१३१ कर्णपराजये

भागसूचना

एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेनके द्वारा कर्णकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तमाने महाराज संग्रामे लोमहर्षणे।
व्याकुलेषु च सर्वेषु पीड्यमानेषु सर्वशः ॥ १ ॥
राधेयो भीममानर्च्छद् युद्धाय भरतर्षभ।
यथा नागो वने नागं मत्तो मत्तमभिद्रवन् ॥ २ ॥

मूलम्

वर्तमाने महाराज संग्रामे लोमहर्षणे।
व्याकुलेषु च सर्वेषु पीड्यमानेषु सर्वशः ॥ १ ॥
राधेयो भीममानर्च्छद् युद्धाय भरतर्षभ।
यथा नागो वने नागं मत्तो मत्तमभिद्रवन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— भरतश्रेष्ठ महाराज! इस प्रकार रोमांचकारी संग्राम छिड़ जानेपर जब सारी सेनाएँ सब ओरसे पीड़ित और व्याकुल हो गयीं तब राधानन्दन कर्ण युद्धके लिये पुनः भीमसेनके सामने आया। ठीक उसी तरह, जैसे वनमें एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत्त हाथीपर आक्रमण करता है॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यौ तौ कर्णश्च भीमश्च सम्प्रयुद्धौ महाबलौ।
अर्जुनस्य रथोपान्ते कीदृशः सोऽभवद् रणः ॥ ३ ॥

मूलम्

यौ तौ कर्णश्च भीमश्च सम्प्रयुद्धौ महाबलौ।
अर्जुनस्य रथोपान्ते कीदृशः सोऽभवद् रणः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! महाबली कर्ण और भीमसेनने अर्जुनके रथके निकट जाकर जो बड़े वेगसे युद्ध किया, उनका वह संग्राम कैसा हुआ?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं हि निर्जितः कर्णो भीमसेनेन संयुगे।
कथं भूयः स राधेयो भीममागान्महारथः ॥ ४ ॥

मूलम्

पूर्वं हि निर्जितः कर्णो भीमसेनेन संयुगे।
कथं भूयः स राधेयो भीममागान्महारथः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने युद्धमें जब राधानन्दन महारथी कर्णको पहले ही जीत लिया था, तब वह पुनः उनका सामना करनेके लिये कैसे आया?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमो वा सूततनयं प्रत्युद्यातः कथं रणे।
महारथं समाख्यातं पृथिव्यां प्रवरं रथम् ॥ ५ ॥

मूलम्

भीमो वा सूततनयं प्रत्युद्यातः कथं रणे।
महारथं समाख्यातं पृथिव्यां प्रवरं रथम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा भीमसेन भूमण्डलके श्रेष्ठ एवं विख्यात महारथी सूतपुत्र कर्णसे समरांगणमें युद्ध करनेके लिये कैसे आगे बढ़े?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मद्रोणावतिक्रम्य धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
नान्यतो भयमादत्त विना कर्णान्महारथात् ॥ ६ ॥

मूलम्

भीष्मद्रोणावतिक्रम्य धर्मराजो युधिष्ठिरः ।
नान्यतो भयमादत्त विना कर्णान्महारथात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म और द्रोणसे पार पाकर धर्मराज युधिष्ठिरको अब महारथी कर्णके सिवा दूसरे किसीसे भय नहीं रह गया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयाद् यस्य महाबाहोर्न शेते बहुलाः समाः।
चिन्तयन् नित्यशो वीर्यं राधेयस्य महात्मनः।
तं कथं सूतपुत्रं तु भीमोऽयोधयताहवे ॥ ७ ॥

मूलम्

भयाद् यस्य महाबाहोर्न शेते बहुलाः समाः।
चिन्तयन् नित्यशो वीर्यं राधेयस्य महात्मनः।
तं कथं सूतपुत्रं तु भीमोऽयोधयताहवे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले जिस महाबाहु महामना राधानन्दन कर्णके बल-पराक्रमका नित्य चिन्तन करते हुए राजा युधिष्ठिर भयके मारे बहुत वर्षोंतक नींद नहीं लेते थे, उसी सूतपुत्र कर्णके साथ भीमसेनने समरभूमिमें किस तरह युद्ध किया?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्यं वीर्यसम्पन्नं समरेष्वनिवर्तिनम् ।
कथं कर्णं युधां श्रेष्ठं योधयामास पाण्डवः ॥ ८ ॥

मूलम्

ब्रह्मण्यं वीर्यसम्पन्नं समरेष्वनिवर्तिनम् ।
कथं कर्णं युधां श्रेष्ठं योधयामास पाण्डवः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मणभक्त, पराक्रमसम्पन्न और समरभूमिमें कभी पीछे न हटनेवाला है, योद्धाओंमें श्रेष्ठ उस कर्णके साथ भीमसेनने किस प्रकार युद्ध किया?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यौ तौ समीयतुर्वीरौ वैकर्तनवृकोदरौ।
कथं तावत्र युध्येतां महाबलपराक्रमौ ॥ ९ ॥

मूलम्

यौ तौ समीयतुर्वीरौ वैकर्तनवृकोदरौ।
कथं तावत्र युध्येतां महाबलपराक्रमौ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वीर पहले आपसमें भिड़ चुके थे, वे ही महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न कर्ण और भीमसेन यहाँ पुनः कैसे युद्धमें प्रवृत्त हुए?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातृत्वं दर्शितं पूर्वं घृणी चापि स सूतजः।
कथं भीमेन युयुधे कुन्त्या वाक्यमनुस्मरन् ॥ १० ॥

मूलम्

भ्रातृत्वं दर्शितं पूर्वं घृणी चापि स सूतजः।
कथं भीमेन युयुधे कुन्त्या वाक्यमनुस्मरन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले तो सूतपुत्र कर्णने अर्जुनके सिवा अन्य पाण्डवोंके प्रति बन्धुत्व दिखाया था और वह दयालु भी है ही, तथापि कुन्तीके वचनोंको बारंबार स्मरण करते हुए भी उसने भीमसेनके साथ कैसे युद्ध किया?॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमो वा सूतपुत्रेण स्मरन् वैरं पुरा कृतम्।
अयुध्यत कथं शूरः कर्णेन सह संयुगे ॥ ११ ॥

मूलम्

भीमो वा सूतपुत्रेण स्मरन् वैरं पुरा कृतम्।
अयुध्यत कथं शूरः कर्णेन सह संयुगे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा शूरवीर भीमसेनने पहलेके किये हुए वैरका स्मरण करके सूतपुत्र कर्णके साथ उस रणक्षेत्रमें किस प्रकार युद्ध किया?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशास्ते च सदा सूत पुत्रो दुर्योधनो मम।
कर्णो जेष्यति संग्रामे समस्तान् पाण्डवानिति ॥ १२ ॥

मूलम्

आशास्ते च सदा सूत पुत्रो दुर्योधनो मम।
कर्णो जेष्यति संग्रामे समस्तान् पाण्डवानिति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! मेरा बेटा दुर्योधन सदा यही आशा करता है कि कर्ण संग्राममें समस्त पाण्डवोंको जीत लेगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयाशा यत्र पुत्रस्य मम मन्दस्य संयुगे।
स कथं भीमकर्माणं भीमसेनमयोधयत् ॥ १३ ॥

मूलम्

जयाशा यत्र पुत्रस्य मम मन्दस्य संयुगे।
स कथं भीमकर्माणं भीमसेनमयोधयत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धस्थलमें जिसके ऊपर मेरे मूर्ख पुत्रकी विजयकी आशा लगी हुई है, उस कर्णने भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनके साथ किस प्रकार युद्ध किया?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं समासाद्य पुत्रैर्मे कृतं वैरं महारथैः।
तं सूततनयं तात कथं भीमो ह्ययोधयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

यं समासाद्य पुत्रैर्मे कृतं वैरं महारथैः।
तं सूततनयं तात कथं भीमो ह्ययोधयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जिसका आश्रय लेकर मेरे पुत्रोंने महारथी पाण्डवोंके साथ वैर ठाना है, उस सूतपुत्र कर्णके साथ भीमसेनने किस प्रकार युद्ध किया?॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेकान् विप्रकारांश्च सूतपुत्रसमुद्भवान् ।
स्मरमाणः कथं भीमो युयुधे सूतसूनुना ॥ १५ ॥

मूलम्

अनेकान् विप्रकारांश्च सूतपुत्रसमुद्भवान् ।
स्मरमाणः कथं भीमो युयुधे सूतसूनुना ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतपुत्रके द्वारा किये गये अनेक अपकारोंको स्मरण करके भीमसेनने उसके साथ किस तरह युद्ध किया?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽजयत् पृथिवीं सर्वां रथेनैकेन वीर्यवान्।
तं सूततनयं युद्धे कथं भीमो ह्ययोधयत् ॥ १६ ॥

मूलम्

योऽजयत् पृथिवीं सर्वां रथेनैकेन वीर्यवान्।
तं सूततनयं युद्धे कथं भीमो ह्ययोधयत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस पराक्रमी वीरने एकमात्र रथकी सहायतासे सारी पृथ्वीको जीत लिया, उस सूतपुत्रके साथ रणभूमिमें भीमसेनने किस तरह युद्ध किया?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो जातः कुण्डलाभ्यां च कवचेन सहैव च।
तं सूतपुत्रं समरे भीमः कथमयोधयत् ॥ १७ ॥

मूलम्

यो जातः कुण्डलाभ्यां च कवचेन सहैव च।
तं सूतपुत्रं समरे भीमः कथमयोधयत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जन्मसे ही कवच और कुण्डलोंके साथ उत्पन्न हुआ था, उस सूतपुत्रके साथ समरांगणमें भीमसेनने किस प्रकार युद्ध किया?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा तयोर्युद्धमभूद् यश्चासीद् विजयी तयोः।
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन कुशलो ह्यसि संजय ॥ १८ ॥

मूलम्

यथा तयोर्युद्धमभूद् यश्चासीद् विजयी तयोः।
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन कुशलो ह्यसि संजय ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! उन दोनों वीरोंमें जिस प्रकार युद्ध हुआ और उनमेंसे जिस एकको विजय प्राप्त हुई, उसका वह सब समाचार मुझे ठीक-ठीक बताओ; क्योंकि तुम इस कार्यमें कुशल हो॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्तु राधेयमुस्तृज्य रथिनां वरम्।
इयेष गन्तुं यत्रास्तां वीरौ कृष्णधनंजयौ ॥ १९ ॥

मूलम्

भीमसेनस्तु राधेयमुस्तृज्य रथिनां वरम्।
इयेष गन्तुं यत्रास्तां वीरौ कृष्णधनंजयौ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! भीमसेनने रथियोंमें श्रेष्ठ राधापुत्र कर्णको छोड़कर वहाँ जानेकी इच्छा की जहाँ वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन विद्यमान थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रयान्तमभिद्रुत्य राधेयः कङ्कपत्रिभिः।
अभ्यवर्षन्महाराज मेघो वृष्ट्येव पर्वतम् ॥ २० ॥

मूलम्

तं प्रयान्तमभिद्रुत्य राधेयः कङ्कपत्रिभिः।
अभ्यवर्षन्महाराज मेघो वृष्ट्येव पर्वतम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वहाँसे जाते हुए भीमसेनपर आक्रमण करके राधापुत्र कर्णने उनके ऊपर कंकपत्रयुक्त बाणोंकी उसी प्रकार वर्षा आरम्भ कर दी, जैसे बादल पर्वतपर जलकी वर्षा करता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फुल्लता पङ्कजेनेव वक्त्रेण विहसन् बली।
आजुहाव रणे यान्तं भीममाधिरथिस्तदा ॥ २१ ॥

मूलम्

फुल्लता पङ्कजेनेव वक्त्रेण विहसन् बली।
आजुहाव रणे यान्तं भीममाधिरथिस्तदा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् अधिरथपुत्रने खिलते हुए कमलके समान मुखसे हँसकर जाते हुए भीमसेनको युद्धके लिये ललकारा॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमाहितैस्तव रणे स्वप्नेऽपि न विभावितम्।
तद् दर्शयसि कस्मान्मे पृष्ठं पार्थदिदृक्षया ॥ २२ ॥

मूलम्

भीमाहितैस्तव रणे स्वप्नेऽपि न विभावितम्।
तद् दर्शयसि कस्मान्मे पृष्ठं पार्थदिदृक्षया ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— भीमसेन! तुम्हारे शत्रुओंने स्वप्नमें भी यह नहीं सोचा था कि तुम युद्धमें पीठ दिखाओगे; परंतु इस समय अर्जुनसे मिलनेके लिये तुम मुझे पीठ क्यों दिखा रहे हो?॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्त्याः पुत्रस्य सदृशं नेदं पाण्डवनन्दन।
तेन मामभितः स्थित्वा शरवर्षैरवाकिर ॥ २३ ॥

मूलम्

कुन्त्याः पुत्रस्य सदृशं नेदं पाण्डवनन्दन।
तेन मामभितः स्थित्वा शरवर्षैरवाकिर ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवनन्दन! तुम्हारा यह कार्य कुन्तीके पुत्रके योग्य नहीं है। अतः मेरे सम्मुख रहकर मुझपर बाणोंकी वर्षा करो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्तदाह्वानं कर्णान्नामर्षयद् युधि ।
अर्धमण्डलमावृत्य सूतपुत्रमयोधयत् ॥ २४ ॥

मूलम्

भीमसेनस्तदाह्वानं कर्णान्नामर्षयद् युधि ।
अर्धमण्डलमावृत्य सूतपुत्रमयोधयत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णकी ओरसे रणक्षेत्रमें वह युद्धकी ललकार भीमसेन न सह सके। उन्होंने अर्धमण्डल गतिसे घूमकर सूतपुत्रके साथ युद्ध आरम्भ कर दिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवक्रगामिभिर्बाणैरभ्यवर्षन्महायशाः ।
दंशितं द्वैरथे यत्तं सर्वशस्त्रविशारदम् ॥ २५ ॥

मूलम्

अवक्रगामिभिर्बाणैरभ्यवर्षन्महायशाः ।
दंशितं द्वैरथे यत्तं सर्वशस्त्रविशारदम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महायशस्वी भीमसेन सम्पूर्ण शस्त्रोंके चलानेमें निपुण, कवचधारी तथा द्वैरथ युद्धके लिये तैयार कर्णके ऊपर सीधे जानेवाले बाणोंकी वर्षा करने लगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधित्सुः कलहस्यान्तं जिघांसुः कर्णमक्षिणोत्।
हत्वा तस्यानुगांस्तं च हन्तुकामो महाबलः ॥ २६ ॥

मूलम्

विधित्सुः कलहस्यान्तं जिघांसुः कर्णमक्षिणोत्।
हत्वा तस्यानुगांस्तं च हन्तुकामो महाबलः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलहका अन्त करनेकी इच्छासे महाबली भीमसेन कर्णको मार डालना चाहते थे और इसीलिये उसे बाणोंद्वारा क्षत-विक्षत कर रहे थे। वे कर्णको मारकर उसके अनुगामी सेवकोंका भी वध करनेकी इच्छा रखते थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै व्यसृजदुग्राणि विविधानि परंतपः।
अमर्षात् पाण्डवः क्रुद्धः शरवर्षाणि मारिष ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्मै व्यसृजदुग्राणि विविधानि परंतपः।
अमर्षात् पाण्डवः क्रुद्धः शरवर्षाणि मारिष ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! शत्रुओंको संताप देनेवाले पाण्डुनन्दन भीमसेन कुपित हो अमर्षवश कर्णपर नाना प्रकारके भयंकर बाणोंकी वर्षा करने लगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तानीषुवर्षाणि मत्तद्विरदगामिनः ।
सूतपुत्रोऽस्त्रमायाभिरग्रसत् परमास्त्रवित् ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्य तानीषुवर्षाणि मत्तद्विरदगामिनः ।
सूतपुत्रोऽस्त्रमायाभिरग्रसत् परमास्त्रवित् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम अस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाले सूतपुत्र कर्णने अपने अस्त्रोंकी मायासे मतवाले हाथीके समान मस्तीसे चलनेवाले भीमसेनकी उस बाण-वर्षाको ग्रस लिया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यथावन्महाबाहुर्विद्यया वै सुपूजितः।
आचार्यवन्महेष्वासः कर्णः पर्यचरद् बली ॥ २९ ॥

मूलम्

स यथावन्महाबाहुर्विद्यया वै सुपूजितः।
आचार्यवन्महेष्वासः कर्णः पर्यचरद् बली ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु महाधनुर्धर बलवान् कर्ण अपनी विद्याद्वारा आचार्य द्रोणके समान यथावत् पूजित हो रणक्षेत्रमें विचरने लगा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यमानं तु संरम्भाद् भीमसेनं हसन्निव।
अभ्यपद्यत कौन्तेयं कर्णो राजन् वृकोदरम् ॥ ३० ॥

मूलम्

युध्यमानं तु संरम्भाद् भीमसेनं हसन्निव।
अभ्यपद्यत कौन्तेयं कर्णो राजन् वृकोदरम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! क्रोधपूर्वक युद्ध करनेवाले कुन्तीपुत्र भीमसेनकी हँसी उड़ाता हुआ-सा कर्ण उनके सामने जा पहुँचा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्नामृष्यत कौन्तेयः कर्णस्य स्मितमाहवे।
युध्यमानेषु वीरेषु पश्यत्सु च समन्ततः ॥ ३१ ॥
तं भीमसेनः सम्प्राप्तं वत्सदन्तैः स्तनान्तरे।
विव्याध बलवान् क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

तन्नामृष्यत कौन्तेयः कर्णस्य स्मितमाहवे।
युध्यमानेषु वीरेषु पश्यत्सु च समन्ततः ॥ ३१ ॥
तं भीमसेनः सम्प्राप्तं वत्सदन्तैः स्तनान्तरे।
विव्याध बलवान् क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार भीम युद्धस्थलमें कर्णकी उस हँसीको न सह सके। सब ओर युद्ध करते हुए समस्त वीरोंको देखते-देखते बलवान् भीमसेनने कुपित हो सामने आये हुए कर्णकी छातीमें वत्सदन्त नामक बाणोंद्वारा उसी प्रकार चोट पहुँचायी, जैसे महावत महान् गजराजको अंकुशोंद्वारा पीड़ित करता है॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च सूतपुत्रं तु स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
सुमुक्तैश्चित्रवर्माणं निर्बिभेद त्रिसप्तभिः ॥ ३३ ॥

मूलम्

पुनश्च सूतपुत्रं तु स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
सुमुक्तैश्चित्रवर्माणं निर्बिभेद त्रिसप्तभिः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् विचित्र कवच धारण करनेवाले सूतपुत्रको सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले तथा अच्छी तरह छोड़े हुए इक्कीस बाणोंद्वारा पुनः क्षत-विक्षत कर दिया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णो जाम्बूनदैर्जालैः संछन्नान् वातरंहसः।
हयान् विव्याध भीमस्य पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः ॥ ३४ ॥

मूलम्

कर्णो जाम्बूनदैर्जालैः संछन्नान् वातरंहसः।
हयान् विव्याध भीमस्य पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर कर्णने भीमसेनके सोनेकी जालियोंसे आच्छादित हुए वायुके समान वेगशाली घोड़ोंको पाँच-पाँच बाणोंसे वेध दिया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो बाणमयं जालं भीमसेनरथं प्रति।
कर्णेन विहितं राजन् निमेषार्धाददृश्यत ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततो बाणमयं जालं भीमसेनरथं प्रति।
कर्णेन विहितं राजन् निमेषार्धाददृश्यत ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर आधे निमेषमें ही भीमसेनके रथपर कर्णद्वारा बाणोंका जाल-सा बिछाया जाता दिखायी दिया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरथः सध्वजस्तत्र समूतः पाण्डवस्तदा।
प्राच्छाद्यत महाराज कर्णचापच्युतैः शरैः ॥ ३६ ॥

मूलम्

सरथः सध्वजस्तत्र समूतः पाण्डवस्तदा।
प्राच्छाद्यत महाराज कर्णचापच्युतैः शरैः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वहाँ कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा उस समय रथ, ध्वज और सारथिसहित पाण्डुनन्दन भीमसेन आच्छादित हो गये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कर्णश्चतुःषष्ट्या व्यधमत् कवचं दृढम्।
क्रुद्धश्चाप्यहनत् पार्थं नाराचैर्मर्मभेदिभिः ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्य कर्णश्चतुःषष्ट्या व्यधमत् कवचं दृढम्।
क्रुद्धश्चाप्यहनत् पार्थं नाराचैर्मर्मभेदिभिः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने चौंसठ बाण मारकर भीमसेनके सुदृढ़ कवचकी धज्जियाँ उड़ा दीं। फिर कुपित होकर उसने मर्मभेदी नाराचोंसे कुन्तीकुमारको अच्छी तरह घायल किया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽचिन्त्य महाबाहुः कर्णकार्मुकनिःसृतान् ।
समाश्लिष्यदसम्भ्रान्तः सूतपुत्रं वृकोदरः ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततोऽचिन्त्य महाबाहुः कर्णकार्मुकनिःसृतान् ।
समाश्लिष्यदसम्भ्रान्तः सूतपुत्रं वृकोदरः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु भीमसेन कर्णके धनुषसे छूटे हुए उन बाणोंकी कोई परवा न करके बिना किसी घबराहटके सूतपुत्रके इतने समीप पहुँच गये, मानो उससे सटे जा रहे हों॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कर्णचापप्रभवानिषूनाशीविषोपमान् ।
बिभ्रद् भीमो महाराज न जगाम व्यथां रणे ॥ ३९ ॥

मूलम्

स कर्णचापप्रभवानिषूनाशीविषोपमान् ।
बिभ्रद् भीमो महाराज न जगाम व्यथां रणे ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कर्णके धनुषसे छूटे हुए विषधर सर्पके समान भयंकर बाणोंको अपने शरीरपर धारण करते हुए भीमसेन रणक्षेत्रमें व्यथित नहीं हुए॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्वात्रिंशता भल्लैर्निशितैस्तिग्मतेजनैः ।
विव्याध समरे कर्णं भीमसेनः प्रतापवान् ॥ ४० ॥

मूलम्

ततो द्वात्रिंशता भल्लैर्निशितैस्तिग्मतेजनैः ।
विव्याध समरे कर्णं भीमसेनः प्रतापवान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अच्छी तरह तेज किये हुए बत्तीस तीखे भल्लोंसे प्रतापी भीमसेनने समरांगणमें कर्णको भारी चोट पहुँचायी॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयत्नेनैव तं कर्णः शरैर्भृशमवाकिरत्।
भीमसेनं महाबाहुं सैन्धवस्य वधैषिणम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

अयत्नेनैव तं कर्णः शरैर्भृशमवाकिरत्।
भीमसेनं महाबाहुं सैन्धवस्य वधैषिणम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर कर्ण जयद्रथके वधकी इच्छावाले महाबाहु भीमसेनपर अनायास ही बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा करने लगा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदुपूर्वं तु राधेयो भीममाजावयोधयत्।
क्रोधपूर्वं तथा भीमः पूर्वं वैरमनुस्मरन् ॥ ४२ ॥

मूलम्

मृदुपूर्वं तु राधेयो भीममाजावयोधयत्।
क्रोधपूर्वं तथा भीमः पूर्वं वैरमनुस्मरन् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राधानन्दन कर्ण तो भीमसेनपर कोमल प्रहार करता हुआ रणभूमिमें उनके साथ युद्ध करता था; परंतु भीमसेन पहलेके वैरको बारंबार स्मरण करते हुए क्रोधपूर्वक उसके साथ जूझ रहे थे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भीमसेनो नामृष्यदवमानममर्षणः ।
स तस्मै व्यसृजत् तूर्णं शरवर्षममित्रहा ॥ ४३ ॥

मूलम्

तं भीमसेनो नामृष्यदवमानममर्षणः ।
स तस्मै व्यसृजत् तूर्णं शरवर्षममित्रहा ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका नाश करनेवाले अमर्षशील भीमसेन कर्णद्वारा दिखायी जानेवाली कोमलता या ढिलाईको अपने लिये अपमान समझकर उसे सह न सके। अतः उन्होंने भी तुरंत ही उसपर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते शराः प्रेषितास्तेन भीमसेनेन संयुगे।
निपेतुः सर्वतो वीरे कूजन्त इव पक्षिणः ॥ ४४ ॥

मूलम्

ते शराः प्रेषितास्तेन भीमसेनेन संयुगे।
निपेतुः सर्वतो वीरे कूजन्त इव पक्षिणः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धस्थलमें भीमसेनके द्वारा चलाये हुए वे बाण कूजते हुए पक्षियोंके समान वीर कर्णपर सब ओरसे पड़ने लगे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेमपुङ्खाः प्रसन्नाग्रा भीमसेनधनुश्च्युताः ।
प्राच्छादयंस्ते राधेयं शलभा इव पावकम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

हेमपुङ्खाः प्रसन्नाग्रा भीमसेनधनुश्च्युताः ।
प्राच्छादयंस्ते राधेयं शलभा इव पावकम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए चमचमाती हुई धारवाले सुवर्णमय पंखोंसे सुशोभित उन बाणोंने राधानन्दन कर्णको उसी प्रकार ढक दिया, जैसे पतिंगे आगको आच्छादित कर लेते हैं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णस्तु रथिनां श्रेष्ठश्छाद्यमानः समन्ततः।
राजन् व्यसृजदुग्राणि शरवर्षाणि भारत ॥ ४६ ॥

मूलम्

कर्णस्तु रथिनां श्रेष्ठश्छाद्यमानः समन्ततः।
राजन् व्यसृजदुग्राणि शरवर्षाणि भारत ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी नरेश! इस प्रकार सब ओरसे बाणोंद्वारा आच्छादित होते हुए रथियोंमें श्रेष्ठ कर्णने भी भीमपर भयंकर बाण-वर्षा आरम्भ कर दी॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तानशनिप्रख्यानिषून् समरशोभिनः ।
चिच्छेद बहुभिर्भल्लैरसम्प्राप्तान् वृकोदरः ॥ ४७ ॥

मूलम्

तस्य तानशनिप्रख्यानिषून् समरशोभिनः ।
चिच्छेद बहुभिर्भल्लैरसम्प्राप्तान् वृकोदरः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु समरभूमिमें शोभा पानेवाले कर्णके उन वज्रोपम बाणोंको भीमसेनने अपने पास आनेसे पहले ही बहुत-से भल्लोंद्वारा काट गिराया॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च शरवर्षेण च्छादयामास भारत।
कर्णो वैकर्तनो युद्धे भीमसेनमरिंदमः ॥ ४८ ॥

मूलम्

पुनश्च शरवर्षेण च्छादयामास भारत।
कर्णो वैकर्तनो युद्धे भीमसेनमरिंदमः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! शत्रुओंका दमन करनेवाले सूर्यपुत्र कर्णने युद्धमें पुनः बाण-वर्षा करके भीमसेनको ढक दिया॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र भारत भीमं तु दृष्टवन्तः स्म सायकैः।
समाचिततनुं संख्ये श्वाविधं शललैरिव ॥ ४९ ॥

मूलम्

तत्र भारत भीमं तु दृष्टवन्तः स्म सायकैः।
समाचिततनुं संख्ये श्वाविधं शललैरिव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय युद्धस्थलमें बाणोंसे चिने हुए शरीरवाले भीमसेनको सब लोगोंने कंटकोंसे युक्त साहीके समान देखा॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेमपुङ्खान् शिलाधौतान् कर्णचापच्युतान्‌ शरान्।
दधार समरे वीरः स्वरश्मीनिव रश्मिवान् ॥ ५० ॥

मूलम्

हेमपुङ्खान् शिलाधौतान् कर्णचापच्युतान्‌ शरान्।
दधार समरे वीरः स्वरश्मीनिव रश्मिवान् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर भीमसेनने कर्णके धनुषसे छूटे और शिलापर तेज किये हुए सुवर्णपंखयुक्त बाणोंको समरांगणमें अपने शरीरपर उसी प्रकार धारण किया था, जैसे अंशुमाली सूर्य अपने किरणोंको धारण करते हैं॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गो भीमसेनो व्यराजत ।
समृद्धकुसुमापीडो वसन्तेऽशोकवृक्षवत् ॥ ५१ ॥

मूलम्

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गो भीमसेनो व्यराजत ।
समृद्धकुसुमापीडो वसन्तेऽशोकवृक्षवत् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनका सारा शरीर खूनसे लथपथ हो रहा था। वे वसन्त-ऋतुमें खिले हुए अधिकाधिक पुष्पोंसे सम्पन्न अशोक वृक्षके समान सुशोभित हो रहे थे॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्तु भीमो महाबाहोः कर्णस्य चरितं रणे।
नामृष्यत महाबाहुः क्रोधादुद्‌वृत्तलोचनः ॥ ५२ ॥

मूलम्

तत्तु भीमो महाबाहोः कर्णस्य चरितं रणे।
नामृष्यत महाबाहुः क्रोधादुद्‌वृत्तलोचनः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु भीमसेन रणभूमिमें विशालबाहु कर्णके उस चरित्रको न सह सके। उस समय क्रोधसे उनके नेत्र घूमने लगे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कर्णं पञ्चविंशत्या नाराचानां समार्पयत्।
महीधरमिव श्वेतं गूढपादैर्विषोल्बणैः ॥ ५३ ॥

मूलम्

स कर्णं पञ्चविंशत्या नाराचानां समार्पयत्।
महीधरमिव श्वेतं गूढपादैर्विषोल्बणैः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने कर्णपर पचीस नाराच चलाये; उनके लगनेसे कर्ण छिपे हुए पैरोंवाले विषैले सर्पोंसे युक्त श्वेत पर्वतके समान जान पड़ता था॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरेव च विव्याध षड्भिरष्टाभिरेव च।
मर्मस्वमरविक्रान्तः सूतपुत्रं तनुत्यजम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

पुनरेव च विव्याध षड्भिरष्टाभिरेव च।
मर्मस्वमरविक्रान्तः सूतपुत्रं तनुत्यजम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर देवोपम पराक्रमी भीमने अपने शरीरकी परवा न करनेवाले सूतपुत्रको उसके मर्मस्थानोंमें छः और आठ बाण मारकर घायल कर दिया॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरन्येन बाणेन भीमसेनः प्रतापवान्।
चिच्छेद कार्मुकं तूर्णं कर्णस्य प्रहसन्निव ॥ ५५ ॥

मूलम्

पुनरन्येन बाणेन भीमसेनः प्रतापवान्।
चिच्छेद कार्मुकं तूर्णं कर्णस्य प्रहसन्निव ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद हँसते हुए-से प्रतापी भीमसेनने दूसरा बाण मारकर तुरंत ही कर्णके धनुषको काट दिया॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जघान चतुरश्चाश्वान् सूतं च त्वरितः शरैः।
नाराचैरर्करश्म्याभैः कर्णं विव्याध चोरसि ॥ ५६ ॥

मूलम्

जघान चतुरश्चाश्वान् सूतं च त्वरितः शरैः।
नाराचैरर्करश्म्याभैः कर्णं विव्याध चोरसि ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर शीघ्रतापूर्वक बाणोंका प्रहार करके उसके चारों घोड़ों और सारथिको भी मार डाला। साथ ही सूर्यकी किरणोंके समान तेजस्वी नाराचोंसे कर्णकी छातीमें भारी आघात किया॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते जग्मुर्धरणीमाशु कर्णं निर्भिद्य पत्रिणः।
यथा जलधरं भित्त्वा दिवाकरमरीचयः ॥ ५७ ॥

मूलम्

ते जग्मुर्धरणीमाशु कर्णं निर्भिद्य पत्रिणः।
यथा जलधरं भित्त्वा दिवाकरमरीचयः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्यकी किरणें बादलोंको भेदकर सब ओर फैल जाती हैं, उसी प्रकार भीमसेनके बाण कर्णके शरीरको छेदकर शीघ्र ही धरतीमें समा गये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वैक्लव्यं महत् प्राप्य छिन्नधन्वा शराहतः।
तथा पुरुषमानी स प्रत्यपायाद् रथान्तरम् ॥ ५८ ॥

मूलम्

स वैक्लव्यं महत् प्राप्य छिन्नधन्वा शराहतः।
तथा पुरुषमानी स प्रत्यपायाद् रथान्तरम् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि कर्णको अपने पुरुषत्वका बड़ा अभिमान था, तो भी भीमसेनके बाणोंसे घायल हो धनुष कट जानेपर रथहीन होनेके कारण वह बड़ी भारी घबराहटमें पड़ गया और दूसरे रथपर बैठनेके लिये वहाँसे भाग निकला॥५८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि कर्णपराजये एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें कर्णकी पराजयविषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३१॥