१३८ भीमकर्णयुद्धे

भागसूचना

अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेन और कर्णका भयंकर युद्ध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानपनयः सूत ममैवात्र विशेषतः।
स इदानीमनुप्राप्तो मन्ये संजय शोचतः ॥ १ ॥

मूलम्

महानपनयः सूत ममैवात्र विशेषतः।
स इदानीमनुप्राप्तो मन्ये संजय शोचतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— सूत संजय! इसमें विशेषतः मेरा ही अन्याय है—यह मैं स्वीकार करता हूँ। इस समय शोकमें डूबे हुए मुझको मेरे उसी अन्यायका फल प्राप्त हुआ है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् गतं तद् गतमिति ममासीन्मनसि स्थितम्।
इदानीमत्र किं कार्यं प्रकरिष्यामि संजय ॥ २ ॥

मूलम्

यद् गतं तद् गतमिति ममासीन्मनसि स्थितम्।
इदानीमत्र किं कार्यं प्रकरिष्यामि संजय ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! अबतक मेरे मनमें यह बात थी कि जो बीत गया, सो बीत गया। उसके लिये चिन्ता करना व्यर्थ है। परंतु अब यहाँ इस समय मेरा क्या कर्तव्य है, उसे बताओ। मैं उसका पालन अवश्य करूँगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ह्येष क्षयो वृत्तो ममापनयसम्भवः।
वीराणां तन्ममाचक्ष्व स्थिरीभूतोऽस्मि संजय ॥ ३ ॥

मूलम्

यथा ह्येष क्षयो वृत्तो ममापनयसम्भवः।
वीराणां तन्ममाचक्ष्व स्थिरीभूतोऽस्मि संजय ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूत! मेरे अन्यायसे वीरोंका जो यह विनाश हुआ है, वह सब कह सुनाओ। मैं धैर्य धारण करके बैठा हूँ॥३॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णभीमौ महाराज पराक्रान्तौ महाबलौ।
बाणवर्षाण्यसृजतां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ ॥ ४ ॥

मूलम्

कर्णभीमौ महाराज पराक्रान्तौ महाबलौ।
बाणवर्षाण्यसृजतां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— महाराज! जलकी वर्षा करनेवाले दो बादलोंके समान महाबली, महापराक्रमी कर्ण और भीमसेन परस्पर बाणोंकी वर्षा करने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमनामाङ्किता बाणाः स्वर्णपुङ्खाः शिलाशिताः।
विविशुः कर्णमासाद्य च्छिन्दन्त इव जीवितम् ॥ ५ ॥

मूलम्

भीमनामाङ्किता बाणाः स्वर्णपुङ्खाः शिलाशिताः।
विविशुः कर्णमासाद्य च्छिन्दन्त इव जीवितम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनपर भीमसेनके नाम खुदे हुए थे, वे शिलापर तेज किये हुए स्वर्णमय पंखयुक्त बाण कर्णके पास पहुँचकर उसके जीवनका उच्छेद करते हुए-से उसके शरीरमें घुस गये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव कर्णनिर्मुक्ताः शरा बर्हिणवाससः।
छादयाञ्चक्रिरे वीरं शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६ ॥

मूलम्

तथैव कर्णनिर्मुक्ताः शरा बर्हिणवाससः।
छादयाञ्चक्रिरे वीरं शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार कर्णके छोड़े हुए मयूरपंखवाले सैकड़ों और हजारों बाणोंने वीर भीमसेनको आच्छादित कर दिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः शरैर्महाराज सम्पतद्भिः समन्ततः।
बभूव तत्र सैन्यानां संक्षोभः सागरोत्तरः ॥ ७ ॥

मूलम्

तयोः शरैर्महाराज सम्पतद्भिः समन्ततः।
बभूव तत्र सैन्यानां संक्षोभः सागरोत्तरः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! चारों ओर गिरते हुए उन दोनोंके बाणोंसे वहाँकी सेनाओंमें समुद्रसे भी बढ़कर महान् क्षोभ होने लगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमचापच्युतैर्बाणैस्तव सैन्यमरिंदम ।
अवध्यत चमूमध्ये घोरैराशीविषोपमैः ॥ ८ ॥

मूलम्

भीमचापच्युतैर्बाणैस्तव सैन्यमरिंदम ।
अवध्यत चमूमध्ये घोरैराशीविषोपमैः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन! भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए विषधर सर्पोंके समान भयंकर बाणोंद्वारा सेनाके मध्यभागमें आपके सैनिकोंका वध हो रहा था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वारणैः पतितै राजन् वाजिभिश्च नरैः सह।
अदृश्यत मही कीर्णा वातभग्नैरिव द्रुमैः ॥ ९ ॥

मूलम्

वारणैः पतितै राजन् वाजिभिश्च नरैः सह।
अदृश्यत मही कीर्णा वातभग्नैरिव द्रुमैः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ गिरे हुए हाथियों, घोड़ों और पैदल मनुष्योंद्वारा ढकी हुई वह रणभूमि आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंसे आच्छादित-सी दिखायी देती थी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वध्यमानाः समरे भीमचापच्युतैः शरैः।
प्राद्रवंस्तावका योधाः किमेतदिति चाब्रुवन् ॥ १० ॥

मूलम्

ते वध्यमानाः समरे भीमचापच्युतैः शरैः।
प्राद्रवंस्तावका योधाः किमेतदिति चाब्रुवन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा समरांगणमें मारे जाते हुए आपके सैनिक भाग चले और आपसमें कहने लगे, अरे! यह क्या हुआ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्युदस्तं तत् सैन्यं सिन्धुसौवीरकौरवम्।
प्रोत्सारितं महावेगैः कर्णपाण्डवयोः शरैः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो व्युदस्तं तत् सैन्यं सिन्धुसौवीरकौरवम्।
प्रोत्सारितं महावेगैः कर्णपाण्डवयोः शरैः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कर्ण और भीमसेनके महान् वेगशाली बाणोंद्वारा सिन्धु, सौवीर और कौरवदलकी वह सेना उखड़ गयी और वहाँसे भाग खड़ी हुई॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते शूरा हतभूयिष्ठा हताश्वरथवारणाः।
उत्सृज्य भीमकर्णौ च सर्वतो व्यद्रवन् दिशः ॥ १२ ॥

मूलम्

ते शूरा हतभूयिष्ठा हताश्वरथवारणाः।
उत्सृज्य भीमकर्णौ च सर्वतो व्यद्रवन् दिशः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे शूरवीर सैनिक जिनमें बहुत-से लोग मारे गये थे तथा जिनके हाथी, घोड़े और रथ नष्ट हो चुके थे, भीमसेन और कर्णको छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं पार्थार्थमेवास्मान् मोहयन्ति दिवौकसः।
यत् कर्णभीमप्रभवैर्वध्यते नो बलं शरैः ॥ १३ ॥

मूलम्

नूनं पार्थार्थमेवास्मान् मोहयन्ति दिवौकसः।
यत् कर्णभीमप्रभवैर्वध्यते नो बलं शरैः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अवश्य ही कुन्तीकुमारोंके हितके लिये ही देवता हमें मोहमें डाल रहे हैं; क्योंकि कर्ण और भीमसेनके बाणोंसे वे हमारी सेनाका वध कर रहे हैं’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणा योधास्ते तावका भयपीडिताः।
शरपातं समुत्सृज्य स्थिता युद्धदिदृक्षवः ॥ १४ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणा योधास्ते तावका भयपीडिताः।
शरपातं समुत्सृज्य स्थिता युद्धदिदृक्षवः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहते हुए आपके योद्धा भयसे पीड़ित हो बाण मारनेका कार्य छोड़कर युद्धके दर्शक बनकर खड़े हो गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रावर्तत नदी घोररूपा रणाजिरे।
शूराणां हर्षजननी भीरूणां भयवर्धिनी ॥ १५ ॥

मूलम्

ततः प्रावर्तत नदी घोररूपा रणाजिरे।
शूराणां हर्षजननी भीरूणां भयवर्धिनी ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रणभूमिमें रक्तकी भयंकर नदी बह चली, जो शूरवीरोंको हर्ष देनेवाली और भीरु पुरुषोंका भय बढ़ानेवाली थी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वारणाश्वमनुष्याणां रुधिरौघसमुद्भवा ।
संवृता गतसत्त्वैश्च मनुष्यगजवाजिभिः ॥ १६ ॥

मूलम्

वारणाश्वमनुष्याणां रुधिरौघसमुद्भवा ।
संवृता गतसत्त्वैश्च मनुष्यगजवाजिभिः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी, घोड़े और मनुष्योंके रुधिरसमूहसे उस नदीका प्राकट्य हुआ था। वह प्राणशून्य मनुष्यों, हाथियों और घोड़ोंसे घिरी हुई थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सानुकर्षपताकैश्च द्विपाश्वरथभूषणैः ।
स्यन्दनैरपविद्धैश्च भग्नचक्राक्षकूबरैः ॥ १७ ॥
जातरूपपरिष्कारैर्धनुर्भिः सुमहास्वनैः ।
सुवर्णपुङ्खैरिषुभिर्नाराचैश्च सहस्रशः ॥ १८ ॥
कर्णपाण्डवनिर्मुक्तैर्निर्मुक्तैरिव पन्नगैः ।
प्रासतोमरसंघातैः खड्‌गैश्च सपरश्वधैः ॥ १९ ॥
सुवर्णविकृतैश्चापि गदामुसलपट्टिशैः ।
ध्वजैश्च विविधाकारैः शक्तिभिः परिघैरपि ॥ २० ॥
शतघ्नीभिश्च चित्राभिर्बभौ भारत मेदिनी।

मूलम्

सानुकर्षपताकैश्च द्विपाश्वरथभूषणैः ।
स्यन्दनैरपविद्धैश्च भग्नचक्राक्षकूबरैः ॥ १७ ॥
जातरूपपरिष्कारैर्धनुर्भिः सुमहास्वनैः ।
सुवर्णपुङ्खैरिषुभिर्नाराचैश्च सहस्रशः ॥ १८ ॥
कर्णपाण्डवनिर्मुक्तैर्निर्मुक्तैरिव पन्नगैः ।
प्रासतोमरसंघातैः खड्‌गैश्च सपरश्वधैः ॥ १९ ॥
सुवर्णविकृतैश्चापि गदामुसलपट्टिशैः ।
ध्वजैश्च विविधाकारैः शक्तिभिः परिघैरपि ॥ २० ॥
शतघ्नीभिश्च चित्राभिर्बभौ भारत मेदिनी।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय अनुकर्ष, पताका, हाथी, घोड़े, रथ, आभूषण, टूटकर बिखरे हुए स्यन्दन (रथ), टूक-टूक हुए पहिये, धुरी और कूबर, सुवर्णभूषित एवं महान् टंकार शब्द करनेवाले धनुष, सोनेके पंखवाले बाण, केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पोंके समान कर्ण और भीमसेनके छोड़े हुए सहस्रों नाराच, प्रास, तोमर, खड्ग, फरसे, सोनेकी गदा, मुसल, पट्टिश, भाँति-भाँतिके ध्वज, शक्ति, परिघ और विचित्र शतघ्नी आदिसे उस रणभूमिकी अद्भुत शोभा हो रही थी॥१७—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनकाङ्गदहारैश्च कुण्डलैर्मुकुटैस्तथा ॥ २१ ॥
वलयैरपविद्धैश्च तत्रैवाङ्‌गुलिवेष्टकैः ।
चूडामणिभिरुष्णीषैः स्वर्णसूत्रैश्च मारिष ॥ २२ ॥
तनुत्रैः सतलत्रैश्च हारैर्निष्कैश्च भारत।
वस्त्रैश्छत्रैश्च विध्वस्तैश्चामरव्यजनैरपि ॥ २३ ॥
गजाश्वमनुजैर्भिन्नैः शोणिताक्तैश्च पत्रिभिः ।
तैस्तैश्च विविधैर्भिन्नैस्तत्र तत्र वसुंधरा ॥ २४ ॥
पतितैरपविद्धैश्च विबभौ द्यौरिव ग्रहैः।

मूलम्

कनकाङ्गदहारैश्च कुण्डलैर्मुकुटैस्तथा ॥ २१ ॥
वलयैरपविद्धैश्च तत्रैवाङ्‌गुलिवेष्टकैः ।
चूडामणिभिरुष्णीषैः स्वर्णसूत्रैश्च मारिष ॥ २२ ॥
तनुत्रैः सतलत्रैश्च हारैर्निष्कैश्च भारत।
वस्त्रैश्छत्रैश्च विध्वस्तैश्चामरव्यजनैरपि ॥ २३ ॥
गजाश्वमनुजैर्भिन्नैः शोणिताक्तैश्च पत्रिभिः ।
तैस्तैश्च विविधैर्भिन्नैस्तत्र तत्र वसुंधरा ॥ २४ ॥
पतितैरपविद्धैश्च विबभौ द्यौरिव ग्रहैः।

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय भरतनन्दन! इधर-उधर पड़े हुए सोनेके अंगद, हार, कुण्डल, मुकुट, वलय, अंगूठी, चूड़ामणि, उष्णीष, सुवर्णमय सूत्र, कवच, दस्ताने, हार, निष्क, वस्त्र, छत्र, टूटे हुए चँवर, व्यजन, विदीर्ण हुए हाथी, घोड़े, मनुष्य, खूनसे लथपथ हुए पंखयुक्त बाण आदि नाना प्रकारकी छिन्न-भिन्न, पतित और फेंकी हुई वस्तुओंसे वहाँकी भूमि ग्रहोंसे आकाशकी भाँति सुशोभित हो रही थी॥२१—२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिन्त्यमद्भुतं चैव तयोः कर्मातिमानुषम् ॥ २५ ॥
दृष्ट्वा चारणसिद्धानां विस्मयः समजायत।

मूलम्

अचिन्त्यमद्भुतं चैव तयोः कर्मातिमानुषम् ॥ २५ ॥
दृष्ट्वा चारणसिद्धानां विस्मयः समजायत।

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंके उस अचिन्त्य, अलौकिक और अद्भुत कर्मको देखकर चारणों और सिद्धोंके मनमें भी महान् विस्मय हो गया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नेर्वायुसहायस्य गतिः कक्ष इवाहवे ॥ २६ ॥
आसीद् भीमसहायस्य रौद्रमाधिरथेर्गतम् ।

मूलम्

अग्नेर्वायुसहायस्य गतिः कक्ष इवाहवे ॥ २६ ॥
आसीद् भीमसहायस्य रौद्रमाधिरथेर्गतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वायुकी सहायता पाकर सूखे वनमें तथा घास-फूँसमें अग्निकी गति बढ़ जाती है, उसी प्रकार उस महायुद्धमें भीमसेनके साथ सूतपुत्र कर्णकी भयंकर गति बढ़ गयी थी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निपातितध्वजरथं हतवाजिनरद्विपम् ॥ २७ ॥
गजाभ्यां सम्प्रयुक्ताभ्यामासीन्नलवनं यथा ।
मेघजालनिभं सैन्यमासीत् तव नराधिप ॥ २८ ॥
विमर्दः कर्णभीमाभ्यामासीच्च परमो रणे।

मूलम्

निपातितध्वजरथं हतवाजिनरद्विपम् ॥ २७ ॥
गजाभ्यां सम्प्रयुक्ताभ्यामासीन्नलवनं यथा ।
मेघजालनिभं सैन्यमासीत् तव नराधिप ॥ २८ ॥
विमर्दः कर्णभीमाभ्यामासीच्च परमो रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जैसे दो हाथी किसीसे प्रेरित होकर नरकुलके वनको रौंद डालते हैं, उसी प्रकार मेघोंकी घटाके समान आपकी सेना बड़ी दुरवस्थामें पड़ गयी थी। उसके रथ और ध्वज गिराये जा चुके थे। हाथी, घोड़े और मनुष्य मारे गये थे। कर्ण और भीमसेनने उस युद्धस्थलमें महान् संहार मचा रखा था॥२७-२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमकर्णयुद्धे अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीम और कर्णका युद्धविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३८॥