१०३ दुर्योधनपराजये

भागसूचना

त्र्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधन और अर्जुनका युद्ध तथा दुर्योधनकी पराजय

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वार्जुनं राजा त्रिभिर्मर्मातिगैः शरैः।
अभ्यविध्यन्महावेगैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान् ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वार्जुनं राजा त्रिभिर्मर्मातिगैः शरैः।
अभ्यविध्यन्महावेगैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! अर्जुनसे ऐसा कहकर राजा दुर्योधनने तीन अत्यन्त वेगशाली मर्मभेदी बाणोंद्वारा उन्हें बींध डाला और चार बाणोंद्वारा उनके चारों घोड़ोंको भी घायल कर दिया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवं च दशभिः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे।
प्रतोदं चास्य भल्लेन छित्त्वा भूमावपातयत् ॥ २ ॥

मूलम्

वासुदेवं च दशभिः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे।
प्रतोदं चास्य भल्लेन छित्त्वा भूमावपातयत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार दस बाण मारकर उसने श्रीकृष्णकी भी छाती छेद डाली और एक भल्लसे उनके चाबुकको काटकर पृथ्वीपर गिरा दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चतुर्दशभिः पार्थश्चित्रपुङ्खैः शिलाशितैः।
अविध्यत् तूर्णमव्यग्रस्ते चाभ्रश्यन्त वर्मणि ॥ ३ ॥

मूलम्

तं चतुर्दशभिः पार्थश्चित्रपुङ्खैः शिलाशितैः।
अविध्यत् तूर्णमव्यग्रस्ते चाभ्रश्यन्त वर्मणि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब व्यग्रतारहित अर्जुनने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए विचित्र पंखवाले चौदह बाणोंद्वारा तुरंत उसे घायल किया; परंतु उनके वे बाण दुर्योधनके कवचपर जाकर फिसल गये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां नैष्फल्यमालोक्य पुनर्नव च पञ्च च।
प्राहिणोन्निशितान् बाणांस्ते चाभ्रश्यन्त वर्मणः ॥ ४ ॥

मूलम्

तेषां नैष्फल्यमालोक्य पुनर्नव च पञ्च च।
प्राहिणोन्निशितान् बाणांस्ते चाभ्रश्यन्त वर्मणः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें निष्फल हुआ देख अर्जुनने पुनः चौदह तीखे बाण चलाये; परंतु वे भी कवचसे फिसल गये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टाविंशांस्तु तान् बाणानस्तान्‌ विप्रेक्ष्य निष्फलान्।
अब्रवीत् परवीरघ्नः कृष्णोऽर्जुनमिदं वचः ॥ ५ ॥

मूलम्

अष्टाविंशांस्तु तान् बाणानस्तान्‌ विप्रेक्ष्य निष्फलान्।
अब्रवीत् परवीरघ्नः कृष्णोऽर्जुनमिदं वचः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके चलाये हुए उन अट्ठाईस बाणोंको निष्फल हुआ देख शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले श्रीकृष्णने उनसे इस प्रकार कहा—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्टपूर्वं पश्यामि शिलानामिव सर्पणम्।
त्वया सम्प्रेषिताः पार्थ नार्थं कुर्वन्ति पत्रिणः ॥ ६ ॥

मूलम्

अदृष्टपूर्वं पश्यामि शिलानामिव सर्पणम्।
त्वया सम्प्रेषिताः पार्थ नार्थं कुर्वन्ति पत्रिणः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! आज तो मैं प्रस्तरखण्डोंके चलनेके समान ऐसी बात देख रहा हूँ, जिसे पहले कभी नहीं देखा था। तुम्हारे चलाये हुए बाण तो कोई काम नहीं कर रहे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिद् गाण्डीवजः प्राणस्तथैव भरतर्षभ।
मुष्टिश्च ते यथापूर्वं भुजयोश्च बलं तव ॥ ७ ॥

मूलम्

कच्चिद् गाण्डीवजः प्राणस्तथैव भरतर्षभ।
मुष्टिश्च ते यथापूर्वं भुजयोश्च बलं तव ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे गाण्डीव-धनुषकी शक्ति पहले-जैसी ही है न? तुम्हारी मुट्ठी एवं बाहुबल भी पूर्ववत् हैं न?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वा कच्चिदयं कालः प्राप्तः स्यादद्य पश्चिमः।
तव चैवास्य शत्रोश्च तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ ८ ॥

मूलम्

न वा कच्चिदयं कालः प्राप्तः स्यादद्य पश्चिमः।
तव चैवास्य शत्रोश्च तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज तुम्हारी और तुम्हारे इस शत्रुकी अन्तिम भेंटका समय नहीं आया है क्या? मैं जो पूछता हूँ, उसका उत्तर दो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विस्मयो मे महान् पार्थ तव दृष्ट्वा शरानिमान्।
व्यर्थान् निपतितान् संख्ये दुर्योधनरथं प्रति ॥ ९ ॥

मूलम्

विस्मयो मे महान् पार्थ तव दृष्ट्वा शरानिमान्।
व्यर्थान् निपतितान् संख्ये दुर्योधनरथं प्रति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! आज युद्धस्थलमें दुर्योधनके रथके पास निष्फल होकर गिरे हुए तुम्हारे इन बाणोंको देखकर मुझे महान् आश्चर्य हो रहा है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्राशनिसमा घोराः परकायावभेदिनः ।
शराः कुर्वन्ति ते नार्थं पार्थ काद्य विडम्बना ॥ १० ॥

मूलम्

वज्राशनिसमा घोराः परकायावभेदिनः ।
शराः कुर्वन्ति ते नार्थं पार्थ काद्य विडम्बना ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! वज्र और अशनिके समान भयंकर तथा शत्रुओंके शरीरको विदीर्ण कर देनेवाले तुम्हारे वे बाण आज कुछ काम नहीं कर रहे हैं, यह कैसी विडम्बना है?’॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणेनैषा मतिः कृष्ण धार्तराष्ट्रे निवेशिता।
अभेद्या हि ममास्त्राणामेषा कवचधारणा ॥ ११ ॥

मूलम्

द्रोणेनैषा मतिः कृष्ण धार्तराष्ट्रे निवेशिता।
अभेद्या हि ममास्त्राणामेषा कवचधारणा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— श्रीकृष्ण! मेरा तो यह विश्वास है कि दुर्योधनको द्रोणाचार्यने अभेद्य कवच बाँधकर उसमें यह अद्भुत शक्ति स्थापित कर दी है। यह कवचधारणा मेरे अस्त्रोंके लिये अभेद्य है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नन्तर्हितं कृष्ण त्रैलोक्यमपि वर्मणि।
एको द्रोणो हि वेदैतदहं तस्माच्च सत्तमात् ॥ १२ ॥

मूलम्

अस्मिन्नन्तर्हितं कृष्ण त्रैलोक्यमपि वर्मणि।
एको द्रोणो हि वेदैतदहं तस्माच्च सत्तमात् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! इस कवचके भीतर तीनों लोकोंकी शक्ति संनिहित है। एकमात्र आचार्य द्रोण ही इस विद्याको जानते हैं और उन्हीं सद्‌गुरुसे सीखकर मैं भी इसे जान पाया हूँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शक्यमेतत् कवचं बाणैर्भेत्तुं कथंचन।
अपि वज्रेण गोविन्द स्वयं मघवता युधि ॥ १३ ॥

मूलम्

न शक्यमेतत् कवचं बाणैर्भेत्तुं कथंचन।
अपि वज्रेण गोविन्द स्वयं मघवता युधि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कवचको किसी प्रकार बाणोंद्वारा विदीर्ण नहीं किया जा सकता। गोविन्द! युद्धस्थलमें साक्षात् देवराज इन्द्र अपने वज्रसे भी इसका विदारण नहीं कर सकते॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानंस्त्वमपि वै कृष्ण मां विमोहयसे कथम्।
यद् वृत्तं त्रिषु लोकेषु यच्च केशव वर्तते ॥ १४ ॥
तथा भविष्यद् यच्चैव तत् सर्वं विदितं तव।
न त्विदं वेद वै कश्चिद् यथा त्वं मधुसूदन॥१५॥

मूलम्

जानंस्त्वमपि वै कृष्ण मां विमोहयसे कथम्।
यद् वृत्तं त्रिषु लोकेषु यच्च केशव वर्तते ॥ १४ ॥
तथा भविष्यद् यच्चैव तत् सर्वं विदितं तव।
न त्विदं वेद वै कश्चिद् यथा त्वं मधुसूदन॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! आप यह सब कुछ जानते हुए भी मुझे मोहमें कैसे डाल रहे हैं? केशव! तीनों लोकोंमें जो बात हो चुकी है, जो हो रही है तथा जो कुछ आगे होनेवाली है, वह सब आपको विदित है। मधुसूदन! इसे आप जैसा जानते हैं, वैसा दूसरा कोई नहीं जानता है॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दुर्योधनः कृष्ण द्रोणेन विहितामिमाम्।
तिष्ठत्यभीतवत् संख्ये बिभ्रत्‌ कवचधारणाम् ॥ १६ ॥

मूलम्

एष दुर्योधनः कृष्ण द्रोणेन विहितामिमाम्।
तिष्ठत्यभीतवत् संख्ये बिभ्रत्‌ कवचधारणाम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! द्रोणाचार्यके द्वारा विधिपूर्वक धारण करायी हुई इस कवचधारणाको ग्रहण करके यह दुर्योधन युद्धस्थलमें निर्भय-सा खड़ा है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्त्वत्र विहितं कार्यं नैष तद् वेत्ति माधव।
स्त्रीवदेष बिभर्त्येतां युक्तां कवचधारणाम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यत्त्वत्र विहितं कार्यं नैष तद् वेत्ति माधव।
स्त्रीवदेष बिभर्त्येतां युक्तां कवचधारणाम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! इसे धारण करनेपर जिस कर्तव्यके पालनका विधान किया गया है, उसे यह नहीं जानता है। जैसे स्त्रियाँ गहने पहन लेती हैं, उसी प्रकार यह दूसरेके द्वारा दी हुई इस कवचधारणाको अपनाये हुए है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य बाह्वोश्च मे वीर्यं धनुषश्च जनार्दन।
पराजयिष्ये कौरव्यं कवचेनापि रक्षितम् ॥ १८ ॥

मूलम्

पश्य बाह्वोश्च मे वीर्यं धनुषश्च जनार्दन।
पराजयिष्ये कौरव्यं कवचेनापि रक्षितम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! अब आप मेरी भुजाओं और धनुषका बल देखिये। मैं कवचसे सुरक्षित होनेपर भी दुर्योधनको पराजित कर दूँगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमङ्गिरसे प्रादाद् देवेशो वर्म भास्वरम्।
तस्माद् बृहस्पतिः प्राप ततः प्राप पुरंदरः ॥ १९ ॥

मूलम्

इदमङ्गिरसे प्रादाद् देवेशो वर्म भास्वरम्।
तस्माद् बृहस्पतिः प्राप ततः प्राप पुरंदरः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर! ब्रह्माजीने यह तेजस्वी कवच अंगिराको दिया था। उनसे बृहस्पतिजीने प्राप्त किया था। बृहस्पतिजीसे वह इन्द्रको मिला॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनर्ददौ सुरपतिर्मह्यं वर्म ससंग्रहम्।
दैवं यद्यस्य वर्मैतद् ब्रह्मणा वा स्वयं कृतम् ॥ २० ॥
नैनं गोप्स्यति दुर्बुद्धिमद्य बाणहतं मया।

मूलम्

पुनर्ददौ सुरपतिर्मह्यं वर्म ससंग्रहम्।
दैवं यद्यस्य वर्मैतद् ब्रह्मणा वा स्वयं कृतम् ॥ २० ॥
नैनं गोप्स्यति दुर्बुद्धिमद्य बाणहतं मया।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर देवराज इन्द्रने विधि एवं रहस्यसहित वह कवच मुझे प्रदान किया। यदि दुर्योधनका यह कवच देवताओंद्वारा निर्मित हो अथवा स्वयं ब्रह्माजीका बनाया हुआ हो तो भी आज मेरे बाणोंद्वारा मारे गये इस दुर्बुद्धि दुर्योधनको यह बचा नहीं सकेगा॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वार्जुनो बाणमभिमन्त्र्य व्यकर्षयत् ॥ २१ ॥
मानवास्त्रेण मानार्हस्तीक्ष्णावरणभेदिना ।

मूलम्

एवमुक्त्वार्जुनो बाणमभिमन्त्र्य व्यकर्षयत् ॥ २१ ॥
मानवास्त्रेण मानार्हस्तीक्ष्णावरणभेदिना ।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर माननीय अर्जुनने कठोर आवरणका भेदन करनेवाले मानवास्त्रसे अपने बाणोंको अभिमन्त्रित करके धनुषकी डोरीको खींचा॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकृष्यमाणांस्तेनैव धनुर्मध्यगतान् छरान् ॥ २२ ॥
तानस्यास्त्रेण चिच्छेद दौणिः सर्वास्त्रघातिना।

मूलम्

विकृष्यमाणांस्तेनैव धनुर्मध्यगतान् छरान् ॥ २२ ॥
तानस्यास्त्रेण चिच्छेद दौणिः सर्वास्त्रघातिना।

अनुवाद (हिन्दी)

धनुषके बीचमें रखकर अर्जुनके द्वारा खींचे जानेवाले उन बाणोंको अश्वत्थामाने सर्वास्त्रघातक अस्त्रके द्वारा काट डाला॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् निकृत्तानिषून् दृष्ट्वा दूरतो ब्रह्मवादिना ॥ २३ ॥
न्यवेदयत् केशवाय विस्मितः श्वेतवाहनः।

मूलम्

तान् निकृत्तानिषून् दृष्ट्वा दूरतो ब्रह्मवादिना ॥ २३ ॥
न्यवेदयत् केशवाय विस्मितः श्वेतवाहनः।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मवादी अश्वत्थामाके द्वारा दूरसे ही काट दिये गये उन बाणोंको देखकर श्वेतवाहन अर्जुन चकित हो उठे और श्रीकृष्णको सूचित करते हुए बोले—॥२३ ई॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतदस्त्रं मया शक्यं द्विः प्रयोक्तुं जनार्दन ॥ २४ ॥
अस्त्रं मामेव हन्याद्धि हन्याच्चापि बलं मम।

मूलम्

नैतदस्त्रं मया शक्यं द्विः प्रयोक्तुं जनार्दन ॥ २४ ॥
अस्त्रं मामेव हन्याद्धि हन्याच्चापि बलं मम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! इस अस्त्रका मैं दो बार प्रयोग नहीं कर सकता; क्योंकि ऐसा करनेपर यह मुझे ही मार डालेगा और मेरी सेनाका भी संहार कर देगा’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनः कृष्णौ नवभिर्नवभिः शरैः ॥ २५ ॥
अविध्यत रणे राजन् शरैराशीविषोपमैः।

मूलम्

ततो दुर्योधनः कृष्णौ नवभिर्नवभिः शरैः ॥ २५ ॥
अविध्यत रणे राजन् शरैराशीविषोपमैः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसी समय दुर्योधनने रणक्षेत्रमें विषधर सर्पके समान भयंकर नौ-नौ बाणोंसे श्रीकृष्ण और अर्जुनको घायल कर दिया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूय एवाभ्यवर्षच्च समरे कृष्णपाण्डवौ ॥ २६ ॥
शरवर्षेण महता ततोऽहृष्यन्त तावकाः।
चक्रुर्वादित्रनिनदान् सिंहनादरवांस्तथा ॥ २७ ॥

मूलम्

भूय एवाभ्यवर्षच्च समरे कृष्णपाण्डवौ ॥ २६ ॥
शरवर्षेण महता ततोऽहृष्यन्त तावकाः।
चक्रुर्वादित्रनिनदान् सिंहनादरवांस्तथा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने समरभूमिमें बड़ी भारी बाण-वर्षा करके श्रीकृष्ण और पाण्डुकुमार धनंजयपर पुनः बाणोंकी झड़ी लगा दी। इससे आपके सैनिक बड़े प्रसन्न हुए। वे बाजे बजाने और सिंहनाद करने लगे॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो रणे पार्थः सृक्किणी परिसंलिहन्।
नापश्यच्च ततोऽस्याङ्गं यन्न स्याद् वर्मरक्षितम् ॥ २८ ॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो रणे पार्थः सृक्किणी परिसंलिहन्।
नापश्यच्च ततोऽस्याङ्गं यन्न स्याद् वर्मरक्षितम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर युद्धस्थलमें कुपित हुए अर्जुन अपने मुँहके कोने चाटने लगे। उन्होंने दुर्योधनका कोई भी ऐसा अंग नहीं देखा, जो कवचसे सुरक्षित न हो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्य निशितैर्बाणैः सुमुक्तैरन्तकोपमैः ।
हयांश्चकार निर्देहानुभौ च पार्ष्णिसारथी ॥ २९ ॥

मूलम्

ततोऽस्य निशितैर्बाणैः सुमुक्तैरन्तकोपमैः ।
हयांश्चकार निर्देहानुभौ च पार्ष्णिसारथी ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अर्जुनने अच्छी तरह छोड़े हुए कालोपम तीखे बाणोंद्वारा दुर्योधनके चारों घोड़ों और दोनों पृष्ठ-रक्षकोंको मार डाला॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुरस्याच्छिनत् तूर्णं हस्तावापं च वीर्यवान्।
रथं च शकलीकर्तुं सव्यसाची प्रचक्रमे ॥ ३० ॥

मूलम्

धनुरस्याच्छिनत् तूर्णं हस्तावापं च वीर्यवान्।
रथं च शकलीकर्तुं सव्यसाची प्रचक्रमे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् पराक्रमी सव्यसाची अर्जुनने तुरंत ही उसके धनुष और दस्तानेको काट दिया और रथको टूक-टूक करना आरम्भ किया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनं च बाणाभ्यां तीक्ष्णाभ्यां विरथीकृतम्।
आविध्यद्धस्ततलयोरुभयोरर्जुनस्तदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

दुर्योधनं च बाणाभ्यां तीक्ष्णाभ्यां विरथीकृतम्।
आविध्यद्धस्ततलयोरुभयोरर्जुनस्तदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पार्थने रथहीन हुए दुर्योधनकी दोनों हथेलियोंमें दो पैने बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयत्नज्ञो हि कौन्तेयो नखमांसान्तरेषुभिः।
स वेदनाभिराविग्नः पलायनपरायणः ॥ ३२ ॥

मूलम्

प्रयत्नज्ञो हि कौन्तेयो नखमांसान्तरेषुभिः।
स वेदनाभिराविग्नः पलायनपरायणः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उपायको जाननेवाले कुन्तीकुमारने अपने बाणोंद्वारा दुर्योधनके नखोंके मांसमें प्रहार किया। तब वह वेदनासे व्याकुल हो युद्धभूमिसे भाग चला॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं कृच्छ्रामापदं प्राप्तं दृष्ट्‌वा परमधन्विनः।
समापेतुः परीप्सन्तो धनंजयशरार्दितम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

तं कृच्छ्रामापदं प्राप्तं दृष्ट्‌वा परमधन्विनः।
समापेतुः परीप्सन्तो धनंजयशरार्दितम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजयके बाणोंसे पीड़ित हुए दुर्योधनको भारी विपत्तिमें पड़ा हुआ देख श्रेष्ठ धनुर्धर योद्धा उसकी रक्षाके लिये आ पहुँचे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं रथैर्बहुसाहस्रैः कल्पितैः कुञ्जरैर्हयैः।
पदात्योघैश्च संरब्धैः परिवव्रुर्धनंजयम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

तं रथैर्बहुसाहस्रैः कल्पितैः कुञ्जरैर्हयैः।
पदात्योघैश्च संरब्धैः परिवव्रुर्धनंजयम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने कई हजार रथों, सजे-सजाये हाथियों, घोड़ों तथा रोषमें भरे हुए पैदल सैनिकोंद्वारा अर्जुनको चारों ओरसे घेर लिया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ नार्जुनगोविन्दौ न रथो वा व्यदृश्यत।
अस्त्रवर्षेण महता जनौघैश्चापि संवृतौ ॥ ३५ ॥

मूलम्

अथ नार्जुनगोविन्दौ न रथो वा व्यदृश्यत।
अस्त्रवर्षेण महता जनौघैश्चापि संवृतौ ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बड़ी भारी बाण-वर्षा और जनसमुदायसे घिरे हुए अर्जुन, श्रीकृष्ण और उनका रथ—इनमेंसे कोई भी दिखायी नहीं देता था॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनोऽस्त्रवीर्येण निजघ्ने तां वरूथिनीम्।
तत्र व्यङ्गीकृताः पेतुः शतशोऽथ रथद्विपाः ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनोऽस्त्रवीर्येण निजघ्ने तां वरूथिनीम्।
तत्र व्यङ्गीकृताः पेतुः शतशोऽथ रथद्विपाः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुन अपने अस्त्र-बलसे उस कौरव-सेनाका विनाश करने लगे। वहाँ सैकड़ों रथ और हाथी अंग-भंग होनेके कारण धराशायी हो गये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते हता हन्यमानाश्च न्यगृह्णंस्तं रथोत्तमम्।
स रथस्तम्भितस्तस्थौ क्रोशमात्रे समन्ततः ॥ ३७ ॥

मूलम्

ते हता हन्यमानाश्च न्यगृह्णंस्तं रथोत्तमम्।
स रथस्तम्भितस्तस्थौ क्रोशमात्रे समन्ततः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन हताहत होनेवाले कौरव-सैनिकोंने उत्तम रथी अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोक दिया। वे जयद्रथसे एक कोसकी दूरीपर चारों ओरसे रथसेनाद्वारा घिरे हुए खड़े थे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनं वृष्णिवीरस्त्वरितो वाक्यमब्रवीत् ।
धनुर्विस्फारयात्यर्थमहं ध्मास्यामि चाम्बुजम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनं वृष्णिवीरस्त्वरितो वाक्यमब्रवीत् ।
धनुर्विस्फारयात्यर्थमहं ध्मास्यामि चाम्बुजम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वृष्णिवीर श्रीकृष्णने तुरंत ही अर्जुनसे कहा—‘तुम जोर-जोरसे धनुषको खींचो और मैं अपना शंख बजाऊँगा’॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विस्फार्य बलवद् गाण्डीवं जघ्निवान् रिपून्।
महता शरवर्षेण तलशब्देन चार्जुनः ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततो विस्फार्य बलवद् गाण्डीवं जघ्निवान् रिपून्।
महता शरवर्षेण तलशब्देन चार्जुनः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर अर्जुनने बड़े जोरसे गाण्डीव धनुषको खींचकर हथेलीके चटचट शब्दके साथ भारी बाण-वर्षा करते हुए शत्रुओंका संहार आरम्भ किया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाञ्चजन्यं च बलवान् दध्मौ तारेण केशवः।
रजसा ध्वस्तपक्ष्मान्ताः प्रस्विन्नवदनो भृशम् ॥ ४० ॥

मूलम्

पाञ्चजन्यं च बलवान् दध्मौ तारेण केशवः।
रजसा ध्वस्तपक्ष्मान्ताः प्रस्विन्नवदनो भृशम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् केशवने उच्च स्वरसे पांचजन्य शंख बजाया। उस समय उनकी पलकें धूलधूसरित हो रही थीं और उनके मुखपर बहुत-सी पसीनेकी बूँदें छा रही थीं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तेनाच्युतोष्ठयुगपूरितमारुतेन
शंखान्तरोदरविवृद्धविनिःसृतेन ।
नादेन सासुरवियत्सुरलोकपाल-
मुद्विग्नमीश्वर जगत् स्फुटतीव सर्वम्॥)
तस्य शङ्खस्य नादेन धनुषो निःस्वनेन च।
निःसत्त्वाश्च ससत्त्वाश्च क्षितौ पेतुस्तदा जनाः ॥ ४१ ॥

मूलम्

(तेनाच्युतोष्ठयुगपूरितमारुतेन
शंखान्तरोदरविवृद्धविनिःसृतेन ।
नादेन सासुरवियत्सुरलोकपाल-
मुद्विग्नमीश्वर जगत् स्फुटतीव सर्वम्॥)
तस्य शङ्खस्य नादेन धनुषो निःस्वनेन च।
निःसत्त्वाश्च ससत्त्वाश्च क्षितौ पेतुस्तदा जनाः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! भगवान् श्रीकृष्णके दोनों ओठोंसे भरी हुई वायु शंखके भीतरी भागमें प्रवेश करके पुष्ट हो जब गम्भीर नादके रूपमें बाहर निकली, उस समय असुरलोक (पाताल), अन्तरिक्ष, देवलोक और लोकपालोंसहित सम्पूर्ण जगत् भयसे उद्विग्न हो विदीर्ण होता-सा जान पड़ा। उस शंखकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे उद्विग्न हो निर्मल और सबल सभी शत्रु-सैनिक उस समय पृथ्वीपर गिर पड़े॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैर्विमुक्तो रथो रेजे वाय्वीरित इवाम्बुदः।
जयद्रथस्य गोप्तारस्ततः क्षुब्धाः सहानुगाः ॥ ४२ ॥

मूलम्

तैर्विमुक्तो रथो रेजे वाय्वीरित इवाम्बुदः।
जयद्रथस्य गोप्तारस्ततः क्षुब्धाः सहानुगाः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके घेरेसे मुक्त हुआ अर्जुनका रथ वायुसंचालित मेघके समान शोभा पाने लगा। इससे जयद्रथके रक्षक सेवकोंसहित क्षुब्ध हो उठे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते दृष्ट्‌वा सहसा पार्थं गोप्तारः सैन्धवस्य तु।
चक्रुर्नादान् महेष्वासाः कम्पयन्तो वसुंधराम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

ते दृष्ट्‌वा सहसा पार्थं गोप्तारः सैन्धवस्य तु।
चक्रुर्नादान् महेष्वासाः कम्पयन्तो वसुंधराम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जयद्रथकी रक्षामें नियुक्त हुए महाधनुर्धर वीर सहसा अर्जुनको देखकर पृथ्वीको कँपाते हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाणशब्दरवांश्चोग्रान्‌ विमिश्रान्‌ शङ्खनिःस्वनैः ।
प्रादुश्चक्रुर्महात्मानः सिंहनादरवानपि ॥ ४४ ॥

मूलम्

बाणशब्दरवांश्चोग्रान्‌ विमिश्रान्‌ शङ्खनिःस्वनैः ।
प्रादुश्चक्रुर्महात्मानः सिंहनादरवानपि ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन महामनस्वी वीरोंने शंखध्वनिसे मिले हुए बाणजनित भयंकर शब्दों और सिंहनादको भी प्रकट किया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं श्रुत्वा निनदं घोरं तावकानां समुत्थितम्।
प्रदध्मतुः शङ्खवरौ वासुदेवधनंजयौ ॥ ४५ ॥

मूलम्

तं श्रुत्वा निनदं घोरं तावकानां समुत्थितम्।
प्रदध्मतुः शङ्खवरौ वासुदेवधनंजयौ ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके सैनिकोंद्वारा किये हुए उस भयंकर कोलाहलको सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुनने अपने श्रेष्ठ शंखोंको बजाया॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन शब्देन महता पूरितेयं वसुंधरा।
सशैला सार्णवद्वीपा सपाताला विशाम्पते ॥ ४६ ॥

मूलम्

तेन शब्देन महता पूरितेयं वसुंधरा।
सशैला सार्णवद्वीपा सपाताला विशाम्पते ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! उस महान् शब्दसे पर्वत, समुद्र, द्वीप और पातालसहित यह सारी पृथ्वी गूँज उठी॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शब्दो भरतश्रेष्ठ व्याप्य सर्वा दिशो दश।
प्रतिसस्वान तत्रैव कुरुपाण्डवयोर्बले ॥ ४७ ॥

मूलम्

स शब्दो भरतश्रेष्ठ व्याप्य सर्वा दिशो दश।
प्रतिसस्वान तत्रैव कुरुपाण्डवयोर्बले ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वह शब्द सम्पूर्ण दसों दिशाओंमें व्याप्त होकर वहीं कौरव-पाण्डव सेनाओंमें प्रतिध्वनित होता रहा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावका रथिनस्तत्र दृष्ट्‌वा कृष्णधनंजयौ।
सम्भ्रमं परमं प्राप्तास्त्वरमाणा महारथाः ॥ ४८ ॥

मूलम्

तावका रथिनस्तत्र दृष्ट्‌वा कृष्णधनंजयौ।
सम्भ्रमं परमं प्राप्तास्त्वरमाणा महारथाः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके रथी और महारथी वहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुनको उपस्थित देख बड़े भारी उद्वेगमें पड़कर उतावले हो उठे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कृष्णौ महाभागौ तावका वीक्ष्य दंशितौ।
अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धास्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४९ ॥

मूलम्

अथ कृष्णौ महाभागौ तावका वीक्ष्य दंशितौ।
अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धास्तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके योद्धा कवच धारण किये महाभाग श्रीकृष्ण और अर्जुनको आया हुआ देख कुपित हो उनकी ओर दौड़े, यह एक अद्भुत-सी बात हुई॥४९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनपराजये त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधन-पराजयविषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५० श्लोक हैं)