०७५ श्रीकृष्णवाक्ये

भागसूचना

पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका अर्जुनको कौरवोंके जयद्रथकी रक्षाविषयक उद्योगका समाचार बताना

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिज्ञाते तु पार्थेन सिन्धुराजवधे तदा।
वासुदेवो महाबाहुर्धनंजयमभाषत ॥ १ ॥

मूलम्

प्रतिज्ञाते तु पार्थेन सिन्धुराजवधे तदा।
वासुदेवो महाबाहुर्धनंजयमभाषत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय कहते हैं— राजन्! जब अर्जुनने सिंधुराज जयद्रथके वधकी प्रतिज्ञा कर ली, उस समय महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄणां मतमज्ञाय त्वया वाचा प्रतिश्रुतम्।
सैन्धवं चास्मि हन्तेति तत्साहसमिदं कृतम् ॥ २ ॥

मूलम्

भ्रातॄणां मतमज्ञाय त्वया वाचा प्रतिश्रुतम्।
सैन्धवं चास्मि हन्तेति तत्साहसमिदं कृतम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धनंजय! तुमने अपने भाइयोंका मत जाने बिना ही जो वाणीद्वारा यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं सिंधुराज जयद्रथको मार डालूँगा, यह तुमने दुःसाहसपूर्ण कार्य किया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्मन्त्र्य मया सार्धमतिभारोऽयमुद्यतः ।
कथं तु सर्वलोकस्य नावहास्या भवेमहि ॥ ३ ॥

मूलम्

असम्मन्त्र्य मया सार्धमतिभारोऽयमुद्यतः ।
कथं तु सर्वलोकस्य नावहास्या भवेमहि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे साथ सलाह किये बिना ही तुमने यह बड़ा भारी भार उठा लिया। ऐसी दशामें हम सम्पूर्ण लोकोंके उपहासपात्र कैसे नहीं बनेंगे?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्तराष्ट्रस्य शिबिरे मया प्रणिहिताश्चराः।
त इमे शीघ्रमागम्य प्रवृत्तिं वेदयन्ति नः ॥ ४ ॥

मूलम्

धार्तराष्ट्रस्य शिबिरे मया प्रणिहिताश्चराः।
त इमे शीघ्रमागम्य प्रवृत्तिं वेदयन्ति नः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने दुर्योधनके शिविरमें अपने गुप्तचर भेजे थे। वे शीघ्र ही वहाँसे लौटकर अभी-अभी वहाँका समाचार मुझे बता गये हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया वै सम्प्रतिज्ञाते सिन्धुराजवधे प्रभो।
सिंहनादः सवादित्रः सुमहानिह तैः श्रुतः ॥ ५ ॥

मूलम्

त्वया वै सम्प्रतिज्ञाते सिन्धुराजवधे प्रभो।
सिंहनादः सवादित्रः सुमहानिह तैः श्रुतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शक्तिशाली अर्जुन! जब तुमने सिंधुराजके वधकी प्रतिज्ञा की थी, उस समय यहाँ रणवाद्योंके साथ-साथ महान् सिंहनाद किया गया था, जिसे कौरवोंने सुना था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन शब्देन वित्रस्ता धार्तराष्ट्राः ससैन्धवाः।
नाकस्मात् सिंहनादोऽयमिति मत्वा व्यवस्थिताः ॥ ६ ॥

मूलम्

तेन शब्देन वित्रस्ता धार्तराष्ट्राः ससैन्धवाः।
नाकस्मात् सिंहनादोऽयमिति मत्वा व्यवस्थिताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस शब्दसे जयद्रथसहित सभी धृतराष्ट्रपुत्र संत्रस्त हो उठे। वे यह सोचकर कि यह सिंहनाद अकारण नहीं हुआ है, सावधान हो गये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमहान् शब्दसम्पातः कौरवाणां महाभुज।
आसीन्नागाश्वपत्तीनां रथघोषश्च भैरवः ॥ ७ ॥

मूलम्

सुमहान् शब्दसम्पातः कौरवाणां महाभुज।
आसीन्नागाश्वपत्तीनां रथघोषश्च भैरवः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! फिर तो कौरवोंके दलमें भी बड़े जोरका कोलाहल मच गया। हाथी, घोड़े, पैदल तथा रथ-सेनाओंका भयंकर घोष सब ओर गूँजने लगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्योर्वधं श्रुत्वा ध्रुवमार्तो धनंजयः।
रात्रौ निर्यास्यति क्रोधादिति मत्वा व्यवस्थिताः ॥ ८ ॥

मूलम्

अभिमन्योर्वधं श्रुत्वा ध्रुवमार्तो धनंजयः।
रात्रौ निर्यास्यति क्रोधादिति मत्वा व्यवस्थिताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे यह समझकर युद्धके लिये उद्यत हो गये कि अभिमन्युके वधका वृत्तान्त सुनकर अर्जुनको अवश्य ही महान् कष्ट हुआ होगा; अतः वे क्रोध करके रातमें ही युद्धके लिये निकल पड़ेंगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैर्यतद्भिरियं सत्या श्रुता सत्यवतस्तव।
प्रतिज्ञा सिन्धुराजस्य वधे राजीवलोचन ॥ ९ ॥

मूलम्

तैर्यतद्भिरियं सत्या श्रुता सत्यवतस्तव।
प्रतिज्ञा सिन्धुराजस्य वधे राजीवलोचन ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कमलनयन! युद्धके लिये तैयार होते-होते उन कौरवोंने सदा सत्य बोलनेवाले तुम्हारी जयद्रथ-वधविषयक वह सच्ची प्रतिज्ञा सुनी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विमनसः सर्वे त्रस्ताः क्षुद्रमृगा इव।
आसन् सुयोधनामात्याः स च राजा जयद्रथः ॥ १० ॥

मूलम्

ततो विमनसः सर्वे त्रस्ताः क्षुद्रमृगा इव।
आसन् सुयोधनामात्याः स च राजा जयद्रथः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर तो दुर्योधनके मन्त्री और स्वयं राजा जयद्रथ—से सब-के-सब (सिंहसे डरे हुए) क्षुद्र मृगोंके समान भयभीत और उदास हो गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोत्थाय सहामात्यैर्दीनः शिबिरमात्मनः ।
आयात् सौवीरसिन्धूनामीश्वरो भृशदुःखितः ॥ ११ ॥

मूलम्

अथोत्थाय सहामात्यैर्दीनः शिबिरमात्मनः ।
आयात् सौवीरसिन्धूनामीश्वरो भृशदुःखितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तदनन्तर सिंधुसौवीरदेशका स्वामी जयद्रथ अत्यन्त दुःखी और दीन हो मन्त्रियोंसहित उठकर अपने शिविरमें आया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मन्त्रकाले सम्मन्त्र्य सर्वां नैःश्रेयसीं क्रियाम्।
सुयोधनमिदं वाक्यमब्रवीद् राजसंसदि ॥ १२ ॥

मूलम्

स मन्त्रकाले सम्मन्त्र्य सर्वां नैःश्रेयसीं क्रियाम्।
सुयोधनमिदं वाक्यमब्रवीद् राजसंसदि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसने मन्त्रणाके समय अपने लिये श्रेयस्कर सिद्ध होनेवाले समस्त कार्योंके सम्बन्धमें मन्त्रियोंसे परामर्श करके राजसभामें आकर दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मामसौ पुत्रहन्तेति श्वोऽभियाता धनंजयः।
प्रतिज्ञातो हि सेनाया मध्ये तेन वधो मम ॥ १३ ॥

मूलम्

मामसौ पुत्रहन्तेति श्वोऽभियाता धनंजयः।
प्रतिज्ञातो हि सेनाया मध्ये तेन वधो मम ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मुझे अपने पुत्रका घातक समझकर अर्जुन कल सबेरे मुझपर आक्रमण करनेवाला है; क्योंकि उसने अपनी सेनाके बीचमें मेरे वधकी प्रतिज्ञा की है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां न देवा न गन्धर्वा नासुरोरगराक्षसाः।
उत्सहन्तेऽन्यथा कर्तुं प्रतिज्ञां सव्यसाचिनः ॥ १४ ॥

मूलम्

तां न देवा न गन्धर्वा नासुरोरगराक्षसाः।
उत्सहन्तेऽन्यथा कर्तुं प्रतिज्ञां सव्यसाचिनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सव्यसाची अर्जुनकी उस प्रतिज्ञाको देवता, गन्धर्व, असुर, नाग और राक्षस भी अन्यथा नहीं कर सकते॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते मां रक्षत संग्रामे मा वो मूर्ध्नि धनंजयः।
पदं कृत्वाऽऽप्नुयाल्लक्ष्यं तस्मादत्र विधीयताम् ॥ १५ ॥

मूलम्

ते मां रक्षत संग्रामे मा वो मूर्ध्नि धनंजयः।
पदं कृत्वाऽऽप्नुयाल्लक्ष्यं तस्मादत्र विधीयताम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः आपलोग संग्राममें मेरी रक्षा करें। कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन आपलोगोंके सिरपर पैर रखकर अपने लक्ष्यतक पहुँच जाय; अतः इसके लिये आप आवश्यक व्यवस्था करें॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ रक्षा न मे संख्ये क्रियते कुरुनन्दन।
अनुजानीहि मां राजन् गमिष्यामि गृहान् प्रति ॥ १६ ॥

मूलम्

अथ रक्षा न मे संख्ये क्रियते कुरुनन्दन।
अनुजानीहि मां राजन् गमिष्यामि गृहान् प्रति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! यदि आप युद्धमें मेरी रक्षा न कर सकें तो मुझे आज्ञा दें; राजन्! मैं अपने घर चला जाऊँगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्त्ववाक्‌शीर्षो विमनाः स सुयोधनः।
श्रुत्वा तं समयं तस्य ध्यानमेवान्वपद्यत ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्त्ववाक्‌शीर्षो विमनाः स सुयोधनः।
श्रुत्वा तं समयं तस्य ध्यानमेवान्वपद्यत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जयद्रथके ऐसा कहनेपर दुर्योधन अपना सिर नीचे किये मन-ही-मन बहुत दुःखी हो गया और तुम्हारी उस प्रतिज्ञाको सुनकर उसे बड़ी भारी चिन्ता हो गयी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमार्तमभिसंप्रेक्ष्य राजा किल स सैन्धवः।
मृदु चात्महितं चैव साक्षेपमिदमुक्तवान् ॥ १८ ॥

मूलम्

तमार्तमभिसंप्रेक्ष्य राजा किल स सैन्धवः।
मृदु चात्महितं चैव साक्षेपमिदमुक्तवान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधनको उद्विग्नचित्त देखकर सिन्धुराज जयद्रथने व्यंग्य करते हुए कोमल वाणीमें अपने हितकी बात इस प्रकार कही—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेह पश्यामि भवतां तथावीर्यं धनुर्धरम्।
योऽर्जुनस्यास्त्रमस्त्रेण प्रतिहन्यान्महाहवे ॥ १९ ॥

मूलम्

नेह पश्यामि भवतां तथावीर्यं धनुर्धरम्।
योऽर्जुनस्यास्त्रमस्त्रेण प्रतिहन्यान्महाहवे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आपकी सेनामें किसी भी ऐसे पराक्रमी धनुर्धरको नहीं देखता, जो उस महायुद्धमें अपने अस्त्रद्वारा अर्जुनके अस्त्रका निवारण कर सके॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवसहायस्य गाण्डीवं धुन्वतो धनुः।
कोऽर्जुनस्याग्रतस्तिष्ठेत् साक्षादपि शतक्रतुः ॥ २० ॥

मूलम्

वासुदेवसहायस्य गाण्डीवं धुन्वतो धनुः।
कोऽर्जुनस्याग्रतस्तिष्ठेत् साक्षादपि शतक्रतुः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्णके साथ आकर गाण्डीव धनुषका संचालन करते हुए अर्जुनके सामने कौन खड़ा हो सकता है? साक्षात् इन्द्र भी तो उसका सामना नहीं कर सकते॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महेश्वरोऽपि पार्थेन श्रूयते योधितः पुरा।
पदातिना महावीर्यो गिरौ हिमवति प्रभुः ॥ २१ ॥

मूलम्

महेश्वरोऽपि पार्थेन श्रूयते योधितः पुरा।
पदातिना महावीर्यो गिरौ हिमवति प्रभुः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने सुना है कि पूर्वकालमें हिमालयपर्वतपर पैदल अर्जुनने महापराक्रमी भगवान् महेश्वरके साथ भी युद्ध किया था॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानवानां सहस्राणि हिरण्यपुरवासिनाम् ।
जघानैकरथेनैव देवराजप्रचोदितः ॥ २२ ॥

मूलम्

दानवानां सहस्राणि हिरण्यपुरवासिनाम् ।
जघानैकरथेनैव देवराजप्रचोदितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवराज इन्द्रकी आज्ञा पाकर उसने एकमात्र रथकी सहायतासे हिरण्यपुरवासी सहस्रों दानवोंका संहार कर डाला था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समायुक्तो हि कौन्तेयो वासुदेवेन धीमता।
सामरानपि लोकांस्त्रीन् हन्यादिति मतिर्मम ॥ २३ ॥

मूलम्

समायुक्तो हि कौन्तेयो वासुदेवेन धीमता।
सामरानपि लोकांस्त्रीन् हन्यादिति मतिर्मम ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा तो ऐसा विश्वास है कि परम बुद्धिमान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके साथ रहकर कुन्तीकुमार अर्जुन देवताओंसहित तीनों लोकोंको नष्ट कर सकता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमिच्छाम्यनुज्ञातं रक्षितुं वा महात्मना।
द्रोणेन सहपुत्रेण वीरेण यदि मन्यसे ॥ २४ ॥

मूलम्

सोऽहमिच्छाम्यनुज्ञातं रक्षितुं वा महात्मना।
द्रोणेन सहपुत्रेण वीरेण यदि मन्यसे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये मैं यहाँसे चले जानेकी अनुमति चाहता हूँ। अथवा यदि आप ठीक समझें तो पुत्रसहित वीर महामना द्रोणाचार्यके द्वारा मैं अपनी रक्षाका आश्वासन चाहता हूँ’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राज्ञा स्वयमाचार्यो भृशमत्रार्थितोऽर्जुन।
संविधानं च विहितं रथाश्च किल सज्जिताः ॥ २५ ॥

मूलम्

स राज्ञा स्वयमाचार्यो भृशमत्रार्थितोऽर्जुन।
संविधानं च विहितं रथाश्च किल सज्जिताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्जुन! तब राजा दुर्योधनने स्वयं ही आचार्य द्रोणसे जयद्रथकी रक्षाके लिये बड़ी प्रार्थना की है। अतः उसकी रक्षाका पूरा प्रबन्ध कर लिया गया है तथा रथ भी सजा दिये गये हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णो भूरिश्रवा द्रौणिर्वृषसेनश्च दुर्जयः।
कृपश्च मद्रराजश्च षडेतेऽस्य पुरोगमाः ॥ २६ ॥

मूलम्

कर्णो भूरिश्रवा द्रौणिर्वृषसेनश्च दुर्जयः।
कृपश्च मद्रराजश्च षडेतेऽस्य पुरोगमाः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कलके युद्धमें कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा, दुर्जय वीर वृषसेन, कृपाचार्य और मद्रराज शल्य—ये छः महारथी उसके आगे रहेंगे’॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकटः पद्मकश्चार्धो व्यूहो द्रोणेन निर्मितः।
पद्मकर्णिकमध्यस्थः सूचीपार्श्वे जयद्रथः ॥ २७ ॥
स्थास्यते रक्षितो वीरैः सिंधुराट् स सुदुर्मदः।

मूलम्

शकटः पद्मकश्चार्धो व्यूहो द्रोणेन निर्मितः।
पद्मकर्णिकमध्यस्थः सूचीपार्श्वे जयद्रथः ॥ २७ ॥
स्थास्यते रक्षितो वीरैः सिंधुराट् स सुदुर्मदः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्रोणाचार्यने ऐसा व्यूह बनाया है, जिसका अगला आधा भाग शकटके आकारका है और पिछला कमलके समान। कमलव्यूहके मध्यकी कर्णिकाके बीच सूचीव्यूहके पार्श्व भागमें युद्धदुर्मद सिन्धुराज जयद्रथ खड़ा होगा और अन्यान्य वीर उसकी रक्षा करते रहेंगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुष्यस्त्रे च वीर्ये च प्राणे चैव तथौरसे ॥ २८ ॥
अविषह्यतमा ह्येते निश्चिताः पार्थ षड् रथाः।
एतानजित्वा षड् रथान् नैव प्राप्यो जयद्रथः ॥ २९ ॥

मूलम्

धनुष्यस्त्रे च वीर्ये च प्राणे चैव तथौरसे ॥ २८ ॥
अविषह्यतमा ह्येते निश्चिताः पार्थ षड् रथाः।
एतानजित्वा षड् रथान् नैव प्राप्यो जयद्रथः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पार्थ! ये पूर्व निश्चित छः महारथी धनुष, बाण, पराक्रम, प्राणशक्ति तथा मनोबलमें अत्यन्त असह्य माने गये हैं। इन छः महारथियोंको जीते बिना जयद्रथको प्राप्त करना असम्भव है॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामेकैकशो वीर्यं षण्णां त्वमनुचिन्तय।
सहिता हि नरव्याघ्र न शक्या जेतुमञ्जसा ॥ ३० ॥

मूलम्

तेषामेकैकशो वीर्यं षण्णां त्वमनुचिन्तय।
सहिता हि नरव्याघ्र न शक्या जेतुमञ्जसा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! पहले तुम इन छः महारथियोंमें एक-एकके बल-पराक्रमका विचार करो। फिर जब ये छः एक साथ होंगे, उस समय इन्हें सुगमतासे नहीं जीता जा सकता॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयस्तु मन्त्रयिष्यामि नीतिमात्महिताय वै।
मन्त्रज्ञैः सचिवैः सार्धं सुहृद्भिः कार्यसिद्धये ॥ ३१ ॥

मूलम्

भूयस्तु मन्त्रयिष्यामि नीतिमात्महिताय वै।
मन्त्रज्ञैः सचिवैः सार्धं सुहृद्भिः कार्यसिद्धये ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब मैं पुनः अपने हितका ध्यान रखते हुए कार्यकी सिद्धिके लिये मन्त्रज्ञ मन्त्रियों और हितैषी सुहृदोंके साथ सलाह करूँगा’॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि श्रीकृष्णवाक्ये पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७५॥