११४ कृतवर्मपराक्रमे

भागसूचना

चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रका विषादयुक्त वचन, संजयका धृतराष्ट्रको ही दोषी बताना, कृतवर्माका भीमसेन और शिखण्डीके साथ युद्ध तथा पाण्डव-सेनाकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बहुगुणं सैन्यमेवं प्रविचितं बलम्।
व्यूढमेवं यथान्यायमेवं बहु च संजय ॥ १ ॥

मूलम्

एवं बहुगुणं सैन्यमेवं प्रविचितं बलम्।
व्यूढमेवं यथान्यायमेवं बहु च संजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— संजय! मेरी सेना इस प्रकार अनेक गुणोंसे सम्पन्न है और इस तरह अधिक संख्यामें इसका संग्रह किया गया है। पाण्डव-सेनाकी अपेक्षा यह प्रबल भी है। इसकी व्यूह-रचना भी इस प्रकार शास्त्रीय विधिके अनुसार की जाती है और इस तरह बहुत-से योद्धाओंका समूह जुट गया है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं पूजितमस्माभिरभिकामं च नः सदा।
प्रौढमत्यद्भुताकारं पुरस्ताद् दृष्टविक्रमम् ॥ २ ॥

मूलम्

नित्यं पूजितमस्माभिरभिकामं च नः सदा।
प्रौढमत्यद्भुताकारं पुरस्ताद् दृष्टविक्रमम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोगोंने सदा अपनी सेनाका आदर-सत्कार किया है तथा वह हमारे प्रति सदासे ही अनुरक्त भी है। हमारे सैनिक युद्धकी कलामें बढ़े-चढ़े हैं। हमारा सैन्यसमुदाय देखनेमें अद्भुत जान पड़ता है तथा इस सेनामें वे ही लोग चुन-चुनकर रखे गये हैं जिनका पराक्रम पहलेसे ही देख लिया गया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातिवृद्धमबालं च नाकृशं नातिपीवरम्।
लघुवृत्तायतप्रायं सारगात्रमनामयम् ॥ ३ ॥

मूलम्

नातिवृद्धमबालं च नाकृशं नातिपीवरम्।
लघुवृत्तायतप्रायं सारगात्रमनामयम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें न तो कोई अधिक बूढ़ा है, न बालक है, न अधिक दुबला है और न बहुत ही मोटा है। उनका शरीर हलका, सुडौल तथा प्रायः लंबा है। शरीरका एक-एक अवयव सारवान् (सबल) तथा सभी सैनिक नीरोग एवं स्वस्थ हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्तसंनाहसंछन्नं बहुशस्त्रपरिच्छदम् ।
शस्त्रग्रहणविद्यासु बह्वीषु परिनिष्ठितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

आत्तसंनाहसंछन्नं बहुशस्त्रपरिच्छदम् ।
शस्त्रग्रहणविद्यासु बह्वीषु परिनिष्ठितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सैनिकोंका शरीर बँधे हुए कवचसे आच्छादित है। इनके पास शस्त्र आदि आवश्यक सामग्रियोंकी बहुतायत है। ये सभी सैनिक शस्त्रग्रहणसम्बन्धी बहुत-सी विद्याओंमें प्रवीण हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरोहे पर्यवस्कन्दे सरणे सान्तरप्लुते।
सम्यक्प्रहरणे याने व्यपयाने च कोविदम् ॥ ५ ॥

मूलम्

आरोहे पर्यवस्कन्दे सरणे सान्तरप्लुते।
सम्यक्प्रहरणे याने व्यपयाने च कोविदम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चढ़ने, उतरने, फैलने, कूद-कूदकर चलने, भली-भाँति प्रहार करने, युद्धके लिये जाने और अवसर देखकर पलायन करनेमें भी कुशल हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागेष्वश्वेषु बहुशो रथेषु च परीक्षितम्।
परीक्ष्य च यथान्यायं वेतनेनोपपादितम् ॥ ६ ॥

मूलम्

नागेष्वश्वेषु बहुशो रथेषु च परीक्षितम्।
परीक्ष्य च यथान्यायं वेतनेनोपपादितम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथियों, घोड़ों तथा रथोंपर बैठकर युद्ध करनेकी कलामें सब लोगोंकी परीक्षा ली जा चुकी है और परीक्षा लेनेके पश्चात् उन्हें यथायोग्य वेतन दिया गया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न गोष्ठ्या नोपकारेण न सम्बन्धनिमित्ततः।
नानाहूतं नाप्यभृतं मम सैन्यं बभूव ह ॥ ७ ॥

मूलम्

न गोष्ठ्या नोपकारेण न सम्बन्धनिमित्ततः।
नानाहूतं नाप्यभृतं मम सैन्यं बभूव ह ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने किसीको भी गोष्ठीद्वारा बहकाकर, उपकार करके अथवा किसी सम्बन्धके कारण सेनामें भर्ती नहीं किया है। इनमें ऐसा भी कोई नहीं है जिसे बुलाया न गया हो अथवा जिसे बेगारमें पकड़कर लाया गया हो। मेरी सारी सेनाकी यही स्थिति है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलीनार्यजनोपेतं तुष्टपुष्टमनुद्धतम् ।
कृतमानोपचारं च यशस्वि च मनस्वि च ॥ ८ ॥

मूलम्

कुलीनार्यजनोपेतं तुष्टपुष्टमनुद्धतम् ।
कृतमानोपचारं च यशस्वि च मनस्वि च ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सभी लोग कुलीन, श्रेष्ठ, हृष्ट-पुष्ट, उद्दण्डताशून्य, पहलेसे सम्मानित, यशस्वी तथा मनस्वी हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिवैश्चापरैर्मुख्यैर्बहुभिः पुण्यकर्मभिः ।
लोकपालोपमैस्तात पालितं नरसत्तमैः ॥ ९ ॥

मूलम्

सचिवैश्चापरैर्मुख्यैर्बहुभिः पुण्यकर्मभिः ।
लोकपालोपमैस्तात पालितं नरसत्तमैः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! हमारे मन्त्री तथा अन्य बहुतेरे प्रमुख कार्यकर्ता जो पुण्यात्मा, लोकपालोंके समान पराक्रमी और मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं, सदा इस सेनाका पालन करते आये हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुभिः पार्थिवैर्गुप्तमस्मत्प्रियचिकीर्षुभिः ।
अस्मानभिसृतैः कामात् सबलैः सपदानुगैः ॥ १० ॥

मूलम्

बहुभिः पार्थिवैर्गुप्तमस्मत्प्रियचिकीर्षुभिः ।
अस्मानभिसृतैः कामात् सबलैः सपदानुगैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारा प्रिय करनेकी इच्छावाले तथा सेना और अनुचरोंसहित स्वेच्छासे ही हमारे पक्षमें आये हुए बहुत-से भूपालगण भी इसकी रक्षामें तत्पर रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महोदधिमिवापूर्णमापगाभिः समन्ततः ।
अपक्षैः पक्षिसंकाशै रथैरश्वैश्च संवृतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

महोदधिमिवापूर्णमापगाभिः समन्ततः ।
अपक्षैः पक्षिसंकाशै रथैरश्वैश्च संवृतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण दिशाओंसे बहकर आयी हुई नदियोंसे परिपूर्ण होनेवाले महासागरके समान हमारी यह सेना अगाध और अपार है। पक्षरहित एवं पक्षियोंके समान तीव्र वेगसे चलनेवाले रथों और घोड़ोंसे यह भरी हुई है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभिन्नकरटैश्चैव द्विरदैरावृतं महत् ।
यदहन्यत मे सैन्यं किमन्यद् भागधेयतः ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रभिन्नकरटैश्चैव द्विरदैरावृतं महत् ।
यदहन्यत मे सैन्यं किमन्यद् भागधेयतः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गण्डस्थलसे मद बहानेवाले गजराजोंद्वारा आवृत यह मेरी विशाल वाहिनी यदि शत्रुओंद्वारा मारी गयी है तो इसमें भाग्यके सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योधाक्षय्यजलं भीमं वाहनोर्मितरङ्गिणम् ।
क्षेपण्यसिगदाशक्तिशरप्रासझषाकुलम् ॥ १३ ॥
ध्वजभूषणसम्बाधरत्नोपलसुसंचितम् ।
वाहनैरभिधावद्भिर्वायुवेगविकम्पितम् ॥ १४ ॥
द्रोणगम्भीरपातालं कृतवर्ममहाह्रदम् ।
जलसंधमहाग्राहं कर्णचन्द्रोदयोद्धतम् ॥ १५ ॥

मूलम्

योधाक्षय्यजलं भीमं वाहनोर्मितरङ्गिणम् ।
क्षेपण्यसिगदाशक्तिशरप्रासझषाकुलम् ॥ १३ ॥
ध्वजभूषणसम्बाधरत्नोपलसुसंचितम् ।
वाहनैरभिधावद्भिर्वायुवेगविकम्पितम् ॥ १४ ॥
द्रोणगम्भीरपातालं कृतवर्ममहाह्रदम् ।
जलसंधमहाग्राहं कर्णचन्द्रोदयोद्धतम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! मेरी सेना भयंकर समुद्रके समान जान पड़ती है। योद्धा ही इसके अक्षय जल हैं, वाहन ही इसकी तरंगमालाएँ हैं, क्षेपणीय, खड्ग, गदा, शक्ति, बाण और प्रास आदि अस्त्र-शस्त्र इसमें मछलियोंके समान भरे हुए हैं। ध्वजा और आभूषणोंके समुदाय इसके भीतर रत्नोंके समान संचित हैं। दौड़ते हुए वाहन ही वायुके वेग हैं, जिनसे यह सैन्यसमुद्र कम्पित एवं क्षुब्ध-सा जान पड़ता है। द्रोणाचार्य ही इसकी पातालतक फैली हुई गहराई है। कृतवर्मा इसमें महान् ह्रदके समान है, जलसंध विशाल ग्राह है और कर्णरूपी चन्द्रमाके उदयसे यह सदा उद्वेलित होता रहता है॥१३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते सैन्यार्णवं भित्त्वा तरसा पाण्डवर्षभे।
संजयैकरथेनैव युयुधाने च मामकम् ॥ १६ ॥
तत्र शेषं न पश्यामि प्रविष्टे सव्यसाचिनि।
सात्वते च रथोदारे मम सैन्यस्य संजय ॥ १७ ॥

मूलम्

गते सैन्यार्णवं भित्त्वा तरसा पाण्डवर्षभे।
संजयैकरथेनैव युयुधाने च मामकम् ॥ १६ ॥
तत्र शेषं न पश्यामि प्रविष्टे सव्यसाचिनि।
सात्वते च रथोदारे मम सैन्यस्य संजय ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! ऐसे मेरे सैन्यरूपी महासागरका वेगपूर्वक भेदन करके जब पाण्डवश्रेष्ठ सव्यसाची अर्जुन तथा सात्वतवंशी उदार महारथी युयुधान एकमात्र रथकी सहायतासे इसके भीतर घुस गये, तब मैं अपनी सेनाके शेष रहनेकी आशा नहीं देखता हूँ॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ तत्र समतिक्रान्तौ दृष्ट्वातीव तरस्विनौ।
सिन्धुराजं तु सम्प्रेक्ष्य गाण्डीवस्येषुगोचरे ॥ १८ ॥
किं नु वा कुरवः कृत्यं विदधुः कालचोदिताः।
दारुणैकायने काले कथं वा प्रतिपेदिरे ॥ १९ ॥

मूलम्

तौ तत्र समतिक्रान्तौ दृष्ट्वातीव तरस्विनौ।
सिन्धुराजं तु सम्प्रेक्ष्य गाण्डीवस्येषुगोचरे ॥ १८ ॥
किं नु वा कुरवः कृत्यं विदधुः कालचोदिताः।
दारुणैकायने काले कथं वा प्रतिपेदिरे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों अत्यन्त वेगशाली वीरोंको वहाँ सबका उल्लंघन करके घुसे हुए देख तथा सिन्धुराज जयद्रथको गाण्डीवसे छूटे हुए बाणोंकी सीमामें उपस्थित पाकर कालप्रेरित कौरवोंने वहाँ कौन-सा कार्य किया? उस दारुण संहारके समय, जहाँ मृत्युके सिवा दूसरी कोई गति नहीं थी, किस प्रकार उन्होंने कर्तव्यका निश्चय किया?॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रस्तान्‌ हि कौरवान् मन्ये मृत्युना तात संगतान्।
विक्रमोऽपि रणे तेषां न तथा दृश्यते हि वै॥२०॥

मूलम्

ग्रस्तान्‌ हि कौरवान् मन्ये मृत्युना तात संगतान्।
विक्रमोऽपि रणे तेषां न तथा दृश्यते हि वै॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैं युद्धस्थलमें एकत्र हुए कौरवोंको कालका ग्रास ही मानता हूँ; क्योंकि रणक्षेत्रमें उनका पराक्रम भी पहले-जैसा नहीं दिखायी देता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षतौ संयुगे तत्र प्रविष्टौ कृष्णपाण्डवौ।
न च वारयिता कश्चित् तयोरस्तीह संजय ॥ २१ ॥

मूलम्

अक्षतौ संयुगे तत्र प्रविष्टौ कृष्णपाण्डवौ।
न च वारयिता कश्चित् तयोरस्तीह संजय ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! श्रीकृष्ण और अर्जुन बिना कोई क्षति उठाये युद्धस्थलमें मेरी सेनाके भीतर घुस गये; परंतु इसमें कोई भी वीर उन दोनोंको रोकनेवाला न निकला॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृताश्च बहवो योधाः परीक्ष्यैव महारथाः।
वेतनेन यथायोगं प्रियवादेन चापरे ॥ २२ ॥

मूलम्

भृताश्च बहवो योधाः परीक्ष्यैव महारथाः।
वेतनेन यथायोगं प्रियवादेन चापरे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने दूसरे बहुत-से महारथी योद्धाओंकी परीक्षा करके ही उन्हें सेनामें भर्ती किया है और यथायोग्य वेतन देकर तथा प्रिय वचन बोलकर उनका सत्कार किया है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असत्कारभृतस्तात मम सैन्ये न विद्यते।
कर्मणा ह्यनुरूपेण लभ्यते भक्तवेतनम् ॥ २३ ॥

मूलम्

असत्कारभृतस्तात मम सैन्ये न विद्यते।
कर्मणा ह्यनुरूपेण लभ्यते भक्तवेतनम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मेरी सेनामें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अनादरपूर्वक रखा गया हो। सबको उनके कार्यके अनुरूप ही भोजन और वेतन प्राप्त होता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चायोधोऽभवत् कश्चिन्मम सैन्ये तु संजय।
अल्पदानभृतस्तात तथा चाभृतको नरः ॥ २४ ॥

मूलम्

न चायोधोऽभवत् कश्चिन्मम सैन्ये तु संजय।
अल्पदानभृतस्तात तथा चाभृतको नरः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात संजय! मेरी सेनामें ऐसा एक भी योद्धा नहीं रहा होगा जिसे थोड़ा वेतन दिया जाता हो अथवा बिना वेतनके ही रखा गया हो॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजितो हि यथाशक्त्या दानमानासनैर्मया।
तथा पुत्रैश्च मे तात ज्ञातिभिश्च सबान्धवैः ॥ २५ ॥

मूलम्

पूजितो हि यथाशक्त्या दानमानासनैर्मया।
तथा पुत्रैश्च मे तात ज्ञातिभिश्च सबान्धवैः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैंने, मेरे पुत्रोंने तथा कुटुम्बीजनों एवं बन्धु-बान्धवोंने भी सभी सैनिकोंका यथाशक्ति दान, मान और आसन आदि देकर सत्कार किया है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते च प्राप्यैव संग्रामे निर्जिताः सव्यसाचिना।
शैनेयेन परामृष्टाः किमन्यद् भागधेयतः ॥ २६ ॥

मूलम्

ते च प्राप्यैव संग्रामे निर्जिताः सव्यसाचिना।
शैनेयेन परामृष्टाः किमन्यद् भागधेयतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि सव्यसाची अर्जुनने संग्रामभूमिमें पहुँचते ही उन सबको पराजित कर दिया है और सात्यकिने भी उन्हें कुचल डाला है। इसे भाग्यके सिवा और क्या कहा जा सकता है?॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्ष्यते यश्च संग्रामे ये च संजय रक्षिणः।
एकः साधारणः पन्था रक्ष्यस्य सह रक्षिभिः ॥ २७ ॥

मूलम्

रक्ष्यते यश्च संग्रामे ये च संजय रक्षिणः।
एकः साधारणः पन्था रक्ष्यस्य सह रक्षिभिः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! संग्राममें जिसकी रक्षा की जाती है और जो लोग रक्षक हैं, उन रक्षकोंसहित रक्षणीय पुरुषके लिये एकमात्र साधारण मार्ग रह गया है पराजय॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनं समरे दृष्ट्वा सैन्धवस्याग्रतः स्थितम्।
पुत्रो मम भृशं मूढः किं कार्यं प्रत्यपद्यत ॥ २८ ॥

मूलम्

अर्जुनं समरे दृष्ट्वा सैन्धवस्याग्रतः स्थितम्।
पुत्रो मम भृशं मूढः किं कार्यं प्रत्यपद्यत ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनको समरांगणमें सिन्धुराजके सामने खड़ा देख अत्यन्त मोहग्रस्त हुए मेरे पुत्रने कौन-सा कर्तव्य निश्चित किया?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिं च रणे दृष्ट्वा प्रविशन्तमभीतवत्।
किं नु दुर्योधनः कृत्यं प्राप्तकालममन्यत ॥ २९ ॥

मूलम्

सात्यकिं च रणे दृष्ट्वा प्रविशन्तमभीतवत्।
किं नु दुर्योधनः कृत्यं प्राप्तकालममन्यत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकिको रणक्षेत्रमें निर्भय-सा प्रवेश करते देख दुर्योधनने उस समयके लिये कौन-सा कर्तव्य उचित माना?॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वशस्त्रातिगौ सेनां प्रविष्टौ रथिसत्तमौ।
दृष्ट्वा कां वै धृतिं युद्धे प्रत्यपद्यन्त मामकाः ॥ ३० ॥

मूलम्

सर्वशस्त्रातिगौ सेनां प्रविष्टौ रथिसत्तमौ।
दृष्ट्वा कां वै धृतिं युद्धे प्रत्यपद्यन्त मामकाः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण शस्त्रोंकी पहुँचसे परे होकर जब रथियोंमें श्रेष्ठ सात्यकि और अर्जुन मेरी सेनामें प्रविष्ट हो गये, तब उन्हें देखकर मेरे पुत्रोंने युद्धस्थलमें किस प्रकार धैर्य धारण किया?॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा कृष्णं तु दाशार्हमर्जुनार्थे व्यवस्थितम्।
शिनीनामृषभं चैव मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३१ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा कृष्णं तु दाशार्हमर्जुनार्थे व्यवस्थितम्।
शिनीनामृषभं चैव मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं समझता हूँ कि अर्जुनके लिये रथपर बैठे हुए दशार्हनन्दन भगवान् श्रीकृष्णको तथा शिनिप्रवर सात्यकिको देखकर मेरे पुत्र शोकमग्न हो गये होंगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा सेनां व्यतिक्रान्तां सात्वतेनार्जुनेन च।
पलायमानांश्च कुरून् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा सेनां व्यतिक्रान्तां सात्वतेनार्जुनेन च।
पलायमानांश्च कुरून् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि और अर्जुनको सेना लाँघकर जाते और कौरव-सैनिकोंको युद्धस्थलसे भागते देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोकमें डूब गये होंगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्रुतान् रथिनो दृष्ट्वा निरुत्साहान् द्विषज्जये।
पलायनकृतोत्साहान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

विद्रुतान् रथिनो दृष्ट्वा निरुत्साहान् द्विषज्जये।
पलायनकृतोत्साहान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे मनमें यह बात आती है कि अपने रथियोंको शत्रु-विजयकी ओरसे उत्साहशून्य होकर भागते और भागनेमें ही बहादुरी दिखाते देख मेरे पुत्र शोक कर रहे होंगे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शून्यान् कृतान् रथोपस्थान् सात्वतेनार्जुनेन च।
हतांश्च योधान् संदृश्य मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३४ ॥

मूलम्

शून्यान् कृतान् रथोपस्थान् सात्वतेनार्जुनेन च।
हतांश्च योधान् संदृश्य मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि और अर्जुनने हमारी रथोंकी बैठकें सूनी कर दी हैं और योद्धाओंको मार गिराया है, यह देखकर मैं सोचता हूँ कि मेरे पुत्र बहुत दुःखी हो गये होंगे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यश्वनागरथान् दृष्ट्वा तत्र वीरान् सहस्रशः।
धावमानान् रणे व्यग्रान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

व्यश्वनागरथान् दृष्ट्वा तत्र वीरान् सहस्रशः।
धावमानान् रणे व्यग्रान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहस्रों वीरोंको वहाँ युद्धके मैदानमें घोड़े, रथ और हाथियोंसे रहित एवं उद्विग्न होकर भागते देखकर मैं मानता हूँ कि मेरे पुत्र शोकमग्न हो गये होंगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानागान् विद्रवतो दृष्ट्वार्जुनशराहतान् ।
पतितान् पततश्चान्यान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३६ ॥

मूलम्

महानागान् विद्रवतो दृष्ट्वार्जुनशराहतान् ।
पतितान् पततश्चान्यान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके बाणोंसे आहत होकर बड़े-बड़े गजराजोंको भागते, गिरते और गिरे हुए देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोक कर रहे होंगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहीनांश्च कृतानश्वान्‌ विरथांश्च कृतान् नरान्।
तत्र सात्यकिपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

विहीनांश्च कृतानश्वान्‌ विरथांश्च कृतान् नरान्।
तत्र सात्यकिपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्यकि और अर्जुनने घोड़ोंको सवारोंसे हीन और मनुष्योंको रथसे वंचित कर दिया है। यह देख-सुनकर मेरे पुत्र शोकमें डूब रहे होंगे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयौघान् निहतान् दृष्ट्वा द्रवमाणांस्ततस्ततः।
रणे माधवपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३८ ॥

मूलम्

हयौघान् निहतान् दृष्ट्वा द्रवमाणांस्ततस्ततः।
रणे माधवपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणक्षेत्रमें सात्यकि और अर्जुनद्वारा मारे गये तथा इधर-उधर भागते हुए अश्वसमूहोंको देखकर मैं मानता हूँ कि मेरे पुत्र शोकदग्ध हो रहे होंगे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्तिसंघान् रणे दृष्ट्वा धावमानांश्च सर्वशः।
निराशा विजये सर्वे मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३९ ॥

मूलम्

पत्तिसंघान् रणे दृष्ट्वा धावमानांश्च सर्वशः।
निराशा विजये सर्वे मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पैदल सिपाहियोंको रणक्षेत्रमें सब ओर भागते देख मैं समझता हूँ, मेरे सभी पुत्र विजयसे निराश हो शोक कर रहे होंगे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणस्य समतिक्रान्तावनीकमपराजितौ ।
क्षणेन दृष्ट्वा तौ वीरौ मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ४० ॥

मूलम्

द्रोणस्य समतिक्रान्तावनीकमपराजितौ ।
क्षणेन दृष्ट्वा तौ वीरौ मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे मनमें यह बात आती है कि किसीसे पराजित न होनेवाले दोनों वीर अर्जुन और सात्यकिको क्षणभरमें द्रोणाचार्यकी सेनाका उल्लंघन करते देख मेरे पुत्र शोकाकुल हो गये होंगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्मूढोऽस्मि भृशं तात श्रुत्वा कृष्णधनंजयौ।
प्रविष्टौ मामकं सैन्यं सात्वतेन सहाच्युतौ ॥ ४१ ॥

मूलम्

सम्मूढोऽस्मि भृशं तात श्रुत्वा कृष्णधनंजयौ।
प्रविष्टौ मामकं सैन्यं सात्वतेन सहाच्युतौ ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीकृष्ण और अर्जुनके सात्यकिसहित अपनी सेनामें घुसनेका समाचार सुनकर मैं अत्यन्त मोहित हो रहा हूँ॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् प्रविष्टे पृतनां शिनीनां प्रवरे रथे।
भोजानीकं व्यतिक्रान्ते किमकुर्वत कौरवाः ॥ ४२ ॥

मूलम्

तस्मिन् प्रविष्टे पृतनां शिनीनां प्रवरे रथे।
भोजानीकं व्यतिक्रान्ते किमकुर्वत कौरवाः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिनिप्रवर महारथी सात्यकि जब कृतवर्माकी सेनाको लाँघकर कौरवी सेनामें प्रविष्ट हो गये तब कौरवोंने क्या किया?॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा द्रोणेन समरे निगृहीतेषु पाण्डुषु।
कथं युद्धमभूत् तत्र तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ४३ ॥

मूलम्

तथा द्रोणेन समरे निगृहीतेषु पाण्डुषु।
कथं युद्धमभूत् तत्र तन्ममाचक्ष्व संजय ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जब द्रोणाचार्यने समरभूमिमें पूर्वोक्त प्रकारसे पाण्डवोंको रोक दिया, तब वहाँ किस प्रकार युद्ध हुआ? यह सब मुझे बताओ॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणो हि बलवान् श्रेष्ठः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः।
पञ्चालास्ते महेष्वासं प्रत्यविध्यन् कथं रणे ॥ ४४ ॥
बद्धवैरास्ततो द्रोणे धनंजयजयैषिणः ।

मूलम्

द्रोणो हि बलवान् श्रेष्ठः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः।
पञ्चालास्ते महेष्वासं प्रत्यविध्यन् कथं रणे ॥ ४४ ॥
बद्धवैरास्ततो द्रोणे धनंजयजयैषिणः ।

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य अस्त्रविद्यामें निपुण, युद्धमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले, बलवान् एवं श्रेष्ठ वीर हैं। पांचाल-सैनिकोंने उस समय रणक्षेत्रमें महाधनुर्धर द्रोणको किस प्रकार घायल किया? क्योंकि वे द्रोणाचार्यसे वैर बाँधकर अर्जुनकी विजयकी अभिलाषा रखते थे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारद्वाजसुतस्तेषु दृढवैरो महारथः ॥ ४५ ॥
अर्जुनश्चापि यच्चक्रे सिन्धुराजवधं प्रति।
तन्मे सर्वं समाचक्ष्व कुशलो ह्यसि संजय ॥ ४६ ॥

मूलम्

भारद्वाजसुतस्तेषु दृढवैरो महारथः ॥ ४५ ॥
अर्जुनश्चापि यच्चक्रे सिन्धुराजवधं प्रति।
तन्मे सर्वं समाचक्ष्व कुशलो ह्यसि संजय ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! भरद्वाजके पुत्र महारथी अश्वत्थामा भी पांचालोंसे दृढ़तापूर्वक वैर बाँधे हुए थे। अर्जुनने सिन्धुराज जयद्रथका वध करनेके लिये जो-जो उपाय किया, वह सब मुझसे कहो; क्योंकि तुम कथा कहनेमें कुशल हो॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मापराधात् सम्भूतं व्यसनं भरतर्षभ।
प्राप्य प्राकृतवद् वीर न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ४७ ॥

मूलम्

आत्मापराधात् सम्भूतं व्यसनं भरतर्षभ।
प्राप्य प्राकृतवद् वीर न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— भरतश्रेष्ठ! यह सारी विपत्ति आपको अपने ही अपराधसे प्राप्त हुई है। वीर! इसे पाकर निम्न कोटिके मनुष्योंकी भाँति शोक न कीजिये॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा यदुच्यसे प्राज्ञैः सुहृद्भिर्विदुरादिभिः।
मा हार्षीः पाण्डवान् राजन्निति तन्न त्वया श्रुतम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

पुरा यदुच्यसे प्राज्ञैः सुहृद्भिर्विदुरादिभिः।
मा हार्षीः पाण्डवान् राजन्निति तन्न त्वया श्रुतम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले जब आपके बुद्धिमान् सुहृद् विदुर आदिने आपसे कहा था कि राजन्! आप पाण्डवोंके राज्यका अपहरण न कीजिये, तब आपने उनकी यह बात नहीं सुनी थी॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृदां हितकामानां वाक्यं यो न शृणोति ह।
स महद् व्यसनं प्राप्य शोचते वै यथा भवान्॥४९॥

मूलम्

सुहृदां हितकामानां वाक्यं यो न शृणोति ह।
स महद् व्यसनं प्राप्य शोचते वै यथा भवान्॥४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो हितैषी सुहृदोंकी बात नहीं सुनता है, वह भारी संकटमें पड़कर आपके ही समान शोक करता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याचितोऽसि पुरा राजन् दाशार्हेण शमं प्रति।
न च तं लब्धवान् कामं त्वत्तः कृष्णो महायशाः॥५०॥

मूलम्

याचितोऽसि पुरा राजन् दाशार्हेण शमं प्रति।
न च तं लब्धवान् कामं त्वत्तः कृष्णो महायशाः॥५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! दशार्हनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने पहले आपसे शान्तिके लिये याचना की थी; परंतु आपकी ओरसे उन महायशस्वी श्रीकृष्णकी वह इच्छा पूरी नहीं की गयी॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव निर्गुणतां ज्ञात्वा पक्षपातं सुतेषु च।
द्वैधीभावं तथा धर्मे पाण्डवेषु च मत्सरम् ॥ ५१ ॥
तव जिह्ममभिप्रायं विदित्वा पाण्डवान् प्रति।
आर्तप्रलापांश्च बहून् मनुजाधिपसत्तम ॥ ५२ ॥
सर्वलोकस्य तत्त्वज्ञः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः।
वासुदेवस्ततो युद्धं कुरूणामकरोन्महत् ॥ ५३ ॥

मूलम्

तव निर्गुणतां ज्ञात्वा पक्षपातं सुतेषु च।
द्वैधीभावं तथा धर्मे पाण्डवेषु च मत्सरम् ॥ ५१ ॥
तव जिह्ममभिप्रायं विदित्वा पाण्डवान् प्रति।
आर्तप्रलापांश्च बहून् मनुजाधिपसत्तम ॥ ५२ ॥
सर्वलोकस्य तत्त्वज्ञः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः।
वासुदेवस्ततो युद्धं कुरूणामकरोन्महत् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! सम्पूर्ण लोकोंके तत्त्वज्ञ तथा सर्वलोकेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने जब यह जान लिया कि आप सर्वथा सद्‌गुणशून्य हैं, अपने पुत्रोंपर पक्षपात रखते हैं, धर्मके विषयमें आपके मनमें दुविधा बनी हुई है, पाण्डवोंके प्रति आपके हृदयमें डाह है, आप उनके प्रति कुटिलतापूर्ण मनसूबे बाँधते रहते हैं और व्यर्थ ही आर्त मनुष्योंके समान बहुत-सी बातें बनाते हैं, तब उन्होंने कौरव-पाण्डवोंके महान् युद्धका आयोजन किया॥५१—५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मापराधात् सुमहान् प्राप्तस्ते विपुलः क्षयः।
नैनं दुर्योधने दोषं कर्तुमर्हसि मानद ॥ ५४ ॥

मूलम्

आत्मापराधात् सुमहान् प्राप्तस्ते विपुलः क्षयः।
नैनं दुर्योधने दोषं कर्तुमर्हसि मानद ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानद! अपने ही अपराधसे आपके सामने यह महान् जनसंहार प्राप्त हुआ है। आपको यह सारा दोष दुर्योधनपर नहीं मढ़ना चाहिये॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि ते सुकृतं किंचिदादौ मध्ये च भारत।
दृश्यते पृष्ठतश्चैव त्वन्मूलो हि पराजयः ॥ ५५ ॥

मूलम्

न हि ते सुकृतं किंचिदादौ मध्ये च भारत।
दृश्यते पृष्ठतश्चैव त्वन्मूलो हि पराजयः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! मुझे तो आगे, पीछे या बीचमें आपका कोई भी शुभ कर्म नहीं दिखायी देता। इस पराजयकी जड़ आप ही हैं॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादवस्थितो भूत्वा ज्ञात्वा लोकस्य निर्णयम्।
शृणु युद्धं यथावृत्तं घोरं देवासुरोपमम् ॥ ५६ ॥

मूलम्

तस्मादवस्थितो भूत्वा ज्ञात्वा लोकस्य निर्णयम्।
शृणु युद्धं यथावृत्तं घोरं देवासुरोपमम् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये स्थिर होकर और लोकके नियत स्वभावको जानकर देवासुर-संग्रामके समान भयंकर इस कौरव-पाण्डव-युद्धका यथार्थ वृत्तान्त सुनिये॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविष्टे तव सैन्यं तु शैनेये सत्यविक्रमे।
भीमसेनमुखाः पार्थाः प्रतीयुर्वाहिनीं तव ॥ ५७ ॥

मूलम्

प्रविष्टे तव सैन्यं तु शैनेये सत्यविक्रमे।
भीमसेनमुखाः पार्थाः प्रतीयुर्वाहिनीं तव ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सत्यपराक्रमी सात्यकि कौरव-सेनामें प्रविष्ट हो गये, तब भीमसेन आदि कुन्तीकुमारोंने आपकी विशाल वाहिनीपर आक्रमण किया॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगच्छतस्तान् सहसा क्रुद्धरूपान् सहानुगान्।
दधारैको रणे पाण्डून् कृतवर्मा महारथः ॥ ५८ ॥

मूलम्

आगच्छतस्तान् सहसा क्रुद्धरूपान् सहानुगान्।
दधारैको रणे पाण्डून् कृतवर्मा महारथः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेवकोंसहित कुपित होकर सहसा आक्रमण करनेवाले उन पाण्डववीरोंको रणक्षेत्रमें एकमात्र महारथी कृतवर्माने रोका॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोद्‌वृत्तं वारयते वेला वै सलिलार्णवम्।
पाण्डुसैन्यं तथा संख्ये हार्दिक्यः समवारयत् ॥ ५९ ॥

मूलम्

यथोद्‌वृत्तं वारयते वेला वै सलिलार्णवम्।
पाण्डुसैन्यं तथा संख्ये हार्दिक्यः समवारयत् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे उद्वेलित हुए महासागरको किनारेकी भूमि आगे बढ़नेसे रोकती है, उसी प्रकार युद्धस्थलमें कृतवर्माने पाण्डव-सेनाको रोक दिया॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतमपश्याम हार्दिक्यस्य पराक्रमम् ।
यदेनं सहिताः पार्था नातिचक्रमुराहवे ॥ ६० ॥

मूलम्

तत्राद्भुतमपश्याम हार्दिक्यस्य पराक्रमम् ।
यदेनं सहिताः पार्था नातिचक्रमुराहवे ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ हमने कृतवर्माका अद्भुत पराक्रम देखा। सारे पाण्डव एक साथ मिलकर भी समरांगणमें उसे लाँघ न सके॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमस्त्रिभिर्विद्ध्वा कृतवर्माणमाशुगैः ।
शङ्खं दध्मौ महाबाहुर्हर्षयन् सर्वपाण्डवान् ॥ ६१ ॥

मूलम्

ततो भीमस्त्रिभिर्विद्ध्वा कृतवर्माणमाशुगैः ।
शङ्खं दध्मौ महाबाहुर्हर्षयन् सर्वपाण्डवान् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महाबाहु भीमने तीन बाणोंद्वारा कृतवर्माको घायल करके समस्त पाण्डवोंका हर्ष बढ़ाते हुए शंख बजाया॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवस्तु विंशत्या धर्मराजश्च पञ्चभिः।
शतेन नकुलश्चापि हार्दिक्यं समविध्यत ॥ ६२ ॥

मूलम्

सहदेवस्तु विंशत्या धर्मराजश्च पञ्चभिः।
शतेन नकुलश्चापि हार्दिक्यं समविध्यत ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेवने बीस, धर्मराजने पाँच और नकुलने सौ बाणोंसे कृतवर्माको बींध डाला॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदेयास्त्रिसप्तत्या सप्तभिश्च घटोत्कचः ।
धृष्टद्युम्नस्त्रिभिश्चापि कृतवर्माणमार्दयत् ॥ ६३ ॥

मूलम्

द्रौपदेयास्त्रिसप्तत्या सप्तभिश्च घटोत्कचः ।
धृष्टद्युम्नस्त्रिभिश्चापि कृतवर्माणमार्दयत् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदीके पुत्रोंने तिहत्तर, घटोत्कचने सात और धृष्टद्युम्नने तीन बाणोंद्वारा उसे गहरी चोट पहुँचायी॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विराटो द्रुपदश्चैव याज्ञसेनिश्च पञ्चभिः।
शिखण्डी चैव हार्दिक्यं विद्ध्वा पञ्चभिराशुगैः ॥ ६४ ॥
पुनर्विव्याध विंशत्या सायकानां हसन्निव।

मूलम्

विराटो द्रुपदश्चैव याज्ञसेनिश्च पञ्चभिः।
शिखण्डी चैव हार्दिक्यं विद्ध्वा पञ्चभिराशुगैः ॥ ६४ ॥
पुनर्विव्याध विंशत्या सायकानां हसन्निव।

अनुवाद (हिन्दी)

विराट, द्रुपद और उनके पुत्र धृष्टद्युम्नने पाँच-पाँच बाणोंसे उसको घायल किया। फिर शिखण्डीने पहले पाँच बाणोंद्वारा चोट करके फिर हँसते हुए ही बीस बाणोंसे कृतवर्माको बींध डाला॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतवर्मा ततो राजन् सर्वतस्तान् महारथान् ॥ ६५ ॥
एकैकं पञ्चभिर्विद्ध्वा भीमं विव्याध सप्तभिः।
धनुर्ध्वजं चास्य तथा रथाद् भूमावपातयत् ॥ ६६ ॥

मूलम्

कृतवर्मा ततो राजन् सर्वतस्तान् महारथान् ॥ ६५ ॥
एकैकं पञ्चभिर्विद्ध्वा भीमं विव्याध सप्तभिः।
धनुर्ध्वजं चास्य तथा रथाद् भूमावपातयत् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय कृतवर्माने चारों ओर बाण चलाकर उन महारथियोंमेंसे प्रत्येकको पाँच बाणोंद्वारा बींध डाला और भीमसेनको सात बाणोंसे घायल कर दिया। फिर तत्काल ही उनके धनुष और ध्वजको काटकर रथसे पृथ्वीपर गिरा दिया॥६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः।
आजघानोरसि क्रुद्धः सप्तत्या निशितैः शरैः ॥ ६७ ॥

मूलम्

अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः।
आजघानोरसि क्रुद्धः सप्तत्या निशितैः शरैः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनका धनुष कट जानेपर महारथी कृतवर्माने कुपित हो बड़ी उतावलीके साथ सत्तर पैने बाणोंद्वारा उनकी छातीमें गहरा आघात किया॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गाढविद्धो बलवान् हार्दिक्यस्य शरोत्तमैः।
चचाल रथमध्यस्थः क्षितिकम्पे यथाचलः ॥ ६८ ॥

मूलम्

स गाढविद्धो बलवान् हार्दिक्यस्य शरोत्तमैः।
चचाल रथमध्यस्थः क्षितिकम्पे यथाचलः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृतवर्माके श्रेष्ठ बाणोंद्वारा अत्यन्त घायल हुए बलवान् भीमसेन रथके भीतर बैठे हुए ही भूकम्पके समय हिलनेवाले पर्वतके समान काँपने लगे॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनं तथा दृष्ट्वा धर्मराजपुरोगमाः।
विसृजन्तः शरान् राजन् कृतवर्माणमार्दयन् ॥ ६९ ॥

मूलम्

भीमसेनं तथा दृष्ट्वा धर्मराजपुरोगमाः।
विसृजन्तः शरान् राजन् कृतवर्माणमार्दयन् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भीमसेनको वैसी अवस्थामें देखकर धर्मराज आदि महारथियोंने बाणोंकी वर्षा करके कृतवर्माको बड़ी पीड़ा दी॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथा कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष।
विव्यधुः सायकैर्हृष्टा रक्षार्थं मारुतेर्मृधे ॥ ७० ॥

मूलम्

तं तथा कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष।
विव्यधुः सायकैर्हृष्टा रक्षार्थं मारुतेर्मृधे ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! हर्षमें भरे हुए पाण्डव-सैनिक भीमसेनकी रक्षाके लिये अपने रथसमूहद्वारा कृतवर्माको कोष्ठबद्ध-सा करके उसे युद्धस्थलमें अपने बाणोंका निशाना बनाने लगे॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां भीमसेनो महाबलः।
शक्तिं जग्राह समरे हेमदण्डामयस्मयीम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां भीमसेनो महाबलः।
शक्तिं जग्राह समरे हेमदण्डामयस्मयीम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें महाबली भीमसेनने सचेत होकर समरांगणमें सुवर्णमय दण्डसे विभूषित एक लोहेकी शक्ति हाथमें ले ली॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिक्षेप च रथात् तूर्णं कृतवर्मरथं प्रति।
सा भीमभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसंनिभा ॥ ७२ ॥
कृतवर्माणमभितः प्रजज्वाल सुदारुणा ।

मूलम्

चिक्षेप च रथात् तूर्णं कृतवर्मरथं प्रति।
सा भीमभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसंनिभा ॥ ७२ ॥
कृतवर्माणमभितः प्रजज्वाल सुदारुणा ।

अनुवाद (हिन्दी)

और शीघ्र ही उसे अपने रथसे कृतवर्माके रथपर चला दिया। भीमसेनके हाथोंसे छूटी हुई, केंचुलसे निकले हुए सर्पके समान वह भयंकर शक्ति कृतवर्माके समीप जाकर प्रज्वलित हो उठी॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं सहसा युगान्ताग्निसमप्रभाम् ॥ ७३ ॥
द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यो निजघान द्विधा तदा।

मूलम्

तामापतन्तीं सहसा युगान्ताग्निसमप्रभाम् ॥ ७३ ॥
द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यो निजघान द्विधा तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अपने ऊपर आती हुई प्रलयकालकी अग्निके समान उस शक्तिको सहसा दो बाण मारकर कृतवर्माने उसके दो टुकड़े कर दिये॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा छिन्ना पतिता भूमौ शक्तिः कनकभूषणा ॥ ७४ ॥
द्योतयन्ती दिशो राजन् महोल्केव नभश्च्युता।

मूलम्

सा छिन्ना पतिता भूमौ शक्तिः कनकभूषणा ॥ ७४ ॥
द्योतयन्ती दिशो राजन् महोल्केव नभश्च्युता।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करती हुई वह सुवर्णभूषित शक्ति कटकर आकाशसे गिरी हुई बड़ी भारी उल्काके समान पृथ्वीपर गिर पड़ी॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा भीमश्चुक्रोध वै भृशम् ॥ ७५ ॥
ततोऽन्यद् धनुरादाय वेगवत् सुमहास्वनम्।
भीमसेनो रणे क्रुद्धो हार्दिक्यं समवारयत् ॥ ७६ ॥

मूलम्

शक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा भीमश्चुक्रोध वै भृशम् ॥ ७५ ॥
ततोऽन्यद् धनुरादाय वेगवत् सुमहास्वनम्।
भीमसेनो रणे क्रुद्धो हार्दिक्यं समवारयत् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी शक्तिको कटी हुई देख भीमसेनको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने बड़ी भारी टंकारध्वनि करनेवाले दूसरे वेगशाली धनुषको हाथमें लेकर समरांगणमें कुपित हो कृतवर्माका सामना किया॥७५-७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे ।
भीमो भीमबलो राजंस्तव दुर्मन्त्रितेन च ॥ ७७ ॥

मूलम्

अथैनं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे ।
भीमो भीमबलो राजंस्तव दुर्मन्त्रितेन च ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपकी ही कुमन्त्रणासे वहाँ भयंकर बलशाली भीमसेनने कृतवर्माकी छातीमें पाँच बाण मारे॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजस्तु क्षतसर्वाङ्गो भीमसेनेन मारिष।
रक्ताशोक इवोत्फुल्लो व्यभ्राजत रणाजिरे ॥ ७८ ॥

मूलम्

भोजस्तु क्षतसर्वाङ्गो भीमसेनेन मारिष।
रक्ताशोक इवोत्फुल्लो व्यभ्राजत रणाजिरे ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! भीमसेनने उन बाणोंद्वारा कृतवर्माके सम्पूर्ण अंगोंको क्षत-विक्षत कर दिया। वह रणांगणमें खूनसे लथपथ हो खिले हुए लाल फूलोंवाले अशोकवृक्षके समान सुशोभित होने लगा॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैर्भीमसेनं हसन्निव ।
अभिहत्य दृढं युद्धे तान् सर्वान् प्रत्यविध्यत ॥ ७९ ॥
त्रिभिस्त्रिभिर्महेष्वासो यतमानान् महारथान् ।

मूलम्

ततः क्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैर्भीमसेनं हसन्निव ।
अभिहत्य दृढं युद्धे तान् सर्वान् प्रत्यविध्यत ॥ ७९ ॥
त्रिभिस्त्रिभिर्महेष्वासो यतमानान् महारथान् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उस महाधनुर्धरने क्रोधमें भरकर हँसते हुए ही तीन बाणोंद्वारा भीमसेनको गहरी चोट पहुँचाकर युद्धमें विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले उन सभी महारथियोंको तीन-तीन बाणोंसे बींध डाला॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽपि तं प्रत्यविध्यन्त सप्तभिः सप्तभिः शरैः ॥ ८० ॥
शिखण्डिनस्ततः क्रुद्धः क्षुरप्रेण महारथः।
धनुश्चिच्छेद समरे प्रहसन्निव सात्वतः ॥ ८१ ॥

मूलम्

तेऽपि तं प्रत्यविध्यन्त सप्तभिः सप्तभिः शरैः ॥ ८० ॥
शिखण्डिनस्ततः क्रुद्धः क्षुरप्रेण महारथः।
धनुश्चिच्छेद समरे प्रहसन्निव सात्वतः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन महारथियोंने भी कृतवर्माको सात-सात बाण मारे। उस समय क्रोधमें भरे हुए महारथी कृतवर्माने हँसते हुए ही समरांगणमें एक क्षुरप्रद्वारा शिखण्डीका धनुष काट डाला॥८०-८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डी तु ततः क्रुद्धश्छिन्ने धनुषि सत्वरः।
असिं जग्राह समरे शतचन्द्रं च भास्वरम् ॥ ८२ ॥

मूलम्

शिखण्डी तु ततः क्रुद्धश्छिन्ने धनुषि सत्वरः।
असिं जग्राह समरे शतचन्द्रं च भास्वरम् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनुष कट जानेपर शिखण्डीने तुरंत ही कुपित हो उस युद्धस्थलमें सौ चन्द्रमाओंके चिह्नसे युक्त चमकीली ढाल और तलवार हाथमें ले ली॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रामयित्वा महच्चर्म चामीकरविभूषितम् ।
तमसिं प्रेषयामास कृतवर्मरथं प्रति ॥ ८३ ॥

मूलम्

भ्रामयित्वा महच्चर्म चामीकरविभूषितम् ।
तमसिं प्रेषयामास कृतवर्मरथं प्रति ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने स्वर्णभूषित विशाल ढालको घुमाकर कृतवर्माके रथपर वह तलवार दे मारी॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य सशरं चापं छित्त्वा राजन् महानसिः।
अभ्यगाद् धरणीं राजंश्च्युतं ज्योतिरिवाम्बरात् ॥ ८४ ॥

मूलम्

स तस्य सशरं चापं छित्त्वा राजन् महानसिः।
अभ्यगाद् धरणीं राजंश्च्युतं ज्योतिरिवाम्बरात् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वह महान् खड्ग कृतवर्माके बाणसहित धनुषको काटकर आकाशसे टूटे हुए तारेके समान धरतीमें समा गया॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु त्वरमाणं महारथाः।
विव्यधुः सायकैर्गाढं कृतवर्माणमाहवे ॥ ८५ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु त्वरमाणं महारथाः।
विव्यधुः सायकैर्गाढं कृतवर्माणमाहवे ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय पाण्डव महारथियोंने युद्धमें जल्दी-जल्दी हाथ चलानेवाले कृतवर्माको अपने बाणोंद्वारा भारी चोट पहुँचायी॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यद् धनुरादाय त्यक्त्वा तच्च महद् धनुः।
विशीर्णं भरतश्रेष्ठः हार्दिक्यः परवीरहा ॥ ८६ ॥
विव्याध पाण्डवान् युद्धे त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः।
शिखण्डिनं च विव्याध त्रिभिः पञ्चभिरेव च ॥ ८७ ॥

मूलम्

अथान्यद् धनुरादाय त्यक्त्वा तच्च महद् धनुः।
विशीर्णं भरतश्रेष्ठः हार्दिक्यः परवीरहा ॥ ८६ ॥
विव्याध पाण्डवान् युद्धे त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः।
शिखण्डिनं च विव्याध त्रिभिः पञ्चभिरेव च ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कृतवर्माने टूटे हुए उस विशाल धनुषको त्यागकर दूसरा धनुष हाथमें ले लिया और युद्धमें पाण्डवोंको तीन-तीन बाण मारकर घायल कर दिया। साथ ही शिखण्डीको भी तीन और पाँच बाणोंसे बींध डाला॥८६-८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुरन्यत् समादाय शिखण्डी तु महायशाः।
अवारयन् कूर्मनखैराशुगैर्हृदिकात्मजम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

धनुरन्यत् समादाय शिखण्डी तु महायशाः।
अवारयन् कूर्मनखैराशुगैर्हृदिकात्मजम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् महायशस्वी शिखण्डीने भी दूसरा धनुष लेकर कछुओंके नखोंके समान धारवाले बाणोंद्वारा कृतवर्माका सामना किया॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो रणे राजन् हृदिकस्यात्मसम्भवः।
अभिदुद्राव वेगेन याज्ञसेनिं महारथम् ॥ ८९ ॥
भीष्मस्य समरे राजन् मृत्योर्हेतुं महात्मनः।
विदर्शयन् बलं शूरः शार्दूल इव कुञ्जरम् ॥ ९० ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो रणे राजन् हृदिकस्यात्मसम्भवः।
अभिदुद्राव वेगेन याज्ञसेनिं महारथम् ॥ ८९ ॥
भीष्मस्य समरे राजन् मृत्योर्हेतुं महात्मनः।
विदर्शयन् बलं शूरः शार्दूल इव कुञ्जरम् ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे सिंह हाथीपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार उस रणक्षेत्रमें कुपित हुए शूरवीर कृतवर्माने समरांगणमें महात्मा भीष्मकी मृत्युका कारण बने हुए महारथी शिखण्डीपर अपने बलका प्रदर्शन करते हुए बड़े वेगसे धावा किया॥८९-९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ दिशां गजसंकाशौ ज्वलिताविव पावकौ।
समापेततुरन्योन्यं शरसङ्घैररिंदमौ ॥ ९१ ॥

मूलम्

तौ दिशां गजसंकाशौ ज्वलिताविव पावकौ।
समापेततुरन्योन्यं शरसङ्घैररिंदमौ ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रज्वलित अग्नियोंके समान तेजस्वी तथा शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों वीर अपने बाणसमूहोंद्वारा दो दिग्गजोंके समान एक-दूसरेपर टूट पड़े॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधुन्वानौ धनुःश्रेष्ठे संदधानौ च सायकान्।
विसृजन्तौ च शतशो गभस्तीनिव भास्वरौ ॥ ९२ ॥

मूलम्

विधुन्वानौ धनुःश्रेष्ठे संदधानौ च सायकान्।
विसृजन्तौ च शतशो गभस्तीनिव भास्वरौ ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दो सूर्य पृथक्-पृथक् अपनी किरणोंका विस्तार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर अपने श्रेष्ठ धनुष हिलाते और उनपर सैकड़ों बाणोंका संधान करके छोड़ते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तापयन्तौ शरैस्तीक्ष्णैरन्योन्यं तौ महारथौ।
युगान्तप्रतिमौ वीरौ रेजतुर्भास्कराविव ॥ ९३ ॥

मूलम्

तापयन्तौ शरैस्तीक्ष्णैरन्योन्यं तौ महारथौ।
युगान्तप्रतिमौ वीरौ रेजतुर्भास्कराविव ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पैने बाणोंद्वारा एक-दूसरेको संताप देते हुए वे दोनों महारथी वीर प्रलयकालके दो सूर्योंके समान शोभा पा रहे थे॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतवर्मा च समरे याज्ञसेनिं महारथम्।
विद्ध्वेषुभिस्त्रिसप्तत्या पुनर्विव्याध सप्तभिः ॥ ९४ ॥

मूलम्

कृतवर्मा च समरे याज्ञसेनिं महारथम्।
विद्ध्वेषुभिस्त्रिसप्तत्या पुनर्विव्याध सप्तभिः ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृतवर्माने समरांगणमें महारथी शिखण्डीको पहले तिहत्तर बाणोंसे घायल करके फिर सात बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं मूर्च्छयाभिपरिप्लुतः ॥ ९५ ॥

मूलम्

स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं मूर्च्छयाभिपरिप्लुतः ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन बाणोंकी गहरी चोट खाकर शिखण्डी व्यथित एवं मूर्च्छित हो धनुष-बाण त्यागकर रथकी बैठकमें बैठ गया॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विषण्णं रणे दृष्ट्वा तावकाः पुरुषर्षभ।
हार्दिक्यं पूजयामासुर्वासांस्यादुधुवुश्च ह ॥ ९६ ॥

मूलम्

तं विषण्णं रणे दृष्ट्वा तावकाः पुरुषर्षभ।
हार्दिक्यं पूजयामासुर्वासांस्यादुधुवुश्च ह ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! रणक्षेत्रमें शिखण्डीको विषादग्रस्त देख आपके सैनिक कृतवर्माकी प्रशंसा करने और वस्त्र हिलाने लगे॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखण्डिनं तथा ज्ञात्वा हार्दिक्यशरपीडितम्।
अपोवाह रणाद् यन्ता त्वरमाणो महारथम् ॥ ९७ ॥

मूलम्

शिखण्डिनं तथा ज्ञात्वा हार्दिक्यशरपीडितम्।
अपोवाह रणाद् यन्ता त्वरमाणो महारथम् ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महारथी शिखण्डीको कृतवर्माके बाणोंसे पीड़ित जान सारथि बड़ी उतावलीके साथ उसे रणभूमिसे बाहर ले गया॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सादितं तु रथोपस्थे दृष्ट्वा पार्थाः शिखण्डिनम्।
परिवव्रू रथैस्तूर्णं कृतवर्माणमाहवे ॥ ९८ ॥

मूलम्

सादितं तु रथोपस्थे दृष्ट्वा पार्थाः शिखण्डिनम्।
परिवव्रू रथैस्तूर्णं कृतवर्माणमाहवे ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमारोंने शिखण्डीको रथके पिछले भागमें बेसुध होकर बैठा देख तुरंत ही कृतवर्माको रणभूमिमें अपने रथोंद्वारा चारों ओरसे घेर लिया॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतं परं चक्रे कृतवर्मा महारथः।
यदेकः समरे पार्थान् वारयामास सानुगान् ॥ ९९ ॥

मूलम्

तत्राद्भुतं परं चक्रे कृतवर्मा महारथः।
यदेकः समरे पार्थान् वारयामास सानुगान् ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ महारथी कृतवर्माने अत्यन्त अद्भुत पराक्रम प्रकट किया। उसने अकेले होनेपर भी सेवकोंसहित समस्त पाण्डवोंका समरभूमिमें सामना किया॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थान् जित्वाजयच्चेदीन् पञ्चालान् सृञ्जयानपि।
केकयांश्च महावीर्यान् कृतवर्मा महारथः ॥ १०० ॥

मूलम्

पार्थान् जित्वाजयच्चेदीन् पञ्चालान् सृञ्जयानपि।
केकयांश्च महावीर्यान् कृतवर्मा महारथः ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महारथी कृतवर्माने पाण्डवोंको जीतकर चेदिदेशीय सैनिकोंको परास्त किया, फिर पांचालों, सृंजयों और महापराक्रमी केकयोंको भी हरा दिया॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वध्यमानाः समरे हार्दिक्येन स्म पाण्डवाः।
इतश्चेतश्च धावन्तो नैव चक्रुर्धृतिं रणे ॥ १०१ ॥

मूलम्

ते वध्यमानाः समरे हार्दिक्येन स्म पाण्डवाः।
इतश्चेतश्च धावन्तो नैव चक्रुर्धृतिं रणे ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरांगणमें कृतवर्माके बाणोंकी मार खाकर पाण्डव-सैनिक इधर-उधर भागने लगे। वे रणभूमिमें कहीं भी स्थिर न हो सके॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जित्वा पाण्डुसुतान् युद्धे भीमसेनपुरोगमान्।
हार्दिक्यः समरेऽतिष्ठद् विधूम इव पावकः ॥ १०२ ॥

मूलम्

जित्वा पाण्डुसुतान् युद्धे भीमसेनपुरोगमान्।
हार्दिक्यः समरेऽतिष्ठद् विधूम इव पावकः ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें भीमसेन आदि पाण्डवोंको जीतकर कृतवर्मा उस रणक्षेत्रमें धूमरहित अग्निके समान शोभा पाता हुआ खड़ा था॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते द्राव्यमाणाः समरे हार्दिक्येन महारथाः।
विमुखाः समपद्यन्त शरवृष्टिभिरार्दिताः ॥ १०३ ॥

मूलम्

ते द्राव्यमाणाः समरे हार्दिक्येन महारथाः।
विमुखाः समपद्यन्त शरवृष्टिभिरार्दिताः ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरांगणमें कृतवर्माके द्वारा खदेड़े गये और उसकी बाण-वर्षासे पीड़ित हुए पूर्वोक्त सभी महारथियोंने युद्धसे मुँह मोड़ लिया॥१०३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे कृतवर्मपराक्रमे चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका कौरव-सेनामें प्रवेश तथा कृतवर्माका पराक्रमविषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११४॥