भागसूचना
सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेन और कर्णका युद्ध तथा दुर्योधनके सात भाइयोंका वध
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनस्य राधेयः श्रुत्वा ज्यातलनिःस्वनम्।
नामृष्यत यथा मत्तो गजः प्रतिगजस्वनम् ॥ १ ॥
मूलम्
भीमसेनस्य राधेयः श्रुत्वा ज्यातलनिःस्वनम्।
नामृष्यत यथा मत्तो गजः प्रतिगजस्वनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! भीमसेनके धनुषकी टंकार सुनकर राधानन्दन कर्ण उसे सहन न कर सका। जैसे मतवाला हाथी अपने प्रतिपक्षी गजराजकी गर्जनाको नहीं सहन कर पाता॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपक्रम्य मुहूर्तं तु भीमसेनस्य गोचरात्।
पुत्रांस्तव ददर्शाथ भीमसेनेन पातितान् ॥ २ ॥
मूलम्
सोऽपक्रम्य मुहूर्तं तु भीमसेनस्य गोचरात्।
पुत्रांस्तव ददर्शाथ भीमसेनेन पातितान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने थोड़ी देरके लिये भीमसेनकी दृष्टिसे दूर हटनेपर देखा कि भीमसेनने आपके पुत्रोंको मार गिराया है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानवेक्ष्य नरश्रेष्ठ विमना दुःखितस्तदा।
निःश्वसन् दीर्घमुष्णं च पुनः पाण्डवमभ्ययात् ॥ ३ ॥
मूलम्
तानवेक्ष्य नरश्रेष्ठ विमना दुःखितस्तदा।
निःश्वसन् दीर्घमुष्णं च पुनः पाण्डवमभ्ययात् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! उनकी वह अवस्था देखकर उस समय कर्णको बहुत दुःख हुआ। उसका मन उदास हो गया। वह गरम-गरम लंबी साँस खींचता हुआ पुनः पाण्डुनन्दन भीमसेनके सामने आया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ताम्रनयनः क्रोधाच्छ्वसन्निव महोरगः।
बभौ कर्णः शरानस्यन् रश्मीनिव दिवाकरः ॥ ४ ॥
मूलम्
स ताम्रनयनः क्रोधाच्छ्वसन्निव महोरगः।
बभौ कर्णः शरानस्यन् रश्मीनिव दिवाकरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं और वह फुफकारते हुए महान् सर्पके समान उच्छ्वास खींच रहा था। उस समय बाणोंकी वर्षा करता हुआ कर्ण अपनी किरणोंका प्रसार करते हुए सूर्यदेवके समान शोभा पा रहा था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरणैरिव सूर्यस्य महीध्रो भरतर्षभ।
कर्णचापच्युतैर्बाणैः प्राच्छाद्यत वृकोदरः ॥ ५ ॥
मूलम्
किरणैरिव सूर्यस्य महीध्रो भरतर्षभ।
कर्णचापच्युतैर्बाणैः प्राच्छाद्यत वृकोदरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जैसे सूर्यकी किरणोंसे पर्वत ढक जाता है, उसी प्रकार कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा भीमसेन आच्छादित हो गये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते कर्णचापप्रभवाः शरा बर्हिणवाससः।
विविशुः सर्वतः पार्थं वासायेवाण्डजा द्रुमम् ॥ ६ ॥
मूलम्
ते कर्णचापप्रभवाः शरा बर्हिणवाससः।
विविशुः सर्वतः पार्थं वासायेवाण्डजा द्रुमम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके धनुषसे छूटे हुए वे मयूरपंखधारी बाण सब ओरसे आकर भीमसेनके शरीरमें उसी प्रकार घुसने लगे, जैसे पक्षी बसेरा लेनेके लिये वृक्षोंपर आ जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णचापच्युता बाणाः सम्पतन्तस्ततस्ततः ।
रुक्मपुङ्खा व्यराजन्त हंसाः श्रेणीकृता इव ॥ ७ ॥
मूलम्
कर्णचापच्युता बाणाः सम्पतन्तस्ततस्ततः ।
रुक्मपुङ्खा व्यराजन्त हंसाः श्रेणीकृता इव ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णके धनुषसे छूटकर इधर-उधर पड़नेवाले सुवर्णपंखयुक्त बाण श्रेणीबद्ध हंसोंके समान शोभा पा रहे थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चापध्वजोपस्करेभ्यश्छत्रादीषामुखाद् युगात् ।
प्रभवन्तो व्यदृश्यन्त राजन्नाधिरथेः शराः ॥ ८ ॥
मूलम्
चापध्वजोपस्करेभ्यश्छत्रादीषामुखाद् युगात् ।
प्रभवन्तो व्यदृश्यन्त राजन्नाधिरथेः शराः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय अधिरथपुत्र कर्णके बाण केवल धनुषसे ही नहीं, ध्वज आदि अन्य समानोंसे, छत्रसे, ईषादण्ड आदिसे तथा रथके जूएसे भी प्रकट होते दिखायी देते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खं पूरयन् महावेगान् खगमान् गृध्रवाससः।
सुवर्णविकृतांश्चित्रान् मुमोचाधिरथिः शरान् ॥ ९ ॥
मूलम्
खं पूरयन् महावेगान् खगमान् गृध्रवाससः।
सुवर्णविकृतांश्चित्रान् मुमोचाधिरथिः शरान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधिरथपुत्र कर्णने अन्तरिक्षको व्याप्त करते हुए महान् वेगशाली, आकाशमें विचरनेवाले गृध्रके पंखोंसे युक्त और सुवर्णके बने हुए विचित्र बाण चलाये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमन्तकमिवायस्तमापतन्तं वृकोदरः ।
त्यक्त्वा प्राणानतिक्रम्य विव्याध निशितैः शरैः ॥ १० ॥
मूलम्
तमन्तकमिवायस्तमापतन्तं वृकोदरः ।
त्यक्त्वा प्राणानतिक्रम्य विव्याध निशितैः शरैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णको यमराजके समान आयासयुक्त हो आते देख भीमसेन प्राणोंका मोह छोड़कर पराक्रमपूर्वक उसे पैने बाणोंद्वारा बींधने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वेगमसह्यं स दृष्ट्वा कर्णस्य पाण्डवः।
महतश्च शरौघांस्तान् न्यवारयत वीर्यवान् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्य वेगमसह्यं स दृष्ट्वा कर्णस्य पाण्डवः।
महतश्च शरौघांस्तान् न्यवारयत वीर्यवान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराक्रमी पाण्डुपुत्र भीमने कर्णके वेगको असह्य देखकर उसके महान् बाणसमूहोंका निवारण किया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विधम्याधिरथेः शरजालानि पाण्डवः।
विव्याध कर्णं विंशत्या पुनरन्यैः शिलाशितैः ॥ १२ ॥
मूलम्
ततो विधम्याधिरथेः शरजालानि पाण्डवः।
विव्याध कर्णं विंशत्या पुनरन्यैः शिलाशितैः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुकुमार भीमने अधिरथपुत्रके शरसमूहोंका निवारण करके शिलापर चढ़ाकर तेज किये हुए बीस अन्य बाणोंद्वारा कर्णको घायल कर दिया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव हि स कर्णेन पार्थः प्रच्छादितः शरैः।
तथैव स रणे कर्णं छादयामास पाण्डवः ॥ १३ ॥
मूलम्
यथैव हि स कर्णेन पार्थः प्रच्छादितः शरैः।
तथैव स रणे कर्णं छादयामास पाण्डवः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कर्णने अपने बाणोंद्वारा भीमसेनको आच्छादित किया था, उसी प्रकार पाण्डुपुत्र भीमने भी कर्णको ढक दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तु भीमसेनस्य विक्रमं युधि भारत।
अभ्यनन्दंस्त्यदीयाश्च सम्प्रहृष्टाश्च चारणाः ॥ १४ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा तु भीमसेनस्य विक्रमं युधि भारत।
अभ्यनन्दंस्त्यदीयाश्च सम्प्रहृष्टाश्च चारणाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! युद्धमें भीमसेनका वह पराक्रम देखकर आपके योद्धाओं तथा चारणोंने भी प्रसन्न होकर उनका अभिनन्दन किया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूरिश्रवाः कृपो द्रौणिर्मद्रराजो जयद्रथः।
उत्तमौजा युधामन्युः सात्यकिः केशवार्जुनौ ॥ १५ ॥
कुरुपाण्डवप्रवरा दश राजन् महारथाः।
साधु साध्विति वेगेन सिंहनादमथानदन् ॥ १६ ॥
मूलम्
भूरिश्रवाः कृपो द्रौणिर्मद्रराजो जयद्रथः।
उत्तमौजा युधामन्युः सात्यकिः केशवार्जुनौ ॥ १५ ॥
कुरुपाण्डवप्रवरा दश राजन् महारथाः।
साधु साध्विति वेगेन सिंहनादमथानदन् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भूरिश्रवा, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, मद्रराज शल्य, जयद्रथ, उत्तमौजा, युधामन्यु, सात्यकि, श्रीकृष्ण तथा अर्जुन—ये कौरव और पाण्डव-पक्षके दस श्रेष्ठ महारथी ‘साधु-साधु’ कहकर वेगपूर्वक सिंहनाद करने लगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् समुत्थिते शब्दे तुमुले लोमहर्षणे।
अभ्यभाषत पुत्रस्ते राजन् दुर्योधनस्त्वरन् ॥ १७ ॥
राज्ञः सराजपुत्रांश्च सोदर्यांश्च विशेषतः।
कर्णं गच्छत भद्रं वः परीप्सन्तो वृकोदरात् ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्मिन् समुत्थिते शब्दे तुमुले लोमहर्षणे।
अभ्यभाषत पुत्रस्ते राजन् दुर्योधनस्त्वरन् ॥ १७ ॥
राज्ञः सराजपुत्रांश्च सोदर्यांश्च विशेषतः।
कर्णं गच्छत भद्रं वः परीप्सन्तो वृकोदरात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस रोमांचकारी भयंकर शब्दके प्रकट होनेपर आपके पुत्र राजा दुर्योधनने बड़ी उतावलीके साथ राजाओं, राजकुमारों और विशेषतः अपने भाइयोंसे कहा—‘तुम्हारा कल्याण हो, तुम सब लोग भीमसेनसे कर्णकी रक्षा करनेके लिये जाओ॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा निघ्नन्ति राधेयं भीमचापच्युताः शराः।
ते यतध्वं महेष्वासाः सूतपुत्रस्य रक्षणे ॥ १९ ॥
मूलम्
पुरा निघ्नन्ति राधेयं भीमचापच्युताः शराः।
ते यतध्वं महेष्वासाः सूतपुत्रस्य रक्षणे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कहीं ऐसा न हो कि भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए बाण राधानन्दन कर्णको पहले ही मार डालें। अतः महाधनुर्धर वीरो! तुम सब लोग सूतपुत्रकी रक्षाका प्रयत्न करो’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनसमादिष्टाः सोदर्याः सप्त भारत।
भीमसेनमभिद्रुत्य संरब्धाः पर्यवारयन् ॥ २० ॥
मूलम्
दुर्योधनसमादिष्टाः सोदर्याः सप्त भारत।
भीमसेनमभिद्रुत्य संरब्धाः पर्यवारयन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! दुर्योधनकी आज्ञा पाकर उसके सात भाइयोंने कुपित हो भीमसेनपर आक्रमण करके उन्हें चारों ओरसे घेर लिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते समासाद्य कौन्तेयमावृण्वन् शरवृष्टिभिः।
पर्वतं वारिधाराभिः प्रावृषीव बलाहकाः ॥ २१ ॥
मूलम्
ते समासाद्य कौन्तेयमावृण्वन् शरवृष्टिभिः।
पर्वतं वारिधाराभिः प्रावृषीव बलाहकाः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वर्षा-ऋतुमें मेघ पर्वतपर जलकी धाराएँ बरसाते हैं, उसी प्रकार उन कौरवोंने कुन्तीकुमारके समीप जाकर उन्हें अपने बाणोंकी वर्षासे आच्छादित कर दिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽपीडयन् भीमसेनं क्रुद्धाः सप्त महारथाः।
प्रजासंहरणे राजन् सोमं सप्त ग्रहा इव ॥ २२ ॥
मूलम्
तेऽपीडयन् भीमसेनं क्रुद्धाः सप्त महारथाः।
प्रजासंहरणे राजन् सोमं सप्त ग्रहा इव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन सात महारथियोंने कुपित हो भीमसेनको उसी प्रकार पीड़ा दी, जैसे सात ग्रह प्रजाओंके संहारकालमें सोमको पीड़ा देते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वेगेन कौन्तेयः पीडयित्वा शरासनम्।
मुष्टिना पाण्डवो राजन् दृढेन सुपरिष्कृतम् ॥ २३ ॥
मनुष्यसमतां ज्ञात्वा सप्त संधाय सायकान्।
तेभ्यो व्यसृजदायस्तः सूर्यरश्मिनिभान् प्रभुः ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो वेगेन कौन्तेयः पीडयित्वा शरासनम्।
मुष्टिना पाण्डवो राजन् दृढेन सुपरिष्कृतम् ॥ २३ ॥
मनुष्यसमतां ज्ञात्वा सप्त संधाय सायकान्।
तेभ्यो व्यसृजदायस्तः सूर्यरश्मिनिभान् प्रभुः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तब कुन्तीकुमार पाण्डुपुत्र भीमने अत्यन्त स्वच्छ धनुषको सुदृढ़ मुट्ठीसे वेगपूर्वक दबाकर उन सातों भाइयोंको साधारण मनुष्य जानकर उनके लिये धनुषपर सात बाणोंका संधान किया। सूर्यकिरणोंके समान उन चमकीले बाणोंको शक्तिशाली भीमने परिश्रमपूर्वक आपके उन पुत्रोंपर छोड़ दिया॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरस्यन्निव देहेभ्यस्तनयानामसूंस्तव ।
भीमसेनो महाराज पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥ २५ ॥
मूलम्
निरस्यन्निव देहेभ्यस्तनयानामसूंस्तव ।
भीमसेनो महाराज पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पहलेके वैरका बारंबार स्मरण करके भीमसेनने आपके पुत्रोंके प्राणोंको उनके शरीरोंसे निकालते हुए-से उन बाणोंका प्रहार किया था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते क्षिप्ता भीमसेनेन शरा भारत भारतान्।
विदार्य खं समुत्पेतुः स्वर्णपुङ्खाः शिलाशिताः ॥ २६ ॥
मूलम्
ते क्षिप्ता भीमसेनेन शरा भारत भारतान्।
विदार्य खं समुत्पेतुः स्वर्णपुङ्खाः शिलाशिताः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! भीमसेनके चलाये हुए वे बाण सुवर्णमय पंखोंसे सुशोभित तथा शिलापर तेज किये गये थे। वे आपके पुत्रोंको विदीर्ण करके आकाशमें उड़ चले॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां विदार्य चेतांसि शरा हेमविभूषिताः।
व्यराजन्त महाराज सुपर्णा इव खेचराः ॥ २७ ॥
मूलम्
तेषां विदार्य चेतांसि शरा हेमविभूषिताः।
व्यराजन्त महाराज सुपर्णा इव खेचराः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वे स्वर्णविभूषित बाण उन सातों भाइयोंके वक्षःस्थलको विदीर्ण करके आकाशमें विचरनेवाले गरुड़पक्षियोंके समान शोभा पाने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोणितादिग्धवाजाग्राः सप्त हेमपरिष्कृताः ।
पुत्राणां तव राजेन्द्र पीत्वा शोणितमुद्गताः ॥ २८ ॥
मूलम्
शोणितादिग्धवाजाग्राः सप्त हेमपरिष्कृताः ।
पुत्राणां तव राजेन्द्र पीत्वा शोणितमुद्गताः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वे सुवर्णभूषित सातों बाण आपके पुत्रोंका रक्त पीकर लाल हो ऊपरको उछले थे। उनके पंख और अग्रभागोंपर अधिक रक्त जम गया था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते शरैर्भिन्नमर्माणो रथेभ्यः प्रापतन् क्षितौ।
गिरिसानुरुहा भग्ना द्विपेनेव महाद्रुमाः ॥ २९ ॥
मूलम्
ते शरैर्भिन्नमर्माणो रथेभ्यः प्रापतन् क्षितौ।
गिरिसानुरुहा भग्ना द्विपेनेव महाद्रुमाः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन बाणोंसे मर्मस्थल विदीर्ण हो जानेके कारण वे सातों वीर रथोंसे पृथ्वीपर गिर पड़े, मानो किसी हाथीने पर्वतके शिखरपर खड़े हुए विशाल वृक्षोंको तोड़ गिराया हो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रुंजयः शत्रुसहश्चित्रश्चित्रायुधो दृढः ।
चित्रसेनो विकर्णश्च सप्तैते विनिपातिताः ॥ ३० ॥
मूलम्
शत्रुंजयः शत्रुसहश्चित्रश्चित्रायुधो दृढः ।
चित्रसेनो विकर्णश्च सप्तैते विनिपातिताः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुंजय1, शत्रुसह, चित्र (चित्रवाण), चित्रायुध (अग्रायुध), दृढ़ (दृढवर्मा), चित्रसेन (उग्रसेन) और विकर्ण—इन सातों भाइयोंको भीमसेनने मार गिराया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्राणां तव सर्वेषां निहतानां वृकोदरः।
शोचत्यतिभृशं दुःखाद् विकर्णं पाण्डवः प्रियम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
पुत्राणां तव सर्वेषां निहतानां वृकोदरः।
शोचत्यतिभृशं दुःखाद् विकर्णं पाण्डवः प्रियम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वहाँ मारे गये आपके सभी पुत्रोंमेंसे विकर्ण पाण्डवोंको अधिक प्रिय था। पाण्डुनन्दन भीमसेन उसके लिये अत्यन्त दुःखी होकर शोक करने लगे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिज्ञेयं मया वृत्ता निहन्तव्यास्तु संयुगे।
विकर्ण तेनासि हतः प्रतिज्ञा रक्षिता मया ॥ ३२ ॥
मूलम्
प्रतिज्ञेयं मया वृत्ता निहन्तव्यास्तु संयुगे।
विकर्ण तेनासि हतः प्रतिज्ञा रक्षिता मया ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बोले—‘विकर्ण! मैंने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि युद्धस्थलमें धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंको मार डालूँगा। इसीलिये तुम मेरे हाथसे मारे गये हो। ऐसा करके मैंने अपनी प्रतिज्ञाका पालन किया है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमागाः समरं वीर क्षात्रधर्ममनुस्मरन्।
ततो विनिहतः संख्ये युद्धधर्मो हि निष्ठुरः ॥ ३३ ॥
मूलम्
त्वमागाः समरं वीर क्षात्रधर्ममनुस्मरन्।
ततो विनिहतः संख्ये युद्धधर्मो हि निष्ठुरः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! तुम क्षत्रिय-धर्मका विचार करके समरभूमिमें आ गये। इसीलिये इस युद्धमें मारे गये; क्योंकि युद्धधर्म कठोर होता है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशेषतो हि नृपतेस्तथास्माकं हिते रतः।
न्यायतोऽन्यायतो वापि हतः शेते महाद्युतिः ॥ ३४ ॥
अगाधबुद्धिर्गाङ्गेयः क्षितौ सुरगुरोः समः।
त्याजितः समरे प्राणांस्तस्माद् युद्धं हि निष्ठुरम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
विशेषतो हि नृपतेस्तथास्माकं हिते रतः।
न्यायतोऽन्यायतो वापि हतः शेते महाद्युतिः ॥ ३४ ॥
अगाधबुद्धिर्गाङ्गेयः क्षितौ सुरगुरोः समः।
त्याजितः समरे प्राणांस्तस्माद् युद्धं हि निष्ठुरम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो विशेषतः राजा युधिष्ठिरके और हमारे हितमें तत्पर रहते थे, वे बृहस्पतिके समान अगाध बुद्धिवाले महातेजस्वी गंगानन्दन भीष्म भी न्याय अथवा अन्यायसे मारे जाकर समरभूमिमें सो रहे हैं और प्राणत्यागकी परिस्थितिमें डाल दिये गये हैं। इसीसे कहना पड़ता है कि युद्ध अत्यन्त निष्ठुर कर्म है’॥३४-३५॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् निहत्य महाबाहू राधेयस्यैव पश्यतः।
सिंहनादरवं घोरमसृजत् पाण्डुनन्दनः ॥ ३६ ॥
मूलम्
तान् निहत्य महाबाहू राधेयस्यैव पश्यतः।
सिंहनादरवं घोरमसृजत् पाण्डुनन्दनः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! राधानन्दन कर्णके देखते-देखते उन सातों भाइयोंको मारकर पाण्डुनन्दन महाबाहु भीमने भयंकर सिंहनाद किया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रवस्तस्य शूरस्य धर्मराजस्य भारत।
आचख्याविव तद् युद्धं विजयं चात्मनो महत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
स रवस्तस्य शूरस्य धर्मराजस्य भारत।
आचख्याविव तद् युद्धं विजयं चात्मनो महत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस सिंहनादने धर्मराज युधिष्ठिरको शूरवीर भीमके उस युद्धकी तथा अपनी महान् विजयकी मानो सूचना दे दी॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं श्रुत्वा तु महानादं भीमसेनस्य धन्विनः।
बभूव परमा प्रीतिर्धर्मराजस्य धीमतः ॥ ३८ ॥
मूलम्
तं श्रुत्वा तु महानादं भीमसेनस्य धन्विनः।
बभूव परमा प्रीतिर्धर्मराजस्य धीमतः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुर्धर भीमसेनके उस महानादको सुनकर बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरको बड़ी प्रसन्नता हुई॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हृष्टमना राजन् वादित्राणां महास्वनैः।
सिंहनादरवं भ्रातुः प्रतिजग्राह पाण्डवः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततो हृष्टमना राजन् वादित्राणां महास्वनैः।
सिंहनादरवं भ्रातुः प्रतिजग्राह पाण्डवः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब प्रसन्नचित्त होकर युधिष्ठिरने वाद्योंकी गम्भीर ध्वनिके द्वारा भाईके उस सिंहनादको स्वागतपूर्वक ग्रहण किया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्षेण महता युक्तः कृतसंज्ञो वृकोदरे।
अभ्ययात् समरे द्रोणं सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ४० ॥
मूलम्
हर्षेण महता युक्तः कृतसंज्ञो वृकोदरे।
अभ्ययात् समरे द्रोणं सर्वशस्त्रभृतां वरः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भीमसेनको अपनी प्रसन्नताका संकेत करके सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने बड़े हर्षके साथ रणभूमिमें द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकत्रिंशन्महाराज पुत्रांस्तव निपातितान् ।
हतान् दुर्योधनो दृष्ट्वा क्षत्तुः सस्मार तद् वचः ॥ ४१ ॥
मूलम्
एकत्रिंशन्महाराज पुत्रांस्तव निपातितान् ।
हतान् दुर्योधनो दृष्ट्वा क्षत्तुः सस्मार तद् वचः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! आपके इकतीस (दुःशलको लेकर बत्तीस) पुत्रोंको मारा गया देखकर दुर्योधनको विदुरजीकी कही हुई बात याद आ गयी॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं समनुप्राप्तं क्षत्तुर्निःश्रेयसं वचः।
इति संचिन्त्य ते पुत्रो नोत्तरं प्रत्यपद्यत ॥ ४२ ॥
मूलम्
तदिदं समनुप्राप्तं क्षत्तुर्निःश्रेयसं वचः।
इति संचिन्त्य ते पुत्रो नोत्तरं प्रत्यपद्यत ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजीने जो कल्याणकारी वचन कहा था, उसके अनुसार ही यह संकट प्राप्त हुआ है। ऐसा सोचकर आपके पुत्रसे कोई उत्तर देते न बना॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् द्यूतकाले दुर्बुद्धिरब्रवीत् तनयस्तव।
सभामानाय्य पाञ्चालीं कर्णेन सहितोऽल्पधीः ॥ ४३ ॥
यच्च कर्णोऽब्रवीत् कृष्णां सभायां परुषं वचः।
प्रमुखे पाण्डुपुत्राणां तव चैव विशाम्पते ॥ ४४ ॥
शृण्वतस्तव राजेन्द्र कौरवाणां च सर्वशः।
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः ॥ ४५ ॥
पतिमन्यं वृणीष्वेति तस्येदं फलमागतम्।
मूलम्
यद् द्यूतकाले दुर्बुद्धिरब्रवीत् तनयस्तव।
सभामानाय्य पाञ्चालीं कर्णेन सहितोऽल्पधीः ॥ ४३ ॥
यच्च कर्णोऽब्रवीत् कृष्णां सभायां परुषं वचः।
प्रमुखे पाण्डुपुत्राणां तव चैव विशाम्पते ॥ ४४ ॥
शृण्वतस्तव राजेन्द्र कौरवाणां च सर्वशः।
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः ॥ ४५ ॥
पतिमन्यं वृणीष्वेति तस्येदं फलमागतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
द्यूतके समय कर्णके साथ आपके मन्दमति पुत्र दुर्बुद्धि दुर्योधनने पांचालराजकुमारी द्रौपदीको सभामें बुलाकर उसके प्रति जो दुर्वचन कहा था तथा प्रजानाथ! महाराज! पाण्डवों और आपके सामने समस्त कौरवोंके सुनते हुए कर्णने सभामें द्रौपदीके प्रति जो यह कठोर वचन कहा था कि ‘कृष्णे! पाण्डव नष्ट हो गये। सदाके लिये नरकमें पड़ गये। तू दूसरा पति कर ले’, उसी अन्यायका आज यह फल प्राप्त हुआ है॥४३-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च षण्ढतिलादीनि परुषाणि तवात्मजैः।
श्रावितास्ते महात्मानः पाण्डवाः कोपयिष्णुभिः ॥ ४६ ॥
तं भीमसेनः क्रोधाग्निं त्रयोदश समाः स्थितम्।
उद्गिरंस्तव पुत्राणामन्तं गच्छति पाण्डवः ॥ ४७ ॥
मूलम्
यच्च षण्ढतिलादीनि परुषाणि तवात्मजैः।
श्रावितास्ते महात्मानः पाण्डवाः कोपयिष्णुभिः ॥ ४६ ॥
तं भीमसेनः क्रोधाग्निं त्रयोदश समाः स्थितम्।
उद्गिरंस्तव पुत्राणामन्तं गच्छति पाण्डवः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके पुत्रोंने जो पाण्डवोंको कुपित करनेके लिये षण्ढतिल (सारहीन तिल या नपुंसक) आदि कठोर बातें उन महामनस्वी पाण्डवोंको सुनायी थीं, उसके कारण पाण्डुपुत्र भीमसेनके हृदयमें तेरह वर्षोंतक जो क्रोधाग्नि धधकती रही है उसीको निकालते हुए भीमसेन आपके पुत्रोंका अन्त कर रहे हैं॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलपंश्च बहु क्षत्ता शमं नालभत त्वयि।
सपुत्रो भरतश्रेष्ठ तस्य भुङ्क्ष्व फलोदयम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
विलपंश्च बहु क्षत्ता शमं नालभत त्वयि।
सपुत्रो भरतश्रेष्ठ तस्य भुङ्क्ष्व फलोदयम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! विदुरजीने आपके समीप बहुत विलाप किया, परंतु उन्हें शान्तिकी भिक्षा नहीं प्राप्त हुई। आपके उसी अन्यायका यह फल प्रकट हुआ है। अब आप पुत्रोंसहित इसे भोगिये॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया वृद्धेन धीरेण कार्यतत्त्वार्थदर्शिना।
न कृतं सुहृदां वाक्यं दैवमत्र परायणम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
त्वया वृद्धेन धीरेण कार्यतत्त्वार्थदर्शिना।
न कृतं सुहृदां वाक्यं दैवमत्र परायणम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप वृद्ध हैं, धीर हैं, कार्यके तत्त्व और प्रयोजनको देखते और समझते हैं, तो भी आपने हितैषी सुहृदोंकी बातें नहीं मानीं। इसमें दैव ही प्रधान कारण है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्मा शुचो नरव्याघ्र तवैवापनयो महान्।
विनाशहेतुः पुत्राणां भवानेव मतो मम ॥ ५० ॥
मूलम्
तन्मा शुचो नरव्याघ्र तवैवापनयो महान्।
विनाशहेतुः पुत्राणां भवानेव मतो मम ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः नरश्रेष्ठ! आप शोक न कीजिये। इसमें आपका ही महान् अन्याय कारण है। मैं तो आपको ही आपके पुत्रोंके विनाशका मुख्य हेतु मानता हूँ॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतो विकर्णो राजेन्द्र चित्रसेनश्च वीर्यवान्।
प्रवराश्चात्मजानां ते सुताश्चान्ये महारथाः ॥ ५१ ॥
मूलम्
हतो विकर्णो राजेन्द्र चित्रसेनश्च वीर्यवान्।
प्रवराश्चात्मजानां ते सुताश्चान्ये महारथाः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! विकर्ण मारा गया। पराक्रमी चित्रसेनको भी प्राणोंका त्याग करना पड़ा। आपके पुत्रोंमें जो प्रमुख थे, वे तथा अन्य महारथी भी कालके गालमें चले गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानन्यान् ददृशे भीमश्चक्षुर्विषयमागतान् ।
पुत्रांस्तव महाराज त्वरया तान् जघान ह ॥ ५२ ॥
मूलम्
यानन्यान् ददृशे भीमश्चक्षुर्विषयमागतान् ।
पुत्रांस्तव महाराज त्वरया तान् जघान ह ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! भीमसेनने अपने नेत्रोंके सामने आये हुए जिन-जिन पुत्रोंको देखा, उन सबको तुरंत ही मार डाला॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्कृते ह्यहमद्राक्षं दह्यमानां वरूथिनीम्।
सहस्रशः शरैर्मुक्तैः पाण्डवेन वृषेण च ॥ ५३ ॥
मूलम्
त्वत्कृते ह्यहमद्राक्षं दह्यमानां वरूथिनीम्।
सहस्रशः शरैर्मुक्तैः पाण्डवेन वृषेण च ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके ही कारण मैंने भीमसेन और कर्णके छोड़े हुए हजारों बाणोंसे राजाओंकी विशाल सेना दग्ध होती देखी है॥५३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमयुद्धे सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेनयुद्धविषयक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३७॥
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किसी-किसी प्रतिमें शत्रुंजय और शत्रुसह—इन दो नामोंके स्थानमें क्रमशः ‘दृढसन्ध और ‘जरासन्ध’ नाम मिलते हैं। ↩︎