१०६ युधिष्ठिरापयाने

भागसूचना

षडधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोण और उनकी सेनाके साथ पाण्डव-सेनाका द्वन्द्वयुद्ध तथा द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करते समय रथ-भंग हो जानेपर युधिष्ठिरका पलायन

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुने सैन्धवं प्राप्ते भारद्वाजेन संवृताः।
पंचालाः कुरुभिः सार्धं किमकुर्वत संजय ॥ १ ॥

मूलम्

अर्जुने सैन्धवं प्राप्ते भारद्वाजेन संवृताः।
पंचालाः कुरुभिः सार्धं किमकुर्वत संजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— संजय! जब अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथके समीप पहुँच गये, तब द्रोणाचार्यद्वारा रोके हुए पाञ्चाल-सैनिकोंने कौरवोंके साथ क्या किया?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपराह्णे महाराज संग्रामे लोमहर्षणे।
पञ्चालानां कुरूणां च द्रोणद्यूतमवर्तत ॥ २ ॥

मूलम्

अपराह्णे महाराज संग्रामे लोमहर्षणे।
पञ्चालानां कुरूणां च द्रोणद्यूतमवर्तत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! उस दिन अपराह्ण-कालमें, जब रोमांचकारी युद्ध चल रहा था, पांचालों और कौरवोंमें द्रोणाचार्यको दाँवपर रखकर द्यूत-सा होने लगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चाला हि जिघांसन्तो द्रोणं संहृष्टचेतसः।
अभ्यमुञ्चन्त गर्जन्तः शरवर्षाणि मारिष ॥ ३ ॥

मूलम्

पञ्चाला हि जिघांसन्तो द्रोणं संहृष्टचेतसः।
अभ्यमुञ्चन्त गर्जन्तः शरवर्षाणि मारिष ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! पांचाल-सैनिक द्रोणको मार डालनेकी इच्छासे प्रसन्नचित्त होकर गर्जना करते हुए उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु तुमुलस्तेषां संग्रामोऽवर्तताद्भुतः ।
पञ्चालानां कुरूणां च घोरो देवासुरोपमः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततस्तु तुमुलस्तेषां संग्रामोऽवर्तताद्भुतः ।
पञ्चालानां कुरूणां च घोरो देवासुरोपमः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन पांचालों और कौरवोंमें घोर देवासुर-संग्रामके समान अद्भुत एवं भयंकर युद्ध होने लगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे द्रोणरथं प्राप्य पञ्चालाः पाण्डवैः सह।
तदनीकं बिभित्सन्तो महास्त्राणि व्यदर्शयन् ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वे द्रोणरथं प्राप्य पञ्चालाः पाण्डवैः सह।
तदनीकं बिभित्सन्तो महास्त्राणि व्यदर्शयन् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त पांचाल पाण्डवोंके साथ द्रोणाचार्यके रथके समीप जाकर उनकी सेनाके व्यूहका भेदन करनेकी इच्छासे बड़े-बड़े अस्त्रोंका प्रदर्शन करने लगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणस्य रथपर्यन्तं रथिनो रथमास्थिताः।
कम्पयन्तोऽभ्यवर्तन्त वेगमास्थाय मध्यमम् ॥ ६ ॥

मूलम्

द्रोणस्य रथपर्यन्तं रथिनो रथमास्थिताः।
कम्पयन्तोऽभ्यवर्तन्त वेगमास्थाय मध्यमम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पांचाल रथी रथपर बैठकर मध्यम वेगका आश्रय ले पृथ्वीको कँपाते हुए द्रोणाचार्यके रथके अत्यन्त निकट जाकर उनका सामना करने लगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमभ्ययाद् बृहत्क्षत्रः केकयानां महारथः।
प्रवपन् निशितान् बाणान् महेन्द्राशनिसंनिभान् ॥ ७ ॥

मूलम्

तमभ्ययाद् बृहत्क्षत्रः केकयानां महारथः।
प्रवपन् निशितान् बाणान् महेन्द्राशनिसंनिभान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केकयदेशके महारथी वीर बृहत्क्षत्रने महेन्द्रके वज्रके समान तीखे बाणोंकी वर्षा करते हुए वहाँ द्रोणाचार्यपर धावा किया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु प्रत्युद्ययौ शीघ्रं क्षेमधूर्तिर्महायशाः।
विमुञ्चन् निशितान् बाणान् शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ८ ॥

मूलम्

तं तु प्रत्युद्ययौ शीघ्रं क्षेमधूर्तिर्महायशाः।
विमुञ्चन् निशितान् बाणान् शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महायशस्वी क्षेमधूर्ति सैकड़ों और हजारों तीखे बाण छोड़ते हुए शीघ्रतापूर्वक बृहत्क्षत्रका सामना करनेके लिये गये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृष्टकेतुश्च चेदीनामृषभोऽतिबलोदितः ।
त्वरितोऽभ्यद्रवद् द्रोणं महेन्द्र इव शम्बरम् ॥ ९ ॥

मूलम्

धृष्टकेतुश्च चेदीनामृषभोऽतिबलोदितः ।
त्वरितोऽभ्यद्रवद् द्रोणं महेन्द्र इव शम्बरम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त बलसे विख्यात चेदिराज धृष्टकेतुने भी बड़ी उतावलीके साथ द्रोणाचार्यपर धावा किया, मानो देवराज इन्द्रने शम्बरासुरपर चढ़ाई की हो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं सहसा व्यादितास्यमिवान्तकम् ।
वीरधन्वा महेष्वासस्त्वरमाणः समभ्ययात् ॥ १० ॥

मूलम्

तमापतन्तं सहसा व्यादितास्यमिवान्तकम् ।
वीरधन्वा महेष्वासस्त्वरमाणः समभ्ययात् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुँह बाये हुए कालके समान सहसा आक्रमण करनेवाले धृष्टकेतुका सामना करनेके लिये महाधनुर्धर वीरधन्वा बड़े वेगसे आ पहुँचे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरं महाराजं जिगीषुं समवस्थितम्।
सहानीकं ततो दोणो न्यवारयत वीर्यवान् ॥ ११ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरं महाराजं जिगीषुं समवस्थितम्।
सहानीकं ततो दोणो न्यवारयत वीर्यवान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर पराक्रमी द्रोणाचार्यने विजयकी इच्छासे सेनासहित खड़े हुए महाराज युधिष्ठिरको आगे बढ़नेसे रोक दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलं कुशलं युद्धे पराक्रान्तं पराक्रमी।
अभ्यगच्छत् समायान्तं विकर्णस्ते सुतः प्रभो ॥ १२ ॥

मूलम्

नकुलं कुशलं युद्धे पराक्रान्तं पराक्रमी।
अभ्यगच्छत् समायान्तं विकर्णस्ते सुतः प्रभो ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आपके पराक्रमी पुत्र विकर्णने वहाँ आते हुए पराक्रमशाली युद्धकुशल नकुलका सामना किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवं तथाऽऽयान्तं दुर्मुखः शत्रुकर्षणः।
शरैरनेकसाहस्रैः समवाकिरदाशुगैः ॥ १३ ॥

मूलम्

सहदेवं तथाऽऽयान्तं दुर्मुखः शत्रुकर्षणः।
शरैरनेकसाहस्रैः समवाकिरदाशुगैः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन दुर्मुखने अपने सामने आते हुए सहदेवपर कई हजार बाणोंकी वर्षा की॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्यकिं तु नरव्याघ्रं व्याघ्रदत्तस्त्ववारयत्।
शरैः सुनिशितैस्तीक्ष्णैः कम्पयन् वै मुहुर्मुहुः ॥ १४ ॥

मूलम्

सात्यकिं तु नरव्याघ्रं व्याघ्रदत्तस्त्ववारयत्।
शरैः सुनिशितैस्तीक्ष्णैः कम्पयन् वै मुहुर्मुहुः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्याघ्रदत्तने अत्यन्त तेज किये हुए तीखे बाणोंद्वारा बारंबार शत्रुसेनाको कम्पित करते हुए वहाँ पुरुषसिंह सात्यकिको आगे बढ़नेसे रोका॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदेयान् नरव्याघ्रान्‌ मुञ्चतः सायकोत्तमान्।
संरब्धान् रथिनः श्रेष्ठान् सौमदत्तिरवारयत् ॥ १५ ॥

मूलम्

द्रौपदेयान् नरव्याघ्रान्‌ मुञ्चतः सायकोत्तमान्।
संरब्धान् रथिनः श्रेष्ठान् सौमदत्तिरवारयत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्योंमें व्याघ्रके समान पराक्रमी तथा श्रेष्ठ रथी द्रौपदीके पाँचों पुत्र कुपित होकर शत्रुओंपर उत्तम बाणोंकी वर्षा कर रहे थे। सोमदत्तकुमार शलने उन सबको रोक दिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनं तदा क्रुद्धं भीमरूपो भयानकः।
प्रत्यवारयदायान्तमार्ष्यशृङ्गिर्महारथः ॥ १६ ॥

मूलम्

भीमसेनं तदा क्रुद्धं भीमरूपो भयानकः।
प्रत्यवारयदायान्तमार्ष्यशृङ्गिर्महारथः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयंकर रूपधारी एवं भयानक महारथी ऋष्यशृंग-कुमार अलम्बुषने उस समय क्रोधमें भरकर आते हुए भीमसेनको रोका॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः समभवद् युद्धं नरराक्षसयोर्मृधे।
यादृगेव पुरा वृत्तं रामरावणयोर्नृप ॥ १७ ॥

मूलम्

तयोः समभवद् युद्धं नरराक्षसयोर्मृधे।
यादृगेव पुरा वृत्तं रामरावणयोर्नृप ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पूर्वकालमें जिस प्रकार श्रीराम और रावणका संग्राम हुआ था, उसी प्रकार उस रणक्षेत्रमें मानव भीमसेन तथा राक्षस अलम्बुषका युद्ध हुआ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो द्रोणं नवत्या नतपर्वणाम्।
आजघ्ने भरतश्रेष्ठः सर्वमर्मसु भारत ॥ १८ ॥

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो द्रोणं नवत्या नतपर्वणाम्।
आजघ्ने भरतश्रेष्ठः सर्वमर्मसु भारत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! तदनन्तर भरतभूषण युधिष्ठिरने झुकी हुई गाँठवाले नब्बे बाणोंसे द्रोणाचार्यके सम्पूर्ण मर्मस्थानोंमें आघात किया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं द्रोणः पञ्चविंशत्या निजघान स्तनान्तरे।
रोषितो भरतश्रेष्ठ कौन्तेयेन यशस्विना ॥ १९ ॥

मूलम्

तं द्रोणः पञ्चविंशत्या निजघान स्तनान्तरे।
रोषितो भरतश्रेष्ठ कौन्तेयेन यशस्विना ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! यशस्वी कुन्तीकुमारके क्रोध दिलानेपर द्रोणाचार्यने उनकी छातीमें पचीस बाण मारे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूय एव तु विंशत्या सायकानां समाचिनोत्।
साश्वसूतध्वजं द्रोणः पश्यतां सर्वधन्विनाम् ॥ २० ॥

मूलम्

भूय एव तु विंशत्या सायकानां समाचिनोत्।
साश्वसूतध्वजं द्रोणः पश्यतां सर्वधन्विनाम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर द्रोणने सम्पूर्ण धनुर्धरोंके देखते-देखते घोड़े, सारथि और ध्वजसहित युधिष्ठिरको बीस बाण मारे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् शरान् द्रोणमुक्तांस्तु शरवर्षेण पाण्डवः।
अवारयत धर्मात्मा दर्शयन् पाणिलाघवम् ॥ २१ ॥

मूलम्

तान् शरान् द्रोणमुक्तांस्तु शरवर्षेण पाण्डवः।
अवारयत धर्मात्मा दर्शयन् पाणिलाघवम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने अपने हाथोंकी फुर्ती दिखाते हुए द्रोणाचार्यके छोड़े हुए उन बाणोंको अपनी बाण-वर्षाद्वारा रोक दिया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य संयुगे।
चिच्छेद समरे धन्वी धनुस्तस्य महात्मनः ॥ २२ ॥

मूलम्

ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य संयुगे।
चिच्छेद समरे धन्वी धनुस्तस्य महात्मनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब धनुर्धर द्रोणाचार्य उस युद्धस्थलमें महात्मा धर्मराज युधिष्ठिरपर अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने समरांगणमें युधिष्ठिरके धनुषको काट दिया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः।
शरैरनेकसाहस्रैः पूरयामास सर्वतः ॥ २३ ॥

मूलम्

अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः।
शरैरनेकसाहस्रैः पूरयामास सर्वतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनुष काट देनेके पश्चात् महारथी द्रोणाचार्यने बड़ी उतावलीके साथ कई हजार बाणोंकी वर्षा करके उन्हें सब ओरसे ढक दिया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृश्यं वीक्ष्य राजानं भारद्वाजस्य सायकैः।
सर्वभूतान्यमन्यन्त हतमेव युधिष्ठिरम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अदृश्यं वीक्ष्य राजानं भारद्वाजस्य सायकैः।
सर्वभूतान्यमन्यन्त हतमेव युधिष्ठिरम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यके बाणोंसे अदृश्य हुआ देख समस्त प्राणियोंने उन्हें मारा गया ही मान लिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिच्चैनममन्यन्त तथैव विमुखीकृतम् ।
हतो राजेति राजेन्द्र ब्राह्मणेन महात्मना ॥ २५ ॥

मूलम्

केचिच्चैनममन्यन्त तथैव विमुखीकृतम् ।
हतो राजेति राजेन्द्र ब्राह्मणेन महात्मना ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! कुछ लोग ऐसा समझते थे कि युधिष्ठिर पराजित होकर भाग गये। कुछ लोगोंकी यही धारणा थी कि महामनस्वी ब्राह्मण द्रोणाचार्यके हाथसे राजा युधिष्ठिर मार डाले गये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कृच्छ्रं परमं प्राप्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
त्यक्त्वा तत् कार्मुकं छिन्नं भारद्वाजेन संयुगे ॥ २६ ॥
आददेऽन्यद् धनुर्दिव्यं भास्वरं वेगवत्तरम्।

मूलम्

स कृच्छ्रं परमं प्राप्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
त्यक्त्वा तत् कार्मुकं छिन्नं भारद्वाजेन संयुगे ॥ २६ ॥
आददेऽन्यद् धनुर्दिव्यं भास्वरं वेगवत्तरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भारी संकटमें पड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिरने युद्धमें द्रोणाचार्यके द्वारा काट दिये गये उस धनुषको त्यागकर दूसरा प्रकाशमान एवं अत्यन्त वेगशाली दिव्य धनुष धारण किया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तान् सायकांस्तत्र द्रोणनुन्नान् सहस्रशः ॥ २७ ॥
चिच्छेद समरे वीरस्तदद्भुतमिवाभवत् ।

मूलम्

ततस्तान् सायकांस्तत्र द्रोणनुन्नान् सहस्रशः ॥ २७ ॥
चिच्छेद समरे वीरस्तदद्भुतमिवाभवत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वीर युधिष्ठिरने समरांगणमें द्रोणाचार्यके चलाये हुए सहस्रों बाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वह अद्भुत-सी बात हुई॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छित्त्वा तु तान् शरान् राजन् क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ २८ ॥
शक्तिं जग्राह समरे गिरीणामपि दारिणीम्।
स्वर्णदण्डां महाघोरामष्टघण्टां भयावहाम् ॥ २९ ॥

मूलम्

छित्त्वा तु तान् शरान् राजन् क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ २८ ॥
शक्तिं जग्राह समरे गिरीणामपि दारिणीम्।
स्वर्णदण्डां महाघोरामष्टघण्टां भयावहाम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समरांगणमें क्रोधसे लाल आँखें किये युधिष्ठिरने द्रोणके उन बाणोंको काटकर एक शक्ति हाथमें ली, जो पर्वतोंको भी विदीर्ण कर देनेवाली थी। उसमें सोनेका डंडा और आठ घंटियाँ लगी थीं। वह अत्यन्त घोर शक्ति मनमें भय उत्पन्न करनेवाली थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुत्क्षिप्य च तां हृष्टो ननाद बलवद् बली।
नादेन सर्वभूतानि त्रासयन्निव भारत ॥ ३० ॥

मूलम्

समुत्क्षिप्य च तां हृष्टो ननाद बलवद् बली।
नादेन सर्वभूतानि त्रासयन्निव भारत ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उसे चलाकर हर्षमें भरे हुए बलवान् युधिष्ठिरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया। उन्होंने उस सिंहनादसे सम्पूर्ण भूतोंमें भय-सा उत्पन्न कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिं समुद्यतां दृष्ट्वा धर्मराजेन संयुगे।
स्वस्ति द्रोणाय सहसा सर्वभूतान्यथाब्रुवन् ॥ ३१ ॥

मूलम्

शक्तिं समुद्यतां दृष्ट्वा धर्मराजेन संयुगे।
स्वस्ति द्रोणाय सहसा सर्वभूतान्यथाब्रुवन् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धस्थलमें धर्मराजके द्वारा उठायी हुई उस शक्तिको देखकर समस्त प्राणी सहसा बोल उठे—‘द्रोणाय स्वस्ति (द्रोणाचार्यका कल्याण हो)’॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा राजभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसंनिभा ।
प्रज्वालयन्ती गगनं दिशः सप्रदिशस्तथा ॥ ३२ ॥
द्रोणान्तिकमनुप्राप्ता दीप्तास्या पन्नगी यथा।

मूलम्

सा राजभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसंनिभा ।
प्रज्वालयन्ती गगनं दिशः सप्रदिशस्तथा ॥ ३२ ॥
द्रोणान्तिकमनुप्राप्ता दीप्तास्या पन्नगी यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

केंचुलसे छूटे हुए सर्पके समान राजाकी भुजाओंसे मुक्त हुई वह शक्ति आकाश, दिशाओं तथा विदिशाओं (कोणों)-को प्रकाशित करती हुई जलते मुखवाली नागिनके समान द्रोणाचार्यके निकट जा पहुँची॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं सहसा दृष्ट्वा द्रोणो विशाम्पते ॥ ३३ ॥
प्रादुश्चक्रे ततो ब्राह्ममस्त्रमस्त्रविदां वरः।

मूलम्

तामापतन्तीं सहसा दृष्ट्वा द्रोणो विशाम्पते ॥ ३३ ॥
प्रादुश्चक्रे ततो ब्राह्ममस्त्रमस्त्रविदां वरः।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! तब सहसा आती हुई उस शक्तिको देखकर अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोणने ब्रह्मास्त्र प्रकट किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्त्रं भस्मसात्कृत्वा तां शक्तिं घोरदर्शनाम् ॥ ३४ ॥
जगाम स्यन्दनं तूर्णं पाण्डवस्य यशस्विनः।

मूलम्

तदस्त्रं भस्मसात्कृत्वा तां शक्तिं घोरदर्शनाम् ॥ ३४ ॥
जगाम स्यन्दनं तूर्णं पाण्डवस्य यशस्विनः।

अनुवाद (हिन्दी)

वह अस्त्र भयंकर दीखनेवाली उस शक्तिको भस्म करके तुरंत ही यशस्वी युधिष्ठिरके रथकी ओर चला॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युधिष्ठिरो राजा द्रोणास्त्रं तत् समुद्यतम् ॥ ३५ ॥
अशामयन्महाप्राज्ञो ब्रह्मास्त्रेणैव मारिष ।

मूलम्

ततो युधिष्ठिरो राजा द्रोणास्त्रं तत् समुद्यतम् ॥ ३५ ॥
अशामयन्महाप्राज्ञो ब्रह्मास्त्रेणैव मारिष ।

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! तब महाप्राज्ञ राजा युधिष्ठिरने द्रोणद्वारा चलाये गये उस ब्रह्मास्त्रको ब्रह्मास्त्रद्वारा ही शान्त कर दिया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्ध्वा तं च रणे द्रोणं पञ्चभिर्नतपर्वभिः ॥ ३६ ॥
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन चिच्छेदास्य महद् धनुः।

मूलम्

विद्ध्वा तं च रणे द्रोणं पञ्चभिर्नतपर्वभिः ॥ ३६ ॥
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन चिच्छेदास्य महद् धनुः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद झुकी हुई गाँठवाले पाँच बाणोंद्वारा रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यको घायल करके तीखे क्षुरप्रसे उनके विशाल धनुषको काट दिया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदपास्य धनुश्छिन्नं द्रोणः क्षत्रियमर्दनः ॥ ३७ ॥
गदां चिक्षेप सहसा धर्मपुत्राय मारिष।

मूलम्

तदपास्य धनुश्छिन्नं द्रोणः क्षत्रियमर्दनः ॥ ३७ ॥
गदां चिक्षेप सहसा धर्मपुत्राय मारिष।

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! क्षत्रियमर्दन द्रोणने उस कटे हुए धनुषको फेंककर सहसा धर्मपुत्र युधिष्ठिरपर गदा चलायी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं सहसा गदां दृष्ट्वा युधिष्ठिरः ॥ ३८ ॥
गदामेवाग्रहीत् क्रुद्धश्चिक्षेप च परंतप।

मूलम्

तामापतन्तीं सहसा गदां दृष्ट्वा युधिष्ठिरः ॥ ३८ ॥
गदामेवाग्रहीत् क्रुद्धश्चिक्षेप च परंतप।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! उस गदाको सहसा अपने ऊपर आती देख क्रोधमें भरे हुए युधिष्ठिरने भी गदा ही उठा ली और द्रोणाचार्यपर चला दी॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते गदे सहसा मुक्ते समासाद्य परस्परम् ॥ ३९ ॥
संघर्षात् पावकं मुक्त्वा समेयातां महीतले।

मूलम्

ते गदे सहसा मुक्ते समासाद्य परस्परम् ॥ ३९ ॥
संघर्षात् पावकं मुक्त्वा समेयातां महीतले।

अनुवाद (हिन्दी)

एकबारगी छोड़ी हुई वे दोनों गदाएँ एक-दूसरीसे टकराकर संघर्षसे आगकी चिनगारियाँ छोड़ती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ीं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य मारिष ॥ ४० ॥
चतुर्भिर्निशितैस्तीक्ष्णैर्हयान् जघ्ने शरोत्तमैः ।

मूलम्

ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य मारिष ॥ ४० ॥
चतुर्भिर्निशितैस्तीक्ष्णैर्हयान् जघ्ने शरोत्तमैः ।

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! तब द्रोणाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए चार तीखे एवं उत्तम बाणोंद्वारा धर्मराजके चारों घोड़ोंको मार डाला॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिच्छेदैकेन भल्लेन धनुश्चेन्द्रध्वजोपमम् ॥ ४१ ॥
केतुमेकेन चिच्छेद पाण्डवं चार्दयत् त्रिभिः।

मूलम्

चिच्छेदैकेन भल्लेन धनुश्चेन्द्रध्वजोपमम् ॥ ४१ ॥
केतुमेकेन चिच्छेद पाण्डवं चार्दयत् त्रिभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर एक भल्ल चलाकर उनका धनुष काट दिया। एक भल्लसे इन्द्रध्वजके समान उनकी ध्वजा खण्डित कर दी और तीन बाणोंसे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको भी पीड़ा पहुँचायी॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हताश्वात् तु रथात् तूर्णमवप्लुत्य युधिष्ठिरः ॥ ४२ ॥
तस्थावूर्ध्वभुजो राजा व्यायुधो भरतर्षभ।

मूलम्

हताश्वात् तु रथात् तूर्णमवप्लुत्य युधिष्ठिरः ॥ ४२ ॥
तस्थावूर्ध्वभुजो राजा व्यायुधो भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथसे तुरंत ही कूदकर राजा युधिष्ठिर बिना आयुधके हाथ ऊपर उठाये धरतीपर खड़े हो गये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरथं तं समालोक्य व्यायुधं च विशेषतः ॥ ४३ ॥
द्रोणो व्यमोहयच्छत्रून् सर्वसैन्यानि वा विभो।

मूलम्

विरथं तं समालोक्य व्यायुधं च विशेषतः ॥ ४३ ॥
द्रोणो व्यमोहयच्छत्रून् सर्वसैन्यानि वा विभो।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! उन्हें रथ और विशेषतः आयुधसे रहित देख द्रोणाचार्यने शत्रुओं तथा उनकी सम्पूर्ण सेनाओंको मोहित कर दिया॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुञ्चंश्चेषुगणांस्तीक्ष्णाल्लँघुहस्तो दृढव्रतः ॥ ४४ ॥
अभिदुद्राव राजानं सिंहो मृगमिवोल्बणः।

मूलम्

मुञ्चंश्चेषुगणांस्तीक्ष्णाल्लँघुहस्तो दृढव्रतः ॥ ४४ ॥
अभिदुद्राव राजानं सिंहो मृगमिवोल्बणः।

अनुवाद (हिन्दी)

दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले द्रोणके हाथ बड़ी फुर्तीसे चलते थे। जैसे प्रचण्ड सिंह किसी मृगका पीछा करता हो, उसी प्रकार वे तीखे बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए राजा युधिष्ठिरकी ओर दौड़े॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमभिद्रुतमालोक्य द्रोणेनामित्रघातिना ॥ ४५ ॥
हाहेति सहसा शब्दः पाण्डूनां समजायत।

मूलम्

तमभिद्रुतमालोक्य द्रोणेनामित्रघातिना ॥ ४५ ॥
हाहेति सहसा शब्दः पाण्डूनां समजायत।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुनाशक द्रोणाचार्यके द्वारा युधिष्ठिरका पीछा होता देख पाण्डवदलमें सहसा हाहाकार मच गया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतो राजा हतो राजा भारद्वाजेन मारिष ॥ ४६ ॥
इत्यासीत् सुमहाञ्छब्दः पाण्डुसैन्यस्य भारत।

मूलम्

हतो राजा हतो राजा भारद्वाजेन मारिष ॥ ४६ ॥
इत्यासीत् सुमहाञ्छब्दः पाण्डुसैन्यस्य भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! माननीय नरेश! पाण्डुसेनामें यह महान् कोलाहल होने लगा कि ‘राजा मारे गये, राजा मारे गये’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वरितमारुह्य सहदेवरथं नृपः ।
अपायाज्जवनैरश्वैः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ४७ ॥

मूलम्

ततस्त्वरितमारुह्य सहदेवरथं नृपः ।
अपायाज्जवनैरश्वैः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर तुरंत ही सहदेवके रथपर आरूढ़ हो अपने वेगशाली घोड़ोंद्वारा वहाँसे हट गये॥४७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि युधिष्ठिरापयाने षडधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें युधिष्ठिरका पलायनविषयक एक सौ छवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०६॥