भागसूचना
शततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णके द्वारा अश्वपरिचर्या तथा खा-पीकर हृष्ट-पुष्ट हुए अश्वोंद्वारा अर्जुनका पुनः शत्रुसेनापर आक्रमण करते हुए जयद्रथकी ओर बढ़ना
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलिले जनिते तस्मिन् कौन्तेयेन महात्मना।
निस्तारिते द्विषत्सैन्ये कृते च शरवेश्मनि ॥ १ ॥
वासुदेवो रथात् तूर्णमवतीर्य महाद्युतिः।
मोचयामास तुरगान् विनुन्नान् कङ्कपत्रिभिः ॥ २ ॥
मूलम्
सलिले जनिते तस्मिन् कौन्तेयेन महात्मना।
निस्तारिते द्विषत्सैन्ये कृते च शरवेश्मनि ॥ १ ॥
वासुदेवो रथात् तूर्णमवतीर्य महाद्युतिः।
मोचयामास तुरगान् विनुन्नान् कङ्कपत्रिभिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! जब महात्मा कुन्तीकुमारने वह जल उत्पन्न कर दिया, शत्रुओंकी सेनाको आगे बढ़नेसे रोक दिया और बाणोंका घर बना दिया, तब महातेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णने तुरंत ही रथसे उतरकर कंकपत्रयुक्त बाणोंसे क्षत-विक्षत हुए घोड़ोंको खोल दिया॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्टपूर्वं तद् दृष्ट्वा साधुवादो महानभूत्।
सिद्धचारणसंघानां सैनिकानां च सर्वशः ॥ ३ ॥
मूलम्
अदृष्टपूर्वं तद् दृष्ट्वा साधुवादो महानभूत्।
सिद्धचारणसंघानां सैनिकानां च सर्वशः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अदृष्टपूर्व कार्य देखकर सिद्ध, चारण तथा सैनिकोंके मुखसे निकला हुआ महान् साधुवाद सब ओर गूँज उठा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पदातिनं तु कौन्तेयं युध्यमानं महारथाः।
नाशक्नुवन् वारयितुं तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४ ॥
मूलम्
पदातिनं तु कौन्तेयं युध्यमानं महारथाः।
नाशक्नुवन् वारयितुं तदद्भुतमिवाभवत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पैदल युद्ध करते हुए कुन्तीकुमार अर्जुनको समस्त महारथी मिलकर भी न रोक सके; यह अद्भुत-सी बात हुई॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपतत्सु रथौघेषु प्रभूतगजवाजिषु ।
नासम्भ्रमत् तदा पार्थस्तदस्य पुरुषानति ॥ ५ ॥
मूलम्
आपतत्सु रथौघेषु प्रभूतगजवाजिषु ।
नासम्भ्रमत् तदा पार्थस्तदस्य पुरुषानति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंके समूह तथा बहुत-से हाथी-घोड़े सब ओरसे उनपर टूट पड़े थे, तो भी उस समय कुन्तीकुमार अर्जुनको तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उनका यह धैर्य और साहस समस्त पुरुषोंसे बढ़-चढ़कर था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यसृजन्त शरौघांस्ते पाण्डवं प्रति पार्थिवाः।
न चाव्यथत धर्मात्मा वासविः परवीरहा ॥ ६ ॥
मूलम्
व्यसृजन्त शरौघांस्ते पाण्डवं प्रति पार्थिवाः।
न चाव्यथत धर्मात्मा वासविः परवीरहा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण भूपाल पाण्डुनन्दन अर्जुनपर बाणसमूहोंकी वर्षा कर रहे थे, तो भी शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले इन्द्रकुमार धर्मात्मा पार्थ तनिक भी व्यथित नहीं हुए॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तानि शरजालानि गदाः प्रासांश्च वीर्यवान्।
आगतानग्रसत् पार्थः सरितः सागरो यथा ॥ ७ ॥
मूलम्
स तानि शरजालानि गदाः प्रासांश्च वीर्यवान्।
आगतानग्रसत् पार्थः सरितः सागरो यथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन पराक्रमी कुन्तीकुमारने शत्रुओंके उन बाणसमूहों, गदाओं और प्रासोंको अपने पास आनेपर उसी प्रकार ग्रस लिया, जैसे समुद्र सरिताओंको अपनेमें मिला लेता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रवेगेन महता पार्थो बाहुबलेन च।
सर्वेषां पार्थिवेन्द्राणामग्रसत् तान् शरोत्तमान् ॥ ८ ॥
मूलम्
अस्त्रवेगेन महता पार्थो बाहुबलेन च।
सर्वेषां पार्थिवेन्द्राणामग्रसत् तान् शरोत्तमान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने अस्त्रोंके महान् वेग और बाहुबलसे समस्त राजाधिराजोंके उत्तमोत्तम बाणोंको नष्ट कर दिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् तु पार्थस्य विक्रान्तं वासुदेवस्य चोभयोः।
अपूजयन् महाराज कौरवा महदद्भुतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तत् तु पार्थस्य विक्रान्तं वासुदेवस्य चोभयोः।
अपूजयन् महाराज कौरवा महदद्भुतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण दोनोंके उस अत्यन्त अद्भुत पराक्रमकी समस्त कौरवोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमद्भुततमं लोके भविताप्यथवा ह्यभूत्।
यदश्वान् पार्थगोविन्दौ मोचयामासतू रणे ॥ १० ॥
मूलम्
किमद्भुततमं लोके भविताप्यथवा ह्यभूत्।
यदश्वान् पार्थगोविन्दौ मोचयामासतू रणे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें इससे बढ़कर और कोई अत्यन्त अद्भुत घटना क्या होगी अथवा हुई होगी कि अर्जुन और श्रीकृष्णने उस भयंकर संग्राममें भी घोड़ोंको रथसे खोल दिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भयं विपुलमस्मासु तावधत्तां नरोत्तमौ।
तेजो विदधतुश्चोग्रं विस्रब्धौ रणमूर्धनि ॥ ११ ॥
मूलम्
भयं विपुलमस्मासु तावधत्तां नरोत्तमौ।
तेजो विदधतुश्चोग्रं विस्रब्धौ रणमूर्धनि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंने हमलोगोंमें महान् भय उत्पन्न कर दिया और युद्धके मुहानेपर निर्भय और निश्चिन्त होकर अपने भयानक तेजका प्रदर्शन किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ स्मयन् हृषीकेशः स्त्रीमध्य इव भारत।
अर्जुनेन कृते संख्ये शरगर्भगृहे तथा ॥ १२ ॥
मूलम्
अथ स्मयन् हृषीकेशः स्त्रीमध्य इव भारत।
अर्जुनेन कृते संख्ये शरगर्भगृहे तथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! युद्धस्थलमें अर्जुनके बनाये हुए उस बाणनिर्मित गृहमें भगवान् श्रीकृष्ण उसी प्रकार मुसकराते हुए निर्भय खड़े थे, मानो वे स्त्रियोंके बीचमें हों॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपावर्तयदव्यग्रस्तानश्वान् पुष्करेक्षणः ।
मिषतां सर्वसैन्यानां त्वदीयानां विशाम्पते ॥ १३ ॥
मूलम्
उपावर्तयदव्यग्रस्तानश्वान् पुष्करेक्षणः ।
मिषतां सर्वसैन्यानां त्वदीयानां विशाम्पते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! कमलनयन श्रीकृष्णने आपके सम्पूर्ण सैनिकोंके देखते-देखते उद्वेगशून्य होकर उन घोड़ोंको टहलाया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां श्रमं च ग्लानिं च वमथुं वेपथुं व्रणान्।
सर्वं व्यपानुदत् कृष्णः कुशलो ह्यश्वकर्मणि ॥ १४ ॥
मूलम्
तेषां श्रमं च ग्लानिं च वमथुं वेपथुं व्रणान्।
सर्वं व्यपानुदत् कृष्णः कुशलो ह्यश्वकर्मणि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़ोंकी चिकित्सा करनेमें कुशल श्रीकृष्णने उनके परिश्रम, थकावट, वमन, कम्पन और घाव—सारे कष्टोंको दूर कर दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शल्यानुद्धृत्य पाणिभ्यां परिमृज्य च तान् हयान्।
उपावर्त्य यथान्यायं पाययामास वारि सः ॥ १५ ॥
मूलम्
शल्यानुद्धृत्य पाणिभ्यां परिमृज्य च तान् हयान्।
उपावर्त्य यथान्यायं पाययामास वारि सः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे बाण निकालकर उन घोड़ोंको मला और यथोचित रूपसे टहलाकर उन्हें पानी पिलाया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ताल्लँब्धोदकान् स्नातान् जग्धान्नान् विगतक्लमान्।
योजयामास संहृष्टः पुनरेव रथोत्तमे ॥ १६ ॥
मूलम्
स ताल्लँब्धोदकान् स्नातान् जग्धान्नान् विगतक्लमान्।
योजयामास संहृष्टः पुनरेव रथोत्तमे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने पानी पिलाकर उन्हें नहलाया, घास और दाने खिलाये तथा जब उनकी सारी थकावट दूर हो गयी, तब पुनः उस उत्तम रथमें उन्हें बड़ी प्रसन्नताके साथ जोत दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं रथवरं शौरिः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
समास्थाय महातेजाः सार्जुनः प्रययौ द्रुतम् ॥ १७ ॥
मूलम्
स तं रथवरं शौरिः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
समास्थाय महातेजाः सार्जुनः प्रययौ द्रुतम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी श्रीकृष्ण उस उत्तम रथपर अर्जुनसहित आरूढ़ हो बड़े वेगसे आगे बढ़े॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथं रथवरस्याजौ युक्तं लब्धोदकैर्हयैः।
दृष्ट्वा कुरुबलश्रेष्ठाः पुनर्विमनसोऽभवन् ॥ १८ ॥
मूलम्
रथं रथवरस्याजौ युक्तं लब्धोदकैर्हयैः।
दृष्ट्वा कुरुबलश्रेष्ठाः पुनर्विमनसोऽभवन् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनके उस रथको समरांगणमें पानी पीकर सुस्ताये हुए घोड़ोंसे जुता हुआ देख कौरव-सेनाके श्रेष्ठ वीर फिर उदास हो गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिःश्वसन्तस्ते राजन् भग्नदंष्ट्रा इवोरगाः।
धिगहो धिग्गतः पार्थः कृष्णश्चेत्यब्रुवन् पृथक् ॥ १९ ॥
मूलम्
विनिःश्वसन्तस्ते राजन् भग्नदंष्ट्रा इवोरगाः।
धिगहो धिग्गतः पार्थः कृष्णश्चेत्यब्रुवन् पृथक् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! टूटे दाँतवाले सर्पोंके समान लंबी साँस खींचते हुए वे पृथक्-पृथक् कहने लगे—‘अहो! हमें धिक्कार है, धिक्कार है, अर्जुन और श्रीकृष्ण तो चले गये’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्सेनाः सर्वतो दृष्ट्वा लोमहर्षणमद्भुतम्।
त्वरध्वमिति चाक्रन्दन् नैतदस्तीति चाब्रुवन् ॥ २० ॥
मूलम्
त्वत्सेनाः सर्वतो दृष्ट्वा लोमहर्षणमद्भुतम्।
त्वरध्वमिति चाक्रन्दन् नैतदस्तीति चाब्रुवन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी सम्पूर्ण सेनाएँ वह अद्भुत रोमांचकारी व्यापार देखकर अपने साथियोंको पुकार-पुकारकर कहने लगीं—‘वीरो! ऐसा नहीं हो सकता। तुम सब लोग शीघ्रतापूर्वक उनका पीछा करो’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वक्षत्रस्य मिषतो रथेनैकेन दंशितौ।
बालः क्रीडनकेनेव कदर्थीकृत्य नो बलम् ॥ २१ ॥
क्रोशतां यतमानानामसंसक्तौ परंतपौ ।
दर्शयित्वाऽऽत्मनो वीर्यं प्रयातौ सर्वराजसु ॥ २२ ॥
मूलम्
सर्वक्षत्रस्य मिषतो रथेनैकेन दंशितौ।
बालः क्रीडनकेनेव कदर्थीकृत्य नो बलम् ॥ २१ ॥
क्रोशतां यतमानानामसंसक्तौ परंतपौ ।
दर्शयित्वाऽऽत्मनो वीर्यं प्रयातौ सर्वराजसु ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोग चीखते-चिल्लाते तथा रोकनेकी चेष्टा करते ही रह गये; परंतु कुछ न हो सका। शत्रुओंको संताप देनेवाले कवचधारी श्रीकृष्ण और अर्जुन हम सब क्षत्रियोंके देखते-देखते हमारे बलकी अवहेलना करके एकमात्र रथके द्वारा सम्पूर्ण राजमण्डलीमें अपना पराक्रम दिखाकर उसी प्रकार बेरोक-टोक आगे बढ़ गये हैं, जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता हुआ निकल जाता है॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(यथा दैवासुरे युद्धे तृणीकृत्य च दानवान्।
इन्द्राविष्णू पुरा राजन् जम्भस्य वधकाङ्क्षिणौ॥)
मूलम्
(यथा दैवासुरे युद्धे तृणीकृत्य च दानवान्।
इन्द्राविष्णू पुरा राजन् जम्भस्य वधकाङ्क्षिणौ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पूर्वकालमें जैसे देवासुर-संग्राममें चम्भासुरका वध करनेकी इच्छावाले इन्द्र और भगवान् विष्णु दानवोंको तिनकोंके समान तुच्छ मानते हुए आगे बढ़ गये थे (उसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन जयद्रथको मारनेके लिये बड़े वेगसे अग्रसर हो रहे हैं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ प्रयातौ पुनर्दृष्ट्वा तदान्ये सैनिकाब्रुवन्।
त्वरध्वं कुरवः सर्वे वधे कृष्णकिरीटिनोः ॥ २३ ॥
रथयुक्तो हि दाशार्हो मिषतां सर्वधन्विनाम्।
जयद्रथाय यात्येष कदर्थीकृत्य नो रणे ॥ २४ ॥
मूलम्
तौ प्रयातौ पुनर्दृष्ट्वा तदान्ये सैनिकाब्रुवन्।
त्वरध्वं कुरवः सर्वे वधे कृष्णकिरीटिनोः ॥ २३ ॥
रथयुक्तो हि दाशार्हो मिषतां सर्वधन्विनाम्।
जयद्रथाय यात्येष कदर्थीकृत्य नो रणे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंको पुनः आगे बढ़ते देख दूसरे सैनिक बोल उठे—‘कौरवो! श्रीकृष्ण और अर्जुनका वध करनेके लिये तुम सब लोग शीघ्र चेष्टा करो। इस रणक्षेत्रमें रथपर बैठे हुए श्रीकृष्ण हमारी अवहेलना करके हम सब धनुर्धरोंके देखते-देखते जयद्रथकी ओर बढ़े जा रहे हैं’॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र केचिन्मिथो राजन् समभाषन्त भूमिपाः।
अदृष्टपूर्वं संग्रामे तद् दृष्ट्वा महदद्भुतम् ॥ २५ ॥
मूलम्
तत्र केचिन्मिथो राजन् समभाषन्त भूमिपाः।
अदृष्टपूर्वं संग्रामे तद् दृष्ट्वा महदद्भुतम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वहाँ कुछ भूमिपाल समरांगणमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका वह अत्यन्त अद्भुत अदृष्टपूर्व कार्य देखकर आपसमें इस प्रकार बातें करने लगे—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वसैन्यानि राजा च धृतराष्ट्रोऽत्ययं गतः।
दुर्योधनापराधेन क्षत्रं कृत्स्ना च मेदिनी ॥ २६ ॥
विलयं समनुप्राप्ता तच्च राजा न बुध्यते।
मूलम्
सर्वसैन्यानि राजा च धृतराष्ट्रोऽत्ययं गतः।
दुर्योधनापराधेन क्षत्रं कृत्स्ना च मेदिनी ॥ २६ ॥
विलयं समनुप्राप्ता तच्च राजा न बुध्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘एकमात्र दुर्योधनके अपराधसे राजा धृतराष्ट्र तथा उनकी सम्पूर्ण सेनाएँ भारी विपत्तिमें फँस गयीं। सारा क्षत्रियसमाज और सम्पूर्ण पृथ्वी विनाशके द्वारपर जा पहुँची है। इस बातको राजा धृतराष्ट्र नहीं समझ रहे हैं’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं क्षत्रियास्तत्र ब्रुवन्त्यन्ये च भारत ॥ २७ ॥
सिन्धुराजस्य यत् कृत्यं गतस्य यमसादनम्।
तत् करोतु वृथादृष्टिर्धार्तराष्ट्रोऽनुपायवित् ॥ २८ ॥
मूलम्
इत्येवं क्षत्रियास्तत्र ब्रुवन्त्यन्ये च भारत ॥ २७ ॥
सिन्धुराजस्य यत् कृत्यं गतस्य यमसादनम्।
तत् करोतु वृथादृष्टिर्धार्तराष्ट्रोऽनुपायवित् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इसी प्रकार वहाँ दूसरे क्षत्रिय निम्नांकित बातें कहते थे—‘योग्य उपायको न जाननेवाले और मिथ्या दृष्टि रखनेवाले राजा धृतराष्ट्र यमलोकमें गये हुए सिन्धुराज जयद्रथका जो और्ध्वदैहिक कृत्य है, उसका सम्पादन करें’॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शीघ्रतरं प्रायात् पाण्डवः सैन्धवं प्रति।
विवर्तमाने तिग्मांशौ हृष्टेः पीतोदकैर्हयैः ॥ २९ ॥
मूलम्
ततः शीघ्रतरं प्रायात् पाण्डवः सैन्धवं प्रति।
विवर्तमाने तिग्मांशौ हृष्टेः पीतोदकैर्हयैः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पानी पीकर हर्ष और उत्साहमें भरे हुए घोड़ोंद्वारा पाण्डुकुमार अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथकी ओर बड़े वेगसे बढ़ने लगे। उस समय सूर्यदेव अस्ताचलके शिखरकी ओर ढलते चले जा रहे थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रयान्तं महाबाहुं सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
नाशक्नुवन् वारयितुं योधाः क्रुद्धमिवान्तकम् ॥ ३० ॥
मूलम्
तं प्रयान्तं महाबाहुं सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
नाशक्नुवन् वारयितुं योधाः क्रुद्धमिवान्तकम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे क्रोधमें भरे हुए यमराजको रोकना असम्भव है, उसी प्रकार आगे बढ़ते हुए समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुनको आपके सैनिक रोक न सके॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्राव्य तु ततः सैन्यं पाण्डवः शत्रुतापनः।
यथा मृगगणान् सिंहः सैन्धवार्थे व्यलोडयत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
विद्राव्य तु ततः सैन्यं पाण्डवः शत्रुतापनः।
यथा मृगगणान् सिंहः सैन्धवार्थे व्यलोडयत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सिंह मृगोंके झुंडको खदेड़ता हुआ उन्हें मथ डालता है, उसी प्रकार शत्रुओंको संताप देनेवाले पाण्डुकुमार अर्जुन आपकी सेनाको खदेड़-खदेड़कर मारने और मथने लगे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाहमानस्त्वनीकानि तूर्णमश्वानचोदयत् ।
बलाकाभं तु दाशार्हः पाञ्चजन्यं व्यनादयत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
गाहमानस्त्वनीकानि तूर्णमश्वानचोदयत् ।
बलाकाभं तु दाशार्हः पाञ्चजन्यं व्यनादयत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाके भीतर घुसते हुए श्रीकृष्णने तीव्र वेगसे अपने घोड़ोंको आगे बढ़ाया और बगुलोंके समान श्वेत रंगवाले अपने पांचजन्य शंखको बड़े जोरसे बजाया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौन्तेयेनाग्रतः सृष्टा न्यपतन् पृष्ठतः शराः।
तूर्णात् तूर्णतरं ह्यश्वाः प्रावहन् वातरंहसः ॥ ३३ ॥
मूलम्
कौन्तेयेनाग्रतः सृष्टा न्यपतन् पृष्ठतः शराः।
तूर्णात् तूर्णतरं ह्यश्वाः प्रावहन् वातरंहसः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुके समान वेगशाली अश्व इतनी तीव्रातितीव्र गतिसे रथको लिये हुए भाग रहे थे कि कुन्तीकुमार अर्जुनद्वारा आगेकी ओर फेंके हुए बाण उनके रथके पीछे गिरते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नृपतयः क्रुद्धाः परिवव्रुर्धनंजयम्।
क्षत्रिया बहवश्चान्ये जयद्रथवधैषिणम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततो नृपतयः क्रुद्धाः परिवव्रुर्धनंजयम्।
क्षत्रिया बहवश्चान्ये जयद्रथवधैषिणम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए बहुत-से नरेशों तथा अन्य क्षत्रियोंने जयद्रथवधकी इच्छा रखनेवाले अर्जुनको चारों ओरसे घेर लिया॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैन्येषु विप्रयातेषु धिष्ठितं पुरुषर्षभम्।
दुर्योधनोऽन्वयात् पार्थं त्वरमाणो महाहवे ॥ ३५ ॥
मूलम्
सैन्येषु विप्रयातेषु धिष्ठितं पुरुषर्षभम्।
दुर्योधनोऽन्वयात् पार्थं त्वरमाणो महाहवे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाओंके सहसा आक्रमण करनेपर पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन कुछ ठहर गये। इसी समय उस महासमरमें राजा दुर्योधनने बड़ी उतावलीके साथ उनका पीछा किया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वातोद्धूतपताकं तं रथं जलदनिःस्वनम्।
घोरं कपिध्वजं दृष्ट्वा विषण्णा रथिनोऽभवन् ॥ ३६ ॥
मूलम्
वातोद्धूतपताकं तं रथं जलदनिःस्वनम्।
घोरं कपिध्वजं दृष्ट्वा विषण्णा रथिनोऽभवन् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हवा लगनेसे अर्जुनके रथकी पताका फहरा रही थी। उस रथसे मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनि हो रही थी और ध्वजापर वानरवीर हनुमान्जी विराजमान थे। उस भयंकर रथको देखकर सम्पूर्ण रथी विषादग्रस्त हो गये॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवाकरेऽथ रजसा सर्वतः संवृते भृशम्।
शरार्ताश्च रणे योधाः शेकुः कृष्णौ न वीक्षितुम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
दिवाकरेऽथ रजसा सर्वतः संवृते भृशम्।
शरार्ताश्च रणे योधाः शेकुः कृष्णौ न वीक्षितुम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सब ओर इतनी धूल उड़ रही थी कि सूर्यदेव छिप गये। उस रणक्षेत्रमें बाणोंसे पीड़ित हुए सैनिक श्रीकृष्ण और अर्जुनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे॥३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सैन्यविस्मये शततमोऽध्यायः ॥ १०० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सेनाविस्मयविषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१००॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं)