१०५ ध्वजवर्णने

भागसूचना

पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुन तथा कौरव-महारथियोंके ध्वजोंका वर्णन और नौ महारथियोंके साथ अकेले अर्जुनका युद्ध

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजान् बहुविधाकारान् भ्राजमानानति श्रिया।
पार्थानां मामकानां च तान् ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

मूलम्

ध्वजान् बहुविधाकारान् भ्राजमानानति श्रिया।
पार्थानां मामकानां च तान् ममाचक्ष्व संजय ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— संजय! मेरे तथा कुन्तीके पुत्रोंके जो नाना प्रकारके ध्वज अत्यन्त शोभासे उद्भासित हो रहे थे, उनका मुझसे वर्णन करो॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजान् बहुविधाकारान् शृणु तेषां महात्मनाम्।
रूपतो वर्णतश्चैव नामतश्च निबोध मे ॥ २ ॥

मूलम्

ध्वजान् बहुविधाकारान् शृणु तेषां महात्मनाम्।
रूपतो वर्णतश्चैव नामतश्च निबोध मे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! उन महामनस्वी वीरोंके जो नाना प्रकारकी आकृतिवाले ध्वज फहरा रहे थे, उनका रूप-रंग और नाम मैं बता रहा हूँ, सुनिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तु रथमुख्यानां रथेषु विविधा ध्वजाः।
प्रत्यदृश्यन्त राजेन्द्र ज्वलिता इव पावकाः ॥ ३ ॥

मूलम्

तेषां तु रथमुख्यानां रथेषु विविधा ध्वजाः।
प्रत्यदृश्यन्त राजेन्द्र ज्वलिता इव पावकाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उन श्रेष्ठ महारथियोंके रथोंपर भाँति-भाँतिके ध्वज प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी दिखायी देते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चनाः काञ्चनापीडाः काञ्चनस्रगलंकृताः ।
काञ्चनानीव शृङ्गाणि काञ्चनस्य महागिरेः ॥ ४ ॥

मूलम्

काञ्चनाः काञ्चनापीडाः काञ्चनस्रगलंकृताः ।
काञ्चनानीव शृङ्गाणि काञ्चनस्य महागिरेः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ध्वज सोनेके बने थे। उनके ऊपरी भागको सुवर्णसे ही सजाया गया था। सोनेकी ही मालाओंसे वे अलंकृत थे। अतः सुवर्णमय महापर्वत सुमेरुके स्वर्णमय शिखरोंके समान सुशोभित होते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेकवर्णा विविधा ध्वजाः परमशोभनाः।
ते ध्वजाः संवृतास्तेषां पताकाभिः समन्ततः ॥ ५ ॥
नानावर्णविरागाभिः शुशुभुः सर्वतो वृताः।

मूलम्

अनेकवर्णा विविधा ध्वजाः परमशोभनाः।
ते ध्वजाः संवृतास्तेषां पताकाभिः समन्ततः ॥ ५ ॥
नानावर्णविरागाभिः शुशुभुः सर्वतो वृताः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे परम शोभासम्पन्न अनेक प्रकारके बहुरंगे ध्वज सब ओरसे नाना रंगकी पताकाओंद्वारा घिरकर बड़ी शोभा पाते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पताकाश्च ततस्तास्तु श्वसनेन समीरिताः ॥ ६ ॥
नृत्यमाना व्यदृश्यन्त रङ्गमध्ये विलासिकाः।

मूलम्

पताकाश्च ततस्तास्तु श्वसनेन समीरिताः ॥ ६ ॥
नृत्यमाना व्यदृश्यन्त रङ्गमध्ये विलासिकाः।

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी वे पताकाएँ वायुसे संचालित हो रंगमंचपर नृत्य करनेवाली विलासिनियोंके समान दिखायी देती थीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रायुधसवर्णाभाः पताका भरतर्षभ ॥ ७ ॥
दोधूयमाना रथिनां शोभयन्ति महारथान्।

मूलम्

इन्द्रायुधसवर्णाभाः पताका भरतर्षभ ॥ ७ ॥
दोधूयमाना रथिनां शोभयन्ति महारथान्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इन्द्रधनुषके समान प्रभावाली फहराती हुई पताकाएँ रथियोंके विशाल रथोंकी शोभा बढ़ाती थीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहलाङ्‌गूलमुग्रास्यं ध्वजं वानरलक्षणम् ॥ ८ ॥
धनंजयस्य संग्रामे प्रत्यदृश्यत भैरवम्।

मूलम्

सिंहलाङ्‌गूलमुग्रास्यं ध्वजं वानरलक्षणम् ॥ ८ ॥
धनंजयस्य संग्रामे प्रत्यदृश्यत भैरवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उस संग्राममें अर्जुनका भयंकर ध्वज वानरके चिह्नसे सुशोभित दिखायी देता था। उस वानरकी पूँछ सिंहके समान थी और उसका मुख बड़ा ही उग्र था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वानरवरो राजन् पताकाभिरलंकृतः ॥ ९ ॥
त्रासयामास तत् सैन्यं ध्वजो गाण्डीवधन्वनः।

मूलम्

स वानरवरो राजन् पताकाभिरलंकृतः ॥ ९ ॥
त्रासयामास तत् सैन्यं ध्वजो गाण्डीवधन्वनः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! श्रेष्ठ वानरसे सुशोभित तथा पताकाओंसे अलंकृत गाण्डीवधारी अर्जुनका वह ध्वज आपकी उस सेनाको भयभीत किये देता था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव सिंहलाङ्‌गूलं द्रोणपुत्रस्य भारत ॥ १० ॥
ध्वजाग्रं समपश्याम बालसूर्यसमप्रभम् ।

मूलम्

तथैव सिंहलाङ्‌गूलं द्रोणपुत्रस्य भारत ॥ १० ॥
ध्वजाग्रं समपश्याम बालसूर्यसमप्रभम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इसी प्रकार हमलोगोंने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा-के श्रेष्ठ ध्वजको प्रातःकालीन सूर्यके समान अरुण कान्तिसे प्रकाशित देखा था। उसमें सिंहकी पूँछका चिह्न था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चनं पवनोद्‌धूतं शक्रध्वजसमप्रभम् ॥ ११ ॥
नन्दनं कौरवेन्द्राणां द्रौणेर्लक्ष्म समुच्छ्रितम्।

मूलम्

काञ्चनं पवनोद्‌धूतं शक्रध्वजसमप्रभम् ॥ ११ ॥
नन्दनं कौरवेन्द्राणां द्रौणेर्लक्ष्म समुच्छ्रितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामाका इन्द्रध्वजके समान प्रकाशमान सुवर्णमय ऊँचा ध्वज वायुकी प्रेरणासे फहराता हुआ कौरव-नरेशोंका आनन्द बढ़ा रहा था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्तिकक्ष्या पुनर्हैमी बभूवाधिरथेर्ध्वजः ॥ १२ ॥
आहवे खं महाराज ददृशे पूरयन्निव।

मूलम्

हस्तिकक्ष्या पुनर्हैमी बभूवाधिरथेर्ध्वजः ॥ १२ ॥
आहवे खं महाराज ददृशे पूरयन्निव।

अनुवाद (हिन्दी)

अधिरथपुत्र कर्णका ध्वज हाथीकी सुवर्णमयी रस्सीके चिह्नसे युक्त था। महाराज! वह संग्राममें आकाशको भरता हुआ-सा दिखायी देता था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पताका काञ्चनी स्रग्वी ध्वजे कर्णस्य संयुगे ॥ १३ ॥
नृत्यतीव रथोपस्थे श्वसनेन समीरिता।

मूलम्

पताका काञ्चनी स्रग्वी ध्वजे कर्णस्य संयुगे ॥ १३ ॥
नृत्यतीव रथोपस्थे श्वसनेन समीरिता।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धस्थलमें कर्णके ध्वजपर सुवर्णमयी मालासे विभूषित पताका वायुसे आन्दोलित हो रथकी बैठकपर नृत्य-सा कर रही थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्यस्य तु पाण्डूनां ब्राह्मणस्य तपस्विनः ॥ १४ ॥
गोवृषो गौतमस्यासीत् कृपस्य सुपरिष्कृतः।
स तेन भ्राजते राजन् गोवृषेण महारथः ॥ १५ ॥
त्रिपुरघ्नरथो यद्वद् गोवृषेण विराजता।

मूलम्

आचार्यस्य तु पाण्डूनां ब्राह्मणस्य तपस्विनः ॥ १४ ॥
गोवृषो गौतमस्यासीत् कृपस्य सुपरिष्कृतः।
स तेन भ्राजते राजन् गोवृषेण महारथः ॥ १५ ॥
त्रिपुरघ्नरथो यद्वद् गोवृषेण विराजता।

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंके आचार्य, तपस्वी ब्राह्मण, गौतमगोत्रीय कृपाचार्यके ध्वजपर एक बैलका सुन्दर चिह्न अंकित था। राजन्! उनका वह विशाल रथ उस वृषभचिह्नसे बड़ी शोभा पा रहा था; ठीक उसी तरह, जैसे त्रिपुरनाशक महादेवजीका रथ सुन्दर वृषभचिह्नसे शोभायमान होता था॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयूरो वृषसेनस्य काञ्चनो मणिरत्नवान् ॥ १६ ॥
व्याहरिष्यन्निवातिष्ठत् सेनाग्रमुपशोभयन् ।

मूलम्

मयूरो वृषसेनस्य काञ्चनो मणिरत्नवान् ॥ १६ ॥
व्याहरिष्यन्निवातिष्ठत् सेनाग्रमुपशोभयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वृषसेनका मणिरत्नविभूषित सुवर्णमय ध्वज मयूर-चिह्नसे युक्त था। वह मयूर सेनाके अग्रभागकी शोभा बढ़ाता हुआ इस प्रकार खड़ा था, मानो बोल देगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन तस्य रथो भाति मयूरेण महात्मनः ॥ १७ ॥
यथा स्कन्दस्य राजेन्द्र मयूरेण विराजता।

मूलम्

तेन तस्य रथो भाति मयूरेण महात्मनः ॥ १७ ॥
यथा स्कन्दस्य राजेन्द्र मयूरेण विराजता।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! जैसे स्वामी स्कन्दका रथ सुन्दर मयूर-चिह्नसे शोभित होता है, उसी प्रकार महामना वृषसेनका रथ उस मयूरचिह्नसे शोभा पा रहा था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्रराजस्य शल्यस्य ध्वजाग्रेऽग्निशिखामिव ॥ १८ ॥
सौवर्णीं प्रतिपश्याम सीतामप्रतिमां शुभाम्।

मूलम्

मद्रराजस्य शल्यस्य ध्वजाग्रेऽग्निशिखामिव ॥ १८ ॥
सौवर्णीं प्रतिपश्याम सीतामप्रतिमां शुभाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रराज शल्यकी ध्वजाके अग्रभागमें हमने अग्निशिखाके समान उज्ज्वल, सुवर्णमय, अनुपम तथा शुभ लक्षणोंसे युक्त एक सीता (हलसे भूमिपर खींची हुई रेखा) देखी थी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा सीता भ्राजते तस्य रथमास्थाय मारिष ॥ १९ ॥
सर्वबीजविरूढेव यथा सीता श्रिया वृता।

मूलम्

सा सीता भ्राजते तस्य रथमास्थाय मारिष ॥ १९ ॥
सर्वबीजविरूढेव यथा सीता श्रिया वृता।

अनुवाद (हिन्दी)

माननीय नरेश! जैसे खेतमें हलकी नोकसे बनी हुई रेखा सभी बीजोंके अंकुरित होनेपर शोभासम्पन्न दिखायी देती है, उसी प्रकार मद्रराजके रथका आश्रय ले वह सीता (हलद्वारा बनी हुई रेखा) बड़ी शोभा पा रही थी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वराहः सिन्धुराजस्य राजतोऽभिविराजते ॥ २० ॥
ध्वजाग्रेऽलोहितार्काभो हेमजालपरिष्कृतः ।

मूलम्

वराहः सिन्धुराजस्य राजतोऽभिविराजते ॥ २० ॥
ध्वजाग्रेऽलोहितार्काभो हेमजालपरिष्कृतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

सिन्धुराज जयद्रथकी ध्वजाके अग्रभागमें उज्ज्वल सूर्यके समान श्वेत कान्तिमान् और सोनेकी जालीसे विभूषित चाँदीका बना हुआ वराहचिह्न अत्यन्त सुशोभित हो रहा था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुशुभे केतुना तेन राजतेन जयद्रथः ॥ २१ ॥
यथा देवासुरे युद्धे पुरा पूषा स्म शोभते।

मूलम्

शुशुभे केतुना तेन राजतेन जयद्रथः ॥ २१ ॥
यथा देवासुरे युद्धे पुरा पूषा स्म शोभते।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पूर्वकालमें देवासुर-संग्राममें पूषा शोभा पाते थे, उसी प्रकार उस रजतनिर्मित ध्वजसे जयद्रथकी शोभा हो रही थी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौमदत्तेः पुनर्यूपो यज्ञशीलस्य धीमतः ॥ २२ ॥
ध्वजः सूर्य इवाभाति सोमश्चात्र प्रदृश्यते।

मूलम्

सौमदत्तेः पुनर्यूपो यज्ञशीलस्य धीमतः ॥ २२ ॥
ध्वजः सूर्य इवाभाति सोमश्चात्र प्रदृश्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

सदा यज्ञमें लगे रहनेवाले बुद्धिमान् भूरिश्रवाके रथमें यूपका चिह्न बना था। वह ध्वज सूर्यके समान प्रकाशित होता था और उसमें चन्द्रमाका चिह्न भी दृष्टिगोचर होता था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यूपः काञ्चनो राजन् सौमदत्तेर्विराजते ॥ २३ ॥
राजसूये मखश्रेष्ठे यथा यूपः समुच्छ्रितः।

मूलम्

स यूपः काञ्चनो राजन् सौमदत्तेर्विराजते ॥ २३ ॥
राजसूये मखश्रेष्ठे यथा यूपः समुच्छ्रितः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे यज्ञोंमें श्रेष्ठ राजसूयमें ऊँचा यूप सुशोभित होता है, भूरिश्रवाका वह सुवर्णमय यूप वैसे ही शोभा पा रहा था॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शलस्य तु महाराज राजतो द्विरदो महान् ॥ २४ ॥
केतुः काञ्चनचित्राङ्गैर्मयूरैरुपशोभितः ।
स केतुः शोभयामास सैन्यं ते भरतर्षभ ॥ २५ ॥

मूलम्

शलस्य तु महाराज राजतो द्विरदो महान् ॥ २४ ॥
केतुः काञ्चनचित्राङ्गैर्मयूरैरुपशोभितः ।
स केतुः शोभयामास सैन्यं ते भरतर्षभ ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! शलके ध्वजमें चाँदीका महान् गजराज बना हुआ था। भरतश्रेष्ठ! वह ध्वज सुवर्णनिर्मित विचित्र अंगोंवाले मयूरोंसे सुशोभित था और आपकी सेनाकी शोभा बढ़ा रहा था॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा श्वेतो महानागो देवराजचमूं तथा।
नागो मणिमयो राज्ञो ध्वजः कनकसंवृतः ॥ २६ ॥

मूलम्

यथा श्वेतो महानागो देवराजचमूं तथा।
नागो मणिमयो राज्ञो ध्वजः कनकसंवृतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे श्वेत वर्णका महान् ऐरावत हाथी देवराजकी सेनाको सुशोभित करता है, उसी प्रकार राजा दुर्योधनका सुवर्णमण्डित ध्वज मणिमय गजराजके चिह्नसे उपलक्षित होता था॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंकिणीशतसंह्रादो भ्राजंश्चित्रो रथोत्तमे ।
व्यभ्राजत भृशं राजन् पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ २७ ॥
ध्वजेन महता संख्ये कुरूणामृषभस्तदा।

मूलम्

किंकिणीशतसंह्रादो भ्राजंश्चित्रो रथोत्तमे ।
व्यभ्राजत भृशं राजन् पुत्रस्तव विशाम्पते ॥ २७ ॥
ध्वजेन महता संख्ये कुरूणामृषभस्तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! वह विचित्र ध्वज दुर्योधनके उत्तम रथपर सैकड़ों क्षुद्रघंटिकाओंकी ध्वनिसे शोभायमान था। उस महान् ध्वजसे युद्धस्थलमें आपके पुत्र कुरुश्रेष्ठ दुर्योधनकी उस समय बड़ी शोभा हो रही थी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवैते तव वाहिन्यामुच्छ्रिताः परमध्वजाः ॥ २८ ॥
व्यदीपयंस्ते पृतनां युगान्तादित्यसंनिभाः ।

मूलम्

नवैते तव वाहिन्यामुच्छ्रिताः परमध्वजाः ॥ २८ ॥
व्यदीपयंस्ते पृतनां युगान्तादित्यसंनिभाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

ये नौ उत्तम ध्वज आपकी सेनामें बहुत ऊँचे थे और प्रलयकालके सूर्यके समान अपना प्रकाश फैलाते हुए आपकी सेनाको उद्भासित कर रहे थे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशमस्त्वर्जुनस्यासीदेक एव महाकपिः ॥ २९ ॥
अदीप्यतार्जुनो येन हिमवानिव वह्निना।

मूलम्

दशमस्त्वर्जुनस्यासीदेक एव महाकपिः ॥ २९ ॥
अदीप्यतार्जुनो येन हिमवानिव वह्निना।

अनुवाद (हिन्दी)

दसवाँ ध्वज एकमात्र अर्जुनका ही था, जो विशाल वानरचिह्नसे सुशोभित था। उससे अर्जुन उसी प्रकार देदीप्यमान हो रहे थे, जैसे अग्निसे हिमालय पर्वत उद्भासित होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चित्राणि शुभ्राणि सुमहान्ति महारथाः ॥ ३० ॥
कार्मुकाण्याददुस्तूर्णमर्जुनार्थे परंतपाः ।

मूलम्

ततश्चित्राणि शुभ्राणि सुमहान्ति महारथाः ॥ ३० ॥
कार्मुकाण्याददुस्तूर्णमर्जुनार्थे परंतपाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर शत्रुओंको संताप देनेवाले उन सब महारथियोंने अर्जुनको मारनेके लिये तुरंत ही विचित्र, चमकीले और विशाल धनुष हाथमें ले लिये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव धनुरायच्छत् पार्थः शत्रुविनाशनः ॥ ३१ ॥
गाण्डीवं दिव्यकर्मा तद् राजन् दुर्मन्त्रिते तव।

मूलम्

तथैव धनुरायच्छत् पार्थः शत्रुविनाशनः ॥ ३१ ॥
गाण्डीवं दिव्यकर्मा तद् राजन् दुर्मन्त्रिते तव।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उसी प्रकार दिव्य कर्म करनेवाले शत्रुनाशन पार्थने भी आपकी कुमन्त्रणाके फलस्वरूप अपने गाण्डीव धनुषको खींचा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवापराधाद् राजानो निहता बहुशो युधि ॥ ३२ ॥
नानादिग्भ्यः समाहूताः सहयाः सरथद्विपाः।

मूलम्

तवापराधाद् राजानो निहता बहुशो युधि ॥ ३२ ॥
नानादिग्भ्यः समाहूताः सहयाः सरथद्विपाः।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आपके अपराधसे उस युद्धस्थलमें अनेक दिशाओंसे आमन्त्रित होकर आये हुए बहुत-से राजा अपने घोड़ों, रथों और हाथियोंसहित मारे गये हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामासीद् व्यतिक्षेपौ गर्जतामितरेतरम् ॥ ३३ ॥
दुर्योधनमुखानां च पाण्डूनामृषभस्य च।

मूलम्

तेषामासीद् व्यतिक्षेपौ गर्जतामितरेतरम् ॥ ३३ ॥
दुर्योधनमुखानां च पाण्डूनामृषभस्य च।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय एक-दूसरेको लक्ष्य करके गर्जना करनेवाले दुर्योधन आदि महारथियों तथा पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुनमें परस्पर आघात-प्रतिघात होने लगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राद्भुतं परं चक्रे कौन्तेयः कृष्णसारथिः ॥ ३४ ॥
यदेको बहुभिः सार्धं समागच्छदभीतवत्।

मूलम्

तत्राद्भुतं परं चक्रे कौन्तेयः कृष्णसारथिः ॥ ३४ ॥
यदेको बहुभिः सार्धं समागच्छदभीतवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन कुन्तीकुमार अर्जुनने यह अत्यन्त अद्भुत पराक्रम किया कि अकेले ही बहुतोंके साथ निर्भय होकर युद्ध आरम्भ कर दिया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोभत महाबाहुर्गाण्डीवं विक्षिपन् धनुः ॥ ३५ ॥
जिगीषुस्तान् नरव्याघ्रो जिघांसुश्च जयद्रथम्।

मूलम्

अशोभत महाबाहुर्गाण्डीवं विक्षिपन् धनुः ॥ ३५ ॥
जिगीषुस्तान् नरव्याघ्रो जिघांसुश्च जयद्रथम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उनपर विजय पानेकी इच्छा रखकर जयद्रथके वधकी अभिलाषासे गाण्डीव धनुषको खींचते हुए पुरुषसिंह महाबाहु अर्जुनकी बड़ी शोभा हो रही थी॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रार्जुनो नरव्याघ्रः शरैर्मुक्तैः सहस्रशः ॥ ३६ ॥
अदृश्यांस्तावकान् योधान् प्रचक्रे शत्रुतापनः।

मूलम्

तत्रार्जुनो नरव्याघ्रः शरैर्मुक्तैः सहस्रशः ॥ ३६ ॥
अदृश्यांस्तावकान् योधान् प्रचक्रे शत्रुतापनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय शत्रुओंको संताप देनेवाले नरव्याघ्र अर्जुनने अपने छोड़े हुए सहस्रों बाणोंद्वारा आपके योद्धाओंको अदृश्य कर दिया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तेऽपि नरव्याघ्राः पार्थं सर्वे महारथाः ॥ ३७ ॥
अदृश्यं समरे चक्रुः सायकौघैः समन्ततः।

मूलम्

ततस्तेऽपि नरव्याघ्राः पार्थं सर्वे महारथाः ॥ ३७ ॥
अदृश्यं समरे चक्रुः सायकौघैः समन्ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन सभी पुरुषसिंह महारथियोंने भी समरांगणमें सब ओरसे बाणसमूहोंकी वर्षा करके अर्जुनको अदृश्य कर दिया॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवृते नरसिंहैस्तु कुरूणामृषभेऽर्जुने ।
महानासीत् समुद्भूतस्तस्य सैन्यस्य निःस्वनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

संवृते नरसिंहैस्तु कुरूणामृषभेऽर्जुने ।
महानासीत् समुद्भूतस्तस्य सैन्यस्य निःस्वनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कुरुश्रेष्ठ अर्जुन उन पुरुषसिंहोंद्वारा घेर लिये गये, तब उस सेनामें महान् कोलाहल प्रकट हुआ॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि ध्वजवर्णने पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें ध्वजवर्णनविषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०५॥