भागसूचना
एकाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनको स्वप्नमें ही पुनः पाशुपतास्त्रकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थः प्रसन्नात्मा प्राञ्जलिर्वृषभध्वजम्।
ददर्शोत्फुल्लनयनः समस्तं तेजसां निधिम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततः पार्थः प्रसन्नात्मा प्राञ्जलिर्वृषभध्वजम्।
ददर्शोत्फुल्लनयनः समस्तं तेजसां निधिम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुनने प्रसन्नचित्त हो हाथ जोड़कर समस्त तेजोंके भण्डार भगवान् वृषभध्वजका हर्षोत्फुल्ल नेत्रोंसे दर्शन किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चोपहारं सुकृतं नैशं नैत्यकमात्मना।
ददर्श त्र्यम्बकाभ्याशे वासुदेवनिवेदितम् ॥ २ ॥
मूलम्
तं चोपहारं सुकृतं नैशं नैत्यकमात्मना।
ददर्श त्र्यम्बकाभ्याशे वासुदेवनिवेदितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने द्वारा समर्पित किये हुए रात्रिकालके उस नैत्यिक उपहारको, जिसे श्रीकृष्णको निवेदित किया था, भगवान् त्रिनेत्रधारी शिवके समीप रखा हुआ देखा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभिपूज्य मनसा कृष्णं शर्वं च पाण्डवः।
इच्छाम्यहं दिव्यमस्त्रमित्यभाषत शङ्करम् ॥ ३ ॥
मूलम्
ततोऽभिपूज्य मनसा कृष्णं शर्वं च पाण्डवः।
इच्छाम्यहं दिव्यमस्त्रमित्यभाषत शङ्करम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पाण्डुपुत्र अर्जुनने मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्ण और शिवकी पूजा करके भगवान् शंकरसे कहा—‘प्रभो! मैं आपसे दिव्य अस्त्र प्राप्त करना चाहता हूँ’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थस्य विज्ञाय वरार्थे वचनं तदा।
वासुदेवार्जुनौ देवः स्मयमानोऽभ्यभाषत ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः पार्थस्य विज्ञाय वरार्थे वचनं तदा।
वासुदेवार्जुनौ देवः स्मयमानोऽभ्यभाषत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अर्जुनका वर-प्राप्तिके लिये वह वचन सुनकर महादेवजी मुसकराने लगे और श्रीकृष्ण तथा अर्जुनसे बोले—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वागतं वां नरश्रेष्ठौ विज्ञातं मनसेप्सितम्।
येन कामेन सम्प्राप्तौ भवद्भ्यां तं ददाम्यहम् ॥ ५ ॥
मूलम्
स्वागतं वां नरश्रेष्ठौ विज्ञातं मनसेप्सितम्।
येन कामेन सम्प्राप्तौ भवद्भ्यां तं ददाम्यहम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ! तुम दोनोंका स्वागत है। तुम्हारा मनोरथ मुझे विदित है। तुम दोनों जिस कामनासे यहाँ आये हो, उसे मैं तुम्हें दे रहा हूँ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरोऽमृतमयं दिव्यमभ्याशे शत्रुसूदनौ ।
तत्र मे तद् धनुर्दिव्यं शरश्च निहितः पुरा ॥ ६ ॥
येन देवारयः सर्वे मया युधि निपातिताः।
तत आनीयतां कृष्णौ सशरं धनुरुत्तमम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सरोऽमृतमयं दिव्यमभ्याशे शत्रुसूदनौ ।
तत्र मे तद् धनुर्दिव्यं शरश्च निहितः पुरा ॥ ६ ॥
येन देवारयः सर्वे मया युधि निपातिताः।
तत आनीयतां कृष्णौ सशरं धनुरुत्तमम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुसूदन वीरो! यहाँ पास ही दिव्य अमृतमय सरोवर है, वहीं पूर्वकालमें मेरा वह दिव्य धनुष और बाण रखा गया था, जिसके द्वारा मैंने युद्धमें सम्पूर्ण देव-शत्रुओंको मार गिराया था। कृष्ण! तुम दोनों उस सरोवरसे बाणसहित वह उत्तम धनुष ले आओ’॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा तु तौ वीरौ सर्वपारिषदैः सह।
प्रस्थितौ तत्सरो दिव्यं दिव्यैश्वर्यशतैर्युतम् ॥ ८ ॥
निर्दिष्टं यद् वृषाङ्केण पुण्यं सर्वार्थसाधकम्।
तौ जग्मतुरसम्भ्रान्तौ नरनारायणावृषी ॥ ९ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा तु तौ वीरौ सर्वपारिषदैः सह।
प्रस्थितौ तत्सरो दिव्यं दिव्यैश्वर्यशतैर्युतम् ॥ ८ ॥
निर्दिष्टं यद् वृषाङ्केण पुण्यं सर्वार्थसाधकम्।
तौ जग्मतुरसम्भ्रान्तौ नरनारायणावृषी ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे दोनों वीर भगवान् शंकरके पार्षदगणोंके साथ सैकड़ों दिव्य ऐश्वर्योंसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाले उस पुण्यमय दिव्य सरोवरकी ओर प्रस्थित हुए, जिसकी ओर जानेके लिये महादेवजीने स्वयं ही संकेत किया था। वे दोनों नर-नारायण ऋषि बिना किसी घबराहटके वहाँ जा पहुँचे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ तत् सरो गत्वा सूर्यमण्डलसंनिभम्।
नागमन्तर्जले घोरं ददृशातेऽर्जुनाच्युतौ ॥ १० ॥
मूलम्
ततस्तौ तत् सरो गत्वा सूर्यमण्डलसंनिभम्।
नागमन्तर्जले घोरं ददृशातेऽर्जुनाच्युतौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सरोवरके तटपर पहुँचकर अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनोंने जलके भीतर एक भयंकर नाग देखा, जो सूर्यमण्डलके समान प्रकाशित हो रहा था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वितीयं चापरं नागं सहस्रशिरसं वरम्।
वमन्तं विपुला ज्वाला ददृशातेऽग्निवर्चसम् ॥ ११ ॥
मूलम्
द्वितीयं चापरं नागं सहस्रशिरसं वरम्।
वमन्तं विपुला ज्वाला ददृशातेऽग्निवर्चसम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहीं उन्होंने अग्निके समान तेजस्वी और सहस्र फणोंसे युक्त दूसरा श्रेष्ठ नाग भी देखा, जो अपने मुखसे आगकी प्रचण्ड ज्वालाएँ उगल रहा था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृष्णश्च पार्थश्च संस्पृश्याम्भः कृताञ्जली।
तौ नागावुपतस्थाते नमस्यन्तौ वृषध्वजम् ॥ १२ ॥
मूलम्
ततः कृष्णश्च पार्थश्च संस्पृश्याम्भः कृताञ्जली।
तौ नागावुपतस्थाते नमस्यन्तौ वृषध्वजम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीकृष्ण और अर्जुन जलसे आचमन करके हाथ जोड़ भगवान् शंकरको प्रणाम करते हुए उन दोनों नागोंके निकट खड़े हो गये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृणन्तौ वेदविद्वांसौ तद् ब्रह्म शतरुद्रियम्।
अप्रमेयं प्रणमतो गत्वा सर्वात्मना भवम् ॥ १३ ॥
मूलम्
गृणन्तौ वेदविद्वांसौ तद् ब्रह्म शतरुद्रियम्।
अप्रमेयं प्रणमतो गत्वा सर्वात्मना भवम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों ही वेदोंके विद्वान् थे। अतः उन्होंने शतरुद्री मन्त्रोंका पाठ करते हुए साक्षात् ब्रह्मस्वरूप अप्रमेय शिवकी सब प्रकारसे शरण लेकर उन्हें प्रणाम किया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ रुद्रमाहात्म्याद्धित्वा रूपं महोरगौ।
धनुर्बाणश्च शत्रुघ्नं तद् द्वन्द्वं समपद्यत ॥ १४ ॥
मूलम्
ततस्तौ रुद्रमाहात्म्याद्धित्वा रूपं महोरगौ।
धनुर्बाणश्च शत्रुघ्नं तद् द्वन्द्वं समपद्यत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भगवान् शंकरकी महिमासे वे दोनों महानाग अपने उस रूपको छोड़कर दो शत्रुनाशक धनुष-बाणके रूपमें परिणत हो गये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तज्जगृहतुः प्रीतौ धनुर्बाणं च सुप्रभम्।
आजह्रतुर्महात्मानौ ददतुश्च महात्मने ॥ १५ ॥
मूलम्
तौ तज्जगृहतुः प्रीतौ धनुर्बाणं च सुप्रभम्।
आजह्रतुर्महात्मानौ ददतुश्च महात्मने ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुनने उस प्रकाशमान धनुष और बाणको हाथमें ले लिया। फिर वे उन्हें महादेवजीके पास ले आये और उन्हीं महात्माके हाथोंमें अर्पित कर दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्श्वाद् वृषाङ्कस्य ब्रह्मचारी न्यवर्तत।
पिङ्गाक्षस्तपसः क्षेत्रं बलवान् नीललोहितः ॥ १६ ॥
मूलम्
ततः पार्श्वाद् वृषाङ्कस्य ब्रह्मचारी न्यवर्तत।
पिङ्गाक्षस्तपसः क्षेत्रं बलवान् नीललोहितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवान् शंकरके पार्श्वभागसे एक ब्रह्मचारी प्रकट हुआ, जो पिंगल नेत्रोंसे युक्त, तपस्याका क्षेत्र, बलवान् तथा नील-लोहित वर्णका था॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तद् गृह्य धनुःश्रेष्ठं तस्थौ स्थानं समाहितः।
विचकर्षाथ विधिवत् सशरं धनुरुत्तमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
स तद् गृह्य धनुःश्रेष्ठं तस्थौ स्थानं समाहितः।
विचकर्षाथ विधिवत् सशरं धनुरुत्तमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह एकाग्रचित्त हो उस श्रेष्ठ धनुषको हाथमें लेकर एक धनुर्धरको जैसे खड़ा होना चाहिये, वैसे खड़ा हुआ। फिर उसने बाणसहित उस उत्तम धनुषको विधिपूर्वक खींचा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य मौर्वीं च मुष्टिं च स्थानं चालक्ष्य पाण्डवः।
श्रुत्वा मन्त्रं भवप्रोक्तं जग्राहाचिन्त्यविक्रमः ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्य मौर्वीं च मुष्टिं च स्थानं चालक्ष्य पाण्डवः।
श्रुत्वा मन्त्रं भवप्रोक्तं जग्राहाचिन्त्यविक्रमः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अचिन्त्य पराक्रमी पाण्डुपुत्र अर्जुनने उसका मुट्ठीसे धनुष पकड़ना, धनुषकी डोरीको खींचना और विशेष प्रकारसे उसका खड़ा होना—इन सब बातोंकी ओर लक्ष्य रखते हुए भगवान् शंकरके द्वारा उच्चारित मन्त्रको सुनकर मनसे ग्रहण कर लिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सरस्येव तं बाणं मुमोचातिबलः प्रभुः।
चकार च पुनर्वीरस्तस्मिन् सरसि तद् धनुः ॥ १९ ॥
मूलम्
स सरस्येव तं बाणं मुमोचातिबलः प्रभुः।
चकार च पुनर्वीरस्तस्मिन् सरसि तद् धनुः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अत्यन्त बलशाली वीर भगवान् शिवने उस बाणको उसी सरोवरमें छोड़ दिया। फिर उस धनुषको भी वहीं डाल दिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रीतं भवं ज्ञात्वा स्मृतिमानर्जुनस्तदा।
वरमारण्यके दत्तं दर्शनं शङ्करस्य च ॥ २० ॥
मनसा चिन्तयामास तन्मे सम्पद्यतामिति।
मूलम्
ततः प्रीतं भवं ज्ञात्वा स्मृतिमानर्जुनस्तदा।
वरमारण्यके दत्तं दर्शनं शङ्करस्य च ॥ २० ॥
मनसा चिन्तयामास तन्मे सम्पद्यतामिति।
अनुवाद (हिन्दी)
तब स्मरणशक्तिसे सम्पन्न अर्जुनने भगवान् शंकरको अत्यन्त प्रसन्न जानकर वनवासके समय जो भगवान् शंकरका दर्शन और वरदान प्राप्त हुआ था, उसका मन-ही-मन चिन्तन किया और यह इच्छा की कि मेरा वह मनोरथ पूर्ण हो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तन्मतमाज्ञाय प्रीतः प्रादाद् वरं भवः ॥ २१ ॥
तच्च पाशुपतं घोरं प्रतिज्ञायाश्च पारणम्।
मूलम्
तस्य तन्मतमाज्ञाय प्रीतः प्रादाद् वरं भवः ॥ २१ ॥
तच्च पाशुपतं घोरं प्रतिज्ञायाश्च पारणम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इस अभिप्रायको जानकर भगवान् शंकरने प्रसन्न हो वरदानके रूपमें वह घोर पाशुपत अस्त्र, जो उनकी प्रतिज्ञाकी पूर्ति करानेवाला था, दे दिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पाशुपतं दिव्यमवाप्य पुनरीश्वरात् ॥ २२ ॥
संहृष्टरोमा दुर्धर्षः कृतं कार्यममन्यत।
मूलम्
ततः पाशुपतं दिव्यमवाप्य पुनरीश्वरात् ॥ २२ ॥
संहृष्टरोमा दुर्धर्षः कृतं कार्यममन्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकरसे उस दिव्य पाशुपतास्त्रको पुनः प्राप्त करके दुर्धर्ष वीर अर्जुनके शरीरमें रोमांच हो आया और उन्हें यह विश्वास हो गया कि अब मेरा कार्य पूर्ण हो जायगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ववन्दतुश्च संहृष्टौ शिरोभ्यां तं महेश्वरम् ॥ २३ ॥
अनुज्ञातौ क्षणे तस्मिन् भवेनार्जुनकेशवौ।
प्राप्तौ स्वशिबिरं वीरौ मुदा परमया युतौ ॥ २४ ॥
मूलम्
ववन्दतुश्च संहृष्टौ शिरोभ्यां तं महेश्वरम् ॥ २३ ॥
अनुज्ञातौ क्षणे तस्मिन् भवेनार्जुनकेशवौ।
प्राप्तौ स्वशिबिरं वीरौ मुदा परमया युतौ ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो अत्यन्त हर्षमें भरे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महापुरुषोंने मस्तक नवाकर भगवान महेश्वरको प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले उसी क्षण वे दोनों वीर बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने शिविरको लौट आये॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा भवेनानुमतौ महासुरनिघातिना ।
इन्द्राविष्णू यथा प्रीतौ जम्भस्य वधकाङ्क्षिणौ ॥ २५ ॥
मूलम्
तथा भवेनानुमतौ महासुरनिघातिना ।
इन्द्राविष्णू यथा प्रीतौ जम्भस्य वधकाङ्क्षिणौ ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पूर्वकालमें जम्भासुरके वधकी इच्छा रखनेवाले इन्द्र और विष्णु महासुरविनाशक भगवान् शंकरकी अनुमति पाकर प्रसन्नतापूर्वक लौटे थे, उसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन भी आनन्दित होकर अपने शिविरमें आये॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनस्य पुनः पाशुपतास्त्रप्राप्तौ एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अर्जुनको पुनः पाशुपतास्त्रकी प्राप्तिविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८१॥