११९ यवनपराजये

भागसूचना

एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सात्यकि और उनके सारथिका संवाद तथा सात्यकिद्वारा काम्बोजों और यवन आदिकी सेनाकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स सात्यकिर्धीमान् महात्मा वृष्णिपुङ्गवः।
सुदर्शनं निहत्याजौ यन्तारं पुनरब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

ततः स सात्यकिर्धीमान् महात्मा वृष्णिपुङ्गवः।
सुदर्शनं निहत्याजौ यन्तारं पुनरब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर वृष्णिवंशावतंस बुद्धिमान् महामनस्वी सात्यकिने युद्धमें सुदर्शनको मारकर सारथिसे फिर इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथाश्वनागकलिलं शरशक्त्यूर्मिमालिनम् ।
खड्गमत्स्यं गदाग्राहं शूरायुधमहास्वनम् ॥ २ ॥
प्राणापहारिणं रौद्रं वादित्रोत्क्रुष्टनादितम् ।
योधानामसुखस्पर्शं दुर्धर्षमजयैषिणाम् ॥ ३ ॥
तीर्णाः स्म दुस्तरं तात द्रोणानीकमहार्णवम्।
जलसंधबलेनाजौ पुरुषादैरिवावृतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

रथाश्वनागकलिलं शरशक्त्यूर्मिमालिनम् ।
खड्गमत्स्यं गदाग्राहं शूरायुधमहास्वनम् ॥ २ ॥
प्राणापहारिणं रौद्रं वादित्रोत्क्रुष्टनादितम् ।
योधानामसुखस्पर्शं दुर्धर्षमजयैषिणाम् ॥ ३ ॥
तीर्णाः स्म दुस्तरं तात द्रोणानीकमहार्णवम्।
जलसंधबलेनाजौ पुरुषादैरिवावृतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! रथ, घोड़े और हाथियोंसे भरी हुई द्रोणाचार्यकी सेना महासागरके समान थी। उसमें बाण और शक्ति आदि अस्त्र-शस्त्र तरंगमालाओंके समान प्रतीत होते थे। खड्ग मत्स्यके समान और गदा ग्राहके तुल्य थी। शूरवीरोंके आयुधोंके प्रहारसे जो महान् शब्द होता था, वही मानो महासागरका भयानक गर्जन था। बाजे बजानेकी ध्वनि और वीरोंके ललकारनेकी आवाजसे उस गर्जनका स्वर और भी बढ़ा हुआ था। योद्धाओंके लिये उसका स्पर्श अत्यन्त दुःखदायक था। जो विजयकी अभिलाषा नहीं रखते, ऐसे लोगोंके लिये वह प्राणनाशक भयंकर सैन्य-समुद्र दुर्धर्ष था। युद्धस्थलमें खड़ी हुई जलसंधकी सेनाने उसे राक्षसोंके समान घेर रखा था। उस दुस्तर सेना-सागरसे हमलोग पार हो गये हैं॥२—४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽन्यत् पृतनाशेषं मन्ये कुनदिकामिव।
तर्तव्यामल्पसलिलां चोदयाश्वानसम्भ्रमम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अतोऽन्यत् पृतनाशेषं मन्ये कुनदिकामिव।
तर्तव्यामल्पसलिलां चोदयाश्वानसम्भ्रमम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उससे भिन्न जो शेष सेना है, उसे मैं सुगमता-पूर्वक लाँघनेयोग्य थोड़े जलवाली छोटी नदीके समान समझता हूँ। अतः तुम निर्भय होकर घोड़ोंको आगे बढ़ाओ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तप्राप्तमहं मन्ये साम्प्रतं सव्यसाचिनम्।
निर्जित्य दुर्धरं द्रोणं सपदानुगमाहवे ॥ ६ ॥

मूलम्

हस्तप्राप्तमहं मन्ये साम्प्रतं सव्यसाचिनम्।
निर्जित्य दुर्धरं द्रोणं सपदानुगमाहवे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सेवकोंसहित दुर्धर्ष वीर द्रोणाचार्यको युद्धस्थलमें जीतकर मैं ऐसा मानता हूँ कि इस समय सव्यसाची अर्जुन हमारे हाथमें ही आ गये हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हार्दिक्यं योधवर्यं च मन्ये प्राप्तं धनंजयम्।
न हि मे जायते त्रासो दृष्ट्वा सैन्यान्यनेकशः ॥ ७ ॥
वह्नेरिव प्रदीप्तस्य वने शुष्कतृणोलपे।

मूलम्

हार्दिक्यं योधवर्यं च मन्ये प्राप्तं धनंजयम्।
न हि मे जायते त्रासो दृष्ट्वा सैन्यान्यनेकशः ॥ ७ ॥
वह्नेरिव प्रदीप्तस्य वने शुष्कतृणोलपे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘योद्धाओंमें श्रेष्ठ कृतवर्माको पराजित करके मैं ऐसा समझता हूँ कि अर्जुन मुझे मिल गये। जैसे सूखे तृण और लतावाले वनमें प्रज्वलित हुई अग्निके लिये कहीं कोई बाधा नहीं रहती, उसी प्रकार मुझे इन अनेक सेनाओंको देखकर तनिक भी त्रास नहीं हो रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य पाण्डवमुख्येन यातां भूमिं किरीटिना ॥ ८ ॥
पत्त्यश्वरथनागौघैः पतितैर्विषमीकृताम् ।

मूलम्

पश्य पाण्डवमुख्येन यातां भूमिं किरीटिना ॥ ८ ॥
पत्त्यश्वरथनागौघैः पतितैर्विषमीकृताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, पाण्डवप्रवर किरीटधारी अर्जुन जिस मार्गसे गये हैं, वहाँकी भूमि धराशायी हुए पैदलों, घोड़ों, रथों और हाथियोंके समुदायसे विषम एवं दुर्लङ्घ्य हो गयी है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रवते तद् यथा सैन्यं तेन भग्नं महात्मना ॥ ९ ॥
रथैर्विपरिधावद्भिर्गजैरश्वैश्च सारथे ।
कौशेयारुणसंकाशमेतदुद्‌धूयते रजः ॥ १० ॥

मूलम्

द्रवते तद् यथा सैन्यं तेन भग्नं महात्मना ॥ ९ ॥
रथैर्विपरिधावद्भिर्गजैरश्वैश्च सारथे ।
कौशेयारुणसंकाशमेतदुद्‌धूयते रजः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सारथे! उन्हीं महात्मा अर्जुनकी खदेड़ी हुई वह सेना इधर-उधर भाग रही है। दौड़ते हुए रथों, हाथियों और घोड़ोंसे लाल रेशमके समान यह धूल ऊपरको उठ रही है॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्याशस्थमहं मन्ये श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्।
स एष श्रुयते शब्दो गाण्डीवस्यामितौजसः ॥ ११ ॥

मूलम्

अभ्याशस्थमहं मन्ये श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्।
स एष श्रुयते शब्दो गाण्डीवस्यामितौजसः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इससे मैं समझता हूँ कि श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे श्वेतवाहन अर्जुन हमारे निकट ही हैं, तभी यह अमित शक्तिशाली गाण्डीव धनुषकी टंकार सुनायी दे रही है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशानि निमित्तानि मम प्रादुर्भवन्ति वै।
अनस्तंगत आदित्ये हन्ता सैन्धवमर्जुनः ॥ १२ ॥

मूलम्

यादृशानि निमित्तानि मम प्रादुर्भवन्ति वै।
अनस्तंगत आदित्ये हन्ता सैन्धवमर्जुनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय मेरे सामने जैसे शुभ शकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे जान पड़ता है अर्जुन सूर्यास्त होनेके पहले ही जयद्रथको मार डालेंगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शनैर्विश्रम्भयन्नश्वान् याहि यत्रारिवाहिनी ।
यत्रैते सतलत्राणाः सुयोधनपुरोगमाः ॥ १३ ॥

मूलम्

शनैर्विश्रम्भयन्नश्वान् याहि यत्रारिवाहिनी ।
यत्रैते सतलत्राणाः सुयोधनपुरोगमाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूत! धीरे-धीरे घोड़ोंको आराम देते हुए उस ओर चलो, जहाँ वह शत्रुसेना खड़ी है, जहाँ ये तलत्राण धारण किये दुर्योधन आदि योद्धा उपस्थित हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंशिताः क्रूरकर्माणः काम्बोजा युद्धदुर्मदाः।
शरबाणासनधरा यवनाश्च प्रहारिणः ॥ १४ ॥
शकाः किराता दरदा बर्बरास्ताम्रलिप्तकाः।
अन्ये च बहवो म्लेच्छा विविधायुधपाणयः ॥ १५ ॥
यत्रैते सतलत्राणाः सुयोधनपुरोगमाः ।
मामेवाभिमुखाः सर्वे तिष्ठन्ति समरार्थिनः ॥ १६ ॥

मूलम्

दंशिताः क्रूरकर्माणः काम्बोजा युद्धदुर्मदाः।
शरबाणासनधरा यवनाश्च प्रहारिणः ॥ १४ ॥
शकाः किराता दरदा बर्बरास्ताम्रलिप्तकाः।
अन्ये च बहवो म्लेच्छा विविधायुधपाणयः ॥ १५ ॥
यत्रैते सतलत्राणाः सुयोधनपुरोगमाः ।
मामेवाभिमुखाः सर्वे तिष्ठन्ति समरार्थिनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ कवच धारण किये रणदुर्मद क्रूरकर्मा काम्बोज, धनुष-बाण धारण किये प्रहारकुशल यवन, शक, किरात, दरद, बर्बर, ताम्रलिप्त तथा हाथोंमें भाँति-भाँतिके आयुध धारण किये अन्य बहुत-से म्लेच्छ—ये सब-के-सब जहाँ दुर्योधनको अगुआ बनाकर दस्ताने पहने युद्धकी इच्छासे मेरी ओर मुँह करके खड़े हैं, वहीं चलो॥१४—१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान् सरथनागाश्वान् निहत्याजौ सपत्तिनः।
इदं दुर्गं महाघोरं तीर्णमेवोपधारय ॥ १७ ॥

मूलम्

एतान् सरथनागाश्वान् निहत्याजौ सपत्तिनः।
इदं दुर्गं महाघोरं तीर्णमेवोपधारय ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन सबको युद्धस्थलमें रथ, हाथी, घोड़े और पैदलोंसहित मार लेनेपर निश्चितरूपसे समझ लो कि हमलोग इस अत्यन्त भयंकर दुर्गम संकटसे पार हो गये’॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सम्भ्रमो मे वार्ष्णेय विद्यते सत्यविक्रम।
यद्यपि स्यात् तव क्रुद्धो जामदग्न्योऽग्रतः स्थितः ॥ १८ ॥

मूलम्

न सम्भ्रमो मे वार्ष्णेय विद्यते सत्यविक्रम।
यद्यपि स्यात् तव क्रुद्धो जामदग्न्योऽग्रतः स्थितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारथिने कहा— सत्यपराक्रमी वृष्णिनन्दन! आपके सामने क्रोधमें भरे हुए जमदग्निनन्दन परशुराम भी खड़े हो जायँ तो मुझे भय नहीं होगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणो वा रथिनां श्रेष्ठः कृपो मद्रेश्वरोऽपि वा।
तथापि सम्भ्रमो न स्यात् त्वामाश्रित्य महाभुज ॥ १९ ॥

मूलम्

द्रोणो वा रथिनां श्रेष्ठः कृपो मद्रेश्वरोऽपि वा।
तथापि सम्भ्रमो न स्यात् त्वामाश्रित्य महाभुज ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अथवा मद्रराज शल्य ही क्यों न खड़े हों, तथापि आपके आश्रित रहकर मुझे कदापि भय नहीं हो सकता॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया सुबहवो युद्धे निर्जिताः शत्रुसूदन।
दंशिताः क्रूरकर्माणः काम्बोजा युद्धदुर्मदाः ॥ २० ॥
शरबाणासनधरा यवनाश्च प्रहारिणः ।
शकाः किराता दरदा बर्बरास्ताम्रलिप्तकाः ॥ २१ ॥
अन्ये च बहवो म्लेच्छा विविधायुधपाणयः।
न च मे सम्भ्रमः कश्चिद् भूतपूर्वः कथंचन ॥ २२ ॥
किमुतैतत् समासाद्य धीरसंयुगगोष्पदम् ।
आयुष्मन् कतरेण त्वां प्रापयामि धनंजयम् ॥ २३ ॥

मूलम्

त्वया सुबहवो युद्धे निर्जिताः शत्रुसूदन।
दंशिताः क्रूरकर्माणः काम्बोजा युद्धदुर्मदाः ॥ २० ॥
शरबाणासनधरा यवनाश्च प्रहारिणः ।
शकाः किराता दरदा बर्बरास्ताम्रलिप्तकाः ॥ २१ ॥
अन्ये च बहवो म्लेच्छा विविधायुधपाणयः।
न च मे सम्भ्रमः कश्चिद् भूतपूर्वः कथंचन ॥ २२ ॥
किमुतैतत् समासाद्य धीरसंयुगगोष्पदम् ।
आयुष्मन् कतरेण त्वां प्रापयामि धनंजयम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन! आपने पहले भी युद्धमें बहुतेरे कवचधारी, क्रूरकर्मा रणदुर्मद काम्बोजोंको परास्त किया है। धनुष-बाण धारण करनेवाले प्रहारकुशल यवनोंको जीता है। शकों, किरातों, दरदों, बर्बरों, ताम्रलिप्तों तथा हाथोंमें नाना प्रकारके आयुध लिये अन्य बहुत-से मलेच्छोंको पराजित किया है। इन अवसरोंपर पहले कभी कोई किसी प्रकारका भय नहीं हुआ था। फिर इस गायकी खुरके समान तुच्छ युद्धस्थलमें आकर क्या भय हो सकता है? आयुष्मन्! बताइये, इन दो मार्गोंमेंसे किसके द्वारा आपको अर्जुनके पास पहुँचाऊँ॥२०—२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केषां क्रुद्धोऽसि वार्ष्णेय केषां मृत्युरुपस्थितः।
केषां संयमनीमद्य गन्तुमुत्सहते मनः ॥ २४ ॥

मूलम्

केषां क्रुद्धोऽसि वार्ष्णेय केषां मृत्युरुपस्थितः।
केषां संयमनीमद्य गन्तुमुत्सहते मनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वार्ष्णेय! आप किनके ऊपर क्रुद्ध हैं, किनकी मौत आ गयी है और किनका मन आज यमपुरीमें जानेके लिये उत्साहित हो रहा है?॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के त्वां युधि पराक्रान्तं कालान्तकयमोपमम्।
दृष्ट्वा विक्रमसम्पन्नं विद्रविष्यन्ति संयुगे ॥ २५ ॥
केषां वैवस्वतो राजा स्मरतेऽद्य महाभुज।

मूलम्

के त्वां युधि पराक्रान्तं कालान्तकयमोपमम्।
दृष्ट्वा विक्रमसम्पन्नं विद्रविष्यन्ति संयुगे ॥ २५ ॥
केषां वैवस्वतो राजा स्मरतेऽद्य महाभुज।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें काल, अन्तक और यमके समान पराक्रम दिखानेवाले आप-जैसे बल-विक्रमसम्पन्न वीरको देखकर आज कौन-कौन-से योद्धा मैदान छोड़कर भागनेवाले हैं? महाबाहो! आज राजा यम किनका स्मरण कर रहे हैं?॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

सात्यकिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुण्डानेतान् हनिष्यामि दानवानिव वासवः ॥ २६ ॥
प्रतिज्ञां पारयिष्यामि काम्बोजानेव मां वह।
अद्यैषां कदनं कृत्वा प्रियं यास्यामि पाण्डवम् ॥ २७ ॥

मूलम्

मुण्डानेतान् हनिष्यामि दानवानिव वासवः ॥ २६ ॥
प्रतिज्ञां पारयिष्यामि काम्बोजानेव मां वह।
अद्यैषां कदनं कृत्वा प्रियं यास्यामि पाण्डवम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि बोले— सूत! जैसे इन्द्र दानवोंका वध करते हैं, उसी प्रकार आज मैं इन मथमुंडे काम्बोजोंका ही वध करूँगा और ऐसा करके अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर लूँगा। अतः तुम उन्हींकी ओर मुझे ले चलो। इन सबका संहार करके ही आज मैं अपने प्रिय सुहृद् पाण्डुनन्दन अर्जुनके पास चलूँगा॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य द्रक्ष्यन्ति मे वीर्यं कौरवाः ससुयोधनाः।
मुण्डानीके हते सूत सर्वसैन्येषु चासकृत् ॥ २८ ॥
अद्य कौरवसैन्यस्य दीर्यमाणस्य संयुगे।
श्रुत्वा विरावं बहुधा संतप्स्यति सुयोधनः ॥ २९ ॥

मूलम्

अद्य द्रक्ष्यन्ति मे वीर्यं कौरवाः ससुयोधनाः।
मुण्डानीके हते सूत सर्वसैन्येषु चासकृत् ॥ २८ ॥
अद्य कौरवसैन्यस्य दीर्यमाणस्य संयुगे।
श्रुत्वा विरावं बहुधा संतप्स्यति सुयोधनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज दुर्योधनसहित समस्त कौरव मेरा पराक्रम देखेंगे। सूत! आज इन सिरमुण्डोंके मारे जाने तथा अन्य सारी सेनाओंका बारंबार विनाश होनेपर युद्धस्थलमें छिन्न-भिन्न होती हुई कौरव-सेनाका नाना प्रकारसे आर्तनाद सुनकर दुर्योधनको बड़ा संताप होगा॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य पाण्डवमुख्यस्य श्वेताश्वस्य महात्मनः।
आचार्यस्य कृतं मार्गं दर्शयिष्यामि संयुगे ॥ ३० ॥

मूलम्

अद्य पाण्डवमुख्यस्य श्वेताश्वस्य महात्मनः।
आचार्यस्य कृतं मार्गं दर्शयिष्यामि संयुगे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज रणक्षेत्रमें मैं अपने आचार्य पाण्डवप्रवर श्वेतवाहन महात्मा अर्जुनके प्रकट किये हुए मार्गको दिखाऊँगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य मद्‌बाणनिहतान् योधमुख्यान् सहस्रशः।
दृष्ट्वा दुर्योधनो राजा पश्चात्तापं गमिष्यति ॥ ३१ ॥

मूलम्

अद्य मद्‌बाणनिहतान् योधमुख्यान् सहस्रशः।
दृष्ट्वा दुर्योधनो राजा पश्चात्तापं गमिष्यति ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज मेरे बाणोंसे अपने सहस्रों प्रमुख योद्धाओंको मारा गया देखकर राजा दुर्योधन अत्यन्त पश्चात्ताप करेगा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य मे क्षिप्रहस्तस्य क्षिपतः सायकोत्तमान्।
अलातचक्रप्रतिमं धनुर्द्रक्ष्यन्ति कौरवाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

अद्य मे क्षिप्रहस्तस्य क्षिपतः सायकोत्तमान्।
अलातचक्रप्रतिमं धनुर्द्रक्ष्यन्ति कौरवाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाकर उत्तम बाणोंका प्रहार करते हुए मेरे धनुषको कौरवलोग अलातचक्रके समान देखेंगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्सायकचिताङ्गानां रुधिरं स्रवतां मुहुः।
सैनिकानां वधं दृष्ट्वा संतप्स्यति सुयोधनः ॥ ३३ ॥

मूलम्

मत्सायकचिताङ्गानां रुधिरं स्रवतां मुहुः।
सैनिकानां वधं दृष्ट्वा संतप्स्यति सुयोधनः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने बाणोंसे सारे कौरव-सैनिकोंका शरीर व्याप्त कर दूँगा और वे बारंबार रक्त बहाते हुए प्राण त्याग देंगे। इस प्रकार अपने सैनिकोंका संहार देखकर सुयोधन संतप्त हो उठेगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य मे क्रुद्धरूपस्य निघ्नतश्च वरान् वरान्।
द्विरर्जुनमिमं लोकं मंस्यतेऽद्य सुयोधनः ॥ ३४ ॥

मूलम्

अद्य मे क्रुद्धरूपस्य निघ्नतश्च वरान् वरान्।
द्विरर्जुनमिमं लोकं मंस्यतेऽद्य सुयोधनः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज क्रोधमें भरकर मैं कौरव-सेनाके उत्तमोत्तम वीरोंको चुन-चुनकर मारूँगा, जिससे दुर्योधनको यह मालूम होगा कि अब संसारमें दो अर्जुन प्रकट हो गये हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य राजसहस्राणि निहतानि मया रणे।
दृष्ट्वा दुर्योधनो राजा संतप्स्यति महामृधे ॥ ३५ ॥

मूलम्

अद्य राजसहस्राणि निहतानि मया रणे।
दृष्ट्वा दुर्योधनो राजा संतप्स्यति महामृधे ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज महासमरमें मेरे द्वारा सहस्रों राजाओंका विनाश देखकर राजा दुर्योधनको बड़ा संताप होगा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य स्नेहं च भक्तिं च पाण्डवेषु महात्मसु।
हत्वा राजसहस्राणि दर्शयिष्यामि राजसु ॥ ३६ ॥
बलं वीर्यं कृतज्ञत्वं मम ज्ञास्यन्ति कौरवाः।

मूलम्

अद्य स्नेहं च भक्तिं च पाण्डवेषु महात्मसु।
हत्वा राजसहस्राणि दर्शयिष्यामि राजसु ॥ ३६ ॥
बलं वीर्यं कृतज्ञत्वं मम ज्ञास्यन्ति कौरवाः।

अनुवाद (हिन्दी)

आज सहस्रों राजाओंका संहार करके मैं इन राजाओंके समाजमें महात्मा पाण्डवोंके प्रति अपने स्नेह और भक्तिका प्रदर्शन करूँगा। अब कौरवोंको मेरे बल, पराक्रम और कृतज्ञताका परिचय मिल जायगा॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तदा सूतः शिक्षितान् साधुवाहिनः ॥ ३७ ॥
शशाङ्कसंनिकाशान्‌ वै वाजिनो व्यनुदद् भृशम्।

मूलम्

एवमुक्तस्तदा सूतः शिक्षितान् साधुवाहिनः ॥ ३७ ॥
शशाङ्कसंनिकाशान्‌ वै वाजिनो व्यनुदद् भृशम्।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! सात्यकिके ऐसा कहनेपर सारथिने चन्द्रमाके समान श्वेत वर्णवाले उन घोड़ोंको, जो सुशिक्षित और अच्छी प्रकार सवारीका काम देनेवाले थे, बड़े वेगसे हाँका॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते पिबन्त इवाकाशं युयुधानं हयोत्तमाः ॥ ३८ ॥
प्रापयन् यवनान् शीघ्रं मनःपवनरंहसः।

मूलम्

ते पिबन्त इवाकाशं युयुधानं हयोत्तमाः ॥ ३८ ॥
प्रापयन् यवनान् शीघ्रं मनःपवनरंहसः।

अनुवाद (हिन्दी)

मन और वायुके समान वेगवाले उन उत्तम घोड़ोंने आकाशको पीते हुए-से चलकर युयुधानको शीघ्र ही यवनोंके पास पहुँचा दिया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिं ते समासाद्य पृतनास्वनिवर्तिनम् ॥ ३९ ॥
बहवो लघुहस्ताश्च शरवर्षैरवाकिरन् ।

मूलम्

सात्यकिं ते समासाद्य पृतनास्वनिवर्तिनम् ॥ ३९ ॥
बहवो लघुहस्ताश्च शरवर्षैरवाकिरन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें कभी पीछे न हटनेवाले सात्यकिको अपनी सेनाओंके बीच पाकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले बहुतेरे यवनोंने उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामिषूनथास्त्राणि वेगवान् नतपर्वभिः ॥ ४० ॥
अच्छिनत् सात्यकी राजन् नैनं ते प्राप्नुवत् शराः।

मूलम्

तेषामिषूनथास्त्राणि वेगवान् नतपर्वभिः ॥ ४० ॥
अच्छिनत् सात्यकी राजन् नैनं ते प्राप्नुवत् शराः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वेगशाली सात्यकिने झुकी हुई गाँठवाले अपने बाणोंद्वारा उन सबके बाणों तथा अन्य अस्त्रोंको काट गिराया। वे बाण उनके पासतक पहुँच न सके॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्मपुङ्खैः सुनिशितैर्गार्ध्रपत्रैरजिह्मगैः ॥ ४१ ॥
उच्चकर्त शिरांस्युग्रो यवनानां भुजानपि।
शैक्यायसानि वर्माणि कांस्यानि च समन्ततः ॥ ४२ ॥

मूलम्

रुक्मपुङ्खैः सुनिशितैर्गार्ध्रपत्रैरजिह्मगैः ॥ ४१ ॥
उच्चकर्त शिरांस्युग्रो यवनानां भुजानपि।
शैक्यायसानि वर्माणि कांस्यानि च समन्ततः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन भयंकर वीरने सब ओर घूम-घूमकर सोनेके पुंख और गीधकी पाँखवाले तीखे बाणोंसे यवनोंके मस्तक, भुजाएँ तथा लाल लोहे एवं काँसेके बने हुए कवच भी काट डाले॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भित्त्वा देहांस्तथा तेषां शरा जग्मुर्महीतलम्।
ते हन्यमाना वीरेण म्लेच्छाः सात्यकिना रणे ॥ ४३ ॥
शतशोऽभ्यपतंस्तत्र व्यसवो वसुधातले ।

मूलम्

भित्त्वा देहांस्तथा तेषां शरा जग्मुर्महीतलम्।
ते हन्यमाना वीरेण म्लेच्छाः सात्यकिना रणे ॥ ४३ ॥
शतशोऽभ्यपतंस्तत्र व्यसवो वसुधातले ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे बाण उनके शरीरोंको विदीर्ण करके पृथ्वीमें घुस गये। वीर सात्यकिके द्वारा रणभूमिमें आहत होकर सैकड़ों म्लेच्छ प्राण त्यागकर धराशायी हो गये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपूर्णायतमुक्तैस्तानव्यवच्छिन्नपिण्डितैः ॥ ४४ ॥
पञ्च षट् सप्त चाष्टौ च बिभेद यवनान् शरैः।

मूलम्

सुपूर्णायतमुक्तैस्तानव्यवच्छिन्नपिण्डितैः ॥ ४४ ॥
पञ्च षट् सप्त चाष्टौ च बिभेद यवनान् शरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे कानतक खींचकर छोड़े हुए और अविच्छिन्न गतिसे परस्पर सटकर निकलते हुए बाणोंद्वारा पाँच, छः, सात और आठ यवनोंको एक ही साथ विदीर्ण कर डालते थे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम्बोजानां सहस्रैश्च शकानां च विशाम्पते ॥ ४५ ॥
शबराणां किरातानां बर्बराणां तथैव च।
अगम्यरूपां पृथिवीं मांसशोणितकर्दमाम् ॥ ४६ ॥
कृतवांस्तत्र शैनेयः क्षपयंस्तावकं बलम्।

मूलम्

काम्बोजानां सहस्रैश्च शकानां च विशाम्पते ॥ ४५ ॥
शबराणां किरातानां बर्बराणां तथैव च।
अगम्यरूपां पृथिवीं मांसशोणितकर्दमाम् ॥ ४६ ॥
कृतवांस्तत्र शैनेयः क्षपयंस्तावकं बलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! सात्यकिने आपकी सेनाका संहार करते हुए वहाँकी भूमिको सहस्रों काम्बोजों, शकों, शबरों, किरातों और बर्बरोंकी लाशोंसे पाटकर अगम्य बना दिया था। वहाँ मांस और रक्तकी कीच जम गयी थी॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दस्यूनां सशिरस्त्राणैः शिरोभिर्लूनमूर्धजैः ॥ ४७ ॥
दीर्घकूचैर्मही कीर्णा विबर्हैरण्डजैरिव ।

मूलम्

दस्यूनां सशिरस्त्राणैः शिरोभिर्लूनमूर्धजैः ॥ ४७ ॥
दीर्घकूचैर्मही कीर्णा विबर्हैरण्डजैरिव ।

अनुवाद (हिन्दी)

उन लुटेरोंके लंबी दाढ़ीवाले शिरस्त्राणयुक्त मुण्डित मस्तकोंसे आच्छादित हुई रणभूमि पंखहीन पक्षियोंसे व्याप्त हुई-सी जान पड़ती थी॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गैस्तैस्तदायोधनं बभौ ॥ ४८ ॥
कबन्धैः संवृतं सर्वं ताम्राभ्रैः खमिवावृतम्।

मूलम्

रुधिरोक्षितसर्वाङ्गैस्तैस्तदायोधनं बभौ ॥ ४८ ॥
कबन्धैः संवृतं सर्वं ताम्राभ्रैः खमिवावृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके सारे अंग खूनसे लथपथ हो रहे थे, उन कबन्धोंसे भरा हुआ वह सारा रणक्षेत्र लाल रंगके बादलोंसे ढके हुए आकाशके समान जान पड़ता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्राशनिसमस्पर्शैः सुपर्वभिरजिह्मगैः ॥ ४९ ॥
ते सात्वतेन निहताः समावव्रुर्वसुंधराम्।

मूलम्

वज्राशनिसमस्पर्शैः सुपर्वभिरजिह्मगैः ॥ ४९ ॥
ते सात्वतेन निहताः समावव्रुर्वसुंधराम्।

अनुवाद (हिन्दी)

वज्र और विद्युत्‌के समान कठोर स्पर्शवाले सुन्दर पर्वयुक्त बाणोंद्वारा सात्यकिके हाथसे मारे गये उन यवनोंने वहाँकी भूमिको अपनी लाशोंसे ढक लिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पावशिष्टाः सम्भग्नाः कृच्छ्रप्राणा विचेतसः ॥ ५० ॥
जिताः संख्ये महाराज युयुधानेन दंशिताः।
पार्ष्णिभिश्च कशाभिश्च ताडयन्तस्तुरङ्गमान् ॥ ५१ ॥
जवमुत्तममास्थाय सर्वतः प्राद्रवन् भयात्।

मूलम्

अल्पावशिष्टाः सम्भग्नाः कृच्छ्रप्राणा विचेतसः ॥ ५० ॥
जिताः संख्ये महाराज युयुधानेन दंशिताः।
पार्ष्णिभिश्च कशाभिश्च ताडयन्तस्तुरङ्गमान् ॥ ५१ ॥
जवमुत्तममास्थाय सर्वतः प्राद्रवन् भयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! थोड़े-से यवन शेष रह गये थे, जो बड़ी कठिनाईसे अपने प्राण बचाये हुए थे। वे अपने समुदायसे भ्रष्ट होकर अचेत-से हो रहे थे। उन सभी कवचधारी यवनोंको युयुधानने युद्धस्थलमें जीत लिया था। वे हाथों और कोड़ोंसे अपने घोड़ोंको पीटते हुए उत्तम वेगका आश्रय ले चारों ओर भयके मारे भाग गये॥५०-५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम्बोजसैन्यं विद्राव्य दुर्जयं युधि भारत ॥ ५२ ॥
यवनानां च तत् सैन्यं शकानां च महद्‌बलम्।
ततः स पुरुषव्याघ्रः सात्यकिः सत्यविक्रमः ॥ ५३ ॥
प्रविष्टस्तावकान् जित्वा सूतं याहीत्यचोदयत्।

मूलम्

काम्बोजसैन्यं विद्राव्य दुर्जयं युधि भारत ॥ ५२ ॥
यवनानां च तत् सैन्यं शकानां च महद्‌बलम्।
ततः स पुरुषव्याघ्रः सात्यकिः सत्यविक्रमः ॥ ५३ ॥
प्रविष्टस्तावकान् जित्वा सूतं याहीत्यचोदयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! उस रणक्षेत्रमें दुर्जय काम्बोज-सेनाको, यवन-सेनाको तथा शकोंकी विशाल वाहिनीको खदेड़कर सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह सात्यकि आपके सैनिकोंपर विजयी हो कौरव-सेनामें घुस गये और सारथिको आदेश देते हुए बोले—‘आगे बढ़ो’॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तस्य समरे कर्म दृष्ट्वान्यैरकृतं पुरा ॥ ५४ ॥
चारणाः सहगन्धर्वाः पूजयाञ्चक्रिरे भृशम्।

मूलम्

तत् तस्य समरे कर्म दृष्ट्वान्यैरकृतं पुरा ॥ ५४ ॥
चारणाः सहगन्धर्वाः पूजयाञ्चक्रिरे भृशम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे पहले दूसरोंने नहीं किया था, समरांगणमें सात्यकिके उस पराक्रमको देखकर चारणों और ग्रन्धर्वोंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं यान्तं पृष्ठगोप्तारमर्जुनस्य विशाम्पते।
चारणाः प्रेक्ष्य संहृष्टास्त्वदीयाश्चाभ्यपूजयन् ॥ ५५ ॥

मूलम्

तं यान्तं पृष्ठगोप्तारमर्जुनस्य विशाम्पते।
चारणाः प्रेक्ष्य संहृष्टास्त्वदीयाश्चाभ्यपूजयन् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! अर्जुनके पृष्ठरक्षक सात्यकिको जाते देख चारणोंको बड़ा हर्ष हुआ और आपके सैनिकोंने भी उनकी बड़ी सराहना की॥५५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे यवनपराजये एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिके कौरव-सेनामें प्रवेशके प्रसंगमें यवनोंकी पराजयविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११९॥