१०१ दुर्योधनागमे

भागसूचना

एकाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और अर्जुनको आगे बढ़ा देख कौरव-सैनिकोंकी निराशा तथा दुर्योधनका युद्धके लिये आना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रंसन्त इव मज्जानस्तावकानां भयान्नृप।
तौ दृष्ट्‌वा समतिक्रान्तौ वासुदेवधनंजयौ ॥ १ ॥

मूलम्

स्रंसन्त इव मज्जानस्तावकानां भयान्नृप।
तौ दृष्ट्‌वा समतिक्रान्तौ वासुदेवधनंजयौ ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— नरेश्वर! भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनको सबको लाँघकर आगे बढ़ा हुआ देख भयके कारण आपके सैनिकोंकी मज्जा खिसकने लगी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे तु प्रतिसंरब्धा ह्रीमन्तः सत्त्वचोदिताः।
स्थिरीभूता महात्मानः प्रत्यगच्छन् धनंजयम् ॥ २ ॥

मूलम्

सर्वे तु प्रतिसंरब्धा ह्रीमन्तः सत्त्वचोदिताः।
स्थिरीभूता महात्मानः प्रत्यगच्छन् धनंजयम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे लज्जित हुए समस्त महामनस्वी सैनिक धैर्य और साहससे प्रेरित हो युद्धके लिये स्थिरचित्त होकर रोषपूर्वक अर्जुनकी ओर जाने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये गताः पाण्डवं युद्धे रोषामर्षसमन्विताः।
तेऽद्यापि न निवर्तन्ते सिन्धवः सागरादिव ॥ ३ ॥

मूलम्

ये गताः पाण्डवं युद्धे रोषामर्षसमन्विताः।
तेऽद्यापि न निवर्तन्ते सिन्धवः सागरादिव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग युद्धमें रोष और अमर्षसे भरकर पाण्डुनन्दन अर्जुनके सामने गये, वे समुद्रतक गयी हुई नदियोंके समान आजतक नहीं लौटे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असन्तस्तु न्यवर्तन्त वेदेभ्य इव नास्तिकाः।
नरकं भजमानास्ते प्रत्यपद्यन्त किल्बिषम् ॥ ४ ॥

मूलम्

असन्तस्तु न्यवर्तन्त वेदेभ्य इव नास्तिकाः।
नरकं भजमानास्ते प्रत्यपद्यन्त किल्बिषम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नास्तिक पुरुष वेदोंसे (उनकी बतायी हुई विधियोंसे) दूर रहते हैं, उसी प्रकार जो अधम मनुष्य थे, वे ही अर्जुनके सामने जाकर भी लौट आये (पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए)। वे नरकमें पड़कर अपने पापका फल भोग रहे होंगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावतीत्य रथानीकं विमुक्तौ पुरुषर्षभौ।
ददृशाते यथा राहोरास्यान्मुक्तौ प्रभाकरौ ॥ ५ ॥

मूलम्

तावतीत्य रथानीकं विमुक्तौ पुरुषर्षभौ।
ददृशाते यथा राहोरास्यान्मुक्तौ प्रभाकरौ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंकी सेनाको लाँघकर उनके घेरेसे मुक्त हुए पुरुषश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन राहुके मुँहसे छूटे हुए सूर्य और चन्द्रमाके समान दिखायी दिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्याविव महाजालं विदार्य विगतक्लमौ।
तथा कृष्णावदृश्येतां सेनाजालं विदार्य तत् ॥ ६ ॥

मूलम्

मत्स्याविव महाजालं विदार्य विगतक्लमौ।
तथा कृष्णावदृश्येतां सेनाजालं विदार्य तत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दो मत्स्य किसी महाजालको फाड़कर निकल जानेपर क्लैशशून्य हो जाते हैं, उसी प्रकार उस सेनासमूहको विदीर्ण करके श्रीकृष्ण और अर्जुन क्लेशरहित दिखायी देते थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुक्तौ शस्त्रसम्बाधाद् द्रोणानीकात्‌ सुदुर्भिदात्।
अदृश्येतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ ॥ ७ ॥

मूलम्

विमुक्तौ शस्त्रसम्बाधाद् द्रोणानीकात्‌ सुदुर्भिदात्।
अदृश्येतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शस्त्रोंसे भरे हुए आचार्य द्रोणके दुर्भेद्य सैन्यव्यूहसे छुटकारा पाकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन उदित हुए प्रलयकालके सूर्यके समान दृष्टिगोचर हो रहे थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रसम्बाधनिर्मुक्तौ विमुक्तौ शस्त्रसंकटात् ।
अदृश्येतां महात्मानौ शत्रुसम्बाधकारिणौ ॥ ८ ॥
विमुक्तौ ज्वलनस्पर्शान्मकरास्याज्झषाविव ।

मूलम्

अस्त्रसम्बाधनिर्मुक्तौ विमुक्तौ शस्त्रसंकटात् ।
अदृश्येतां महात्मानौ शत्रुसम्बाधकारिणौ ॥ ८ ॥
विमुक्तौ ज्वलनस्पर्शान्मकरास्याज्झषाविव ।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संतप्त करनेवाले वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन अग्निके समान दाहक स्पर्शवाले मगरके मुखसे छूटे हुए दो मत्स्योंके समान अस्त्र-शस्त्रोंकी बाधाओं तथा संकटोंसे मुक्त दिखायी दे रहे थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षोभयेतां सेनां तौ समुद्रं मकराविव ॥ ९ ॥
तावकास्तव पुत्राश्च द्रोणानीकस्थयोस्तयोः ।
नैतौ तरिष्यतो द्रोणमिति चक्रुस्तदा मतिम् ॥ १० ॥

मूलम्

अक्षोभयेतां सेनां तौ समुद्रं मकराविव ॥ ९ ॥
तावकास्तव पुत्राश्च द्रोणानीकस्थयोस्तयोः ।
नैतौ तरिष्यतो द्रोणमिति चक्रुस्तदा मतिम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दो मगर समुद्रको क्षुब्ध कर देते हैं, उसी प्रकार उन दोनोंने सारी सेनाको व्याकुल कर दिया। आपके सैनिकों तथा पुत्रोंने उस समय द्रोणाचार्यके सैन्यव्यूहमें घुसे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनके सम्बन्धमें यह विचार किया था कि ये दोनों द्रोणको नहीं लाँघ सकेंगे॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ तु दृष्ट्‌वा व्यतिक्रान्तौ द्रोणानीकं महाद्युती।
नाशशंसुर्महाराज सिन्धुराजस्य जीवितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तौ तु दृष्ट्‌वा व्यतिक्रान्तौ द्रोणानीकं महाद्युती।
नाशशंसुर्महाराज सिन्धुराजस्य जीवितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु महाराज! जब वे दोनों महातेजस्वी वीर द्रोणाचार्यके सैन्यव्यूहको लाँघ गये, तब उन्हें देखकर आपके पुत्रोंको सिन्धुराजके जीवित रहनेकी आशा नहीं रह गयी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशा बलवती राजन् सिन्धुराजस्य जीविते।
द्रोणहार्दिक्ययोः कृष्णौ न मोक्ष्येते इति प्रभो ॥ १२ ॥

मूलम्

आशा बलवती राजन् सिन्धुराजस्य जीविते।
द्रोणहार्दिक्ययोः कृष्णौ न मोक्ष्येते इति प्रभो ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! प्रभो! सब लोगोंको यह सोचकर कि श्रीकृष्ण और अर्जुन द्रोणाचार्य तथा कृतवर्माके हाथसे नहीं छूट सकेंगे, सिन्धुराजके जीवनकी आशा प्रबल हो उठी थी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामाशां विफलीकृत्य संतीर्णौ तौ परंतपौ।
द्रोणानीकं महाराज भोजानीकं च दुस्तरम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तामाशां विफलीकृत्य संतीर्णौ तौ परंतपौ।
द्रोणानीकं महाराज भोजानीकं च दुस्तरम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! शत्रुओंको संताप देनेवाले वे दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन लोगोंकी उस आशाको विफल करके द्रोणाचार्य तथा कृतवर्माकी दुस्तर सेनाको लाँघ गये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दृष्ट्वा व्यतिक्रान्तौ ज्वलिताविव पावकौ।
निराशाः सिन्धुराजस्य जीवितं न शशंसिरे ॥ १४ ॥

मूलम्

अथ दृष्ट्वा व्यतिक्रान्तौ ज्वलिताविव पावकौ।
निराशाः सिन्धुराजस्य जीवितं न शशंसिरे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दो प्रज्वलित अग्नियोंके समान सारी सेनाको लाँघकर खड़े हुए उन दोनों वीरोंको सकुशल देख आपके सैनिकोंने निराश होकर सिन्धुराजके जीवनकी आशा त्याग दी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथश्च समभाषेतामभीतौ भयवर्धनौ ।
जयद्रथवधे वाचस्तास्ताः कृष्णधनंजयौ ॥ १५ ॥

मूलम्

मिथश्च समभाषेतामभीतौ भयवर्धनौ ।
जयद्रथवधे वाचस्तास्ताः कृष्णधनंजयौ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंका भय बढ़ाने और स्वयं निर्भय रहनेवाले श्रीकृष्ण और अर्जुन आपसमें जयद्रथवधके विषयमें इस प्रकार बातें करने लगे—॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असौ मध्ये कृतः षड्भिर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः।
चक्षुर्विषयसम्प्राप्तो न मे मोक्ष्यति सैन्धवः ॥ १६ ॥

मूलम्

असौ मध्ये कृतः षड्भिर्धार्तराष्ट्रैर्महारथैः।
चक्षुर्विषयसम्प्राप्तो न मे मोक्ष्यति सैन्धवः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यद्यपि धृतराष्ट्रके छः महारथी पुत्रोंने जयद्रथको अपने बीचमें छिपा रखा है, तथापि यदि वह मेरी आँखोंको दीख गया तो मेरे हाथसे जीवित नहीं बच सकेगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यस्य समरे गोप्ता शक्रो देवगणैः सह।
तथाप्येनं निहंस्याव इति कृष्णावभाषताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यद्यस्य समरे गोप्ता शक्रो देवगणैः सह।
तथाप्येनं निहंस्याव इति कृष्णावभाषताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि देवताओंसहित साक्षात् इन्द्र भी समरांगणमें इसकी रक्षा करें, तो भी हम दोनों इसे अवश्य मार डालेंगे।’ इस प्रकार दोनों कृष्ण आपसमें बात कर रहे थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति कृष्णौ महाबाहू मिथोऽकथयतां तदा।
सिन्धुराजमवेक्षन्तौ त्वत्पुत्रा बहु चुक्रुशुः ॥ १८ ॥

मूलम्

इति कृष्णौ महाबाहू मिथोऽकथयतां तदा।
सिन्धुराजमवेक्षन्तौ त्वत्पुत्रा बहु चुक्रुशुः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिन्धुराज जयद्रथकी खोज करते हुए महाबाहु श्रीकृष्ण और अर्जुनने उस समय जब आपसमें उपर्युक्त बातें कहीं, तब आपके पुत्र बहुत कोलाहल करने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीत्य मरुधन्वानं प्रयान्तौ तृषितौ गजौ।
पीत्वा वारि समाश्वस्तौ तथैवास्तामरिंदमौ ॥ १९ ॥

मूलम्

अतीत्य मरुधन्वानं प्रयान्तौ तृषितौ गजौ।
पीत्वा वारि समाश्वस्तौ तथैवास्तामरिंदमौ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मरुभूमिको लाँघकर जाते हुए दो प्यासे हाथी पानी पीकर तृप्त एवं संतुष्ट हो गये हों, उसी प्रकार शत्रुओंका दमन करनेवाले श्रीकृष्ण और अर्जुन भी शत्रुसेनाको लाँघकर अत्यन्त प्रसन्न हुए थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याघ्रसिंहगजाकीर्णानतिक्रम्य च पर्वतान् ।
वणिजाविव दृश्येतां हीनमृत्यू जरातिगौ ॥ २० ॥

मूलम्

व्याघ्रसिंहगजाकीर्णानतिक्रम्य च पर्वतान् ।
वणिजाविव दृश्येतां हीनमृत्यू जरातिगौ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे व्याघ्र, सिंह और हाथियोंसे भरे हुए पर्वतोंको लाँघकर दो व्यापारी प्रसन्न दिखायी देते हों, उसी प्रकार मृत्यु और जरासे रहित श्रीकृष्ण और अर्जुन भी उस सेनाको लाँघकर संतुष्ट दीखते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि मुखवर्णोऽयमनयोरिति मेनिरे।
तावका वीक्ष्य मुक्तौ तौ विक्रोशन्ति स्म सर्वशः ॥ २१ ॥
द्रोणादाशीविषाकाराज्ज्वलितादिव पावकात् ।
अन्येभ्यः पार्थिवेभ्यश्च भास्वन्ताविव भास्करौ ॥ २२ ॥

मूलम्

तथा हि मुखवर्णोऽयमनयोरिति मेनिरे।
तावका वीक्ष्य मुक्तौ तौ विक्रोशन्ति स्म सर्वशः ॥ २१ ॥
द्रोणादाशीविषाकाराज्ज्वलितादिव पावकात् ।
अन्येभ्यः पार्थिवेभ्यश्च भास्वन्ताविव भास्करौ ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दोनोंके मुखकी कान्ति वैसी ही थी, ऐसा सभी सैनिक मान रहे थे। विषधर सर्प और प्रज्वलित अग्निके समान भयंकर द्रोणाचार्य तथा अन्य नरेशोंके हाथसे छूटे हुए दो प्रकाशमान सूर्योंके सदृश श्रीकृष्ण और अर्जुनको वहाँ देखकर आपके समस्त सैनिक सब ओरसे कोलाहल मचा रहे थे॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुक्तौ सागरप्रख्याद् द्रोणानीकादरिंदमौ ।
अदृश्येतां मुदा युक्तौ समुत्तीर्यार्णवं यथा ॥ २३ ॥

मूलम्

विमुक्तौ सागरप्रख्याद् द्रोणानीकादरिंदमौ ।
अदृश्येतां मुदा युक्तौ समुत्तीर्यार्णवं यथा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रके समान विशाल द्रोणसेनासे मुक्त हुए वे दोनों शत्रुदमन वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन ऐसे प्रसन्न दिखायी देते थे, मानो महासागर लाँघ गये हों॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रौघान्महतो मुक्तौ द्रोणहार्दिक्यरक्षितात् ।
रोचमानावदृश्येतामिन्द्राग्न्योः सदृशौ रणे ॥ २४ ॥

मूलम्

अस्त्रौघान्महतो मुक्तौ द्रोणहार्दिक्यरक्षितात् ।
रोचमानावदृश्येतामिन्द्राग्न्योः सदृशौ रणे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य और कृतवर्माद्वारा सुरक्षित महान् अस्त्रसमुदायसे छूटकर वे दोनों वीर समरांगणमें इन्द्र और अग्निके समान प्रकाशमान दिखायी देते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्भिन्नरुधिरौ कृष्णौ भारद्वाजस्य सायकैः।
शितैश्चितौ व्यरोचेतां कर्णिकारैरिवाचलौ ॥ २५ ॥

मूलम्

उद्भिन्नरुधिरौ कृष्णौ भारद्वाजस्य सायकैः।
शितैश्चितौ व्यरोचेतां कर्णिकारैरिवाचलौ ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके तीखे बाणोंसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके शरीर छिदे हुए थे और उनसे रक्तकी धारा बह रही थी। उस समय वे लाल कनेरसे भरे हुए दो पर्वतोंके समान सुशोभित होते थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणग्राहह्रदान्मुक्तौ शक्त्याशीविषसंकटात् ।
अयःशरोग्रमकरात् क्षत्रियप्रवराम्भसः ॥ २६ ॥
ज्याघोषतलनिर्ह्रादाद् गदानिस्त्रिंशविद्युतः ।
द्रोणास्त्रमेघान्निर्मुक्तौ सूर्येन्दू तिमिरादिव ॥ २७ ॥

मूलम्

द्रोणग्राहह्रदान्मुक्तौ शक्त्याशीविषसंकटात् ।
अयःशरोग्रमकरात् क्षत्रियप्रवराम्भसः ॥ २६ ॥
ज्याघोषतलनिर्ह्रादाद् गदानिस्त्रिंशविद्युतः ।
द्रोणास्त्रमेघान्निर्मुक्तौ सूर्येन्दू तिमिरादिव ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्य जिस सैन्य-सरोवरके ग्राहतुल्य जन्तु थे, जो शक्तिरूपी विषधर सर्पोंसे भरा था, लोहेके बाण जिसके भीतर भयंकर मगरका भय उत्पन्न करते थे, बड़े-बड़े क्षत्रिय जिसमें जलके समान शोभा पाते थे, धनुषकी टंकार जहाँ मेघगर्जनाके समान सुनायी पड़ती थी, गदा और खड्ग जहाँ विद्युत्‌के समान चमक रहे थे और द्रोणाचार्यके बाण ही जहाँ मेघ बनकर बरस रहे थे, उससे मुक्त हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन राहुसे छूटे हुए सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाशित हो रहे थे॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुभ्यामिव संतीर्णौ सिन्धुषष्ठाः समुद्रगाः।
तपान्ते सरितः पूर्णा महाग्राहसमाकुलाः ॥ २८ ॥

मूलम्

बाहुभ्यामिव संतीर्णौ सिन्धुषष्ठाः समुद्रगाः।
तपान्ते सरितः पूर्णा महाग्राहसमाकुलाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वर्षा-ऋतुमें जलसे लबालब भरी हुई बड़े-बड़े ग्राहोंसे व्याप्त समुद्रगामिनी इरावती (रावी), विपाशा (ब्यास), वितस्ता (झेलम), शतद्रू (शतलज) और चन्द्रभागा (चनाव)—इन पाँचों नदियोंके साथ छठी सिंधु नदीको श्रीकृष्ण और अर्जुनने अपनी भुजाओंसे तैरकर पार किया हो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति कृष्णौ महेष्वासौ प्रशस्तौ लोकविश्रुतौ।
सर्वभूतान्यमन्यन्त द्रोणास्त्रबलवारणात् ॥ २९ ॥

मूलम्

इति कृष्णौ महेष्वासौ प्रशस्तौ लोकविश्रुतौ।
सर्वभूतान्यमन्यन्त द्रोणास्त्रबलवारणात् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार द्रोणाचार्यके अस्त्र-बलका निवारण करनेके कारण समस्त प्राणी श्रीकृष्ण और अर्जुनको लोकविख्यात प्रशस्त गुणयुक्त महाधनुर्धर मानने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयद्रथं समीपस्थमवेक्षन्तौ जिघांसया ।
रुरुं निपाने लिप्सन्तौ व्याघ्राविव व्यतिष्ठताम् ॥ ३० ॥

मूलम्

जयद्रथं समीपस्थमवेक्षन्तौ जिघांसया ।
रुरुं निपाने लिप्सन्तौ व्याघ्राविव व्यतिष्ठताम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पानी पीनेके घाटपर आये हुए रुरुमृगको दबोच लेनेकी इच्छासे दो व्याघ्र खड़े हों, उसी प्रकार निकटवर्ती जयद्रथको मार डालनेकी इच्छासे उसकी ओर देखते हुए वे दोनों वीर खड़े थे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि मुखवर्णोऽयमनयोरिति मेनिरे।
तव योधा महाराज हतमेव जयद्रथम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

यथा हि मुखवर्णोऽयमनयोरिति मेनिरे।
तव योधा महाराज हतमेव जयद्रथम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय उन दोनोंके मुखपर जैसी समुज्ज्वल कान्ति थी, उसके अनुसार आपके योद्धाओंने जयद्रथको मरा हुआ ही माना॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोहिताक्षौ महाबाहू संयुक्तौ कृष्णपाण्डवौ।
सिन्धुराजमभिप्रेक्ष्य हृष्टौ व्यनदतां मुहुः ॥ ३२ ॥

मूलम्

लोहिताक्षौ महाबाहू संयुक्तौ कृष्णपाण्डवौ।
सिन्धुराजमभिप्रेक्ष्य हृष्टौ व्यनदतां मुहुः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक साथ बैठे हुए लाल नेत्रोंवाले महाबाहु श्रीकृष्ण और अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथको देखकर हर्षसे उल्लसित हो बारंबार गर्जना करने लगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शौरेरभीषुहस्तस्य पार्थस्य च धनुष्मतः।
तयोरासीत् प्रभा राजन् सूर्यपावकयोरिव ॥ ३३ ॥

मूलम्

शौरेरभीषुहस्तस्य पार्थस्य च धनुष्मतः।
तयोरासीत् प्रभा राजन् सूर्यपावकयोरिव ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! हाथोंमें बागडोर लिये श्रीकृष्ण और धनुष धारण किये अर्जुन—इन दोनोंकी प्रभा सूर्य और अग्निके समान जान पड़ती थी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्ष एव तयोरासीद् द्रोणानीकप्रमुक्तयोः।
समीपे सैन्धवं दृष्ट्वा श्येनयोरामिषं यथा ॥ ३४ ॥

मूलम्

हर्ष एव तयोरासीद् द्रोणानीकप्रमुक्तयोः।
समीपे सैन्धवं दृष्ट्वा श्येनयोरामिषं यथा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मांसका टुकड़ा देखकर दो बाजोंको प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यकी सेनासे मुक्त हुए उन दोनों वीरोंको अपने पास ही जयद्रथको देखकर सब प्रकारसे हर्ष ही हुआ॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ तु सैन्धवमालोक्य वर्तमानमिवान्तिके।
सहसा पेततुः क्रुद्धौ क्षिप्रं श्येनाविवामिषम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

तौ तु सैन्धवमालोक्य वर्तमानमिवान्तिके।
सहसा पेततुः क्रुद्धौ क्षिप्रं श्येनाविवामिषम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने समीप ही खड़े हुए-से सिन्धुराज जयद्रथको देखकर तत्काल वे दोनों वीर कुपित हो उसी प्रकार सहसा उसपर टूट पड़े, जैसे दो बाज मांसपर झपट रहे हों॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ दृष्ट्‌वा तु व्यतिक्रान्तौ हृषीकेशधनंजयौ।
सिन्धुराजस्य रक्षार्थं पराक्रान्तः सुतस्तव ॥ ३६ ॥

मूलम्

तौ दृष्ट्‌वा तु व्यतिक्रान्तौ हृषीकेशधनंजयौ।
सिन्धुराजस्य रक्षार्थं पराक्रान्तः सुतस्तव ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और अर्जुन सारी सेनाको लाँघकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, यह देखकर आपके पुत्र दुर्योधनने सिन्धुराजकी रक्षाके लिये पराक्रम दिखाना आरम्भ किया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणेनाबद्धकवचो राजा दुर्योधनस्ततः ।
ययावेकरथेनाजौ हयसंस्कारवित् प्रभो ॥ ३७ ॥

मूलम्

द्रोणेनाबद्धकवचो राजा दुर्योधनस्ततः ।
ययावेकरथेनाजौ हयसंस्कारवित् प्रभो ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! घोड़ोंके संस्कारको जाननेवाला राजा दुर्योधन उस समय द्रोणाचार्यके बाँधे हुए कवचको धारण करके एकमात्र रथकी सहायतासे युद्धभूमिमें गया था॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णपार्थौ महेष्वासौ व्यतिक्रम्याथ ते सुतः।
अग्रतः पुण्डरीकाक्षं प्रतीयाय नराधिप ॥ ३८ ॥

मूलम्

कृष्णपार्थौ महेष्वासौ व्यतिक्रम्याथ ते सुतः।
अग्रतः पुण्डरीकाक्षं प्रतीयाय नराधिप ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! महाधनुर्धर श्रीकृष्ण और अर्जुनको लाँघकर आपका पुत्र कमलनयन श्रीकृष्णके सामने जा पहुँचा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वेषु सैन्येषु वादित्राणि प्रहृष्टवत्।
प्रावाद्यन्त व्यतिक्रान्ते तव पुत्रे धनंजयम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततः सर्वेषु सैन्येषु वादित्राणि प्रहृष्टवत्।
प्रावाद्यन्त व्यतिक्रान्ते तव पुत्रे धनंजयम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन जब अर्जुनको भी लाँघकर आगे बढ़ गया, तब सारी सेनाओंमें हर्षपूर्ण बाजे बजने लगे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहनादरवाश्चासन् शङ्खशब्दविमिश्रिताः ।
दृष्ट्‌वा दुर्योधनं तत्र कृष्णयोः प्रमुखे स्थितम् ॥ ४० ॥

मूलम्

सिंहनादरवाश्चासन् शङ्खशब्दविमिश्रिताः ।
दृष्ट्‌वा दुर्योधनं तत्र कृष्णयोः प्रमुखे स्थितम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनको वहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुनके सामने खड़ा देख शंखोंकी ध्वनिसे मिले हुए सिंहनादके शब्द सब ओर गूँजने लगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च ते सिन्धुराजस्य गोप्तारः पावकोपमाः।
ते प्राहृष्यन्त समरे दृष्ट्‌वा पुत्रं तव प्रभो ॥ ४१ ॥

मूलम्

ये च ते सिन्धुराजस्य गोप्तारः पावकोपमाः।
ते प्राहृष्यन्त समरे दृष्ट्‌वा पुत्रं तव प्रभो ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! सिन्धुराजकी रक्षा करनेवाले जो अग्निके समान तेजस्वी वीर थे, वे आपके पुत्रको समरांगणमें डटा हुआ देख बड़े प्रसन्न हुए॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा दुर्योधनं कृष्णो व्यतिक्रान्तं सहानुगम्।
अब्रवीदर्जुनं राजन् प्राप्तकालमिदं वचः ॥ ४२ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा दुर्योधनं कृष्णो व्यतिक्रान्तं सहानुगम्।
अब्रवीदर्जुनं राजन् प्राप्तकालमिदं वचः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सेवकोंसहित दुर्योधन सबको लाँघकर सामने आ गया—यह देखकर श्रीकृष्णने अर्जुनसे यह समयोचित बात कही॥४२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनागमे एकाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधनका आगमनविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०१॥