भागसूचना
अष्टसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सुभद्राका विलाप और श्रीकृष्णका सबको आश्वासन
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य केशवस्य महात्मनः।
सुभद्रा पुत्रशोकार्ता विललाप सुदुःखिता ॥ १ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य केशवस्य महात्मनः।
सुभद्रा पुत्रशोकार्ता विललाप सुदुःखिता ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! महात्मा केशवका यह कथन सुनकर पुत्रशोकसे व्याकुल और अत्यन्त दुःखित हुई सुभद्रा इस प्रकार विलाप करने लगी—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा पुत्र मम मन्दायाः कथमेत्यासि संयुगे।
निधनं प्राप्तवांस्तात पितुस्तुल्यपराक्रमः ॥ २ ॥
मूलम्
हा पुत्र मम मन्दायाः कथमेत्यासि संयुगे।
निधनं प्राप्तवांस्तात पितुस्तुल्यपराक्रमः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हा पुत्र! हा बेटा अभिमन्यु! तुम मुझ अभागिनीके गर्भमें आकर क्रमशः पिताके तुल्य पराक्रमी होकर युद्धमें मारे कैसे गये?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमिन्दीवरश्यामं सुदंष्ट्रं चारुलोचनम् ।
मुखं ते दृश्यते वत्स गुण्ठितं रणरेणुना ॥ ३ ॥
मूलम्
कथमिन्दीवरश्यामं सुदंष्ट्रं चारुलोचनम् ।
मुखं ते दृश्यते वत्स गुण्ठितं रणरेणुना ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! नील कमलके समान श्याम, सुन्दर दन्तपंक्तियोंसे सुशोभित, मनोहर नेत्रोंवाला तुम्हारा मुख आज युद्धकी धूलसे आच्छादित होकर कैसा दिखायी देता होगा?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं शूरं निपतितं त्वां पश्यन्त्यनिवर्तिनम्।
सुशिरोग्रीवबाह्वंसं व्यूढोरस्कं नतोदरम् ॥ ४ ॥
चारूपचितसर्वाङ्गं स्वक्षं शस्त्रक्षताचितम् ।
भूतानि त्वां निरीक्षन्ते नूनं चन्द्रमिवोदितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
नूनं शूरं निपतितं त्वां पश्यन्त्यनिवर्तिनम्।
सुशिरोग्रीवबाह्वंसं व्यूढोरस्कं नतोदरम् ॥ ४ ॥
चारूपचितसर्वाङ्गं स्वक्षं शस्त्रक्षताचितम् ।
भूतानि त्वां निरीक्षन्ते नूनं चन्द्रमिवोदितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम शूरवीर थे। युद्धसे कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। मस्तक, ग्रीवा, बाहु और कंधे आदि तुम्हारे सभी अंग सुन्दर थे, छाती चौड़ी थी, उदर एवं नाभिदेश नीचा था, समस्त अंग मनोहर और हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विशेषतः नेत्र बड़े सुन्दर थे तथा तुम्हारे सारे अंग शस्त्रजनित आघातसे व्याप्त थे। इस दशामें तुम धरतीपर पड़े होगे और निश्चय ही समस्त प्राणी उदय होते हुए चन्द्रमाके समान तुम्हें देख रहे होंगे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयनीयं पुरा यस्य स्पर्ध्यास्तरणसंवृतम्।
भूमावद्य कथं शेषे विप्रविद्धः सुखोचितः ॥ ६ ॥
मूलम्
शयनीयं पुरा यस्य स्पर्ध्यास्तरणसंवृतम्।
भूमावद्य कथं शेषे विप्रविद्धः सुखोचितः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! पहले जिसके शयन करनेके लिये बहुमूल्य बिछौनेसे ढकी हुई शय्या बिछायी जाती थी, वही बेटा अभिमन्यु सुख भोगनेके योग्य होकर भी आज बाणविद्ध शरीरसे भूतलपर कैसे सो रहा होगा?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽन्वास्यत पुरा वीरो वरस्त्रीभिर्महाभुजः।
कथमन्वास्यते सोऽद्य शिवाभिः पतितो मृधे ॥ ७ ॥
मूलम्
योऽन्वास्यत पुरा वीरो वरस्त्रीभिर्महाभुजः।
कथमन्वास्यते सोऽद्य शिवाभिः पतितो मृधे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस महाबाहु वीरके पास पहले सुन्दरी स्त्रियाँ बैठा करती थीं, वही आज युद्धभूमिमें पड़ा होगा और उसके आस-पास सियारिनें बैठी होंगी; यह सब कैसे सम्भव हुआ?’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽस्तूयत पुरा हृष्टैः सूतमागधवन्दिभिः।
सोऽद्य क्रव्याद्गणैर्घोरैर्विनदद्भिरुपास्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
योऽस्तूयत पुरा हृष्टैः सूतमागधवन्दिभिः।
सोऽद्य क्रव्याद्गणैर्घोरैर्विनदद्भिरुपास्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले हर्षमें भरे हुए सूत, मागध और वन्दीजन जिसकी स्तुति किया करते थे, उसीकी आज विकट गर्जना करते हुए भयंकर मांसभक्षी जन्तुओंके समुदाय उपासना करते होंगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवेषु च नाथेषु वृष्णिवीरेषु वा विभो।
पञ्चालेषु च वीरेषु हतः केनास्यनाथवत् ॥ ९ ॥
मूलम्
पाण्डवेषु च नाथेषु वृष्णिवीरेषु वा विभो।
पञ्चालेषु च वीरेषु हतः केनास्यनाथवत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शक्तिशाली पुत्र! तुम्हारे रक्षक पाण्डवों, वृष्णिवीरों तथा पांचालवीरोंके होते हुए भी तुम्हें अनाथकी भाँति किसने मारा?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतृप्तदर्शना पुत्र दर्शनस्य तवानघ।
मन्दभाग्या गमिष्यामि व्यक्तमद्य यमक्षयम् ॥ १० ॥
मूलम्
अतृप्तदर्शना पुत्र दर्शनस्य तवानघ।
मन्दभाग्या गमिष्यामि व्यक्तमद्य यमक्षयम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम्हें देखनेके लिये मेरी आँखें तरस रही हैं, इनकी प्यास नहीं बुझी। अनघ! कितनी मन्दभागिनी हूँ। निश्चय ही आज मैं यमलोकको चली जाऊँगी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशालाक्षं सुकेशान्तं चारुवाक्यं सुगन्धि च।
तव पुत्र कदा भूयो मुखं द्रक्ष्यामि निर्व्रणम् ॥ ११ ॥
मूलम्
विशालाक्षं सुकेशान्तं चारुवाक्यं सुगन्धि च।
तव पुत्र कदा भूयो मुखं द्रक्ष्यामि निर्व्रणम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! बड़े-बड़े नेत्र, सुन्दर केशप्रान्त, मनोहर वाक्य और उत्तम सुगंधसे युक्त तुम्हारा घावरहित सुन्दर मुख मैं फिर कब देख पाऊँगी?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिग् बलं भीमसेनस्य धिक् पार्थस्य धनुष्मताम्।
धिग् वीर्यं वृष्णिवीराणां पञ्चालानां च धिग् बलम् ॥ १२ ॥
मूलम्
धिग् बलं भीमसेनस्य धिक् पार्थस्य धनुष्मताम्।
धिग् वीर्यं वृष्णिवीराणां पञ्चालानां च धिग् बलम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेनके बलको धिक्कार है, अर्जुनके धनुष-धारणको धिक्कार है, वृष्णिवंशी वीरोंके पराक्रमको धिक्कार है तथा पांचालोंके बलको भी धिक्कार है!॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिक्केकयांस्तथा चेदीन् मत्स्यांश्चैवाथ सृञ्जयान्।
ये त्वां रणगतं वीरं न शेकुरभिरक्षितुम् ॥ १३ ॥
मूलम्
धिक्केकयांस्तथा चेदीन् मत्स्यांश्चैवाथ सृञ्जयान्।
ये त्वां रणगतं वीरं न शेकुरभिरक्षितुम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केकय, चेदि तथा मत्स्यदेशके वीरों और सृंजयवंशी क्षत्रियोंको भी धिक्कार है, जो युद्धमें गये हुए तुम-जैसे वीरकी रक्षा न कर सके॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य पश्यामि पृथिवीं शून्यामिव हतत्विषम्।
अभिमन्युमपश्यन्ती शोकव्याकुललोचना ॥ १४ ॥
मूलम्
अद्य पश्यामि पृथिवीं शून्यामिव हतत्विषम्।
अभिमन्युमपश्यन्ती शोकव्याकुललोचना ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अभिमन्युको न देखनेके कारण मेरे नेत्र शोकसे व्याकुल हो रहे हैं। आज मुझे सारी पृथ्वी सूनी एवं कान्तिहीन-सी दिखायी देती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्रीयं वासुदेवस्य पुत्रं गाण्डीवधन्वनः।
कथं त्वातिरथं वीरं द्रक्ष्याम्यद्य निपातितम् ॥ १५ ॥
मूलम्
स्वस्रीयं वासुदेवस्य पुत्रं गाण्डीवधन्वनः।
कथं त्वातिरथं वीरं द्रक्ष्याम्यद्य निपातितम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके भानजे और गाण्डीवधारी अर्जुनके अतिरथी वीर पुत्र अभिमन्युको आज मैं धरतीपर पड़ा हुआ कैसे देख सकूँगी?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एह्येहि तृषितो वत्स स्तनौ पूर्णौ पिबाशु मे।
अङ्कमारुह्य मन्दाया ह्यतृप्तायाश्च दर्शने ॥ १६ ॥
मूलम्
एह्येहि तृषितो वत्स स्तनौ पूर्णौ पिबाशु मे।
अङ्कमारुह्य मन्दाया ह्यतृप्तायाश्च दर्शने ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! आओ, आओ। तुम्हें प्यास लगी होगी। तुम्हें देखनेके लिये प्यासी हुई मुझ अभागिनी माताकी गोदमें बैठकर मेरे दूधसे भरे हुए इन स्तनोंको शीघ्र पी लो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा वीर दृष्टो नष्टश्च धनं स्वप्न इवासि मे।
अहो ह्यनित्यं मानुष्यं जलबुद्बुदचञ्चलम् ॥ १७ ॥
मूलम्
हा वीर दृष्टो नष्टश्च धनं स्वप्न इवासि मे।
अहो ह्यनित्यं मानुष्यं जलबुद्बुदचञ्चलम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हा वीर! तुम सपनेमें मिले हुए धनकी भाँति मुझे दिखायी दिये और नष्ट हो गये। अहो! यह मनुष्यजीवन पानीके बुलबुलेके समान चंचल एवं अनित्य है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां ते तरुणीं भार्यां तवाधिभिरभिप्लुताम्।
कथं संधारयिष्यामि विवत्सामिव धेनुकाम् ॥ १८ ॥
मूलम्
इमां ते तरुणीं भार्यां तवाधिभिरभिप्लुताम्।
कथं संधारयिष्यामि विवत्सामिव धेनुकाम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम्हारी यह तरुणी पत्नी तुम्हारे विरहशोकमें डूबी हुई है। जिसका बछड़ा खो गया हो, उस गायकी भाँति व्याकुल है। मैं इसे कैसे धीरज बँधाऊँगी?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(उत्तरामुत्तमां जात्या सुशीलां प्रियभाषिणीम्।
शनकैः परिरभ्यैनां स्नुषां मम यशस्विनीम्॥
सुकुमारीं विशालाक्षीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।
बालपल्लवतन्वङ्गीं मत्तमात्तङ्गगामिनीम् ॥
बिम्बाधरोष्ठीमबलामभिमन्यो प्रहर्षय ।)
मूलम्
(उत्तरामुत्तमां जात्या सुशीलां प्रियभाषिणीम्।
शनकैः परिरभ्यैनां स्नुषां मम यशस्विनीम्॥
सुकुमारीं विशालाक्षीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।
बालपल्लवतन्वङ्गीं मत्तमात्तङ्गगामिनीम् ॥
बिम्बाधरोष्ठीमबलामभिमन्यो प्रहर्षय ।)
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह उत्तरा जातिसे उत्तम, सुशीला, प्रियभाषिणी, यशस्विनी तथा मेरी प्यारी बहू है। यह सुकुमारी है। इसके नेत्र बड़े-बड़े और मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति परम मनोहर है। इसके अंग नूतन पल्लवोंके समान कृश हैं। यह मतवाले हाथीके समान मन्दगतिसे चलनेवाली है। इसके ओठ बिम्बफलके समान लाल हैं। बेटा अभिमन्यु! तुम मेरी इस बहूको धीरे-धीरे हृदयसे लगाकर आनन्दित करो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो ह्यकाले प्रस्थानं कृतवानसि पुत्रक।
विहाय फलकाले मां सुगृद्धां तव दर्शने ॥ १९ ॥
मूलम्
अहो ह्यकाले प्रस्थानं कृतवानसि पुत्रक।
विहाय फलकाले मां सुगृद्धां तव दर्शने ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो वत्स! जब पुत्रके होनेका फल मिलनेका समय आया है, तब तुम मुझे अपने दर्शनोंके लिये भी तरसती हुई छोड़कर असमयमें ही चल बसे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं गतिः कृतान्तस्य प्राज्ञैरपि सुदुर्विदा।
यत्र त्वं केशवे नाथे संग्रामेऽनाथवद्धतः ॥ २० ॥
मूलम्
नूनं गतिः कृतान्तस्य प्राज्ञैरपि सुदुर्विदा।
यत्र त्वं केशवे नाथे संग्रामेऽनाथवद्धतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही कालकी गति बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी अत्यन्त दुर्बोध है, जिसके अधीन होकर तुम श्रीकृष्ण-जैसे संरक्षकके रहते हुए संग्रामभूमिमें अनाथकी भाँति मारे गये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्वनां दानशीलानां ब्राह्मणानां कृतात्मनाम्।
चरितब्रह्मचर्याणां पुण्यतीर्थावगाहिनाम् ॥ २१ ॥
कृतज्ञानां वदान्यानां गुरुशुश्रूषिणामपि ।
सहस्रदक्षिणानां च या गतिस्तामवाप्नुहि ॥ २२ ॥
मूलम्
यज्वनां दानशीलानां ब्राह्मणानां कृतात्मनाम्।
चरितब्रह्मचर्याणां पुण्यतीर्थावगाहिनाम् ॥ २१ ॥
कृतज्ञानां वदान्यानां गुरुशुश्रूषिणामपि ।
सहस्रदक्षिणानां च या गतिस्तामवाप्नुहि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! यज्ञकर्ता, दानी, जितेन्द्रिय, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण, ब्रह्मचारी, पुण्यतीर्थोंमें नहानेवाले, कृतज्ञ, उदार, गुरुसेवा-परायण और सहस्रोंकी संख्यामें दक्षिणा देनेवाले धर्मात्मा पुरुषोंको जो गति प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी मिले॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या गतिर्युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम् ।
हत्वारीन् निहतानां च संग्रामे तां गतिं व्रज ॥ २३ ॥
मूलम्
या गतिर्युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम् ।
हत्वारीन् निहतानां च संग्रामे तां गतिं व्रज ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संग्राममें युद्धतत्पर हो कभी पीछे पैर न हटानेवाले और शत्रुओंको मारकर मरनेवाले शूरवीरोंको जो गति प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी मिले॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोसहस्रप्रदातॄणां क्रतुदानां च या गतिः।
नैवेशिकं चाभिमतं ददतां या गतिः शुभा ॥ २४ ॥
मूलम्
गोसहस्रप्रदातॄणां क्रतुदानां च या गतिः।
नैवेशिकं चाभिमतं ददतां या गतिः शुभा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सहस्र गोदान करनेवाले, यज्ञके लिये दान देनेवाले तथा मनके अनुरूप सब सामग्रियोंसहित निवासस्थान प्रदान करनेवाले पुरुषोंको जो शुभ गति प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी मिले॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेभ्यः शरण्येभ्यो निधिं निदधतां च या।
या चापि न्यस्तदण्डानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २५ ॥
मूलम्
ब्राह्मणेभ्यः शरण्येभ्यो निधिं निदधतां च या।
या चापि न्यस्तदण्डानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो शरणागतवत्सल ब्राह्मणोंके लिये निधि स्थापित करते हैं तथा किसी भी प्राणीको दण्ड नहीं देते, उन्हें जिस गतिकी प्राप्ति होती है, बेटा! वही गति तुम्हें भी प्राप्त हो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्येण यां यान्ति मुनयः संशितव्रताः।
एकपत्न्यश्च यां यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २६ ॥
मूलम्
ब्रह्मचर्येण यां यान्ति मुनयः संशितव्रताः।
एकपत्न्यश्च यां यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनि ब्रह्मचर्यके द्वारा जिस गतिको पाते हैं और पतिव्रता स्त्रियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, बेटा! वही गति तुम्हें भी सुलभ हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञां सुचरितैर्या च गतिर्भवति शाश्वती।
चतुराश्रमिणां पुण्यैः पावितानां सुरक्षितैः ॥ २७ ॥
दीनानुकम्पिनां या च सततं संविभागिनाम्।
पैशुन्याच्च निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २८ ॥
मूलम्
राज्ञां सुचरितैर्या च गतिर्भवति शाश्वती।
चतुराश्रमिणां पुण्यैः पावितानां सुरक्षितैः ॥ २७ ॥
दीनानुकम्पिनां या च सततं संविभागिनाम्।
पैशुन्याच्च निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र! सदाचारके पालनसे राजाओंको तथा सुरक्षित पुण्यके प्रभावसे पवित्र हुए चारों आश्रमोंके लोगोंको जो सनातन गति प्राप्त होती है; दीनोंपर दया करनेवाले, उत्तम वस्तुओंको घरमें बाँटकर उपयोगमें लेनेवाले तथा चुगलीसे दूर रहनेवाले लोगोंको जो गति प्राप्त होती है, वही गति तुम्हें भी मिले॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतिनां धर्मशीलानां गुरुशुश्रूषिणामपि ।
अमोघातिथिनां या च तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २९ ॥
मूलम्
व्रतिनां धर्मशीलानां गुरुशुश्रूषिणामपि ।
अमोघातिथिनां या च तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! व्रतपरायण, धर्मशील, गुरुसेवक एवं अतिथिको निराश न लौटानेवाले लोगोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह तुम्हें भी प्राप्त हो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृच्छ्रेषु या धारयतामात्मानं व्यसनेषु च।
गतिः शोकाग्निदग्धानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ ३० ॥
मूलम्
कृच्छ्रेषु या धारयतामात्मानं व्यसनेषु च।
गतिः शोकाग्निदग्धानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! जो लोग भारी-से-भारी कठिनाइयोंमें और संकटोंमें पड़नेपर तथा शोकाग्निसे दग्ध होनेपर भी धैर्य धारण करके अपने-आपको स्थिर रखते हैं, उन्हें मिलनेवाली गतिको तुम भी प्राप्त करो॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापित्रोश्च शुश्रूषां कल्पयन्तीह ये सदा।
स्वदारनिरतानां च या गतिस्तामवाप्नुहि ॥ ३१ ॥
मूलम्
मातापित्रोश्च शुश्रूषां कल्पयन्तीह ये सदा।
स्वदारनिरतानां च या गतिस्तामवाप्नुहि ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा इस जगत्में माता-पिताकी सेवा करते हैं और अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखते हैं, उनकी जैसी गति होती है, वही तुम्हें भी प्राप्त हो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतुकाले स्वकां भार्यां गच्छतां या मनीषिणाम्।
परस्त्रीभ्यो निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ ३२ ॥
मूलम्
ऋतुकाले स्वकां भार्यां गच्छतां या मनीषिणाम्।
परस्त्रीभ्यो निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र! ऋतुकालमें अपनी स्त्रीसे सहवास करते हुए परायी स्त्रियोंसे सदा दूर रहनेवाले मनीषी पुरुषोंको जो गति प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी मिले॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम्ना ये सर्वभूतानि पश्यन्ति गतमत्सराः।
नारुंतुदानां क्षमिणां या गतिस्तामवाप्नुहि ॥ ३३ ॥
मूलम्
साम्ना ये सर्वभूतानि पश्यन्ति गतमत्सराः।
नारुंतुदानां क्षमिणां या गतिस्तामवाप्नुहि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो ईर्ष्या-द्वेषसे दूर रहकर समस्त प्राणियोंको समभावसे देखते हैं तथा जो किसीके मर्मस्थानको वाणीद्वारा चोट नहीं पहुँचाते एवं सबके प्रति क्षमाभाव रखते हैं, उनकी जो गति होती है, उसीको तुम भी प्राप्त करो॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुमांसनिवृत्तानां मदाद् दम्भात् तथानृतात्।
परोपतापत्यक्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ ३४ ॥
मूलम्
मधुमांसनिवृत्तानां मदाद् दम्भात् तथानृतात्।
परोपतापत्यक्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र! जो मद्य और मांसका सेवन नहीं करते, मद, दम्भ और असत्यसे अलग रहते और दूसरोंको संताप नहीं देते हैं, उन्हें मिलनेवाली सद्गति तुम्हें भी प्राप्त हो॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रीमन्तः सर्वशास्त्रज्ञा ज्ञानतृप्ता जितेन्द्रियाः।
यां गतिं साधवो यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक॥३५॥
मूलम्
ह्रीमन्तः सर्वशास्त्रज्ञा ज्ञानतृप्ता जितेन्द्रियाः।
यां गतिं साधवो यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता, लज्जाशील, ज्ञानसे परितृप्त, जितेन्द्रिय श्रेष्ठपुरुष जिस गतिको पाते हैं, उसीको तुम भी प्राप्त करो’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विलपतीं दीनां सुभद्रां शोककर्शिताम्।
अन्वपद्यत पाञ्चाली वैराटीसहितां तदा ॥ ३६ ॥
मूलम्
एवं विलपतीं दीनां सुभद्रां शोककर्शिताम्।
अन्वपद्यत पाञ्चाली वैराटीसहितां तदा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उत्तरासहित विलाप करती हुई दीन-दुःखी एवं शोकसे दुर्बल सुभद्राके पास उस समय द्रौपदी भी आ पहुँची॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः प्रकामं रुदित्वा च विलप्य च सुदुःखिताः।
उन्मत्तवत् तदा राजन् विसंज्ञान्यपतन् क्षितौ ॥ ३७ ॥
मूलम्
ताः प्रकामं रुदित्वा च विलप्य च सुदुःखिताः।
उन्मत्तवत् तदा राजन् विसंज्ञान्यपतन् क्षितौ ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे सब-की-सब अत्यन्त दुःखी हो इच्छानुसार रोती और विलाप करती हुई पगली-सी हो गयीं और मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोपचारस्तु कृष्णश्च दुःखितां भृशदुःखितः।
सिक्त्वाम्भसा समाश्वास्य तत्तदुक्त्वा हितं वचः ॥ ३८ ॥
विसंज्ञकल्पां रुदतीं मर्मविद्धां प्रवेपतीम्।
भगिनीं पुण्डरीकाक्ष इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
सोपचारस्तु कृष्णश्च दुःखितां भृशदुःखितः।
सिक्त्वाम्भसा समाश्वास्य तत्तदुक्त्वा हितं वचः ॥ ३८ ॥
विसंज्ञकल्पां रुदतीं मर्मविद्धां प्रवेपतीम्।
भगिनीं पुण्डरीकाक्ष इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त दुःखी हो उन सबको होशमें लानेके लिये उपचार करने लगे। उन्होंने अपनी दुःखिनी बहिन सुभद्रापर जल छिड़ककर नाना प्रकारके हितकर वचन कहते हुए उसे आश्वासन दिया। पुत्र-शोकसे मर्माहत हो वह रोती हुई काँप रही थी और अचेत-सी हो गयी थी। उस अवस्थामें भगवान्ने उससे कहा—॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभद्रे मा शुचः पुत्रं पाञ्चाल्याश्वासयोत्तराम्।
गतोऽभिमन्युः प्रथितां गतिं क्षत्रियपुङ्गवः ॥ ४० ॥
मूलम्
सुभद्रे मा शुचः पुत्रं पाञ्चाल्याश्वासयोत्तराम्।
गतोऽभिमन्युः प्रथितां गतिं क्षत्रियपुङ्गवः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुभद्रे! तुम पुत्रके लिये शोक न करो। द्रुपदकुमारी! तुम उत्तराको धीरज बँधाओ। वह क्षत्रियशिरोमणि सर्वश्रेष्ठ गतिको प्राप्त हुआ है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चान्येऽपि कुले सन्ति पुरुषा नो वरानने।
सर्वे ते तां गतिं यान्तु ह्यभिमन्योर्यशस्विनः ॥ ४१ ॥
मूलम्
ये चान्येऽपि कुले सन्ति पुरुषा नो वरानने।
सर्वे ते तां गतिं यान्तु ह्यभिमन्योर्यशस्विनः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमुखि! हमारी इच्छा तो यह है कि हमारे कुलमें और भी जितने पुरुष हैं, वे सब यशस्वी अभिमन्युकी ही गति प्राप्त करें॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्याम तद् वयं कर्म क्रियासु सुहृदश्च नः।
कृतवान् यादृगद्यैकस्तव पुत्रो महारथः ॥ ४२ ॥
मूलम्
कुर्याम तद् वयं कर्म क्रियासु सुहृदश्च नः।
कृतवान् यादृगद्यैकस्तव पुत्रो महारथः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे महारथी पुत्रने अकेले ही आज जैसा पराक्रम किया है, उसे हम और हमारे सुहृद् भी कार्यरूपमें परिणत करें’॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाश्वास्य भगिनीं द्रौपदीमपि चोत्तराम्।
पार्थस्यैव महाबाहुः पार्श्वमागादरिंदमः ॥ ४३ ॥
मूलम्
एवमाश्वास्य भगिनीं द्रौपदीमपि चोत्तराम्।
पार्थस्यैव महाबाहुः पार्श्वमागादरिंदमः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपनी बहिन सुभद्रा, उत्तरा तथा द्रौपदीको आश्वासन देकर शत्रुदमन महाबाहु श्रीकृष्ण पुनः अर्जुनके ही पास चले आये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभ्यनुज्ञाय नृपान् कृष्णो बन्धूंस्तथार्जुनम्।
विवेशान्तःपुरे राजंस्ते च जग्मुर्यथालयम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
ततोऽभ्यनुज्ञाय नृपान् कृष्णो बन्धूंस्तथार्जुनम्।
विवेशान्तःपुरे राजंस्ते च जग्मुर्यथालयम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर श्रीकृष्ण राजाओं, बन्धुजनों तथा अर्जुनसे अनुमति ले अन्तःपुरमें गये और वे राजालोग भी अपने-अपने शिविरमें चले गये॥४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि सुभद्राप्रविलापे अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें सुभद्रा-विलापविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४६ श्लोक हैं।)