१२२ द्रोणपराक्रमे

भागसूचना

द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोणाचार्यका दुःशासनको फटकारना और द्रोणाचार्यके द्वारा वीरकेतु आदि पांचालोंका वध एवं उनका धृष्टद्युम्नके साथ घोर युद्ध, द्रोणाचार्यका मूर्च्छित होना, धृष्टद्युम्नका पलायन, आचार्यकी विजय

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासनरथं दृष्ट्वा समीपे पर्यवस्थितम्।
भारद्वाजस्ततो वाक्यं दुःशासनमथाब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

दुःशासनरथं दृष्ट्वा समीपे पर्यवस्थितम्।
भारद्वाजस्ततो वाक्यं दुःशासनमथाब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! दुःशासनके रथको अपने समीप खड़ा हुआ देख द्रोणाचार्य उससे इस प्रकार बोले—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासन रथाः सर्वे कस्माच्चैते प्रविद्रुताः।
कच्चित् क्षेमं तु नृपतेः कच्चिज्जीवति सैन्धवः ॥ २ ॥

मूलम्

दुःशासन रथाः सर्वे कस्माच्चैते प्रविद्रुताः।
कच्चित् क्षेमं तु नृपतेः कच्चिज्जीवति सैन्धवः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुःशासन! ये सारे रथी कहाँसे भागे आ रहे हैं? राजा दुर्योधन सकुशल तो हैं न? क्या सिंधुराज जयद्रथ अभी जीवित है?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपुत्रो भवानत्र राजभ्राता महारथः।
किमर्थं द्रवते युद्धे यौवराज्यमवाप्य हि ॥ ३ ॥

मूलम्

राजपुत्रो भवानत्र राजभ्राता महारथः।
किमर्थं द्रवते युद्धे यौवराज्यमवाप्य हि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम तो राजाके बेटे, राजाके भाई और महारथी वीर हो। युवराजका पद प्राप्त करके तुम इस युद्धस्थलमें किसलिये भागे फिरते हो?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दासी जितासि द्यूते त्वं यथाकामचरी भव।
वाससां वाहिका राज्ञो भ्रातुर्ज्येष्ठस्य मे भव ॥ ४ ॥

मूलम्

दासी जितासि द्यूते त्वं यथाकामचरी भव।
वाससां वाहिका राज्ञो भ्रातुर्ज्येष्ठस्य मे भव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुःशासन! तुमने द्रौपदीसे कहा था—‘अरी! तू जूएमें जीती हुई दासी है। अतः हमारी इच्छाके अनुसार आचरण करनेवाली हो जा। मेरे बड़े भाई राजा दुर्योधनकी वस्त्रवाहिका बन जा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सन्ति पतयः सर्वे तेऽद्य षण्ढतिलैः समा।
दुःशासनैवं कस्मात् त्वं पूर्वमुक्त्वा पलायसे ॥ ५ ॥

मूलम्

न सन्ति पतयः सर्वे तेऽद्य षण्ढतिलैः समा।
दुःशासनैवं कस्मात् त्वं पूर्वमुक्त्वा पलायसे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब तेरे सम्पूर्ण पति थोथे तिलोंके समान नहींके बराबर हो गये हैं।’ पहले ऐसी बातें कहकर अब तुम युद्धसे भाग क्यों रहे हो?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं वैरं महत् कृत्वा पञ्चालैः पाण्डवैः सह।
एकं सात्यकिमासाद्य कथं भीतोऽसि संयुगे ॥ ६ ॥

मूलम्

स्वयं वैरं महत् कृत्वा पञ्चालैः पाण्डवैः सह।
एकं सात्यकिमासाद्य कथं भीतोऽसि संयुगे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पांचालों और पाण्डवोंके साथ स्वयं ही बड़ा भारी वैर ठानकर युद्धस्थलमें अकेले सात्यकिका सामना करके कैसे भयभीत हो उठे हो?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जानीषे पुरा त्वं तु गृह्णन्नक्षान् दुरोदरे।
शरा ह्येते भविष्यन्ति दारुणाशीविषोपमाः ॥ ७ ॥

मूलम्

न जानीषे पुरा त्वं तु गृह्णन्नक्षान् दुरोदरे।
शरा ह्येते भविष्यन्ति दारुणाशीविषोपमाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या पहले तुम जूएमें पासे उठाते समय नहीं जानते थे कि ये एक दिन भयंकर विषधर सर्पोंके समान विनाशकारी बाण बन जायँगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रियाणां हि वचसां पाण्डवस्य विशेषतः।
द्रौपद्याश्च परिक्लेशस्त्वन्मूलो ह्यभवत् पुरा ॥ ८ ॥

मूलम्

अप्रियाणां हि वचसां पाण्डवस्य विशेषतः।
द्रौपद्याश्च परिक्लेशस्त्वन्मूलो ह्यभवत् पुरा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वकालमें विशेषतः पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको जो अप्रिय वचन सुनाये गये और द्रौपदीदेवीको जो कष्ट पहुँचाया गया, इन सबकी जड़ तुम्हीं रहे हो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व ते मानश्च दर्पश्च क्य ते वीर्यं क्व गर्जितम्।
आशीविषसमान् पार्थान् कोपयित्वा क्व यास्यसि ॥ ९ ॥

मूलम्

क्व ते मानश्च दर्पश्च क्य ते वीर्यं क्व गर्जितम्।
आशीविषसमान् पार्थान् कोपयित्वा क्व यास्यसि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहाँ गया तुम्हारा वह दर्प और अभिमान? कहाँ है तुम्हारा पराक्रम? और कहाँ गयी तुम्हारी गर्जना? विषैले सर्पोंके समान कुन्तीकुमारोंको कुपित करके कहाँ भागे जा रहे हो?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोच्येयं भारती सेना राज्यं चैव सुयोधनः।
यस्य त्वं कर्कशो भ्राता पलायनपरायणः ॥ १० ॥

मूलम्

शोच्येयं भारती सेना राज्यं चैव सुयोधनः।
यस्य त्वं कर्कशो भ्राता पलायनपरायणः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह कौरवी सेना, यह राज्य और इसका राजा दुर्योधन—ये सभी शोचनीय हो गये हैं; क्योंकि तुम राजाके क्रूरकर्मी भाई होकर आज युद्धमें पीठ दिखाकर भाग रहे हो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु नाम त्वया वीर दीर्यमाणा भयार्दिता।
स्वबाहुबलमास्थाय रक्षितव्या ह्यनीकिनी ॥ ११ ॥

मूलम्

ननु नाम त्वया वीर दीर्यमाणा भयार्दिता।
स्वबाहुबलमास्थाय रक्षितव्या ह्यनीकिनी ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! तुम्हें तो अपने बाहुबलका आश्रय लेकर इस भागती हुई भयभीत सेनाकी रक्षा करनी चाहिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वमद्य रणं हित्वा भीतो हर्षयसे परान्।
विद्रुते त्वयि सैन्यस्य नायके शत्रुसूदन ॥ १२ ॥
कोऽन्यः स्थास्यति संग्रामे भीतो भीते व्यपाश्रये।

मूलम्

स त्वमद्य रणं हित्वा भीतो हर्षयसे परान्।
विद्रुते त्वयि सैन्यस्य नायके शत्रुसूदन ॥ १२ ॥
कोऽन्यः स्थास्यति संग्रामे भीतो भीते व्यपाश्रये।

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु तुम आज युद्ध छोड़कर भयभीत हो उठे और शत्रुओंका हर्ष बढ़ा रहे हो। शत्रुसूदन! तुम तो सेनापति हो। तुम्हारे भागनेपर दूसरा कौन युद्धभूमिमें ठहर सकेगा? जब आश्रयदाता या रक्षक ही डर जाय, तब दूसरा क्यों न भयभीत होगा?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेन सात्वतेनाद्य युध्यमानस्य तेन वै ॥ १३ ॥
पलायने तव मतिः संग्रामाद्धि प्रवर्तते।
यदा गाण्डीवधन्वानं भीमसेनं च कौरव ॥ १४ ॥
यमौ वा युधि द्रष्टासि तदा त्वं किं करिष्यसि।

मूलम्

एकेन सात्वतेनाद्य युध्यमानस्य तेन वै ॥ १३ ॥
पलायने तव मतिः संग्रामाद्धि प्रवर्तते।
यदा गाण्डीवधन्वानं भीमसेनं च कौरव ॥ १४ ॥
यमौ वा युधि द्रष्टासि तदा त्वं किं करिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरव! अकेले सात्यकिके साथ युद्ध करते समय, जब आज तुम्हारी बुद्धि संग्रामसे पलायन करनेमें प्रवृत्त हो गयी, तुमने भागनेका विचार कर लिया, तब जिस समय तुम गाण्डीवधारी अर्जुन, भीमसेन अथवा नकुल-सहदेवको युद्धस्थलमें देखोगे, उस समय तुम क्या करोगे?॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधि फाल्गुनबाणानां सूर्याग्निसमवर्चसाम् ॥ १५ ॥
न तुल्याः सात्यकिशरा येषां भीतः पलायसे।

मूलम्

युधि फाल्गुनबाणानां सूर्याग्निसमवर्चसाम् ॥ १५ ॥
न तुल्याः सात्यकिशरा येषां भीतः पलायसे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘रणक्षेत्रमें अर्जुनके बाण सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी हैं। उनके समान सात्यकिके बाण नहीं हैं, जिनसे भयभीत होकर तुम भागे जा रहे हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वरितो वीर गच्छ त्वं गान्धार्युदरमाविश ॥ १६ ॥
पृथिव्यां धावमानस्य नान्यत् पश्यामि जीवनम्।

मूलम्

त्वरितो वीर गच्छ त्वं गान्धार्युदरमाविश ॥ १६ ॥
पृथिव्यां धावमानस्य नान्यत् पश्यामि जीवनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! जल्दी जाओ। अपनी माता गान्धारीदेवीके पेटमें घुस जाओ; अन्यथा इस भूतलपर दूसरा कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ भाग जानेसे मुझे तुम्हारे जीवनकी रक्षा दिखायी देती हो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि तावत् कृता बुद्धिः पलायनपरायणा ॥ १७ ॥
पृथिवी धर्मराजाय शमेनैव प्रदीयताम्।

मूलम्

यदि तावत् कृता बुद्धिः पलायनपरायणा ॥ १७ ॥
पृथिवी धर्मराजाय शमेनैव प्रदीयताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि तुमने भागनेका ही विचार कर लिया है, तब यह पृथ्वीका राज्य शान्तिपूर्वक ही धर्मराज युधिष्ठिरको सौंप दो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् फाल्गुननाराचा निर्मुक्तोरगसंनिभाः ॥ १८ ॥
नाविशन्ति शरीरं ते तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

मूलम्

यावत् फाल्गुननाराचा निर्मुक्तोरगसंनिभाः ॥ १८ ॥
नाविशन्ति शरीरं ते तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पोंके समान अर्जुनके बाण जबतक तुम्हारे शरीरमें नहीं घुस रहे हैं, तबतक ही तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् ते पृथिवीं पार्था हत्वा भ्रातृशतं रणे ॥ १९ ॥
नाक्षिपन्ति महात्मानस्तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

मूलम्

यावत् ते पृथिवीं पार्था हत्वा भ्रातृशतं रणे ॥ १९ ॥
नाक्षिपन्ति महात्मानस्तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामनस्वी कुन्तीकुमार जबतक तुम्हारे सौ भाइयोंको रणक्षेत्रमें मारकर यह सारी पृथ्वी तुमसे छीन नहीं लेते हैं, तभीतक तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्न क्रुद्ध्यते राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ २० ॥
कृष्णश्च समरश्लाघी तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

मूलम्

यावन्न क्रुद्ध्यते राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ २० ॥
कृष्णश्च समरश्लाघी तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जबतक धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर तथा युद्धकी प्रशंसा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण क्रोध नहीं करते हैं, तभीतक तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद् भीमो महाबाहुर्विगाह्य महतीं चमूम् ॥ २१ ॥
सोदरांस्ते न गृह्णाति तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

मूलम्

यावद् भीमो महाबाहुर्विगाह्य महतीं चमूम् ॥ २१ ॥
सोदरांस्ते न गृह्णाति तावत् संशाम्य पाण्डवैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जबतक महाबाहु भीमसेन विशाल कौरव-सेनामें घुसकर तुम्हारे सारे भाइयोंको दबोच नहीं लेते हैं, तभीतक तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वमुक्तश्च ते भ्राता भीष्मेणासौ सुयोधनः ॥ २२ ॥
अजेयाः पाण्डवाः संख्ये सौम्य संशाम्य तैः सह।
न च तत् कृतवान् मन्दस्तव भ्राता सुयोधनः ॥ २३ ॥

मूलम्

पूर्वमुक्तश्च ते भ्राता भीष्मेणासौ सुयोधनः ॥ २२ ॥
अजेयाः पाण्डवाः संख्ये सौम्य संशाम्य तैः सह।
न च तत् कृतवान् मन्दस्तव भ्राता सुयोधनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वकालमें भीष्मजीने तुम्हारे भाई दुर्योधनसे यह कहा था कि ‘सौम्य! पाण्डव युद्धमें अजेय हैं। तुम उनके साथ संधि कर लो।’ परंतु तुम्हारे मूर्ख भ्राता दुर्योधनने वह कार्य नहीं किया॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स युद्धे धृतिमास्थाय यत्तो युध्यस्व पाण्डवैः।
तवापि शोणितं भीमः पास्यतीति मया श्रुतम् ॥ २४ ॥
तच्चाप्यवितथं तस्य तत् तथैव भविष्यति।

मूलम्

स युद्धे धृतिमास्थाय यत्तो युध्यस्व पाण्डवैः।
तवापि शोणितं भीमः पास्यतीति मया श्रुतम् ॥ २४ ॥
तच्चाप्यवितथं तस्य तत् तथैव भविष्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः अब तुम रणक्षेत्रमें धैर्य धारण करके प्रयत्नपूर्वक पाण्डवोंके साथ युद्ध करो। मैंने सुना है भीमसेन तुम्हारा भी खून पीयेंगे। भीमसेनकी वह प्रतिज्ञा झूठी नहीं है। वह उसी रूपमें सत्य होगी॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं भीमस्य न जानासि विक्रमं त्वं सुबालिश ॥ २५ ॥
यत्त्वया वैरमारब्धं संयुगे प्रपलायिना।

मूलम्

किं भीमस्य न जानासि विक्रमं त्वं सुबालिश ॥ २५ ॥
यत्त्वया वैरमारब्धं संयुगे प्रपलायिना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ मूर्ख! क्या तुम भीमसेनके पराक्रमको नहीं जानते, जो तुमने उनके साथ वैर ठाना और अब युद्धसे भागे जा रहे हो?॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ तूर्णं रथेनैव यत्र तिष्ठति सात्यकिः ॥ २६ ॥
त्वया हीनं बलं ह्येतद् विद्रविष्यति भारत।
आत्मार्थं योधय रणे सात्यकिं सत्यविक्रमम् ॥ २७ ॥

मूलम्

गच्छ तूर्णं रथेनैव यत्र तिष्ठति सात्यकिः ॥ २६ ॥
त्वया हीनं बलं ह्येतद् विद्रविष्यति भारत।
आत्मार्थं योधय रणे सात्यकिं सत्यविक्रमम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! अब तुम शीघ्र ही इसी रथके द्वारा जहाँ सात्यकि खड़े हैं, वहाँ जाओ। तुम्हारे न रहनेसे यह सारी सेना भाग जायगी। तुम अपने लाभके लिये रणक्षेत्रमें सत्यपराक्रमी सात्यकिके साथ युद्ध करो’॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तव सुतो नाब्रवीत् किंचिदप्यसौ।
श्रुतं चाश्रुतवत् कृत्वा प्रायाद् येन स सात्यकिः ॥ २८ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तव सुतो नाब्रवीत् किंचिदप्यसौ।
श्रुतं चाश्रुतवत् कृत्वा प्रायाद् येन स सात्यकिः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके ऐसा कहनेपर आपका पुत्र दुःशासन कुछ भी नहीं बोला। वह उनकी सुनी हुई बातोंको भी अनसुनी-सी करके उसी मार्गपर चल दिया, जिससे सात्यकि गये थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैन्येन महता युक्तो म्लेच्छानामनिवर्तिनाम्।
आसाद्य च रणे यत्तो युयुधानमयोधयत् ॥ २९ ॥

मूलम्

सैन्येन महता युक्तो म्लेच्छानामनिवर्तिनाम्।
आसाद्य च रणे यत्तो युयुधानमयोधयत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने युद्धसे पीछे न हटनेवाले म्लेच्छोंकी विशाल सेनाके साथ समरांगणमें सात्यकिके पास पहुँचकर उनके साथ प्रयत्नपूर्वक युद्ध आरम्भ किया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणोऽपि रथिनां श्रेष्ठः पञ्चालान् पाण्डवांस्तथा।
अभ्यद्रवत संक्रुद्धो जवमास्थाय मध्यमम् ॥ ३० ॥

मूलम्

द्रोणोऽपि रथिनां श्रेष्ठः पञ्चालान् पाण्डवांस्तथा।
अभ्यद्रवत संक्रुद्धो जवमास्थाय मध्यमम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी क्रोधमें भरकर मध्यम वेगका आश्रय ले पांचालों और पाण्डवोंपर टूट पड़े॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्य च रणे द्रोणः पाण्डवानां वरूथिनीम्।
द्रावयामास योधान् वै शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३१ ॥

मूलम्

प्रविश्य च रणे द्रोणः पाण्डवानां वरूथिनीम्।
द्रावयामास योधान् वै शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें पाण्डवोंकी विशाल सेनामें प्रवेश करके उनके सैकड़ों और हजारों सैनिकोंको भगाने लगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणो महाराज नाम विश्राव्य संयुगे।
पाण्डुपाञ्चालमत्स्यानां प्रचक्रे कदनं महत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततो द्रोणो महाराज नाम विश्राव्य संयुगे।
पाण्डुपाञ्चालमत्स्यानां प्रचक्रे कदनं महत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय आचार्य द्रोण युद्धस्थलमें अपना नाम सुना-सुनाकर पाण्डव, पांचाल तथा मत्स्यदेशीय सैनिकोंका महान् संहार करने लगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं जयन्तमनीकानि भारद्वाजं ततस्ततः।
पाञ्चालपुत्रो द्युतिमान् वीरकेतुः समभ्ययात् ॥ ३३ ॥

मूलम्

तं जयन्तमनीकानि भारद्वाजं ततस्ततः।
पाञ्चालपुत्रो द्युतिमान् वीरकेतुः समभ्ययात् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर-उधर घूम-घूमकर समस्त सेनाओंको पराजित करते हुए द्रोणाचार्यका सामना करनेके लिये उस समय तेजस्वी पांचालराजकुमार वीरकेतु आया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स द्रोणं पञ्चभिर्विद्‌ध्वा शरैः संनतपर्वभिः।
ध्वजमेकेन विव्याध सारथिं चास्य सप्तभिः ॥ ३४ ॥

मूलम्

स द्रोणं पञ्चभिर्विद्‌ध्वा शरैः संनतपर्वभिः।
ध्वजमेकेन विव्याध सारथिं चास्य सप्तभिः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने झुकी हुई गाँठवाले पाँच बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको घायल करके एकसे उनके ध्वजको और सात बाणोंसे उनके सारथिको भी बेध दिया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतं महाराज दृष्टवानस्मि संयुगे।
यद द्रोणो रभसं युद्धे पाञ्चाल्यं नाभ्यवर्तत ॥ ३५ ॥

मूलम्

तत्राद्भुतं महाराज दृष्टवानस्मि संयुगे।
यद द्रोणो रभसं युद्धे पाञ्चाल्यं नाभ्यवर्तत ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस युद्धमें मैंने यह अद्भुत बात देखी कि द्रोणाचार्य उस वेगशाली पांचालराजकुमार वीरकेतुकी ओर बढ़ न सके॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संनिरुद्धं रणे द्रोणं पञ्चाला बीक्ष्य मारिष।
आवव्रुः सर्वतो राजन् धर्मपुत्रजयैषिणः ॥ ३६ ॥

मूलम्

संनिरुद्धं रणे द्रोणं पञ्चाला बीक्ष्य मारिष।
आवव्रुः सर्वतो राजन् धर्मपुत्रजयैषिणः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! द्रोणाचार्यको रणक्षेत्रमें अवरुद्ध हुआ देख धर्मपुत्रकी विजय चाहनेवाले पाञ्चालोंने सब ओरसे उन्हें घेर लिया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते शरैरग्निसंकाशैस्तोमरैश्च महाधनैः ।
शस्त्रैश्च विविधै राजन् द्रोणमेकमवाकिरन् ॥ ३७ ॥

मूलम्

ते शरैरग्निसंकाशैस्तोमरैश्च महाधनैः ।
शस्त्रैश्च विविधै राजन् द्रोणमेकमवाकिरन् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन्होंने अग्निके समान तेजस्वी बाणों, बहुमूल्य तोमरों तथा नाना प्रकारके शस्त्रोंकी वर्षा करके अकेले द्रोणाचार्यको ढक दिया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहत्य तान् बाणगणैर्द्रोणो राजन् समन्ततः।
महाजलधरान् व्योम्नि मातरिश्वेव चाबभौ ॥ ३८ ॥

मूलम्

निहत्य तान् बाणगणैर्द्रोणो राजन् समन्ततः।
महाजलधरान् व्योम्नि मातरिश्वेव चाबभौ ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! द्रोणाचार्यने अपने बाणसमूहोंद्वारा चारों ओरसे उन समस्त अस्त्र-शस्त्रोंके टुकड़े-टुकड़े करके आकाशमें महान् मेघोंकी घटाको छिन्न-भिन्न करनेके पश्चात् प्रवाहित होनेवाले वायुदेवके समान सुशोभित हो रहे थे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरं महाघोरं सूर्यपावकसंनिभम्।
संदधे परवीरघ्नो वीरकेतो रथं प्रति ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततः शरं महाघोरं सूर्यपावकसंनिभम्।
संदधे परवीरघ्नो वीरकेतो रथं प्रति ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले आचार्यने सूर्य और अग्निके समान अत्यन्त भयंकर बाणको धनुषपर रखा और उसे वीरकेतुके रथपर चला दिया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भित्त्वा तु शरो राजन् पाञ्चालकुलनन्दनम्।
अभ्यागाद् धरणीं तूर्णं लोहितार्द्रो ज्वलन्निव ॥ ४० ॥

मूलम्

स भित्त्वा तु शरो राजन् पाञ्चालकुलनन्दनम्।
अभ्यागाद् धरणीं तूर्णं लोहितार्द्रो ज्वलन्निव ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वह प्रज्वलित होता हुआ-सा बाण पांचाल-कुलनन्दन वीरकेतुको विदीर्ण करके खूनसे लथपथ हो तुरंत ही धरतीमें समा गया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपतद् रथात् तूर्णं पाञ्चालकुलनन्दनः।
पर्वताग्रादिव महांश्चम्पको वायुपीडितः ॥ ४१ ॥

मूलम्

ततोऽपतद् रथात् तूर्णं पाञ्चालकुलनन्दनः।
पर्वताग्रादिव महांश्चम्पको वायुपीडितः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो पांचालकुलको आनन्दित करनेवाला वह राजकुमार वायुसे टूटकर पर्वतके शिखरसे नीचे गिरनेवाले चम्पाके विशाल वृक्षके समान तुरंत रथसे नीचे गिर पड़ा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् हते महेष्वासे राजपुत्रे महाबले।
पञ्चालास्त्वरिता द्रोणं समन्तात् पर्यवारयन् ॥ ४२ ॥

मूलम्

तस्मिन् हते महेष्वासे राजपुत्रे महाबले।
पञ्चालास्त्वरिता द्रोणं समन्तात् पर्यवारयन् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् धनुर्धर महाबली राजकुमारके मारे जानेपर पांचालसैनिकोंने शीघ्र ही आकर द्रोणाचार्यको चारों ओरसे घेर लिया॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रकेतुः सुधन्वा च चित्रवर्मा च भारत।
तथा चित्ररथश्चैव भ्रातृव्यसनकर्शिताः ॥ ४३ ॥
अभ्यद्रवन्त सहिता भारद्वाजं युयुत्सवः।
मुञ्चन्तः शरवर्षाणि तपान्ते जलदा इव ॥ ४४ ॥

मूलम्

चित्रकेतुः सुधन्वा च चित्रवर्मा च भारत।
तथा चित्ररथश्चैव भ्रातृव्यसनकर्शिताः ॥ ४३ ॥
अभ्यद्रवन्त सहिता भारद्वाजं युयुत्सवः।
मुञ्चन्तः शरवर्षाणि तपान्ते जलदा इव ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! चित्रकेतु, सुधन्वा, चित्रवर्मा और चित्ररथ—ये चारों वीर अपने भाईकी मृत्युसे दुःखित हो युद्धकी इच्छा रखकर एक साथ ही द्रोणपर टूट पड़े और जिस प्रकार वर्षाकालमें मेघ पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे बाणोंकी वर्षा करने लगे॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वध्यमानो बहुधा राजपुत्रैर्महारथैः।
क्रोधमाहारयत् तेषामभावाय द्विजर्षभः ॥ ४५ ॥

मूलम्

स वध्यमानो बहुधा राजपुत्रैर्महारथैः।
क्रोधमाहारयत् तेषामभावाय द्विजर्षभः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महारथी राजकुमारोंद्वारा बारंबार घायल किये जानेपर द्विजश्रेष्ठ द्रोणने उनके विनाशके लिये महान् क्रोध प्रकट किया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरमयं जालं द्रोणस्तेषामवासृजत्।
ते हन्यमाना द्रोणस्य शरैराकर्णचोदितैः ॥ ४६ ॥
कर्तव्यं नाभ्यजानन् वै कुमारा राजसत्तम।

मूलम्

ततः शरमयं जालं द्रोणस्तेषामवासृजत्।
ते हन्यमाना द्रोणस्य शरैराकर्णचोदितैः ॥ ४६ ॥
कर्तव्यं नाभ्यजानन् वै कुमारा राजसत्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

तब द्रोणाचार्यने उनके ऊपर बाणोंका जाल-सा बिछा दिया। नृपश्रेष्ठ! द्रोणाचार्यके कानतक खींचकर छोड़े हुए उन बाणोंद्वारा घायल होकर वे राजकुमार यह भी न जान सके कि हमें क्या करना चाहिये?॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् विमूढान् रणे द्रोणः प्रहसन्निव भारत ॥ ४७ ॥
व्यश्वसूतरथांश्चक्रे कुमारान् कुपितो रणे।

मूलम्

तान् विमूढान् रणे द्रोणः प्रहसन्निव भारत ॥ ४७ ॥
व्यश्वसूतरथांश्चक्रे कुमारान् कुपितो रणे।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! रणक्षेत्रमें कुपित हुए द्रोणाचार्यने हँसते हुए-से अपने बाणोंद्वारा उन किंकर्तव्यविमूढ़ राजकुमारोंको घोड़े, सारथि तथा रथसे हीन कर दिया॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापरैः सुनिशितैर्भल्लैस्तेषां महायशाः ॥ ४८ ॥
पुष्पाणीव विचिन्वन् हि सोत्तमाङ्गान्यपातयत्।

मूलम्

अथापरैः सुनिशितैर्भल्लैस्तेषां महायशाः ॥ ४८ ॥
पुष्पाणीव विचिन्वन् हि सोत्तमाङ्गान्यपातयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् दूसरे तेज धारवाले भल्लोंसे महायशस्वी द्रोणने उन राजकुमारोंके मस्तक उसी प्रकार काट गिराये, मानो वृक्षोंसे फूल चुन लिये हों॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते रथेभ्यो हताः पेतुः क्षितौ राजन् सुवर्चसः ॥ ४९ ॥
देवासुरे पुरा युद्धे यथा दैतेयदानवाः।

मूलम्

ते रथेभ्यो हताः पेतुः क्षितौ राजन् सुवर्चसः ॥ ४९ ॥
देवासुरे पुरा युद्धे यथा दैतेयदानवाः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे पूर्वकालके देवासुर-संग्राममें दैत्य और दानव धराशायी हुए थे, उसी प्रकार वे सुन्दर कान्तिवाले राजकुमार मारे जाकर उस समय रथोंसे पृथ्वीपर गिर पड़े॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् निहत्य रणे राजन् भारद्वाजः प्रतापवान् ॥ ५० ॥
कार्मुकं भ्रामयामास हेमपृष्ठं दुरासदम्।
(तदस्य भ्राजते राजन् मेघमध्ये तडिद् यथा॥)

मूलम्

तान् निहत्य रणे राजन् भारद्वाजः प्रतापवान् ॥ ५० ॥
कार्मुकं भ्रामयामास हेमपृष्ठं दुरासदम्।
(तदस्य भ्राजते राजन् मेघमध्ये तडिद् यथा॥)

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! प्रतापी द्रोणने युद्धस्थलमें उन राजकुमारोंका वध करके सुवर्णमय पृष्ठभागवाले दुर्जय धनुषको घुमाना आरम्भ किया। राजन्! उस समय वह धनुष मेघोंकी घटामें बिजलीके समान प्रकाशित हो रहा था॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चालान् निहतान्‌ दृष्ट्वा देवकल्पान् महारथान् ॥ ५१ ॥
धृष्टद्युम्नो भृशोद्विग्नो नेत्राभ्यां पातयन् जलम्।
अभ्यवर्तत संग्रामे क्रुद्धो द्रोणरथं प्रति ॥ ५२ ॥

मूलम्

पञ्चालान् निहतान्‌ दृष्ट्वा देवकल्पान् महारथान् ॥ ५१ ॥
धृष्टद्युम्नो भृशोद्विग्नो नेत्राभ्यां पातयन् जलम्।
अभ्यवर्तत संग्रामे क्रुद्धो द्रोणरथं प्रति ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके समान तेजस्वी पांचाल महारथियोंको मारा गया देख धृष्टद्युम्न अत्यन्त उद्विग्न हो नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए कुपित हो उठे और संग्रामभूमिमें द्रोणाचार्यके रथकी ओर बढ़े॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो हाहेति सहसा नादः समभवन्नृप।
पाञ्चाल्येन रणे दृष्ट्वा द्रोणमावारितं शरैः ॥ ५३ ॥

मूलम्

ततो हाहेति सहसा नादः समभवन्नृप।
पाञ्चाल्येन रणे दृष्ट्वा द्रोणमावारितं शरैः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! रणक्षेत्रमें धृष्टद्युम्नके बाणोंसे द्रोणाचार्यकी गति अवरुद्ध हुई देख (कौरव-सेनामें) सहसा हाहाकार मच गया॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च्छाद्यमानो बहुधा पार्षतेन महात्मना।
न विव्यथे ततो द्रोणः स्मयन्नेवान्वयुध्यत ॥ ५४ ॥

मूलम्

स च्छाद्यमानो बहुधा पार्षतेन महात्मना।
न विव्यथे ततो द्रोणः स्मयन्नेवान्वयुध्यत ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना धृष्टद्युम्नके द्वारा बाणोंसे आच्छादित किये जानेपर भी द्रोणाचार्यको तनिक भी व्यथा नहीं हुई। वे मुसकराते हुए ही युद्धमें संलग्न रहे॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणं महाराज पाञ्चाल्यः क्रोधमूर्च्छितः।
आजघानोरसि क्रुद्धो नवत्या नतपर्वणाम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

ततो द्रोणं महाराज पाञ्चाल्यः क्रोधमूर्च्छितः।
आजघानोरसि क्रुद्धो नवत्या नतपर्वणाम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तत्पश्चात् धृष्टद्युम्नने क्रोधसे अचेत होकर झुकी हुई गाँठवाले नब्बे बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यकी छातीमें प्रहार किया॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गाढविद्धो बलिना भारद्वाजो महायशाः।
निषसाद रथोपस्थे कश्मलं च जगाम ह ॥ ५६ ॥

मूलम्

स गाढविद्धो बलिना भारद्वाजो महायशाः।
निषसाद रथोपस्थे कश्मलं च जगाम ह ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् वीर धृष्टद्युम्नके द्वारा गहरी चोट पहुँचायी जानेपर महायशस्वी द्रोणाचार्य रथके पिछले भागमें बैठ गये और मूर्च्छित हो गये॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं वै तथागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नः पराक्रमी।
चापमुत्यृज्य शीघ्रं तु असिं जग्राह वीर्यवान् ॥ ५७ ॥

मूलम्

तं वै तथागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नः पराक्रमी।
चापमुत्यृज्य शीघ्रं तु असिं जग्राह वीर्यवान् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनको उस अवस्थामें देखकर बल और पराक्रमसे सम्पन्न धृष्टद्युम्नने धनुष रख दिया और तुरंत ही तलवार हाथमें ले ली॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवप्लुत्य रथाच्चापि त्वरितः स महारथः।
आरुरोह रथं तूर्णं भारद्वाजस्य मारिष ॥ ५८ ॥

मूलम्

अवप्लुत्य रथाच्चापि त्वरितः स महारथः।
आरुरोह रथं तूर्णं भारद्वाजस्य मारिष ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! महारथी धृष्टद्युम्न शीघ्र ही अपने रथसे कूदकर द्रोणाचार्यके रथपर जा चढ़े॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्तुमिच्छन् शिरः कायात् क्रोधसंरक्तलोचनः।
प्रत्याश्वस्तस्ततो द्रोणो धनुर्गृह्य महारवम् ॥ ५९ ॥
आसन्नमागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नं जिघांसया।
शरैर्वैतस्तिकै राजन् विव्याधासन्नवेधिभिः ॥ ६० ॥

मूलम्

हर्तुमिच्छन् शिरः कायात् क्रोधसंरक्तलोचनः।
प्रत्याश्वस्तस्ततो द्रोणो धनुर्गृह्य महारवम् ॥ ५९ ॥
आसन्नमागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नं जिघांसया।
शरैर्वैतस्तिकै राजन् विव्याधासन्नवेधिभिः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे क्रोधसे लाल आँखें करके द्रोणाचार्यके सिरको धड़से अलग कर देना चाहते थे। इसी समय द्रोणाचार्य होशमें आ गये और उन्होंने अपनेको मार डालनेकी इच्छासे धृष्टद्युम्नको निकट आया देख महान् टंकार करनेवाले अपने धनुषको हाथमें लेकर निकटसे वेधनेवाले बित्ते बराबर बाणोंद्वारा उन्हें घायल कर दिया॥५९-६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योधयामास समरे धृष्टद्युम्नं महारथम्।
ते हि वैतस्तिका नाम शरा आसन्नयोधिनः ॥ ६१ ॥
द्रोणस्य विहिता राजन् यैर्धृष्टद्युम्नमाक्षिणोत्।

मूलम्

योधयामास समरे धृष्टद्युम्नं महारथम्।
ते हि वैतस्तिका नाम शरा आसन्नयोधिनः ॥ ६१ ॥
द्रोणस्य विहिता राजन् यैर्धृष्टद्युम्नमाक्षिणोत्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आचार्य समरांगणमें महारथी धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध करने लगे। निकटसे युद्ध करनेवाले द्रोणाचार्यके पास उन्हींके बनाये हुए वैतस्तिक नामक बाण थे, जिनके द्वारा उन्होंने धृष्टद्युम्नको क्षत-विक्षत कर दिया॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वध्यमानो बहुभिः सायकैस्तैर्महाबलः ॥ ६२ ॥
अवप्लुत्य रथात् तूर्णं भग्नवेगः पराक्रमी।
आरुह्य स्वरथं वीरः प्रगृह्य च महद् धनुः ॥ ६३ ॥
विव्याध समरे द्रोणं धृष्टद्युम्नो महारथः।
द्रोणश्चापि महाराज शरैर्विव्याध पार्षतम् ॥ ६४ ॥

मूलम्

स वध्यमानो बहुभिः सायकैस्तैर्महाबलः ॥ ६२ ॥
अवप्लुत्य रथात् तूर्णं भग्नवेगः पराक्रमी।
आरुह्य स्वरथं वीरः प्रगृह्य च महद् धनुः ॥ ६३ ॥
विव्याध समरे द्रोणं धृष्टद्युम्नो महारथः।
द्रोणश्चापि महाराज शरैर्विव्याध पार्षतम् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली और पराक्रमी धृष्टद्युम्न उन बहुसंख्यक बाणोंद्वारा घायल होकर अपना वेग भंग हो जानेके कारण उस रथसे कूद पड़े और पुनः अपने रथपर आरूढ़ हो वे वीर महारथी धृष्टद्युम्न महान् धनुष हाथमें लेकर समरांगणमें द्रोणाचार्यको वेधने लगे। महाराज! द्रोणाचार्यने भी अपने बाणोंद्वारा द्रुपदपुत्रको घायल कर दिया॥६२—६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्भुतमभूद् युद्धं द्रोणपाञ्चालयोस्तदा ।
त्रैलोक्यकाङ्क्षिणोरासीच्छक्रप्रह्लादयोरिव ॥ ६५ ॥

मूलम्

तदद्भुतमभूद् युद्धं द्रोणपाञ्चालयोस्तदा ।
त्रैलोक्यकाङ्क्षिणोरासीच्छक्रप्रह्लादयोरिव ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे त्रिलोकीके राज्यकी इच्छा रखनेवाले इन्द्र और प्रह्लादमें परस्पर युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उस समय द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्नमें अत्यन्त अद्भुत युद्ध होने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मण्डलानि विचित्राणि यमकानीतराणि च।
चरन्तौ युद्धमार्गज्ञौ ततक्षतुरथेषुभिः ॥ ६६ ॥

मूलम्

मण्डलानि विचित्राणि यमकानीतराणि च।
चरन्तौ युद्धमार्गज्ञौ ततक्षतुरथेषुभिः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों ही युद्धकी प्रणालीके ज्ञाता थे। अतः विचित्र मण्डल, यमक तथा अन्य प्रकारके मार्गोंका प्रदर्शन करते हुए एक-दूसरेको बाणोंसे क्षत-विक्षत करने लगे॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहयन्तौ मनांस्याजौ योधानां द्रोणपार्षतौ।
सृजन्तौ शरवर्षाणि वर्षास्विव बलाहकौ ॥ ६७ ॥

मूलम्

मोहयन्तौ मनांस्याजौ योधानां द्रोणपार्षतौ।
सृजन्तौ शरवर्षाणि वर्षास्विव बलाहकौ ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षाकालके दो मेघोंके समान बाण-वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न युद्धस्थलमें सम्पूर्ण योद्धाओंके मन मोहने लगे॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छादयन्तौ महात्मानौ शरैर्व्योम दिशो महीम्।
तदद्भुतं तयोर्युद्धं भूतसङ्घा ह्यपूजयन् ॥ ६८ ॥

मूलम्

छादयन्तौ महात्मानौ शरैर्व्योम दिशो महीम्।
तदद्भुतं तयोर्युद्धं भूतसङ्घा ह्यपूजयन् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों महामनस्वी वीर अपने बाणोंद्वारा आकाश, दिशाओं तथा पृथ्वीको आच्छादित करने लगे। उन दोनोंके उस अद्भुत युद्धकी सभी प्राणियोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियाश्च महाराज ये चान्ये तव सैनिकाः।
अवश्यं समरे द्रोणो धृष्टद्युम्नेन सङ्गतः ॥ ६९ ॥
वशमेष्यति नो राजन् पञ्चाला इति चुक्रुशुः।

मूलम्

क्षत्रियाश्च महाराज ये चान्ये तव सैनिकाः।
अवश्यं समरे द्रोणो धृष्टद्युम्नेन सङ्गतः ॥ ६९ ॥
वशमेष्यति नो राजन् पञ्चाला इति चुक्रुशुः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सभी क्षत्रियों तथा आपके अन्य सैनिकोंने भी उन दोनोंके युद्धकी प्रशंसा की। राजन्! पांचालयोद्धा यों कहकर कोलाहल करने लगे कि द्रोणाचार्य समरांगणमें धृष्टद्युम्नके साथ उलझे हुए हैं। वे अवश्य ही हमारे अधीन हो जायँगे॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणस्तु त्वरितो युद्धे धृष्टद्युम्नस्य सारथेः ॥ ७० ॥
शिरः प्रच्यावयामास फलं पक्वं तरोरिव।

मूलम्

द्रोणस्तु त्वरितो युद्धे धृष्टद्युम्नस्य सारथेः ॥ ७० ॥
शिरः प्रच्यावयामास फलं पक्वं तरोरिव।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय द्रोणने युद्धमें बड़ी उतावलीके साथ धृष्टद्युम्नके सारथिका सिर वृक्षके पके हुए फलके समान धड़से नीचे गिरा दिया॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु प्रद्रुता वाहा राजंस्तस्य महात्मनः ॥ ७१ ॥
तेषु प्रद्रवमाणेषु पञ्चालान् सृञ्जयांस्तथा।
अयोधयद् रणे द्रोणस्तत्र तत्र पराक्रमी ॥ ७२ ॥

मूलम्

ततस्तु प्रद्रुता वाहा राजंस्तस्य महात्मनः ॥ ७१ ॥
तेषु प्रद्रवमाणेषु पञ्चालान् सृञ्जयांस्तथा।
अयोधयद् रणे द्रोणस्तत्र तत्र पराक्रमी ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फिर तो महामना धृष्टद्युम्नके घोड़े भाग चले। उनके भाग जानेपर पराक्रमी द्रोणाचार्य रणभूमिमें सब ओर घूम-घूमकर पांचालों और सृंजयोंके साथ युद्ध करने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजित्य पाण्डुपञ्चालान् भारद्वाजः प्रतापवान्।
स्वं व्यूहं पुनरास्थाय स्थितोऽभवदरिंदमः।
न चैनं पाण्डवा युद्धे जेतुमुत्सेहिरे प्रभो ॥ ७३ ॥

मूलम्

विजित्य पाण्डुपञ्चालान् भारद्वाजः प्रतापवान्।
स्वं व्यूहं पुनरास्थाय स्थितोऽभवदरिंदमः।
न चैनं पाण्डवा युद्धे जेतुमुत्सेहिरे प्रभो ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शत्रुओंका दमन करनेवाले प्रतापी द्रोणाचार्य पाण्डवों और पांचालोंको पराजित करके पुनः अपने व्यूहमें आकर खड़े हो गये। प्रभो! उस समय पाण्डव-सैनिक युद्धमें उन्हें जीतनेका साहस न कर सके॥७३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे द्रोणपराक्रमे द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका प्रवेश और द्रोणाचार्यका पराक्रमविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ७३ श्लोक हैं।)