०७३ अर्जुनप्रतिज्ञायाम्

भागसूचना

त्रिसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरके मुखसे अभिमन्युवधका वृत्तान्त सुनकर अर्जुनकी जयद्रथको मारनेके लिये शपथपूर्ण प्रतिज्ञा

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि याते महाबाहो संशप्तकबलं प्रति।
प्रयत्नमकरोत् तीव्रमाचार्यो ग्रहणे मम ॥ १ ॥

मूलम्

त्वयि याते महाबाहो संशप्तकबलं प्रति।
प्रयत्नमकरोत् तीव्रमाचार्यो ग्रहणे मम ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— महाबाहो! जब तुम संशप्तक सेनाके साथ युद्धके लिये चले गये, उस समय आचार्य द्रोणने मुझे पकड़नेके लिये घोर प्रयत्न किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यूढानीका वयं द्रोणं वारयामः स्म सर्वशः।
प्रतिव्यूह्य रथानीकं यतमानं तथा रणे ॥ २ ॥

मूलम्

व्यूढानीका वयं द्रोणं वारयामः स्म सर्वशः।
प्रतिव्यूह्य रथानीकं यतमानं तथा रणे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे रथोंकी सेनाका व्यूह बनाकर बारंबार उद्योग करते थे और हमलोग रणक्षेत्रमें अपनी सेनाको व्यूहाकारमें संघटित करके सब प्रकारसे द्रोणाचार्यको आगे बढ़नेसे रोक देते थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वार्यमाणो रथिभिर्मयि चापि सुरक्षिते।
अस्मानभिजगामाशु पीडयन् निशितैः शरैः ॥ ३ ॥

मूलम्

स वार्यमाणो रथिभिर्मयि चापि सुरक्षिते।
अस्मानभिजगामाशु पीडयन् निशितैः शरैः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रथियोंके द्वारा आचार्य रोक दिये गये और मैं सर्वथा सुरक्षित रह गया, तब उन्होंने अपने तीखे बाणोंद्वारा हमें पीड़ा देते हुए हमलोगोंपर तीव्र वेगसे आक्रमण किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते पीड्‌यमाना द्रोणेन द्रोणानीकं न शक्नुमः।
प्रतिवीक्षितुमप्याजौ भेत्तुं तत् कुत एव तु ॥ ४ ॥

मूलम्

ते पीड्‌यमाना द्रोणेन द्रोणानीकं न शक्नुमः।
प्रतिवीक्षितुमप्याजौ भेत्तुं तत् कुत एव तु ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यसे पीड़ित होनेके कारण हमलोग उनके सैन्यव्यूहकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे; फिर युद्धभूमिमें उसका भेदन तो कर ही कैसे सकते थे?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं त्वप्रतिमं वीर्ये सर्वे सौभद्रमात्मजम्।
उक्तवन्तः स्म तं तात भिन्ध्यनीकमिति प्रभो ॥ ५ ॥

मूलम्

वयं त्वप्रतिमं वीर्ये सर्वे सौभद्रमात्मजम्।
उक्तवन्तः स्म तं तात भिन्ध्यनीकमिति प्रभो ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हम सब लोग अनुपम पराक्रमी अपने पुत्र सुभद्रानन्दन अभिमन्युसे बोले—‘तात! तुम इस व्यूहका भेदन करो; क्योंकि तुम ऐसा करनेमें समर्थ हो’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथा नोदितोऽस्माभिः सदश्व इव वीर्यवान्।
असह्यमपि तं भारं वोढुमेवोपचक्रमे ॥ ६ ॥

मूलम्

स तथा नोदितोऽस्माभिः सदश्व इव वीर्यवान्।
असह्यमपि तं भारं वोढुमेवोपचक्रमे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे इस प्रकार आज्ञा देनेपर उस पराक्रमी वीरने अच्छे घोड़ेकी भाँति उस असह्य भारको भी वहन करनेका ही प्रयत्न किया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तवास्त्रोपदेशेन वीर्येण च समन्वितः।
प्राविशत् तद्बलं बालः सुपर्ण इव सागरम् ॥ ७ ॥

मूलम्

स तवास्त्रोपदेशेन वीर्येण च समन्वितः।
प्राविशत् तद्बलं बालः सुपर्ण इव सागरम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे दिये हुए अस्त्र-विद्याके उपदेश और पराक्रमसे सम्पन्न बालक अभिमन्युने उस सेनामें उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे गरुड़ समुद्रमें घुस जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽनुयाता वयं वीरं सात्वतीपुत्रमाहवे।
प्रवेष्टुकामास्तेनैव येन स प्राविशच्चमूम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तेऽनुयाता वयं वीरं सात्वतीपुत्रमाहवे।
प्रवेष्टुकामास्तेनैव येन स प्राविशच्चमूम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् हमलोग रणक्षेत्रमें वीर सुभद्राकुमार अभिमन्युके पीछे उस व्यूहमें प्रवेश करनेकी इच्छासे चले। हम भी उसी मार्गसे उसमें घुसना चाहते थे, जिसके द्वारा उसने शत्रुसेनामें प्रवेश किया था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सैन्धवको राजा क्षुद्रस्तात जयद्रथः।
वरदानेन रुद्रस्य सर्वान् नः समवारयत् ॥ ९ ॥

मूलम्

ततः सैन्धवको राजा क्षुद्रस्तात जयद्रथः।
वरदानेन रुद्रस्य सर्वान् नः समवारयत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! ठीक इसी समय नीच सिंधुनरेश राजा जयद्रथने सामने आकर भगवान् शंकरके दिये हुए वरदानके प्रभावसे हम सब लोगोंको रोक दिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणः कृपः कर्णो द्रौणिः कौसल्य एव च।
कृतवर्मा च सौभद्रं षड् रथाः पर्यवारयन् ॥ १० ॥

मूलम्

ततो द्रोणः कृपः कर्णो द्रौणिः कौसल्य एव च।
कृतवर्मा च सौभद्रं षड् रथाः पर्यवारयन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बृहद्बल और कृतवर्मा—इन छः महारथियोंने सुभद्राकुमारको चारों ओरसे घेर लिया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवार्य तु तैः सर्वैर्युधि बालो महारथैः।
यतमानः परं शक्त्या बहुभिर्विरथीकृतः ॥ ११ ॥

मूलम्

परिवार्य तु तैः सर्वैर्युधि बालो महारथैः।
यतमानः परं शक्त्या बहुभिर्विरथीकृतः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घिरा होनेपर भी वह बालक पूरी शक्ति लगाकर उन सबको जीतनेका प्रयत्न करता रहा; तथापि वे संख्यामें अधिक थे, अतः उन समस्त महारथियोंने उसे घेरकर रथहीन कर दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दौःशासनिः क्षिप्रं तथा तैर्विरथीकृतम्।
संशयं परमं प्राप्य दिष्टान्तेनाभ्ययोजयत् ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो दौःशासनिः क्षिप्रं तथा तैर्विरथीकृतम्।
संशयं परमं प्राप्य दिष्टान्तेनाभ्ययोजयत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् दुःशासनपुत्रने अभिमन्युके प्रहारसे भारी प्राणसंकटमें पड़कर पूर्वोक्त महारथियोंद्वारा रथहीन किये हुए अभिमन्युको शीघ्र ही (गदाके आघातसे) मार डाला॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु हत्वा सहस्राणि नराश्वरथदन्तिनाम्।
अष्टौ रथसहस्राणि नव दन्तिशतानि च ॥ १३ ॥
राजपुत्रसहस्रे द्वे वीरांश्चालक्षितान् बहून्।
बृहद्बलं च राजानं स्वर्गेणाजौ प्रयोज्य ह ॥ १४ ॥
ततः परमधर्मात्मा दिष्टान्तमुपजग्मिवान् ।

मूलम्

स तु हत्वा सहस्राणि नराश्वरथदन्तिनाम्।
अष्टौ रथसहस्राणि नव दन्तिशतानि च ॥ १३ ॥
राजपुत्रसहस्रे द्वे वीरांश्चालक्षितान् बहून्।
बृहद्बलं च राजानं स्वर्गेणाजौ प्रयोज्य ह ॥ १४ ॥
ततः परमधर्मात्मा दिष्टान्तमुपजग्मिवान् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पहले उसने हजारों हाथी, रथ, घोड़े और मनुष्योंको मार डाला था। आठ हजार रथों और नौ सौ हाथियोंका संहार किया था। दो हजार राजकुमारों तथा और भी बहुत-से अलक्षित वीरोंका वध करके राजा बृहद्बलको भी युद्धस्थलमें स्वर्गलोकका अतिथि बनाया। इसके बाद परम धर्मात्मा अभिमन्यु स्वयं मृत्युको प्राप्त हुआ॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(गतःसुकृतिनां लोकान् ये च स्वर्गजितां शुभाः।
अदीनस्त्रासयञ्छत्रून् नन्दयित्वा च बान्धवान्॥
असकृन्नाम विश्राव्य पितॄणां मातुलस्य च।
वीरो दिष्टान्तमापन्नः शोचयन् बान्धवान् बहून्॥
ततः स्म शोकसंतप्ता भवताद्य समेयुषः।)

मूलम्

(गतःसुकृतिनां लोकान् ये च स्वर्गजितां शुभाः।
अदीनस्त्रासयञ्छत्रून् नन्दयित्वा च बान्धवान्॥
असकृन्नाम विश्राव्य पितॄणां मातुलस्य च।
वीरो दिष्टान्तमापन्नः शोचयन् बान्धवान् बहून्॥
ततः स्म शोकसंतप्ता भवताद्य समेयुषः।)

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुण्यात्माओंके लोकोंमें गया है। अपने पुण्यके बलसे स्वर्गलोकपर विजय पानेवाले धर्मात्मा पुरुषोंको जो शुभ लोक सुलभ होते हैं, वे ही उसे भी प्राप्त हुए हैं। उसने कभी युद्धमें दीनता नहीं दिखायी। वह वीर शत्रुओंको त्रास और बान्धवोंको आनन्द प्रदान करता हुआ अपने पितरों और मामाके नामको बारंबार विख्यात करके अपने बहुसंख्यक बन्धुओंको शोकमें डालकर मृत्युको प्राप्त हुआ है। तभीसे हमलोग शोकसे संतप्त हैं और इस समय तुमसे हमारी भेंट हुई है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदेव निर्वृत्तमस्माकं शोकवर्धनम् ॥ १५ ॥
स चैवं पुरुषव्याघ्रः स्वर्गलोकमवाप्तवान्।

मूलम्

एतावदेव निर्वृत्तमस्माकं शोकवर्धनम् ॥ १५ ॥
स चैवं पुरुषव्याघ्रः स्वर्गलोकमवाप्तवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

यही हमलोगोंके लिये शोक बढ़ानेवाली घटना घटित हुई है। पुरुषसिंह अभिमन्यु इस प्रकार स्वर्गलोकमें गया है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनो वचः श्रुत्वा धर्मराजेन भाषितम् ॥ १६ ॥
हा पुत्र इति निःश्वस्य व्यथितो न्यपतद् भुवि।

मूलम्

ततोऽर्जुनो वचः श्रुत्वा धर्मराजेन भाषितम् ॥ १६ ॥
हा पुत्र इति निःश्वस्य व्यथितो न्यपतद् भुवि।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराज युधिष्ठिरकी कही हुई यह बात सुनकर अर्जुन व्यथासे पीड़ित हो लंबी साँस खींचते हुए ‘हा पुत्र’ कहकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषण्णवदनाः सर्वे परिवार्य धनंजयम् ॥ १७ ॥
नेत्रैरनिमिषैर्दीनाः प्रत्यवैक्षन् परस्परम् ।

मूलम्

विषण्णवदनाः सर्वे परिवार्य धनंजयम् ॥ १७ ॥
नेत्रैरनिमिषैर्दीनाः प्रत्यवैक्षन् परस्परम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सबके मुखपर विषाद छा गया। सब लोग अर्जुनको घेरकर दुःखी हो एकटक नेत्रोंसे एक-दूसरेकी ओर देखने लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां वासविः क्रोधमूर्च्छितः ॥ १८ ॥
कम्पमानो ज्वरेणेव निःश्वसंश्च मुहुर्मुहुः।
पाणिं पाणौ विनिष्पिष्य श्वसमानोऽश्रुनेत्रवान् ॥ १९ ॥
उन्मत्त इव विप्रेक्षन्निदं वचनमब्रवीत्।

मूलम्

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां वासविः क्रोधमूर्च्छितः ॥ १८ ॥
कम्पमानो ज्वरेणेव निःश्वसंश्च मुहुर्मुहुः।
पाणिं पाणौ विनिष्पिष्य श्वसमानोऽश्रुनेत्रवान् ॥ १९ ॥
उन्मत्त इव विप्रेक्षन्निदं वचनमब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर इन्द्रपुत्र अर्जुन होशमें आकर क्रोधसे व्याकुल हो मानो ज्वरसे काँप रहे हों—इस प्रकार बारंबार लंबी साँस खींचते और हाथपर हाथ मलते हुए नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे और उन्मत्तके समान देखते हुए इस तरह बोले—॥१८-१९॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं वः प्रतिजानामि श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम्।
न चेद् वधभयाद् भीतो धार्तराष्ट्रान् प्रहास्यति ॥ २० ॥
न चास्मान्‌ शरणं गच्छेत्‌ कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्।
भवन्तं वा महाराज श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम् ॥ २१ ॥

मूलम्

सत्यं वः प्रतिजानामि श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम्।
न चेद् वधभयाद् भीतो धार्तराष्ट्रान् प्रहास्यति ॥ २० ॥
न चास्मान्‌ शरणं गच्छेत्‌ कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्।
भवन्तं वा महाराज श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— मैं आपलोगोंके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कल जयद्रथको अवश्य मार डालूँगा। महाराज! यदि वह मारे जानेके भयसे डरकर धृतराष्ट्रपुत्रोंको छोड़ नहीं देगा, मेरी, पुरुषोत्तम श्रीकृष्णकी अथवा आपकी शरणमें नहीं आ जायगा तो कल उसे अवश्य मार डालूँगा॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्तराष्ट्रप्रियकरं मयि विस्मृतसौहृदम् ।
पापं बालवधे हेतुं श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम् ॥ २२ ॥

मूलम्

धार्तराष्ट्रप्रियकरं मयि विस्मृतसौहृदम् ।
पापं बालवधे हेतुं श्वोऽस्मि हन्ता जयद्रथम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धृतराष्ट्रके पुत्रोंका प्रिय कर रहा है, जिसने मेरे प्रति अपना सौहार्द भुला दिया है तथा जो बालक अभिमन्युके वधमें कारण बना है, उस पापी जयद्रथको कल अवश्य मार डालूँगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षमाणाश्च तं संख्ये ये मां योत्स्यन्ति केचन।
अपि द्रोणकृपौ राजन् छादयिष्यामि ताञ्छरैः ॥ २३ ॥

मूलम्

रक्षमाणाश्च तं संख्ये ये मां योत्स्यन्ति केचन।
अपि द्रोणकृपौ राजन् छादयिष्यामि ताञ्छरैः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! युद्धमें जयद्रथकी रक्षा करते हुए जो कोई मेरे साथ युद्ध करेंगे, वे द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ही क्यों न हों, उन्हें अपने बाणोंके समूहसे आच्छादित कर दूँगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येतदेवं संग्रामे न कुर्यां पुरुषर्षभाः।
मा स्म पुण्यकृतां लोकान् प्राप्नुयां शूरसम्मतान् ॥ २४ ॥

मूलम्

यद्येतदेवं संग्रामे न कुर्यां पुरुषर्षभाः।
मा स्म पुण्यकृतां लोकान् प्राप्नुयां शूरसम्मतान् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषश्रेष्ठ वीरो! यदि संग्रामभूमिमें मैं ऐसा न कर सकूँ तो पुण्यात्मा पुरुषोंके उन लोकोंको, जो शूरवीरोंको प्रिय हैं, न प्राप्त करूँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये लोका मातृहन्तॄणां ये चापि पितृघातिनाम्।
गुरुदारगतानां ये पिशुनानां च ये सदा ॥ २५ ॥
साधूनसूयतां ये च ये चापि परिवादिनाम्।
ये च निक्षेपहर्तॄणां ये च विश्वासघातिनाम् ॥ २६ ॥
भुक्तपूर्वां स्त्रियं ये च विन्दतामघशंसिनाम्।
ब्रह्मघ्नानां च ये लोका ये च गोघातिनामपि ॥ २७ ॥
पायसं वा यवान्नं वा शाकं कृसरमेव वा।
संयावापूपमांसानि ये च लोका वृथाश्नताम् ॥ २८ ॥
तानन्हायाधिगच्छेयं न चेद्धन्यां जयद्रथम्।

मूलम्

ये लोका मातृहन्तॄणां ये चापि पितृघातिनाम्।
गुरुदारगतानां ये पिशुनानां च ये सदा ॥ २५ ॥
साधूनसूयतां ये च ये चापि परिवादिनाम्।
ये च निक्षेपहर्तॄणां ये च विश्वासघातिनाम् ॥ २६ ॥
भुक्तपूर्वां स्त्रियं ये च विन्दतामघशंसिनाम्।
ब्रह्मघ्नानां च ये लोका ये च गोघातिनामपि ॥ २७ ॥
पायसं वा यवान्नं वा शाकं कृसरमेव वा।
संयावापूपमांसानि ये च लोका वृथाश्नताम् ॥ २८ ॥
तानन्हायाधिगच्छेयं न चेद्धन्यां जयद्रथम्।

अनुवाद (हिन्दी)

माता-पिताकी हत्या करनेवालोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, गुरु-पत्नीगामी और चुगलखोरोंको जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, साधुपुरुषोंकी निन्दा करनेवालों और दूसरोंको कलंक लगानेवालोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, धरोहर हड़पने और विश्वासघात करनेवालोंको जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, दूसरेके उपभोगमें आयी हुई स्त्रीको ग्रहण करनेवाले, पापकी बातें करनेवाले, ब्रह्महत्यारे और गोघातियोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, खीर, यवान्न, साग, खिचड़ी, हलवा, पूआ आदिको बलिवैश्वदेव किये बिना ही खानेवाले मनुष्योंको जो लोक प्राप्त होते हैं, यदि मैं कल जयद्रथका वध न कर डालूँ तो मुझे भी तत्काल उन्हीं लोकोंको जाना पड़े॥२५—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाध्यायिनमत्यर्थं संशितं वा द्विजोत्तमम् ॥ २९ ॥
अवमन्यमानो यान् याति वृद्धान् साधून् गुरूंस्तथा।
स्पृशतो ब्राह्मणं गां च पादेनाग्निं च या भवेत्॥३०॥
याऽप्सु श्लेष्म पुरीषं च मूत्रं वा मुञ्चतां गतिः।
तां गच्छेयं गतिं कष्टां न चेद्धन्यां जयद्रथम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

वेदाध्यायिनमत्यर्थं संशितं वा द्विजोत्तमम् ॥ २९ ॥
अवमन्यमानो यान् याति वृद्धान् साधून् गुरूंस्तथा।
स्पृशतो ब्राह्मणं गां च पादेनाग्निं च या भवेत्॥३०॥
याऽप्सु श्लेष्म पुरीषं च मूत्रं वा मुञ्चतां गतिः।
तां गच्छेयं गतिं कष्टां न चेद्धन्यां जयद्रथम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंका स्वाध्याय अथवा अत्यन्त कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणकी तथा बड़े-बूढ़ों, साधु-पुरुषों और गुरुजनोंकी अवहेलना करनेवाला पुरुष जिन नरकोंमें पड़ता है, ब्राह्मण, गौ और अग्निको पैरसे छूनेवाले पुरुषकी जो गति होती है तथा जलमें थूक अथवा मल-मूत्र छोड़नेवालोंकी जो दुर्गति होती है, यदि मैं कल जयद्रथको न मारूँ तो उसी कष्टदायिनी गतिको मैं भी प्राप्त करूँ॥२९—३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नग्नस्य स्नायमानस्य या च वन्ध्यातिथेर्गतिः।
उत्कोचिनां मृषोक्तीनां वञ्चकानां च या गतिः ॥ ३२ ॥
आत्मापहारिणां या च या च मिथ्याभिशंसिनाम्।
भृत्यैः संदिश्यमानानां पुत्रदाराश्रितैस्तथा ॥ ३३ ॥
असंविभज्य क्षुद्राणां या गतिर्मिष्टमश्नताम्।
तां गच्छेयं गतिं घोरां न चेद्धन्यां जयद्रथम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

नग्नस्य स्नायमानस्य या च वन्ध्यातिथेर्गतिः।
उत्कोचिनां मृषोक्तीनां वञ्चकानां च या गतिः ॥ ३२ ॥
आत्मापहारिणां या च या च मिथ्याभिशंसिनाम्।
भृत्यैः संदिश्यमानानां पुत्रदाराश्रितैस्तथा ॥ ३३ ॥
असंविभज्य क्षुद्राणां या गतिर्मिष्टमश्नताम्।
तां गच्छेयं गतिं घोरां न चेद्धन्यां जयद्रथम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नंगे नहानेवाले तथा अतिथिको भोजन दिये बिना ही उसे असफल लौटा देनेवाले पुरुषकी जो गति होती है; घूसखोर, असत्यवादी तथा दूसरोंके साथ वंचना (ठगी) करनेवालोंकी जो दुर्गति होती है; आत्माका हनन करनेवाले, दूसरोंपर झूठे दोषारोपण करनेवाले, भृत्योंकी आज्ञाके अधीन रहनेवाले तथा स्त्री, पुत्र एवं आश्रित जनोंके साथ यथायोग्य बँटवारा किये बिना ही अकेले मिष्टान्न उड़ानेवाले क्षुद्र पुरुषोंको जिस घोर नारकी गतिकी प्राप्ति होती है, यदि मैं कल जयद्रथको न मारूँ तो मुझे भी वही दुर्गति प्राप्त हो॥३२—३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संश्रितं चापि यस्त्यक्त्वा साधुं तद्वचने रतम्।
न बिभर्ति नृशंसात्मा निन्दते चोपकारिणम् ॥ ३५ ॥
अर्हते प्रातिवेश्याय श्राद्धं यो न ददाति च।
अनर्हेभ्यश्च यो दद्याद् वृषलीपतये तथा ॥ ३६ ॥
मद्यपो भिन्नमर्यादः कृतघ्नो भर्तृनिन्दकः।
तेषां गतिमियां क्षिप्रं न चेद्धन्यां जयद्रथम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

संश्रितं चापि यस्त्यक्त्वा साधुं तद्वचने रतम्।
न बिभर्ति नृशंसात्मा निन्दते चोपकारिणम् ॥ ३५ ॥
अर्हते प्रातिवेश्याय श्राद्धं यो न ददाति च।
अनर्हेभ्यश्च यो दद्याद् वृषलीपतये तथा ॥ ३६ ॥
मद्यपो भिन्नमर्यादः कृतघ्नो भर्तृनिन्दकः।
तेषां गतिमियां क्षिप्रं न चेद्धन्यां जयद्रथम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नृशंस स्वभावका मनुष्य शरणागत, साधुपुरुष तथा आज्ञापालनमें तत्पर रहनेवाले पुरुषको त्यागकर उसका भरण-पोषण नहीं करता, जो उपकारीकी निन्दा करता है, पड़ोसमें रहनेवाले योग्य व्यक्तिको श्राद्धका दान नहीं देता और अयोग्य व्यक्तियोंको तथा शूद्राके स्वामी ब्राह्मणको देता है, जो मद्य पीनेवाला, धर्म-मर्यादाको तोड़नेवाला, कृतघ्न और स्वामीकी निन्दा करनेवाला है—इन सभी लोगोंको जो दुर्गति प्राप्त होती है, उसीको मैं भी शीघ्र ही प्राप्त करूँ; यदि कल जयद्रथका वध न कर डालूँ॥३५—३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुञ्जानानां तु सव्येन उत्सङ्गे चापि खादताम्।
पालाशमासनं चैव तिन्दुकैर्दन्तधावनम् ॥ ३८ ॥
ये चावर्जयतां लोकाः स्वपतां च तथोषसि।

मूलम्

भुञ्जानानां तु सव्येन उत्सङ्गे चापि खादताम्।
पालाशमासनं चैव तिन्दुकैर्दन्तधावनम् ॥ ३८ ॥
ये चावर्जयतां लोकाः स्वपतां च तथोषसि।

अनुवाद (हिन्दी)

जो बायें हाथसे भोजन करते हैं, गोदमें रखकर खाते हैं, जो पलासके आसनका और तेंदूकी दातुनका त्याग नहीं करते तथा उषःकालमें सोते हैं, उनको जो नरकलोक प्राप्त होते हैं (वे ही मुझे भी मिले; यदि मैं जयद्रथको न मार डालूँ)॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीतभीताश्च ये विप्रा रणभीताश्च क्षत्रियाः ॥ ३९ ॥
एककूपोदकग्रामे वेदध्वनिविवर्जिते ।
षण्मासं तत्र वसतां तथा शास्त्रं विनिन्दताम् ॥ ४० ॥
दिवामैथुनिनां चापि दिवसेषु च शेरते।
अगारदाहिनां चैव गरदानां च ये मताः ॥ ४१ ॥
अग्न्यातिथ्यविहीनाश्च गोपानेषु च विघ्नदाः।
रजस्वलां सेवयन्तः कन्यां शुल्केन दायिनः ॥ ४२ ॥
या च वै बहुयाजिनां ब्राह्मणानां श्ववृत्तिनाम्।
आस्यमैथुनिकानां च ये दिवा मैथुने रताः ॥ ४३ ॥
ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुत्य यो वै लोभाद् ददाति न।
तेषां गतिं गमिष्यामि श्वो न हन्यां जयद्रथम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

शीतभीताश्च ये विप्रा रणभीताश्च क्षत्रियाः ॥ ३९ ॥
एककूपोदकग्रामे वेदध्वनिविवर्जिते ।
षण्मासं तत्र वसतां तथा शास्त्रं विनिन्दताम् ॥ ४० ॥
दिवामैथुनिनां चापि दिवसेषु च शेरते।
अगारदाहिनां चैव गरदानां च ये मताः ॥ ४१ ॥
अग्न्यातिथ्यविहीनाश्च गोपानेषु च विघ्नदाः।
रजस्वलां सेवयन्तः कन्यां शुल्केन दायिनः ॥ ४२ ॥
या च वै बहुयाजिनां ब्राह्मणानां श्ववृत्तिनाम्।
आस्यमैथुनिकानां च ये दिवा मैथुने रताः ॥ ४३ ॥
ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुत्य यो वै लोभाद् ददाति न।
तेषां गतिं गमिष्यामि श्वो न हन्यां जयद्रथम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण होकर सर्दीसे और क्षत्रिय होकर युद्धसे डरते हैं, जिस गाँवमें एक ही कुएँका जल पीया जाता हो और जहाँ कभी वेदमन्त्रोंकी ध्वनि न हुई हो, ऐसे स्थानोंमें जो छः महीनोंतक निवास करते हैं, जो शास्त्रकी निन्दामें तत्पर रहते, दिनमें मैथुन करते और सोते हैं, जो दूसरोंके घरोंमें आग लगाते और दूसरोंको जहर दे देते हैं, जो कभी अग्निहोत्र और अतिथि-सत्कार नहीं करते तथा गायोंके पानी पीनेमें विघ्न डालते हैं, जो रजस्वला स्त्रीका सेवन करते और शुल्क लेकर कन्या देते हैं, जो बहुतोंकी पुरोहिती करते, ब्राह्मण होकर सेवा-वृत्तिसे जीविका चलाते, मुँहमें मैथुन करते अथवा दिनमें स्त्री-सहवास करते हैं, जो ब्राह्मणको कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके फिर लोभवश नहीं देते हैं, उन सबको जिन लोकों अथवा दुर्गतिकी प्राप्ति होती है, उन्हींको मैं भी प्राप्त होऊँ; यदि कलतक जयद्रथको न मार डालूँ॥३९—४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मादपेता ये चान्ये मया नात्रानुकीर्तिताः।
ये चानुकीर्तितास्तेषां गतिं क्षिप्रमवाप्नुयाम् ॥ ४५ ॥
यदि व्युष्टामिमां रात्रिं श्वो न हन्यां जयद्रथम्।

मूलम्

धर्मादपेता ये चान्ये मया नात्रानुकीर्तिताः।
ये चानुकीर्तितास्तेषां गतिं क्षिप्रमवाप्नुयाम् ॥ ४५ ॥
यदि व्युष्टामिमां रात्रिं श्वो न हन्यां जयद्रथम्।

अनुवाद (हिन्दी)

ऊपर जिन पापियोंका नाम मैंने गिनाया है तथा जिन दूसरे पापियोंका नाम नहीं गिनाया है, उनको जो दुर्गति प्राप्त होती है, उसीको शीघ्र ही मैं भी प्राप्त करूँ; यदि यह रात बीतनेपर कल जयद्रथको न मार डालूँ॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां चाप्यपरां भूयः प्रतिज्ञां मे निबोधत ॥ ४६ ॥
यद्यस्मिन्नहते पापे सूर्योऽस्तमुपयास्यति ।
इहैव सम्प्रवेष्टाहं ज्वलितं जातवेदसम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

इमां चाप्यपरां भूयः प्रतिज्ञां मे निबोधत ॥ ४६ ॥
यद्यस्मिन्नहते पापे सूर्योऽस्तमुपयास्यति ।
इहैव सम्प्रवेष्टाहं ज्वलितं जातवेदसम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब आपलोग पुनः मेरी यह दूसरी प्रतिज्ञा भी सुन लें। यदि इस पापी जयद्रथके मारे जानेसे पहले ही सूर्यदेव अस्ताचलको पहुँच जायँगे तो मैं यहीं प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुरसुरमनुष्याः पक्षिणो वोरगा वा
पितृरजनिचरा वा ब्रह्मदेवर्षयो वा।
चरमचरमपीदं यत्परं चापि तस्मात्
तदपि ममरिपुं तं रक्षितुं नैव शक्ताः ॥ ४८ ॥

मूलम्

असुरसुरमनुष्याः पक्षिणो वोरगा वा
पितृरजनिचरा वा ब्रह्मदेवर्षयो वा।
चरमचरमपीदं यत्परं चापि तस्मात्
तदपि ममरिपुं तं रक्षितुं नैव शक्ताः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, असुर, मनुष्य, पक्षी, नाग, पितर, निशाचर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, यह चराचर जगत् तथा इसके परे जो कुछ है, वह—ये सब मिलकर भी मेरे शत्रु जयद्रथकी रक्षा नहीं कर सकते॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि विशति रसातलं तदग्र्यं
वियदपि देवपुरं दितेः पुरं वा।
तदपि शरशतैरहं प्रभाते
भृशमभिमन्युरिपोः शिरोऽभिहर्ता ॥ ४९ ॥

मूलम्

यदि विशति रसातलं तदग्र्यं
वियदपि देवपुरं दितेः पुरं वा।
तदपि शरशतैरहं प्रभाते
भृशमभिमन्युरिपोः शिरोऽभिहर्ता ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि जयद्रथ पातालमें घुस जाय या उससे भी आगे बढ़ जाय अथवा आकाश, देवलोक या दैत्योंके नगरमें जाकर छिप जाय तो भी मैं कल अपने सैकड़ों बाणोंसे अभिमन्युके उस घोर शत्रुका सिर अवश्य काट लूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा विचिक्षेप गाण्डीवं सव्यदक्षिणम्।
तस्य शब्दमतिक्रम्य धनुःशब्दोऽस्पृशद् दिवम् ॥ ५० ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा विचिक्षेप गाण्डीवं सव्यदक्षिणम्।
तस्य शब्दमतिक्रम्य धनुःशब्दोऽस्पृशद् दिवम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर अर्जुनने दाहिने और बायें हाथसे भी गाण्डीव धनुषकी टंकार की। उसकी ध्वनि दूसरे शब्दोंको दबाकर सम्पूर्ण आकाशमें गूँज उठी॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनेन प्रतिज्ञाते पाञ्चजन्यं जनार्दनः।
प्रदध्मौ तत्र संक्रुद्धो देवदत्तं च फाल्गुनः ॥ ५१ ॥

मूलम्

अर्जुनेन प्रतिज्ञाते पाञ्चजन्यं जनार्दनः।
प्रदध्मौ तत्र संक्रुद्धो देवदत्तं च फाल्गुनः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेनेपर भगवान् श्रीकृष्णने भी अत्यन्त कुपित होकर पांचजन्य शंख बजाया। इधर अर्जुनने भी देवदत्त नामक शंखको फूँका॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पाञ्चजन्योऽच्युतवक्त्रवायुना
भृशं सुपूर्णोदरनिःसृतध्वनिः ।
जगत् सपातालवियद्दिगीश्वरं
प्रकम्पयामास युगात्यये यथा ॥ ५२ ॥

मूलम्

स पाञ्चजन्योऽच्युतवक्त्रवायुना
भृशं सुपूर्णोदरनिःसृतध्वनिः ।
जगत् सपातालवियद्दिगीश्वरं
प्रकम्पयामास युगात्यये यथा ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके मुखकी वायुसे भीतरी भाग भर जानेके कारण अत्यन्त भयंकर ध्वनि प्रकट करनेवाले पांचजन्यने आकाश, पाताल, दिशा और दिक्पालोंसहित सम्पूर्ण जगत्‌को कम्पित कर दिया, मानो प्रलयकाल आ गया हो॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वादित्रघोषाश्च प्रादुरासन् सहस्रशः।
सिंहनादश्च पाण्डूनां प्रतिज्ञाते महात्मना ॥ ५३ ॥

मूलम्

ततो वादित्रघोषाश्च प्रादुरासन् सहस्रशः।
सिंहनादश्च पाण्डूनां प्रतिज्ञाते महात्मना ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामना अर्जुनने जब उक्त प्रतिज्ञा कर ली, उस समय पाण्डवोंके शिविरमें अनेक बाजोंके हजारों शब्द और पाण्डव वीरोंका सिंहनाद भी सब ओर गूँजने लगा॥५३॥

मूलम् (वचनम्)

(भीम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिज्ञोद्भवशब्देन कृष्णशङ्खस्वनेन च ।
निहतो धार्तराष्ट्रोऽय सानुबन्धः सुयोधनः॥

मूलम्

प्रतिज्ञोद्भवशब्देन कृष्णशङ्खस्वनेन च ।
निहतो धार्तराष्ट्रोऽय सानुबन्धः सुयोधनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनने कहा— अर्जुन! तुम्हारी प्रतिज्ञाके शब्दसे और भगवान् श्रीकृष्णके इस शंखनादसे मुझे विश्वास हो गया कि यह धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन अपने सगे-सम्बन्धियोंसहित अवश्य मारा जायगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ मृदिततमाग्र्यदाममाल्यं
तव सुतशोकमयं च रोषजातम्।
व्यपनुदति महाप्रभावमेत-
न्नरवर वाक्यमिदं महार्थमिष्टम् ॥)

मूलम्

अथ मृदिततमाग्र्यदाममाल्यं
तव सुतशोकमयं च रोषजातम्।
व्यपनुदति महाप्रभावमेत-
न्नरवर वाक्यमिदं महार्थमिष्टम् ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! तुम्हारा यह वचन महान् अर्थसे युक्त और मुझे अत्यन्त प्रिय है। यह अत्यन्त प्रभावशाली वाक्य तुम्हारे पुत्रशोकमय उस रोष-समूहका निवारण कर रहा है, जिसने तुम्हारे गलेके सुन्दर पुष्पहारको मसल डाला था।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनप्रतिज्ञायां त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अर्जुनप्रतिज्ञाविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ५७ श्लोक हैं।)