०८६ संजयवाक्ये

भागसूचना

षडशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संजयका धृतराष्ट्रको उपालम्भ

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा तव ह्यपनयो महान् ॥ १ ॥

मूलम्

हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा तव ह्यपनयो महान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— महाराज! मैंने सब कुछ प्रत्यक्ष देखा है, वह सब आपको अभी बताऊँगा। स्थिर होकर सुननेकी इच्छा कीजिये। इस परिस्थितिमें आपका महान् अन्याय ही कारण है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतोदके सेतुबन्धो यादृक् तादृगयं तव।
विलापो निष्फलो राजन् मा शुचो भरतर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

गतोदके सेतुबन्धो यादृक् तादृगयं तव।
विलापो निष्फलो राजन् मा शुचो भरतर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ राजन्! जैसे पानी निकल जानेपर वहाँ पुल बाँधना व्यर्थ है, उसी प्रकार इस समय आपका यह विलाप भी निष्फल है। आप शोक न कीजिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनतिक्रमणीयोऽयं कृतान्तस्याद्भुतो विधिः ।
मा शुचो भरतश्रेष्ठ दिष्टमेतत् पुरातनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अनतिक्रमणीयोऽयं कृतान्तस्याद्भुतो विधिः ।
मा शुचो भरतश्रेष्ठ दिष्टमेतत् पुरातनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालके इस अद्भुत विधानका उल्लंघन करना असम्भव है। भरतभूषण! शोक त्याग दीजिये। यह सब पुरातन प्रारब्धका फल है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वं हि पुरा द्यूतात् कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
निवर्तयेथाः पुत्रांश्च न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ४ ॥

मूलम्

यदि त्वं हि पुरा द्यूतात् कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
निवर्तयेथाः पुत्रांश्च न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आप कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर तथा अपने पुत्रोंको पहले ही जूएसे रोक देते तो आपपर यह संकट नहीं आता॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धकाले पुनः प्राप्ते तदैव भवता यदि।
निवर्तिताः स्युः संरब्धा न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

युद्धकाले पुनः प्राप्ते तदैव भवता यदि।
निवर्तिताः स्युः संरब्धा न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जब युद्धका अवसर आया, उसी समय यदि आपने क्रोधमें भरे हुए अपने पुत्रोंको बलपूर्वक रोक दिया होता तो आपपर यह संकट नहीं आ सकता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनं चाविधेयं बध्नीतेति पुरा यदि।
कुरूनचोदयिष्यस्त्वं न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ६ ॥

मूलम्

दुर्योधनं चाविधेयं बध्नीतेति पुरा यदि।
कुरूनचोदयिष्यस्त्वं न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आप पहले ही कौरवोंको यह आज्ञा दे देते कि इस दुर्विनीत दुर्योधनको कैद कर लो तो आपपर यह संकट नहीं आता॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् ते बुद्धिव्यभीचारमुपलप्स्यन्ति पाण्डवाः।
पञ्चाला वृष्णयः सर्वे ये चान्येऽपि नराधिपाः ॥ ७ ॥

मूलम्

तत् ते बुद्धिव्यभीचारमुपलप्स्यन्ति पाण्डवाः।
पञ्चाला वृष्णयः सर्वे ये चान्येऽपि नराधिपाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी बुद्धिके वैपरीत्यका फल पाण्डव, पांचाल, समस्त वृष्णिवंशी तथा अन्य जो-जो नरेश हैं, वे सभी भोगेंगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कृत्वा पितृकर्म त्वं पुत्रं संस्थाप्य सत्पथे।
वर्तेथा यदि धर्मेण न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

स कृत्वा पितृकर्म त्वं पुत्रं संस्थाप्य सत्पथे।
वर्तेथा यदि धर्मेण न त्वां व्यसनमाव्रजेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आपने अपने पुत्रको सन्मार्गमें स्थापित करके पिताके कर्तव्यका पालन करते हुए धर्मके अनुसार बर्ताव किया होता तो आपपर यह संकट नहीं आता॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं तु प्राज्ञतमो लोके हित्वा धर्मं सनातनम्।
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्चान्वगा मतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

त्वं तु प्राज्ञतमो लोके हित्वा धर्मं सनातनम्।
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्चान्वगा मतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप संसारमें बड़े बुद्धिमान् समझे जाते हैं तो भी आपने सनातनधर्मका परित्याग करके दुर्योधन, कर्ण और शकुनिके मतका अनुसरण किया है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तं विलपितं सर्वं मया राजन् निशामितम्।
अर्थे निविशमानस्य विषमिश्रं यथा मधु ॥ १० ॥

मूलम्

तत् तं विलपितं सर्वं मया राजन् निशामितम्।
अर्थे निविशमानस्य विषमिश्रं यथा मधु ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप स्वार्थमें सने हुए हैं। आपका यह सारा विलाप-कलाप मैंने सुन लिया। यह विषमिश्रित मधुके समान ऊपरसे ही मीठा है (इसके भीतर घातक कटुता भरी हुई है)॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामन्यत तदा कृष्णो राजानं पाण्डवं पुरा।
न भीष्मं नैव च द्रोणं यथा त्वां मन्यतेऽच्युतः॥११॥

मूलम्

नामन्यत तदा कृष्णो राजानं पाण्डवं पुरा।
न भीष्मं नैव च द्रोणं यथा त्वां मन्यतेऽच्युतः॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी महिमासे च्युत न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण पहले आपका जैसा सम्मान करते थे, वैसा उन्होंने पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर, भीष्म तथा द्रोणाचार्यका भी समादर नहीं किया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजानात् स यदा तु त्वां राजधर्मादधश्च्युतम्।
तदाप्रभृति कृष्णस्त्वां न तथा बहु मन्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

अजानात् स यदा तु त्वां राजधर्मादधश्च्युतम्।
तदाप्रभृति कृष्णस्त्वां न तथा बहु मन्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जबसे श्रीकृष्णने यह जान लिया है कि आप राजोचित धर्मसे नीचे गिर गये हैं, तबसे वे आपका उस तरह अधिक आदर नहीं करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परुषाण्युच्यमानांश्च यथा पार्थानुपेक्षसे ।
तस्यानुबन्धः प्राप्तस्त्वां पुत्राणां राज्यकामुक ॥ १३ ॥

मूलम्

परुषाण्युच्यमानांश्च यथा पार्थानुपेक्षसे ।
तस्यानुबन्धः प्राप्तस्त्वां पुत्राणां राज्यकामुक ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रोंको राज्य दिलानेकी अभिलाषा रखनेवाले महाराज! कुन्तीके पुत्रोंको कठोर बातें (गालियाँ) सुनायी जाती थीं और आप उनकी उपेक्षा करते थे। आज उसी अन्यायका फल आपको प्राप्त हुआ है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृपैतामहं राज्यमपवृत्तं तदानघ ।
अथ पार्थैर्जितां कृत्स्नां पृथिवीं प्रत्यपद्यथाः ॥ १४ ॥

मूलम्

पितृपैतामहं राज्यमपवृत्तं तदानघ ।
अथ पार्थैर्जितां कृत्स्नां पृथिवीं प्रत्यपद्यथाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! आपने उन दिनों बाप-दादोंके राज्यको तो अपने अधिकारमें कर ही लिया था; फिर कुन्तीके पुत्रोंद्वारा जीती हुई सम्पूर्ण पृथ्वीका विशाल साम्राज्य भी हड़प लिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डुना निर्जितं राज्यं कौरवाणां यशस्तथा।
ततश्चाप्यधिकं भूयः पाण्डवैर्धर्मचारिभिः ॥ १५ ॥

मूलम्

पाण्डुना निर्जितं राज्यं कौरवाणां यशस्तथा।
ततश्चाप्यधिकं भूयः पाण्डवैर्धर्मचारिभिः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा पाण्डुने भूमण्डलका राज्य जीता और कौरवोंके यशका विस्तार किया था। फिर धर्मपरायण पाण्डवोंने अपने पितासे भी बढ़-चढ़कर राज्य और सुयशका प्रसार किया है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तत् तादृशं कर्म त्वामासाद्य सुनिष्फलम्।
यत्‌ पित्र्याद् भ्रंशिता राज्यात् त्वयेहामिषगृद्धिना ॥ १६ ॥

मूलम्

तेषां तत् तादृशं कर्म त्वामासाद्य सुनिष्फलम्।
यत्‌ पित्र्याद् भ्रंशिता राज्यात् त्वयेहामिषगृद्धिना ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु उनका वैसा महान् कर्म भी आपको पाकर अत्यन्त निष्फल हो गया; क्योंकि आपने राज्यके लोभमें पड़कर उन्हें अपने पैतृक राज्यसे भी वंचित कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् पुनर्युद्धकाले त्वं पुत्रान् गर्हयसे नृप।
बहुधा व्याहरन् दोषान् न तदद्योपपद्यते ॥ १७ ॥

मूलम्

यत् पुनर्युद्धकाले त्वं पुत्रान् गर्हयसे नृप।
बहुधा व्याहरन् दोषान् न तदद्योपपद्यते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! आज जब युद्धका अवसर उपस्थित है, ऐसे समयमें जो आप अपने पुत्रोंके नाना प्रकारके दोष बताते हुए उनकी निन्दा कर रहे हैं यह इस समय आपको शोभा नहीं देता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि रक्षन्ति राजानो युध्यन्तो जीवितं रणे।
चमूं विगाह्य पार्थानां युध्यन्ते क्षत्रियर्षभाः ॥ १८ ॥

मूलम्

न हि रक्षन्ति राजानो युध्यन्तो जीवितं रणे।
चमूं विगाह्य पार्थानां युध्यन्ते क्षत्रियर्षभाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजालोग रणक्षेत्रमें युद्ध करते हुए अपने जीवनकी रक्षा नहीं कर रहे हैं। वे क्षत्रियशिरोमणि नरेश पाण्डवोंकी सेनामें घुसकर युद्ध करते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यां तु कृष्णार्जुनौ सेनां यां सात्यकिवृकोदरौ।
रक्षेरन् को नु तां युध्येच्चमूमन्यत्र कौरवैः ॥ १९ ॥

मूलम्

यां तु कृष्णार्जुनौ सेनां यां सात्यकिवृकोदरौ।
रक्षेरन् को नु तां युध्येच्चमूमन्यत्र कौरवैः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण, अर्जुन, सात्यकि तथा भीमसेन जिस सेनाकी रक्षा करते हों, उसके साथ कौरवोंके सिवा दूसरा कौन युद्ध कर सकता है?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां योद्धा गुडाकेशो येषां मन्त्री जनार्दनः।
येषां च सात्यकिर्योद्धा येषां योद्धा वृकोदरः ॥ २० ॥
को हि तान् विषहेद् योद्धुं मर्त्यधर्मा धनुर्धरः।
अन्यत्र कौरवेयेभ्यो ये वा तेषां पदानुगाः ॥ २१ ॥

मूलम्

येषां योद्धा गुडाकेशो येषां मन्त्री जनार्दनः।
येषां च सात्यकिर्योद्धा येषां योद्धा वृकोदरः ॥ २० ॥
को हि तान् विषहेद् योद्धुं मर्त्यधर्मा धनुर्धरः।
अन्यत्र कौरवेयेभ्यो ये वा तेषां पदानुगाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके योद्धा गुडाकेश अर्जुन हैं, जिनके मन्त्री भगवान् श्रीकृष्ण हैं तथा जिनकी ओरसे युद्ध करनेवाले योद्धा सात्यकि और भीमसेन हैं, उनके साथ कौरवों तथा उनके चरण-चिह्नोंपर चलनेवाले अन्य नरेशोंको छोड़कर दूसरा कौन मरणधर्मा धनुर्धर युद्ध करनेका साहस कर सकता है?॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् तु शक्यते कर्तुमन्तरज्ञैर्जनाधिपैः।
क्षत्रधर्मरतैः शूरैस्तावत् कुर्वन्ति कौरवाः ॥ २२ ॥

मूलम्

यावत् तु शक्यते कर्तुमन्तरज्ञैर्जनाधिपैः।
क्षत्रधर्मरतैः शूरैस्तावत् कुर्वन्ति कौरवाः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवसरको जाननेवाले, क्षत्रिय-धर्मपरायण, शूरवीर राजालोग जितना कर सकते हैं, कौरवपक्षी नरेश उतना पराक्रम करते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा तु पुरुषव्याघ्रैर्युद्धं परमसंकटम्।
कुरूणां पाण्डवैः सार्धं तत् सर्वं शृणु तत्त्वतः ॥ २३ ॥

मूलम्

यथा तु पुरुषव्याघ्रैर्युद्धं परमसंकटम्।
कुरूणां पाण्डवैः सार्धं तत् सर्वं शृणु तत्त्वतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह पाण्डवोंके साथ कौरवोंका जिस प्रकार अत्यन्त संकटपूर्ण युद्ध हुआ है, वह सब आप ठीक-ठीक सुनिये॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि संजयवाक्ये षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें संजयवाक्यविषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८६॥