतपुत्रोऽस्त्रमायया ।
तस्येषुधी धनुर्ज्यां च बाणैः संनतपर्वभिः ॥ ६२ ॥
रश्मीन् योक्त्राणि चाश्वानां क्रुद्धः कर्णोऽच्छिनन्मृधे।
तस्याश्वांश्च पुनर्हत्वा सूतं विव्याध पञ्चभिः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरे हुए सूतपुत्र कर्णने अपने अस्त्रोंकी मायासे तथा झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा युद्धपरायण भीमसेनके दो तरकसों, धनुषकी प्रत्यंचा, बागडोर तथा घोड़े जोतनेकी रस्सियोंको भी युद्धस्थलमें काट डाला। फिर घोड़ोंको भी मारकर सारथिको पाँच बाणोंसे घायल कर दिया॥६२-६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपसृत्य द्रुतं सूतो युधामन्यो रथं ययौ।
विहसन्निव भीमस्य क्रुद्धः कालानलद्युतिः ॥ ६४ ॥
ध्वजं चिच्छेद राधेयः पताकां च व्यपातयत्।

मूलम्

सोऽपसृत्य द्रुतं सूतो युधामन्यो रथं ययौ।
विहसन्निव भीमस्य क्रुद्धः कालानलद्युतिः ॥ ६४ ॥
ध्वजं चिच्छेद राधेयः पताकां च व्यपातयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

सारथि वहाँसे भागकर तुरंत ही युधामन्युके रथपर चढ़ गया। इधर क्रोधमें भरे हुए कालाग्निके समान तेजस्वी राधापुत्र कर्णने भीमसेनका उपहास-सा करते हुए उनकी ध्वजा और पताकाको भी काट गिराया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विधन्वा महाबाहुरथ शक्तिं परामृशत् ॥ ६५ ॥
तां व्यवासृजदाविध्य क्रुद्धः कर्णरथं प्रति।

मूलम्

स विधन्वा महाबाहुरथ शक्तिं परामृशत् ॥ ६५ ॥
तां व्यवासृजदाविध्य क्रुद्धः कर्णरथं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

धनुष कट जानेपर कुपित हुए महाबाहु भीमसेनने शक्ति हाथमें ली और उसे घुमाकर कर्णके रथपर दे मारा॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामाधिरथिरायस्तः शक्तिं काञ्चनभूषणाम् ॥ ६६ ॥
आपतन्तीं महोल्काभां चिच्छेद दशभिः शरैः।

मूलम्

तामाधिरथिरायस्तः शक्तिं काञ्चनभूषणाम् ॥ ६६ ॥
आपतन्तीं महोल्काभां चिच्छेद दशभिः शरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण कुछ थक-सा गया था, तो भी उसने बहुत बड़ी उल्काके समान अपनी ओर आती हुई उस सुवर्णभूषित शक्तिको दस बाणोंसे काट दिया॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सापतद् दशधा छिन्ना कर्णस्य निशितैः शरैः ॥ ६७ ॥
अस्यतः सूतपुत्रस्य मित्रार्थे चित्रयोधिनः।

मूलम्

सापतद् दशधा छिन्ना कर्णस्य निशितैः शरैः ॥ ६७ ॥
अस्यतः सूतपुत्रस्य मित्रार्थे चित्रयोधिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

मित्रके हितके लिये विचित्र युद्ध करनेवाले तथा बाणप्रहारमें तत्पर सूतपत्र कर्णके तीखे बाणोंसे दस टुकड़ोंमें कटकर वह शक्ति धरतीपर गिर पड़ी॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चर्मादत्त कौन्तेयो जातरूपपरिष्कृतम् ॥ ६८ ॥
खड्गं चान्यतरप्रेप्सुर्मृत्योरग्रे जयस्य वा।

मूलम्

स चर्मादत्त कौन्तेयो जातरूपपरिष्कृतम् ॥ ६८ ॥
खड्गं चान्यतरप्रेप्सुर्मृत्योरग्रे जयस्य वा।

अनुवाद (हिन्दी)

तब कुन्तीकुमार भीमसेनने युद्धमें सम्मुख मृत्यु अथवा विजय इन दोमेंसे एकका निश्चितरूपसे वरण करनेकी इच्छा रखकर ढाल और सुवर्णभूषित तलवार हाथमें ले ली॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य तरसा क्रुद्धो व्यधमच्चर्म सुप्रभम् ॥ ६९ ॥
शरैर्बहुभिरत्युग्रैः प्रहसन्निव भारत ।

मूलम्

तदस्य तरसा क्रुद्धो व्यधमच्चर्म सुप्रभम् ॥ ६९ ॥
शरैर्बहुभिरत्युग्रैः प्रहसन्निव भारत ।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय क्रोधमें भरे हुए कर्णने हँसते हुए-से वेगपूर्वक बहुत-से अत्यन्त भयंकर बाण मारकर भीमसेनकी चमकीली ढाल नष्ट कर दी॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विचर्मा महाराज विरथः क्रोधमूर्च्छितः ॥ ७० ॥
असिं प्रासृजदाविध्य त्वरन् कर्णरथं प्रति।

मूलम्

स विचर्मा महाराज विरथः क्रोधमूर्च्छितः ॥ ७० ॥
असिं प्रासृजदाविध्य त्वरन् कर्णरथं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ढाल और रथसे रहित हुए भीमसेनने क्रोधसे आतुर हो बड़ी उतावलीके साथ कर्णके रथपर तलवार घुमाकर चला दी॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स धनुः सूतपुत्रस्य सज्यं छित्त्वा महानसिः ॥ ७१ ॥
पपात भुवि राजेन्द्र क्रुद्धः सर्प इवाम्बरात्।

मूलम्

स धनुः सूतपुत्रस्य सज्यं छित्त्वा महानसिः ॥ ७१ ॥
पपात भुवि राजेन्द्र क्रुद्धः सर्प इवाम्बरात्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! वह बड़ी तलवार आकाशसे कुपित सर्पकी भाँति आकर सूतपुत्र कर्णके प्रत्यंचासहित धनुषको काटती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्याधिरथिरन्यदादाय कार्मुकम् ॥ ७२ ॥
शत्रुघ्नं समरे क्रुद्धो दृढज्यं वेगवत्तरम्।
व्यायच्छत्‌ स शरान् कर्णः कुन्तीपुत्रजिघांसया ॥ ७३ ॥
सहस्रशो महाराज रुक्मपुङ्खान् सुतेजनान्।

मूलम्

ततः प्रहस्याधिरथिरन्यदादाय कार्मुकम् ॥ ७२ ॥
शत्रुघ्नं समरे क्रुद्धो दृढज्यं वेगवत्तरम्।
व्यायच्छत्‌ स शरान् कर्णः कुन्तीपुत्रजिघांसया ॥ ७३ ॥
सहस्रशो महाराज रुक्मपुङ्खान् सुतेजनान्।

अनुवाद (हिन्दी)

यह देखकर अधिरथपुत्र कर्ण ठठाकर हँस पड़ा और समरांगणमें कुपित हो उसने शत्रुविनाशकारी सुदृढ़ प्रत्यंचावाला अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथमें लेकर उसपर कुन्तीपुत्रके वधकी इच्छासे सुवर्णमय पंखवाले सहस्रों अत्यन्त तीखे बाणोंका संधान किया॥७२-७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वध्यमानो बलवान् कर्णचापच्युतैः शरैः ॥ ७४ ॥
वैहायसं प्राक्रमद् वै कर्णस्य व्यथयन्मनः।

मूलम्

स वध्यमानो बलवान् कर्णचापच्युतैः शरैः ॥ ७४ ॥
वैहायसं प्राक्रमद् वै कर्णस्य व्यथयन्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा घायल किये जाते हुए बलवान् भीमसेन कर्णके मनमें व्यथा उत्पन्न करते हुए उसे पकड़नेके लिये आकाशमें उछले॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य चरितं दृष्ट्वा संग्रामे विजयैषिणः ॥ ७५ ॥
लयमास्थाय राधेयो भीमसेनमवञ्चयत् ।

मूलम्

स तस्य चरितं दृष्ट्वा संग्रामे विजयैषिणः ॥ ७५ ॥
लयमास्थाय राधेयो भीमसेनमवञ्चयत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

संग्राममें विजय चाहनेवाले भीमसेनका वह चरित्र देख राधापुत्र कर्णने अपना अंग सिकोड़कर भीमसेनके आक्रमणको विफल कर दिया॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं च दृष्ट्वा रथोपस्थे निलीनं व्यथितेन्द्रियम् ॥ ७६ ॥
ध्वजमस्य समासाद्य तस्थौ भीमो महीतले।

मूलम्

तं च दृष्ट्वा रथोपस्थे निलीनं व्यथितेन्द्रियम् ॥ ७६ ॥
ध्वजमस्य समासाद्य तस्थौ भीमो महीतले।

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णकी सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो गयी थीं। वह रथके पिछले भागमें दुबक गया था। उसे उस अवस्थामें देखकर भीमसेन उसके ध्वजका सहारा लेकर पृथ्वीपर खड़े हो गये॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य कुरवः सर्वे चारणाश्चाभ्यपूजयन् ॥ ७७ ॥
यदियेष रथात् कर्णं हर्तुं तार्क्ष्य इवोरगम्।

मूलम्

तदस्य कुरवः सर्वे चारणाश्चाभ्यपूजयन् ॥ ७७ ॥
यदियेष रथात् कर्णं हर्तुं तार्क्ष्य इवोरगम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गरुड सर्पको दबोच लेते हैं, उसी प्रकार भीमसेनने कर्णको उसके रथसे पकड़ ले जानेकी जो इच्छा की थी, उनके इस कर्मकी समस्त कौरवों तथा चारणोंने भी प्रशंसा की॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च्छिन्नधन्वा विरथः स्वधर्ममनुपालयन् ॥ ७८ ॥
स्वरथं पृष्ठतः कृत्वा युद्धायैव व्यवस्थितः।

मूलम्

स च्छिन्नधन्वा विरथः स्वधर्ममनुपालयन् ॥ ७८ ॥
स्वरथं पृष्ठतः कृत्वा युद्धायैव व्यवस्थितः।

अनुवाद (हिन्दी)

धनुष कट जाने तथा रथहीन होनेपर भी स्वधर्मका पालन करते हुए भीमसेन अपने रथको पीछे करके युद्धके लिये ही खड़े रहे॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् विहत्यास्य राधेयस्तत एनं समभ्ययात् ॥ ७९ ॥
संरम्भात् पाण्डवं संख्ये युद्धाय समुपस्थितम्।

मूलम्

तद् विहत्यास्य राधेयस्तत एनं समभ्ययात् ॥ ७९ ॥
संरम्भात् पाण्डवं संख्ये युद्धाय समुपस्थितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके रथ आदि साधनोंको नष्ट करके राधानन्दन कर्णने फिर क्रोधपूर्वक रणक्षेत्रमें युद्धके लिये उपस्थित हुए इन पाण्डुपुत्र भीमसेनपर आक्रमण किया॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ समेतौ महाराज स्पर्धमानौ महाबलौ ॥ ८० ॥
जीमूताविव घर्मान्ते गर्जमानौ नरर्षभौ।

मूलम्

तौ समेतौ महाराज स्पर्धमानौ महाबलौ ॥ ८० ॥
जीमूताविव घर्मान्ते गर्जमानौ नरर्षभौ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! एक-दूसरेसे स्पर्धा रखनेवाले वे दोनों नरश्रेष्ठ महाबली वीर परस्पर भिड़कर वर्षा-ऋतुमें गर्जना करनेवाले दो मेघोंके समान गरज रहे थे॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोरासीत् सम्प्रहारः क्रुद्धयोर्नरसिंहयोः ॥ ८१ ॥
अमृष्यमाणयोः संख्ये देवदानवयोरिव ।

मूलम्

तयोरासीत् सम्प्रहारः क्रुद्धयोर्नरसिंहयोः ॥ ८१ ॥
अमृष्यमाणयोः संख्ये देवदानवयोरिव ।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धस्थलमें अमर्ष और क्रोधसे भरे हुए उन दोनों पुरुषसिंहोंका संग्राम देव-दानव-युद्धके समान भयंकर हो रहा था॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीणशस्त्रस्तु कौन्तेयः कर्णेन समभिद्रुतः ॥ ८२ ॥
दृष्ट्वार्जुनहतान् नागान् पतितान् पर्वतोपमान्।
रथमार्गविघातार्थं व्यायुधः प्रविवेश ह ॥ ८३ ॥

मूलम्

क्षीणशस्त्रस्तु कौन्तेयः कर्णेन समभिद्रुतः ॥ ८२ ॥
दृष्ट्वार्जुनहतान् नागान् पतितान् पर्वतोपमान्।
रथमार्गविघातार्थं व्यायुधः प्रविवेश ह ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कुन्तीकुमार भीमसेनके सारे अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गये, उनके पास एक भी आयुध शेष नहीं रह गया और कर्णके द्वारा उनपर पूर्ववत् आक्रमण होता रहा, तब वे रथके मार्गको बंद कर देनेके लिये अर्जुनके मारे हुए पर्वताकार हाथियोंको वहाँ गिरा देख उनके भीतर प्रवेश कर गये॥८२-८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तिनां व्रजमासाद्य रथदुर्गं प्रविश्य च।
पाण्डवो जीविताकाङ्क्षी राधेयं नाभ्यहारयत् ॥ ८४ ॥

मूलम्

हस्तिनां व्रजमासाद्य रथदुर्गं प्रविश्य च।
पाण्डवो जीविताकाङ्क्षी राधेयं नाभ्यहारयत् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथियोंके समूहमें पहुँचकर मानो वे रथके आक्रमणसे बचनेके लिये दुर्गके भीतर प्रविष्ट हो गये हों, ऐसा अनुभव करते हुए पाण्डुपुत्र भीम केवल अपने प्राण बचानेकी इच्छा करने लगे, उन्होंने राधापुत्र कर्णपर प्रहार नहीं किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यवस्थानमथाकाङ्क्षन् धनंजयशरैर्हतम् ।
उद्यम्य कुञ्जरं पार्थस्तस्थौ परपुरंजयः ॥ ८५ ॥
महौषधिसमायुक्तं हनूमानिव पर्वतम् ।

मूलम्

व्यवस्थानमथाकाङ्क्षन् धनंजयशरैर्हतम् ।
उद्यम्य कुञ्जरं पार्थस्तस्थौ परपुरंजयः ॥ ८५ ॥
महौषधिसमायुक्तं हनूमानिव पर्वतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंकी नगरीपर विजय पानेवाले कुन्तीकुमार भीमसेन यह चाहते थे कि कर्णके बाणोंसे बचनेके लिये कोई व्यवधान (आड़) मिल जाय; इसीलिये वे अर्जुनके बाणोंसे मारे गये एक हाथीकी लाशको उठाकर चुपचाप खड़े हो गये। उस समय वे संजीवन नामक महान् औषधिसे युक्त पर्वत उठाये हुए हनुमान्‌जीके समान जान पड़ते थे॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमस्य विशिखैः कर्णो व्यधमत् कुञ्जरं पुनः ॥ ८६ ॥
हस्त्यङ्गान्यथ कर्णाय प्राहिणोत् पाण्डुनन्दनः।
चक्राण्यश्वांस्तथा चान्यद् यद्‌ यत्‌ पश्यति भूतले ॥ ८७ ॥
तत् तदादाय चिक्षेप क्रुद्धः कर्णाय पाण्डवः।
तदस्य सर्वं चिच्छेद क्षिप्तं क्षिप्तं शितैः शरैः ॥ ८८ ॥

मूलम्

तमस्य विशिखैः कर्णो व्यधमत् कुञ्जरं पुनः ॥ ८६ ॥
हस्त्यङ्गान्यथ कर्णाय प्राहिणोत् पाण्डुनन्दनः।
चक्राण्यश्वांस्तथा चान्यद् यद्‌ यत्‌ पश्यति भूतले ॥ ८७ ॥
तत् तदादाय चिक्षेप क्रुद्धः कर्णाय पाण्डवः।
तदस्य सर्वं चिच्छेद क्षिप्तं क्षिप्तं शितैः शरैः ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने अपने बाणोंद्वारा उस हाथीके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब पाण्डुनन्दन भीमने हाथीके कटे हुए अंगोंको ही कर्णपर फेंकना शुरू किया। रथोंके पहिये, घोड़ोंकी लाशें तथा और भी जो-जो वस्तुएँ वे धरतीपर पड़ी देखते, उन्हें उठाकर क्रोधपूर्वक कर्णपर फेंकते थे; परंतु वे जो-जो वस्तु फेंकते, उन सबको कर्ण अपने तीखे बाणोंसे काट डालता था॥८६—८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमोऽपि मुष्टिमुद्यम्य वज्रगर्भां सुदारुणाम्।
हन्तुमैच्छत् सूतपुत्रं संस्मरन्नर्जुनं क्षणात् ॥ ८९ ॥
शक्तोऽपि नावधीत् कर्णं समर्थः पाडुनन्दनः।
रक्षमाणः प्रतिज्ञां तां या कृता सव्यसाचिना ॥ ९० ॥

मूलम्

भीमोऽपि मुष्टिमुद्यम्य वज्रगर्भां सुदारुणाम्।
हन्तुमैच्छत् सूतपुत्रं संस्मरन्नर्जुनं क्षणात् ॥ ८९ ॥
शक्तोऽपि नावधीत् कर्णं समर्थः पाडुनन्दनः।
रक्षमाणः प्रतिज्ञां तां या कृता सव्यसाचिना ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भीमसेनने अपने अंगूठेको मुट्ठीके भीतर करके वज्रतुल्य अत्यन्त भयंकर घूँसा तानकर सूतपुत्र कर्णको मार डालनेकी इच्छा की। तबतक क्षणभरमें उन्हें अर्जुनकी याद आ गयी। अतः सव्यसाची अर्जुनने पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी रक्षा करते हुए पाण्डुनन्दन भीमने समर्थ एवं शक्तिशाली होनेपर भी उस समय कर्णका वध नहीं किया॥८९-९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवं व्याकुलं भीमं भूयो भूयः शितैः शरैः।
मूर्च्छयाभिपरीताङ्गमकरोत् सूतनन्दनः ॥ ९१ ॥

मूलम्

तमेवं व्याकुलं भीमं भूयो भूयः शितैः शरैः।
मूर्च्छयाभिपरीताङ्गमकरोत् सूतनन्दनः ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वहाँ बाणोंके आघातसे व्याकुल हुए भीमसेनको सूतपुत्र कर्णने बारंबार अपने पैने बाणोंकी मारसे मूर्च्छित-सा कर दिया॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यायुधं नावधीच्चैनं कर्णः कुन्त्या वचः स्मरन्।
धनुषोऽग्रेण तं कर्णः सोऽभिद्रुत्य परामृशत् ॥ ९२ ॥

मूलम्

व्यायुधं नावधीच्चैनं कर्णः कुन्त्या वचः स्मरन्।
धनुषोऽग्रेण तं कर्णः सोऽभिद्रुत्य परामृशत् ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु कुन्तीके वचनका स्मरण करके उसने शस्त्रहीन भीमसेनका वध नहीं किया। कर्णने उनके पास जाकर अपने धनुषकी नोकसे उनका स्पर्श किया॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुषा स्पृष्टमात्रेण क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
आच्छिद्य स धनुस्तस्य कर्णं मूर्धन्यताडयत् ॥ ९३ ॥

मूलम्

धनुषा स्पृष्टमात्रेण क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
आच्छिद्य स धनुस्तस्य कर्णं मूर्धन्यताडयत् ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनुषका स्पर्श होते ही वे क्रोधमें भरे हुए सर्पके समान फुफकार उठे और उन्होंने कर्णके हाथसे वह धनुष छीनकर उसे उसीके मस्तकपर दे मारा॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताडितो भीमसेनेन क्रोधादारक्तलोचनः ।
विहसन्निव राधेयो वाक्यमेतदुवाच ह ॥ ९४ ॥

मूलम्

ताडितो भीमसेनेन क्रोधादारक्तलोचनः ।
विहसन्निव राधेयो वाक्यमेतदुवाच ह ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनकी मार खाकर राधापुत्र कर्णकी आँखें लाल हो गयीं। उसने हँसते हुए-से यह बात कही—॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनः पुनस्तूबरक मूढ औदरिकेति च।
अकृतास्त्रक मा योत्सीर्बाल संग्रामकातर ॥ ९५ ॥

मूलम्

पुनः पुनस्तूबरक मूढ औदरिकेति च।
अकृतास्त्रक मा योत्सीर्बाल संग्रामकातर ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ बिना दाढ़ी-मूछके नपुंसक! ओ मूर्ख! अरे पेटू! तू तो अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानसे सर्वथा शून्य है। युद्धभीरु कायर! छोकरे! अब फिर कभी युद्ध न करना॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र भोज्यं बहुविधं भक्ष्यं पेयं च पाण्डव।
तत्र त्वं दुर्मते योग्यो न युद्धेषु कदाचन ॥ ९६ ॥

मूलम्

यत्र भोज्यं बहुविधं भक्ष्यं पेयं च पाण्डव।
तत्र त्वं दुर्मते योग्यो न युद्धेषु कदाचन ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्बुद्धि पाण्डव! जहाँ अनेक प्रकारकी खाने-पीनेकी वस्तुएँ रखी हों, तू वहीं रहनेके योग्य है! युद्धोंमें तुझे कभी नहीं आना चाहिये॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलपुष्पफलाहारो व्रतेषु नियमेषु च।
उचितस्त्वं वने भीम न त्वं युद्धविशारदः ॥ ९७ ॥

मूलम्

मूलपुष्पफलाहारो व्रतेषु नियमेषु च।
उचितस्त्वं वने भीम न त्वं युद्धविशारदः ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीम! वनमें रहकर तू फल-मूल और फूल खाकर व्रत एवं नियम आदि पालन करनेके योग्य है। युद्धकौशल तुझमें नाममात्रको भी नहीं है॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व युद्धं क्व मुनित्वं च वनं गच्छ वृकोदर।
न त्वं युद्धोचितस्तात वनवासरतिर्भवान् ॥ ९८ ॥

मूलम्

क्व युद्धं क्व मुनित्वं च वनं गच्छ वृकोदर।
न त्वं युद्धोचितस्तात वनवासरतिर्भवान् ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृकोदर! कहाँ युद्ध और कहाँ मुनिवृत्ति। जा, जा, वनमें चला जा। तात! तुझमें युद्धकी योग्यता नहीं है। तू तो वनवासका ही प्रेमी है॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सूदं त्वामहमाजाने मात्स्ये प्रेष्यककारकम्।)
सूदान् भृत्यजनान्‌ दासांस्त्वं गृहे त्वरयन् भृशम्।
योग्यस्ताडयितुं क्रोधाद् भोजनार्थं वृकोदर ॥ ९९ ॥

मूलम्

(सूदं त्वामहमाजाने मात्स्ये प्रेष्यककारकम्।)
सूदान् भृत्यजनान्‌ दासांस्त्वं गृहे त्वरयन् भृशम्।
योग्यस्ताडयितुं क्रोधाद् भोजनार्थं वृकोदर ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ। तू मत्स्यराज विराटका नौकर एक रसोइया रहा है। वृकोदर! तू तो घरमें रसोइयों, भृत्यजनों तथा दासोंको बहुत जल्दी भोजन तैयार करनेके लिये प्रेरणा देते हुए क्रोधसे उन्हें डाँटने और मारने-पीटनेकी योग्यता रखता है॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिर्भूत्वाथवा भीम फलान्यादत्स्व दुर्मते।
वनाय व्रज कौन्तेय न त्वं युद्धविशारदः ॥ १०० ॥

मूलम्

मुनिर्भूत्वाथवा भीम फलान्यादत्स्व दुर्मते।
वनाय व्रज कौन्तेय न त्वं युद्धविशारदः ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्मति कुन्तीकुमार भीम! अथवा तू मुनि होकर वनमें चला जा। वहाँ इधर-उधरसे फल ले आ और खा। तू युद्धमें निपुण नहीं है॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलमूलाशने शक्तस्त्वं तथातिथिपूजने ।
न त्वां शस्त्रसमुद्योगे योग्यं मन्ये वृकोदर ॥ १०१ ॥

मूलम्

फलमूलाशने शक्तस्त्वं तथातिथिपूजने ।
न त्वां शस्त्रसमुद्योगे योग्यं मन्ये वृकोदर ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृकोदर! तू फल-मूल खाने और अतिथिसत्कार करनेमें समर्थ है। मैं तुझे हथियार उठानेके योग्य नहीं मानता’॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौमारे यानि वृत्तानि विप्रियाणि विशाम्पते।
तानि सर्वाणि चाप्येव रूक्षाण्यश्रावयद् भृशम् ॥ १०२ ॥

मूलम्

कौमारे यानि वृत्तानि विप्रियाणि विशाम्पते।
तानि सर्वाणि चाप्येव रूक्षाण्यश्रावयद् भृशम् ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजापालक नरेश! कर्णने बाल्यावस्थामें जो अप्रिय वृत्तान्त घटित हुए थे, उन सबका उल्लेख करते हुए बहुत-सी रूखी बातें सुनायीं॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं तत्र संलीनमस्पृशद् धनुषा पुनः।
प्रहसंश्च पुनर्वाक्यं भीममाह वृषस्तदा ॥ १०३ ॥

मूलम्

अथैनं तत्र संलीनमस्पृशद् धनुषा पुनः।
प्रहसंश्च पुनर्वाक्यं भीममाह वृषस्तदा ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वहाँ छिपे हुए भीमसेनका कर्णने पुनः धनुषसे स्पर्श किया और उस समय उनका उपहास करते हुए फिर कहा—॥१०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योद्धव्यं मारिषान्यत्र न योद्धव्यं च मादृशैः।
मादृशैर्युध्यमानानामेतच्चान्यच्च विद्यते ॥ १०४ ॥

मूलम्

योद्धव्यं मारिषान्यत्र न योद्धव्यं च मादृशैः।
मादृशैर्युध्यमानानामेतच्चान्यच्च विद्यते ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आर्य! तुझे और लोगोंके साथ युद्ध करना चाहिये। मेरे-जैसे वीरोंके साथ नहीं। मेरे-जैसे योद्धाओंसे जूझनेवालोंकी ऐसी ही अथवा इससे भी बुरी दशा होती है॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ वा यत्र तौ कृष्णौ तौ त्वां रक्षिष्यतो रणे।
गृहं वा गच्छ कौन्तेय किं ते युद्धेन बालक॥१०५॥

मूलम्

गच्छ वा यत्र तौ कृष्णौ तौ त्वां रक्षिष्यतो रणे।
गृहं वा गच्छ कौन्तेय किं ते युद्धेन बालक॥१०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहीं चला जा। वे रणभूमिमें तेरी रक्षा करेंगे अथवा कुन्तीकुमार! तू घर चला जा। बच्चे! तुझे युद्धसे क्या लाभ है?’॥१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्य वचनं श्रुत्वा भीमसेनोऽतिदारुणम्।
उवाच कर्णं प्रहसन् सर्वेषां शृण्वतां वचः ॥ १०६ ॥

मूलम्

कर्णस्य वचनं श्रुत्वा भीमसेनोऽतिदारुणम्।
उवाच कर्णं प्रहसन् सर्वेषां शृण्वतां वचः ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णके ये अत्यन्त कठोर वचन सुनकर भीमसेन ठठाकर हँस पड़े और सबके सुनते हुए उससे इस प्रकार बोले—॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितस्त्वमसकृद्‌ दुष्ट कत्थसे किं वृथाऽऽत्मना।
जयाजयौ महेन्द्रस्य लोके दृष्टौ पुरातनैः ॥ १०७ ॥

मूलम्

जितस्त्वमसकृद्‌ दुष्ट कत्थसे किं वृथाऽऽत्मना।
जयाजयौ महेन्द्रस्य लोके दृष्टौ पुरातनैः ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे दुष्ट! मैंने तुझे एक बार नहीं, बारंबार हराया है; फिर क्यों व्यर्थ अपने ही मुँहसे अपनी बड़ाई कर रहा है। संसारमें पूर्वपुरुषोंने देवराज इन्द्रकी भी कभी जय और कभी पराजय होती देखी है॥१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मल्लयुद्धं मया सार्धं कुरु दुष्कुलसम्भव।
महाबलो महाभोगी कीचको निहतो यथा ॥ १०८ ॥
तथा त्वां घातयिष्यामि पश्यत्सु सर्वराजसु।

मूलम्

मल्लयुद्धं मया सार्धं कुरु दुष्कुलसम्भव।
महाबलो महाभोगी कीचको निहतो यथा ॥ १०८ ॥
तथा त्वां घातयिष्यामि पश्यत्सु सर्वराजसु।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नीच कुलमें पैदा हुए कर्ण! आ, मेरे साथ मल्ल-युद्ध कर ले। जैसे मैंने महान् बलशाली महाभोगी कीचकको पीस डाला था, उसी प्रकार इन समस्त राजाओंके देखते-देखते मैं तुझे अभी मौतके हवाले कर दूँगा’॥१०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमस्य मतमाज्ञाय कर्णो बुद्धिमतां वरः ॥ १०९ ॥
विरराम रणात् तस्मात्‌ पश्यतां सर्वधन्विनाम्।

मूलम्

भीमस्य मतमाज्ञाय कर्णो बुद्धिमतां वरः ॥ १०९ ॥
विरराम रणात् तस्मात्‌ पश्यतां सर्वधन्विनाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनका यह अभिप्राय जानकर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कर्ण समस्त धनुर्धरोंके सामने ही उस युद्धसे हट गया॥१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तं विरथं कृत्वा कर्णो राजन् व्यकत्थयत् ॥ ११० ॥
प्रमुखे वृष्णिसिंहस्य पार्थस्य च महात्मनः।
ततो राजन् शिलाधौतान्‌ शरान् शाखामृगध्वजः ॥ १११ ॥
प्राहिणोत् सूतपुत्राय केशवेन प्रचोदितः।

मूलम्

एवं तं विरथं कृत्वा कर्णो राजन् व्यकत्थयत् ॥ ११० ॥
प्रमुखे वृष्णिसिंहस्य पार्थस्य च महात्मनः।
ततो राजन् शिलाधौतान्‌ शरान् शाखामृगध्वजः ॥ १११ ॥
प्राहिणोत् सूतपुत्राय केशवेन प्रचोदितः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार कर्णने भीमसेनको रथहीन करके जब वृष्णिवंशके सिंह भगवान् श्रीकृष्ण और महामना अर्जुनके सामने ही अपनी इतनी प्रशंसा की, तब श्रीकृष्णकी प्रेरणासे कपिध्वज अर्जुनने शिलापर स्वच्छ किये हुए बहुत-से बाणोंको सूतपुत्र कर्णपर चलाया॥११०-१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पार्थभुजोत्सृष्टाः शराः कनकभूषणाः ॥ ११२ ॥
गाण्डीवप्रभवाः कर्णं हंसाः क्रौञ्चमिवाविशन्।

मूलम्

ततः पार्थभुजोत्सृष्टाः शराः कनकभूषणाः ॥ ११२ ॥
गाण्डीवप्रभवाः कर्णं हंसाः क्रौञ्चमिवाविशन्।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अर्जुनकी भुजाओंसे छोड़े गये तथा गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए वे सुवर्णभूषित बाण कर्णके शरीरमें उसी प्रकार घुस गये, जैसे हंस क्रौंच पर्वतकी गुफाओंमें समा जाते हैं॥११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भुजङ्गैरिवाविष्टैर्गाण्डीवप्रेषितैः शरैः ॥ ११३ ॥
भीमसेनादपासेधत् सूतपुत्रं धनंजयः ।

मूलम्

स भुजङ्गैरिवाविष्टैर्गाण्डीवप्रेषितैः शरैः ॥ ११३ ॥
भीमसेनादपासेधत् सूतपुत्रं धनंजयः ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार धनंजयने गाण्डीव धनुषसे छोड़े गये रोषभरे सर्पोंके समान बाणोंद्वारा सूतपुत्र कर्णको भीमसेनसे दूर हटा दिया॥११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च्छिन्नधन्वा भीमेन धनंजयशराहतः ॥ ११४ ॥
कर्णो भीमादपायासीद् रथेन महता द्रुतम्।

मूलम्

स च्छिन्नधन्वा भीमेन धनंजयशराहतः ॥ ११४ ॥
कर्णो भीमादपायासीद् रथेन महता द्रुतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने कर्णके धनुषको तो पहलेसे ही तोड़ दिया था। इसीलिये वह धनंजयके बाणोंसे घायल हो भीमसेनको छोड़कर अपने विशाल रथके द्वारा तुरंत ही वहाँसे दूर हट गया॥११४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमोऽपि सात्यकेर्वाहं समारुह्य नरर्षभः ॥ ११५ ॥
अन्वयाद् भ्रातरं संख्ये पाण्डवं सव्यसाचिनम्।

मूलम्

भीमोऽपि सात्यकेर्वाहं समारुह्य नरर्षभः ॥ ११५ ॥
अन्वयाद् भ्रातरं संख्ये पाण्डवं सव्यसाचिनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इधर नरश्रेष्ठ भीमसेन भी सात्यकिके रथपर आरूढ़ हो युद्धस्थलमें सव्यसाची पाण्डुपुत्र भाई अर्जुनके पास जा पहुँचे॥११५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कर्णं समुद्दिश्य त्वरमाणो धनंजयः ॥ ११६ ॥
नाराचां क्रोधताम्राक्षः प्रैषीन्मृत्युमिवान्तकः ।

मूलम्

ततः कर्णं समुद्दिश्य त्वरमाणो धनंजयः ॥ ११६ ॥
नाराचां क्रोधताम्राक्षः प्रैषीन्मृत्युमिवान्तकः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् क्रोधसे लाल आँखें किये अर्जुनने बड़ी उतावलीके साथ कर्णको लक्ष्य करके एक नाराच चलाया, मानो यमराजने किसीके लिये मौत भेज दी हो॥११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गरुत्मानिवाकाशे प्रार्थयन् भुजगोत्तमम् ॥ ११७ ॥
नाराचोऽभ्यपतत् कर्णं तूर्णं गाण्डीवचोदितः।

मूलम्

स गरुत्मानिवाकाशे प्रार्थयन् भुजगोत्तमम् ॥ ११७ ॥
नाराचोऽभ्यपतत् कर्णं तूर्णं गाण्डीवचोदितः।

अनुवाद (हिन्दी)

गाण्डीव धनुषसे छूटा हुआ वह नाराच आकाशमार्गसे तुरंत ही कर्णकी ओर चला, मानो गरुड़ किसी उत्तम सर्पको पकड़नेके लिये जा रहे हों॥११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमन्तरिक्षे नाराचं द्रौणिश्चिच्छेद पत्रिणा ॥ ११८ ॥
धनंजयभयात् कर्णमुज्जिहीर्षन् महारथः ।

मूलम्

तमन्तरिक्षे नाराचं द्रौणिश्चिच्छेद पत्रिणा ॥ ११८ ॥
धनंजयभयात् कर्णमुज्जिहीर्षन् महारथः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अर्जुनके भयसे कर्णका उद्धार करनेकी इच्छा रखकर महारथी अश्वत्थामाने अपने बाणसे उस नाराचको आकाशमें ही काट दिया॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रौणिं चतुःषष्ट्या विव्याध कुपितोऽर्जुनः ॥ ११९ ॥
शिलीमुखैर्महाराज मा गास्तिष्ठेति चाब्रवीत्।

मूलम्

ततो द्रौणिं चतुःषष्ट्या विव्याध कुपितोऽर्जुनः ॥ ११९ ॥
शिलीमुखैर्महाराज मा गास्तिष्ठेति चाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब क्रोधमें भरे हुए अर्जुनने अश्वत्थामाको चौंसठ बाण मारे और कहा—‘खड़े रहो, भागना मत’॥११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु मत्तगजाकीर्णमनीकं रथसंकुलम् ॥ १२० ॥
तूर्णमभ्याविशद् द्रौणिर्धनंजयशरार्दितः ।

मूलम्

स तु मत्तगजाकीर्णमनीकं रथसंकुलम् ॥ १२० ॥
तूर्णमभ्याविशद् द्रौणिर्धनंजयशरार्दितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित हो अश्वत्थामा तुरंत ही रथसे व्याप्त एवं मतवाले हाथियोंसे भरे हुए व्यूहके भीतर घुस गया॥१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुवर्णपृष्ठानां चापानां कूजतां रणे ॥ १२१ ॥
शब्दं गाण्डीवघोषेण कौन्तेयोऽभ्यभवद् बली।

मूलम्

ततः सुवर्णपृष्ठानां चापानां कूजतां रणे ॥ १२१ ॥
शब्दं गाण्डीवघोषेण कौन्तेयोऽभ्यभवद् बली।

अनुवाद (हिन्दी)

तब बलवान् कुन्तीकुमार अर्जुनने रणक्षेत्रमें टंकार करते हुए सुवर्णमय पृष्ठभागवाले समस्त धनुषोंके सम्मिलित शब्दोंको अपने गाण्डीव धनुषके गम्भीर घोषसे दबा दिया॥१२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजयस्तथा यान्तं पृष्ठतो द्रौणिमभ्यगात् ॥ १२२ ॥
नातिदीर्घमिवाध्वानं शरैः संत्रासयन् बलम्।

मूलम्

धनंजयस्तथा यान्तं पृष्ठतो द्रौणिमभ्यगात् ॥ १२२ ॥
नातिदीर्घमिवाध्वानं शरैः संत्रासयन् बलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन भागते हुए अश्वत्थामाके पीछे-पीछे अपने बाणोंद्वारा कौरव-सेनाको संत्रस्त करते हुए कुछ दूरतक गये॥१२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदार्य देहान् नाराचैर्नरवारणवाजिनाम् ॥ १२३ ॥
कङ्कबर्हिणवासोभिर्बलं व्यधमदर्जुनः ।

मूलम्

विदार्य देहान् नाराचैर्नरवारणवाजिनाम् ॥ १२३ ॥
कङ्कबर्हिणवासोभिर्बलं व्यधमदर्जुनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उन्होंने कंक और मोरकी पाँखोंसे युक्त नाराचोंद्वारा घोड़ों, हाथियों और मनुष्योंके शरीरोंको विदीर्ण करके सारी सेनाको तहस-नहस कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् बलं भरतश्रेष्ठ सवाजिद्विपमानवम् ॥ १२४ ॥
पाकशासनिरायत्तः पार्थः स निजघान ह ॥ १२५ ॥

मूलम्

तद् बलं भरतश्रेष्ठ सवाजिद्विपमानवम् ॥ १२४ ॥
पाकशासनिरायत्तः पार्थः स निजघान ह ॥ १२५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उस समय सावधान हुए इन्द्रकुमार कुन्तीपुत्र अर्जुनने हाथी, घोड़ों और मनुष्योंसे भरी हुई उस सेनाका संहार कर डाला॥१२४-१२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमकर्णयुद्धे एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेन और कर्णका युद्धविषयक एक सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३९॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल १२५ श्लोक हैं।)