१०२ दुर्योधनवचने

भागसूचना

द्व्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका अर्जुनकी प्रशंसापूर्वक उसे प्रोत्साहन देना, अर्जुन और दुर्योधनका एक-दूसरेके सम्मुख आना, कौरव-सैनिकोंका भय तथा दुर्योधनका अर्जुनको ललकारना

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनमतिक्रान्तमेतं पश्य धनंजय ।
अत्यद्भुतमिमं मन्ये नास्त्यस्य सदृशो रथः ॥ १ ॥

मूलम्

दुर्योधनमतिक्रान्तमेतं पश्य धनंजय ।
अत्यद्भुतमिमं मन्ये नास्त्यस्य सदृशो रथः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण बोले— धनंजय! सबको लाँघकर सामने आये हुए इस दुर्योधनको देखो। मैं तो इसे अत्यन्त अद्भुत योद्धा मानता हूँ। इसके समान दूसरा कोई रथी नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूरपाती महेष्वासः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः।
दृढास्त्रश्चित्रयोधी च धार्तराष्ट्रो महाबलः ॥ २ ॥

मूलम्

दूरपाती महेष्वासः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः।
दृढास्त्रश्चित्रयोधी च धार्तराष्ट्रो महाबलः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह महाबली धृतराष्ट्रपुत्र दूरतकके लक्ष्यको मार गिरानेवाला, महान् धनुर्धर, अस्त्रविद्यामें निपुण और युद्धमें दुर्मद है। इसके अस्त्र-शस्त्र अत्यन्त सुदृढ़ हैं तथा यह विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाला है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यन्तसुखसंवृद्धो मानितश्च महारथः ।
कृती च सततं पार्थ नित्यं द्वेष्टि च बान्धवान्॥३॥

मूलम्

अत्यन्तसुखसंवृद्धो मानितश्च महारथः ।
कृती च सततं पार्थ नित्यं द्वेष्टि च बान्धवान्॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार! महारथी दुर्योधन अत्यन्त सुखसे पला हुआ सम्मानित और विद्वान् है। यह तुम-जैसे बन्धु-बान्धवोंसे नित्य-निरन्तर द्वेष रखता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन युद्धमहं मन्ये प्राप्तकालं तवानघ।
अत्र वो द्यूतमायत्तं विजयायेतराय वा ॥ ४ ॥

मूलम्

तेन युद्धमहं मन्ये प्राप्तकालं तवानघ।
अत्र वो द्यूतमायत्तं विजयायेतराय वा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप अर्जुन! मैं समझता हूँ, इस समय इसीके साथ युद्ध करनेका अवसर प्राप्त हुआ है। यहाँ तुमलोगोंके अधीन जो रणद्यूत होनेवाला है, वही विजय अथवा पराजयका कारण होगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र क्रोधविषं पार्थ विमुञ्च चिरसम्भृतम्।
एष मूलमनर्थानां पाण्डवानां महारथः ॥ ५ ॥

मूलम्

अत्र क्रोधविषं पार्थ विमुञ्च चिरसम्भृतम्।
एष मूलमनर्थानां पाण्डवानां महारथः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! तुम बहुत दिनोंसे सँजोकर रखे हुए अपने क्रोधरूपी विषको इसके ऊपर छोड़ो। महारथी दुर्योधन ही पाण्डवोंके सारे अनर्थोंकी जड़ है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं प्राप्तस्तवाक्षेपं पश्य साफल्यमात्मनः।
कथं हि राजा राज्यार्थी त्वया गच्छेत संयुगम् ॥ ६ ॥

मूलम्

सोऽयं प्राप्तस्तवाक्षेपं पश्य साफल्यमात्मनः।
कथं हि राजा राज्यार्थी त्वया गच्छेत संयुगम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज यह तुम्हारे बाणोंके मार्गमें आ पहुँचा है। इसे तुम अपनी सफलता समझो; अन्यथा राज्यकी अभिलाषा रखनेवाला राजा दुर्योधन तुम्हारे साथ युद्धभूमिमें कैसे उतर सकता था?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या त्विदानीं सम्प्राप्त एष ते बाणगोचरम्।
यथायं जीवितं जह्यात् तथा कुरु धनंजय ॥ ७ ॥

मूलम्

दिष्ट्या त्विदानीं सम्प्राप्त एष ते बाणगोचरम्।
यथायं जीवितं जह्यात् तथा कुरु धनंजय ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनंजय! सौभाग्यवश यह दुर्योधन इस समय तुम्हारे बाणोंके पथमें आ गया है। तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे यह अपने प्राणोंको त्याग दे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐश्वर्यमदसम्मूढो नैष दुःखमुपेयिवान् ।
न च ते संयुगे वीर्यं जानाति पुरुषर्षभ ॥ ८ ॥

मूलम्

ऐश्वर्यमदसम्मूढो नैष दुःखमुपेयिवान् ।
न च ते संयुगे वीर्यं जानाति पुरुषर्षभ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषरत्न! ऐश्वर्यके घमंडमें चूर रहनेवाले इस दुर्योधनने कभी कष्ट नहीं उठाया है। यह युद्धमें तुम्हारे बल-पराक्रमको नहीं जानता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां हि लोकास्त्रयः पार्थ ससुरासुरमानुषाः।
नोत्सहन्ते रणे जेतुं किमुतैकः सुयोधनः ॥ ९ ॥

मूलम्

त्वां हि लोकास्त्रयः पार्थ ससुरासुरमानुषाः।
नोत्सहन्ते रणे जेतुं किमुतैकः सुयोधनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! देवता, असुर और मनुष्योंसहित तीनों लोक भी रणक्षेत्रमें तुम्हें जीत नहीं सकते। फिर अकेले दुर्योधनकी तो औकात ही क्या है?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दिष्ट्या समनुप्राप्तस्तव पार्थ रथान्तिकम्।
जह्येनं त्वं महाबाहो यथा वृत्रं पुरंदरः ॥ १० ॥

मूलम्

स दिष्ट्या समनुप्राप्तस्तव पार्थ रथान्तिकम्।
जह्येनं त्वं महाबाहो यथा वृत्रं पुरंदरः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार! सौभाग्यकी बात है कि यह तुम्हारे रथके निकट आ पहुँचा है। महाबाहो! जैसे इन्द्रने वृत्रासुरको मारा था, उसी प्रकार तुम भी इस दुर्योधनको मार डालो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ह्यनर्थे सततं पराक्रान्तस्तवानघ।
निकृत्या धर्मराजं च द्यूते वञ्चितवानयम् ॥ ११ ॥

मूलम्

एष ह्यनर्थे सततं पराक्रान्तस्तवानघ।
निकृत्या धर्मराजं च द्यूते वञ्चितवानयम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनघ! यह सदा तुम्हारा अनर्थ करनेमें ही पराक्रम दिखाता आया है। इसने धर्मराज युधिष्ठिरको जूएमें छल-कपटसे ठग लिया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहूनि सुनृशंसानि कृतान्येतेन मानद।
युष्मासु पापमतिना अपापेष्वेव नित्यदा ॥ १२ ॥

मूलम्

बहूनि सुनृशंसानि कृतान्येतेन मानद।
युष्मासु पापमतिना अपापेष्वेव नित्यदा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानद! तुमलोग कभी इसकी बुराई नहीं करते थे, तो भी इस पापबुद्धि दुर्योधनने सदा तुमलोगोंके साथ बहुत-से क्रूरतापूर्ण बर्ताव किये हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमनार्यं सदा क्रुद्धं पुरुषं कामचारिणम्।
आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा जहि पार्थाविचारयन् ॥ १३ ॥

मूलम्

तमनार्यं सदा क्रुद्धं पुरुषं कामचारिणम्।
आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा जहि पार्थाविचारयन् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! तुम युद्धमें श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय ले बिना किसी सोच-विचारके, सदा क्रोधमें भरे रहनेवाले इस स्वेच्छाचारी दुष्ट पुरुषको मार डालो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकृत्या राज्यहरणं वनवासं च पाण्डव।
परिक्लेशं च कृष्णाया हृदि कृत्वा पराक्रमम् ॥ १४ ॥

मूलम्

निकृत्या राज्यहरणं वनवासं च पाण्डव।
परिक्लेशं च कृष्णाया हृदि कृत्वा पराक्रमम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! दुर्योधनने छलसे तुमलोगोंका राज्य छीन लिया है, तुम्हें जो वनवासका कष्ट भोगना पड़ा है तथा द्रौपदीको जो दुःख और अपमान उठाना पड़ा है—इन सब बातोंको मन-ही-मन याद करके पराक्रम करो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्यैष तव बाणानां गोचरे परिवर्तते।
प्रतिघाताय कार्यस्य दिष्ट्या च यततेऽग्रतः ॥ १५ ॥

मूलम्

दिष्ट्यैष तव बाणानां गोचरे परिवर्तते।
प्रतिघाताय कार्यस्य दिष्ट्या च यततेऽग्रतः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौभाग्यसे ही यह दुर्योधन तुम्हारे बाणोंकी पहुँचके भीतर चक्कर लगा रहा है। यह भी भाग्यकी बात है कि यह तुम्हारे कार्यमें बाधा डालनेके लिये सामने आकर प्रयत्नशील हो रहा है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या जानाति संग्रामे योद्धव्यं हि त्वया सह।
दिष्ट्या च सफलाः पार्थ सर्वे कामा ह्यकामिताः ॥ १६ ॥

मूलम्

दिष्ट्या जानाति संग्रामे योद्धव्यं हि त्वया सह।
दिष्ट्या च सफलाः पार्थ सर्वे कामा ह्यकामिताः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! भाग्यवश समरांगणमें तुम्हारे साथ युद्ध करना यह अपना कर्तव्य समझता है और भाग्यसे ही न चाहनेपर भी तुम्हारे सारे मनोरथ सफल हो रहे हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माज्जहि रणे पार्थ धार्तराष्ट्रं कुलाधमम्।
यथेन्द्रेण हतः पूर्वं जम्भो देवासुरे मृधे ॥ १७ ॥

मूलम्

तस्माज्जहि रणे पार्थ धार्तराष्ट्रं कुलाधमम्।
यथेन्द्रेण हतः पूर्वं जम्भो देवासुरे मृधे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीकुमार! जैसे पूर्वकालमें इन्द्रने देवासुर-संग्राममें जन्मका वध किया था, उसी प्रकार तुम रणक्षेत्रमें कुलकलंक धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको मार डालो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् हते त्वया सैन्यमनाथं भिद्यतामिदम्।
वैरस्यास्यास्त्ववभृथो मूलं छिन्धि दुरात्मनाम् ॥ १८ ॥

मूलम्

अस्मिन् हते त्वया सैन्यमनाथं भिद्यतामिदम्।
वैरस्यास्यास्त्ववभृथो मूलं छिन्धि दुरात्मनाम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके मारे जानेपर अनाथ हुई इस कौरव-सेनाका संहार करो, दुरात्माओंकी जड़ काट डालो, जिससे इस वैररूपी यज्ञका अन्त होकर अवभृथस्नानका अवसर प्राप्त हो॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथेत्यब्रवीत् पार्थः कृत्यरूपमिदं मम।
सर्वमन्यदनादृत्य गच्छ यत्र सुयोधनः ॥ १९ ॥

मूलम्

तं तथेत्यब्रवीत् पार्थः कृत्यरूपमिदं मम।
सर्वमन्यदनादृत्य गच्छ यत्र सुयोधनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! तब कुन्तीकुमार अर्जुनने ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘यह मेरे लिये सबसे महान् कर्तव्य प्राप्त हुआ है। अन्य सब कार्योंकी अवहेलना करके आप वहीं चलिये, जहाँ दुर्योधन खड़ा है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येनैतद् दीर्घकालं नो भुक्तं राज्यमकण्टकम्।
अप्यस्य युधि विक्रम्य छिन्द्यां मूर्धानमाहवे ॥ २० ॥

मूलम्

येनैतद् दीर्घकालं नो भुक्तं राज्यमकण्टकम्।
अप्यस्य युधि विक्रम्य छिन्द्यां मूर्धानमाहवे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसने दीर्घकालतक हमारे इस अकंटक राज्यका उपभोग किया है, मैं युद्धमें पराक्रम करके उस दुर्योधनका मस्तक काट डालूँगा॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि तस्य ह्यनर्हायाः परिक्लेशस्य माधव।
कृष्णायाः शक्नुयां गन्तुं पदं केशप्रधर्षणे ॥ २१ ॥

मूलम्

अपि तस्य ह्यनर्हायाः परिक्लेशस्य माधव।
कृष्णायाः शक्नुयां गन्तुं पदं केशप्रधर्षणे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माधव! जो क्लेश भोगनेके योग्य नहीं है, उस द्रौपदीका केश पकड़कर जो उसे अपमानित किया गया है, उसका बदला इस दुर्योधनको मारकर ही चुका सकता हूँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अप्यहं तानि दुःखानि पूर्ववृत्तानि माधव।
दुर्योधनं रणे हत्वा प्रतिमोक्ष्ये कथंचन॥)

मूलम्

(अप्यहं तानि दुःखानि पूर्ववृत्तानि माधव।
दुर्योधनं रणे हत्वा प्रतिमोक्ष्ये कथंचन॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! समरांगणमें दुर्योधनका वध करके मैं किसी प्रकार उन सभी दुःखोंसे छुटकारा पा जाऊँगा, जो पूर्वकालमें भोगने पड़े हैं’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवंवादिनौ कृष्णौ हृष्टौ श्वेतान् हयोत्तमान्।
प्रेषयामासतुः संख्ये प्रेप्सन्तौ तं नराधिपम् ॥ २२ ॥

मूलम्

इत्येवंवादिनौ कृष्णौ हृष्टौ श्वेतान् हयोत्तमान्।
प्रेषयामासतुः संख्ये प्रेप्सन्तौ तं नराधिपम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकारकी बातें करते हुए उन दोनों कृष्णोंने युद्धस्थलमें राजा दुर्योधनको अपना लक्ष्य बनानेके लिये हर्षपूर्वक अपने उत्तम सफेद घोड़ोंको उसकी ओर बढ़ाया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः समीपं सम्प्राप्य पुत्रस्ते भरतर्षभ।
न चकार भयं प्राप्ते भये महति मारिष ॥ २३ ॥

मूलम्

तयोः समीपं सम्प्राप्य पुत्रस्ते भरतर्षभ।
न चकार भयं प्राप्ते भये महति मारिष ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! भरतभूषण! आपके पुत्रने उन दोनोंके समीप पहुँचकर महान् भयका अवसर प्राप्त होनेपर भी भय नहीं माना॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदस्य क्षत्रियास्तत्र सर्व एवाभ्यपूजयन्।
यदर्जुनहृषीकेशौ प्रत्युद्यातौ न्यवारयत् ॥ २४ ॥

मूलम्

तदस्य क्षत्रियास्तत्र सर्व एवाभ्यपूजयन्।
यदर्जुनहृषीकेशौ प्रत्युद्यातौ न्यवारयत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने सामने आये हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनको दुर्योधनने जो रोक दिया, उसके इस कार्यकी वहाँ सभी क्षत्रियोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वस्य सैन्यस्य तावकस्य विशाम्पते।
महानादो ह्यभूत् तत्र दृष्ट्‌वा राजानमाहवे ॥ २५ ॥

मूलम्

ततः सर्वस्य सैन्यस्य तावकस्य विशाम्पते।
महानादो ह्यभूत् तत्र दृष्ट्‌वा राजानमाहवे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! युद्धस्थलमें राजा दुर्योधनको उपस्थित देख आपकी सारी सेनामें महान् सिंहनाद होने लगा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् जनसमुन्नादे प्रवृत्ते भैरवे सति।
कदर्थीकृत्य ते पुत्रः प्रत्यमित्रमवारयत् ॥ २६ ॥

मूलम्

तस्मिन् जनसमुन्नादे प्रवृत्ते भैरवे सति।
कदर्थीकृत्य ते पुत्रः प्रत्यमित्रमवारयत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय वह भयंकर जन-कोलाहल हो रहा था उसी समय आपके पुत्रने अपने शत्रुको कुछ भी न समझकर आगे बढ़नेसे रोक दिया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवारितस्तु कौन्तेयस्तव पुत्रेण धन्विना।
संरम्भमगमद् भूयः स च तस्मिन् परंतपः ॥ २७ ॥

मूलम्

आवारितस्तु कौन्तेयस्तव पुत्रेण धन्विना।
संरम्भमगमद् भूयः स च तस्मिन् परंतपः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके धनुर्धर पुत्र दुर्योधनद्वारा रोके जानेपर शत्रुओंको संताप देनेवाले कुन्तीकुमार अर्जुन पुनः उसके ऊपर अत्यन्त कुपित हो उठे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ दृष्ट्‌वा पतिसंरब्धौ दुर्योधनधनंजयौ।
अभ्यवैक्षन्त राजानो भीमरूपाः समन्ततः ॥ २८ ॥

मूलम्

तौ दृष्ट्‌वा पतिसंरब्धौ दुर्योधनधनंजयौ।
अभ्यवैक्षन्त राजानो भीमरूपाः समन्ततः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन तथा अर्जुनको परस्पर कुपित देख भयंकर नरेशगण सब ओर खड़े हो चुपचाप देखने लगे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा तु पार्थं संरब्धं वासुदेवं च मारिष।
प्रहसन्नेव पुत्रस्ते योद्धुकामः समाह्वयत् ॥ २९ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा तु पार्थं संरब्धं वासुदेवं च मारिष।
प्रहसन्नेव पुत्रस्ते योद्धुकामः समाह्वयत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्य! अर्जुन और श्रीकृष्णको अत्यन्त रोषमें भरे देख आपके पुत्रने जोर-जोरसे हँसते हुए ही युद्धकी इच्छासे उन दोनोंको ललकारा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहृष्टो दाशार्हः पाण्डवश्च धनंजयः।
व्यक्रोशेतां महानादं दध्मतुश्चाम्बुजोत्तमौ ॥ ३० ॥

मूलम्

ततः प्रहृष्टो दाशार्हः पाण्डवश्च धनंजयः।
व्यक्रोशेतां महानादं दध्मतुश्चाम्बुजोत्तमौ ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हर्षमें भरे हुए श्रीकृष्ण और पाण्डुनन्दन अर्जुनने बड़े जोरसे सिंहनाद किया और अपने उत्तम शंखोंको बजाया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ हृष्टरूपौ सम्प्रेक्ष्य कौरवेयास्तु सर्वशः।
निराशाः समपद्यन्त पुत्रस्य तव जीविते ॥ ३१ ॥

मूलम्

तौ हृष्टरूपौ सम्प्रेक्ष्य कौरवेयास्तु सर्वशः।
निराशाः समपद्यन्त पुत्रस्य तव जीविते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंको हर्षोल्लाससे परिपूर्ण देख सम्पूर्ण कौरव-सैनिक आपके पुत्रके जीवनसे निराश हो गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोकमापुः परे चैव कुरवः सर्व एव ते।
अमन्यन्त च पुत्रं ते वैश्वानरमुखे हुतम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

शोकमापुः परे चैव कुरवः सर्व एव ते।
अमन्यन्त च पुत्रं ते वैश्वानरमुखे हुतम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य सब कौरव भी शोकमग्न हो गये और आपके पुत्रको आगके मुखमें होम दिया गया—ऐसा मानने लगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तु दृष्ट्‌वा योधास्ते प्रहृष्टौ कृष्णपाण्डवौ।
हतो राजा हतो राजेत्यूचिरे च भयार्दिताः ॥ ३३ ॥

मूलम्

तथा तु दृष्ट्‌वा योधास्ते प्रहृष्टौ कृष्णपाण्डवौ।
हतो राजा हतो राजेत्यूचिरे च भयार्दिताः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार हर्षमग्न देख आपके समस्त सैनिक भयसे पीड़ित हो ऐसा कहते हुए कोलाहल करने लगे कि ‘हाय! राजा दुर्योधन मारे गये, मारे गये’॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनस्य संनिनादं तु श्रुत्वा दुर्योधनोऽब्रवीत्।
व्येतु वो भीरहं कृष्णौ प्रेषयिष्यामि मृत्यवे ॥ ३४ ॥

मूलम्

जनस्य संनिनादं तु श्रुत्वा दुर्योधनोऽब्रवीत्।
व्येतु वो भीरहं कृष्णौ प्रेषयिष्यामि मृत्यवे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोगोंका वह आर्तनाद सुनकर दुर्योधन बोला—‘तुमलोगोंका भय दूर हो जाना चाहिये। मैं इन दोनों कृष्णोंको मृत्युके घर भेज दूँगा’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा सैनिकान् सर्वान् जयापेक्षी नराधिपः।
पार्थमाभाष्य संरम्भादिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा सैनिकान् सर्वान् जयापेक्षी नराधिपः।
पार्थमाभाष्य संरम्भादिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने सम्पूर्ण सैनिकोंसे ऐसा कहकर विजयकी अभिलाषा रखनेवाले राजा दुर्योधनने कुन्तीकुमारको सम्बोधित करके क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा—॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थ यच्छिक्षितं तेऽस्त्रं दिव्यं पार्थिवमेव च।
तद् दर्शय मयि क्षिप्रं यदि जातोऽसि पाण्डुना ॥ ३६ ॥

मूलम्

पार्थ यच्छिक्षितं तेऽस्त्रं दिव्यं पार्थिवमेव च।
तद् दर्शय मयि क्षिप्रं यदि जातोऽसि पाण्डुना ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! यदि तुम पाण्डुके बेटे हो तो तुमने जो लौकिक एवं दिव्य अस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त की है, उन सबको मेरे ऊपर शीघ्र दिखाओ॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् बलं तव वीर्यं च केशवस्य तथैव च।
तत् कुरुष्व मयि क्षिप्रं पश्यामस्तव पौरुषम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

यद् बलं तव वीर्यं च केशवस्य तथैव च।
तत् कुरुष्व मयि क्षिप्रं पश्यामस्तव पौरुषम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुममें और श्रीकृष्णमें जो बल और पराक्रम हो, उसे मेरे ऊपर शीघ्र प्रकट करो। हम देखते हैं कि तुममें कितना पुरुषार्थ है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मत्परोक्षं कर्माणि कृतानि प्रवदन्ति ते।
स्वामिसत्कारयुक्तानि यानि तानीह दर्शय ॥ ३८ ॥

मूलम्

अस्मत्परोक्षं कर्माणि कृतानि प्रवदन्ति ते।
स्वामिसत्कारयुक्तानि यानि तानीह दर्शय ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमारे परोक्षमें लोग स्वामीके सत्कारसे युक्त तुम्हारे किये हुए जिन कर्मोंका वर्णन करते हैं, उन्हें यहाँ दिखाओ’॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनवचने द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधनवचनविषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३९ श्लोक हैं)